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चने की फसल को नुकसान पहुँचाने वाले प्रमुख रोग और इनका प्रबंधन

चने की फसल को नुकसान पहुँचाने वाले प्रमुख रोग और इनका प्रबंधन

चने की फसल को नुकसान पहुँचाने वाले प्रमुख रोग।पौधे के जमीन के ऊपर के सभी हिस्सों को ये रोग प्रभावित करता है। पत्ते पर, घाव गोल या लम्बे होते हैं, अनियमित रूप से दबे हुए भूरे रंग के धब्बे होते हैं

चने की फसल के प्रमुख रोग और इनका प्रबंधन

1.एस्कोकाइटा ब्लाइट

पौधे के जमीन के ऊपर के सभी हिस्सों को ये रोग प्रभावित करता है। पत्ते पर, घाव गोल या लम्बे होते हैं, अनियमित रूप से दबे हुए भूरे रंग के धब्बे होते हैं, और एक भूरे लाल किनारे से घिरे होते हैं। इसी तरह के धब्बे तने और फलियों पर दिखाई दे सकते हैं। जब घाव तने को घेर लेते हैं, तो हमले के स्थान के ऊपर का हिस्सा तेजी से मर जाता है। यदि मुख्य तना घाव से भर जाये , तो पूरा पौधा मर जाता है।



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प्रबंधन

खेत में संक्रमित पौधों के अवशेषों को हटाकर नष्ट कर देना चाहिए। बीजों को कार्बेन्डाजिम 2.5 ग्राम/किग्रा से उपचारित करें। मैंकोजेब 0.2% का छिड़काव करें। अनाज के साथ फसल चक्र अपनाएं। प्रतिरोधक किस्में जैसे .C235, HC3,HC4 की बुआई करें।



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2. उखेड़ा

लक्षण

यह रोग फसल के विकास के दो चरणों में होता है, अंकुर चरण और फूल चरण। अंकुरों में मुख्य लक्षण आधार से ऊपर की ओर पत्तियों का पीला पड़ना और सूखना, पर्णवृन्तों और रैचियों का गिरना, पौधों का मुरझाना है। वयस्क पौधों के मामले में पत्तियों का गिरना शुरू में पौधे के ऊपरी भाग में देखा जाता है, और जल्द ही पूरे पौधे में देखा जाता है। गहरा भूरा या काला मलिनकिरण क्षेत्र पत्तियों के नीचे तने पर देखा जाता है और उन्नत चरणों में पौधे को पूरी तरह से सूखने का कारण बनता है। गहरा भूरापन स्पष्ट रूप से तने पर काली धारियों और छाल के नीचे जड़ वाले भाग के रूप में देखा जाता है।

प्रबंधन

  • बीज को कार्बेन्डाजिम या थीरम 2 ग्राम प्रति किलो की दर से उपचारित करें।
  • ट्राइकोडर्मा विरिडे 4 ग्राम/किग्रा +1 ग्राम/किग्रा विटावैक्स के साथ बीज का उपचार करें।
  • स्यूडोनोमास फ्लोरेसेंस @ 10 ग्राम/किलोग्राम बीज। भारी मात्रा में जैविक खाद या हरी खाद का प्रयोग करें।
  • HC 3, HC 5, ICCC 42, H82-2, ICC 12223, ICC 11322, ICC 12408, P 621 और DA1 जैसी प्रतिरोधी किस्मों को उगाएँ।

3. वायरस (virus)

लक्षण

प्रभावित पौधे बौने और झाड़ीदार होते हैं और छोटी गांठें होती हैं। पत्ते पीले, नारंगी या भूरे मलिनकिरण के साथ छोटे होते हैं। तना भूरे रंग का मलिनकिरण भी दिखाता है। पौधे समय से पहले सूख जाते हैं। यदि जीवित रहते हैं, तो बहुत कम छोटी फलियाँ बनती हैं।वायरस चपे द्वारा फैलता है। इस रोग की रोकथाम के लिए सब से पहले चेपे का प्रबंधन करना है इस के लिए मोनोक्रोटोफॉस 200 ml /अकड़ के हिसाब से फसल में छिड़काव करे। संक्रमित पौधों को उखाड़ के निकाल दें और नष्ट करदे।



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4. तना गलन

लक्षण

तना गलन प्रारंभिक अवस्था में अर्थात बुवाई के छह सप्ताह तक आती है। सूखे हुए पौधे जिनकी पत्तियाँ मरने से पहले थोड़ी पीली हो जाती हैं, खेत में बिखरी हुई बीमारी का संकेत है। तना और जड़ का जोड़ मुलायम होकर थोड़ा सिकुड़ जाता है और सड़ने लगता है। संक्रमित भाग भूरे सफेद हो जाते हैं। ये रोग मिट्टी में ज्यादा नमी , कम मिट्टी पीएच के कारण फलता है । मिट्टी की सतह पर कम गली खाद की उपस्थिति और बुवाई के समय और अंकुर अवस्था में नमी अधिक होना रोग के विकास में सहायक होती है।धान के बाद बोने पर रोग का प्रकोप अधिक होता है।

प्रबंधन

  • गर्मियों में गहरी जुताई करें। बुवाई के समय अधिक नमी से बचें। अंकुरों को अत्यधिक नमी से बचाना चाहिए।
  • पिछली फसल के अवशेषों को बुवाई से पहले और कटाई के बाद नष्ट कर दें।
  • भूमि की तैयारी से पहले सभी अविघटित पदार्थ को खेत से हटा देना चाहिए।
  • कार्बेन्डाजिम 1.5 ग्राम और थीरम 1.5 ग्राम प्रति किलो बीज के मिश्रण से बीज का उपचार करें।
कितने गुणकारी हैं इम्यूनिटी बूस्टर काढ़े में मौजूद तत्व

कितने गुणकारी हैं इम्यूनिटी बूस्टर काढ़े में मौजूद तत्व

आधुनिक चिकित्सा पद्धति में जिन रोगों को लाइलाज माना जाता है, उनमें से कई रोग सामान्य सी जड़ी बूटियों से ठीक हो जाते हैं। गांव के बड़े बुजुर्ग आज भी बताते हैं कि अनेक तरह की छोटी मोटी सर्जरी गांव के पुराने हज्जाम ही किया करते थे। 

भारतीय चिकित्सा पद्धति विश्व के अन्य देशों की सभ्यता के अपूर्ण विकसित होने के समय से ही चमत्कारिक औषधियां के प्रयोग से भरपूर रही है। इसी तरह की 9 वनस्पतियों के मिश्रण से तैयार योग यानी काढ़ा कोविड-19 से लड़ने के लिए प्रयोग में लाया जा रहा है। 

इस क्लॉथ का उपयोग करने वाले लोगों की मानें तो उन्हें वजन कम करने के अलावा और कई तरह के लाभ हो रहे है ंं। स्वामी रामदेव द्वारा तैयार कोरोनिल पर लोग सवाल उठा रहे हैं, वहीं भारतीय चिकित्सा पद्धति की समृद्धि संस्कृति यह बताती है कि आयुर्वेद हर लाइलाज समस्या का नाश कर सकता है। 

जरूरत इस बात की है कि नवीन लाइलाज रोगों पर इनके गुण धर्मों के अनुसार इनका उपयोग और अनुसंधान किया जाए। किस धातु को हानि रहित करने के लिए दर्जनों वनस्पतियों का काढ़ा किस आधार पर चुना जाए।उसी प्रकार किसी धातु का भस्म किस प्रकार प्राप्त किया जाए यह जानना भी सरल नहीं है।

यह जानना भी दुर्गम है कि कौन से पौधे का कौन सा भाग शरीर के किस अंग पर क्या प्रभाव डालेगा। हर्बल औषधियों की यह खूबी होती है कि वह अपना हानिकारक दुष्प्रभाव नहीं छोड़तीं। 

बात कोविड-19 से लड़ने यानी शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए प्रयोग में आने वाले काढ़े को नौ तत्वों से बनाया गया है। इसे पतंजलि के अलावा अनेक फार्मेशियां बना रहे हैं। 

लाखों-करोड़ों लोग इसका दैनिक रूप से उपयोग भी कर रहे हैं। इन लोगों को घर की रसोई में मौजूद रहने वाली चीजों से बनने वाले काढ़े के आश्चर्यजनक परिणाम भी देखने को मिल रहे हैं।   काढ़े

काढ़े में मौजूद 9 तत्व

कोविड-19 जैसी समस्या के दौर में रोगों से लड़ने की क्षमता बनाए रखना बेहद जरूरी है। उसके लिए आयुर्वेद में अनेक तरह की जड़ी बूटियां मौजूद हैं। 

बाजार में मौजूद अनेक काढ़ों मैं 9 तत्वों का मिश्रण किया गया है। इनमें तुलसी, त्वक यानी दालचीनी, शुंठी सौंठ, मारिच काली मिर्च, मुलेठी, अश्वगंधा, गिलोय, तालीसपत्र, पिप्पली शामिल हैं। इनकी सुरक्षा की पहचान प्रभाव और गुण धर्म के विषय में जानते हैं।

तुलसी

तुलसी 

बरबरी तुलसी तीन प्रकार की होती है। यह तीक्ष्ण, गर्म, कड़वी, रुचिकर, अग्नि वर्धक, क्रमि एवं ज्वर नाशक होती है। यह है एवं खून से जुड़े रोगों में उपयोगी है। पित्त, कफ, वात रोग, धवल रोग , खुजली जलन, वमन,कुष्ठ और विष के विकारों को यह नष्ट करती है, इसके बीज तृषा, दाह और सूजन को दूर करते हैं। 

इसकी जड़ें बच्चों की आंतों की खराबी को दूर करती हैं। श्री रस को शहद के साथ मिलाने से खांसी ठीक होती है। इसके पत्तों का रस दाद पर लगाने से बिच्छू के काटे हुए स्थान पर लगाने से लाभ होता है। इसके पत्तों और शाखाओं का काढ़ा जरवल स्नायुशूल  और जुकाम में लाभदायक माना जाता है।  

इस की पौध जून माह में तैयार करके खेती की जाती है। कोविड-19 के प्रभाव के चलते और गाड़ी में उपयोग के कारण वर्तमान में तुलसी के पत्ते भी ₹200 किलो तक बिक रहे हैं। इसकी खेती में रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग नहीं किया जाता। इसके पत्ते लकड़ी और बीच सभी औषधि कंठी माला आदि मैं प्रयुक्त होते हैं।

सौंठ

सौंठ 

यह चरपरी , कफ,वात  तथा मलबन्ध को तोड़ने वाली, वीर्य वर्धक स्वर्ग को उत्तम करने वाली है।वमन,श्वास,शूल, हृदय रोग, उदय तथा वात रोग नाशक है। सौंठ अदरक को सुखाकर बनाई जाती है। 

यह रेतीली भूमि में उगाई जाती है। अदरक का रस शहद और नमक थोड़ा गुनगुना करके कान में डालने से दर्द बंद हो जाता है। सोंठ और गेरू को पानी में मिलाकर पीसकर आंखों पर इसका लेप लगाने से नेत्र रोग दूर होते हैं। 

सौंठ का प्रयोग दाढ़ का दर्द, बवासीर की दवा, जुकाम की दवा, क्षय रोग की दवा, कफ जम जाने पर, दमा की दवा एवं गर्भ स्त्राव रोकने की दवा बनाने में होता है। 

अदरक की खेती देश के अनेक राज्यों में बहुतायत में होती है। अदरक की बिजाई दक्षिण भारत में अप्रैल से मई के महीने के बीच की जाती है वही मध्य एवं उत्तर भारत में 15 से 30 मई तक किस की बुवाई का उचित समय माना जाता है

दालचीनी

दालचीनी 

यह वनस्पति हिमालय, सीलोन और मलाया प्रायद्वीप में पैदा होती है। दालचीनी के नाम से बाजार में चार विभिन्न प्रकार के वृक्षों की छाल बिकती है। यह कामोद्दीपक, क्रमिनाशक,पौष्टिक और वात ,पित्त, प्यास, गले का सूखना, वायु नलियों का प्रदाह, खुजली, हृदय तथा गुदा से जुड़ी बीमारियों में लाभदायक है। 

इसका तेल रक्त स्राव रोधक, पेट के अफरा को दूर करने वाला और अरुचि, बमन और दस्तों को रोकने मैं कारगर है।

काली मिर्च

काली मिर्च 

लता जाति की इस वनस्पति की खेती त्रावणकोर और मलावर की उपजाऊ भूमि में बहुतायत में होती है।यहां के लोग इस लता के छोटे-छोटे टुकड़े करके पेड़ों की जड़ के पास रोप देते हैं । 

यह लताएं पौधों पर चढ़ जाती हैं और 3 साल बाद फल लगने लगते हैं। काली मिर्च अग्नि को दीपन करने वाली, कफ वात नाशक, गर्म पिक जनक, रुखी तथा दमा, फूल और कर्मियों का नाश करने वाली होती है। 

इसका क्वार्ट्ज सांप बिच्छू एवं अफीम के जहर पर भी प्रभाव कारी है।काली मिर्च को घी में मिलाकर खाने से अनेक तरह के नेत्र रोग दूर होते हैं। 

एक काली मिर्च को सुई की नोक में चोकर मोमबत्ती की लौ में गर्म करें और उसके धुए को नाक के रास्ते मस्तिष्क की ओर खींचने से छींक और मस्तिष्क का दर्द बंद होता है।

काली मिर्च को दही के साथ घिसकर आंखों में आंजने से रतौंधी रात में न दिखने की समस्या दूर होती है। इसके अलावा भी काली मिर्च का अनेक चीजों के साथ अनेक प्रयोग और रोगों के निदान में किया जाता है।

मुलेठी

मुलेठी 

यह शीतल ,स्वादिष्ट नेत्रों के लिए हितकारी है । बाल तथा वर्ण को उत्तम करने वाली केश तथा स्वर के लिए भी हितकर है। रक्त विकार वमन तथा क्षय नाशक है। 

मुलेठी का चूर्ण शहद के साथ सेवन करने से शुक्र वृद्धि एवं वाजीकरण होता है। गला खराब होने पर पान के साथ मुलेठी का सेवन श्रेयस्कर रहता है।

इसकी लकड़ी लगातार चूसने से शारीरिक कमजोरी दूर होती है। यह अच्छा माउथ फ्रेशनर ही नहीं संगीतज्ञ हूं के गले की मिठास को बनाए रखने में भी काम आती है।

अश्वगंधा

अश्वगंधा 

यह भारतवर्ष में सर्वोपरि पाया जाता है। इसकी जड़ का विभिन्न औषधियों में तरह-तरह से प्रयोग होता है। यह वनस्पति वात, कफ, सूजन , श्वेत कुष्ठ, बल कारक एवं वीर्य वर्धक होती है। 

सफेद मूसली, विधारा आदि धातु वर्धक औषधियों के साथ अश्वगंधा का सेवन दूध के साथ करने से बाल बढ़ता है। इसके चूर्ण का सेवन 3 से 6 मासे तक रजोधर्म के प्रारंभ में देने से महिलाओं को गर्भधारण में आसानी रहती है।

गिलोय

गिलोय 

यह पौधों पर पनपने वाली लता है। पौधौं पर विकसित होने के बाद जमीन से उसका संपर्क कट जाए तब भी वह पनपती रहती है। नीम के पौधे पर चढ़ी गिलोय को ज्यादा लाभकारी माना जाता है। 

इसी तरह आंवला पर चढ़ी गिलोय का असम अलग होता है। आयुर्वेद के अनुसार यह है मलरोधक,फलकारक, अग्नि दीपक, हृदय को हितकारी, आयु वर्धक, प्रमेह,जरवल,दाह, रक्तशोधक, वमन,वात, कामला,पाण्डुरोग,आंव,कोढ़,कफ,पित्त आदि में लाभकारी है। 

जो गिलोय नमी वाले  पौधों पर चढ़ती है वह पुराने बुखार में बेहद लाभकारी है। हर किस्म के ताप को नष्ट करती है। दिल जिगर और मेदें की जलन को मिटाती है। 

यह भूख बढ़ाती है और काम इंद्रियों को ताकत देती है। मिश्री के साथ लेने से पित्त को जलाती है। इसका काढ़ा सैकड़ों रोगों का नाश करता है। कोरोना के चलते बाजार में बढ़ी मांग में इसकी कीमतों को भी आसमान में पहुंचा दिया है।

तालीसपत्र

यह भारत के विभिन्न वनों में पाया जाता है और इसे लगाया भी जाता है। इसके वृक्ष बहुत ऊंचे होते हैं। इसकी डाली है जमीन की तरफ ज्यादा झुकी होती है। यह स्वर को सुधारने वाला, हृदय को हितकारी, अग्नि दीपक, श्वास , खांसी , का वार है गुरुजी रोड विकास भवन अग्निमांद्य, मुखरोग, पित्त नाशक आदि अनेक रोगों में उपयोगी है। 

के पौधे की जड़ का काढ़ा पागल कुत्ते द्वारा काटे गए व्यक्तियों को दिया  जाता है। इसके पत्ते मिर्गी रोग में भी काम आते हैं। खांसी, दमा श्वसन रोग में भी इसके पत्तों का उपयोग होता है।

पिप्पली

कहावत सोंठ,रोंग, पीपल इन्हें खाय के जी पर, पीपल यानी पिप्पली के औषधीय गुण को दर्शाती है। पीपल का प्रयोग अधिकांश घरों में होता है। काले रंग के एक से डेढ़ इंची लंबे पीपल को विशेषकर ठंड के दिनों में अधिकांश घरों में प्रयोग किया जाता है। यह ठंड से होने वाली अनेक समस्याओं का अकेला समाधान करता है।

कैसे बनाएं काढ़ा

उपरोक्त सभी तत्वों की दस दस प्रतिशत मात्रा को समान भाग में कूट पीसकर काढ़ा बनाया जा सकता है। ध्यान रहे उक्त औषधियां किसी विश्वसनीय पंसारी के यहां से ही खरीदी जाएं। काढ़े के एक दूसरे योग में 10% कच्ची हल्दी को पीसकर भी मिलाया गया है।

कितना कारगर है काढ़ा

 काढ़ा 

इस काढ़े का प्रयोग कोविड-19 के कोहराम के बीच हजारों लोगों ने किया है। इनमें से कुछ के अनुभव हम आपके साथ साझा कर रहे हैं। वेटरनरी विश्वविद्यालय मथुरा के डेयरी विभाग के डॉ प्रवीण कुमार खुद इस काढ़े का सेवन कर रहे हैं।

कानपुर में रहने वाले अपने माता-पिता के लिए भी उन्होंने एक दर्जन पैकेट भिजवाए हैं। उन्हें इस काढ़े से कई तरह की समस्याओं से मुक्ति 20 दिन में ही मिलने लगी है। 

कई अन्य लोगों ने इस काढ़े के लगातार प्रयोग से 20 दिन में 2 किलो वजन कम होने की पुष्टि की है। कई लोगों ने यहां तक दावा किया कि जब से उन्होंने काढ़े का प्रयोग शुरू किया है वह कई तरह की गोलियां लेना छोड़ चुके हैं। 

मथुरा के पार्षद राजेश सिंह पिंटू गुणकारी काढ़े का अपने समूचे परिवार में तो प्रयोग कर रहे हैं कई दर्जन लोगों को उन्होंने काढ़े गिफ्ट किए हैं। 

समाज में काढ़े का प्रचलन बढ़ाने के लिए अनेक लोगों ने सैकड़ों सैकड़ों की तादात में काढ़े के पैकेट का वितरण किया है। उत्तर प्रदेश के मथुरा में यह काढ़ा पंडित दीनदयाल उपाध्याय की जन्मस्थली स्थित परिसर में बनाया जा रहा है। कामधेनु गौशाला फार्मेसी के 200 ग्राम के पैकेट का मूल्य ₹40 रखा है।

बकरियों पर पड़ रहे लंपी वायरस के प्रभाव को इस तरह रोकें

बकरियों पर पड़ रहे लंपी वायरस के प्रभाव को इस तरह रोकें

लंपी वायरस एक संक्रामक रोग है। यह पशुओं के लार के माध्यम से फैलता है। लंपी वायरस गाय बकरी आदि जैसे दूध देने वाले पशुओं पर प्रकोप ड़ालता है। इस वायरस के प्रकोप से बकरियों के शरीर पर गहरी गांठें हो जाती हैं। साथ ही, यह बड़ी होकर घाव के स्वरूप में परिवर्तित हो जाती हैं। इसको सामान्य भाषा में गांठदार त्वचा रोग के नाम से भी जाना जाता है। बकरियों के अंदर यह बीमारी होने से उनका वजन काफी घटने लगता है। सिर्फ यही नहीं बकरियों के दूध देने की क्षमता भी कम होनी शुरू हो जाती है। 

लंपी वायरस के क्या-क्या लक्षण होते हैं

इस रोग की वजह से बकरियों को बुखार आना शुरू हो जाता है। आंखों से पानी निकलना, लार बहना, शरीर पर गांठें आना, पशु का वजन कम होना, भूख न लगना एवं शरीर पर घाव बनना इत्यादि जैसे लक्षण होते हैं। आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि लंपी रोग केवल जानवरों में होता है। यह लंपी वायरस गोटपॉक्स एवं शिपपॉक्स फैमिली का होता है। इन कीड़ों में खून चूसने की क्षमता काफी अधिक होती है।

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लंपी वायरस से बकरियों के शरीर पर क्या प्रभाव पड़ेगा

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि इस वायरस की चपेट में आने के पश्चात बकरियों में इसका संक्रमण 14 दिन के अंदर दिखने लगता है। जानवर को तीव्र बुखार, शरीर पर गहरे धब्बे एवं खून में थक्के पड़ने लगते हैं। इस वजह से बकरियों का वजन कम होने लग जाता है। साथ ही, इनकी दूध देने की क्षमता भी काफी कम होने लगती है। दरअसल, इसके साथ-साथ पशु के मुंह से लार आनी शुरू हो जाती है। गर्भवती बकरियों का गर्भपात होने का भी खतरा बढ़ जाता है। 

लंपी वायरस की शुरुआत किस देश से हुई है

विश्व में पहली बार लंपी वायरस को अफ्रीका महाद्वीप के जाम्बिया देश के अंदर पाया गया था। हाल ही में यह पहली बार 2019 में चीन में सामने आया था। भारत में भी यह 2019 में ही आया था। भारत में पिछले दो सालों से इसके काफी सारे मामले सामने आ रहे हैं। 

बकरियों का दूध पीयें या नहीं

लंपी वायरस मच्छर, मक्खी, दूषित भोजन एवं संक्रमित पाशुओं के लार के माध्यम से ही फैलता है। इस वायरस को लेकर लोगों के भीतर यह भय व्याप्त हो गया है, कि क्या इस वायरस से पीड़ित पशुओं के दूध का सेवन करना चाहिए अथवा नहीं करना चाहिए। आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि पशुओं के दूध का उपयोग किया जा सकता है। परंतु, आपको दूध को काफी अच्छी तरह से उबाल लेना चाहिए। इससे दूध में विघमान वायरस पूर्णतय समाप्त हो जाए।

लॉकाडाउन के असर का आकलन करेगा आईसीएआर

लॉकाडाउन के असर का आकलन करेगा आईसीएआर

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) कोरोना वायरस महामारी और उसकी रोकथाम के लिये जारी ‘लॉकडाउन’ (बंद) का कृषि एवं संबद्ध सेवाओं पर प्रभाव का आकलन कर रही है। साथ ही देश की खाद्य सुरक्षा पर उसके प्रभाव को कम करने के लिये कदम उठा रही है। आईसीएआर के एक अधिकारी ने कहा, ‘‘परिषद कोरोना वायरस और उसकी रोकथाम के लिये जारी देशव्यापी बंद के कृषि और संबद्ध क्षेत्रों पर संभावित प्रभाव और उसके दुष्प्रभाव को कम करने को लेकर दस्तावेज तैयार कर रही है। इसका उद्देश्य देश की खाद्य प्रणाली को दुरुस्त बनाये रखना है।’’ 

अधिकारी ने कहा, ‘‘हालांकि सरकार ने फसलों की कटाई से लेकर उसे मंडियों में भेजने जैसे कई कृषि कार्यों को बंद से अलग रखा है पर आईसीएआर के अध्ययन से सरकार को आगे कदम उठाने में मदद मिलेगी।अधिकारी ने कहा कि आईसीएआर ने किसानों को फसल केंद्रित परामर्श जारी किया है और उनसे कटाई और उसके बाद के कार्यों,भंडारण तथ विपणन के लिये एहतियाती और सुरक्षात्मक उपाय करने को कहा है। 

 सरकार ने कोरोना वायरस महामारी पर अंकुश लगाने के लिये 25 मार्च से 21 दिन के लिये देशव्यापी बंद की घोषणा की है।अधिकारी ने यह भी कहा कि आईसीएआर ने विभिन्न राज्यों में स्थित अपने सभी अतिथि गृहों को कोरोना वायरस संक्रमित मरीजों के लिये अलग वार्ड बनाने में उपयोग करने की पेशकश की है।

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आईसीएआर के अनुसार उसके चार संस्थानों-राष्ट्रीय उच्च सुरक्षा पशुरोग संस्थान (भोपाल), राष्ट्रीय पशुरोग जानपदिक एवं सूचना विज्ञान संस्थान (बेंगलुरु), भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान (इज्जतनगर) और नेशनल रिसर्च सेंटर ऑन ईक्वाइन (हिसार) में कोरोना वायरस परीक्षण के लिये जरूरी सुविधाएं हैं। परिषद ने कहा कि उसके संस्थान आसपास के श्रमिकों के परिसरों में खाना और साफ-सफाई से जुड़े उत्पाद उपलब्ध करा रहे हैं।साथ ही सभी कर्मचारी अपना एक दिन का वेतन प्रधानमंत्री नागरिक सहायता एवं आपात स्थिति राहत कोष (पीएम-केयर्स) में दे रहे हैं। यह राशि करीब 6.06 करोड़ रुपये है।

बौना धान: पंजाब पर चीन की टेढ़ी नजर, अब धान बना निशाना

बौना धान: पंजाब पर चीन की टेढ़ी नजर, अब धान बना निशाना

चीन की चालाकियां और बदमाशी थमने का नाम नहीं ले रही है. कोरोना के बाद अब चीन एक बार फिर एक नए वायरस के कारण चर्चा में है, जिसकी वजह से पंजाब में धान की खेती को काफी ज्यादा नुकसान हो रहा है. पंजाब में धान उत्पादक, विभिन्न क्षेत्रों से फसल में आ रही बौनी बीमारी से चिंतित हैं और उन पर इसका भारी असर पड़ रहा है. यह बीमारी साउथ राइस ब्लैक-स्ट्रीक्ड ड्वार्फ वायरस (Southern Rice Black-Streaked Dwarf Virus (SRBSDV)के कारण हुई है, जो इस क्षेत्र में तेजी से फैल रहा है. एक्सपर्ट्स के अनुसार यह वायरस भी चीन से आया है. यह वायरस इतना अधिक घातक है कि इसकी वजह से पंजाब के कई क्षेत्रों में हजारों हेक्टेयर में बोए गए धान के पौधे अविकसित रह गए हैं और उनमें बौनापन आ गया है. जाहिर है, इस वजह से इस खरीफ के सीजन में धान उत्पादन पर भी बुरा असर पड़ेगा.

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पंजाब के कई इलाके प्रभावित

पंजाब कृषि विश्वविद्यालय (पीएयू - Punjab Agricultural University - PAU) के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए नवीनतम सर्वेक्षण ने भी पुष्टि की है कि लगभग पूरे राज्य में चावल और बासमती के खेतों में, विशेष रूप से पटियाला, फतेहगढ़ साहिब, रोपड़, मोहाली, होशियारपुर, पठानकोट में धान के खेतों में इस बीमारी के लक्षण देखे गए हैं. गौरतलब है कि 3,500 हेक्टेयर से अधिक खड़ी धान की फसल पहले ही आधिकारिक तौर पर साउथ राइस ब्लैक-स्ट्रीक्ड ड्वार्फ वायरस (SRBSDV) से प्रभावित हो चुकी है. लुधियाना में इस फसल सीजन में 2,58,600 हेक्टेयर क्षेत्र में धान की बुआई हुई थी, जोकि राज्य में अब तक का सबसे अधिक है. लेकिन लुधियाना में भी 3,500 हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र में धान में बौनेपन की बीमारी की सूचना मिली है, जो कुल क्षेत्रफल का 1.35 प्रतिशत है. यदि फसल उपज पैटर्न और मूल्य निर्धारण को ध्यान में रखा जाता है, तो अकेले लुधियाना जिले के किसानों को अब तक 51.35 करोड़ रुपये से अधिक का नुकसान हुआ है क्योंकि कम से कम 2,51,720 क्विंटल धान की उपज पहले ही बीमारी की चपेट में आ चुकी है. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक़, 2021-22 में, लुधियाना जिले में 7,192 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर धान की उपज दर्ज की गई थी और 2022-23 के लिए धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य 2,040 रुपये प्रति क्विंटल तय किया गया है.

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क्या कहते है एक्सपर्ट्स

पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति सतबीर सिंह गोसल ने धान उत्पादकों से कहा है कि वे बौने रोग से न डरें, जो राज्य में पहली बार एसआरबीएसडीवी (SRBSDV) के कारण सामने आया है. पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के एंटोमोलॉजिस्ट (entomologist) द्वारा किए गए नवीनतम सर्वेक्षण के अनुसार, चावल और बासमती के खेतों में अविकसित पौधे देखे गए हैं. कुछ क्षेत्रों में इस रोग के गंभीर हमले के कारण कुछ पौधे मर चुके थे और कुछ सामान्य पौधों की तुलना में आधे से एक तिहाई ऊंचाई कद के थे. पीएयू के प्रिंसिपल एंटोमोलॉजिस्ट केएस सूरी ने कहा कि इन प्रभावित पौधों का अभी जड़ गहरा नहीं है और इन्हें आसानी से निकाला जा सकता है. उन्होंने कहा कि बौना रोग 25 जून के बाद बोए गए धान की तुलना में उससे पहले रोपे गए धान में अधिक दिखा है.

भयभीत है किसान

जालंधर के एक किसान कहते हैं कि हम पहली बार ऐसी बीमारी देख रहे हैं. फसल के लिए एक महीने से भी कम समय है, लेकिन हमें अच्छी उपज की उम्मीद नहीं है, वहीं भारतीय किसान यूनियन (दोआबा) के नेता सतनाम सिंह साहनी ने कहा है कि हम पहले से ही अनुमान लगा सकते हैं कि बौने रोग के कारण कुल मिलाकर फसल की 10 प्रतिशत उपज नष्ट हो गई है. हालांकि, एक बार फसल चक्र पूरा होने के बाद यह नुकसान 15 से 20 प्रतिशत तक भी हो सकता है.
दिल्ली सरकार ने की लम्पी वायरस से निपटने की तैयारी, वैक्सीन खरीदने का आर्डर देगी सरकार

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देश में लम्पी वायरस ( Lumpy Virus ) कहर मचा रहा है। इस बीमारी के कारण देश में अब तक लाखों मवेशी मारे जा चुके हैं। लम्पी वायरस का सबसे ज्यादा कहर राजस्थान में देखने को मिला है, जहां पर इस वायरस की वजह से रातों रात लाखों गायों ने दम तोड़ दिया। इसके साथ ही राजस्थान की सीमा से लगने वाले राज्यों में भी इस वायरस का प्रकोप देखा जा रहा है। इस वायरस ने दिल्ली को भी अपनी चपेट में ले लिया है, जिससे दिल्ली के किसान बेहद चिंतित हैं। इसके समाधान के लिए अब दिल्ली सरकार ने पहल शुरू कर दी है। इसके तहत दिल्ली सरकार 60 हजार गोट पॉक्स वैक्सीन ( Goat Pox Vaccine ) खरीदने जा रही है। इसकी जानकारी दिल्ली सरकार में कैबिनेट मंत्री गोपाल राय ने दी थी। उन्होंने बताया कि लम्पी वायरस दिल्ली में तेजी से फ़ैल रहा है। अभी तक दिली में इस वायरस के 173 मामले दर्ज किये जा चुके हैं जो बेहद चिंता का विषय है। दिल्ली में लम्पी वायरस के सभी मामले दक्षिण-पश्चिम दिल्ली से सामने आये हैं जहां इस वायरस का प्रकोप दिनों दिन बढ़ता जा रहा है। सरकारी पशु चिकित्स्कों के साथ दिल्ली सरकार की टीम ने गोयला डेयरी, घुम्मनहेड़ा, नजफगढ और रेवला खानपुर इलाके से लम्पी वायरस के ये मामले दर्ज किये हैं। इन इलाकों में बहुत सारी गौशालाएं मौजूद हैं जहां पर हजारों की तादाद में गायें रहती हैं।


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दिल्ली सरकार में कैबिनेट मंत्री गोपाल राय ने बताया कि दिल्ली में लगभग 80 हजार गायें हैं। इस हिसाब से सरकार ने कैलकुलेशन करके 60 हजार गोट पॉक्स वैक्सीन खरीदने की योजना बनाई है। ताकि जल्द से जल्द राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की गायों को लम्पी वायरस से सुरक्षित किया जा सके। गोपाल राय ने बताया कि वैक्सीन खरीददारी अपने अंतिम दौर में है और दवा कम्पनी की तरफ से जल्द से जल्द दिल्ली सरकार को वैक्सीन उपलब्ध करवा दी जाएंगी। गोपाल राय ने बताया कि सरकार इस वायरस से निपटने के लिए हर संभव प्रयास कर रही है। इसके तहत दिल्ली सरकार ने वायरस की रोकथाम में के लिए सैम्पल लेने प्रारम्भ कर दिए हैं और सैम्पलों की जांच जल्दी से जल्दी की जा रही है ताकि समय रहते गायों में वायरस का पता लगाया जा सके। इसके लिए सरकार ने वायरस के नमूने इकट्ठे करने के लिए दो मोबाइल पशु चिकित्सालय भी तैनात किए हैं जो जगह-जगह पर जाकर पशुओं से सैंपल एकत्रित करके जांच के लिए भेज रहे हैं। इसके साथ ही सरकार ने वायरस से निपटने के लिए ग्यारह रैपिड रिस्पांस टीमों का गठन किया है। साथ ही कई अन्य लोगों को नियुक्त किया है जो समूह में जाकर गौ पालकों को लम्पी वायरस से होने वाले नुकसान के बारे में जागरुक करेंगे। गोपाल राय ने बताया कि सरकार ने इस बीमारी से सम्बंधित गौ पालकों और किसानों की समस्याओं को सुनने के लिए एक हेल्पलाइन नंबर भी जारी किया है। किसान 8287848586 में फ़ोन करके वायरस से सम्बंधित अपनी शंकाओं का समाधान कर सकते हैं। इसके लिए सरकार ने एक अलग से कार्यालय बनाया है जहां पर इसका कॉल सेंटर स्थापित किया गया है।


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पशुओं में फैलने वाला यह लम्पी रोग देश के कई राज्यों में तेजी से पैर पसार रहा है। अभी तक देश के 12 से अधिक राज्यों में 15 लाख से ज्यादा पशु इस रोग से संक्रमित हो चुके हैं। साथ ही हजारों पशुओं की इस वायरस की वजह से मौत हो चुकी है। इसका कहर मुख्यतः राजस्थान, मध्य प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, आंध्र प्रदेश और दिल्ली में देखने को मिल रहा है। हालांकि कई प्रदेशों की सरकारों ने वैक्सीनेशन की रफ़्तार तेज करके इस रोग पर काबू पाने का भरसक प्रयास किया है। फिलहाल सबसे ज्यादा वैक्सीनेशन राजस्थान में किया जा रहा है क्योंकि इस वायरस की वजह से राजस्थान सबसे ज्यादा प्रभावित राज्य है।

क्या है लम्पी वायरस और यह कैसे फैलता है ?

विशेषज्ञों ने बताया है कि लम्पी वायरस एक त्वचा रोग है। यह पशुओं के बीच तेजी से फैलता है। इस वायरस के माध्यम से स्वस्थ्य पशु, संक्रमित पशु के संपर्क में आने के बाद तुरंत ही संक्रमित हो जाता है। इसके अलावा यह वायरस मच्छरों, मक्खियों, जूं और ततैया के माध्यम से भी फैलता है, क्योंकि इनकी वजह से स्वस्थ्य पशुओं का बीमार पशुओं के साथ संपर्क स्थापित हो जाता है। इसके अलावा यह वायरस पशुओं के एक ही पात्र में पानी पीने से भी तेजी से फैलता है। इस वायरस से संक्रमित होने के बाद मवेशियों में तेज बुखार, आंखों से पानी आना, नाक से पानी निकलना, त्वचा की गांठें और दुग्ध उत्पादन में कमी हो जाना जैसे लक्षण आसानी से देखे जा सकते हैं जो बेहद चिंता का विषय है, क्योंकि इस वायरस से संक्रमित होने के बाद पशु बहुत जल्दी दम तोड़ देते हैं।


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लम्पी वायरस के बढ़ते प्रकोप के कारण देश में हजारों मवेशी प्रतिदिन मारे जा रहे हैं, जिससे देश में जानवरों की कमी हो सकती है। इसका सीधा असर देश में दुग्ध उत्पादन पर पड़ेगा। अगर ऐसा ही चलता रहा तो कुछ दिनों बाद भारत में दूध की कमी महसूस की जाने लगेगी, जो सरकार के लिए एक नया सिरदर्द साबित हो सकती है। क्योंकि दुग्ध उत्पादन में कमी के बाद दूध के दामों में तेजी से बढ़ोत्तरी संभव है और यह बाजार में ग्राहकों को प्रभावित करेगी।
लम्पी वायरस: मवेशियों के लिए योगी सरकार बनाने जा रही है 300 किमी लंबा सुरक्षा कवच

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अभी देश को कोरोना जैसे भयावह और जानलेवा बीमारी से पूर्ण रूप से निजात मिला भी नहीं था, तब तक देश के 12 राज्यों के पशुओं के ऊपर एक भयावह वायरस का प्रकोप शुरू हो गया और वह वायरस है ‘लम्पी स्किन डिजीज‘ या एलएसडी (LSD – Lumpy Skin Disease) वायरस. इस बीमारी की वजह से देश में लगभग 56 हजार से अधिक मवेशी की मौत अब तक हो चुकी है. आपको बताते चले कि उत्तर प्रदेश राज्य में भी इसका प्रकोप काफी बढ़ गया है और अब तक वहां लगभग 200 पशुओं की मौत हो चुकी है. इसको यूपी सरकार ने काफी गंभीरता से लिया है और इसके लिए काफी महत्वपूर्ण कदम भी उठाए है. आपको मालूम हो की यूपी के योगी सरकार ने वहां के गायों और अन्य मवेशियों को सुरक्षित रखने के लिए सुरक्षा कवच का निर्माण करने का निर्देश दिया है. गौरतलब है की सुरक्षा कवच के रूप 300 किमी का इम्यून बेल्ट (Immune Belt) बनाने का निर्णय लिया गया है.

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(Lumpy Skin Disease)

पशुपालन विभाग का मास्टर प्लान

खबरों के मुताबिक उत्तर प्रदेश सरकार पशुपालन विभाग के मुख्य सचिव दुर्गा शंकर मिश्र ने इम्यून बेल्ट पर आधारित मास्टर प्लान सरकार के सामने पेश किया है, जिस पर यूपी की योगी सरकार ने सहमति भी जताई है और उस पर कार्य करने को योजना भी तैयार किया है. योगी सरकार का मानना है कि इस सुरक्षा कवच यानी इम्यून बेल्ट के निर्माण से वायरस का प्रसार प्रतिबंधित होगा.

क्या है इम्यून बेल्ट ?

इम्यून बेल्ट एक सुरक्षा कवच है जो पीलीभीत और इटावा के बीच बनाई जाएगी. इस इम्यून बेल्ट का दायरा 300 किमी लंबा और 10 किमी चौड़ा होगा. Immune Belt - Pilibhit to Etawah, UP आपको मालूम हो कि लंपी स्किन डिजीज के वायरस का प्रकोप वेस्ट यूपी में सबसे ज्यादा है. यहां सबसे ज्यादा संक्रमण देखा जा रहा है. वेस्ट यूपी के कुछ जिले जैसे अलीगढ़, मुजफ्फरनगर और सहारनपुर सबसे ज्यादा प्रभावित है. वही मथुरा, बुलंदशहर, बागपत, हापुड़, मेरठ में लम्पी स्किन डिजीज के वायरस का संक्रमण काफी तेजी से फ़ैल रहा है. संक्रमण के तेज होने के कारण ही योगी सरकार ने ये सुरक्षा कवच के रूप में 5 जिलों और 23 ब्लॉकों से होकर गुजरने वाली इम्यून बेल्ट बनाने का निर्णय किया है. आपको यह भी जान कर हैरानी होगी कि यह इम्यून बेल्ट मलेशियाई मॉडल पर आधारित होगा.

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खबरों के अनुसार इम्यून बेल्ट वाले इलाके में निगरानी के लिए कुछ टास्क फोर्स को सुरक्षा कवच के रूप में तैनात किए जाएंगे. यह टास्क फोर्स मवेशियों में वायरस के उपचार और उनके निगरानी पर खास ध्यान देंगे ताकि उस इम्यून बेल्ट से कोई संक्रमित मवेशी बाहर न आए और अन्य मवेशियों को संक्रमित ना करें. गौरतलब हो की राज्य में अब तक लगभग 22000 गायों को इस लम्पी वायरस का सामना करना पड़ा है यानी वो संक्रमित हुए हैं. यह राज्य के लगभग 2331 गावों का आंकड़ा है. असल में अब तक राज्य के 2,331 गांवों की 21,619 गायें लम्पी वायरस की चपेट में आ चुकी हैं, जिनमें से 199 की मौत हो चुकी है. जबकि 9,834 का इलाज किया जा चुका है और वे ठीक हो चुकी हैं. जानलेवा वायरस पर काबू पाने के लिए योगी सरकार बड़े पैमाने पर टीकाकरण अभियान चला रही है. अब तक 5,83,600 से अधिक मवेशियों का टीकाकरण किया जा चुका है. यह कदम लम्पी वायरस पर नकेल कसने के दिशा में एक सफल प्रयास है और आशा है की इस तरह के योजना और सुरक्षा कवच (इम्युन बेल्ट) बनाने से जल्द ही यूपी सरकार इस वायरस को भी मात दे देगी.

इम्यून बेल्ट का कार्य

यूपी सरकार की तरफ से बनाई जाने वाली 300 किमी लंबी इम्यून बेल्ट को मलेशियाई मॉडल के तौर पर जाना जाता है. जानकारी के मुताबिक पशुपालन विभाग द्वारा इम्यून बेल्ट वाले क्षेत्र में वायरस की निगरानी के लिए एक टॉस्क फोर्स का गठन किया जाएगा. यह टास्क फोर्स वायरस से संक्रमित जानवरों की ट्रैकिंग और उपचार को संभालेगी.
येलो मोजेक वायरस की वजह से महाराष्ट्र में पपीते की खेती को भारी नुकसान

येलो मोजेक वायरस की वजह से महाराष्ट्र में पपीते की खेती को भारी नुकसान

आपकी जानकारी के लिए बतादें कि नंदुरबार जिला महाराष्ट्र का सबसे बड़ा पपीता उत्पादक जिला माना जाता है। यहां लगभग 3000 हेक्टेयर से ज्यादा रकबे में पपीते के बाग इस वायरस की चपेट में हैं। इसकी वजह से किसानों का परिश्रम और लाखों रुपये की लागत बर्बाद हो गई है। किसानों ने सरकार से मांगा मुआवजा। सोयाबीन की खेती को बर्बाद करने के पश्चात फिलहाल येलो मोजेक वायरस का प्रकोप पपीते की खेती पर देखने को मिल रहा है। इसकी वजह से पपीता की खेती करने वाले किसान काफी संकट में हैं। इस वायरस ने एकमात्र नंदुरबार जनपद में 3 हजार हेक्टेयर से ज्यादा रकबे में पपीते के बागों को प्रभावित किया है, इससे किसानों की मेहनत और लाखों रुपये की लागत बर्बाद हो चुकी है। महाराष्ट्र के विभिन्न जिलों में देखा जा रहा है, कि मोजेक वायरस ने सोयाबीन के बाद पपीते की फसल को बर्बाद किया है, जिनमें नंदुरबार जिला भी शामिल है। जिले में पपीते के काफी बगीचे मोजेक वायरस की वजह से नष्ट होने के कगार पर हैं।

सरकार ने मोजेक वायरस से क्षतिग्रस्त सोयाबीन किसानों की मदद की थी

बतादें, कि जिस प्रकार राज्य सरकार ने मोजेक वायरस की वजह से सोयाबीन किसानों को हुए नुकसान के लिए सहायता देने का वादा किया था। वर्तमान में उसी प्रकार पपीता किसानों को भी सरकार से सहयोग की आशा है। महाराष्ट्र एक प्रमुख फल उत्पादक राज्य है। परंतु, उसकी खेती करने वालों की समस्याएं कम होने का नाम ही नहीं ले रही हैं। इस वर्ष किसानों को अंगूर का कोई खास भाव नहीं मिला है। बांग्लादेश की नीतियों की वजह से एक्सपोर्ट प्रभावित होने से संतरे की कीमत गिर गई है। अब पपीते पर प्रकृति की मार पड़ रही है।

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पपीते की खेती में कौन-सी समस्या सामने आई है

पपीते पर लगने वाले विषाणुजनित रोगों की वजह से उसके पेड़ों की पत्तियां शीघ्र गिर जाती हैं। शीर्ष पर पत्तियां सिकुड़ जाती हैं, इस वजह से फल धूप से क्षतिग्रस्त हो जाते हैं। व्यापारी ऐसे फलों को नहीं खरीदने से इंकार कर देते हैं, जिले में 3000 हेक्टेयर से ज्यादा क्षेत्रफल में पपीता इस मोज़ेक वायरस से अत्यधिक प्रभावित पाया गया है। हालांकि, किसानों द्वारा इस पर नियंत्रण पाने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के उपाय किए जा रहे हैं। परंतु, पपीते पर संकट दूर होता नहीं दिख रहा है। इसलिए किसानों की मांग है, कि जिले को सूखा घोषित कर सभी किसानों को तत्काल मदद देने की घोषणा की जाए।

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पपीता पर रिसर्च सेंटर स्थापना की आवश्यकता

नंदुरबार जिला महाराष्ट्र का सबसे बड़ा पपीता उत्पादक जिला माना जाता है। प्रत्येक वर्ष पपीते की फसल विभिन्न बीमारियों से प्रभावित होती है। परंतु, पपीते पर शोध करने के लिए राज्य में कोई पपीता अनुसंधान केंद्र नहीं है। इस वजह से केंद्र और राज्य सरकारों के लिए यह जरूरी है, कि वे नंदुरबार में पपीता अनुसंधान केंद्र शुरू करें और पपीते को प्रभावित करने वाली विभिन्न बीमारियों पर शोध करके उस पर नियंत्रण करें, जिससे किसानों की मेहनत बेकार न जाए।

येलो मोजेक रोग के क्या-क्या लक्षण हैं

येलो मोजेक रोग मुख्य तौर पर सोयाबीन में लगता है। इसकी वजह से पत्तियों की मुख्य शिराओं के पास पीले धब्बे पड़ जाते हैं। ये पीले धब्बे बिखरे हुए अवस्था में दिखाई देते हैं। जैसे-जैसे पत्तियां बढ़ती हैं, उन पर भूरे रंग के धब्बे दिखाई देने लगते हैं। कभी-कभी भारी संक्रमण की वजह पत्तियां सिकुड़ और मुरझा जाती हैं। इसकी वजह से उत्पादन प्रभावित हो जाता है।

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येलो मोजेक रोग की रोकथाम का उपाय

कृषि विभाग ने येलो मोजेक रोग को पूरी तरह खत्म करने के लिए रोगग्रस्त पेड़ों को उखाड़कर जमीन में गाड़ने या नीला व पीला जाल लगाने का उपाय बताया है। इस रोग की वजह से उत्पादकता 30 से 90 प्रतिशत तक कम हो जाती है। इसके चलते कृषि विभाग ने किसानों से समय रहते सावधानी बरतने की अपील की है।