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कुल्थी

दलहनी फसलों पर छत्तीसढ़ में आज से होगा अनुसंधान

दलहनी फसलों पर छत्तीसढ़ में आज से होगा अनुसंधान

विकास के लिए रायपुर में आज से जुटेंगे, देश भर के सौ से अधिक कृषि वैज्ञानिक

रायपुर। छत्तीसगढ़ में वर्तमान समय में लगभग 11 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में दलहनी फसलें ली जा रहीं है, जिनमें अरहर, चना, मूंग, उड़द, मसूर, कुल्थी, तिवड़ा, राजमा एवं मटर प्रमुख हैं। इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय रायपुर में दलहनी फसलों पर अनुसंधान एवं प्रसार कार्य हेतु तीन
अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजनाएं - मुलार्प फसलें (मूंग, उड़द, मसूर, तिवड़ा, राजमा, मटर), चना एवं अरहर संचालित की जा रहीं है जिसके तहत नवीन उन्नत किस्मों के विकास, उत्पादन तकनीक एवं कृषकों के खतों पर अग्रिम पंक्ति प्रदर्शन का कार्य किया जा रहा है। विश्वविद्यालय द्वारा अब तक विभिन्न दलहनी फसलों की उन्नतशील एवं रोगरोधी कुल 25 किस्मों का विकास किया जा चुका है, जिनमें मूंग की 2, उड़द की 1, अरहर की 3, कुल्थी की 6, लोबिया की 1, चना की 5, मटर की 4, तिवड़ा की 2 एवं मसूर की 1 किस्में प्रमुख हैं।


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छत्तीसगढ़ राज्य गठन के उपरान्त पिछले 20 वर्षों में प्रदेश में दलहनी फसलों के रकबे में 26 प्रतिशत, उत्पादन में 53.6 प्रतिशत तथा उत्पादकता में 18.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इसके बावजूद प्रदेश में दलहनी फसलों के विस्तार एवं विकास की असीम संभावनाएं हैं। इसी के तहत देश में दलहनी फसलों के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए अनुसंधान एवं विकास हेतु कार्य योजना एवं रणनीति तैयार करने, देश के विभिन्न राज्यों के 100 से अधिक दलहन वैज्ञानिक, 17 एवं 18 अगस्त को कृषि विश्वविद्यालय रायपुर में जुटेंगे। इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय द्वारा भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली के सहयोग से यहां दो दिवसीय रबी दलहन कार्यशाला एवं वार्षिक समूह बैठक का आयोजन किया जा रहा है। कृषि महाविद्यालय रायपुर के सभागृह में आयोजित इस कार्यशाला का शुभारंभ प्रदेश के कृषि मंत्री रविन्द्र चौबे करेंगे। शुभारंभ समारोह में विशिष्ट अतिथि के रूप में प्रदेश के कृषि उत्पादन आयुक्त डॉ. कमलप्रीत सिंह, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली के उप महानिदेशक डॉ. टी.आर. शर्मा, सहायक महानिदेशक डॉ. संजीव शर्मा, भारतीय दलहन अनुसंधान संस्थान, कानपुर के निदेशक डॉ. बंसा सिंह तथा भारतीय धान अनुसंधान संस्थान हैदराबाद के निदेशक डॉ. आर.एम. सुंदरम भी उपस्थित रहेंगे। समारोह की अध्यक्षता इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. गिरीश चंदेल करेंगे। इस दो दिवसीय रबी दलहन कार्यशाला में चना, मूंग, उड़द, मसूर, तिवड़ा, राजमा एवं मटर का उत्पादन बढ़ाने हेतु नवीन उन्नत किस्मों के विकास एवं अनुसंधान पर विचार-मंथन किया जाएगा।


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भारत आज मांग से ज्यादा कर रहा अनाज का उत्पादन

उल्लेखनीय है कि भारत में हरित क्रांति अभियान के उपरान्त देश ने अनाज उत्पादन के क्षेत्र में आत्म निर्भरता हासिल कर ली है और आज हम मांग से ज्यादा अनाज का उत्पादन कर रहे हैं। लेकिन, आज भी हमारा देश दलहन एवं तिलहन फसलों के उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भर नहीं बन सका है और इन फसलों का विदेशों से बड़ी मात्रा में आयात करना पड़ता हैै। वर्ष 2021-22 में भारत ने लगभग 27 लाख मीट्रिक टन दलहनी फसलों का आयात किया है। देश को दालों के उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने के लगातार प्रयास किये जा रहें हैं। केन्द्र एवं राज्य सरकार द्वारा किसानों को दलहनी फसलें उगाने के लिए प्रेरित किया जा रहा है। वैसे तो भारत विश्व का प्रमुख दलहन उत्पादक देश है और देश के 37 प्रतिशत कृषि क्षेत्र में दलहनी फसलों की खेती की जाती है। विश्व के कुल दलहन उत्पादन का एक चौथाई उत्पादन भारत में होता है, लेकिन खपत अधिक होने के कारण प्रतिवर्ष लाखों टन दलहनी फसलों का आयात करना पड़ता है।

यह समन्वयक करेंगे चर्चा

इस दो दिवसीय कार्यशाला में इन संभावनाओं को तलाशने तथा उन्हें मूर्त रूप देने का कार्य किया जाएगा। कार्यशाला में अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजना चना के परियोजना समन्वयक डॉ. जी.पी. दीक्षित, अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजना मुलार्प के परियोजना समन्वयक डॉ. आई.पी. सिंह, सहित देश में संचालित 60 अनुसंधान केन्द्रों के कृषि वैज्ञानिक शामिल होंगे।
कुल्थी की खेती से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी

कुल्थी की खेती से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि कुल्थी की खेती करने के लिए हल्की गर्म और शुष्क जलवायु अच्छी होती है। इसके पौधों का विकास 20-30 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान में बेहतर माना जाता है। इसकी खेती के लिए हर प्रकार की मृदा उचित रहती है। भारत की दलहनी फसलों में कुल्थी भी एक प्रमुख फसल है। बतादें, कि इसकी झारखंड, पश्चिम बंगाल, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, खेती कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़ और बिहार में मुख्य रूप से की जाती है। यह रोजगार के अवसर उत्पन्न करने और किसान भाइयों की आमदनी में इजाफा करने का अच्छा माध्यम बन सकता हैा। क्योंकि, कुल्थी की खेती शुष्क क्षेत्रों में भी की जा सकती है। इस वजह से अधिक जल की भी आवश्यकता नहीं पड़ती है। कुल्थी के बीज का दाल के तौर पर सेवन करने के साथ ही इसे हरे चारे के तौर पर पशुओं को भी खिलाया जाता है। कुल्थी को हॉर्सग्राम के नाम से भी जाना जाता है। कुल्थी की खेती मिश्रित फसल के तौर पर भी की जा सकती है। बतादें, कि इसको मक्का, अरहर, ज्वार और बाजरा के साथ उत्पादित किया जा सकता है। कुल्थी की फसल स्वास्थ्य के लिए भी लाभकारी होती है और कई बीमारियों के नियंत्रण में भी कारगर साबित होती है।

कुल्थी की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु और मिट्टी

कुल्थी की खेती के लिए हल्की गर्म और शुष्क जलवायु उपयुक्त होती है। इसके पौधों का विकास 20-30 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान में बेहतर ढ़ंग से होता है। इसकी खेती के लिए हर तरह की मृदा उपयुक्त मानी जाती है। परंतु, बलुई दोमट मृदा इसके लिए सबसे अच्छी मानी जाती है एवं मिट्टी का पी.एच.मान सामान्य होना चाहिए। यह भी पढ़ें: मक्का की खेती के लिए मृदा एवं जलवायु और रोग व उनके उपचार की विस्तृत जानकारी

कुल्थी की बिजाई हेतु उपयुक्त समय

कुल्थी की बिजाई जुलाई के अंत से लेकर अगस्त तक की जा सकती है। यदि चारे के लिए बिजाई कर रहे हैं, तो जून से अगस्त के दौरान बुवाई कर सकते हैं। पश्चिम बंगाल में इसकी बिजाई अक्टूबर-नवंबर में की जाती है। इसे रबी और खरीफ दोनों ही तरह के मौसम में उत्पादित किया जा सकता है। खरीफ सीजन में बिजाई करते वक्त कतार से कतार फासला 40-45 सेंटीमीटर एवं रबी फसल की बुवाई के दौरान कतार से कतार की फासला 25-30 सेंटीमीटर रखें। वहीं, पौधों के मध्य 5 सेंटीमीटर का फासला रखें। बिजाई से पूर्व बीजों को कार्बेन्डाजिम 2 ग्राम/किलोग्राम की मात्रा के अनुसार उपचारित कर लें।

कुल्थी की खेती में उर्वरक और सिंचाई की आवश्यकता

कुल्थी की खेती में बुवाई के दौरान 20 किलो नाइट्रोजन एवं 30 किलो फॉस्फोरस प्रति हेक्टेयर की दर से डालें। साथ ही, उर्वरक बीज डालने से पूर्व ही डालें। फसल में फूल आने से पूर्व एवं फली में दाना निर्मित होने से पूर्व सिंचाई अवश्य करें। साथ ही, बिजाई के 20-25 दिन के उपरांत निराई-गुड़ाई करें।

कुल्थी की फसल कटाई के लिए तैयार कब होती है

अगर हम कुल्थी की फसल की कटाई के बारे में बात करें तो जब फसल की फलियां ऊपर से पीली पड़ने लगें तब आप इसकी कटाई कर सकते हैं। दरअसल, इस अवस्था तक नीचे एवं मध्य भाग की फलियां पूर्णतय पक जाती है। यदि इस दौरान कटाई नहीं की जाती है, तो नीचे की फलियां चटकना शुरू हो जाती हैं। वहीं, दाना खराब हो जाता है, जिससे पैदावार कम होती है। कटाई के उपरांत दाने को 3-4 दिन तक धूप में सुखा लेना चाहिए। उसके बाद ही इसका भंडारण करें। कीटों से बचाव करने के लिए प्रति क्विंटल 2 किलो सूखी नीम की पत्तियां मिला दें।

किसान कुल्थी की खेती से कितना लाभ उठा सकते हैं

वैज्ञानिक विधि के माध्यम से कुल्थी की खेती कर किसान अच्छा मुनाफा उठा सकते हैं। इसकी खेती में लागत प्रति हेक्टेयर करीब 17,200 रुपये एवं उत्पादन प्रति हेक्टेयर 6-10 क्विंटल तक हो सकती है। बाजार में किसान फसल को 50 रुपये प्रति किलो के भाव से बेच सकते हैं। इस प्रकार से प्रति हेक्टेयर तकरीबन 22,800 रुपये तक का शुद्ध मुनाफा अर्जित कर सकते हैं। झारखंड के जनजातीय किसान इसकी खेती में काफी रुचि दिखा रहे हैं, जिससे उनके आर्थिक हालातों में काफी बेहतरी आ रही है।