Ad

इसबगोल

ईसबगोल को जैविक खाद से तैयार करने पर दोगुनी हो गई गुजरात के किसानों की आय

ईसबगोल को जैविक खाद से तैयार करने पर दोगुनी हो गई गुजरात के किसानों की आय

विश्व में इसबगोल(Isabgol or Psyllium husk (सिलियम)) के उत्पादन तथा निर्यात में शीर्ष पर विराजमान भारत के किसान, अब जैविक खेती की मदद लेकर अपनी आय को दोगुना करने में सफल हो रहे हैं। वर्तमान में भारत में प्रति वर्ष लगभग एक लाख टन इसबगोल उत्पादन किया जाता है। गुजरात और राजस्थान जैसे राज्यों में इसबगोल की उत्पादकता 700 किलो ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से भी अधिक हो रही है। गुजरात और राजस्थान के किसान भाईयों ने अब धीरे धीरे रासायनिक उर्वरकों की तुलना में जैविक पदार्थों का इस्तेमाल कर उत्पादन को बढ़ाने के साथ ही अपनी आय को सुधारने में भी सफलता हासिल की है। वर्तमान में भारत में उत्पादित किया जा रहा ईसबगोल, अंतरराष्ट्रीय कंपनियों को 1800 से 2000 रुपया प्रति किलोग्राम की दर से बेचा जा रहा है, लेकिन किसानों को केवल 40 रुपये प्रति किलोग्राम की दर से ही भुगतान किया जाता है, सामान को कम्पनियों तक पहुंचाने वाले एजेंट ही सारा मुनाफा कमा लेते हैं।


क्या है इसबगोल और इसका इस्तेमाल ?

इसबगोल के बीजों में एक छिलके के जैसा पदार्थ होता है, जिसका इस्तेमाल औषधीय तत्व के रूप में किया जाता है। इस बीज को पीसकर पाउडर बनाया जाता है, जिसका प्रयोग करने से पेट में कब्ज और गर्मी जैसी समस्याओं से छुटकारा मिलता है। इसके अलावा डायरिया और पेचिश जैसे रोगों को दूर करने में भी इसबगोल का आयुर्वेदिक औषधि के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। 


इसबगोल उत्पादन के लिए आवश्यक मृदा और जलवायु :

रबी के मौसम में उगाई जाने वाली इस फसल के लिए ठंडी जलवायुवीय स्थितियों की आवश्यकता होती है। फसल के उत्पादन से पहले किसान भाइयों को ध्यान रखना चाहिए कि कम नमी की मात्रा वाले क्षेत्रों में इसबगोल का उत्पादन सर्वाधिक होता है। अक्टूबर महीने के आखिरी सप्ताह या नवंबर की शुरुआती सप्ताह में इसबगोल की बुवाई की जाती है। 7 से अधिक पीएच मान वाली मृदा इसबगोल के लिए सर्वोत्तम मानी जाती है, वर्तमान में भारतीय किसान 'दोमट बलुई मृदा' से सर्वाधिक उत्पादन प्राप्त कर पा रहे हैं।


 

इसबगोल उत्पादन के लिए कैसे तैयार करें जैविक मृदा और बीज उपचार ?

राजस्थान के बाड़मेर जिले में रहने वाले किसान विश्वप्रसाद बताते हैं कि वर्तमान में वह ट्राइकोडर्मा (Trichoderma) नाम के फफूंदनाशक का इस्तेमाल कर बीजों का बेहतर उपचार कर रहे हैं। ट्राइकोडर्मा एक लाभकारी और प्रदूषण रहित सुरक्षित फफूंदनाशी होता है, वर्तमान में कृषि वैज्ञानिक इसे जैविक श्रेणी में शामिल करते हैं। बेहतर बीज उपचार के लिए शुरुआत में इसबगोल के बीजों को पानी में डुबोकर गीला किया जाता है और उन्हें ट्राइकोडरमा के साथ तैयार किए गए एक घोल में मिलाकर कुछ समय के लिए रख देना चाहिए। एक किलोग्राम ट्राइकोडरमा के घोल में 25 किलोग्राम जैविक खाद को मिला करें एक एकड़ में इस्तेमाल होने वाले बीजों का उपचार किया जा सकता है। इस प्रक्रिया की मदद से इसबगोल के पौधों में होने वाले तनागलन और कई अन्य रोगों से सफलतापूर्वक निदान पाया जा सकता है।

ये भी पढ़ें: घर पर करें बीजों का उपचार, सस्ती तकनीक से कमाएं अच्छा मुनाफा
 

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के से जुड़ी एक गैर सरकारी संस्थान की एक रिपोर्ट के अनुसार इसबगोल के प्रति हैक्टेयर के क्षेत्र में उत्पादन करने में लगभग पन्द्रह हज़ार रुपए का खर्चा आता है और वर्तमान बाजार दर से को आधार मानकर किसान एक लाख रुपये तक कि उपज प्राप्त कर सकते हैं। किसान विश्वप्रसाद बताते हैं कि पिछले साल उन्होंने अस्सी हजार रुपए प्रति हेक्टेयर की दर से मुनाफा कमाया है।


 

वर्तमान में लोकप्रिय इसबगोल की उन्नत किस्में :

वर्तमान में भारतीय किसान परिपक्वता की अवधि के आधार पर इसबगोल की अलग-अलग किस्म का उत्पादन करना पसंद करते हैं। पूसा के कृषि वैज्ञानिकों के द्वारा सुझाई गयी कुछ इसबगोल की कुछ उन्नत किस्में जैसे कि आर.आई.-89 (R. I.- 89) नामक किस्म 110 से 120 दिनों में परिपक्व हो जाती है और इस किस्म से प्रति हेक्टेयर क्षेत्र से 15 क्विंटल तक इसबगोल का उत्पादन किया जा सकता है। इसके अलावा एम आई जी -2 (MIG-2) नाम की किस्म तीन से चार सिंचाईयों में ही पक कर तैयार हो जाती है। यह किस्म सर्वाधिक उत्पादन देती है और इसकी मदद से प्रति हेक्टेयर क्षेत्र में सामान्यतः 18 क्विंटल से भी अधिक औसत उपज प्राप्त की जा सकती है। 


ये भी पढ़ें: जैविक खाद का करें उपयोग और बढ़ाएं फसल की पैदावार, यहां के किसान ले रहे भरपूर लाभ


इसबगोल उत्पादन के दौरान कैसे करें खाद एवं उर्वरकों का बेहतर प्रबंधन तथा सिंचाई योजना :

वर्तमान में इसबगोल उत्पादन में एक सफल किसान के रूप में उभरे गुजरात और राजस्थान क्षेत्र में रहने वाले किसान जैविक खाद अर्थात गोबर की खाद और वर्मी कंपोस्ट का इस्तेमाल करना सर्वोत्तम मानते हैं। अधिक पैदावार के लिए किसान मृदा परीक्षण की मदद से पोषक तत्वों की भी समय पर जांच करवा रहे हैं। इस फसल के उत्पादन के लिए नाइट्रोजन की बहुत ही कम आवश्यकता होती है, लेकिन फिर भी प्रति हेक्टेयर क्षेत्र में 10 किलोग्राम नाइट्रोजन तथा 25 से 30 किलोग्राम फास्फोरस का इस्तेमाल किया जा सकता है। वर्तमान में डिजिटल तकनीकों की मदद से किसानी क्षेत्र में मुनाफा कमाने वाले किसान एजेटॉबेक्टर कल्चर (Azotobacter culture) की मदद से भी बीजों का उपचार कर रहे हैं, जिससे नाइट्रोजन जैसे उर्वरक को खरीदने में आने वाली लागत को कम किया जा सकता है। इसबगोल की फसल की सिंचाई योजना के दौरान बुवाई के तुरंत बाद ही पहली सिंचाई करनी चाहिए। फसल का अंकुरण शुरू होने से पहले पानी का सीमित प्रयोग ही बेहतर उत्पादकता देता है। इसबगोल के एक सीजन को तैयार होने में लगभग तीन से चार सिंचाईयों की आवश्यकता होती है। किसान भाई अपनी सहूलियत के अनुसार बुवाई के तुरंत बाद पहली सिंचाई करने के पश्चात अगली सिंचाई 35 दिनों के अंतराल के बाद कर सकते हैं।

ये भी पढ़ें: एकीकृत जैविक खेती से उर्वर होगी धरा : खुशहाल किसान, स्वस्थ होगा इंसान


इसबगोल की फसल में होने वाले रोग और उनका उपचार :

भारतीय क्षेत्र की जलवायु के अनुसार वर्तमान में इसबगोल में मृदुरोमिल नामक एक फफूंद मुख्य रोग के रूप में देखा जाता है। इस रोग की निशानी के रूप में पत्तियों में सबसे पहले धब्बे के जैसे आकार दिखाई देना शुरू होता है, इसके बाद यह पूरी पत्ती पर फैल कर उसे नष्ट कर देते हैं। अधिक नमी वाले स्थानों पर इस रोग के प्रभाव अधिक भी हो सकते हैं। इस फफूंद का प्रभाव कम करने के लिए खड़ी फसल पर लकड़ी के बुरादे से तैयार हुई राख का छिड़काव करना चाहिए। इसके अलावा जैविक कृषि से तैयार नीम के पत्तियों को पीस कर एक जैविक कीट घोल बनाकर समय-समय पर इसबगोल की फसल पर छिड़काव करना चाहिए। आशा करते हैं हमारे किसान भाइयों को Merikheti.com की मदद से पश्चिमी भारत में स्थित राज्यों में रहने वाले किसान भाइयों की मुनाफा कमाने की पूरी जैविक क्रिया विधि के बारे में जानकारी मिल गई होगी और आप भी भविष्य में कम लागत के साथ की जाने वाली जैविक खेती की तरफ रुझान करते हुए अच्छा मुनाफा कमा पाएंगे।

बेमौसम बारिश व ओलावृष्टि ने एमपी और राजस्थान के किसानों की फसलें करदीं तबाह

बेमौसम बारिश व ओलावृष्टि ने एमपी और राजस्थान के किसानों की फसलें करदीं तबाह

मध्य प्रदेश एवं राजस्थान में आकस्मिक रूप से आई बेमौसम बारिश एवं ओलावृष्टि की वजह से रायडा, तारामीरा, ईसबगोल और जीरा जैसी फसलें नष्ट हो गई हैं। होली पर्व के तुरंत उपरांत फसलों की कटाई होनी थी। इस बार किसान भाई बेहतर आमदनी की आस में बैठे थे। वर्षा और ओलावृष्टि की वजह से किसानों के समूचे अरमानों पर पानी फिर गया है। बेमौसम बारिश एवं ओलावृष्टि की वजह से राजस्थान के किसानों को बेहद हानि का सामना करना पड़ा है। जालौर एवं बाड़मेर जनपद में बेहद कृषि रकबे में फसलों पर इसका प्रभाव देखने को मिला है। आकस्मिक आन पड़ी इस विपत्ति से निराश किसानों द्वारा केंद्र सरकार से समुचित आर्थिक मदद देकर हानि की भरपाई करने की मांग व्यक्त की है।

इतने अरब रुपये की फसल हुई तबाह

जालौर कृषि विभाग के उपनिदेशक आरबी सिंह का कहना है कि यहां सर्वाधिक इसबगोल की फसल को हानि हुई है। रिपोर्ट के अनुसार, इसबगोल की फसल 80 फीसद तक तबाह हो गई है। साथ ही, अरण्डी, तारामीरा, जीरा, सरसों, गेंहू की 30 फीसद फसल नष्ट हो गई है। दावे के अनुसार जनपद में 35600 हेक्टेयर में खड़ी 2.13 अरब रुपये की फसल खराब हो गई है। किसानों के समक्ष आजीविका की समस्या उत्पन्न हो गई है। ऐसे वक्त में जालोर के सरपंच संघ के जिलाध्यक्ष सुनील साहू द्वारा मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को पत्र लिखकर समुचित आर्थिक सहायता की मांग की है। साथ ही, बाड़मेर जनपद मुख्यालय के समीप के गांवों सहित गुड़ामालानी, सेड़वा, धोरीमन्ना, चौहटन, बायतु में बारिश एवं ओलावृष्टि से दर्जनों गांवों में किसानों की फसलें बर्बाद हो गईं हैं। होली के पावन पर्व के तुरंत बाद फसलों की कटाई जरूरी थी। किसान अच्छी आय की उम्मीद लगाए इंतजार में थे। लेकिन, बेमौसम वर्षा और ओलावृष्टि की वजह से किसानों के अरमानों पर पानी फिर गया है।

ये भी पढ़ें:
सर्दी में पाला, शीतलहर व ओलावृष्टि से ऐसे बचाएं गेहूं की फसल

मध्य प्रदेश में भी बेमौसम बारिश बनी किसानों की मुसीबत

किसान वैसे ही कई सारी चुनौतियों से जूझते रहते हैं। वहीं, अब बेमौसम बारिश व ओलावृष्टि की वजह से मध्य प्रदेश के किसानों के समक्ष भी संकट पैदा हो गया है। खेतों में खड़ी लहलहाती फसल ओलावृष्टि की वजह से मुरझा सी गई है। विभिन्न स्थानों पर फसल 80 फीसदी तक बर्बाद हो गई है। भोपाल से चिपके खजूरी कलां गांव में असमय वर्षा के चलते किसानों की गेहूं की फसल लगभग बर्बाद हो चुकी है। पीड़ित किसान फिलहाल फसल मुआवजा और फसल बीमा पर आश्रित हैं। सरकार से यही मांग की जा रही है, कि शीघ्र ही उन्हें न्यूनतम लागत के खर्च की धनराशि प्राप्त हो जाए। किसानों भाइयों का यह दर्द एमपी के विभिन्न जनपदों से भी सामने आ रहे हैं। मालवा, विदिशा एवं आगर की भी यही स्थिति है।