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रेगिस्तान

गोबर के जरिए फौज की वर्दी निर्मित करने के साथ ही, उत्पादन योग्य बनाया जाएगा रेगिस्तान

गोबर के जरिए फौज की वर्दी निर्मित करने के साथ ही, उत्पादन योग्य बनाया जाएगा रेगिस्तान

केंद्र एवं राज्य सरकार के माध्यम से राजस्थान के जनपद कोटा में कृषि महोत्सव का आयोजन किया जा रहा है। इस कार्यक्रम के अंतर्गत देशभर से विभिन्न स्टार्टअप (startup) भी शम्मिलित होने के लिए पहुंच रहे हैं। इसमें एक अनोखा स्टार्टअप (startup) भी सम्मिलित हुआ है, इसके अंतर्गत गोबर के जरिए रसायन निर्मित कर विभिन्न रूप में प्रयोग किया जा रहा है। आईआईटियन (IITians) डॉक्टर सत्य प्रकाश वर्मा के मुताबिक उनके द्वारा गोबर खरीदी होती है। उसके बाद में विभिन्न प्रकार के रसायन तैयार किए जाते हैं। इस रसायन के उपयोग से सेना के जवानों की वर्दी भी बनाई जा सकती है। इसके अतिरिक्त रेगिस्तान को उत्पादक निर्मित करने एवं पुताई हेतु भी प्रयोग किए जाने वाले पेंट भी तैयार हो रहा है। डॉ. सत्य प्रकाश वर्मा कहा है, कि यह गाय के गोबर द्वारा रसायनिक विधि के माध्यम से निकलने वाले नैनोसैलूलोज से हो रहा है। डेढ़ वर्ष पूर्व उन्होंने स्टार्टअप गोबर वाला डॉट कॉम (.com) चालू किया था। जिसके माध्यम से प्राप्त होने वाले गोबर द्वारा रसायन प्रोसेस के जरिए नैनोसैलूलोज तैयार किया जा रहा है। जो कि हजारों रुपए किलोग्राम में विक्रय किया जा रहा है। इसके विभिन्न अतिरिक्त इस्तेमाल भी किए जा रहे हैं। उनका यह दावा है, कि नैनोसैलूलोज तैयार होने के उपरांत गोबर में बचा हुआ तरल एक गोंद की भांति हो जाता है, जिसको लिग्निन कहा जाता हैं। यह लिग्निन प्लाई निर्माण के कार्य में लिया जाता है एवं 45 रुपए प्रतिकिलो तक के भाव में विक्रय होता है।
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राजस्थान राज्य के जनपद कोटा में जय हिंद नगर के रहने वाले सत्य प्रकाश वर्मा जी विगत कई वर्षों से पशुओं के अपशिष्ट के ऊपर गंभीरता से शोध में जुटे हुए हैं। उन्होंने वर्ष 2003 में आईआईटी बॉम्बे से रसायन इंजीनियरिंग में बीटेक की डिग्री हासिल की है। साथ ही, वर्ष 2007 के दौरान उन्होंने पीएचडी भी आईआईटी बॉम्बे से करी है। इसके उपरांत फ्लोरिडा से मार्केटिंग मैनेजमेंट से भी पीएचडी कर रखी है। सत्यप्रकाश वर्मा जी ने नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ मैनेजमेंट मुम्बई (National Institute of Management Mumbai) से एमबीए की डिग्री भी हांसिल की है। इस सब के उपरांत सत्य प्रकाश एवं उनकी इंजीनियर पत्नी भावना गोरा दुबई में रहने लगे। दुबई में उन्होंने ऑयल इंडस्ट्री में नौकरी किया करते थे। उसके कुछ समय उपरांत वहीं पर स्वयं का व्यवसाय आरंभ किया एवं ऑयल एंड गैस कंपनीज हेतु उत्पाद निर्मित करने में जुट गए। इस समय के अंतर्गत सत्य प्रकाश जी गाय, बकरी और सुअर के अपशिष्ट पदार्थों पर निरंतर शोध में लगे हुए थे। वह स्वयं की कंपनी को भारत में स्थापित करने के उद्देश्य से ही देश वापस आए हैं।

वैदिक पेंट जलरोधक होता है

डॉ. सत्य प्रकाश वर्मा का कहना है, कि गोबर द्वारा निकाले गए इस अल्फा नैनोसैलूलोज का इस्तेमाल वैदिक पेंट को बनाने हेतु होता है। इसका इस्तेमाल तीन प्रकार की पेंटिंग करने के लिए किया जाता है। इन तीन प्रकार में पहला वॉल पुट्टी, दूसरा वॉल प्राइमर एवं तीसरा इमर्शन होता है। इसको प्लास्टिक पेंट के नाम से भी जाना जाता है। वॉल पुट्टी के उपरांत किसी भी पेंट की जरुरत नहीं पड़ती है। यह आपको विभिन्न रंग में मिल जाता है एवं यह पेंट वाटरप्रूफ भी रहता है। आपको बतादें, कि इसका उपयोग अब बड़े पैमाने पर किया जाने लगा है। ये भी देखें: इस राज्य की आदिवासी महिलाएं गोबर से पेंट बनाकर आत्मनिर्भर बन रहीं हैं

रेगिस्तान को इस विधि से बनाया जा रहा है उपजाऊ क्षेत्र

उनका कहना है, कि नैनो बायो उर्वरक तैयार करने में भी नैनोसैलूलोज का इस्तेमाल किया जाता है। इसके माध्यम से रेगिस्तान की रेतीली भूमि को उपजाऊ किया जाता है। नैनोसैलूलोज की निश्चित मात्रा को रेगिस्तान की मिट्टी पर फैलाया जाता है। तदोपरांत वह जमाव हेतु तैयार हो जाती है। रेगिस्तान की भूमि पहले से कहीं अधिक उत्पादक होती है। भूमि में मात्र जमाव का तत्व विघमान नहीं होता है, वह भी नैनोसैलूलोज डालने के उपरांत आ जाता है।

डीआरडीओ की सहायता से निर्मित की जा रही फौज की वर्दी

डॉ.सत्य प्रकाश के बताने के अनुसार, नैनोसैलूलोज के माध्यम से वे फाइबर का निर्माण कर रहे हैं। जिसका इस्तेमाल सैनिकों की वर्दी निर्मित करने हेतु हो रहा है। इसके अंतर्गत हेलमेट से लेकर जूता तक भी आता हैं। उनका कहना है, कि यह यूनिफॉर्म सामान्यतः सैनिकों की वर्दी से बेहद कम वजन व अधिक मजबूत भी मानी जाती है। यह वर्दी पसीने को भी सोख जाती है। इसके अतिरिक्त यदि सैनिक घायल हो जाए, तो इस यूनिफार्म के कारण से ब्लड क्लॉटिंग बड़ी सुगमता से हो जाती है। इस प्रकार यह एक टिशू रीजनरेशन आरंभ कर देती है। इससे जवान के जीवन की समयावधि काफी बढ़ जाती है।
विविधताओं वाले भारत देश में मिट्टी भी अलग अलग पाई जाती है, जानें इनमे से सबसे ज्यादा उपजाऊ कौन सी मिट्टी है ?

विविधताओं वाले भारत देश में मिट्टी भी अलग अलग पाई जाती है, जानें इनमे से सबसे ज्यादा उपजाऊ कौन सी मिट्टी है ?

जैसा कि हम जानते हैं, कि हिंदुस्तान विविधताओं का देश है। यहां तक कि भारत में मिट्टी भी विभिन्न प्रकार की पाई जाती है। मिट्टी (Soil) के कारण यहां फसलों में भी विविधता पाई जाती है। भारत का किसान विभिन्न प्रकार की फसलों का उत्पादन करता है। मुख्य बात ये है, कि भारत में जिस प्रकार भिन्न भिन्न फसल होती है, वैसे ही देश में अलग-अलग मिट्टी भी है, जो कि फसलों को सही पोषण देकर उन्हें उगने में सहायता करती है। आपने बचपन में अपनी किताबों में भारत में पाई जाने वाली मिट्टी के विषय में अवश्य पढ़ा होगा। क्या आपको मालूम है, कि हिंदुस्तान में कितने तरह की मिट्टी पाई जाती है ? यदि नहीं, तो इस लेख के जरिए आपको इनके सभी प्रकारों के बारे में जानकारी देंगे। भारत में पाई जाने वाली प्रमुख प्रकार की मृदाएं जैसे कि - जलोढ़ मिट्टी (Alluvial Soil), लाल मिट्टी (Red And Yellow Soil), काली मिट्टी (Black Or Regur Soil), पहाड़ी मिट्टी (Mountain Soil), रेगिस्तानी मिट्टी (Desert Soil), लेटराइट मिट्टी (Laterite Soil) हैं।

भारत में पाई जाने वाली प्रमुख मृदाएँ:

1. जलोढ़ मिट्टी (Alluvial Soil)

इस मिट्टी का निर्माण नदी द्वारा ढो कर लाए गए जलोढ़ीय पदार्थों के जरिए हुआ है। यह मिट्टी भारत की सबसे महत्वपूर्ण मिट्टी है। इसका विस्तार मुख्य रूप से हिमालय की तीन प्रमुख नदी तंत्रों गंगा, ब्रह्मपुत्र और सिंधु नदी बेसिनों में देखा जाता है। इसके अंतर्गत पश्चिम बंगाल, पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, बिहार, असम के मैदानी क्षेत्र और पूर्वी तटीय मैदानी क्षेत्र आते हैं।

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2. लाल मिट्टी (Red And Yellow Soil)

यह मिट्टी ग्रेनाइट से निर्मित है। इस मिट्टी में लाल रंग रवेदार आग्नेय और रूपांतरित चट्टानों में लौह धातु की वजह है। इसका पीला रंग इसमें जलयोजन की वजह से होता है। प्रायद्वीपीय पठार के पूर्वी और दक्षिणी क्षेत्रों में बहुत बड़े हिस्से पर लाल मिट्टी पाई जाती है, जिसमें दक्षिण पूर्वी महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, उड़ीसा, छोटा नागपुर का पठार, तमिलनाडु, कर्नाटक, गोवा, उत्तर-पूर्वी राज्यों के पठार शम्मिलित हैं।

3. काली मिट्टी (Black Or Regur Soil)

यह मिट्टी ज्वालामुखी के लावा से निर्मित हुई है। इस वजह से इस मिट्टी का रंग काला है। इसे स्थानीय भाषा में रेगर या रेगुर मिट्टी के नाम से भी जाना जाता है। इस मिट्टी के निर्माण में जनक शैल और जलवायु ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है।

4. पहाड़ी मिट्टी (Mountain Soil)

पहाड़ी मिट्टी हिमालय की घाटियों की ढ़लानों पर 2700 मी• से 3000 मी• की ऊंचाई के मध्य पाई जाती है। इन मिट्टी के निर्माण में पर्वतीय पर्यावरण के मुताबिक परिवर्तन आता है। नदी घाटियों में यह मिट्टी दोमट और सिल्टदार होती है। परंतु, ऊपरी ढ़लानों पर इसका निर्माण मोटे कणों में होता है। नदी घाटी के निचले क्षेत्रों विशेष तौर पर नदी सोपानों और जलोढ़ पखों आदि में यह मिट्टियां उपजाऊ होती है। पर्वतीय मृदा में विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार की फसलों को उगाया जाता है। इस मृदा में चावल, मक्का, फल, और चारे की फसल प्रमुखता से उगाई जाती है।

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5. रेगिस्तानी मिट्टी (Desert Soil)

मरूस्थलों में दिन के वक्त ज्यादा तापमान की वजह से चट्टानें फैलती हैं और रात्रि में अधिक ठंड की वजह से चट्टानें सिकुड़ती हैं। चट्टानों के इस फैलने और सिकुड़ने की प्रक्रिया के कारण राजस्थान में मरुस्थलीय मिट्टी का निर्माण हुआ है। इस मिट्टी का विस्तार राजस्थान, पंजाब और हरियाणा के दक्षिण-पश्चिमी हिस्सों में है।

6. लेटराइट मिट्टी (Laterite Soil)

लैटराइट मिट्टी उच्च तापमान एवं अत्यधिक वर्षा वाले इलाकों में विकसित होती है। यह अत्यधिक वर्षा से अत्यधिक निक्षालन (Leaching) का परिणाम है। यह मिट्टी मुख्यतः ज्यादा वर्षा वाले राज्य महाराष्ट्र, असम, मेघालय, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु के पहाड़ी क्षेत्रों में एवं मध्यप्रदेश व उड़ीसा के शुष्क क्षेत्रों पाई जाती है।