Ad

केला

विदेशों में बढ़ी देसी केले की मांग, 327 करोड़ रुपए का केला हुआ निर्यात

विदेशों में बढ़ी देसी केले की मांग, 327 करोड़ रुपए का केला हुआ निर्यात

भारतीय केले की मांग विदेशों में खूब बढ़ रही है, राष्ट्रीय बागवानी बोर्ड (नेशनल हॉर्टिकल्चर बोर्ड) के मुताबिक पिछले 9 सालों में केले के निर्यात में 541% की वृद्धि के साथ-साथ ₹327 करोड़ रुपए का केला निर्यात किया गया है। भारत को कृषि प्रधान देश माना जाता है, यहां खेती के प्रति किसान हमेशा से जागरूक रहते हैं। जिस तरह कृषि के क्षेत्र में भारत आगे बढ़ते हुए विदेशी बाजारों में भी अपना परचम लहरा रहा है, इससे साफ जाहिर होता है कि आने वाले समय में भारत कृषि के क्षेत्र में विश्व पटल पर अपना परचम लहराएगा। भारत दुनिया के कुल उत्पादन का 10% फलों का प्रोडक्शन ले रहा है। यहां जिस तरह से ऑर्गेनिक सब्जियों की खेती की जा रही है और उसे देश विदेश में निर्यात किया जा रहा है, इससे किसानों को बंपर फायदा और विश्व पटल पर भारत का नाम कृषि के क्षेत्र में जोर शोर से हो रहा है। नेशनल हॉर्टिकल्चर बोर्ड के मुताबिक पिछले 9 वर्षों में केले के निर्यात में 541% की वृद्धि दर्ज की गई है जो कि अचंभित करने वाला आंकड़ा है। किसान केले की खेती, नई तकनीक के साथ बड़ी जोर-शोर से कर रहे हैं और बंपर मुनाफा भी कमा रहे हैं। केला उत्पादन करने वाले किसानों के लिए यह एक अच्छा संकेत भी है कि उन्हें केले के उत्पादन पर अच्छा-खासा मुनाफा हासिल हो रहा है। केला का स्वस्थ और बेहतर उत्पादन करने के लिए टिशु कल्चर टेक्निक, वैज्ञानिक और जैविक विधि पर किसान काफी जोर दे रहे हैं और साथ ही राज्य और केंद्र की सरकार भी नई तकनीकों के साथ केले की खेती करने के लिए किसानों को जागरूक करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है।

ये भी पढ़ें: किसान करें कैवेंडिश केले समूह के केले की खेती, शानदार कमाई के बाद भूल जायेंगे धान-गेहूं उपजाना
आंकड़ों पर गौर करें तो वर्ष 2013 में अप्रैल से जुलाई तक 51 करोड़ का केला निर्यात हुआ था। नई तकनीक और बेहतर नीतियों के साथ उन्नत किस्म के केले के उत्पादन से पिछले 9 सालों में निर्यात 541% बढ़ा है। 2022 में अप्रैल से जुलाई तक के आंकड़े की बात करें तो भारत ने करीब 327 करोड़ का केला निर्यात किया है।

इन राज्यों का है अहम रोल

अगर मीडिया रिपोर्ट्स की बात करें तो दुनिया के कुल केला उत्पादन में भारत की हिस्सेदारी 25% की है। केला उत्पादन में आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, गुजरात, केरल, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार राज्यों का अहम रोल है। भारत में केले के कुल उपज का 70% सिर्फ इन्हीं राज्यों के द्वारा उत्पादन होता है। उन्नत किस्म के पैदावार को बढ़ावा देने के लिए कृषि और प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद और निर्यात और विकास प्राधिकरण (APEDA) ने भी किसानों का खूब सहयोग किया है। इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट की बात हो, क्वालिटी डेवलपमेंट की बात हो या फिर मार्केट डेवलपमेंट की बात हो इसमें इनका भी अहम रोल है।

बढ़ते निर्यात के साथ कीमत में भी खूब हुई बढ़ोतरी

पिछले 9 सालों में केले के निर्यात में ग्रोथ के साथ-साथ कीमतों में भी भारी बढ़ोतरी देखी गई है, केले का उत्पादन करके किसान आत्मनिर्भर बन रहे हैं। बात कुछ आंकड़ों की कर लें तो, साल 2018-19 में भारत देश से 1.34 लाख मीट्रिक टन केला का विदेशों में निर्यात हुआ था, जिसकी कीमत 413 करोड़ रुपए दर्ज की गई थी। साल 2019-20 में केले का निर्यात 1.95 लाख मीट्रिक टन तक पहुंचा, जिसकी कीमत लगभग 660 करोड़ रुपए दर्ज की गई, वहीं 2020-21 की 619 करोड़ रुपए मूल्य के केले का निर्यात किया गया था।

ये भी पढ़ें: अब सरकार बागवानी फसलों के लिए देगी 50% तक की सब्सिडी, जानिए संपूर्ण ब्यौरा
विदेशी बाजारों में जिस तरह से भारतीय केले की डिमांड बढ़ती जा रही है, किसान अब बागवानी फसलों पर विशेष ध्यान दे रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय मानकों पर खरा उतरने के लिए उन्नत किस्म के पैदावार को बढ़ावा दिया जा रहा है, जिससे किसान बढ़िया मुनाफा अर्जित कर रहे हैं और विदेशों में भारत का परचम लहरा रहा है।
भारत के इन क्षेत्रों में केले की फसल को पनामा विल्ट रोग ने बेहद प्रभावित किया है

भारत के इन क्षेत्रों में केले की फसल को पनामा विल्ट रोग ने बेहद प्रभावित किया है

भारत के अंदर केले का उत्पादन गुजरात, मध्य प्रदेश, बिहार और उत्तर प्रदेश में उगाई जाती है। पनामा विल्ट रोग से प्रभावित इलाके बिहार के कटिहार एवं पूर्णिया, उत्तर प्रदेश के फैजाबाद, बाराबंकी, महाराजगंज, गुजरात के सूरत और मध्य प्रदेश के बुरहानपुर जनपद हैं। भारत में केले की खेती काफी बड़े पैमाने पर की जाती है। साथ ही, यह देश विश्व के सबसे बड़े केले उत्पादकों में से एक है। भारत विभिन्न केले की किस्मों की खेती के लिए जाना जाता है, जिनमें लोकप्रिय कैवेंडिश केले के साथ-साथ रोबस्टा, ग्रैंड नैने एवं पूवन जैसी अन्य क्षेत्रीय प्रजातियां भी शम्मिलित हैं। प्रत्येक किस्म की अपनी अलग विशेषताएं हैं। ऐसी स्थिति में यदि केले की फसल को कुछ हो जाए तो इसका प्रत्यक्ष रूप से प्रभाव किसानों की आमदनी पर पड़ता है। साथ ही, देशभर के केला किसानों के लिए पनामा विल्ट रोग एक नई समस्या के रूप में आया है। यह बीमारी उनकी लाखों की फसल को बर्बाद कर रही है।

पनामा विल्ट रोग

यह एक कवक रोग है। इस संक्रमण से केले की फसल पूर्णतय बर्बाद हो सकती है। पनामा विल्ट फुसैरियम विल्ट टीआर-2 नामक कवक की वजह से होता है, जिससे केले के पौधों का विकास बाधित हो जाता है। इस रोग के लक्षणों पर नजर डालें तो केले के पौधे की पत्तियां भूरी होकर गिर जाती हैं। साथ ही, तना भी सड़ने लग जाता है। यह एक बेहद ही घातक बीमारी मानी जाती है, जो केले की संपूर्ण फसल को चौपट कर देती है। यह फंगस से होने वाली बीमारी है, जो विगत कुछ वर्षों में भारत के अतिरिक्त अफ्रीका, ताइवान, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया सहित विश्व के बहुत सारे देशों में देखी गई। इस बीमारी ने वहां के किसानों की भी केले की फसल पूर्णतय चौपट कर दी है। वर्तमान में यह बीमारी कुछ वर्षों से भारत के किसानों के लिए परेशानी का कारण बन गई है।

ये भी पढ़ें:
किसान ने स्विट्जरलैंड की नौकरी छोड़ शुरू की केले की खेती, आज 100 करोड़ का है टर्नओवर

पनामा विल्ट रोग की इस तरह रोकथाम करें

पनामा विल्ट रोग की रोकथाम के संबंध में वैज्ञानिकों एवं किसानों की सामूहिक कोशिशों से इस बीमारी का उपचार किया जा सकता है। वैज्ञानिकों का कहना है, कि पनामा विल्ट बीमारी की अभी तक कोई कारगर दवा नहीं मिली है। हालाँकि, CISH के वैज्ञानिकों ने ISAR-Fusicant नाम की एक औषधी बनाई है। इस दवा के इस्तेमाल से बिहार एवं अन्य राज्यों के किसानों को काफी लाभ हुआ है। सीआईएसएच विगत तीन वर्षों से किसानों की केले की फसल को बचाने की कोशिश कर रहा है। इस वजह से भारत भर के किसानों तक इस दवा को पहुंचाने की कोशिश की जा रही है।

पनामा विल्ट रोग का इन राज्यों में असर हुआ है

हमारे भारत देश में केले का उत्पादन बिहार, उत्तर प्रदेश, गुजरात एवं मध्य प्रदेश में किया जाता है। पनामा विल्ट रोग से प्रभावित बिहार के कटिहार और पूर्णिया, उत्तर प्रदेश के फैजाबाद, बाराबंकी, महाराजगंज, गुजरात के सूरत और मध्य प्रदेश के बुरहानपुर जनपद हैं। ऐसी स्थिति में यहां के कृषकों के लिए यह बेहद आवश्यक है, कि वो अपने केले की फसल का विशेष रूप से ध्यान रखते हुए उसे इस बीमारी से बचालें।
सितंबर महीने में मानसून के सक्रिय होने की वजह से बिहार एवम उत्तर प्रदेश में केला की खेती में थ्रिप्स का बढ़ता आक्रमण कैसे करें प्रबंधन?

सितंबर महीने में मानसून के सक्रिय होने की वजह से बिहार एवम उत्तर प्रदेश में केला की खेती में थ्रिप्स का बढ़ता आक्रमण कैसे करें प्रबंधन?

सितम्बर महीने में मानसून के सक्रिय होने की वजह से हो रही वर्षा के कारण से वातावरण में अत्यधिक नमी देखी जा रही है , इस वजह से केला में थ्रिप्स का आक्रमण कुछ ज्यादा ही देखने को मिल रहा है। पहले यह कीट माइनर कीट माना जाता था। इससे कोई नुकसान कही से भी रिपोर्ट नही किया गया था। लेकिन विगत दो वर्ष एवं इस साल अधिकांश प्रदेशों से इस कीट का आक्रमण देखा जा रहा है। पत्तियों के गब्हभे के अंदर थ्रिप्स पत्तियों को खाते रहते है एवं डंठल (पेटीओल्स ) की सतह पर विशिष्ट गहरे, वी-आकार के निशान दिखाई देते हैं। घौद में जब केला पूरी तरह से विकसित हो जाती हैं तो थ्रिप्स के लक्षण जंग के रूप में दिखाई देते हैं। थ्रीप्स पत्तियों पर, फूलों पर एवं फलों पर नुकसान पहुंचाते है ,पत्तियों का थ्रिप्स (हेलियनोथ्रिप्स कडालीफिलस ) के खाने की वजह से पहले पीले धब्बे बनते है जो बाद में भूरे रंग के हो जाते हैं और इस कीट की गंभीर अवस्था में प्रभावित पत्तियां सूख जाती हैं। इस कीट के वयस्क फलों में अंडे देते है एवं इस कीट के निम्फ फलों को खाते हैं। अंडा देने के निशान और खाने के धब्बे जंग लगे धब्बों में विकसित हो जाते हैं जिससे फल टूट जाते हैं। गर्मी के दिनों में इसका प्रकोप अधिक होता है। जंग के लक्षण पूर्ण विकसित गुच्छों में दिखाई देते हैं। पूवन, मोन्थन, सबा, ने पूवन और रस्थली (मालभोग)जैसे केलो में इसकी वजह से खेती बुरी तरह प्रभावित होता हैं। फूल के थ्रिप्स (थ्रिप्स हवाईयन्सिस ) वयस्क और निम्फ केला के पौधे में फूल निकलने से पहले फूलों के कोमल हिस्सों और फलों पर भोजन करती हैं और यह फूल खिलने के दो सप्ताह तक भी बनी रहती है। वयस्क और निम्फल अवस्था में चूसने से फलों पर काले धब्बे बन जाते हैं,जिसकी वजह से बाजार मूल्य बहुत ही कम मिलता है,जिससे किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ता है।

पहचान

केला में लगने वाला थ्रिप्स बेहद छोटे कीड़े होते हैं, जिनकी लंबाई आमतौर पर लगभग 1-2 मिमी होती है। उनके शरीर पतले, लम्बे होते हैं और आमतौर पर पीले या हल्के भूरे रंग के होते हैं। उनके पंखों पर लंबे बाल होते हैं, जो उन्हें एक विशिष्ट रूप देते हैं। केले के थ्रिप्स की पहचान करना उनके आकार के कारण चुनौतीपूर्ण हो सकता है, लेकिन केले के पौधे की पत्तियों और फलों की बारीकी से जांच करने से उनकी उपस्थिति का पता चल सकता है।

ये भी पढ़ें:
मूंगफली की फसल को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले कीट व रोगों की इस प्रकार रोकथाम करें

जीवन चक्र

प्रभावी प्रबंधन के लिए केले के थ्रिप्स के जीवन चक्र को समझना आवश्यक है। ये कीड़े एक साधारण कायापलट से गुजरते हैं, जिसमें अंडा, लार्वा, प्यूपा और वयस्क चरण शामिल होते हैं। अंडे देने की अवस्था: मादा थ्रिप्स अपने अंडे केले के पत्तों, कलियों या फलों के मुलायम ऊतकों में देती हैं। अंडों को अक्सर एक विशेष ओविपोसिटर का उपयोग करके पौधों के ऊतकों में डाला जाता है। लार्वा चरण: एक बार अंडे सेने के बाद, लार्वा पौधे के ऊतकों को खाते हैं, जिससे नुकसान होता है। वे छोटे और पारभासी होते हैं, जिससे उन्हें पहचानना मुश्किल हो जाता है। प्यूपा अवस्था: प्यूपा अवस्था एक गैर-आहार अवस्था है जिसके दौरान थ्रिप्स वयस्कों में विकसित होते हैं। वयस्क अवस्था: वयस्क थ्रिप्स प्यूपा से निकलते हैं और उड़ने में सक्षम होते हैं। वे कोशिकाओं को छेदकर और रस निकालकर पौधे के ऊतकों को खाते हैं, जिससे पत्तियाँ विकृत हो जाती हैं और फलों पर निशान पड़ जाते हैं।

केले के थ्रिप्स से होने वाली क्षति

केले के थ्रिप्स विभिन्न विकास चरणों में केले के पौधों को महत्वपूर्ण नुकसान पहुंचा सकते हैं जैसे...

ये भी पढ़ें:
केले का सिगाटोका पत्ती धब्बा रोग, कारण, लक्षण, प्रभाव एवं प्रबंधित करने के विभिन्न उपाय
भोजन से होने वाली क्षति: थ्रिप्स पौधों की कोशिकाओं को छेदकर और उनकी सामग्री को चूसकर खाते हैं। इस भोजन के कारण पत्तियाँ विकृत हो जाती हैं, जिनमें चांदी जैसी धारियाँ और नेक्रोटिक धब्बे होते हैं। इससे फलों पर दाग पड़ सकते हैं, जिससे वे बिक्री के लिए अनुपयुक्त हो जाते हैं। वायरस के वेक्टर: केले के थ्रिप्स, बनाना स्ट्रीक वायरस और बनाना मोज़ेक वायरस जैसे पौधों के वायरस को प्रसारित कर सकते हैं, जो केले की फसलों पर विनाशकारी प्रभाव डाल सकते हैं। प्रकाश संश्लेषण में कमी: व्यापक थ्रिप्स खिलाने से पौधे की प्रकाश संश्लेषण की क्षमता कम हो सकती है, जिससे विकास और उपज कम हो सकती है।

केला की खेती में थ्रीप्स को कैसे करें प्रबंधित ?

केला की खेती के लिए सदैव प्रमाणित स्रोतों से ही स्वस्थ रोपण सामग्री लें ।मुख्य केले के पौधे के आस पास उग रहे सकर्स को हटा दें। परित्यक्त वृक्षारोपण क्षेत्रों को हटा दें क्योंकि ये कीट फैलने के स्रोत के रूप में काम करते हैं। इसके अतरिक्त निम्नलिखित उपाय करने चाहिए

विभिन्न कृषि कार्य

छंटाई: थ्रिप्स की आबादी को कम करने के लिए नियमित रूप से संक्रमित पत्तियों और पौधों के अवशेषों की कटाई छंटाई करें और हटा दें। बंच को ढके: थ्रिप्स के संक्रमण को रोकने के लिए विकसित हो रहे गुच्छे पॉलीप्रोपाइलीन से ढक दें । उचित सिंचाई: जल-तनाव वाले पौधों से बचने के लिए लगातार और उचित सिंचाई बनाए रखें, जो थ्रिप्स क्षति के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं। स्वच्छ रोपण सामग्री: सुनिश्चित करें कि रोपण सामग्री थ्रिप्स और अन्य कीटों से मुक्त हो।

जैविक नियंत्रण

शिकारी और परजीवी: थ्रिप्स कीट की आबादी को नियंत्रित करने में मदद करने के लिए, शिकारी घुन और परजीवी ततैया जैसे थ्रिप्स के प्राकृतिक दुश्मनों के विकास को बढ़ावा दें। मिट्टी में थ्रिप्स प्यूपा को मारने के लिए, ब्यूवेरिया बेसियाना 1 मिली प्रति लीटर का तरल का छिड़काव करें।

ये भी पढ़ें:
बाजार भेजने से पूर्व केले को कैसे तैयार करें की मिले अधिकतम लाभ?

रासायनिक नियंत्रण

कीटनाशक: थ्रिप्स संक्रमण के प्रबंधन के लिए नियोनिकोटिनोइड्स और पाइरेथ्रोइड्स सहित कीटनाशकों का उपयोग किया जा सकता है। हालाँकि, अति प्रयोग से प्रतिरोध हो सकता है और गैर-लक्षित जीवों को नुकसान पहुँच सकता है। थ्रीप्स के प्रबंधन के लिए छिड़काव फूल निकलने के एक पखवाड़े के भीतर किया जाना चाहिए। जब फूल सीधी स्थिति में हो तो 2 मिली प्रति लीटर पानी में इमिडाक्लोप्रिड के साथ फूल के डंठल में इंजेक्शन भी प्रभावी होता है। केला के बंच( गुच्छों),आभासी तना और सकर्स को क्लोरपाइरीफॉस 20 ईसी, 2.5 मिली प्रति लीटर का छिड़काव करना चाहिए।

निगरानी और शीघ्र पता लगाना

थ्रिप्स संक्रमण के लक्षणों के लिए केले के पौधों की नियमित निगरानी करें। शीघ्र पता लगाने से समय पर हस्तक्षेप करने से कीट आसानी से प्रबंधित हो जाता है।

कीट प्रतिरोधी प्रजातियों का चयन

केले की कुछ किस्मों में थ्रिप्स संक्रमण की संभावना कम होती है। प्रतिरोधी किस्मों का चयन एक प्रभावी दीर्घकालिक रणनीति हो सकती है।

फसल चक्र

थ्रिप्स के जीवन चक्र को बाधित करने और उनकी संख्या कम करने के लिए केले की फसल को गैर-मेजबान पौधों के साथ बदलें।

जाल फसलें

जाल वाली फसलें लगाएं जो थ्रिप्स को मुख्य फसल से दूर आकर्षित करती हैं और जिनका कीटनाशकों से उपचार किया जा सकता है।

एकीकृत कीट प्रबंधन (आईपीएम)

एक समग्र दृष्टिकोण अपनाएं जो पर्यावरणीय प्रभाव को कम करते हुए केले के थ्रिप्स के प्रबंधन के लिए विभिन्न रणनीतियों को जोड़ती है। अंततः कह सकते है की केले की खेती के लिए केले के थ्रिप्स एक महत्वपूर्ण खतरा हैं, जो भोजन के माध्यम से और हानिकारक वायरस के संचरण दोनों के माध्यम से सीधे नुकसान पहुंचाते हैं। प्रभावी प्रबंधन के लिए सावधानीपूर्वक निगरानी और शीघ्र हस्तक्षेप के साथ-साथ कृषि, जैविक और रासायनिक नियंत्रण उपायों के संयोजन की आवश्यकता होती है। केले की फसल के स्वास्थ्य को संरक्षित करते हुए थ्रिप्स क्षति को कम करने के लिए आईपीएम जैसी स्थायी प्रथाएं आवश्यक हैं।

केले की खेती की सम्पूर्ण जानकारी

केले की खेती की सम्पूर्ण जानकारी

आज हम केले की फसल के बारे में बात करने जा रहे हैं हमारे यूजर  ने पूछा था कि केला की फसल के बारे में जानकारी दें तो पहले तो हम अपने सभी रीडर को धन्यवाद कहना चाहेंगे जिनका हमें इतना प्यार और सहयोग मिल रहा है आप सभी का दिल से धन्यवाद. केला यह ऐसी फसल है जिससे पैसे के साथ-साथ आपको तंदुरुस्ती और ऊर्जा मिलती है. हमारे शरीर के लिए जो भी विटामिन जरूरी होती हैं वह हमें केले से मिल जाती है केले का यूज़ हमारे रोजमर्रा के जीवन में भी काम आता है जैसे मिल्क से बनाना शेक,चिप्स, जैम और भी बहुत तरह की चीजें बनती हैं केले के पेड़ थैला और रस्सी भी बनती है. कहने का तात्पर्य है कि केले का हमारे जीवन में बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान है. केला ज्यादा मुनाफा देने वाली फसल है तो इस वजह से उसकी देखरेख भी उतनी ही करनी होती है जितना केले से फायदा हो सकता है उतना ही जल्दी अगर उसकी देखरेख ढंग से ना हुई हो तो नुकसान हो सकता है इसलिए उसकी सुरक्षा भी बहुत जरूरी है चाहे वह मौसम से हो चाहे वह कीड़ों से हो. इस फसल में कीड़े भी बहुत लगते हैं इस को बचाने के लिए हमें खेत को साफ रखना चाहिए और ध्यान रहे कि इसकी फसल को ढंग से हवा और पानी की निकासी की समुचित व्यवस्था हो और केले को ज्यादा से ज्यादा फायदेमंद बनाने के लिए जरूरी है कि इसकी खेती वैज्ञानिक तकनीकी से की जाए उससे आप लोगों को फायदा के साथ-साथ उच्च गुणवत्ता की फसल मिलेगी. अगर फसल में कोई रोग नहीं होगा तो फसल अच्छी आएगी और फसल अच्छी आने पर आपको बाजार का रेट भी अच्छा मिलेगा. कोई भी फसल करने से पहले हमें अपने खेत की मिट्टी की जांच जरूर करा लेनी चाहिए उससे हमारा डबल फायदा होता है एक तो हमें बिना मतलब के कोई भी कीटनाशक और खाद नहीं डालना पड़ता ऊपर से हमारी पैदावार भी बढ़ जाती है क्योंकि जिस चीज की जरूरत हमारी मिट्टी और फसल को होती है फिर हम उसका उपचार उसी तरह से करते हैं.

केले की खेती के लिए मिट्टी का चुनाव

केले की खेती ये भी पढ़े:
पपीते की खेती से कमाएं: स्वाद भी सेहत भी किसान भाई जिस खेत में केला लगाना चाहते हैं वह इस बात का ध्यान रखें की जमीन अच्छी खासी उपजाऊ होनी चाहिए तथा उसमें पर्याप्त मात्रा में पोषक तत्व होने चाहिए जैसा कि आप सभी जानते हैं गोबर की खाद हर फसल के लिए रामबाण का काम करती है तो केले की फसल में भी गोबर की सड़ी हुई खाद का प्रयोग करें खेती के लिए चिकनी मिट्टी व दोमट मिट्टी अच्छी रहती है लेकिन ध्यान रहे की मिटटी का PH स्तर 6:00 और 8:00 के बीच में होना चाहिए जमीन का पीएच मान 6 से 8 के बीच केले की फसल के लिए बहुत उपयोगी होता है ज्यादा अम्लीय मिट्टी से केले की फसल को नुकसान होता है.

मिट्टी का उपचार

पहले तो हमें अपने खेत की मिट्टी की जाँच करानी चाहिए उसके हिसाब से ही आगे की खाद या उपचार की व्यवस्था करानी चाहिए अगर भूमि की मिट्टी की जाँच संभव नहीं है तो नीचे लिखे तरीकें भी अपना सकते हैं. एक खाद जो सभी फसलों के लिए आवश्यक है वो केला की फसल के लिए भी बहुत उपयोगी है वो है गोबर की बनी हुई या सड़ी हुई खाद. 1. बिवेरिया बेसियान- पांच किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से 250 क्विंटल गोबर की सड़ी हुई या बनी हुई खाद में मिलाकर भूमि में प्रयोग करें। यदि खेत में सूत्र कृमि की समस्या है तो पेसिलोमाईसी (जैविक फंफूद) की पांच किलोग्राम मात्रा गोबर की सड़ी हुई खाद में मिलाकर करें। 2.जड़ गाठ सूत्र कृमि केले की फसल को बहुत अधिक नुकसान पहुंचाते हैं, जिससे फसल की वृद्धि रुक जाती है, एवं पौधे का पूरा पोषक तत्व नहीं मिल पाता है। खड़ी फसल नियंत्रण के लिए नीम की खली 250 ग्राम या कार्बोफ्यूरान 50 ग्राम प्रति पौधा (जड़ के पास) प्रयोग करें। 3.कीटों और बीमारियों से बचने के लिए खेत को बिल्कुल साफ सुथरा रखें, सत्रु कीटों की संख्या कम करने के लिए फसल के बीच बीच में रेडी या अरंडी के पौधे भी लगा सकते हैं। 4.मित्र जीवों की संख्य़ा बढ़ाने के लिए फूलदार वृक्ष (सूरजमुखी, गेंदा, धनिया, तिल्ली आदि) मेढ़ों के किनारे-किनारे लगा सकते हैं। 5.फसल तैयार होने की दशा में पत्ते और तनों के अवशेष खेत से हटाकर गड्ढों में दबाते रहें। फसल की लगातार निगरानी करें। 6.कीटों की संख्या कम करने के लिए पीला चिपचिपा पाष एवं लाइट ट्रैप का इस्तेमाल करें।

केले की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु

केले की खेती केले की फसल 13-14 से लेकर 40 डिग्री तापमान तक हो सकती है लेकिन इसके लिए इससे ज्यादा तापमान फसल को झुलसा सकता है तो गर्मी में इसके विशेष देखभाल की जरूरत होती है. अच्छी बारिश की जगह पर ये अपने पूरे लय में होती है या कह सकते हो की बारिश वाली जगह इनके फलने फूलने के लिए सबसे ज्यादा उपयुक्त होती है.

पोषक तत्व :

गोबर की खाद के साथ-साथ आप हरी खाद को भी इसमें मिला सकते हैं इससे आपको कम से कम रासायनिक खाद का प्रयोग करना पड़ेगा और फसल को भी पूर्ण पोषक तत्व मिल जायेंगें. हरी खाद में जैसे ढेंचा,लोबिया जैसी फलों का प्रयोग कर सकते हैं तथा 45 से 60 दिन के अंदर ही उनको रोटावेटर से जुताई करा दें. जिससे उसे जमीन में बारीक़ कण के साथ मिलने में  ज्यादा समय न लगे. केले को लगाने के लिए जून और जुलाई का महीना सही होता है क्यों की उस समय बारिश का मौसम आने लगता है इससे पौधे को ज़माने में दिक्कत नहीं होती है. पौधा ज़माने के बाद अपनी बढ़वार पकड़ने लगता है. जैसा की हमने ऊपर बताया है, टिश्यू कल्चर से लगाए गए पौधों की ग्रोथ अच्छी होती है तथा वो १ साल में ही फसल देने लगते हैं. जून के महीने में केले के पौधों के लिए गड्ढे खोदकर उनमे गोबर की बनी हुई खाद डाल दें अगर दीमक की समस्या हो तो उसका विशेष ध्यान रखें और उसमे दीमक का उपचार के लिए नीम या अन्य दवा का प्रयोग करें जिससे की केले की जड़ों को कोई नुकसान न हो.

केले की फसल का रखरखाब

केले की खेती केला की फसल लम्बी अवधी के लिए होती है तो उसके ध्यान भी उसी तरह रखना चाहिए जैसे उसकी हवा पानी, और निराई गुड़ाई का विशेष ध्यान रखें. कई किसान केले में मल्चिंग तकनीक को अपना रहे है इससे निराई गुड़ाई मजदूरों से नहीं करानी पड़ती है. लेकिन जो किसान सीधे खेत में रोपाई करवा रहे हैं वो रोपाई के ४-५ महीने बाद पौधों पर मिटटी जरूर चढ़ाएं. अगर पानी की निकासी का उचित प्रबंध नहीं होगा तो उससे पौधे को नुकसान हो सकता है इस स्थिति में ड्राप से सिंचाई का तरीका अपनाएं इससे आपको पानी पर भी ज्यादा खर्चा नहीं करना पड़ेगा.

पोषण प्रबंधन

केले की खेती में भूमि की ऊर्वरता के अनुसार प्रति पौधा 300 ग्राम नाइट्रोजन,100 ग्राम फॉस्फोरस तथा 300 ग्राम पोटाश की आवश्यकता पड़ती है। फॉस्फोरस की आधी मात्रा पौधरोपण के समय तथा शेष आधी मात्रा रोपाई के बाद देनी चाहिए। नाइट्रोजन की पूरी मात्रा पांच भागों में बांटकर अगस्त, सितम्बर, अक्टूबर तथा फरवरी एवं अप्रैल में देनी चाहिए। एक हेक्टेयर में करीब 3,700 पुतियों की रोपाई करनी चाहिए। केले के बगल में निकलने वाली पुतियों को हटाते रहें। बरसात के दिनों में पेड़ों के अगल-बगल मिट्टी चढ़ाते रहें। सितम्बर महीने में विगलन रोग तथा अक्टूबर महीने में छीग टोका रोग के बचाव के लिए प्रोपोकोनेजॉल दवाई 1.5 एमएल प्रति लीटर पानी के हिसाब से पौधों पर छिड़काव करें
इस तरह लगाएं केला की बागवानी, बढ़ेगी पैदावार

इस तरह लगाएं केला की बागवानी, बढ़ेगी पैदावार

तमिलनाडु। केले की प्रोसेसिंग से आज कई तरह के उत्पाद बनाए जा रहे हैं, जैसे चिप्स, पापड़ । केले के तने और पत्ते से पत्तल, दोना, कपड़े के लिए रेसा आदि । अगर आप भी केला की खेती करके अच्छी कमाई करना चाहते हैं, तो केला की बागवानी का यह तरीका अधिक फायदेमंद साबित होगा। अपने देश में केला की लगातार मांग बढ़ती जा रही है। किसानों में भी केला की खेती को लेकर जबरदस्त उत्साह है। किसान केला की फसल से बंपर पैदावार ले रहे हैं।

केला की इस प्रजाति के पौधे लगाएं

- प्रत्येक पेड़-पौधों के लिए प्रजाति का बड़ा महत्व होता है। अच्छी और बेहतर क्वालिटी के पेड़-पौधों की प्रजाति हमेशा फायदेमंद रहती है। केला की रोबस्टा एवं बसराई प्रजाति के पौधे ज्यादा कारगर होते हैं। इस प्रजाति के पौधों से अधिक उत्पादन होता है।

ये भी पढ़ें: केले की खेती की सम्पूर्ण जानकारी

इस तकनीकी से लगाएं केला बागवानी

- तमिलनाडु विश्वविद्यालय में हुए एक विशेष शौध में यह निष्कर्ष निकाला गया कि केला की बागवानी लगाने के लिए प्रत्येक पंक्ति के बीच की दूरी 2×3 मीटर और उतनी ही दूरी पर पौधे से पौधा लगाया जाए। एक हेक्टेयर खेत में तकरीबन 5000 पौधे लगाए जाएं। इसमें पोटाश, नाइट्रोजन व फास्फोरस की मात्रा थोड़ी बढ़ाई जाए। इस विधि से उत्पादन में वृद्धि की संभावना बढ़ सकती है। इस तरह आप केला की प्रथम फसल केवल 12 महीने में ही ले सकते हैं। और इसमें उपज भी बेहतर मिलेगी।

बीटिंग एंड ब्लास्ट रोग से चिंतित हैं केला किसान

- केला की खेती करने वाले किसानों को विभिन्न सावधानी बरतने की जरूरत होती है। केला में एक विशेष प्रकार के रोग के कारण केरल और गुजरात के किसानों की चिंता बढ़ गई है। केला में बीटिंग एंड ब्लास्ट नाम के रोग ने किसानों को चिंतित किया है। इससे किसानों को काफी नुकसान झेलना पड़ रहा है।

ये भी पढ़ें: अब सरकार बागवानी फसलों के लिए देगी 50% तक की सब्सिडी, जानिए संपूर्ण ब्यौरा

कैसे मिलेगी केला में रोग से निजात

- केला में होने वाले बीटिंग एंड ब्लास्ट रोग से निजात पाने के लिए किसानों को फिलहाल कड़ी मशक्कत करनी पड़ रही है। केला में पाए जाने वाले इस रोग से किसानों को काफी नुकसान हो रहा है। ऐसे में जरुरी है कि इस रोग का बचाव सही समय पर किया जाए। यदि केले की फसल में इस रोग का प्रकोप हो जाए, तो इसके लिए आपको सबसे पहले बाज़ार में मिलने वाले फफूंदनाशक में से कोई भी एक का चयन कर घोल बनाकर 15 दिन के अंतराल में 2 बार पौधों पर छिड़क दें। ध्यान रहे कि छिड़काव केले के फलों के बंच को निकालने के बाद ही करना चाहिए। इस तरह आप बीटिंग एंड ब्लास्ट रोग से फसल का बचाव कर सकते हैं। ------ लोकेन्द्र नरवार
Gardening Tips: अगस्त में अमरूद, आँवला, केला से जुड़ी सावधानियां एवं देखभाल

Gardening Tips: अगस्त में अमरूद, आँवला, केला से जुड़ी सावधानियां एवं देखभाल

ऐसे करें अमरूद की तैयारी, आँवला की फफूंद का उपचार व केला के पनामा विल्ट का इलाज

कृषि फसल उत्पादन से जुड़े किसानों के लिए महीने के अनुसार कृषि कार्य सुझावों के तहत, इस बार अगस्त माह में जानिये बागवानी फसलों की अधिक पैदावार और उससे मुनाफा कमाने के तरीकों के बारे में। हम बात करेंगे मौसमी फलों वाले पौधों
अमरूद (Amarood/Guava), आँवला (Aanvala/Amla/Indian Gooseberry) के साथ ही अब साल भर मार्केट में डिमांड में बने रहने वाले केला (Kela/Banana) की फार्मिंग के तरीकों के बारे में। शुरुआत करते हैं अंग्रेजी में गुआवा (Guava) कहे जाने वाले अपने देशी बिही, जामफल या फिर अमरूद के पौधों को लगाने के तरीकों से।

अमरूद (Amarood/Guava Planting) रोपण विधि :

अगस्त के महीने में अमरूद राेपण (Guava Planting) में कुछ वैज्ञानिक युक्तियों के प्रयोग से भरपूर पैदावार और मुनाफा मिलता है। अमरूद के पौधों का रोपण (Planting Guava plants) करते समय पौधों के बीच 5×5 मीटर की दूरी रखने की सलाह बागवानी सलाहकार देते हैं।

अमरूद (Guava) के पौधों का चयन :

अमरूद राेपण (Guava Planting) की कई विधियां हैं। आम तौर पर पुराने पेड़ों के पास की भूमि पर अमरूद के नए पौधे स्वतः पनप जाते हैं। इनको निकालकर खेतों में इच्छित जगह पर रोपा जा सकता है। कलम विधि से भी अमरूद (Guava) के रोपण योग्य पौधे तैयार किये जा सकते हैं। अमरूद के पत्तों से पौधे तैयार करने की भी विधि कारगर हो सकती है। इस तरीके से अमरूद का बाग तैयार करने के लिए किसान को अगस्त माह के पहले से तैयारी करनी होगी।

ये भी पढ़ें: सामान्य खेती के साथ फलों की खेती से भी कमाएं किसान: अमरूद की खेती के तरीके और फायदे

नर्सरी प्लांट्स :

बड़े खेत पर अमरूद के पौधों का रोपण (Planting Guava plants) करने के लिए किसान मित्र नर्सरी या फिर कृषि विज्ञान केंद्रों के साथ ही उद्यानिकी विभाग से संबद्ध केंद्रों से अमरूद के उमदा किस्म के पौधे निर्धारित मूल्य पर खरीद सकते हैं। आम तौर पर अमरूद के पौधे उनकी खासियतों, क्षमता के आधार पर 10 रुपये से लेकर 300 से 500 रुपयों के वर्ग में बाजार में ऑनलाइन भी बेचे जा रहे हैं। देशी-विदेशी किस्म में से किसान अपनी पसंद के अमरूद के पौधों का चुनाव यहां कर सकते हैं।

जैविक खाद एवं उर्वरक (Organic Fertilizer) :

अमरूद का पौधा रोपते समय जैविक खाद का उपयोग करने से पौधे को प्राकृतिक तरीके से वृद्धि करने में मदद मिलती है। अमरूद का पौधा रोपते समय प्रति गड्ढा 25 से 30 किलोग्राम गोबर की खाद का मिश्रण उपयोग करना चाहिए। इसके लिए पहले साल 260 ग्राम यूरिया, 375 ग्राम सिंगल सुपर फॉस्फेट और 500 ग्राम पोटेशियम सल्फेट प्रति पौधा उपयोग का बागवानी सलाहकारों ने सुझाव दिया है। इसी तरह आयु, कद एवं क्षमता के हिसाब से खाद एवं उर्वरक का प्रयोग कर अमरूद के पौधे को दीर्घकाल तक फलदायक रखा जा सकता है।

ये भी पढ़ें: अब सरकार बागवानी फसलों के लिए देगी 50% तक की सब्सिडी, जानिए संपूर्ण ब्यौरा

आम समस्याओं का समाधान :

अमरूद के पौधे की पत्ती पीली पड़ने, आकार छोटा होने तथा पौधों की बढ़त कम होने संबंधी परेशानी से परेशान होने की जरूरत नहीं। आम तौर पर जस्ता तत्व की कमी होने से अमरूद के पौधों में यह समस्या आती है। इन व्याधियों के समाधान के लिए 2 प्रतिशत जिंक सल्फेट के स्पे के अलावा 300 ग्राम जिंक सल्फेट को अमरूद के पौधों की जड़ों में डालने से भी अमरूद की पत्तियों के पीलेपन, पेड़ का आकार कम होने आदि जैसी समस्याओं का समाधान हो जाता है।
दो बार फल
आम तौर पर अमरूद के पौधों, पेड़ों पर साल में दो बार फल लगते हैं। वर्षाकाल के फलों का स्वाद ठंड में आने वाले फलों के मुकाबले पनछीटा, या फीका होता है। वर्षा के समय अमरूद के फल अधिक तो लगते हैं, लेकिन इनकी गुणवत्ता खराब होती है। इस मौसम के फलों में कीड़े लगने की भी समस्या रहती है। कुछ अनुभवी कृषक इस मौसम में फल न लेकर शरद ऋतु आधारित अमरूद की पैदावार की तैयारी पर अधिक ध्यान देते हैं। अगस्त महीने में किसान अमरूद के पौधे रोप तो सकते हैं लेकिन उनको मानसून में बाग में जल निकासी के प्रबंध का खास ध्यान रखना चाहिए। साथ ही बाग में पनप रहे अमरूद के पौधों की सतत निगरानी भी अगस्त में जरूरी है ताकि किसी भी रोग के लक्षण दिखने पर उसका तत्काल निदान किया जा सके।

आँवला (Aanvala/Amla/Indian Gooseberry) की तैयारी :

आँवला वो चमत्कारी फल है जिसके पौधे, पेड़ों की पत्तियों, शाखाओं, जड़ों तक का व्यापक महत्व है। रसोई की खाद्य सामग्री से दवाई की प्रयोगशालाओं के रसायन तक आँवला अपनी उपयोगिता सिद्ध कर चुका है। एक तरह से इंडियन गूसबेरी (Indian Gooseberry) यानी आँवला (Aanvala/Amla) की प्राकृतिक खेती, हर्बल उत्पादों की व्यापक पहचान बन चुका है। आँवला का मुरब्बा, जूस, अचार, हलवा आदि के अलावा चूरन आदि कई उत्पाद भारतीय हर्बल प्रोडक्ट्स की पहचान हैं।

ये भी पढ़ें: आंवला से बनाएं ये उत्पाद, झटपट होगी बिक्री
आँवला (Aanvala/Amla/Indian Gooseberry) के पौधों को सहेजने के लिए अगस्त का माह अहम होता है। इस महीने में आँवला के एक साल के पौधे के लिए प्रति पौधा 10 किलोग्राम गोबर या वर्मीकम्पोस्ट खाद एवं 50 ग्राम नाइट्रोजन व 35 ग्राम पोटाश का उपयोग करने की सलाह बागवानी सलाहकार देते हैं। इस मात्रा को 10 वर्ष या उससे ऊपर के वृक्षों में जो क्रमशः बढ़ाते हुए 100 कि.ग्रा. गोबर या कम्पोस्ट खाद एवं 500 ग्राम नाइट्रोजन व 350 ग्राम पोटाश का मिश्रण तैयार कर उपयोग में लाया जा सकता है।

आँवला और फफूंद

किसान मित्रों को आँवला के पौधे का फफूंद जनित रोगों से बचने की खास जरूरत है। अगस्त के दौरान आँवला के पौधों पर नीले फफूंद रोग की आशंका बलवती रहती है। इसके नियंत्रण के लिए फलों को बोरेक्स या नमक से उपचारित कर फलों की सुरक्षा की जा सकती है। कार्बेन्डाजिम या थायोफनेट मिथाइल 0.1 प्रतिशत के उपचार से भी आँवला के फलों को रोगों से सुरक्षित रखा जा सकता है।

केला (Kela/Banana) का रखरखाव :

अगस्त के दौरान केला (Kela/Banana) के रखरखाव के बारे में भा.कृ .अनु.प.-भारतीय सोयाबीन अनुसन्धान सस्थान (ICAR-Indian Institute of Soybean Research) ने एडवाइजरी जारी की है। सलाह के अनुसार केले में प्रति पौधा 100 ग्राम पोटाश एवं 55 ग्राम यूरिया का उपयोग करना चाहिए। इसे केले के पौधे से 50 सेंटीमीटर दूर गोलाकार प्रयोग कर हल्की गुड़ाई की मदद से मिट्टी में पूरी तरह मिश्रित करने की सलाह दी गई है।

ये भी पढ़ें: इस तरह लगाएं केला की बागवानी, बढ़ेगी पैदावार

पनामा विल्ट उपचार :

केला (Kela/Banana) के पौधों में पनामा विल्ट की समस्या हो सकती है। इसकी रोकथाम बाविस्टीन के घोल से संभव है। इसकी 1.5 मिलीग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में तैयार घोल को केले के पौधों के चारों तरफ की मिट्टी पर छिड़काव की सलाह दी गई है। लगभग 20 दिनों के अंतराल पर दो बार छिड़काव करने से पनामा विल्ट का उपचार होने की जानकारी कृषि वैज्ञानिकों ने दी है।
इस किसान ने ग्रामीण किसानों के साथ मिलकर गांव को बना दिया केले का केंद्र

इस किसान ने ग्रामीण किसानों के साथ मिलकर गांव को बना दिया केले का केंद्र

आजकल बहुत सारे पढ़े लिखे नौजवान खेती किसानी की तरफ अपना रुख कर रहे हैं। युवा किसान अभिषेक आनंद वैज्ञानिक पद्धति के जरिए केला का उत्पादन करके अन्य युवाओं को प्रेरित करने वाली एक अच्छी मिसाल बन चुके हैं। उन्होंने अपने किसान भाइयों के साथ सामंजस्य के साथ सीतामढ़ी को मेजरगंज केले के हब के तौर पर प्रसिद्ध किया है। आपको बतादें कि किसान पूर्व में अपना जीवनयापन करने के लिए केवल खेती-किसानी तक ही रह जाते थे। परंतु, वर्तमान में कृषकों की आमदनी को दोगुना करने हेतु उन्हें कृषि व्यवसाय के साथ जोड़ा जा रहा है। कृषि व्यवसाय के जरिए किसान भाइयों को अपनी फसल का समुचित मूल्य प्राप्त करने में सहायता मिल रही है। अब आगे जिस तरह से कृषि व्यवसाय का विस्तार हो रहा है, इसके चलते गांव में भी रोजगार के अवसर उत्पन्न हो रहे हैं। इससे कृषकों की आर्थिक क्षमता सुद्रण हुई है। साथ ही, ग्रामीण लोगों की आजीविका में भी काफी सुधार देखने को मिल रहा है। भारत के अलग-अलग क्षेत्रों में फिलहाल किसान खेती करने के साथ कृषि व्यवसाय मॉडल अपना रहे हैं। इसी कड़ी में अभिषेक आनंद भी किसानों में शम्मिलित हैं। बिहार राज्य के अभिषेक आनंद, जिन्होंने अपने गांव के बाकी किसानों के साथ मिलकर केला की वैज्ञानिक खेती की है। बेहतरीन आमदनी हेतु खेत पर ही प्रोसेसिंग इकाई स्थापित की है। साथ ही, केला चिप्स के कृषि व्यवसाय से बेहतरीन आमदनी अर्जित कर रहे हैं। इन्होंने खुद के उत्पाद की अच्छी खासी ब्रांडिंग भी करवाई है, जिससे विपणन में भी खूब सहायता प्राप्त हो रही है। वर्तमान में अभिषेक आनंद के खेत पर उत्पादित होने वाले केले से निर्मित चिप्स देशभर में प्रशिद्ध हो रही हैं।

वैज्ञानिक खेती के जरिए बढ़ी केले की उत्पादकता

अभिषेक आनंद द्वारा बीते थोड़े समय पूर्व ही टिशू कल्चर तकनीक के जरिए केला की जी-9 किस्म की बागवानी चालू की थी। अच्छे अवसरों की खोज में केला चिप्स निर्मित करने की प्रोसेसिंग इकाई भी स्थापित की गई। अपनी इन कोशिशों को लेकर अभिषेक आनंद ने बताया है, कि केला की अच्छी पैदावार देने वाली तकनीकों की जानकारी हेतु उन्होंने निजी जनपद सीतामणी मौजूद उद्यान विभाग के कार्यालय में संपर्क साधा। बतादें, कि यहां पर अभिषेक आनंद को सरकार की तरफ से जारी विभिन्न योजनाओं की जानकारी दी गई। बतादें, कि अभिषेक आनंद स्वयं भी कृषि स्नातक हैं, इस वजह से उनको केला की बागवानी से करने में अधिक कठिनाई नहीं हुई।

अभिषेक आनंद ने कोरोना महामारी के समय बागवानी करनी चालू की थी

अभिषेक आनंद ने अपनी ग्रेजुएशन खत्म करने के उपरांत निज गांव सीतामणी के मेजरगंज पहुँच गए। कोरोना महामारी के दौरान अभिषेक आनंद के पास काफी वक्त था, परंतु उनको यह समझ नहीं आ रहा था, कि खेती के ज्ञान का समुचित उपयोग रचनात्मक रूप से कहां किया जाए। ये भी पढ़े: इस तरह लगाएं केला की बागवानी, बढ़ेगी पैदावार कोरोना महामारी के दौरान केवल कृषि क्षेत्र ही सर्वाधिक सक्रिय था, इस वजह से उन्होंने केला की बागवानी करने का मन बनाया। जब वह कृषि विभाग के कार्यालय सहायता हेतु पहुंचे तब वहां उनको केला की आधुनिक कृषि की तकनीकों की जानकारी प्राप्त हुई। प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना में आवेदन करने पर ड्रिप सिंचाई के लिए 90 प्रतिशत अनुदान प्राप्त हो गया। साथ ही, मुख्यमंत्री बागवानी मिशन के अंतर्गत आवेदन करने पर केला की बागवानी करने हेतु जी-9 किस्त केला की पौध सामग्री भी प्राप्त हो गई। इसके साथ कृषि निदेशालय, बिहार सरकार की तरफ से फल की तुड़ाई एवं इसके प्रबंधन हेतु 90 फीसद अनुदान पर प्लास्टिक कैरेट का भी फायदा मिल गया है।

यहां का केला विदेशों तक पहुँच रहा है

युवा किसान अभिषेक आनंद की कोशिशों का परिणाम यह रहा है, कि बिहार राज्य के सीतामढ़ी के अतिरिक्त फिलहाल नेपाल एवं ढ़ाका तक केला की जी-9 किस्म की मांग बढ़ चुकी है। वर्तमान में अभिषेक आनंद केला की बागवानी सहित इसकी प्रोसेसिंग भी कर रहे हैं। केला चिप्स की प्रोसेसिंग इकाई हेतु अभिषेक आनंद को बिहार सरकार की तरफ से 25% प्रतिशत अनुदान समेत 11 लाख रुपये का कर्जा भी प्राप्त हो गया था। अभिषेक आनंद बताते हैं, कि आज उनके साथ लोकल स्तर पर 8-10 किसान जुड़े हुए हैं, जिसमें 5 युवा किसान शम्मिलित हैं। यह सब मिलकर 7 एकड़ भूमि पर केला की वैज्ञानिक तकनीक के माध्यम से बागवानी करके अच्छी खासी आय अर्जित कर ले रहे हैं।
मध्य प्रदेश में बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि से केले की फसल बर्बाद, किसान मुआवजे की गुहार कर रहे हैं

मध्य प्रदेश में बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि से केले की फसल बर्बाद, किसान मुआवजे की गुहार कर रहे हैं

अचानक आई बेमौसम, बारिश की वजह से किसानों की फसलों को काफी हानि पहुंची है। मध्य प्रदेश में बारिश और ओलावृष्टि के चलते किसानों को काफी नुकसान हुआ है। किसान आर्थिक मुआवजे की मांग कर रहे हैं। बेमौसम, बारिश से किसानों को होने वाली हानि रुकने का नाम नहीं ले रही है। बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि ने गेहूं और सरसों की फसलों को गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त किया है। साथ ही, गेहूं, सरसों के अतिरिक्त बाकी फसलें भी प्रभावित हुई है। उत्तर प्रदेश और बिहार में लीची, टमाटर और आम सहित विभिन्न फसलों को क्षति पहुँचने की खबरें सामने आई हैं। मध्य प्रदेश से भी एक ऐसी ही फसल क्षति होने की बात सामने आ रही हैं। किसान सहायता की आशा भरी निगाहों से सरकार की तरफ देख रहे हैं।

मध्य प्रदेश में केला, प्याज की फसल को भारी नुकसान हुआ है

मीडिया की खबरों के मुताबिक, मध्यप्रदेश के बुरहानपुर में बारिश और ओलावृष्टि की वजह से कृषकों को ज्यादा हानि हुई है। ओलावृष्टि के साथ तेज आंधी की वजह हल्दी, केला और प्याज की फसलें गंभीर रूप से प्रभावित हुई हैं। किसानों की हुई फसल क्षति को देखते हुए जिला प्रशासन की तरफ से सर्वे कराने की मांग की है।

केले की फसल क्षति के लिए मुआवजे की गुहार कर रहे किसान

स्थानीय किसान राज्य सरकार से केले की फसलों को हुई क्षति की मांग कर रहे हैं। स्थानीय किसानों ने बताया है, कि विगत 3 सालों से केले की फसल का बीमा तक भी नहीं हो सका है। जो कि अतिशीघ्र होना चाहिए। इसके अतिरिक्त किसानों को हुए फसल हानि को ढाई लाख रुपये प्रति एकड़ के हिसाब से मुआवजा मिलना चाहिए। इससे किसानों को अच्छी-खासी राहत मिल सकेगी। ये भी पढ़े: केले की खेती करने वाले किसान दें ध्यान, नही तो बढ़ सकती है मुसीबत: वैज्ञानिक

राज्य सरकार ने सर्वे कराने के निर्देश जारी किए

राज्य सरकार के स्तर से किसानों की समस्याओं को देखते हुए सर्वेक्षण करावाना चालू कर दिया है। कृषि विभाग एवं उद्यानिकी विभाग की एक ज्वाइंट टीम हुए फसलीय क्षति का आंकलन करने में लगी हुई है। टीमों के स्तर से सर्वे का काम तेज कर दिया गया है। वहीं, मध्य प्रदेश के बुरहानपुर में बड़ी संख्या में किसान केले की खेती करते हैं। ऐसे में बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि से इन्ही किसानों को भारी क्षति हुई है। वहीं, बड़ी तादात में किसान ऐसे भी हैं, जोकि यह आरोप लगा रहे हैं, कि उनकी फसलों को काफी ज्यादा क्षति पहुँची है। लेकिन, सर्वे वाली टीम फसलीय क्षति का आंकलन काफी कम दिखा रही है।
जानें लाल केले की विशेषताओं और फायदों के बारे में

जानें लाल केले की विशेषताओं और फायदों के बारे में

आज के दौर में किसान फसलों और फलों की आधुनिक एवं नवीन प्रजातियों के बीज बोकर अच्छा खासा मुनाफा अर्जित कर रहे हैं। हालाँकि, कुछ किसान आज भी परंपरागत फसलों का उत्पादन करके अपना जीवनयापन कर रहे हैं। इसी कड़ी में लाल केला भी बाजार में आ चुका है। बतादें, कि लाल केला पीले केले की तुलना में अधिक उत्पादन देता है। इसके एक गुच्छे में करीब 100 केले मौजूद होते हैं। वर्तमान में बाजार के अंदर इस केले का भाव 200 रुपये दर्जन से अधिक होता है।

लाल केले में औषधीय गुण विघमान होते हैं

केला हमारे स्वास्थ के लिए फायदेमंद रहता है। इसका मीठा स्वाद लोगों को काफी भाता है। इसमें बीज नहीं पाए जाने इस वजह से इसका सेवन भी काफी आसान होता है। यह इतना मुलायम होता है, कि बूढ़े, जवान यहां तक कि बच्चे भी इसको बड़े चाव से खा लेते हैं। इसमें विघमान विटामिन सी, विटामिन बी-6, कार्बोहाइड्रेट, मैग्नीशियम, जिंक, लोहा, फास्फोरस, कैल्शियम, सोडियम, पोटेशियम और विटामिन ए की प्रचूर मात्रा इसको लोगों के मध्य काफी ज्यादा लोकप्रिय बनाती है। दरअसल, आजतक आपने केवल पीला केला ही देखा अथवा खाया होगा। परंतु, हम आपको जिस केला के संबंध में बताने जा रहे हैं, वह लाल केला है। यह दिखने में जितना सुंदर है, स्वाद में भी उतना ही ज्यादा शानदार भी है। इतना ही नहीं इसमें सबसे बड़ी विशेषता यह है, कि इसमें पीले केले से ज्यादा औषधीय गुण विघमान होते हैं। ये भी पढ़े: विदेशों में बढ़ी देसी केले की मांग, 327 करोड़ रुपए का केला हुआ निर्यात

लाल केला सबसे पहले कहाँ उत्पादित किया गया था

जानकारी के लिए बतादें, कि विशेष रूप से लाल केले की खेती ऑस्ट्रेलिया में पहले की जाती थी। परंतु, बदलते समय के साथ-साथ यह मेक्सिको, अमेरिका और वेस्टइंडीज तक पहुंच गया है। हालांकि, अब भारत में भी किसान इसकी खेती करने लगे हैं। उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, महाराष्ट्र और केरल में लाल रंग के केले की बड़े पैमाने पर खेती हो रही है। किसान इसकी खेती कर के मोटा मुनाफा कमा रहे हैं। इस केले की मांग इसके रंग के कारण और इसके साथ ही इसमें मौजूद बीटा- कैरोटीन के चलते भी इसकी बाजार में काफी मांग है।

पीले केले के तुलनात्मक लाल केला अधिक पैदावार देता है

लाल केला पीले केले की तुलना में ज्यादा पैदा होता है। लाल केले के एक गुच्छे में करीब 100 केले होते हैं। वर्तमान में बाजार के अंदर इस केले का भाव 200 रुपये दर्जन से अधिक होता है। इसका उत्पादन शुष्क जलवायु में किया जाता है। इस केले का तना काफी ज्यादा लंबा होता है। उत्तर प्रदेश में इसकी खेती मिर्जापुर में की जा रही है। वर्ष 2021 में मिर्जापुर उद्यान विभाग ने लाल केले के 5 हजार पौधे मंगाए थे, इसके उपरांत किसानों के मध्य इन पौधों को वितरित किया गया है।
जाड़े के मौसम में अत्यधिक ठंड (पाला) से होने वाले नुकसान से केला की फसल को कैसे बचाएं ?

जाड़े के मौसम में अत्यधिक ठंड (पाला) से होने वाले नुकसान से केला की फसल को कैसे बचाएं ?

केला की खेती के लिए आवश्यक है कि तापक्रम 13-40 डिग्री सेल्सियस के मध्य हो। जाडो में न्यूनतम तापमान जब 10 डिग्री सेल्सियस के नीचे चला जाता है तब केला के पौधे के अंदर प्रवाह हो रहे द्रव्य का प्रवाह रुक जाता है,जिससे केला के पौधे का विकास रूक जाता है एवम् कई तरह के विकार दिखाई देने लगते है जिनमें मुख्य थ्रोट चॉकिंग है। केला में फूल निकलते समय कम तापमान से सामने होने पर , गुच्छा (बंच) आभासी तना ( स्यूडोस्टेम) से बाहर ठीक से आने में असमर्थ हो जाता है। इसके लिए रासायनिक कारण भी "चोक" का कारण बन सकते है जैसे,कैल्शियम और बोरान की कमी भी इसी तरह के लक्षणों का कारण हो सकते है। पुष्पक्रम का आगे का हिस्सा बाहर आ जाता है और आधार (बेसल) भाग आभासी तने में फंस जाता है। इसलिए, इसे गले का चोक (थ्रोट चॉकिग) कहा जाता है। गुच्छा (बंच) को परिपक्वता होने में कभी कभी 5-6 महीने लग जाते है।ऐसे पौधे जिनमें फलों का गुच्छा उभरने में या बाहर आने में विफल रहता है, या असामान्य रूप से मुड़ जाता है। केले की खेती में ठंड की वजह से पौधों के स्वास्थ्य और उत्पादकता पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। केले, उष्णकटिबंधीय पौधे होने के कारण, कम तापमान के संपर्क में आने पर ठंड से नुकसान की आशंका अधिक हो जाती है। ठंड की वजह से पौधों की वृद्धि, विकास और समग्र उपज प्रभावित होती है। केले की खेती में ठंड से होने वाली क्षति को प्रभावी ढंग से प्रबंधित करने के लिए, कारणों, लक्षणों को समझना और निवारक और सुधारात्मक उपायों को लागू करना आवश्यक है।

ठंड से चोट लगने के कारण

दस डिग्री सेल्सियस से कम तापमान पर केले संवेदनशील होते हैं। पाला केले के पौधों को नुकसान पहुंचाता है, पत्तियों और तनों को प्रभावित करता है। ठंडी हवा पौधे से गर्मी के नुकसान की दर को बढ़ाकर ठंड के तनाव को बढ़ा देती है।

ये भी पढ़ें:
केले की खेती के लिए सबसे महत्वपूर्ण पोषक तत्व पोटाश की कमी के लक्षण और उसे प्रबंधित करने की तकनीक

ठंड से होने वाले नुकसान के लक्षण

  • पत्तियों का रंग ख़राब होना: पत्तियाँ पीली या भूरी हो जाती हैं।
  • कोशिका क्षति: बर्फ के क्रिस्टल बनने के कारण पौधों की कोशिकाओं की क्षति होती है।
  • रुका हुआ विकास: ठंड का तनाव पौधों की वृद्धि और विकास को धीमा कर देता है।

निवारक उपाय

  • साइट चयन: अच्छे वायु संचार वाले अच्छे जल निकास वाले स्थान चुनें।
  • विंडब्रेक: ठंडी हवाओं के प्रभाव को कम करने के लिए विंडब्रेक लगाएं।
  • मल्चिंग: मिट्टी की गर्माहट बनाए रखने के लिए पौधों के आधार के चारों ओर जैविक गीली घास लगाएं।
  • सिंचाई: गीली मिट्टी सूखी मिट्टी की तुलना में गर्मी को बेहतर बनाए रखती है; उचित सिंचाई सुनिश्चित करें।

कल्चरल (कृषि) उपाय

उचित छंटाई: नई वृद्धि को बढ़ावा देने के लिए क्षतिग्रस्त या मृत पत्तियों को हटाते रहे। उर्वरक: ठंड के तनाव के खिलाफ पौधों को मजबूत करने के लिए इष्टतम पोषक तत्व स्तर बनाए रखें। जल प्रबंधन: अत्यधिक पानी भरने से बचें, क्योंकि जल जमाव वाली मिट्टी ठंड से होने वाले नुकसान को बढ़ा सकती है।यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि केला एक ऐसी फसल है जिसे पानी की पर्याप्त आपूर्ति की आवश्यकता होती है, इसे पूरे वर्ष में (कम से कम 10 सेमी प्रति माह) इष्टतम रूप से वितरित किया जाना है। जाड़े के मौसम में केला के खेत की मिट्टी का हमेशा नम रहना आवश्यक है।

ये भी पढ़ें:
केले की खेती करने वाले किसान दें ध्यान, नही तो बढ़ सकती है मुसीबत: वैज्ञानिक

सुधारात्मक उपाय

  • क्षतिग्रस्त ऊतकों की छँटाई: नई वृद्धि को प्रोत्साहित करने के लिए प्रभावित पत्तियों और तनों की छँटाई करें।
  • ठंढे कपड़े: ठंड के दौरान पौधों को ठंढे कपड़े से ढकने से सुरक्षा मिल सकती है।
  • हीटिंग उपकरण: चरम मामलों में हीटर या हीट लैंप का उपयोग करने से ठंड से होने वाली चोट को रोका जा सकता है।

ठंड के बाद के तनाव से मुक्ति

पौधों के स्वास्थ्य की निगरानी: नियमित रूप से पौधों की पुनर्प्राप्ति प्रगति का आकलन करें। पोषक तत्वों को बढ़ावा: रिकवरी को बढ़ावा देने के लिए पोटेशियम और फास्फोरस से भरपूर उर्वरक का प्रयोग करें। जाडा शुरू होने के पूर्व केला के बागान कि हल्की जुताई गुड़ाई करके उर्वरकों की संस्तुति मात्रा का 1/4 हिस्सा देने से भी इस विकार की उग्रता में भारी कमी आती है। धैर्य: पौधों को प्राकृतिक रूप से ठीक होने के लिए पर्याप्त समय दें। बिहार की कृषि जलवायु में हमने देखा है की जाड़े में केला के बाग जले से दिखाई देने लगते है लेकिन मार्च अप्रैल आते आते हमारे बाग पुनः अच्छे दिखने लगते है।

अनुसंधान और तकनीकी समाधान

शीत-प्रतिरोधी किस्में: बढ़ी हुई शीत-प्रतिरोधी केले की किस्मों का विकास और खेती करें। हमने देखा है की केला की लंबी प्रजातियां बौनी प्रजातियों की तुलना में जाड़े के प्रति अधिक सहनशील होती है

ये भी पढ़ें:
किसान करे कैवेंडिश केले समूह के केले की खेती, शानदार कमाई के बाद भूल जायेंगे धान-गेहूं उपजाना


मौसम का पूर्वानुमान: ठंड के मौसम का अनुमान लगाने और तैयारी करने के लिए उन्नत मौसम पूर्वानुमान का उपयोग करें। बिहार में टिशू कल्चर केला को लगने का सर्वोत्तम समय मई से सितंबर है।इसके बाद लगाने से इसकी खेती पर बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ता है।इसको लगने का सबसे बड़ा सिद्धांत यह है कि कभी भी केला में फूल जाड़े में नहीं आना चाहिए क्योंकि जाड़े मै अत्यन्त ठंडक की वजह से बंच की बढ़वार अच्छी नहीं होती है या कभी कभी बंच ठीक से आभासी तने से बाहर नहीं आ पाता है। उत्तक संवर्धन से तैयार केला मै फूल 9वे महीने में आने लगता है जबकि सकर से लगाए केले में बंच 10-11वे महीने में आता है। जेनेटिक इंजीनियरिंग: केले में ठंड सहनशीलता बढ़ाने के लिए आनुवंशिक संशोधनों पर शोध करने की आवश्यकता है।

निष्कर्ष

केले की खेती में ठंड से होने वाले नुकसान के प्रभावी प्रबंधन में निवारक, सुधारात्मक और अनुसंधान-आधारित रणनीतियों का संयोजन शामिल है। किसानों को केले की फसल को ठंड के तनाव के हानिकारक प्रभावों से बचाने के लिए साइट चयन, कल्चरल(कृषि)उपाय और तकनीकी प्रगति पर विचार करते हुए एक समग्र दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। इन उपायों को लागू करके, उत्पादक ठंडे तापमान वाले क्षेत्रों में केले की खेती की स्थिरता और लचीलापन सुनिश्चित कर सकते हैं।