तरबूज की खेती करने वाले किसानों के लिए आज हम तरबूज की टॉप 5 उन्नत किस्मों का जानकारी लेकर आए हैं, जिसके एक फल का औसतन भार करीब 8kg तक होता है।
जो कि प्रति हेक्टेयर 200-250 क्विंटल उत्पादन देने में सक्षम है। तरबूज को जायद सीजन की मुख्य फसल माना जाता है। भारत के विभिन्न राज्यों में तरबूज की खेती की जाती है।
सामान्य तोर पर गर्मियों के मौसम में तरबूज की मांग काफी ज्यादा होती है। ऐसे में अगर किसान समय रहते अपने खेत में तरबूज की खेती करते हैं, तो वह कम समय में ही अधिक से अधिक आय कर सकते हैं।
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हम तरबूज की जिन उन्नत किस्मों की बात कर रहे हैं, उनमें शुगर बेबी, अर्का ज्योति, आशायी यामातो, डब्यू.19 और पूसा बेदाना किस्म शामिल है।
तरबूज की यह उन्नत किस्म 95-100 दिनों के समयांतराल में पककर तैयार हो जाती है। इसके एक फल का औसत वजन लगभग 4-6 किलोग्राम तक पाया जाता है।
वहीं, तरबूज की शुगर बेबी किस्म के फलों में बीज काफी कम पाए जाते हैं। किसान इस किस्म से प्रति हेक्टेयर 200-250 क्विंटल तक उत्पादन हांसिल कर सकते हैं।
इस किस्म के तरबूज के फल का वजन 6-8 किलोग्राम होता है। किसानों के लिए तरबूज की अर्का ज्योति किस्म बेहद लाभदायक होती है।
क्योंकि, इसके फलों का भंडारण काफी बड़े पैमाने पर होता है। इसके अतिरिक्त किसान इस किस्म से प्रति हेक्टेयर तकरीबन 350 क्विंटल तक पैदावार उठा सकते हैं।
तरबूज की आशायी यामातो किस्म जापानी किस्म है। इसके फलों का औसत भार 7-8 किलोग्राम तक होता है। वहीं, इस किस्म के फलों का छिलका हरा और धारीदार होता है।
इस किस्म के तरबूज में बीज काफी छोटे पाए जाते हैं। किसान आशायी यामातो किस्म से प्रति हेक्टेयर 225 क्विंटल तक उपज प्राप्त कर सकते हैं।
तरबूज की इस किस्म की सबसे बड़ी खासियत यह है, कि यह उच्च तापमान भी बड़ी सुगमता से सहन कर सकती है। डब्यू.19 किस्म के तरबूज का स्वाद बेहद मीठा होता है।
तरबूज की यह किस्म खेत में 75-80 दिनों के अंदर तैयार हो जाती है। इस किस्म से किसान प्रति हेक्टेयर 46-50 टन तक पैदावार हांसिल कर सकते हैं।
]]>किसान भाई वर्तमान में अपनी रबी फसलों की कटाई और प्रबंधन में जुटे हुए है। अप्रैल महीने के अंत तक तकरीबन सभी फसलों की कटाई पूर्ण हो जाएगी। वहीं, जायद फसलों का सीजन भी अब शुरू हो चुका है।
ऐसे में किसान कटाई संपन्न होने के बाद जायद फसलों में से मूंग की खेती कर सकते हैं। अगर आप भी मूंग की खेती करते हैं या इस बार करने की सोच रहे हैं तो ये खबर आप ही के लिए है।
दरअसल, मूंग की खेती के लिए राज्य सरकार 50% प्रतिशत तक अनुदान दे रही है। आप भी इस अनुदान का फायदा उठाकर शानदार मुनाफा अर्जित कर सकते हैं।
मूंग की खेती करने वाले किसानों के लिए अच्छी खबर यह है, कि योगी सरकार की तरफ से इसकी खेती को बढ़ावा देने के लिए सब्सिड़ी प्रदान की जा रही है। अब ऐसे में उत्तर प्रदेश के किसान इसका लाभ प्राप्त कर सकते हैं।
यूपी सरकार मूंग के बीजों पर 50% प्रतिशत सब्सिडी प्रदान कर रही है। अब जैसे मान लीजिए मूंग के एक किलो बीज का मूल्य 80 रुपए है, तो किसान को 40 रुपए में मूंग का बीज उपलब्ध कराया जाएगा।
इस प्रकार किसान मूंग के प्रमाणिक उन्नत बीज आधी कीमत पर भी हांसिल कर सकते हैं। उत्तर प्रदेश के किसानों को अनुदान पर मूंग के बीज पाने के लिए ऑनलाइन आवेदन करना होगा।
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यह अनुदान किसानों को दलहन योजना के अंतर्गत प्रदान किया जाएगा। साथ ही, अनुदान की धनराशि डीबीटी (DBT) के जरिए किसानों के खाते में हस्तांतरित की जाएगी। इसके लिए किसान को बीज खरीदने से पहले विभाग की वेबसाइट पर अपना पंजीकरण कराना होगा।
अगर आप भी उत्तर प्रदेश के किसान हैं, तो आप मूंग की खेती के लिए 50% प्रतिशत अनुदान (Subsidy) पर मूंग के बीजों की खरीदकर लाभांवित हो सकते हैं।
इसके लिए आपको सबसे पहले राजकीय कृषि विभाग की आधिकारिक वेबसाइट पोर्टल agriculture.up.gov.in पर अपना पंजीकरण करना होगा। साथ ही, किसानों को यहां से ही बीज की खरीदारी करनी होगी, जो किसान पहले से पंजीकृत हैं उनको पुनः पंजीकरण कराने की आवश्यकता नहीं है।
]]>गुलाब यानी रोज एक ऐसा फूल है, जिसको प्रेमी अपनी प्रेमिका को प्रेम स्वरुप भेंट करता है। अब इससे आप इस फूल की संसार में महत्ता और विशेषता को समझ सकते हैं।
गुलाब का फूल दिखने में आकर्षक और सुन्दर होने के साथ-साथ बहुत सारे औषधीय गुणों से भी भरपूर होता है। गुलाब को सबसे पुराना सुगन्धित फूल माना जाता है। इन्हीं सब वजहों के चलते बाजार में इसकी हमेशा मांग बनी रहती है। इसलिए भारत के विभिन्न राज्यों में किसान गुलाब की खेती (Rose Cultivation) करते हैं।
सामान्य तौर पर गुलाब का पौधा ऊंचाई में 4 से 6 फुट का होता है। इसके तने में असमान कांटे लगे होते हैं। इसके साथ ही गुलाब की 5 पत्तियां मिली हुई होती हैं।
गुलाब का फल अंडाकार होता है, तो वहीं इसका तना कांटेदार, पत्तियां बारी-बारी से घेरे में होती हैं। इसकी पत्तियों के किनारे दांतेदार होते हैं। गुलाब की खेती उत्तर और दक्षिण भारत के मैदानी व पहाड़ी क्षेत्रों में जाड़े के दिनों में की जाती है।
लेकिन, आज हम इस लेख में एक सफल किसान रविन्द्र सिंह तेवतिया से आपको रूबरू कराएंगे जो कि उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर के मूल निवासी हैं। आइए जानते हैं, किसान रविंद्र सिंह तेवतिया ने मार्च और अप्रैल में गुलाब की खेती (Rose Cultivation) करने वाले किसानों को किन-किन बातों का विशेष ध्यान रखने की सलाह दी है।
रविन्द्र सिंह तेवतिया का कहना है, कि जब मौसम में बदलाव होता है यानी सर्दी से गर्मी के मौसम में प्रवेश करते हैं, तब पौधे का विकास हो रहा होता है।
ऐसे में पौधे में बुवाई के बाद खरपतवार उग आती है। क्योंकि, बुवाई के बाद फसल को दैनिक सिंचाई की आवश्यकता होती है। इसलिए हर 1 से 2 महीने के बाद और फिर 3 से 4 महीने में खरपतवार को निकालना जरूरी होता है।
रविंद्र सिंह तेवतिया ने कहा, कि मौसमिक परिवर्तन के चलते कई बार गुलाब में विभिन्न तरह के कीट और रोगों का आक्रमण शुरू हो जाता है।
इसलिए इसके बचाव के लिए पौधों पर सही कीटनाशकों का छिड़काव करना बेहद जरूरी होता है। रविन्द्र सिंह ने बताया कि अक्सर गुलाब में थिप्स और माइट कीट का प्रकोप हो जाता है। इसलिए ऐसी स्थिति में कीटनाशक का इस्तेमाल करना चाहिए।
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कीट की रोकथाम के लिए गुलाब के खेत में सफाई बनाए रखें। साथ ही, ग्रसित पौधे के भागों को नष्ट कर दें, ताकि वह अधिक नुकसान ना पहुँचा सकें।
डाइमेथोएट 2 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल का 10 से 15 दिन के समयांतराल पर छिड़काव कर दें। वहीं, दीमक पर काबू करने के लिए हर पौधे की मिट्टी में 10 से 15 ग्राम फोरट डालना चाहिए।
गुलाब की खेती में फूल की एक या दो पंखुडियां खिल जाए, तो फूल को पौधे से अलग कर देना चाहिए। इसके लिए तेज धार वाले चाकू या ब्लेड का उपयोग करना चाहिए।
फूल की कटाई के शीघ्र बाद उसको पानी से भरे बर्तन में रख दें। इसके बाद कोल्ड स्टोरेज में रख दें। इसका तापमान लगभग 10 डिग्री तक होना चाहिए। इसके बाद फूलों की ग्रेडिंग की जाती है, जिसे कोल्ड स्टोरेज में ही पूरा किया जाता है। इसको फूलों की छटाई भी कहा जाता है।
रविन्द्र सिंह तेवतिया का कहना है, कि गुलाब की खेती में फूलों को बढ़ाने के लिए बर्ड कैप का उपयोग करना चाहिए। इससे आप फूलों को तकरीबन 4 दिनों तक सुरक्षित व संरक्षित रख सकते हैं।
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गुलाब की खेती से मुनाफा कमाना सीजन पर निर्भर करता है। रविन्द्र सिंह तेवतिया ने बताया कि मौजूदा समय में फूल 40 से 120 रुपए प्रति किलो के हिसाब से बिक रहा है, जो कि अप्रैल में 100 से 150 रुपए प्रति किलो तक पहुंच जाएगा।
बतादें, कि अप्रैल में शादी का सीजन शुरू हो जाता है। इसके अलावा फरवरी में फूलों की कीमत 500 रुपए प्रति किलो तक थी। इस तरह किसान गुलाब की खेती से अच्छा मुनाफा कमा सकते हैं। सरकार गुलाब के फूलों की खेती को प्रोत्साहन देने के लिए अनुदान भी प्रदान करती है।
]]>भारत एक कृषि प्रधान देश है। 1947 में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि क्षेत्र की भागीदारी 60% प्रतिशत थी, जो 2022-23 में घटकर 15% प्रतिशत ही रह गई है। नाबार्ड की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 10.07 करोड़ परिवार खेती पर आश्रित हैं।
यह संख्या भारत के कुल परिवारों का 48% प्रतिशत है। भारतीय कृषि की विडंबना यह है, कि आज भी किसान अपनी फसलों की सिंचाई के लिए बारिश के पानी पर निर्भर रहते हैं।
ऐसे में गर्मियों के मौसम में भी किसानों को अपनी फसलों की सिंचाई के लिए गंभीर चुनौतियों से जूझना पड़ता है।
दरअसल, किसान अप्रैल में गेहूं और रबी फसलों की कटाई शुरू करते हैं। कटाई खत्म होते-होते गर्मी अपनी चरम सीमा पर पहुंच जाती है। लू के चलते खेतों में धूल उड़ने लग जाती है।
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इसके साथ ही जलस्तर भी काफी हद तक नीचे चला जाता है, जिससे पानी की किल्लत हो जाती है। ऐसे में सिंचाई के अभाव की वजह से बहुत सारे किसान अप्रैल से जून के बीच कोई खेती नहीं करते हैं। किसानों की उन्नति और सकल उत्पादन पर भी काफी प्रभाव पड़ता है।
अगर हम कृषि विशेषज्ञों के दिशा-निर्देशन की बात करें, तो गर्मियों का मौसम जायद की फसलों के लिए काफी प्रतिकूल माना जाता है। ऐसे में किसान मोटे अनाज सांवा, कोदो, रागी, पटुवा के साथ ही सब्जियों में बैंगन, शिमला मिर्च, तोरई कद्दू, लौकी, तरबूज, खीरा और खरबूजा की खेती कर सकते हैं।
मूंग और उड़द की दलहनी फसलों की खेती में भी पानी की कम खपत और आवश्यकता होती है। किसान इन फसलों की खेती 30 से 40 सेंटीमीटर वर्षा वाले इलाकों में भी कर सकते हैं। इन फसलों की बाजार में मांग भी काफी अधिक होती है।
कृषि विशेषज्ञों का कहना है, कि गर्मियों के मौसम में मिलेट्स के साथ ही सब्जियों की खेती करके किसान कम लागत में अधिक मुनाफा उठा सकते हैं। इन फसलों की सिंचाई के लिए पानी की कम आवश्यकता पड़ती है।
बतादें, कि गर्मियों का मौसम इन फसलों के लिए अत्यंत अनुकूल माना जाता है। किसान सब्जियों में करेला और टमाटर की खेती भी कर सकते हैं। इसमें भी सिंचाई के लिए कम पानी की आवश्यकता पड़ेगी।
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बाजार में इन सब्जियों की मांग भी ज्यादा रहती है, जिससे वह अच्छा मुनाफा भी कमा सकते हैं।
रायबरेली जनपद में किसान बड़ी संख्या में सब्जियों की खेती पर ही निर्भर हैं। उनका कहना है, कि रायबरेली के दक्षिणी और पूर्वी क्षेत्र में जलस्तर बहुत कम है। वहां के किसान सब्जियों की खेती यानी की बागवानी की खेती पर ही आश्रित रहते हैं।
विशेष बात यह है, कि धान- गेहूं की तुलना में सब्जियों को बहुत ही कम सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। ऐसे में पानी की किल्लत से भी किसानों को जूझना नहीं पड़ेगा।
]]>उड़द एक दलहन फसलों के अंतर्गत आने वाली फसल है, जिसकी खेती भारत के राजस्थान, बिहार, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के सिंचित इलाकों में की जाती है।
यह एक अल्प समयावधी की फसल है, जो कि 60-65 दिनों के समयांतराल में पक जाती है। इसके दानों में 60% प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट, 24 फीसदी प्रोटीन तथा 1.3 फीसदी वसा पाया जाता है।
आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि उड़द की खेती के लिए हल्की रेतीली, दोमट मृदा उपयुक्त मानी जाती है। वहीं, समुचित जल निकासी की बेहतरीन व्यवस्था होना चाहिए। वहीं, मिट्टी का पीएच मान 6.5 से 7.8 के बीच होना चाहिए।
इसकी बुवाई के लिए खेत की दो-तीन जुताई बारिश से पहले करनी चाहिए। वहीं, शानदार वर्षा होने के पश्चात बुवाई करनी चाहिए। ताकि फसल की बेहतर बढ़वार में सहायता मिल सके।
1) चितकबरा रोग प्रतिरोधी किस्में
वी.बी.जी-04-008, वी.बी.एन-6, माश-114, को.-06. माश-479, पंत उर्द-31, आई.पी.यू-02-43, वाबन-1, ए.डी.टी-4 एवं 5, एल.बी.जी-20 आदि।
2) खरीफ सीजन की किस्में
के.यू-309, के.यू-99-21, मधुरा मिनीमु-217, ए.के.यू-15 आदि।
3) रबी सीजन की किस्में
के.यू-301, ए.के.यू-4, टी.यू.-94-2, आजाद उर्द-1, मास-414, एल.बी.जी-402, शेखर-2 आदि।
4) शीघ्र पकने वाली किस्में
प्रसाद, पंत उर्द-40 तथा वी.बी.एन-5।
खरीफ सीजन में जून के अंतिम सप्ताह में पर्याप्त बारिश के उपरांत उड़द की बुवाई करनी चाहिए। इसके लिए कतार से कतार की दूरी 30 सेंटीमीटर, पौधों से पौधों की दूरी 10 सेंटीमीटर रखनी चाहिए।
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वहीं, बीज को 4 से 6 सेंटीमीटर की गहराई पर बोएं। वहीं, गर्मी के दिनों में उड़द की बुवाई फरवरी के तीसरे सप्ताह से अप्रैल के पहले सप्ताह तक की जा सकती है।
खरीफ सीजन के लिए प्रति हेक्टेयर 12 से 15 किलोग्राम बीज पर्याप्त होता है। वहीं यदि आप गर्मी में उड़द की खेती कर रहे हैं, तो प्रति हेक्टेयर 20 से 25 किलोग्राम बीज की मात्रा लेनी पड़ेगी।
उड़द की बुवाई से पहले इसके बीज को 2 ग्राम थायरम और 1 ग्राम कार्बेन्डाजिम के मिश्रण से प्रति किलोग्राम बीज को उपचारित करना चाहिए।
इसके बाद बीज को इमिडाक्लोप्रिड 70 डब्ल्यूएस की 7 ग्राम मात्रा लेकर प्रति किलोग्राम बीज को शोधित करना चाहिए। आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि बीज शोधन को कल्चर से दो तीन दिन पहले ही कर लेना चाहिए।
इसके पश्चात 250 ग्राम राइजोबियम कल्चर से बीजों को उपचारित किया जाता है। इसके लिए 50 ग्राम शक्कर गुड़ को आधा या एक लीटर पानी में अच्छी तरह से उबालकर ठंडा कर लें।
फिर इसमें राइजोबियम कल्चर डालकर सही तरीके से हिला लें। अब 10 किलोग्राम बीज की मात्रा को इस घोल से शानदार ढ़ंग से उपचारित करें। उपचारित बीज को 8 से 10 घंटे तक छाया में रखने के पश्चात ही बिजाई करनी चाहिए।
उड़द की खेती के लिए प्रति हेक्टेयर नाइट्रोजन 15 से 20 किलोग्राम, फास्फोरस 40 से 50 किलोग्राम तथा पोटाश 30 से 40 किलोग्राम खेत की अंतिम जुताई के समय डालनी चाहिए। 100 किलोग्राम डीएपी से नाइट्रोजन तथा फास्फोरस की पूर्ति हो जाती है।
सामान्य तौर पर वर्षाकालीन उड़द की खेती में सिंचाई करने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। परंतु, फली बनते समय खेत में पर्याप्त नमी नहीं है तो एक सिंचाई कर देनी चाहिए।
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वहीं, जायद के सीजन में उड़द की खेती के लिए 3 से 4 सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। इसके लिए पलेवा करने के पश्चात बुवाई की जाती है। फिर 2 से 3 सिंचाई 15 से 20 दिन के समयांतराल पर करनी चाहिए। साथ ही, इस बात का विशेष ध्यान रखें कि फसल में फूल बनते वक्त पर्याप्त नमी होनी चाहिए।
60 से 65 दिनों बाद जब उड़द की फलियां 70 से 80 फीसद पक जाए तब हंसिया से इसकी कटाई की जाती है। इसके उपरांत फसल को 3 से 4 धूप में अच्छी तरह सुखाकर थ्रेसर की सहायता से बीज और भूसे को अलग कर लिया जाता है।
उड़द की खेती से प्रति हेक्टेयर 12 से 15 क्विंटल तक उत्पादन बड़ी सहजता से प्राप्त हो जाता है। उत्पादन को धूप में बेहतर तरीके से सुखाने के उपरांत जब बीजों में 8 से 9 फीसद नमी बच जाए तब सही तरीके से भंडारण करना चाहिए।
]]>भारत भर में बहुत सारे किसान आजकल परंपरागत खेती को छोड़कर नकदी फसलों की खेती कर रहे हैं। विशेषज्ञों का कहना है, कि महंगाई के इस युग में किसानों को मूंगफली जैसी फसलों की खेती पर अधिक बल देना चाहिए।
आज हम किसानों को मूंगफली की खेती के बारे में जानकारी दे रहे हैं। मूंगफली की खेती से अधिक मुनाफा कमाने के लिए आपको इसकी उन्नत किस्म चुनने से लेकर फसल की बुवाई के आधुनिक तरीके एवं अन्य विधियों की जानकारी प्रदान करेंगे।
किसान भाई यदि अपने खेत में मूंगफली की फसल को उगाना चाहते हैं, तो इसके लिए यह जानना बेहद जरूरी है, कि आपके इलाके की जलवायु मूंगफली की फसल के लिए अनुकूल है या नहीं ?
मूंगफली भारत की महत्वपूर्ण तिलहन फसल है। मूंगफली की खेती भारत के तकरीबन सभी राज्यों में होती है। परंतु, जहां उपयुक्त जलवायु होती है, वहां इसकी फसल शानदार और दाने पुष्ट होते हैं।
सूर्य की ज्यादा रोशनी और उच्च तापमान मूंगफली के पौधे के विकास के लिए उपयुक्त माने जाते हैं। कृषक उत्तम पैदावार के लिए कम से कम 30 डिग्री सेल्सियस तापमान होना जरूरी है।
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मूंगफली की खेती वर्षभर की जा सकती है। परंतु, खरीफ सीजन की फसल के लिए जून महीने के दूसरे पखवाड़े तक इसकी बुवाई की जा सकती है।
मूंगफली की फसल उगाने के लिए खेत की तीन से चार बार जुताई करनी चाहिए। इसके लिए मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई सही होती है। मूंगफली के खेत में नमी बरकरार रखने के लिए जुताई के बाद पाटा लगाना अति आवश्यक है।
इससे मिट्टी में नमी लंबे समय तक बनी रहती है। खेती की तैयारी करने के समय 2.5 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से जिप्सम का प्रयोग करें।
मूंगफली की कुछ उन्नत किस्में जैसे कि आर.जी. 425, 120-130, एमए 10 125-130, एम-548 120-126, टीजी 37ए 120-130, जी 201 110-120 प्रमुख हैं।
इनके अलावा मूंगफली की अन्य किस्में जैसे कि एके 12, -24, जी जी 20, सी 501, जी जी 7, आरजी 425, आरजे 382 आदि भी अच्छा फसल देती हैं।
मूंगफली की बुवाई के समय बहुत सारी बातों का ध्यान रखना आवश्यक होता है। गेंहू की कटाई के बाद अप्रैल के आखिर में मूंगफली की बुवाई की जाती है। वहीं, कुछ जगहों पर 15 जून से 15 जुलाई के मध्य मूंगफली की बुवाई की जाती है।
बीज की बुवाई से पहले 3 ग्राम थायरम या 2 ग्राम मैंकोजेब दवा प्रति किलो बीज के हिसाब से उपयोग किया जाना चाहिए। इस दवाई के प्रयोग से बीज में लगने वाले रोगों से बचाया जा सकता है और इससे मूंगफली बीज का अंकुरण भी अच्छा होता है।
मूंगफली की खेती में खरपतवार नियंत्रण करना अत्यंत आवश्यक होता है। खर-पतवार ज्यादा होने से फसल पर काफी बुरा प्रभाव पड़ता है। बुवाई के लगभग 3 से 6 सप्ताह के बीच विभिन्न प्रकार की घास निकलने लगती है।
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कुछ उपाय या दवा के इस्तेमाल से आप सुगमता से इस पर काबू कर सकते हैं। अगर आपने खरपतवार का प्रबंधन नहीं किया तो 30 से 40 प्रतिशत फसल बर्बाद हो जाती है।
मूंगफली की खेती में किसानों को 40,000 रुपये प्रति हेक्टेयर के हिसाब से आय हो सकती है। सिंचित इलाकों में मूंगफली का औसत उत्पादन 20 से 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक हो सकता है।
अगर मूंगफली का सामान्य भाव 80 रुपये प्रति किलो रहा तो किसान को खर्चा निकाल कर तकरीबन 90,000 रुपये की बचत हो सकती है।
]]>किसान भाई रबी की फसलों की कटाई करने की तैयारी में है। अप्रैल महीने में किसान रबी की फसलों के प्रबंधन के बाद हाइब्रिड करेला उगाकर तगड़ा मुनाफा हासिल कर सकते हैं।
करेला की खेती सालभर में दो बार की जा सकती है। सर्दियों वाले करेला की किस्मों की बुआई जनवरी-फरवरी में की जाती है, जिसकी मई-जून में उपज मिलती है।
वहीं, गर्मियों वाली किस्मों की बुआई बरसात के दौरान जून-जुलाई में की जाती हैं, जिसकी उपज दिसंबर तक प्राप्त होती हैं।
समय के बदलाव के साथ-साथ कृषि क्षेत्र भी आधुनिक तकनीक और अधिक मुनाफा देने वाली फसलों की तरफ रुख कर रहे हैं। वर्तमान में किसान पारंपरिक फसलों की बजाय बागवानी फसलों की खेती पर अधिक अग्रसर हो रहे हैं।
अब किसान बड़े ही योजनाबद्ध तरीके से बाजार में दोहरे उद्देश्य को पूर्ण करने वाली सब्जियों का उत्पादन कर रहे हैं। क्योंकि, बाजार में इस प्रकार की सब्जियों की मांग बढ़ती जा रही है।
दरअसल, करेला की सब्जी की भोजन हेतु सब्जी होने के साथ-साथ एक अच्छी औषधी है।
तकनीकी युग में अधिकांश किसान व्यावसायिक खेती पर ज्यादा बल दे रहे हैं। विशेषकर, बहुत सारी कंपनियां किसानों को अग्रिम धनराशि देकर करेले की खेती करवा रही हैं।
इसके लिए लघु कृषक कम जमीन में मचान प्रणाली का इस्तेमाल कर खेती कर रहे हैं। इससे करेले की फसल में सड़ने-गलने का संकट अत्यंत कम होता जा रहा है। साथ ही, किसानों को कम लागत में शानदार पैदावार हांसिल हो रही है।
हाइब्रिड करेला की सदाबहार प्रजातियों की खेती के लिए मौसम की कोई भी सीमा नहीं है। इसलिए बहुत सारे किसान अलग-अलग इलाकों में हाइब्रिड करेला उगाकर शानदार धनराशि अर्जित कर रहे हैं।
इनके फल 12 से 13 सेमी लंबे और 80 से 90 ग्राम वजन के होते हैं। हाइब्रिड करेला की खेती करने पर एक एकड़ में 72 से 76 क्विंटल उत्पादन प्राप्त होता है, जो सामान्य से काफी ज्यादा है।
कृषि विशेषज्ञों के अनुसार, हाइब्रिड करेला कम मेहनत में देसी करेले की तुलना में अधिक उपज प्रदान करते हैं। वर्तमान में किसान भाई देसी करेले की खेती पर ज्यादा जोर दे रहे हैं।
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किसान भाई ध्यान रखें कि हाइब्रिड करेला के पौधे बड़ी तीव्रता से बढ़ते हैं। हाइब्रिड करेला के फल काफी बड़े होते हैं, जो कि सामान्य तौर पर नहीं होता है। इनकी संख्या काफी ज्यादा होती है। हालाँकि, हाइब्रिड करेला की खेती भी देसी करेला की तरह ही की जाती है।
जानकारी के लिए बतादें, कि हाइब्रिड करेला का रंग और स्वाद काफी अच्छा होता है, इसलिए इसके बीज काफी ज्यादा महंगे होते हैं।
कोयंबटूर लौंग और हाइब्रिड करेला की प्रिया किस्में उत्पादन में सबसे अग्रणी हैं। करेले की बेहतरीन और उत्तम किस्मों में कल्याणपुर सोना, बारहमासी करेला, प्रिया सीओ-1, एसडीयू-1, पंजाब करेला-1, पंजाब-14, सोलन हारा, सोलन, पूसा टू सीजनल, पूसा स्पेशल, कल्याणपुर, कोयंबटूर लॉन्ग और बारहमासी भी शामिल हैं। हाइब्रिड करेले की खेती करने के लिए खेत में अच्छी जल निकासी वाली बलुई दोमट मिट्टी सबसे बढ़िया रहती है।
]]>बेबी कॉर्न (शिशु मकई) वास्तव में मकई के पौधे का वह मुलायम भुट्टा है, जिसे उस अवस्था में तोड़ लिया जाता है, जब उसमें रेशमी रेशे या तो बिल्कुल ही नहीं आये होते हैं या फिर उनके आने की शुरूआत हुई होती है।
यही नहीं, इनमें निषेचन की क्रिया भी नहीं हुई होती है। इसे बेबी कॉर्न या शिशु मकई कहा जाता है। ये कच्चे भुट्टे ऊँगली या गुल्ली के आकार (1-3 सेमी. व्यास) के होते है और इसका स्वाद कुरकुरा एवं लाजबाव होता है।
इसका उपयोग बतौर सब्जी के रूप में भी किया जाता है। अपनी हल्की मिठास व कुरकुरापन के कारण इसकी लोकप्रियता भारत तथा अन्य देशों में लगातार बढ़ रही है।
बेबी कॉर्न खाने में अधिक पौष्टिक होता है। इसकी खेती में कीटनाशी रसायनों के छिड़काव की आवश्यकता नहीं पड़ती है, क्योंकि छिलके से पूरी तरह ढ़के होने के कारण इन पर कीटों का प्रकोप नहीं होता है। इसलिए स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से बेबी कॉर्न का सेवन लाभदायक है।
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बेबी कॉर्न के उत्पादन के लिए मकई की किसी भी किस्म का उपयोग कर सकते हैं किन्तु व्यावसायिक स्तर पर उत्पादन के लिए अर्ली कम्पोजिट व वी०एल०-42 उपयुक्त पाई गई है। इसके अतिरिक्त एच.एम.-4, आज़ाद कमल (संकुल), एम०ई०एच०-114, एम०ई०एच०-133, बी०एल०-16, गोल्डन बेवी, प्रकाश, केशरी और पी०एस०एम०-३ किस्मों को बेबी कॉर्न की सफल खेती के लिए चुना जा सकता है।
उत्तर भारत में मार्च से अक्टूबर तक तीन फ़सलें ली जा सकती हैं। लगभाग 2 महीने में फसल तैयार हो जाती है। बेबी कॉर्न के लिए मिट्टी की आवश्यकताएं, तैयारी और फसल प्रबंधन पद्धतियां स्वीट कॉर्न और पॉपकॉर्न के समान ही हैं।
पहली जुताई डिस्क हैरो से तथा अगली 2-3 जुताई देशी हल या कल्टीवेटर से करें तथा खेत को तैयार करने के लिए कल्टीवेटर का प्रयोग करें। बुआई के समय पर्याप्त नमी आवश्यक है।
बीज दर 20-25 किग्रा/हेक्टेयर की अनुशंसित की जाती है। इससे अधिक संख्या में भुट्टे पैदा होंगे और परिणामस्वरूप किसानों को अधिक लाभ मिलेगा। किस्म के चयन के समय छोटे कद और उपजाऊ किस्मों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
खुले परागण वाली किस्मों की तुलना में संकर किस्मों को प्राथमिकता दी जाती है क्योंकि संकर किस्म फूलने में अधिक समान होते हैं। इस प्रकार उन्हें तोड़ने में केवल 4-5 समय की आवश्यकता हो सकती है।
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इसके विपरीत किस्मों में फूल एक समान न होने के कारण कटाई में अधिक समय लगता है। छोटे कद की सामग्री को उच्च पौधों के घनत्व में अच्छी तरह से समायोजित किया जा सकता है।
बेबी कॉर्न के लिए दो प्रणालियों का उपयोग किया जाता है। एक प्रणाली प्रति हेक्टेयर लगभग 58000 पौधों की मानक आबादी का उपयोग करती है, जहां ऊपरी बाली को अनाज मकई या स्वीट कॉर्न के लिए पौधे पर छोड़ दिया जाता है, और बाद की बालियों को बेबी कॉर्न के लिए काटा जाता है।
दूसरी प्रणाली 45 सेमी x 20 सेमी की दूरी पर प्रति पहाड़ी 2 पौधों के साथ उच्च पौधों की आबादी का उपयोग करती है, जिसका जनसंख्या घनत्व 1,11,111 पौधे/हेक्टेयर है, जहां सभी बालियों को बेबी कॉर्न के लिए काटा जाता है।
मानक पौधों की आबादी प्रति हेक्टेयर लगभग 46.5 क्विं. बिना भूसी वाली बालियां (4.65 क्विं. भूसी वाली बालियां) पैदा करती है, जबकि उच्च आबादी प्रति हेक्टेयर लगभग 93-10.6 0 क्विं. बिना भूसी वाली बालियां (9.3-10.60 क्विं. भूसी वाली बालियां) पैदा करती है।
8-10 टन प्रति हेक्टेयर सड़ी हुई गोबर की खाद तथा नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश एवं जिंक सल्फेट 150-180:60:60:25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के अनुपात में प्रयोग करना आवश्यक है।
नाइट्रोजन का प्रयोग तीन भागों में करना चाहिए। फास्फोरस, पोटाश तथा जिंक सल्फेट की पूरी मात्रा तथा नाइट्रोजन का 1/3 भाग बुआई के समय, 1/3 नाइट्रोजन बुआई के 25 दिन बाद तथा नाइट्रोजन का शेष भाग 40 दिन बाद खेत में फैलाना चाहिए।
भारत में मक्के के चार प्रमुख कीट प्रचलित हैं। ये हैं चित्तीदार तना बेधक, गुलाबी तना बेधक, शूट फ्लाई और फॉल आर्मीवर्म । एकीकृत कीट प्रबंधन (आई.पी.एम.) का उद्देश्य रासायनिक, जैविक, नई फसल प्रणाली, सांस्कृतिक प्रथाओं में संशोधन, प्रतिरोधी किस्मों के उपयोग और यांत्रिक तरीकों जैसी तकनीकों के संयोजन के माध्यम से कीटों का प्रबंधन करना है।
बालियों की कटाई (उभरने के 50-60 दिन बाद) तब की जाती है जब रेशम 1-3 सेमी लंबा हो जाता है, यानी रेशम निकलने के 1-3 दिन के भीतर।
चारा मक्के की किस्मों की कटाई रेशम निकलने के समय की जाती है, जबकि अधिक गीली किस्मों की कटाई उस समय तक की जा सकती है जब रेशम लगभग 5-6 सेमी लंबे होते हैं। एक पौधे पर कई भुट्टे आ सकते हैं, तथा कई बार कच्चे, ताजे भुट्टे ले सकते हैं।
बेबी कॉर्न की तुड़ाई तीन दिन में एक बार करनी होती है और इस्तेमाल किए गए जीनोटाइप के आधार पर आम तौर पर 7-8 तुड़ाई की आवश्यकता होती है। अच्छी फसल में औसतन 15-19 क्विंटल/हेक्टेयर बेबी कॉर्न की कटाई की जा सकती है।
हरे चारे की बिक्री से भी अतिरिक्त आय प्राप्त की जा सकती है, जिसकी उपज 250-400 क्विंटल/हेक्टेयर तक हो सकती है। बाद में हरे पौधे पशुओं के लिए उत्तम चारे के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।
कटे हुए बेबी कॉर्न को इसकी गुणवत्ता पर अधिक प्रभाव डाले बिना 10oC पर 3-4 दिनों तक संग्रहीत किया जा सकता है। दीर्घकालिक भंडारण और दूर के परिवहन के लिए, बेबी कॉर्न को नमकीन घोल (3%), चीनी (2%) और साइट्रिक एसिड (0.3%) घोल में डिब्बाबंद किया जाता है और प्रशीतित परिस्थितियों में संग्रहीत किया जाता है। बेबी कॉर्न को सिरके में भी संग्रहित किया जा सकता है।
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बेबी कॉर्न एक उच्च मूल्य वाली फसल है जो 50-60 टन/हेक्टेयर हरे चारे के बोनस के साथ कम समय (लगभग 60-63 दिन) में अच्छा रिटर्न देती है। इसलिए, यह बहुफसली खेती के लिए सबसे उपयुक्त है।
फसल खराब होने के समय यह आकस्मिक फसल के रूप में भी कार्य करता है। बेबी कॉर्न न केवल नकदी फसल है बल्कि कैच क्रॉप भी है। अधिक जानकारी के लिए आप नीचे दी गई वेबसाइट्स पर जाकर जानकारी ले सकते हैं ।
https://icar.org.in/crop-science/maizeभारत के अधिकांश किसान खेती-किसानी के साथ-साथ पशुपालन कर दुग्ध उत्पादन से भी अच्छी आय करते हैं। लेकिन, ऐसे भी किसान हैं, जिनकी आजीविका ही पशुपालन से चलती है। वर्तमान में रबी की फसलों की कटाई का समय चल रहा है।
किसान अब जायद की फसलों की बुवाई की तैयारी में जुटेंगे। अब ऐसे में आज हम पशुपालन करने वाले किसानों को गर्मी के समय पशुओं के स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।
पशुपालक अपने पशु को दिन में कम से कम तीन बार पीने के लिए साफ पानी दें। साथ ही, हरा चारा आहार स्वरूप अधिक खिलाएं। इसके लिए \ मूंग मक्का या अन्य हरे चारे की बुआई कर दें।
गर्मी के बढ़ने से मनुष्यों के साथ-साथ पशु पक्षियों को भी काफी दिक्कत होती है। इसलिए, किसान भाइयों को अपने दुधारू पशुओं की सही से देखभाल करने की आवश्यकता है।
ऐसे मौसम में अपने पशुओं की उचित देखरेख नहीं करने से सूखा चारा खाने की मात्रा दस से 30 फीसद और दूध उत्पादन में दस फीसद तक की कमी हो सकती है। इस पर विशेष ध्यान देने की अत्यंत आवश्यकता है।
कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार, गर्मी के मौसम में दुग्ध उत्पादन और पशु की शारीरिक क्षमता बनाए रखने के लिए पशुओं में आहार का महत्वपूर्ण योगदान है। गर्मी के मौसम में पशुओं को हरे-चारे की ज्यादा मात्रा देनी चाहिए।
पशु हरे-चारे को बड़े ही चाव से खाते हैं। इसके साथ ही इससे 70 से 90 फीसद तक पानी की मात्रा होने से शरीर में जल की पूर्ति करता है। गर्मी के मौसम में हरे चारे का अत्यंत अभाव रहता है।
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इसके लिए किसानों को मार्च या शुरू अप्रैल माह में ही मूंग, मक्का या अन्य हरे चारे की बुआई कर दें। इससे गर्मी में भी पशुओं को हरा चारा मिलता रहे।
पशुपालकों को अपने पशुओं को गर्मी से बचाने के लिए छांव में रखने की आवश्यकता है। इससे पशुओं पर गर्म हवाओं का सीधा प्रभाव नहीं पड़ेगा। रात्री के दौरान पशुओं को खुले में ही रखें।
अगर पशुओं के आवास की छत एस्बेस्टस या कंक्रीट की है तो उसके ऊपर चार से छह इंच मोटी घास- फूस रख दें। इससे पशुओं को गर्मी से निजात मिलती है।
इसके साथ ही पशुओं को तीन से चार बार ताजा एवं स्वच्छ पानी जरूरी पिलाएं। इससे पशुओं के स्वास्थ्य पर किसी प्रकार का प्रभाव नहीं पड़ेगा। साथ ही, किसी भी प्रकार की बीमारी होने पर शीघ्र डॉक्टर से सलाह लें।
]]>बेबी कॉर्न के अंदर कार्बोहाइड्रेड, कैल्सियम, प्रोटीन और विटामिन विघमान होता है। वहीं, इसको कच्चा या पका कर भी खाया जा सकता है। अपने इन गुणाें की वजह से बेबी कॉर्न ने अपना एक बाजार विकसित किया है।
अब ऐसी स्थिति में किसानों के लिए इसकी पैदावार बेहद ही फायदेमंद है। मक्का की खेती करने से किसानों को अधिकांश अच्छा लाभ ही प्राप्त होता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण इन दिनों दिखाई दे रहा है।
आलम यह है, कि वर्तमान में किसान भाइयों को मक्के (Maize) का भाव न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) से ज्यादा मिल रहा है। कुल मिलाकर भारत के अंदर मक्का, गेहूं और चावल के उपरांत तीसरे सबसे महत्वपूर्ण फसल (Crop) बन कर उभरा है।
दरअसल, मक्के की खेती करने वाले किसानों को अच्छा मुनाफा हो रहा है। लेकिन, आज के दौर में मक्के की खेती विभिन्न प्रकार से किसान भाइयों के लिए लाभकारी सिद्ध हो सकती है, जिसमें बेबी कॉर्न (Baby Corn) का उत्पादन किसानों को दोगुना लाभ प्रदान कर सकता है। आगे जानेंगे बेबी कॉर्न और इसकी खेती के बारे में।
भारत ही नहीं बल्कि दुनियाभर में बेबी कॉर्न (Baby Corn) की खपत और मांग दोनों तेजी से बढ़ रही है। पौष्टिकता के साथ ही अपने स्वाद की वजह से बेबी कॉर्न (Baby Corn) ने अपना एक बाजार स्थापित किया है।
वहीं, पत्तों के लिपटे होने की वजह से इसमें कीटनाशकों का असर नहीं होता है। इस वजह से भी इसकी मांग काफी अधिक है। ऐसे में बेबी कॉर्न का उत्पादन कैसे होता है, पहले यह जानना अत्यंत आवश्यक है।
वास्तविकता में बेबी कॉर्न (Baby Corn) मक्के की शुरूआती अवस्था है, जिसे अपरिपक्व मक्का अथवा शिशु मक्का भी कहा जाता है। मक्के की फसल में भुट्टा आने के उपरांत एक निर्धारित समय में इसको तोड़ना पड़ता है।
बेबी कॉर्न (Baby Corn) का उत्पादन किसान भाइयों के लिए अत्यंत फायदेमंद होता है। बतादें, कि बेबी कॉर्न की बुवाई होने के बाद 50 से 55 दिन में उत्पादन लिया जा सकता है।
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इस तरह किसान एक साल में बेबी कॉर्न (Baby Corn) की 4 फसलें कर सकते हैं, जिसमें किसान प्रति एकड़ 4 से 6 क्विंटल बेबी कॉर्न की उपज ले सकते हैं। साथ ही, मक्के की फसल से बेबी कॉर्न (Baby Corn) तोड़ लेने के पश्चात पशुओं के लिए चारे की व्यवस्था भी सहजता से हो जाती है। किसान 80 से 160 क्विंंटल हरे चारे का उत्पादन कर सकते हैं।
आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि दक्षिण भारत में वर्षभर बेबी कॉर्न की खेती की जा सकती है। वहीं, उत्तर भारत में फरवरी से नंवबर के मध्य बेबी कॉर्न की पैदावार की जा सकती है।
मक्का अनुसंधान निदेशालय पूसा की एक रिपोर्ट के मुताबिक, बेबी कॉर्न का उत्पादन सामान्य मक्के की खेती की भांति ही है।
हालाँकि, कुछ विशेष सावधानियां बरतने की अत्यंत आवश्यकता होती है, जिसके अंतर्गत किसान को बेबी कॉर्न के उत्पादन के लिए मक्के की एकल क्रास संकर किस्म की बुवाई करनी चाहिए। किसान एक हेक्टेयर में 20 से 24 केजी बीज का इस्तेमाल कर सकते हैं।
बेबी कॉर्न की खेती के लिए ज्यादा पौधे लगाने चाहिए। इस कारण से उर्वरक का अधिक इस्तेमाल करना पड़ता है। साथ ही, तुड़ाई के समय का भी विशेष ध्यान रखना होता है।
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इसके अंदर सिल्क आने के बाद 24 घंटे के अंदर तुड़ाई आवश्यक है। सिल्क की लंबाई लगभग 3 से 4 सेमी होनी चाहिए। तोड़ने के बाद पत्ते नहीं हटाने से बेबी कॉर्न दीर्घकाल तक ताजा रहते हैं।
बेबी कॉर्न के अंदर विभिन्न प्रकार के पौष्टिक गुण विघमान होते हैं। इसमें प्रमुख रूप से बेबी कॉर्न के अंदर कैल्सियम, प्रोटीन, विटामिन और कार्बोहाइड्रेड होता है।
वहीं, इसे कच्चा या पका कर भी खाया जा सकता है। अपने इन गुणों के कारण बेबी कॉर्न ने अपना एक बाजार विकसित किया है। बीते दिनों बेबी कॉर्न के आयात के लिए कनाडा ने भारत सरकार के साथ बातचीत भी की है।
]]>जायद की फसल हम रबी की फसल काटने के उपरांत शुरू कर देते हैं। गेहूं की कटाई अप्रैल माह तक हो जाती है। इसके बाद ही हम अपने खेतों को फिर से तैयार करके उनमें जायद की फसलों को उगने के लिए तैयारियां शुरू कर देते हैं।
जायद की फसल काफी मोटी कमाई देने वाली होती है। किसान भाई जायद की फसल को बाजार में सीधे-तौर पर बेच सकते हैं। साथ ही, इनको उत्पादित करने में अधिक शारीरिक श्रम की आवश्यकता भी नहीं पड़ती है।
इनमें बहुत सी फसलें तो बेलदार होती हैं, जिनके फल या सब्जियां हमें मोटा मुनाफा देती हैं। किसानों को रबी, खरीब और जायद की समस्त फसलों के लिए अपने खेतों को समय से तैयार करना होता है। इसमें जो सबसे कम समयावधि में तैयार होने वाली फसल है, वह जायद की फसल होती है।
भारत में हम तीन मौसम की फसलों को विशेष महत्त्व देते हैं और इन्हीं फसलों के आधार पर हम वर्षभर होने वाली फसलों को विभाजित करतें हैं। बहुत सारी फसलें तो ऐसी होती हैं, जो वर्षभर में दो बार भी की जाती हैं।
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जायद की फसलें विशेष रूप से गर्मियों में पसंद की जाने वाली सब्जियां, दाल और फल होते हैं। यह फसलें तैयार होने में तकरीबन 60 से 65 दिन ले लेती हैं। इनकों हम नगदी फसलों के तौर पर भी जानते हैं।
रबी की फसल की कटाई के बाद हम मूंग की तैयारी करते हैं। मूंग की बुवाई के बाद फसल को तैयार होने में लगभग 60 से 65 दिन लगते हैं।
बाजार में इसे बेहद आसानी से बेच कर काफी मोटा मुनाफा कमाया जा सकता है। लागत के मुताबिक, प्रति बीघा में हम डेढ़ से दो क्विंटल तक मूंग पैदा कर सकते हैं।
यह दलहनी फसल गेहूं की कटाई के बाद उगाई जाती है। जायद सीजन की 60 से 65 दिन की इस फसल में किसानों को कम लागत के साथ मोटा मुनाफा मिलता है। नगदी की यह फसल आप घर के लिए या बाजार में बड़ी आसानी से बेच सकते हैं।
जायद की यह फसल गर्मियों के दिनों सर्वाधिक पसंद की जाने वाली फसल होती है। फलों में हमारे शरीर की बहुत सारी आवश्यकताओं को पूरा करने वाली यह फसल थोक और फुटकर बाज़ार दोनों ही जगह किसानों को शानदार कमाई करवाती है। बतादें, कि फुटकर बाजार में इसकी कीमत 25 रुपये से लेकर 100 रुपये प्रति पीस तक होती है।
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तरबूज की ही भांति खरबूजे की खेती भी गर्मियों में ही की जाती है। बाजार में हमें इसकी शानदार कीमत मिलती है। यह एक ऐसी फसल होती है, जिसके फल की कीमत तो मिलती ही है।
परंतु, यदि हम इनके बीजों को व्यवसायिक रूप में उपयोग करते हैं तो और भी अच्छी आय अर्जित कर सकते हैं।
टमाटर एक ऐसी फसल है जो लगभग हर एक सब्जी के साथ प्रयोग होती है. लोग इसे सलाद के रूप में खाना भी बहुत पसंद करते हैं। वैसे तो टमाटर को हम साल भर खाते हैं। परंतु, इसकी प्रमुख फसल जायद में ही की जाती है। थोक और फुटकर बाजार में इससे अच्छी कमाई की जा सकती है।
जायद की इन फसलों से किसान भाई कम लागत में ही अच्छी आमदनी कर सकते हैं। यह बेहद ही सरलता से उगाई जाने वाली फसलें होती हैं। यह ऐसी फसलें होती हैं, जो अन्य फसलों की अपेक्षा शीघ्र उत्पादित हो जाती हैं। परिणामस्वरूप समय से अगली फसल की तैयारी के लिए मुनाफा प्राप्त कर लेते हैं।
]]>भारत के विभिन्न राज्यों में किसान यूरिया के अभाव और कमी से जूझते हैं। यहां की विभिन्न राज्य सरकारों को भी यूरिया की आपूर्ति करने के लिए बहुत साड़ी समस्याओं और परेशानियों का सामना करना पड़ता है।
आज हम आपको इस लेख में एक ऐसी फसल की जानकारी दे रहे हैं, जो यूरिया की कमी को पूर्ण करती है। ढैंचा की खेती किसान भाइयों के लिए बेहद मुनाफेमंद है। क्योंकि यह नाइट्रोजन का एक बेहतरीन स्रोत मानी जाती है।
भारत में फसलों की पैदावार को अच्छा खासा करने के लिए यूरिया का उपयोग काफी स्तर पर किया जाता है। क्योंकि, इससे फसलों में नाइट्रोजन की आपूर्ति होती है, जो पौधों के विकास के लिए अत्यंत आवश्यक है।
परंतु, यूरिया जैव उर्वरक नहीं है, जिसकी वजह से प्राकृतिक एवं जैविक खेती का उद्देश्य पूर्ण नहीं हो पाता है। हालांकि, वर्तमान में सामाधान के तोर पर किसान ढैंचा की खेती पर अधिक बल दे रहे हैं।
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क्योंकि, ढैंचा एक हरी खाद वाली फसल है जो नाइट्रोजन का बेशानदार जरिया है। ढैंचा के इस्तेमाल के बाद खेत में किसी भी अतिरिक्त यूरिया की आवश्यकता नहीं पड़ती। साथ ही, खरपतवार जैसी समस्याएं भी जड़ से समाप्त हो जाती हैं।
उपयुक्त जलवायु- ढैंचा की शानदार उपज के लिए इसको खरीफ की फसल के साथ उगाते हैं। पौधों पर गर्म एवं ठंडी जलवायु का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता है।
परंतु, पौधों को सामान्य बारिश की आवश्यकता होती है। ढैंचा के पौधों के लिए सामान्य तापमान ही उपयुक्त माना जाता है। शर्दियों के दौरान अगर अधिक समय तक तापमान 8 डिग्री से कम रहता है, तो उत्पादन पर प्रभाव पड़ सकता है।
ढैंचा के पौधों के लिए काली चिकनी मृदा बेहद शानदार मानी जाती है। ढेंचा का उत्पादन हर प्रकार की भूमि पर किया जा सकता हैं। सामान्य पीएच मान और जलभराव वाली जमीन में भी पौधे काफी अच्छे-तरीके से विकास कर लेते हैं।
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सर्व प्रथम खेत की जुताई मृदा पलटने वाले उपकरणों से करनी चाहिए। गहरी जुताई के उपरांत खेत को खुला छोड़ दें, फिर प्रति एकड़ के हिसाब से 10 गाड़ी पुरानी सड़ी गोबर की खाद डालें और अच्छे से मृदा में मिला दें।
अब खेत में पलेव कर दें और जब खेत की जमीन सूख जाए तो रासायनिक खाद का छिड़काव कर रोटावेटर चलवा देना चाहिए, जिसके पश्चात पाटा लगाकर खेत को एकसार कर देते हैं।
हरी खाद की फसल लेने के लिए ढैंचा के बीजों को अप्रैल में लगाते हैं। लेकिन उत्पादन के लिए बीजों को खरीफ की फसल के समय बारिश में लगाते हैं। एक एकड़ के खेत में करीब 10 से 15 किलो बीज की आवश्यकता होती है।
बीजों को समतल खेत में ड्रिल मशीन के माध्यम से लगाया जाता हैं। इन्हें सरसों की भांति ही पंक्तियों में लगाया जाता है। पंक्ति से पंक्ति के मध्य एक फीट की दूरी रखते हैं और बीजों को 10 सेमी की फासले के लगभग लगाते हैं।
लघु भूमि में ढैंचा के बीजों की रोपाई छिड़काव के तरीके से करना चाहिए। इसके लिए बीजों को एकसार खेत में छिड़कते हैं। फिर कल्टीवेटर से दो हल्की जुताई करते हैं, दोनों ही विधियों में बीजों को 3 से 4 सेमी की गहराई में लगाएं।
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