भा.कृ,अनु.प, केन्द्रीय उपोष्ण बागवानी संस्थान (ICAR, Central Institute of Subtropical Horticulture) के द्वारा किसानों के लिए मार्च महीने में आम के बगीचे से जुड़ी 5 महत्वपूर्ण सलाह जारी की है।
ताकि किसान वक्त रहते आम के बगीचे की देखरेख (Mango orchard maintenance) करके शानदार उपज हांसिल कर सकें।
गर्मी के मौसम में बाजार के अंदर सबसे ज्यादा आम की मांग रहती है। इस दौरान किसान आम की खेती से ज्यादा आमदनी प्राप्त कर सकते हैं। परंतु, सामान्यतः देखा गया है, कि आम की फसल में कई बार कीट व रोग लगने से किसानों को बड़े नुकसान का सामना करना पड़ता है।
अब ऐसी स्थिति में भारतीय मौसम विज्ञान विभाग ने कृषकों के लिए मार्च माह में आम के बगीचों से जुड़ी जरूरी सलाह जारी की है। जिससे किसान वक्त रहते आम के बगीचे से अच्छा मुनाफा प्राप्त कर सकें।
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आम के बगीचे से शानदार फायदा पाने के लिए किसानों को मार्च माह में केवल 5 बातों का ध्यान रखना है, जोकि भा.कृ,अनु.प, केन्द्रीय उपोष्ण बागवानी संस्थान रहमानखेड़ा, पो.काकोरी, लखनऊ के द्वारा जारी की गई है। ऐसे में आइए इन 5 महत्वपूर्ण सलाहों के बारे में विस्तार से जानते हैं।
विभाग के द्वारा जारी की गई जानकारी के मुताबिक, इस सप्ताह उत्तर प्रदेश में खर्रा रोग से क्षति की संभावना जताई गई है.
अगर फसल में 10 प्रतिशत से अधिक पुष्पगुच्छों पर खर्रा की उपस्थिति देखी जाती है, तो टेबुकोनाजोल+ट्राइफ्लॉक्सीस्ट्रोबिन (0.05 प्रतिशत) या हेक्साकोनाजोल (0.1 प्रतिशत) या सल्फर (0.2 प्रतिशत) का छिड़काव किया जा सकता है.
आम का भुनगा (फुदका या लस्सी) एक बेहद हानिकारक कीट है, जो आम की फसल को बड़ी गंभीर हानि पहुँचा सकता है। यह बौर, कलियों तथा मुलायम पत्तियों पर एक-एक करके अंडे देते हैं और शिशु अंडे से एक सप्ताह में बाहर आ जाते हैं।
बाहर आने के पश्चात शिशु एवं वयस्क पुष्पगुच्छ (बौर), पत्तियों तथा फलों के मुलायम हिस्सों से रस को चूस लेते हैं। इससे वृक्ष पर बौर खत्म हो जाता है। इसकी वजह से फल बिना पके ही गिर जाते हैं।
भारी मात्रा में भेदन तथा सतत रस चूसने की वजह से पत्तियां मुड़ जाती हैं और प्रभावित ऊतक सूख जाते हैं। यह एक मीठा चिपचिपा द्रव भी निकालते हैं, जिस पर सूटी मोल्ड (काली फफूंद) का वर्धन होता है।
सूटी मोल्ड एक तरह की फफूंद होती है, जो पत्तियों में होने वाली प्रकाश संश्लेषण की क्रिया को कम करती है। अगर समय पर हस्तक्षेप नहीं किया गया, तो गुणवत्ता वाले फल की पैदावार प्रभावित होगी।
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अब ऐसी स्थिति में किसानों को सलाह दी जाती है, कि यदि पुष्पगुच्छ पर भुनगे की मौजूदगी देखी जा रही है, तो तत्काल इमिडाक्लोप्रिड (0.3 मि.ली./ली. पानी) तथा साथ में स्टिकर (1 मि.ली./ली. पानी) छिड़काव करना चाहिए।
आम के पुष्प एवं पुष्प गुच्छ मिज अत्यंत हानिकारक कीट हैं, जो आम की फसल को काफी प्रभावित करते हैं। मिज कीट का आक्रमण वैसे तो जनवरी महीने के आखिर से जुलाई माह तक कोमल प्ररोह तने एवं पत्तियों पर होता है।
परंतु, सर्वाधिक नुकसान बौर एवं नन्हें फलों पर इसके द्वारा ही किया जाता है। इस कीट के लक्षण बोर के डंठल, पत्तियों की शिराओं अथवा तने पर कत्थई या काले धब्बे के रूप में दिखाई देते हैं। धब्बे के बीच भाग में छोटा सा छेद होता है।
प्रभावित बौर व पत्तियों की आकृति टेढ़ी-मेढ़ी हो जाती है। प्रभावित इलाकों से आगे का बौर सूख भी सकता है। किसान भाइयों को सलाह दी जाती है, कि इस कीट की रोकथाम हेतु जरूरत के अनुसार डायमेथोएट (30 प्रतिशत सक्रिय तत्व) 2.0 मि.ली. प्रति लीटर पानी की दर से स्टिकर (1.मि.ली/ली.पानी) के साथ छिड़काव करें।
दरअसल, आने वाले कुछ दिनों के दौरान आम के बौर पर थ्रिप्स का संक्रमण दर्ज किया जा सकता है। अगर आम के बगीचों में इसका संक्रमण देखा जाता है, तो थायामेथोक्साम (0.33 ग्राम/लीटर) के छिड़काव द्वारा तुरंत इसको प्रबंधित करें।
आम के बागों में गुजिया कीट की गतिविधि जनवरी महीने के पहले सप्ताह से शुरू हो जाती है। यदि बचाव के उपाय असफल होते हुए कीट बौर और पत्तियों तक पहुंच गया है,
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तो किसानों से अनुरोध है कि इसके प्रबंधन हेतु आवश्यक कार्यवाही शीघ्र करें। अगर कीट बौर और पत्तियों तक पहुंच गया हो तो कार्बोसल्फान 25 ई.सी का 2 मिली./ली.पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।
]]>भारत में सर्दियों का मौसम अब अपने अंतिम पड़ाव पर है और गर्मियां बिल्कुल शुरू होने की कगार पर हैं। इस मध्य बहुत सारे किसान फिलहाल गर्मियों में बोई जाने वाली लौकी की फसल लगाने की तैयारी कर रहे हैं।
दरअसल, किसी भी फसल की खेती को लेकर कृषकों के मन में प्रश्न अवश्य होते हैं। कुछ ऐसे ही सवाल लौकी की खेती करने वाले किसानों के मन में आते हैं। जैसे कि किस प्रकार से लौकी की खेती की जाए कि उपज बढ़े और उन्हें हानि भी न वहन करनी पड़े।
गर्मी की फसल की बुवाई मार्च के पहले हफ्ते से अप्रैल महीने के पहले सप्ताह में की जाती है। गर्मी के मौसम में अगेती फसल लगाने के लिए कृषक इसके पौधे पॉली हाउस से खरीद सकते हैं और इन्हें सीधे अपने खेतों में लगा सकते हैं।
इसके लिए प्लास्टिक बैग अथवा फिर प्लग ट्रे में कोकोपीट, परलाइट, वर्मीकुलाइट, 3:1:1 अनुपात में रखकर इसकी बुवाई करें।
लौकी की खेती से शानदार पैदावार पाने के लिए भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा विकसित किस्में पूसा नवीन, पूसा संतुष्टी, पूसा सन्देश लगा सकते हैं। इस फसल की बुवाई या रोपाई नाली बनाकर की जाती है। जहां तक संभव हो सके नाली की दिशा उत्तर से दक्षिण दिशा में बनाए और पौध व बीज की रोपाई नाली के पूर्व में करें।
लौकी की खेती के लिए ग्रीष्म और आर्द्र जलवायु सबसे अच्छी होती है। लौकी के पौधे अधिक ठंड को सहन नहीं कर सकते हैं। इसलिए इनकी खेती विशेष रूप से मध्य भारत और आसपास के इलाकों में होती है। इसकी खेती के लिए 32 से 38 डिग्री सेंटीग्रेड का तापमान सबसे अच्छा होता है। इसका अर्थ है गर्म राज्यों में इसकी खेती काफी अच्छे से की जाती है।
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इसके अतिरिक्त खेती के लिए सही भूमि का चुनाव, बुवाई का समय, बीज उपचार, उर्वरक प्रबंधन, सिंचाई प्रबंधन, खरपतवार प्रबंधन, कीट प्रबंधन जैसी बातों को भी ध्यान में रखना आवश्यक है। अगर किसान इन सब बातों को ध्यान में रखकर खेती करें तो उपज भी शानदार होगी और मुनाफा भी दोगुना होगा।
बतादें, कि लौकी की बिजाई हेतु नाली की दूरी कितनी रखनी चाहिए। गर्मियों में नाली से नाली का फासला 3 मीटर। बरसात में नाली से नाली का फासला 4 मीटर रखें। पौध से पौध का फासला 90 सेंटीमीटर रखें। किसान भाई इस प्रकार कीटों से बचाव करें।
ध्यान रहे खेत में पौधे के 2 से 3 पत्ते आने के समय से ही लाल कीड़े यानी रेड पंम्पकीन बीटल कीडों का संक्रमण काफी ज्यादा होता है। इससे बचने के लिए किसान भाई डाईक्लोरोफांस की मात्रा 200 एमएल को 200 मिली लीटर पानी में घोल बनाकर 1 एकड़ की दर सें छिड़काव करें।
इस कीट का खात्मा करने के लिए सूर्योदय से पहले ही छिड़काव करें। सूर्योदय के उपरांत ये कीट भूमि के अंदर छिप जाते हैं। जहां तक हो सके वहां तक बरसात में पौधों को मचान बनाकर उगाएं। इससे बरसात में पौधों के गलने की समस्या काफी कम होगी और पैदावार भी बेहतरीन मिलेगी।
]]>भिंडी की सब्जी का सेवन करना बहुत सारे लोगों को काफी प्रिय होता है। यही वजह है, कि मंडियों में इसका अच्छा भाव मिलता है। क्योंकि कुछ लोग इसकी सूखी सब्जी बनाते हैं तो कुछ भरवां भिंडी खाना पसंद करते हैं।
ऐसा कहना गलत नहीं होगा की यह एक लोकप्रिय सब्जी है। आपने भी कभी न कभी भिंडी की सब्जी अवश्य खाई होगी। जब भी भिंडी की बात होती है, तो हमारे मन में हरे रंग की भिंडी का विचार आता है। परंतु, क्या आप जानते हैं, कि भिंडी केवल हरी नहीं, बल्कि लाल रंग की भी होती है।
जी हां, हरी भिंडी की भांति लाल भिंडी भी खाने में बेहद स्वादिष्ट होती है। हालांकि, लाल भिंडी की कीमत हरी भिंडी से अधिक होती है। इन दिनों बहुत सारे किसान भाई लाल भिंडी की खेती कर इससे मोटा मुनाफा अर्जित कर रहे हैं। ऐसे में आज हम आपको लाल भिंडी की खेती के बारे में बताऐंगे।
वर्तमान में लाल भिंडी की केवल दो ही उन्नत किस्में विकसित हुई हैं। साथ ही, किसान इन किस्मों की खेती करके मोटा लाभ उठा रहे हैं। इनमें, आजाद कृष्णा और काशी लालिमा शामिल हैं।
अगर किसान लाल भिंडी की उन्नत किस्म 'काशी लालिमा' और 'आजाद कृष्णा' का बीज घर पर पाना चाहते हैं, तो घर बैठे ऐसा कर सकते हैं। दरअसल, इसके लिए किसान राष्ट्रीय बीज निगम (National Seeds Corporation) की सुविधा का लाभ उठा सकते हैं।
दरअसल, किसानों की सुविधा के लिए राष्ट्रीय बीज निगम भिंडी की उन्नत किस्मों के बीज ऑनलाइन बेच रहा है। इनके बीजों को आप ओएनडीसी के ऑनलाइन स्टोर से खरीद सकते हैं।
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यहां किसानों को विभिन्न अन्य प्रकार की फसलों के बीज भी सुगमता से मिल जाऐंगे। किसान इसको ऑनलाइन माध्यम से ऑर्डर करके अपने घर पर डिलीवरी करवा सकते हैं। फिलहाल, राष्ट्रीय बीज निगम भिंडी के बीजों की खरीद पर काफी भारी अनुदान दे रहा है।
अगर आप लाल भिंडी की प्रजाति 'काशी लालिमा' खरीदना चाहते हैं, तो इसके बीज का 100 ग्राम का पैकेट 40 फीसदी की छूट के साथ मात्र 45 रुपये में मिल रहा है।
काशी लालिमा: काशी लालिमा किस्म की लाल भिंडी की खेती रबी और खरीफ दोनों सीजन में सुगमता से की जा सकती है। हालांकि, इसके लिए आपको बीज खरीदते समय यह ध्यान देना पड़ेगा कि वह किस सीजन के बीज हैं।
किसान जिस खेत में भी भिंडी की खेती करें, उसमें ध्यान रखें कि पानी ना रुके, वरना पौधे खराब हो सकते हैं। इस किस्म की फसल शीघ्रता से तैयार हो जाती है और ज्यादा समय तक फल प्रदान करती है। इसमें 45-50 दिन में ही फल मिलने चालू हो जाते हैं और लगभग 6 महीने तक मिलते रहते हैं।
आजाद कृष्णा: आजाद कृष्णा भिंडी का उत्पादन 80 से 100 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होता है। एंटीऑक्सीडेंट व एंथोसाइनिन होने की वजह से यह स्वास्थ्य के लिए तो लाभदायक होती ही है।
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साथ ही, इसके सूखने के बाद गुड़ साफ करने में भी इसका उपयोग किया जा सकता है। कृषि वैज्ञानिकों के मुताबिक, इस किस्म की फसल भी काफी शीघ्रता से तैयार हो जाती है। इसके पौधे की ऊँचांई 100-125 सेमी तक होती है। गर्मयों में ये किस्म 40-45 तथा बरसात के दौरान 50-55 दिनों में उपज देना प्रारंभ कर देती है।
लाल भिंडी की कीमत हरी भिंडी से ज्यादा होती है। केवल इतना ही नहीं लाल भिंडी में हरी भिंडी से ज्यादा पौष्टिकता विघमान रहती है। लाल भिंडी स्वास्थ्य के लिए भी बेहद उपयुक्त है। इसमें एंटीऑक्सीडेंट और आयरन होता है।
इसका सेवन करने से बहुत सारी बीमारियों से छुटकारा मिलता है। लाल भिंडी से लोगों को मधुमेह और दिल से जुड़ी बिमारियों में भी फायदा पहुंचता है। इसी वजह से लाल भिंडी की बाजार में खूब मांग रहती है।
]]>सूरजमुखी एक सदाबहार फसल है, इसकी खेती रबी, जायद और खरीफ के तीनों सीजन में की जा सकती है। बतादें, कि सूरजमुखी की खेती के लिए सबसे अच्छा समय मार्च के माह को माना जाता है। इस फसल को कृषकों के बीच नकदी फसल के रूप में भी पहचाना जाता है।
सूरजमुखी की खेती से किसान कम लागत में ज्यादा मुनाफा अर्जित कर सकते हैं। इसके बीजों से 90-100 दिनों के समयांतराल में 45 से 50% तक तेल हांसिल किया जा सकता है।
सूरजमुखी की फसल को शानदार विकास देने के लिए 3 से 4 बार सिंचाई की जाती है, ताकि इसके पौधे सही तरीके से पनप सकें। अगर हम इसकी टॉप 5 उन्नत किस्मों की बात करें, तो इसमें एमएसएफएस 8, केवीएसएच 1, एसएच 3322, ज्वालामुखी और एमएसएफएच 4 आती हैं।
सूरजमुखी की उन्नत किस्मों में एमएसएफएस-8 भी शम्मिलित है। इस किस्म के सूरजमुखी के पौधे की ऊंचाई तकरीबन 170 से 200 सेमी तक रहती है। एमएसएफएस-8 सूरजमुखी के बीज में 42 से 44% तक तेल की मात्रा पाई जाती है।
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किसान को सूरजमुखी की इस फसल को तैयार करने में 90 से 100 दिनों का वक्त लगता है। MSFS-8 किस्म की सूरजमुखी फसल की यदि एकड़ भूमि पर खेती की जाती है, जो इससे लगभग 6 से 7.2 क्विंटल तक उपज मिलती है।
केवीएसएच-1 सूरजमुखी की उन्नत किस्मों में शम्मिलित है, जो कि शानदार उत्पादन देती है। सूरजमुखी के इस किस्म वाले पौधे की ऊंचाई तकरीबन 150 से 180 सेमी तक होती है।
केवीएसएच-1 सूरजमुखी के बीज से लगभग 43 से 45% तक तेल प्राप्त होता है। किसान को सूरजमुखी की इस उन्नत किस्म को विकसित करने में 90 से 95 दिनों की समयावधि लगती है। अगर केवीएसएच-1 सूरजमुखी की फसल को एकड़ भूमि पर लगाया जाए, तो इससे तकरीबन 12 से 14 क्विंटल तक उत्पादन हो सकता है।
सूरजमुखी की शानदार उपज देने वाली किस्मों में एसएच-3322 भी शुमार है। इस सूरजमुखी की उन्नत किस्म के पौधों की ऊंचाई तकरीबन 137 से 175 सेमी तक पाई जाती है। एसएच-3322 सूरजमुखी के बीज से लगभग 40-42% फीसद तक तेल की मात्रा हांसिल होती है।
किसान को एसएच-3322 किस्म की सूरजमुखी फसल को विकसित करने में 90 से 95 दिनों का वक्त लग जाता है। सूरजमुखी की एसएच-3322 किस्म को अगर एक एकड़ जमीन पर उगाया जाए, तो इससे तकरीबन 11.2 से 12 क्विंटल तक की उपज हांसिल हो सकती है।
सूरजमुखी की ज्वालामुखी किस्म के बीजों में 42 से 44% प्रतिशत तक तेल पाया जाता है। किसान को इसकी फसल तैयार करने में 85 से 90 दिनों का वक्त लगता है।
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ज्वालामुखी पौधे की ऊंचाई तकरीबन 170 सेमी तक रहती है। सूरजमुखी की इस किस्म को एक एकड़ भूमि पर लगाने से लगभग 12 से 14 क्विंटल तक पैदावार हो जाती है।
सूरजमुखी की इस एमएसएफएच-4 किस्म की खेती रबी और जायद के सीजन में की जाती है। इस फसल के पौधे की ऊंचाई तकरीबन 150 सेमी तक पाई जाती है।
एमएसएफएच-4 सूरजमुखी के बीजों में तकरीबन 42 से 44% तक तेल की मात्रा विघमान रहती है। इस किस्म की फसल को तैयार करने में किसान को 90 से 95 दिनों का वक्त लग जाता है।
अगर किसान इस किस्म की फसल को एक एकड़ खेत में लगाते हैं, तो इससे करीब 8 से 12 क्विंटल तक की उपज बड़ी आसानी से प्राप्त हो जाती है।
]]>भारत एक कृषि प्रधान देश है। भारत के 70% फीसद से ज्यादा लोग खेती किसानी से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से संलग्न हैं। देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के किसानों की मदद हेतु केन्द्र और राज्यों की सरकार हर संभव प्रयास करती हैं।
इसको लेकर सरकार विभिन्न प्रकार की योजनाएं चलाती है। साथ ही, किसानों को अनुदान भी प्रदान किया जाता है। इसी कड़ी में सरकार ड्रैगन फ्रूट की खेती में सिंचाई के लिए स्प्रिंकलर तकनीक का इस्तेमाल करने वाले कृषकों को 80% फीसद तक का अनुदान दिया जा रहा है।
भारत में ड्रैगन फ्रूट की खेती बड़ी ही तेजी से लोकप्रिय होती जा रही है। हालांकि, यह फल मुख्य रूप से थाईलैंड, इजरायल, वियतनाम और श्रीलंका जैसे देशों में काफी प्रसिद्ध है।
लेकिन, वर्तमान में इसे भारत के लोगों द्वारा भी बेहद पसंद किया जा रहा है। यदि आप ड्रैगन फ्रूट की खेती करते हैं अथवा फिर करने की योजना बना रहे हैं, तो आप ड्रैगन फ्रूट की खेती में सिंचाई के लिए स्प्रिंकलर टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल अवश्य करें।
ड्रैगन फ्रूट की खेती में इस तकनीक का उपयोग करने से आपके खेतों में फसल की उपज काफी बढ़ेगी। स्प्रिंकलर तकनीक का इस्तेमाल करने के लिए सरकार की ओर से 80% प्रतिशत तक का अनुदान दिया जाएगा।
फल हमारे स्वास्थ के लिए अत्यंत लाभकारी होते हैं। ड्रैगन फ्रूट का सेवन करने से आपको विभिन्न प्रकार के स्वास्थ से संबंधित लाभ मिलते हैं। आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि ड्रैगन फ्रूट के अंदर भरपूर मात्रा में Vitamin C पाया जाता है।
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इसका सेवन करने से इम्यून सिस्टम भी बेहद मजबूत होता है। इसके अलावा ड्रैगन फ्रूट का सेवन करने से मधुमेह को काबू में रखा जा सकता है। साथ ही, आपको इससे कॉलेस्ट्रोल में भी अत्यंत लाभ मिल सकता है। ड्रैगन फ्रूट एक ऐसा फल है, जिसमें फैट और प्रोटीन की मात्रा बेहद कम पाई जाती है।
आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि बिहार सरकार उद्यान निदेशालय ने किसानों के लिए एकीकृत बागवानी विकास मिशन योजना का शुभारंभ किया है। इस योजना के अंतर्गत ड्रैगन फ्रूट की खेती करने वाले कृषकों को सरकार की ओर से प्रति इकाई लागत (1.25 लाख रुपये प्रति हेक्टेयर) का 40% अनुदान दिया जाएगा।
इस हिसाब से ड्रैगन फ्रूट की खेती करने वाले किसानों को अनुदान के तौर पर 40% प्रतिशत यानी 50 हजार रुपये मिलेंगे।
यदि आप बिहार राज्य में रहते हैं और इस योजना का लाभ उठाना चाहते हैं, तो बिहार कृषि विभाग, उद्यान निदेशालय की ऑफिसियल वेबसाइट horticulture.bihar.gov.in पर आवेदन कर सकते हैं।
]]>उत्तर प्रदेश सरकार राज्य में मक्के की खेती को प्रोत्साहन देने के लिए नई योजना लागू करने जा रही है। इस योजना के अंतर्गत उत्तर प्रदेश में 2 लाख हेक्टेयर गन्ने का क्षेत्रफल बढ़ेगा और 11 लाख मीट्रिक टन से ज्यादा मक्के की उपज हांसिल होगी।
इसके अतिरिक्त योजना के अंतर्गत किसी एक लाभार्थी को ज्यादा से ज्यादा दो हेक्टेयर की सीमा तक सब्सिडी दी जाएगी।
योगी सरकार संकर मक्का, पॉपकार्न मक्का और देसी मक्का पर 2400 रुपये अनुदान दिया जा रहा है। साथ ही, बेबी मक्का पर 16000 रुपये और स्वीट मक्का पर 20000 रुपये प्रति एकड़ का अनुदान इस योजना के अंतर्गत दिया जाएगा।
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आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि यूपी सरकार की यह योजना 4 सालों के लिए होगी। कैबिनेट की बैठक में कृषि विभाग की ओर से पिछले दिनों में ही इस प्रस्ताव को मंजूरी दी गई, जिसके बाद इस योजना को संचालित किए जाने का शासनादेश जारी कर दिया गया है।
यदि मुख्य सचिव कृषि डॉ. देवेश चतुर्वेदी द्वारा जारी शासनादेश के मुताबिक, इस योजना को राज्य के समस्त जनपदों में चलाया जाएगा।
परंतु, राज्य के 13 जनपदों में- बहराइच, बुलंदशहर, हरदोई, कन्नौज, गोण्डा, कासगंज, उन्नाव, एटा, फर्रुखाबाद, बलिया और ललितपुर जो कि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन के अंतर्गत मक्का फसल के लिए चयनित हैं।
इन जिलों में इस योजना के वह घटक जैसे-संकर मक्का प्रदर्शन, संकर मक्का बीज वितरण और मेज सेलर को क्रियान्वित नहीं किया जाएगा। क्योंकि ये राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन योजना में भी शामिल है।
दरअसल, खाद्यान्न फसलों में गेहूं और धान के पश्चात मक्का तीसरी सबसे महत्वपूर्ण फसल मानी जाती है।
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आज के समय में भारत के अंदर मक्के का इस्तेमाल मुख्य तौर पर खाद्य सामग्री के अतिरिक्त पशु चारा, पोल्ट्री चारा और प्रोसेस्ड फूड आदि के तोर पर भी किया जा रहा है। इसके अतिरिक्त मक्का का उपयोग एथेनॉल उत्पादन में कच्चे तेल पर निर्भरता को काफी कम कर रहा है।
बतादें, कि उत्तर प्रदेश में वर्ष 2022-23 के खरीफ सत्र में 6.97 लाख हेक्टेयर में 14.56 लाख मी.टन मक्के का उत्पादन हुआ था। वहीं, रबी सत्र में 0.10 लाख हेक्टेयर में 0.28 मी.टन और जायद में 0.49 लाख हेक्टेयर में 1.42 लाख मी.टन मक्के की उपज हुई थी।
]]>भारत के अंदर विभिन्न वजहों से किसानों के बीच गन्ने की खेती का रुझान काफी बढ़ रहा है। गन्ना किसानों को भुगतान में नियमितता, गन्ने की कीमत में बढ़ोतरी और इथेनॉल तैयार करने में गन्ने का उपयोग जैसे कई कारण है जो गन्ने की खेती करने के लिए किसानों को प्रेरित कर रहे हैं।
गन्ना एक ऐसी फसल है, जो तेज वर्षा, सूखा समेत समस्त प्रकार की मौसमी परिस्थितियों में भी बेहतरीन उपज देती है। वर्तमान में बसंतकालीन गन्ने की बुवाई का कार्य शुरू हो गया है।
भारत में प्रति वर्ष फरवरी से लेकर मार्च माह के अंतिम सप्ताह तक गन्ना उत्पादक राज्यों के किसान गन्ने की बुवाई करते हैं। साथ ही, कृषि वैज्ञानिकों ने गन्ना कृषकों के लिए बहुत सारी ऐसी किस्में विकसित की हैं, जो किसानों को अधिक उपज देने में सक्षम हैं।
गन्ना किस्म COLK–14201 को भारतीय गन्ना अनुसंधान संस्थान ने तैयार किया है। गन्ने की यह किस्म एक रोग रहित प्रजाति है, इसमें किसी तरह का रोग नहीं लगता है। इसकी बिजाई अक्टूबर से मार्च माह तक की जा सकती है। गन्ने की यह किस्म गिरने के प्रति सहनशील होती है।
इस किस्म में गन्ना नीचे से मोटा होता है। इसकी पोरी छोटी होती है एवं इस किस्म की लंबाई बाकी किस्मों की अपेक्षा कम होती है। गन्ने का वजन 2 से 2.5 किलो तक होता है। 17 प्रतिशत शर्करा देने वाली यह किस्म एक एकड़ में 400 से 420 क्विंटल तक उत्पादन देती है।
यह गन्ने की एक ऐसी किस्म है जो कम समय यानी 8 से 9 महीने में तैयार हो जाती है। गन्ने की इस किस्म की बिजाई अक्टूबर से मार्च तक की जा सकती है।
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गन्ने की लेट बिजाई में यह किस्म सबसे अधिक उपयुक्त है। इसकी बिजाई हल्की यानी रेतीली भूमि में भी कर सकते हैं। गन्ना किस्म CO-15023 को गन्ना प्रजनन संस्थान अनुसंधान केंद्र करनाल (हरियाणा) ने तैयार किया है। इसको CO-0241 और CO-08347 किस्म को मिलाकर तैयार किया गया है।
इसकी रोग प्रतिरोधक क्षमता दूसरी प्रजातियों की तुलना में ज्यादा है। गन्ना की यह किस्म अच्छी पैदावार के कारण किसानों के बीच लोकप्रिय हो रही है। इसकी औसत पैदावार 400 से 450 क्विंटल प्रति एकड़ है।
गन्ने की इस किस्म को ज्यादा पैदावार के लिए जाना जाता है। COPB-95 गन्ना किस्म प्रति एकड़ 425 क्विंटल की औसत पैदा देने में सक्षम है। गन्ने की इस किस्म को पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी ने विकसित किया है। यह किस्म लाल सड़न रोग व चोटी बेधक रोग के प्रति सहनशील है।
यह किस्म खेती की लागत को कम करके किसानों के लाभ में इजाफा करती है। इसके एक गन्ने का भार लगभग 4 किलोग्राम तक हो सकता है। इस किस्म के गन्ने का आकार मोटा होने की वजह से इसका प्रति एकड़ 40 क्विंटल बीज लगता है।
गन्ने की यह किस्म मुख्य रूप से तमिलनाडू के लिए तैयार हुई है। परंतु, इसकी बुवाई अन्य गन्ना उत्पादक राज्यों में भी की जा सकती है। इस किस्म की बिजाई का उपयुक्त समय अक्टूबर से नवंबर माह है। हालाँकि, अक्टूबर से मार्च तक भी इसकी बुवाई की जा सकती है।
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यह गन्ने की एक अर्ली प्रजाति है और इसमें किसी तरह का कोई रोग नहीं लगता है। इसकी एक आंख से 15 से 16 गन्ने सुगमता से निकल सकते हैं। इसके एक गन्ने का समकुल वजन 2.5 से 3 किलो तक रहता है।
CO–11015 गन्ना किस्म की औसत उपज 400 से 450 क्विंटल प्रति एकड़ मानी जाती है। इसके गन्ने में शर्करा की मात्रा 20% प्रतिशत तक होती है। किसान इस किस्म से कम लागत में ज्यादा उपज ले सकते हैं।
गन्ने की इस प्रजाति को भारतीय गन्ना अनुसंधान संस्थान लखनऊ (उत्तरप्रदेश) के वैज्ञानिकों ने वर्ष 2023 में तैयार किया है। यह किस्म गिरने के प्रति सहनशील है और इसकी किसी भी क्षेत्र में बुवाई की जा सकती है।
COLK-15201 गन्ना किस्म की बुवाई हरियाणा, राजस्थान, उत्तराखंड, उत्तरप्रदेश और पंजाब में नवंबर से मार्च माह के दौरान की जा सकती है। गन्ने की यह किस्म 500 क्विंटल प्रति एकड़ तक सुगमता से उपज देने में सक्षम है। बतादें, कि इस किस्म को इक्षु-11 के नाम से भी जाना जाता है।
COLK-15201 की लंबाई काफी अधिक होती है और इसमें कल्लों का फुटाव भी बाकी किस्मों की अपेक्षा ज्यादा है। इसमें शर्करा की मात्रा 17.46% फीसद है, जो बाकी किस्मों की तुलना में अधिक है। यह किस्म ज्यादा उत्पादन देती है। यह नवीन किस्म पोका बोईंग, रेड रॉड और टॉप बोरर जैसे रोगों के प्रति सहनशील होती है।
]]>किसान भाई अब जायद सीजन की गन्ने की बिजाई करना शुरू करेंगे। समयानुसार गन्ने की बिजाई विधि में परिवर्तन देखने को मिलता है। गन्ना किसान रिंग पिट विधि, ट्रैच विधि और नर्सरी से पौधे लाकर गन्ने की बुवाई करते हैं। प्रत्येक गन्ना बिजाई विधि के अलग-अलग लाभ हैं।
बीते कुछ समय से गन्ने की बुवाई के लिए वर्टिकल विधि काफी ज्यादा लोकप्रिय हो रही है। यह नवीन विधि सबसे पहले उत्तरप्रदेश के किसानों ने अपनाई थी। गन्ने की खेती में इस विधि के उपयोग से बीज कम लगता है और उपज ज्यादा मिलती है। अब किसान इस विधि को ज्यादा अपना रहे हैं।
गन्ने की वर्टिकल विधि से बिजाई करना काफी आसान है। इसमें बराबर मात्रा एवं सही दूरी पर पोरी लगाई जाती है एवं जमाव भी बराबर रहता है। साथ ही, मजदूरों की कम आवश्यकता पड़ती है।
वर्टिकल विधि में कल्लों का फुटाव काफी अधिक होता है। 8 से 10 कल्ले सरलता से निकलते हैं। 4 से 5 क्विंटल बीज प्रति एकड़ तक लगता है। बीज पर भी काफी कम खर्चा होता है। इसमें एक आंख की कांची को काटकर सीधा लगाना होता है। इस विधि से बिजाई करने पर गन्ने का जमाव जल्दी होता है।
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वर्टिकल विधि के माध्यम से ज्यादा उत्पादन हांसिल होता है। इसमें एक समान कल्ले फूटते हैं और कल्लों में गन्ने भी समान मात्रा में निकलते हैं। वर्टिकल विधि से 500 क्विंटल प्रति एकड़ तक पैदावार हांसिल की जा सकती है।
गन्ना बिजाई की वर्टिकल विधि में कतार से कतार का फासला 4 से 5 फीट और गन्ने से गन्ने का फासला लगभग 2 फीट रखा जाता है। इस विधि में एक एकड़ जमीन पर 5 हजार आंखे लगती हैं।
कृषि वैज्ञानिकों की सलाह के मुताबिक, किसानों को गन्ना की एक ही किस्म पर सदैव निर्भर नहीं रहना चाहिए। वक्त-वक्त पर किस्म में बदलाव करना चाहिए। यदि किसान दीर्घ काल तक एक ही किस्म की बुवाई करते हैं, तो उसमें कई तरह के रोग लग जाते हैं और पैदावार में भी गिरावट होती है।
इस वजह से किसानों को भिन्न-भिन्न प्रजातियों का चयन करना चाहिए। साथ ही, किसानों को सलाह दी जाती है, कि अपने क्षेत्र की जलवायु व खेत की मृदा के अनुसार स्थानीय कृषि अधिकारियों के दिशा-निर्देशन में ही गन्ने की खेती करें।
]]>आजकल रबी की फसल की कटाई का समय चल रहा है। मार्च-अप्रैल में किसान सब्जियों की बुवाई करना शुरू कर देते हैं। लेकिन किसान कौन सी सब्जी का उत्पादन करें इसका चयन करना काफी कठिन होता है। किसानों को अच्छा मुनाफा देने वाली सब्जियों के बारे में हम आपको जानकारी देने वाले हैं।
दरअसल, आज हम भारत के कृषकों के लिए मार्च-अप्रैल के माह में उगने वाली टॉप 5 सब्जियों की जानकारी लेकर आए हैं, जो कम वक्त में बेहतरीन उपज देती हैं।
भिंडी मार्च-अप्रैल माह में उगाई जाने वाली सब्जी है। दरअसल, भिंडी की फसल (Bhindi Ki Fasal) को आप घर पर गमले अथवा ग्रो बैग में भी सुगमता से लगा सकते हैं।
भिंडी की खेती के लिए तापमान 25-35 डिग्री सेल्सियस उपयुक्त माना जाता है। आमतौर पर भिंडी का इस्तेमाल सब्जी बनाने में और कभी-कभी सूप तैयार करने में किया जाता है।
किसान भाई खीरे की खेती (Cucumber cultivation) से काफी अच्छा लाभ कमा सकते हैं। दरअसल, खीरा में 95% प्रतिशत पानी की मात्रा होती है, जो गर्मियों में स्वास्थ्य के लिए अत्यंत लाभकारी होती है। गर्मियों के मौसम में खीरा की मांग भी बाजार में काफी ज्यादा देखने को मिलती है।
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अब ऐसी स्थिति में अगर किसान अपने खेत में इस समय खीरे की खेती करते हैं, तो वह काफी शानदार कमाई कर सकते हैं। खीरा गर्मी के सीजन में काफी अच्छी तरह विकास करता है। इसलिए बगीचे में बिना किसी दिक्कत-परेशानी के मार्च-अप्रैल में लगाया जा सकता है।
बैंगन के पौधे (Brinjal Plants) को रोपने के लिए दीर्घ कालीन गर्म मौसम की आवश्यकता होती है। साथ ही, बैंगन की फसल के लिए तकरीबन 13-21 डिग्री सेल्सियस रात का तापमान अच्छा होता है। क्योंकि, इस तापमान में बैंगन के पौधे काफी अच्छे से विकास करते हैं।
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ऐसी स्थिति में यदि आप मार्च-अप्रैल के माह में बैंगन की खेती (baingan ki kheti) करते हैं, तो आगामी समय में इससे आप अपनी आमदनी को बढ़ा सकते हैं।
एक अध्यन के अनुसार, हरा धनिया एक प्रकार से जड़ी-बूटी के समान है। हरा धनिया सामान्य तौर पर सब्जियों को और अधिक स्वादिष्ट बनाने के कार्य करता है।
इसे उगाने के लिए आदर्श तापमान 20 से 30 डिग्री सेल्सियस काफी अच्छा माना जाता है। ऐसे में भारत के किसान धनिया की खेती (Coriander Cultivation) मार्च-अप्रैल के माह में सुगमता से कर सकते हैं।
प्याज मार्च-अप्रैल में लगाई जाने वाली सब्जियों में से एक है। प्याज की बुवाई के लिए 10-32 डिग्री सेल्सियस तापमान होना चाहिए। प्याज के बीज हल्के गर्म मौसम में काफी अच्छे से विकास करते हैं। इस वजह से प्याज रोपण का उपयुक्त समय वसंत ऋतु (Spring season) मतलब कि मार्च- अप्रैल का महीना होता है।
बतादें, कि प्याज की बेहतरीन प्रजाति के बीजों की फसल लगभग 150-160 दिनों में पककर कटाई के लिए तैयार हो जाती है। हालांकि, हरी प्याज की कटाई (Onion Harvesting) में 40-50 दिन का वक्त लगता है।
]]>गूलर का पेड़ विशालकाय वृक्ष हैं। गूलर के पेड़ की लम्बाई 13-15 फ़ीट होती है। गूलर के पेड़ पर हल्के हरे रंग का फल आता हैं जो पकने के बाद लाल रंग का दिखाई देता हैं।
गूलर के पेड़ पर लगने वाले फल अंजीर के समान दिखाई पड़ते है। गूलर का पेड़ भारत देश में पाया जाने वाला बहुत ही आम पेड़ है। यह पेड़ अंजीर प्रजाति का हैं, इसे अंग्रेजी भाषा में कलस्टर फिग (Cluster Fig) भी कहते है।
गूलर के पेड़ की सबसे मुख्य बात ये हैं की इसके पौधे में ज्यादा पानी नहीं देना पड़ता हैं इसमें 3-4 दिन में सिर्फ एक बार पानी दिया जाता हैं गूलर के पेड़ को अच्छे से विकसित होने में कम से कम 8-9 साल का वक्त लगता है।
गूलर के पत्तों का इस्तेमाल आयुर्वेदिक दवाई बनाने के लिए किया जाता हैं। गूलर के फल में बहुत सारे कीड़े होने की वजह से इसे जंतु फल भी कहा जाता है।
गूलर और पीपल के पेड़ को एक ही प्रजाति का माना जाता है। गूलर का फल चाहे बंद हो लेकिन गूलर का फूल खिलता हैं इसमें परागण करने के लिए कीड़े प्रवेश करते है। यह कीड़े फल का रस चूसने के लिए इसमें प्रवेश करते है।
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गूलर का फूल कब खिलता हैं और कैसा होता हैं ये आज तक कोई नहीं जान पाया। माना जाता हैं गूलर का फूल रात में खिलता हैं जो किसी को दिखाई नहीं पड़ता है। गूलर के फूल को धन कुबेर से सम्बोधित किया जाता हैं, गूलर के पेड़ को धार्मिक रूप से अत्यधिक महत्व दिया जाता है।
रक्त विकार यानी शरीर के किसी भी अंग से अगर खून बहता हैं जैसे नाक से खून आना, मासिक धर्म जैसे रोगों में अधिक रक्तचाप होना इन सभी रोगो के लिए फायदेमंद है। इसमें गूलर के पके हुए 3-4 फलो को चीनी के साथ दिन में 2-3 बार लेने से आराम मिलता हैं।
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किसी भी घाव को जल्द से जल्द भरने के लिए गूलर की छाल का हम प्रयोग कर सकते है। गूलर की छाल का काढ़ा बनाकर उससे घाव को यदि रोजाना धोया जाये तो उससे घाव के भरने की ज्यादा सम्भावना रहती है। गूलर में रोपड़ नामक गुण पाया जाता हैं जो की घाव को भरने में सहायता करता है।
गूलर के फल को पाचन किर्या के लिए भी इस्तेमाल किया जाता हैं। गूलर का फल भूख को भी नियंत्रित करता हैं साथ ही स्वास्थ्य को भी स्वस्थ रखने में मददगार होता है। यह अल्सर जैसी बीमारियों को रोकने में भी लाभकारी साबित होता है।
गूलर का इस्तेमाल आयुर्वेदिक दवाईयों के लिए भी किया जाता हैं, लेकिन कभी कभी गूलर का ज्यादा इस्तेमाल करना भी हानिकारक हो जाता हैं :
गूलर के फल का सेवन ज्यादा नहीं करना चाहिए क्यूंकि इससे आँतों पर सूजन आने की ज्यादा आशंकाए रहती हैं, माना जाता हैं इसके ज्यादा इस्तेमाल से आँतों में कीड़े पड जाते हैं। गर्भवती महिलाओं को कभी भी इसका सेवन ज्यादा नहीं करना चाहिए, अगर वो इनका इस्तेमाल करती हैं तो डॉक्टर से परामर्श लेकर वो गूलर का उपयोग कर सकती है।
गूलर के ज्यादा उपयोग से ब्लड प्रेशर के भी कम होने की ज्यादा सम्भावनाये रहती है। जो की हार्टअटैक से जुडी बीमारियों को भी जन्म देता हैं। ब्लड प्रेशर के कम होनी की वजह से शरीर में ब्लड का सर्कुलेशन बिगड़ जाता हैं और धीमा पड जाता है। इसीलिए गूलर के फल का बहुत ही कम उपयोग करना चाहिए।
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गूलर के फल को खाने से इम्मुनिटी मिलती है। गूलर का फल फायदेमंद रहता हैं लेकिन इसके ज्यादा उपयोग से शरीर को नुक्सान पहुँच सकता हैं। गूलर के फल को खाने से शरीर में अलेर्जी जैसे बीमारियां भी उत्पन्न सकता हैं। यदि आपको लगे की गूलर के खाने से शरीर में कोई एलेर्जी महसूस हो रही हैं तो उसी वक्त उसका सेवन करना छोड़ दे।
जैसा की आप को बताया गया की गूलर जड़ी बूटियों का पौधा है, जो की बबासीर, पिम्पल्स और मस्कुलर पैन में लाभकारी होता है। गूलर का इस्तेमाल बहुत से आयुर्वेदिक दवाइयों में भी इस्तेमाल किया जाता हैं।
गूलर खून के अंदर आरबीसी (रेड ब्लड सेल) को बढ़ाता हैं, जो पूरे शरीर में ब्लड सर्कुलेशन ( खून के रक्तचाप ) को संतुलित बनाये रखती है। गूलर का पेस्ट बनाकर और उसे शहद में मिलाकर लगाने से जलने के निशान भी चले जाते है।
]]>कैसुरीना के पेड़ को देसी पाइन के नाम से भी जाना जाता है। यह फूलो के पौधों की एक प्रजाति है, जो कैसुरिनासी परिवार से सम्बंधित है। यह भारतीय उपमहाद्वीुप और ऑस्ट्रेलिया का मूल निवासी है।
इस पेड़ की पत्तियां शाखाओ के चारो ओर बिखरी हुई होती है। साथ ही इस पेड़ में नर और मादा फूल अलग अलग स्पाइक्स में व्यवस्थित होते है।
कैसुरीना का पौधा दरारयुक्त रहता है, साथ ही यह पेड़ भूरे काले रंग और पपड़ीदार छाल वाले होते है। इस पेड़ की शाखाये नरम और नीचे की तरफ झुकी हुई होती है।
हिंदी में कैसुरीना के पेड़ को जंगली सारू के नाम से भी जाना जाता है।
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कैसुरीना वृक्ष बहुत तेजी से बढ़ने वाला एक सदाबहार वृक्ष है। इस पेड़ की ऊंचाई 40 मीटर होती है, साथ ही इस पेड़ का व्यास यानी चौड़ाई 60 सेंटीमीटर होता है।
यह पेड़ ज्यादातर समुन्द्र तट पर पाया जाता है, इसके लिए रेतीली मिट्टी को उपजाऊ बताया जाता है। यह पेड़ काल्पनिक होने के साथ साथ दृण भी है, इस वृक्ष की प्राकर्तिक जीवन अवधी 50 वर्ष से भी अधिक होती है।
यह पेड़ दक्षिण पश्चिम और उत्तर पूर्वी दोनों मोनसून में अच्छे से बढ़ती है। दक्षिण भारत में इसकी खेती रेतली समुन्द्र तटों को फिर से प्राप्त करने के लिए की जा रही है।
लेकिन उत्तरी भारत में इसका उत्पादन ज्यादातर ईंधन के लिए किया जाता है। बागवान इस पेड़ का उत्पादन ज्यादातर बागो की सजावट के लिए करते है।साथ ही हॉट हाउस जैसे जगहों की सजावट के लिए इस पेड़ को लगाया जाता है।
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यह पेड़ बहुत ही ठोस होता है इसीलिए इसे आइरनवुड के नाम से भी जाना जाता है। यह पेड़ ज्यादातर उष्णकटिबंधीय क्षेत्रो में रेतीली मिट्टी में उगाया जाता है।
इस पेड़ की शाखाएँ असमान छाल से ढकी हुई होती है। इस पेड़ की लकड़ी काफी मजबूत होती है, इसीलिए इसका उपयोग बाड़ आदि लगाने के लिए भी किया जाता है।
कैसुरीना के पेड़ में नाइट्रोजन की मात्रा को स्थिर करने वाली ग्रंथिया भी पायी जाती है। साथ ही यह पेड़ 47 डिग्री से अधिक तापमान को भी सहन कर सकता है। इस वृक्ष पर जो फूल आते है वो आमतौर पर एकलिंगी होते है।
साल में इस पर दो बार फूल आते है पहले तो जनवरी से फरवरी की समय अवधी में उसके बाद इसपर 6 महीने बाद ही फूल देखने को मिलते है।
इसमें नर फूल बेलनाकार के जैसे दिखाई पड़ते है यही मादा फूल शाखा की धुरी में स्तिथ होते है, जिनके घने सिर होते है। यह मादा फूल छोटी कलियों के जैसे दिखते है यह फूल मुड़े हुए होते है और लाल रंग के बालो से ढके हुए होते है।
ज्यादातर इन सिरों को समूह के रूप में देखा जाता है। कुछ समय बाद यह कली शंक के जैसा आकर ग्रहण कर लेती है और इस पर से घने लाल बाल झड़कर निचे गिर जाते है।
कैसुरीना पेड़ की लकड़ी ठोस होती है, इसीलिए बढ़ई भी इसके साथ काम करने में असमर्थ रहते है। यह पेड़ बीम और पोस्ट के लिए अधिक उपयोगी माना जाता है।
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ज्यादातर इस पेड़ का उत्पादन ईंधन के लिए किया जाता है, यह दुनिया की सबसे अच्छी जलाऊ लकड़ियों में से एक है। यह पेड़ लम्बे समय तक भूमिगत नहीं रहता है, इस पेड़ को 10 -12 साल पुराना होने पर अपने उपयोग के लिए काट लिया जाता है। आमतौर पर कैसुरिना की छाल का उपयोग मछुआरों के जालों को रंगने के लिए किया जाता है।
यह पेड़ मिट्टी की उर्वरकता के साथ साथ स्वास्थ्य के लिए भी बेहद लाभकारी होता है। यह पेड़ मिट्टी की उत्पादन क्षमता को बनाये रखता है, साथ ही इससे पर्यावरण भी अनुकूल प्रभाव पड़ते है।
यह पेड़ फसल चक्र और सिंचाई जैसी गतिविधियों में भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका प्रदान करता है। साथ ही यह पेड़ वन्य जीवो के लिए भी आश्रय प्रदान करता है।
इस पेड़ की लकड़ी का उपयोग फर्नीचर आदि बनाने के लिए भी किया जाता है। साथ ही यह भूनिर्माण उद्देश्यों के लिए भी उपयोग किया जाता है। यह पेड़ सांस्कृतिक और पारिस्थितिक रूप से हमारे पर्यावरण का एक महत्वपूर्ण अंग बने हुए है।
यह हमे स्वास्थ्य से लेकर भवन निर्माण और दवा तक के श्रोत प्रदान करता है। इस पेड़ को ऑस्ट्रेलियाई देवदार, आइरनवुड और वीफवूड के नाम से भी जाना जाता है।
]]>किसान भाइयों अब जायद का सीजन आने वाला है। किसान अनाज, दलहन, तिलहन फसलों की खेती की जगह कम वक्त में पकने वाली सब्जियों की खेती से भी अच्छी आमदनी कर सकते हैं।
सब्जी की खेती की मुख्य बात यह है, कि इसकी बाजार में अच्छी कीमत मिल जाती है। दीर्घकालीन फसलों की तुलना में किसान सब्जी की खेती से मोटा मुनाफा उठा सकते हैं।
वर्तमान में बहुत सारे किसान परंपरागत फसलों के साथ ही सब्जियों की खेती कर अपनी आय बढ़ा रहे हैं। अब ऐसी स्थिति में आप भी फरवरी-मार्च के जायद सीजन में खीरे की खेती करके काफी ज्यादा मुनाफा अर्जित कर सकते हैं।
खीरे की बाजार मांग काफी अच्छी है और इसके भाव भी बाजार में काफी अच्छे मिल जाते हैं। अगर खीरे की उन्नत किस्मों का उत्पादन किया जाए तो इस फसल से काफी शानदार लाभ हांसिल किया जा सकता है।
खीरे की स्वर्ण पूर्णिमा किस्म की विशेषता यह है, कि इस प्रजाति के फल लंबे, सीधे, हल्के हरे और ठोस होते हैं। खीरे की यह प्रजाति मध्यम अवधि में तैयार हो जाती है।
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इसकी बुवाई के लगभग 45 से 50 दिन में इसकी फसल पककर तैयार हो जाती है। किसान इसके फलों की आसानी से तुड़ाई कर सकते हैं। इस किस्म से प्रति हैक्टेयर 200 से 225 क्विंटल तक उपज अर्जित की जा सकती है।
यह खीरे की हाइब्रिड किस्म है। इसके फल करीब 22 से 30 सेंटीमीटर लंबे होते हैं। इसका रंग हरा होता है। इसमें पीले कांटे भी पाए जाते हैं। इनका गुदा कुरकुरा होता है। खीरे की यह किस्म करीब 50 दिन में तुड़ाई के लिए तैयार हो जाती है। इस किस्म की खेती से प्रति हैक्टेयर 200 क्विंटल तक पैदावार प्राप्त की जा सकती है।
यह खीरे की संकर किस्म है। इसके फल मध्यम आकार के होते हैं। इसके फलों की लंबाई तकरीबन 20 सेंटीमीटर की होती है ओर इसका रंग हरा होता है। यह किस्म बुवाई के लगभग 50 दिन उपरांत ही तुड़ाई के लिए तैयार हो जाती है। खीरे की इस प्रजाति से प्रति हैक्टेयर 300 से 350 क्विंटल तक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।
खीरे की इस प्रजाति के फल मध्यम आकार के होते हैं। इनका रंग हरा और फल ठोस होता है। इस किस्म से प्रति हैक्टेयर 300 क्विंटल तक पैदावार प्राप्त की जा सकती है। खीरे की यह किस्म चूर्णी फफूंदी और श्याम वर्ण रोग के प्रति अत्यंत सहनशील मानी जाती है।
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यह किस्म मध्यम आकार की किस्म है। इसके फल ठोस होते हैं। इस किस्म की खास बात यह है, कि यह किस्म चूर्णी फफूंदी रोग की प्रतिरोधक क्षमता रखती है। इसकी खेती से प्रति हैक्टेयर 350 क्विंटल तक पैदावार प्राप्त की जा सकती है।
खीरे की उन्नत किस्मों को बुवाई के लिए कार्य में लेना चाहिए। इसके बीजों की बुवाई से पूर्व इन्हें उपचारित कर लेना चाहिए, जिससे कि फसल में कीट-रोग का संक्रमण ना हो।
बीजों को उपचारित करने के लिए बीज को चौड़े मुंह वाले मटका में लेना चाहिए। इसमें 2.5 ग्राम थाइरम दवा प्रति किलोग्राम बीज की दर से मिलाकर घोल बना लें। अब इस घोल से बीजों को उपचारित करें।
इसके बाद बीजों को छाया में सूखने के लिए रख दें, जब बीज सूख जाए तब इसकी बुवाई करें। खीरे के बीजों की बुवाई थाला के चारों ओर 2-4 बीज 2 से 3 सेंटीमीटर की गहराई पर बोना चाहिए।
इसके अलावा नाली विधि से भी खीरे की बुवाई की जा सकती है। इसमें खीरे के बीजों की बुवाई के लिए 60 सेंटीमीटर चौड़ी नालियां बनाई जाती है। इसके किनारे पर खीरे के बीजों की बुवाई की जाती है।
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दो नालियों के बीच में 2.5 सेंटीमीटर की दूरी रखी जाती है। इसके अलावा एक बेल से दूसरे बेल के नीचे की दूरी 60 सेमी रखी जाती है। ग्रीष्म ऋतु की फसल के लिए बीजों की बुवाई व बीजों को उपचारित करने से पहले उन्हें 12 घंटे पानी में भिगोकर रखना चाहिए।
इसके बाद बीजों को दवा से उपचारित करने के बाद इसकी बुवाई करनी चाहिए। बीज की कतार से कतार की दूरी 1 मीटर और पौधे से पौधे की दूरी 50 सेमी रखनी चाहिए।
कृषि वैज्ञानिकों के मुताबिक, एक एकड़ जमीन में खीरे की खेती करके 400 क्विंटल तक उपज प्राप्त की जा सकती है। सामान्य तौर पर बाजार में खीरे का भाव 20 से 40 रुपए प्रति किलोग्राम के मध्य होता है।
ऐसे में खीरे की खेती से एक सीजन में तकरीबन प्रति एकड़ 20 से 25 हजार की लागत लगाकर इससे तकरीबन 80 से एक लाख रुपए तक की आमदनी आसानी से की जा सकती है।
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