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सोयाबीन

भारत की मंडियों में तिलहन फसल सरसों की कीमतों में आई भारी गिरावट

भारत की मंडियों में तिलहन फसल सरसों की कीमतों में आई भारी गिरावट

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि वर्तमान में तिलहन फसलों में सर्वाधिक सरसों की कीमत प्रभावित हो रही है। विगत वर्ष के समापन में सरसों की कीमतों में काफी तीव्रता देखने को मिली थी। परंतु, अब सरसों की कीमतें एक दम नीचे गिरने लगी हैं। भारत भर की मंडियों में सरसों को क्या भाव मिल रहा है ? तिलहन फसलों का भाव निरंतर तीव्रता के पश्चात अब गिरावट की कवायद शुरू हो गई है। अधिकांश तिलहन फसलों की कीमतें अभी ज्यों की त्यों बनी हुई हैं।

कुछ एक फसलों में कमी दर्ज की जा रही है। तिलहन फसलोंकी बात करें तो सर्वाधिक सरसों के भाव प्रभावित हो रहे हैं। विगत वर्ष के अंत में सरसों की कीमतों में शानदार तीव्रता देखने को मिली थी। एक वक्त तो भाव 9000 रुपये प्रति क्विंटल तक पहुंच गया था। परंतु, अब भाव में एक दम से कमी आई है। आलम यह है, कि सरसों का भाव न्यूनतम समर्थन मूल्य से भी नीचे चला गया है, जिस कारण से कृषक भी काफी परेशान दिखाई दे रहे हैं। 

भारत भर की मंडियों में सरसों की कीमत क्या है

केंद्र सरकार ने सरसों पर 5650 रुपये का न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित किया गया है। परंतु, भारत की अधिकतर मंडियों में किसानों को MSP तक की कीमत नहीं मिल रही है। सरसों की फसल को औसतन 5500 रुपये/क्विंटल की कीमत मिल रही है। केंद्रीय कृष‍ि व क‍िसान कल्याण मंत्रालय के एगमार्कनेट पोर्टल के मुताबिक, शनिवार (6 जनवरी) को भारत की एक दो मंडी को छोड़ दें, तो तकरीबन समस्त मंडियों में मूल्य MSP से नीचे ही रहा है। शनिवार को सरसों को सबसे शानदार भाव कर्नाटक की शिमोगा मंडी में हांसिल हुआ। जहां, सरसों 8800 रुपये/क्विंटल के भाव पर बिकी है।


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इसी प्रकार, गुजरात की अमरेली मंडी में भाव 6075 रुपये/क्विंटल तक रहा है। इन दो मंडियों को छोड़ दें, तो बाकी समस्त मंडियो में सरसों 5500 रुपये/क्विंटल के नीचे ही बेची जा रही है, जो MSP से काफी कम है। वहीं, भारत की कुछ मंडियों में तो भाव 4500 रुपये/क्विंटल तक पहुंच गया। विशेषज्ञों का कहना है, की कम मांग के चलते कीमतों में काफी गिरावट आई है। यदि मांग नहीं बढ़ी, तो कीमतें और कम हो सकती हैं, जो कि कृषकों के लिए काफी चिंता का विषय है।


यहां पर आप बाकी फसलों की सूची भी देख सकते हैं 

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि किसी भी फसल का भाव उसकी गुणवत्ता पर भी निर्भर रहता है। ऐसी स्थिति में व्यापारी क्वालिटी के हिसाब से ही भाव निर्धारित करते हैं। फसल जितनी शानदार गुणवत्ता की होगी, उसकी उतनी ही अच्छी कीमत मिलेंगे। यदि आप भी अपने राज्य की मंडियों में भिन्न-भिन्न फसलों का भाव देखना चाहते हैं, तो आधिकारिक वेबसाइट https://agmarknet.gov.in/ पर जाकर पूरी सूची की जाँच कर सकते हैं।

सोयाबीन की खेती कैसे होती है

सोयाबीन की खेती कैसे होती है

सोयाबीन की खेती

सोयाबीन विश्व की प्रमुख तिलहनी फसल है। यह विश्व खाद्य तेल उत्पादन में करीब 30 फ़ीसदी का योगदान देती है। इसमें 20% तेल 40% प्रोटीन होता है। सोयाबीन का स्थान भारत की मुख्य फसलों में से एक है। विश्व में क्षेत्रफल एवं उत्पादन की दृष्टि से भारत उसमें प्रमुख स्थान रखता है।भारत में सोयाबीन की औसत उत्पादकता 11 से 12 कुंतल प्रति हेक्टेयर है। भारत में सोयाबीन खरीफ में उगाई जाने वाली एक प्रमुख  फसल है। हमारे देश में
सोयाबीन उत्पादन प्रमुख रूप से मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक में होती है। सोयाबीन के कुल क्षेत्र एवं उत्पादन में मध्यप्रदेश एवं महाराष्ट्र का विशेष योगदान है। देश में सोयाबीन उत्पादन में प्रथम स्थान पर है। सोयाबीन से तेल प्राप्त होने के अलावा दूध दही पनीर आदि खाद्य पदार्थ भी तैयार किए जाते हैं।

मिट्टी

सोयाबीन की अच्छी पैदावार के लिए समतल एवं जल निकासी वाली दोमट भूमि अच्छी रहती है।इसकी खेती क्षारीय तथा अम्लीय भूमियां छोड़कर हर तरह की जमीन में की जा सकती है। काली मिट्टी में भी सोयाबीन की खेती अच्छी होती है। वैज्ञानिक भाषा में जिस मिट्टी का पीएच मान 6:30 से 7:30 के बीच हो वह इसकी खेती के लिए अच्छी होती है।

बीज

खरीफ में लगाई जानी फसल के लिए 70 से 75 किलोग्राम बीज पर्याप्त होता है जबकि ग्रीष्म एवं वसंत ऋतु के लिए 100 से 125  किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज चाहिए।अच्छी पैदावार के लिए प्रमाणित या आधारित बीज लेना चाहिए और बुवाई से पूर्व थीरम या कार्जाबन्कडाजिम नामक दवा से ढाई ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीज उपचार करना चाहिए। इसके अलावा सोयाबीन में नाइट्रोजन स्थिरीकरण बाजार ग्रंथियों के शीघ्र विकास के लिए 20 को राइजोबियम कल्चर से उपचारित करना चाहिए । पौधों के अच्छे विकास के लिए बीज को पीएसबी कल्चर से भी उपचारित करना चाहिए। इससे जमीन में मौजूद तत्वों को व्यक्ति दिया पौधे की जड़ों तक पहुंचाने में सुगमता लाता है। उक्त कल्चरों से बीज को उपचारित करने के लिए एक बर्तन में पानी लेकर 100 ग्राम गुड़ या शक्कर घोलकर उसमें इन कल्चर को मिलाया जाता है और उनका लेप बीज पर कर दिया जाता है।

बुवाई का समय

अच्छे उत्पादन के लिए बुवाई के समय का प्रमुख स्थान होता है। खरीफ सीजन में 25 जून से 15 जुलाई के मध्य का समय इसकी खेती के लिए उपयुक्त माना गया है। कम समय में पकने वाली किस्मों का चयन करें ताकि मौसमी दुष्प्रभाव से नुकसान को बचाया जा सके। मध्य भारत के कुछ क्षेत्रों व दक्षिण भारत में सोयाबीन बसंत यानी कि जायद ऋतु में बोई जाती है । उसकी बुबाई का उपयुक्त समय 15 फरवरी से 15 मार्च के बीच रहता है। इसकी बिजाई में पंक्ति से पंक्ति की दूरी  45 सेंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 3 से 5 सेंटीमीटर रखनी चाहिए। इसके अलावा 20 30 से 4 सेंटीमीटर से ज्यादा गहरा नहीं डालना चाहिए।

उर्वरक प्रबंधन

अच्छे उत्पादन के लिए 10 टन सड़ी हुई गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर डालनी चाहिए।इसके अलावा नाइट्रोजन 25 किलोग्राम, फास्फोरस 80, किलोग्राम एवं पोटाश 50 किलोग्राम की दर से डालाना चाहिए। इसके अतिरिक्त 25 किलोग्राम सल्फर का प्रयोग करने से कई तरह की बीमारियां नहीं आती हैं। फास्फोरस की पूर्ति के लिए यदि डीएपी डाला जा रहा है तो सल्फर अलग से नहीं देनी चाहिए।

जल प्रबंधन

चुकी सोयाबीन की खेती बरसात के सीजन में की जाती है इसलिए पानी की ज्यादा जरूरत नहीं होती लेकिन यदि बरसात कम हो तो क्रांतिक अवस्थाओं, शाखाओं के विकास के समय फूल बनते समय एवं फलियां बनते समय और दाने के विकसित होते समय पानी लगाना चाहिए। वसंत ऋतु में 12 से 15 दिन के अंतराल पर 45 से चाहिए करनी होती हैं।

खरपतवार नियंत्रण

सोयाबीन की खरीफ ऋतु की फसल में खरपतवारओं का अधिक प्रयोग होता है जैसे उपज पर 40 से 50% तक नकारात्मक प्रभाव दिखता है। इसके नियंत्रण के लिए बुवाई के 20 से 25 दिन बाद हैंड हो द्वारा कतारों को मध्य में होगे खरपतवार को नष्ट कर देना चाहिए। इसके बाद 30 से 40 दिन बाद निराई गुड़ाई करके और है साथ में किया जाना चाहिए। रसायनिक नियंत्रण के लिए भी बाजार में कई तरह की दवाई मौजूद हैं।

बीमारी नियंत्रण, रोग

  1. भूरा धब्बा रोग फसल में फूल के समय पर आता है। इस रोग के धब्बे टेढ़े मेढ़े, लाल भूरे व किनारों से हल्के हरे होते हैं। अधिक प्रकोप होने पर पत्तियां गिर जाती हैं। इससे बचाव के लिए स्वस्थ बीज का प्रयोग करें। मध्यम रोग प्रतिरोधी पालम सोया, हरित सोया, ली और ब्रैग जैसी किस्में लगाएं।
  2. बैक्टीरियल पश्चुयुल रोग के कारण पत्तियों के दोनों सदनों पर पीले उभरे हुए धब्बे प्रकट होते हैं जो बाद में लाल बुरे हो जाते हैं। छोटे-छोटे ऐसे ही धब्बे फलियों पर भी प्रकट होते हैं। इससे बचाव के लिए पंजाब नंबर 1 किस ना लगाएं रोग प्रतिरोधक किस्में ही लगाएं।
  3. पीला म्यूजिक विषाणु जनित रोग है। यह रोग सफेद मक्खी के माध्यम से फैलता है। इसके कारण पत्तों पर झुर्रियां पड़ जाती हैं और पत्ते और पौधे छोटे रह जाते हैं फलियां कम लगती हैं । मौसम में नमी अधिक होने पर तथा तापमान 22 से 25 डिग्री सेंटीग्रेड के बीच होने पर रोग तेजी से फैलता है। बचाव के लिए विषाणु रहित बीज का प्रयोग करें और एक ही पौधे को तुरंत खेत से निकाल दें। गर्म क्षेत्र में ब्रैग किस्म न लगाएं। निचले क्षेत्रों में शिवालिक किस्म लगाने से बचें।

कीट नियंत्रण

  1. कूबड़ कीट की सुन्डियां पत्तों को क्षति पहुंचाती हैं। इससे पौधे की बढ़वार नहीं हो पाती है। बचाव के लिए फसल पर 50 मिलीलीटर मेलाथियान या 25 मिलीलीटर डाईक्लोरोवास 50 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें। सुंडी को इकट्ठा करके नष्ट कर देना चाहिए। यह दवाएं अगर प्रतिबंधित की गई हैं तो इनके विकल्प के रूप में जो दवाएं बाजार में मौजूद हैं वह डालें।
  2. बीन बाग कीट युवा और प्रौढ़ अवस्था में पत्तों का रस चूसते हैं। इससे पत्तों की ऊपर की सतह पर छोटे-छोटे सफेद या पीले धब्बे पड़ जाते हैं। बाद में यह पत्ते सूख कर गिर जाते हैं। बचाव के लिए 50 मिलीलीटर मोनोक्रोटोफॉस या 50 मिलीलीटर साइपरमैथरीन 50 लीटर पानी में घोलकर प्रति बीघा छिड़काव करना चाहिए।
  3. लपेटक बीटल भृंग फसल को शुरुआती दौर में 15 से 20 दिन तक तना, शाखा और पत्तियों को बहुत नुकसान पहुंचाता है। इसके बाद यह कीट तने में सुरंग बना देता है। इससे पौधे के ऊपर हिस्से मुरझा जाते हैं। बचाव के लिए फसल को खरपतवारओं से मुक्त रखें प्रकोप शुरू होने पर 50 मिलीलीटर मोनोक्रोटोफॉस 50 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।

सोयाबीन में रासायनिक खरपतवार नियंत्रण

  1. घास समुदाय वाले खरपतवार के नियंत्रण के लिए पेंडीमिथालिन स्टांप की ढाई लीटर मात्रा डुबाई के दो दिन बाद पर्याप्त पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें।
  2. घास कुल वाले खरपतवार एवं चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार को नियंत्रित करने के लिए फ्लूक्लोरालीन बाशालिन की 2 लीटर मात्रा बोने से पूर्व छिड़काव करें तथा अच्छी तरह से मिट्टी में मिला दें।
  3. केवल चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार ओं को मारने के लिए मेटसल्फ्यूरान 4 से 6 ग्राम प्रति हेक्टेयर मोबाइल के 20 से 25 दिन बाद छिड़काव करें।
Soyabean Tips: लेट मानसून में भी पैदा करना है बंपर सोयाबीन, तो करें मात्र ये काम

Soyabean Tips: लेट मानसून में भी पैदा करना है बंपर सोयाबीन, तो करें मात्र ये काम

देश में इस साल मानसून की असामान्य गतिविधि देखी जा रही है। कहीं पानी तो कहीं गर्मी सूखे के कारण, कृषक तय नहीं कर पा रहे हैं कि वो फसल कब और कौन सी बोएं। आम तौैर पर मानसून आधारित औसतन कम पानी की जरूरत वाली खरीफ की फसलों में शामिल, सोयाबीन की किस्मों पर किसान यकीन करते हैं।

असामान्य स्थिति

बारिश जनित असमान्य स्थितियों के कारण इस साल सोयाबीन खेती आधारित पैदावार क्षेत्रों में मानसूनी वर्षा के आगमन एवं फैलाव में स्थितियां पिछले सालों की तुलना में अलग हैं। कुछ जगहों के कृषक मित्र सोयाबीन की खेती शुरू कर चुके हैं, जबकि कुछ इलाकों के किसान सोयाबीन की बुआई के लिए अभी भी पर्याप्त वर्षा जल का इंतजार कर रहे हैं। मतलब इन इलाकों की सोयाबीन बुआई फिलहाल अभी रुकी हुई है।

ये भी पढ़ें: सोयाबीन, कपास, अरहर और मूंग की बुवाई में भारी गिरावट के आसार, प्रभावित होगा उत्पादन मानसून में हो रही देरी के कारण कृषि वैज्ञानिकों ने सोयाबीन के बीजों के चयन, उनको बोने एवं आवश्यक ध्यान रखने के बारे में कुछ सलाह जारी की हैं।

बुआई के लिए

मानसून की देरी से परेशान ऐसे किसान जिन्होंने अभी तक सोयाबीन की बुवाई नहीं की है, या फिर अभी 3 से 4 दिन पहले ही सोयाबीन बोया है तो उनके लिए यह सलाह काफी अहम है। आम तौर पर वैज्ञानिकों के अनुसार जुलाई महीने के पहले सप्ताह तक का समय सोयाबीन बोवनी के लिए उपयुक्त होता है। इसमें देरी होने पर कृषक ख्याल रखें कि बोवनी क्षेत्र में पर्याप्त वर्षा (100 मि.मी.) होने पर ही सोयाबीन कि बुवाई का वे जोखिम उठाएं।

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सोयाबीन की किस्म

इस बारे में कृषकों को सलाह दी गई है कि, वे एक ही किस्म की सोयाबीन बोवनी की बजाए खेत में विभिन्न समयावधि में पकने वाली किस्मों की बोवनी करें। इसमें 2 से 3 अनुशंसित किस्मों की सोयाबीन खेती को प्राथमिकता दी जा सकती है।

बीज दर का गणित

बीज ऐसा चुनें जिसकी गुणवत्ता न्यूनतम 70% अंकुरण की हो। इस आधार पर ही बोए जाने वाले बीज दर का भी प्रयोग करें। अंकुरण परीक्षण से सोयाबीन बोवनी हेतु उपलब्ध बीज का अंकुरण न्यूनतम 70 फीसदी सुनिश्चित करने से भी कृषक अपने बीज का परीक्षण कर सकते हैं।

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पद्धति का चुनाव

सोयाबीन के लिए विपरीत माने जाने वाली सूखे कि स्थिति, अतिवृष्टि आदि से संभाव्य नुकसान कम करने सोयाबीन की बोवनी बी.बी.एफ. पद्धति या रिज एवं फरो विधि (Ridge and furrow) से करने की सलाह कृषि वैज्ञानिकों ने दी है।

सोयाबीन बीज उपचार

बोवनी के समय बीज को अनुशंसित तरीके से उपचारित कर थोड़ी देर छाया में सुखाएं | फिर इसके बाद अनुशंसित कीटनाशक से भी उपचारित करें | कृषक रासायनिक फफूंद नाशक के स्थान पर बीजों में जैविक फफूंद नाशक ट्रायकोडर्मा का भी उपयोग कर सकते है। इसे जैविक कल्चर के साथ मिलकर प्रयोग किया जा सकता है।

खाद का संतुलन

किसान सोयाबीन की फसल के लिए आवश्यक पोषक तत्वों नाईट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश व सल्फर की पूर्ति केवल बोवनी के वक्त करें।

बोवनी वक्त दूरी

सोयाबीन की बोनी के लिए 45 से.मी. कतारों की दूरी अनुपालन की अनुशंसा की जाती है। बीज को 2 से 3 से.मी. की गहराई पर बोते हुए पौधे से पौधे की दूरी 5 से 10 सेमी रखने की सलाह कृषि वैज्ञानिक देते हैं। कृषि वैज्ञानिकों की सलाह है कि, सोयाबीन बीज दर 65 से 70 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग करने से बेहतर पैदावार होगी।
ICAR ने बताए सोयाबीन कीट एवं रोग नियंत्रण के उपाय

ICAR ने बताए सोयाबीन कीट एवं रोग नियंत्रण के उपाय

मानसून की लेटलतीफी के कारण भारत के राज्यों में सोयाबीन की खेती की तैयारी में भी इस साल देरी हुई। अवर्षा और अतिवर्षा की मार के बाद किसी तरह खेत में बोई गई सोयाबीन की फसल पर अब कीट पतिंगों का खतरा मंडरा रहा है। इस खतरे के समाधान के लिए भारत के कृषि विज्ञानियों ने अनुभव एवं शोध के आधार पर उपयोगी तरीके सुझाए हैं।

सोयाबीन कृषकों के लिए ICAR की उपयोगी सलाह

भाकृ.अनु.प. के भारतीय सोयाबीन अनुसन्धान सस्थान (ICAR-Indian Institute of Soybean Research) इन्दौर, ने सोयाबीन फसल की रक्षा के लिए उपयोगी एडवायजरी (Advisory) जारी की है। आपको बता दें, इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च (Indian Council of Agricultural Research/ICAR) यानी भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (भाकृअनुप) कृषि कल्याण हित में काम करने वाली संस्था है। भाकृअनुप (ICAR) भारत सरकार के कृषि मंत्रालय में कृषि अनुसंधान एवं शिक्षा विभाग के अधीन एक स्वायत्तशासी संस्था के तौर पर कृषि जगत के कल्याण संबंधी सेवाएं प्रदान करती है।

सोयाबीन पर मौजूदा खतरा

सोयाबीन की खेती आधारित भारत के प्रमुख राज्यों मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र एवं राजस्थान पर विविध रोगों का प्रभाव देखा जा रहा है। इन राज्यों के कई जिलों में सोयाबीन की फसल पर तना मक्खी, चक्र भृंग एवं पत्ती खाने वाली इल्ली तथा रायजोक्टोजनिया एरिअल ब्लाइट, पीला मोजेक वायरस रोग के संक्रमण की स्थिति देखी जा रही है। भाकृअनुप (ICAR) की इस संबंध में कृषकों को सलाह है कि, वे अपनी फसल की सतत निगरानी करें एवं किसी भी कीट या रोग के प्रारंभिक लक्षण दिखते ही, नियंत्रण के उपाय अपनाएं।

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तम्बाखू की इल्ली

सोयाबीन की फसल में तम्बाखू की इल्ली एवं चने की इल्ली के प्रबंधन के लिए बाजार में उपलब्ध कीट-विशेष फिरोमोन ट्रैप्स का उपयोग करने की आईसीएआर (ICAR) ने सलाह दी है। इन फेरोमोन ट्रैप में 5-10 पतंगे दिखने का संकेत यह दर्शाता है कि इन कीड़ों का प्रादुर्भाव आप की फसल पर हो गया है। इसका संकेत यह भी है कि, यह प्रादुर्भाव अभी प्रारंभिक अवस्था में है। अतः शीघ्र अतिशीघ्र इनके नियंत्रण के लिए उपाय अपनाने चाहिए। खेत के विभिन्न स्थानों पर निगरानी करते हुए यदि आपको कोई ऐसा पौधा मिले जिस पर झुंड में अंडे या इल्लियां हों, तो ऐसे पौधों को खेत से उखाड़कर अलग कर दें।

तना मक्खी

तना मक्खी के नियंत्रण के लिए पूर्व मिश्रित कीटनाशक थायोमिथोक्सम (Thiamethoxam) 12.60%+लैम्ब्डा साह्यलोथ्रिन (Lambda-cyhalothrin) 09.50% जेडसी (ZC) (125 ml/ha) का छिड़काव करने की सलाह भाकृअनुप (ICAR) के वैज्ञानिकों ने दी है। चक्र भृंग-(गर्डल बीटल) के नियंत्रण हेतु प्रारंभिक अवस्था में ही टेट्रानिलिप्रोल 18.18 एस.सी. (250- 300 मिली/हे) या थायक्लोप्रिड 21.7 एस.सी. (750मिली/हे) या प्रोफेनोफॉस 50 ई.सी.(1 ली/हे.) या इमामेक्टीन बेन्जोएट (425 मिली/हे.) का छिड़काव करने की कृषकों को सलाह दी गई है। इसके अलावा रोग के फैलाव की रोकथाम हेतु प्रारंभिक अवस्था में ही पौधे के ग्रसित भाग को तोड़कर नष्ट करने की भी सलाह दी गई है।

इल्लियों का नियंत्रण

चक्र भृंग तथा पत्ती खाने वाली इल्लियों के एक साथ नियंत्रण हेतु पूर्वमिश्रित कीटनाशक क्लोरएन्ट्रानिलिप्रोल 09.30 % + लैम्ब्डा साह्यलोथ्रिन 04.60 % ZC (200 मिली/हे) या बीटासायफ्लुथ्रिन + इमिडाक्लोप्रिड (350 जमली/है) या पूर्वमिश्रित थायमिथोक्सम़ + लैम्बडा साह्यलोथ्रिन (125 मिली/है) का जिड़काव करने की सलाह दी गई है। इनके छिड़काव से तना मक्खी का भी नियत्रंण किया जा सकता है। पत्ती खाने वाली इल्लियां (सेमीलूपर, तम्बाकू की इल्ली एवं चने की इल्ली) होने पर इनके नियंत्रण के लिए किनालफॉस 25 ई.सी. (1 ली/हे), या ब्रोफ्लानिलिड़े 300 एस.सी. (42-62 ग्राम/है) आदि में से किसी एक का प्रयोग करने की सलाह कृषकों को दी गई है।

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पौधों को उखाड़ दें

पीला मोजेक रोग के नियंत्रण हेतु सलाह है कि तत्काल रोगग्रस्त पौधों को खेत से उखाड़कर अलग कर दें। इन रोगों को फैलाने वाले वाहक सफेद मक्खी की रोकथाम हेतु पूर्वमिश्रित कीटनाशक थायोमिथोक्सम + लैम्ब्डा साह्यलोथ्रिन (125 मिली/है) रसायन का छिड़काव करने की सलाह दी गई है। इसके छिड़काव से तना मक्खी का भी नियंत्रण किया जा सकता है। सफेद मक्खी के नियंत्रण हेतु कृषकगण, अपने खेत में विभिन्न स्थानों पर पीला स्टिकी ट्रैप लगाकर सोयाबीन की फसल की रक्षा कर सकते हैं। कुछ क्षेेत्रों में रायजोक्टोनिया एरिअल ब्लाइट का प्रकोप होने की सूचना प्राप्त होने की आईसीएआर (ICAR) ने जानकारी दी है। इसके उपचार के लिए वैज्ञानिकों ने हेक्साकोनाझोल %5ईसी (1 मिली/ली पानी) का छिड़काव करने का सुझाव दिया गया है।

जैविक सोयाबीन उत्पादन

जैविक सोयाबीन उत्पादन में रुची रखने वाले कृषक, पत्ती खाने वाली इल्लियों (सेमीलूपर, तम्बाखू की इल्ली) की छोटी अवस्था में रोकथाम हतु बेसिलस थुरिन्जिएन्सिस आदि का निर्धारित मात्रा में प्रयोग कर सकते हैं। प्रकाश प्रपंच का उपयोग करने की भी सलाह दी गई है।

कीट एवं रोग प्रबंधन के अन्य उपाय

सोयाबीन पर लगने वाले कीट एवं रोग के प्रबंधन के रासायनिक छिड़काव के अलावा अन्य प्रकृति आधारित उपाय भी हैं।

बर्ड पर्चेस

सोयाबीन की फसल में पक्षियों के बैठने के लिए ”T“ आकार के बर्ड पर्चेस लगाने की भी वैज्ञानिकों ने कृषि मित्रों को सलाह दी है। इससे कीट-भक्षी पक्षियों द्वारा भी इल्लियों की संख्या कम करने में प्राकृतिक तरीके से सहायता मिलती है।

सावधानियां

  • कीट एवं रोग नियंत्रण के लिए केवल उन्ही रसायनों का प्रयोग करें जो सोयाबीन की फसल में अनुशंसित हों।
  • कीटनाशक या फफूंद नाशक के छिड़काव के लिए सदैव पानी की अनुशंसित मात्रा का ही उपयोग करें।
  • किसी भी प्रकार का कृषि-आदान क्रय करते समय दुकानदार से हमेशा पक्का बिल लें जिस पर बैच नंबर एवं एक्सपायरी दिनांक आदि का स्पष्ट उल्लेख हो।



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सोयाबीन कीट एवं रोग नियंत्रण प्रबंधन पर आधारित यह लेख भारतीय कृषक अनुसंधान परिषद, भारतीय सोयाबीन अनुसन्धान संस्थान, इन्दौर द्वारा जारी कृषि आधारित सलाह पर आधारित है। लेख में वर्णित रसायन एवं उनकी मात्रा का उपयोग करने के पहले कृषि सलाहकारों, केवीके के वैज्ञानिकों, दवा विक्रेता से उचित परामर्श अवश्य प्राप्त करें। इस बारे में आईसीएआर (ICAR) की विस्तृत जानकारी के लिए लिंकhttps://www.icar.org.in/weather-based-crop-advisory पर क्लिक करें। यहां वेदर बेस्ड क्रॉप एडवाइज़री (Weather based Crop Advisory) विकल्प में आपको सोयाबीन की सलाह संबंधी पीडीएफ फाइल डाउनलोड करने मिल जाएगी।

सोयाबीन फसल की सुरक्षा के उपाय

सोयाबीन फसल की सुरक्षा के उपाय

दोस्तों आज हम बात करेंगे सोयाबीन की फसल की सुरक्षा के बारे में, सोयाबीन की फसल किसानों के लिए बहुत ही ज्यादा उपयोगी होती है। ऐसे में इस फसल की सुरक्षा करना बहुत ही जरूरी है। सोयाबीन की फसल में विभिन्न प्रकार के रोग लग जाते हैं जिनके कारण फसल खराब होने का भय रहता है। जैसे सोयाबीन की फसल में कभी-कभी विनाशकारी सफेद मक्खी कीट का रोग लग जाता है, जिससे फसल पूरी तरह से बर्बाद हो जाती है। सोयाबीन की फसल को इस भयंकर कीटों से बचाव करने के लिए हमें विभिन्न प्रकार के तरीके अपनाने चाहिए। सोयाबीन की फसल से जुड़ी सभी प्रकार की आवश्यक बातों को जानने के लिए हमारे इस पोस्ट के अंत तक जरूर बने रहे।

सोयाबीन के फसल की खेती वाले राज्य :

सोयाबीन की खेती, किसान खरीफ के मौसम में करते हैं। खरीफ का मौसम सोयाबीन की खेती करने के लिए सबसे उत्तम होता है। बहुत से क्षेत्र हैं जहां सोयाबीन की खेती की जाती है। जैसे भारत में सोयाबीन की खेती महाराष्ट्र, राजस्थान मध्य प्रदेश में भारी मात्रा में उत्पादन की जाती है। यदि हम बात करें इनकी पैदावार की तो मध्यप्रदेश लगभग 45% का उत्पादन करती है। वहीं दूसरी ओर महाराष्ट्र में यह लगभग 40% का भारी उत्पादन करती हैं। इसके अलावा और भी क्षेत्र हैं जहां सोयाबीन की खेती की जाती है। जैसे  बिहार आदि क्षेत्र सोयाबीन की खेती के लिए प्रमुख माने जाते हैं।


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सोयाबीन की खेती के लिए उपयुक्त भूमि का चुनाव:

किसानों के अनुसार सोयाबीन की फसल किसी भी भूमि पर आप आसानी से कर सकते हैं। परंतु  हल्की और रेतीली भूमि में सोयाबीन की खेती करना उपयुक्त नहीं होता है। सोयाबीन की फसल दोमट चिकनी मिट्टी में सबसे उत्तम होती है इन भूमि पर सोयाबीन की अधिक पैदावार होती है।

सोयाबीन की फसल में लगने वाले रोग:

सोयाबीन की फसल में सफेद मक्खी कीट तेजी से लग जाते हैं, यदि इनकी रोकथाम सही समय पर ना की जाए तो यह फसल को पूरी तरह से खराब कर देते हैं। बारिश के दिनों में सोयाबीन में पीला मोजेक रोग तथा सेमिलूपर कीट रोग का प्रभाव बन जाता है। यह रोग बारिश के मौसम में नमी के कारण पनपते हैं, ऐसे में यदि जल निकास की व्यवस्था को ठीक ढंग से न बनाया जाए, तो यह रोग पूरी फसल को तहस-नहस कर देते हैं।

सोयाबीन की फसल में सफेद मक्खी रोग के प्रभाव:

वैसे तो आकार में यह मक्खियां बहुत ही छोटी होती है। पर इनके आकार को देखकर आप इनकी शक्ति का अंदाजा नहीं लगा सकते हैं कि यह किस प्रकार से पूरी फसल को बर्बाद करती है। यह लगभग 8 मिमी की होती है, परंतु इनके कुप्रभाव से पूरी फसल बर्बाद हो जाती है, जिससे किसानों को बहुत हानि पहुंचती है। इन मक्खियों के शरीर तथा परो पर मोमी स्राव मौजूद होता है। यह सफेद मक्खियां खेतों के निचली सतह पर स्थित होती हैं और जब कभी आप खेतों को हिलाते डुलाते हैं तो यह उड़कर मंडराना शुरु कर देती हैं। ज्यादातर यह सफेद मक्खियां सूखी व गर्म स्थानों पर पनपती है।


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यह मक्खियां खेतों की निचली सतह पर रहकर अंडे भी उत्पादन करती है। यह सफेद नवजात शिशुओं को पैदा करती है जो दिखने में सफेद तथा अंडकार और हरे पीले होते हैं। इन सफेद मक्खियों की उत्पादकता को कम करने के लिए खेतों से घासफूस हटाना बहुत ही ज्यादा आवश्यक होता है, जिससे इन मक्खियों की आबादी को नियंत्रित किया जा सकता हैं। सोयाबीन की फसल में कुछ इस प्रकार से सफेद मक्खी रोग के कुप्रभाव पढ़ते हैं।

सोयाबीन की फसल को सफेद मक्खियों तथा कीट से बचाने के उपाय :

  • किसान सफेद मक्खियों के इस प्रकोप को नियंत्रण रखने के लिए सोयाबीन की रोगरोधी किस्म का इस्तेमाल करता है जो सफेद मक्खियों को अपनी ओर बढ़ने से रोकती है।
  • या सफेद मक्खियां नमी के कारण और ज्यादा पनपती हैं ऐसे में बारिश के दिनों में खेतों में जल निकास की व्यवस्था को सही ढंग से बनाए रखना चाहिए।
  • सोयाबीन की बुवाई सही समय पर करनी चाहिए। किसानों के अनुसार इसकी बुवाई ना बहुत देर में ना ही जल्दी, दोनों ही प्रकार से नहीं करनी चाहिए, उचित समय पर सोयाबीन की बुवाई करें।
  • उर्वरीकरण तथा पौधों में संतुलिता को बनाए रखने की कोशिश करें।
  • फसल की कटाई के बाद सभी प्रकार के पौधों के अवशेषों को जड़ से हटा दें। खरपतवार का खास ध्यान रखें।
  • फसल को सुरक्षित रखने के लिए कृषि विशेषज्ञों के अनुसार रासायनिक दवाओं का भी इस्तेमाल खेतों में करें।


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दोस्तों हम उम्मीद करते हैं कि आपको हमारा यह आर्टिकल सोयाबीन फसल की सुरक्षा के उपाय पसंद आया होगा। हमारे इस आर्टिकल में सोयाबीन की खेती से जुड़ी सभी प्रकार की आवश्यक जानकारियां मौजूद है जिससे आप लाभ उठा सकते हैं। यदि आप हमारी दी हुई जानकारियों से संतुष्ट हैं तो आप हमारे इस आर्टिकल को ज़्यादा से ज़्यादा अपने दोस्तों और सोशल मीडिया पर शेयर करें। धन्यवाद ।
किसानों में मचा हड़कंप, केवड़ा रोग के प्रकोप से सोयाबीन की फसल चौपट

किसानों में मचा हड़कंप, केवड़ा रोग के प्रकोप से सोयाबीन की फसल चौपट

जैसा कि आप सभी को पता होगा कि महाराष्ट्र सोयाबीन (soyabean) का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है। विटामिन और प्रोटीन से भरपूर सोयाबीन स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से‌ गजब का फायदेमंद है। विश्वस्त सूत्रों द्वारा ज्ञात हुआ है कि वर्तमान समय में सोयाबीन को किसी की नजर लग गयी है। दरअसल, सोयाबीन की फसल पर केवड़े रोग (Bacterial blight of soybean) का भयानक प्रकोप हुआ है। अचानक ऐसी गंभीर, भयावह व दुर्लभ स्थितियों से सामना ‌करना किसानों को भारी‌ पड़ रहा है। संकट की‌ इस घड़ी में बौखलाए हुए किसानों ने जिला प्रशासन से मदद की गुहार लगायी है। आखिरकार, परिस्थितियों के मारे इन किसानों के पास अन्य कोई चारा भी तो नहीं है। ‌‌‌‌‌‌‌‌वैसे, खरीफ की फसल की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है। बारिश की अनियमितता की वजह से किसानों का तो मानो सारा का सारा कारोबार ही ठप पड़ गया है। इन दिनों‌ किसान बेहद घाटे में चल रहे हैं। लगातार दिन रात अनवरत बारिश की वजह से खेती और खेतिहर दोनों ही बुरी तरह से आहत हुए हैं। दरअसल, किसान सोयाबीन की फसलों से काफी उम्मीदें लगाए बैठे थे। किंतु यहाँ तो पासा ही पलट गया है। केवड़ा (केवडा रोग) रोग के कीटों ने तो सोयाबीन की फसलों को पूर्ण रूप से ही बर्बाद कर के रख दिया है। किसानों के अनेकों बार जिला प्रशासन से गुहार लगाने के बावजूद अभी‌ तक कोई हल नहीं निकल पाया है। किंतु उम्मीद पर दुनिया कायम है। यथा शीघ्र कृषि क्षेत्र से संबंधित इन कठिन समस्याओं पर नियंत्रण अवश्य किया जाएगा। किसानों को निराश एवं हताश होने की आवश्यकता नहीं है। दरअसल कभी कभी‌ प्रकृति भी‌ बेरहम हो जाती है। अगर देखा जाए तो मौसम का भी‌ फसलों‌ पर जबरदस्त असर पड़ता है। सोयाबीन के फसलों से‌ किसान बहुत अच्छी कमाई कर लेते हैं। ‌‌‌‌‌लेकिन, वर्तमान परिस्थितियों के अवलोकन से ऐसा लगता है मानो इन किसानों के सारे किए कराये पर पानी फिर गया हो‌। कीटों से बचाव के लिए कृषि विभाग वालों ने आवश्यक निर्देश दिए हुए हैं।

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किसानों ने पौधों में दवाइयों के छिड़काव में कोई कसर नहीं छोड़ी है। किसान सचेत हैं। कहीं ना कहीं उन्हें भय है कि कहीं फसल फिर से दूसरी बार भी ना खराब हो जाए। किसानों ने केवड़ा रोग‌ के प्रकोप से निजात पाने के लिए कृषि विभाग से तथाकथित नुकसान के एवज में मुआवजे की मांग की है। जहाँ एक ओर केवड़ा रोग के प्रकोप से सोयाबीन की फसल बुरी तरह से ग्रस्त ‌है, वहीं दूसरी‌ ओर खरीफ की फसलों की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है। जलवायु परिवर्तन के कारणों से अचानक इन फसलों पर कीट- फतिंगों की बाढ़ सी आ गयी है। कुल मिलाकर स्थिति बेहद चिंताजनक है। सोयाबीन के लहलहाते फूलों को देखकर किसानों के मन में उम्मीद‌ की एक छोटी सी‌ किरण जगी थी। किंतु, घनघोर बारिश और उस पर से पसीना छुड़ा देने वाली गर्मी की वजह से सब कुछ अनायास ही बर्बादी के कगार पर चला गया है। किसानों की स्थिति बेहद ही दयनीय हो चुकी‌ है।

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आपके जेहन में अब यह सवाल अवश्य उठ रहा होगा कि इतना सब कुछ बिगड़ जाने के बावजूद भी जिला प्रशासन आखिर खामोश क्यों है ??? पर, ऐसा कुछ भी‌ नहीं है। कृषि विभाग वालों ने किसानों को आश्वासन दे दिया है। सही समय में, सही स्थान पर, कृषि विभाग द्वारा अनुमोदित दवाइयों को ही छिड़काव करने का निर्देश जारी‌ किया गया है। कृषि विभाग द्वारा उपलब्ध कराए गये प्रमाणित खाद एवं बीजों को ही इस्तेमाल करने की सलाह दी गयी है।‌ संक्रमित फसलों को हटाकर कहीं अन्यत्र फेंकने का प्रावधान किया गया है। दरअसल, बारिश के मौसम में साफ सफाई के बिना गंदगी में किटाणुओं का तीव्र गति से पनपना तो लाजिमी है। कहा जाता है कि जुलाई और अगस्त में महाराष्ट्र के नांदेर जिले में इतनी अधिक बारिश हुई‌ की खेत खलिहानों‌ में पानी का बहाव पर्याप्त समय सीमा से ऊपर आ गया। जिसकी वजह से आम जन जीवन काफी हद तक प्रभावित हो गया है। किसानों पर तो मानो मुसीबतों का पहाड़ ही टूट पड़ा है। पर, आश्चर्य वाली बात यह है कि अधिकांश इलाकों में तो दूर दूर तक बारिश का नामो निशां तक नहीं है। परिणामस्वरूप फसलों का अधिकांश हिस्सा लगभग बर्बाद हो गया है।

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कुदरत का भी अजीब करिश्मा है। कहीं तो पानी की‌ बहुतायत है। तो कहीं बिना पानी फसल सूख सूख कर झड़ रही हैं। जो भी हो किसानों को ऐसे संकट की घड़ी में अपने आत्मबल को कायम रखना चाहिए। सरकार कदम कदम पर आपके साथ है। यदि एकजुट होकर आप समस्याओं से निपटेंगे, तो सफलता निश्चित है। आने वाली सुबह आपके लिए ढेर सारी खुशियाँ लेकर आएगी। कर्म करते रहिए। आपका परिश्रम कभी व्यर्थ नहीं जाएगा।
सोयाबीन की तीन नई किस्मों को मध्य प्रदेश शासन ने दी मंजूरी

सोयाबीन की तीन नई किस्मों को मध्य प्रदेश शासन ने दी मंजूरी

भारत में सोयाबीन (soyabean) का सबसे ज्यादा उत्पादन मध्य प्रदेश में होता है इसलिए इस राज्य को सोया राज्य कहा जाता है, चूंकि मध्य प्रदेश के किसान हर साल बड़ी मात्रा में सोयाबीन की खेती करते हैं। इसलिए केंद्र सरकार और मध्य प्रदेश शासन मिलकर इसके रिसर्च और अनुसंधान पर भी पूरा ध्यान देते हैं, ताकि समय-समय पर किसानों को नए बीज उपलब्ध करवाए जा सकें, जिससे उत्पादन में बढ़ोत्तरी हो तथा किसानों को भी फायदा हो। भारत में खाद्य तेलों की बढ़ती हुई मांग को देखते हुए, ICAR - भारतीय सोयाबीन अनुसंधान संस्थान (IISR), इंदौर पिछले कई सालों से सोयाबीन की नई किस्मों को विकसित करने के लिए अनुसंधान कर रहा है। इस संस्थान के कृषि वैज्ञानिकों के सतत प्रयासों के बाद भारतीय सोयाबीन अनुसंधान संस्थान (IISR), इंदौर ने सोयाबीन की 3 नई किस्मों को विकसित करने में सफलता पाई है। इन किस्मों को कृषि वैज्ञानिकों द्वारा एनआरसी 157, एनआरसी 131 और एनआरसी 136 नाम दिया गया है।

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कृषि वैज्ञानिकों के काम से खुश होकर मध्य प्रदेश शासन ने इन तीनों किस्मों को तुरंत ही मंजूरी दे दी है, ताकि ये किस्में जल्द से जल्द बाजार में किसानों के लिए उपलब्ध हो सकें, जिससे किसान ज्यादा से ज्यादा नई किस्मों के द्वारा लाभान्वित हो सकें। संस्थान के हेड साइंटिस्ट और ब्रीडर डॉ संजय गुप्ता ने सोयाबीन की नई किस्मों के बारे में जानकारी देते हुए बताया कि एनआरसी 157 एक मध्यम अवधि की फसल है, जो बुवाई करने के बाद मात्र 94 दिनों में तैयार हो जाती है। इस किस्म की उपज भी शानदार है। यह किस्म प्रति हेक्टेयर 16.5 क्विंटल फसल का उत्पादन दे सकती है। एनआरसी 157 नाम की यह किस्म अल्टरनेरिया लीफ स्पॉट, बैक्टीरियल पस्ट्यूल और टारगेट लीफ स्पॉट जैसी बीमारियों से मध्यम प्रतिरोधी क्षमता रखती है। इसकी खेती करने वाले किसानों को ज्यादा हानि होने की संभावना नहीं है। इसके साथ ही यदि इस किस्म की बुवाई 20 जुलाई तक भी की जाती है, तो भी यह इस किस्म के लिए उपयुक्त मानी जाएगी।

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दूसरी किस्म एनआरसी 131 भी एक मध्यम अवधि की फसल है, जो बुवाई करने के बाद 93 दिनों में तैयार हो जाती है। यह औसत रूप से एक हेक्टेयर में 15 क्विंटल फसल का उत्पादन दे सकती है। यह किस्म भी चारकोल रॉट और टार्गेट लीफ स्पॉट जैसी बीमारियों के लिए मध्यम रूप से प्रतिरोधी है।

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इन दो किस्मों के साथ तीसरी किस्म एनआरसी 136 है। जिसे मध्य प्रदेश शासन ने अभी मंजूरी दी है। हालाँकि यह किस्म देश में पहले से ही उपयोग की जा रही है। इसका उपयोग ज्यादातर पूर्वोत्तर भारत के राज्यों में किया जाता है। इसके बारे में जानकारी देते हुए संस्थान के एक प्रधान कृषि वैज्ञानिक ने बताया कि, यह किस्म बुवाई के बाद 105 दिन की अवधि में तैयार होती है। साथ ही, यह सोयाबीन की ऐसी पहली किस्म है, जिसके ऊपर सूखे का कोई ख़ास प्रभाव देखने को नहीं मिलता, इस किस्म का उत्पादन एक हेक्टेयर में 17 क्विंटल तक हो सकता है। यह किस्म मूंग बीन येलो मोज़ेक वायरस के लिए मध्यम रूप से प्रतिरोधी है।
सोयाबीन की खेती से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी

सोयाबीन की खेती से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि सोयाबीन की खेती ज्यादा हल्की, हल्की एवं रेतीली जमीन को छोड़कर हर तरह की जमीन पर सहजता से की जा सकती है। लेकिन, जल की निकासी वाली चिकनी दोमट मृदा वाली भूमि सोयाबीन के लिये ज्यादा अच्छी होती है। ऐसे खेत जिनमें पानी टिकता हो, उनमें सोयाबीन न बोऐं। ग्रीष्मकालीन जुताई 3 साल में कम से कम एक बार जरुर करनी चाहिये। बारिश शुरू होने पर 2 या 3 बार बखर और पाटा चलाकर भूमि को तैयार करलें। इससे नुकसान पहुंचाने वाले कीटों की समस्त अवस्थायें खत्म हो जाऐंगी। ढेला रहित एवं भुरभुरी मृदा वाली भूमि सोयाबीन के लिये उपयुक्त होती है। खेत के अंदर जलभराव से सोयाबीन की फसल पर दुष्प्रभाव पड़ता है। इसलिए ज्यादा उपज के लिये खेत में जल निकास की समुचित व्यवस्था करना जरूरी होता है। जहां तक संभव हो अंतिम बखरनी और पाटा वक्त से करें, जिससे अंकुरित खरपतवार का खात्मा हो सकें। साथ ही, मेंढ़ और कूड़ (रिज एवं फरों) तैयार कर सोयाबीन की बिजाई करें। अगर हम सोयाबीन की खेती के सन्दर्भ में बीज दर की बात करें, तो छोटे दाने वाली किस्में - 28 किलोग्राम प्रति एकड़, मध्यम दाने वाली किस्में - 32 किलोग्राम प्रति एकड़, बड़े दाने वाली किस्में - 40 किलोग्राम प्रति एकड़ 

सोयाबीन की खेती में बीजोपचार

सोयाबीन के अंकुरण को बीज एवं मृदा जनित रोग काफी प्रभावित करते हैं। इनको नियंत्रित करने हेतु बीज को थायरम या केप्टान 2 ग्राम, कार्बेडाजिम या थायोफिनेट मिथाइल 1 ग्राम मिश्रण प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिये। या फिर ट्राइकोडरमा 4 ग्राम / कार्बेन्डाजिम 2 ग्राम प्रति किलों ग्राम बीज की दर से उपचारित करके बिजाई करें।

कल्चर का इस्तेमाल

आपकी जानकारी के लिए फफूंदनाशक ओषधियों से बीजोपचार के बाद बीज को 5 ग्राम रायजोबियम एवं 5 ग्राम पीएसबी कल्चर प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें। उपचारित बीज को छाया में रखना चाहिए और जल्दी बुवाई करनी चाहिये। याद रहे कि फफूंद नाशक ओषधि और कल्चर को एक साथ नहीं मिलाऐं। 

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सोयाबीन की बिजाई हेतु समुचित वक्त और तरीका

सोयाबीन की बिजाई हेतु जून के आखिरी सप्ताह से जुलाई के पहले सप्ताह तक की समयावधि सबसे उपयुक्त है। बिजाई के दौरान अच्छे अंकुरण के लिए जमीन में 10 सेमी गहराई तक समुचित नमी होनी चाहिये। जुलाई के पहले सप्ताह के बाद बोनी की बीज दर 5-10 प्रतिशत अधिक कर देनी चाहिए। कतारों से कतारों का फासला 30 से.मी. (बोनी किस्मों के लिये) और 45 से.मी. बड़ी किस्मों के लिये होता है। 20 कतारों के पश्चात एक कूंड़ जल निथार तथा नमी सरंक्षण हेतु रिक्त छोड़ देना चाहिए। बीज 2.50 से 3 से.मी. गहराई पर ही बोयें। सोयाबीन एक नकदी फसल है, जिसको किसान बाजार में बेचकर तुरंत धन अर्जित कर सकते हैं। 

सोयाबीन की फसल के साथ अंतरवर्तीय फसलें कौन-कौन सी हैं

सोयाबीन के साथ अंतरवर्तीय फसलों के तौर पर अरहर सोयाबीन (2:4), ज्वार सोयाबीन (2:2), मक्का सोयाबीन (2:2), तिल सोयाबीन (2:2) अंतरवर्तीय फसलें अच्छी मानी जाती हैं। 

समन्वित पोषण प्रबंधन कैसे करें

बतादें, कि बेहतर ढ़ंग से सड़ी हुई गोबर की खाद (कम्पोस्ट) 2 टन प्रति एकड़ आखिरी बखरनी के दौरान खेत में बेहतर ढ़ंग से मिला दें। साथ ही, बिजाई के दौरान 8 किलो नत्रजन 32 किलो स्फुर 8 किलो पोटाश एवं 8 किलो गंधक प्रति एकड़ के अनरूप दें। यह मात्रा मृदा परीक्षण के आधार पर कम-ज्यादा की जा सकती है। नाडेप, फास्फो कम्पोस्ट के इस्तेमाल को प्राथमिकता दें। रासायनिक उर्वरकों को कूड़ों में तकरीबन 5 से 6 से.मी. की गहराई पर डालना चाहिये। वहीं, गहरी काली मिट्टी में जिंक सल्फेट 25 किलोग्राम प्रति एकड़ एवं उथली मृदाओं में 10 किलोग्राम प्रति एकड़ के हिसाब से 5 से 6 फसलें लेने के उपरांत इस्तेमाल करना चाहिये। 

सोयाबीन की खेती में खरपतवार प्रबंधन कैसे करें

फसल के शुरूआती 30 से 40 दिनों तक खरपतवार को काबू करना बेहद जरूरी होता है। तो वहीं बतर आने पर डोरा अथवा कुल्फा चलाकर खरपतवार की रोकथाम करें एवं दूसरी निदाई अंकुरण होने के 30 और 45 दिन उपरांत करें। 15 से 20 दिन की खड़ी फसल में घांस कुल के खरपतवारों को समाप्त करने के लिये क्यूजेलेफोप इथाइल 400 मिली प्रति एकड़ और घास कुल और कुछ चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों के लिये इमेजेथाफायर 300 मिली प्रति एकड़ की दर से छिड़काव की अनुशंसा है। नींदानाशक के उपयोग में बिजाई के पहले फ्लुक्लोरेलीन 800 मिली प्रति एकड़ अंतिम बखरनी के पूर्व खेतों में छिड़कें और दवा को बेहतर ढ़ंग से बखर चलाकर मिला दें। बिजाई के पश्चात और अंकुरण के पहले एलाक्लोर 1.6 लीटर तरल या पेंडीमेथलीन 1.2 लीटर प्रति एकड़ या मेटोलाक्लोर 800 मिली प्रति एकड़ की दर से 250 लीटर जल में मिलाकर फ्लैटफेन अथवा फ्लैटजेट नोजल की मदद से सारे खेत में छिड़काव करें। तरल खरपतवार नाशियों की जगह पर 8 किलोग्राम प्रति एकड़ के हिसाब से ऐलाक्लोर दानेदार का समान भुरकाव किया जा सकता है। बिजाई के पूर्व एवं अंकुरण पूर्व वाले खरपतवार नाशियों हेतु मृदा में पर्याप्त नमी व भुरभुरापन होना काफी जरूरी है। 

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सोयाबीन की खेती में सिंचाई किस तरह करें

सोयाबीन खरीफ मौसम की फसल होने की वजह से आमतौर पर सोयाबीन को सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती है। फलियों में दाना भरण के दौरान मतलब कि सितंबर माह में अगर खेत में नमी पर्याप्त न हो तो आवश्यकतानुसार एक या दो हल्की सिंचाई करना सोयाबीन की बेहतरीन पैदावार लेने के लिए फायदेमंद है। 

सोयाबीन की फसल में लगने वाले कीट

सोयाबीन की फसल में बीज और छोटे पौधे को हानि पहुंचाने वाला नीलाभृंग (ब्लूबीटल) पत्ते खाने वाली इल्लियां, तने को दुष्प्रभावित करने वाली तने की मक्खी एवं चक्रभृंग (गर्डल बीटल) आदि का संक्रमण होता है। कीटों के आक्रमण से 5 से 50 प्रतिशत तक उपज में गिरावट आ जाती है। इन कीटों की रोकथाम करने के उपाय निम्नलिखित हैं: 

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कृषिगत स्तर पर कीटों की रोकथाम

खेती के स्तर पर यदि हम कीट नियंत्रण की बात करें तो खेत की ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई करना। मानसून की वर्षा के पूर्व बिजाई ना करना अति आवश्यक बातें हैं। साथ ही, मानसून आगमन के बाद बिजाई शीघ्रता से संपन्न करें। खेत नींदा रहित ही रखें। सोयाबीन की फसल के साथ ज्वार या मक्का की अंतरवर्तीय फसल करें। खेतों को फसल अवशेषों से पूर्णतय मुक्त रखें और मेढ़ों को बिल्कुल साफ रखें। 

रासायनिक स्तर पर कीटों की रोकथाम

सोयाबीन की बिजाई के दौरान थयोमिथोक्जाम 70 डब्ल्यू.एस. 3 ग्राम दवा प्रति किलो ग्राम बीज की दर से उपचारित करने से शुरूआती कीटों की रोकथाम होती है। वहीं, अंकुरण की शुरुआत होते ही नीले भृंग कीट की रोकथाम के लिये क्यूनालफॉस 1.5 प्रतिशत या मिथाइल पैराथियान (फालीडाल 2 प्रतिशत या धानुडाल 2 प्रतिशत) 10 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से भुरकाव करें। विभिन्न तरह की इल्लियां पत्ती, छोटी फलियों एवं फलों को खाके खत्म कर देती हैं। इन कीटों की रोकथाम करने के लिये घुलनशील दवाओं की निम्नलिखित मात्रा 300 से 325 लीटर जल में घोल कर छिड़काव करें। हरी इल्ली की एक प्रजाति जिसका सिर पतला एवं पिछला हिस्सा चौड़ा होता है। सोयाबीन के फूलों एवं फलियों को खाकर खत्म कर देती है, जिससे पौधे फली विहीन हो जाते हैं। फसल बांझ होने जैसी लगती है। सोयाबीन की फसल पर तना मक्खी, चक्रभृंग, माहो हरी इल्ली तकरीबन एक साथ ही आक्रमण करते हैं। अत: पहला छिड़काव 25 से 30 दिन पर और दूसरा छिड़काव 40-45 दिन का फसल पर जरूर करें। 

जैविक तौर पर कीट नियंत्रण

कीटों की शुरुआती अवस्था में जैविक कीट पर काबू करने के लिए बी.टी. एवं व्यूवेरीया बेसियाना आधारित जैविक कीटनाशक 400 ग्राम या 400 मि.ली. प्रति एकड़ की दर से बोवाई के 35-40 दिन तथा 50-55 दिनों के उपरांत छिड़काव करें। एन.पी.वी. का 250 एल.ई. समतुल्य का 200 लीटर जल में घोल बनाके प्रति एकड़ छिड़काव करें। रासायनिक कीटनाशक के स्थान पर जैविक कीटनाशकों को परिवर्तित कर डालना फायदेमंद होता है। गर्डल बीटल प्रभावित इलाकों में जे.एस. 335, जे.एस. 80-21, जे.एस. 90-41 लगाऐं। निंदाई के दौरान प्रभावित टहनियां तोड़कर बर्बाद कर दें। कटाई के उपरांत बंडलों को प्रत्यक्ष तौर पर गहाई स्थल पर ले जाएं। तने की मक्खी के प्रकोप के समय छिड़काव शीघ्र करें। 

सोयाबीन की फसल की कटाई और गहाई

ज्यादातर पत्तियों के सूख कर झड़ जाने की स्थिति में और 10 प्रतिशत फलियों के सूख कर भूरा होने पर फसल की कटाई हेतु तैयार हो जाती है। पंजाब 1 पकने के 4-5 दिन बाद, जे.एस. 335, जे.एस. 76-205 एवं जे.एस. 72-44, जेएस 75-46 आदि सूखने के तकरीबन 10 दिन उपरांत चटकना शुरू हो जाती है। कटाई के उपरांत गट्ठों को 2-3 दिन तक सुखाना जरूरी है। बतादें, कि फसल कटाई के उपरांत जब फसल पूर्णतय सूख जाए तो गहाई कर दोनों को अलग कर देना चाहिए। फसल गहाई बैलों, थ्रेसर, ट्रेक्टर तथा हाथ द्वारा लकड़ी से पीटकर करना चाहिए। जहां तक मुमकिन हो बीज के लिये गहाई लकड़ी से पीट कर करना चाहिये, जिससे अंकुरण को हानि न पहुँचे।

कृषक अपनी सूखी सोयाबीन की फसल देख हुए बेकाबू डीएम का कार्यालय घेरा

कृषक अपनी सूखी सोयाबीन की फसल देख हुए बेकाबू डीएम का कार्यालय घेरा

डीएम शिवराज सिंह वर्मा का कहना है कि खरगोन जिला ही नहीं संपूर्ण राज्य में अगस्त माह के अंतर्गत बारिश बिल्कुल नहीं हुई। काफी कम बारिश हुई है फसलें बर्बाद होने की जानकारी किसानों के जरिए से मिली है। हमने भी कृषि विभाग और राजस्व विभाग की टीम को सतर्क किया है और उनसे कहा है कि वस्तु स्थिति पर निगरानी रखें और खेतों पर जाकर देखें फसलों की क्या हालत है। मध्य प्रदेश के खरगोन में सोयाबीन की फसल सूखने से हताश किसानों ने डीएम कार्यालय का घेराव किया। सोयाबीन की सूखी फसल लेकर किसान डीएम के कार्यालय पहुंच गए। परंतु, वहां डीएम के दफ्तर का गेट बंद देख किसानों का गुस्सा और अधिक बढ़ गया। किसानों ने डीएम कार्यालय का गेट खोला और भीतर घुस गए। डीएम कार्यालय का घेराव कर वहीं धरना डाल दिया, जिसके उपरांत झिरन्या के किसानों ने सोयाबीन की सूखी फसल पशुओं को खिला दी। खरगोन जनपदभर में सोयाबीन एवं कपास की फसल सूखने से नाराज बड़ी तादात में किसान सोयाबीन की सूखी फसल लेकर डीएम कार्यालय पहुंचे। डीएम परिसर का गेट बंद करने पर किसान भाइयों का गुस्सा फूट पड़ा। गुस्साए किसान नारेबाजी करते हुए दरवाजा खोलकर डीएम कार्यालय के समक्ष पहुंच गए। बिजली अधिकारी और डीएम के खिलाफ नारेबाजी की गयी। बड़ी संख्या में किसान धरने पर बैठे। संपूर्ण जिले की भीकनगांव, भगवानपुरा, बड़वाह, महेश्वर, झिरन्या तहसीलों से किसान पहुंचे। 

क्रोधित कृषकों ने प्रशासन एवं डीएम के खिलाफ की नारेबाजी

किसानों ने डीएम कार्यालय के सामने सरकार, पुलिस, प्रशासन एवं डीएम के खिलाफ जमकर नारेबाजी की। किसानों ने डीएम कार्यालय के सामने कई घंटे तक धरना दिया। जिला प्रशासन से 2 दिन का आश्वासन मिलने के पश्चात किसानों ने शाम लगभग 5 बजे अपना धरना खत्म कर दिया। 

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बिजली कंपनी अपनी मनमानी कर रही है- किसान संघ

किसान संघ जिला अध्यक्ष सदाशिव पाटीदार का कहना है, कि विद्युत वितरण कंपनी द्वारा मनचाहे तरीके से 7 घंटे बिजली देने का शेड्यूल बनाया गया है। हम सूचना देने के लिए ज्ञापन के जरिए से यहां एकत्रित हुए थे। परंतु सवाल यह खड़ा है कि हमारे आने से पहले कलेक्टर कार्यालय का गेट बंद कर दिया गया। इससे कृषकों ने उग्र रूप धारण कर लिया एवं सभी किसान यहां पहुंच गए हैं। वर्तमान में डीएम साहब घर पर ही निवास कर रहे हैं और जानकारी मिली है कि वे निर्वाचन में काफी व्यस्त हैं। हमारा कहना है, कि जब वोट डालने वाले ही नहीं रहेंगे तो निर्वाचन किसके लिए होगा। विद्युत वितरण कंपनी द्वारा कहा गया है, कि ये शेड्यूल ऊपर से तैयार किया गया है।

मानसून सीजन में तेजी से बढ़ने वाली ये 5 अच्छी फसलें

मानसून सीजन में तेजी से बढ़ने वाली ये 5 अच्छी फसलें

मानसून का मौसम किसान भाइयों के लिए कुदरती वरदान के समान होता है। मानसून के मौसम होने वाली बरसात से उन स्थानों पर भी फसल उगाई जा सकती है, जहां पर सिंचाई के साधन नहीं हैं। पहाड़ी और पठारी इलाकों में सिंचाई के साधन नही होते हैं। इन स्थानों पर मानसून की कुछ ऐसी फसले उगाई जा सकतीं हैं जो कम पानी में होतीं हों। इस तरह की फसलों में दलहन की फसलें प्रमुख हैं। इसके अलावा कुछ फसलें ऐसी भी हैं जो अधिक पानी में भी उगाई जा सकतीं हैं। वो फसलें केवल मानसून में ही की जा सकतीं हैं। आइए जानते हैं कि कौन-कौन सी फसलें मानसून के दौरान ली जा सकतीं हैं।

मानसून सीजन में बढ़ने वाली 5 फसलें:

1.गन्ना की फसल

गन्ना कॉमर्शियल फसल है, इसे नकदी फसल भी कहा जाता है। गन्ने  की फसल के लिए 32 से 38 डिग्री सेल्सियस का तापमान होना चाहिये। ऐसा मौसम मानसून में ही होता है। गन्ने की फसल के लिए पानी की भी काफी आवश्यकता होती है। उसके लिए मानसून से होने वाली बरसात से पानी मिल जाता है। मानसून में तैयार होकर यह फसल सर्दियों की शुरुआत में कटने के लिए तैयार हो जाती है। फसल पकने के लिए लगभग 15 डिग्री सेल्सियश तापमान की आवश्यकता होती है। गन्ने की फसल केवल मानसून में ही ली जा सकती है। इसकी फसल तैयार होने के लिए उमस भरी गर्मी और बरसात का मौसम जरूरी होता है। गन्ने की फसल पश्चिमोत्तर भारत, समुद्री किनारे वाले राज्य, मध्य भारत और मध्य उत्तर और पूर्वोत्तर के क्षेत्रों में अधिक होती है। सबसे अधिक गन्ने का उत्पादन तमिलनाडु राज्य  में होता है। देश में 80 प्रतिशत चीनी का उत्पादन गन्ने से ही किया जाता  है। इसके अतिरिक्त अल्कोहल, गुड़, एथेनाल आदि भी व्यावसायिक स्तर पर बनाया जाता है।  चीनी की अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक मांग को देखते हुए किसानों के लिए यह फसल अत्यंत लाभकारी होती है। [embed]https://www.youtube.com/watch?v=XeAxwmy6F0I&t[/embed]

2. चावल यानी धान की फसल

भारत चावल की पैदावार का बहुत बड़ा उत्पादक देश है। देश की कृषि भूमि की एक तिहाई भूमि में चावल यानी धान की खेती की जाती है। चावल की पैदावार का आधा हिस्सा भारत में ही उपयोग किया जाता है। भारत के लगभग सभी राज्यों में चावल की खेती की जाती है। चावलों का विदेशों में निर्यात भी किया जाता है। चावल की खेती मानसून में ही की जाती है क्योंकि इसकी खेती के लिए 25 डिग्री सेल्सियश के आसपास तापमान की आवश्यकता होती है और कम से कम 100 सेमी वर्षा की आवश्यकता होती है। मानसून से पानी मिलने के कारण इसकी खेती में लागत भी कम आती है। भारत के अधिकांश राज्यों व तटवर्ती क्षेत्रों में चावल की खेती की जाती है। भारत में धान की खेती पारंपरिक तरीकों से की जाती है। इससे यहां पर चावल की पैदावार अच्छी होती है। पूरे भारत में तीन राज्यों  पंजाब,पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक चावल की खेती की जाती है। पर्वतीय इलाकों में होने वाले बासमती चावलों की क्वालिटी सबसे अच्छी मानी जाती है। इन चावलों का विदेशों को निर्यात किया जाता है। इनमें देहरादून का बासमती चावल विदेशों में प्रसिद्ध है। इसके अलावा पंजाब और हरियाणा में भी चावल केवल निर्यात के लिए उगाया जाता है क्योंकि यहां के लोग अधिकांश गेहूं को ही खाने मे इस्तेमाल करते हैं। चावल के निर्यात से पंजाब और हरियाणा के किसानों को काफी आय प्राप्त होती है। [embed]https://www.youtube.com/watch?v=QceRgfaLAOA&t[/embed]

3. कपास की फसल

कपास की खेती भी मानसून के सीजन में की जाती है। कपास को सूती धागों के लिए बहुमूल्य माना जाता है और इसके बीज को बिनौला कहते हैं। जिसके तेल का व्यावसायिक प्रयोग होता है। कपास मानसून पर आधारित कटिबंधीय और उष्ण कटिबंधीय फसल है। कपास के व्यापार को देखते हुए विश्व में इसे सफेद सोना के नाम से जानते हैं। कपास के उत्पादन में भारत विश्व का दूसरा बड़ा देश है। कपास की खेती के लिए 21 से 30 डिग्री सेल्सियश तापमान और 51 से 100 सेमी तक वर्षा की जरूरत होती है। मानसून के दौरान 75 प्रतिशत वर्षा हो जाये तो कपास की फसल मानसून के दौरान ही तैयार हो जाती है।  कपास की खेती से तीन तरह के रेशे वाली रुई प्राप्त होती है। उसी के आधार पर कपास की कीमत बाजार में लगायी जाती है। गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश,हरियाणा, राजस्थान, कर्नाटक,तमिलनाडु और उड़ीसा राज्यों में सबसे अधिक कपास की खेती होती है। एक अनुमान के अनुसार पिछले सीजन में गुजरात में सबसे अधिक कपास का उत्पादन हुआ था। अमेरिका भारतीय कपास का सबसे बड़ा आयातक है। कपास का व्यावसायिक इस्तेमाल होने के कारण इसकी खेती से बहुत अधिक आय होती है। [embed]https://www.youtube.com/watch?v=nuY7GkZJ4LY[/embed]

4.मक्का की फसल

मक्का की खेती पूरे विश्व में की जाती है। हमारे देश में मक्का को खरीफ की फसल के रूप में जाना जाता है लेकिन अब इसकी खेती साल में तीन बार की जाती है। वैसे मक्का की खेती की अगैती फसल की बुवाई मई माह में की जाती है। जबकि पारम्परिक सीजन वाली मक्के की बुवाई जुलाई माह में की जाती है। मक्का की खेती के लिए उष्ण जलवायु सबसे उपयुक्त रहती है। गर्म मौसम की फसल है और मक्का की फसल के अंकुरण के लिए रात-दिन अच्छा तापमान होना चाहिये। मक्के की फसल के लिए शुरू के दिनों में भूमि ंमें अच्छी नमी भी होनी चाहिए। फसल के उगाने के लिए 30 डिग्री सेल्सियश का तापमान जरूरी है। इसके विकास के लिए लगभग तीन से चार माह तक इसी तरह का मौसम चाहिये। मक्का की खेती के लिए प्रत्येक 15 दिन में पानी की आवश्यकता होती है।मक्का के अंकुरण से लेकर फसल की पकाई तक कम से कम 6 बार पानी यानी सिंचाई की आवश्यकता होती है  अर्थात मक्का को 60 से 120 सेमी वर्षा की आवश्यकता होती है। मानसून सीजन में यदि पानी सही समय पर बरसता रहता है तो कोई बात नहीं वरना सिंचाई करने की आवश्यकता होती है। अन्यथा मक्का की फसल कमजोर हो जायेगी। भारत में उत्तर प्रदेश, बिहार, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश, कर्नाटक में सबसे अधिक मक्का की खेती होती है। छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, जम्मू कश्मीर और हिमाचल में भी इसकी खेती की जाती है।

5.सोयाबीन की फसल

सोयाबीन ऐसा कृषि पदार्थ है, जिसका कई प्रकार से उपयोग किया जाता है। साधारण तौर पर सोयाबीन को दलहन की फसल माना जाता है। लेकिन इसका तिलहन के रूप में बहुत अधिक प्रयोग होने के कारण इसका व्यापारिक महत्व अधिक है। यहां तक कि इसकी खल से सोया बड़ी तैयार की जाती है, जिसे सब्जी के रूप में प्रमुखता से इस्तेमाल किया जाता है। सोयाबीन में प्रोटीन, कार्बोहाइडेट और वसा अधिक होने के कारण शाकाहारी मनुष्यों के लिए यह बहुत ही फायदे वाला होता है। इसलिये सोयाबीन की बाजार में डिमांड बहुत अधिक है। इस कारण इसकी खेती करना लाभदायक है। सोयाबीन की खेती मानसून के दौरान ही होती है। इसकी बुवाई जुलाई के अन्तिम सप्ताह में सबसे उपयुक्त होती है। इसकी फसल उष्ण जलवायु यानी उमस व गर्मी तथा नमी वाले मौसम में की जाती है। इसकी फसल के लिए 30-32 डिग्री सेल्सियश तापमान की आवश्यकता होती है और फसल पकने के समय 15 डिग्री सेल्सियश के तापमान की जरूरत होती है।  इस फसल के लिए 600 से 850 मिलीमीटर तक वर्षा चाहिये। पकने के समय कम तापमान की आवश्यकता होती है। [embed]https://www.youtube.com/watch?v=AUGeKmt9NZc&t[/embed]
संतुलित आहार के लिए पूसा संस्थान की उन्नत किस्में

संतुलित आहार के लिए पूसा संस्थान की उन्नत किस्में

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान नई दिल्ली जिसे पूसा संस्थान के नाम से जाना जाता है ने अपने 115 वर्षों के सफर में देश की कृषि को सुधारने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। हरित क्रांति के जनक के रूप में पूसा संस्थान में विभिन्न फसलों की बहुत सारी किस्में निकाली हैं जिनसे हम अपने देश की जनता को संतुलित आहार दे सकते हैं और अपने किसानों के लिए खेती को लाभदायक बना सकते हैं। दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के लिए पूसा सस्थान द्वारा निकाली गई कुछ फसलों की मुख्य किस्में व उनकी विशेषताओं के विषय में हम आपको बता रहे हैं।

संतुलित आहार की उन्नत किस्में

धान

Dhan ki kheti 1-पूसा बासमती 1 जिस की पैदावार 50 कुंतल प्रति हेक्टेयर है 135 दिन में पक कर तैयार हो जाती है। 2-पूसा बासमती 1121 जिसकी पैदावार 50 कुंतल प्रति हेक्टेयर है एवं 140  दिन में पक जाती है। पकाने के दौरान चावल 4 गुना लंबा हो जाता है। 3-पूसा बासमती 6 की पैदावार 55 कुंतल प्रति हेक्टेयर है। आप पकने में 150 दिन का समय लेती है। 4-पूसा बासमती 1509 का उत्पादन 60 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होता है. यह पत्नी है 120 दिन का समय लेती है. जल्दी पकने के कारण बैक्टीरियल लीफ ब्लाइट के प्रति प्रतिरोधी है. 5-पूसा बासमती 1612 का उत्पादन 51 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होता है . पकने में 120 दिन का समय लेती है . यह ब्लास्ट प्रतिरोधी किस्म है। 6-पूसा बासमती 1592 का उत्पादन 47.3 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है .यह पकने में 120 दिन का समय लेती है .बैक्टीरियल लीफ ब्लाइट के प्रति प्रतिरोधी है. ये भी पढ़े: धान की उन्नत खेती कैसे करें एवं धान की खेती का सही समय क्या है 7-पूसा बासमती 1609 का उत्पादन 46 कुंटल पकने का समय 120 दिन व बैक्टीरियल लीफ ब्लाइट के प्रति प्रति प्रतिरोधी है। 8-पूसा बासमती 1637 का उत्पादन 42 क्विंटल प्रति हेक्टेयर अवधि 130 दिन है । यह ब्लाइट प्रतिरोधी है. 9-पूसा बासमती 1728 का उत्पादन 41.8 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकाव  अवधि 140 दिन है। वह किसी भी बैक्टीरियल ब्लाइट के प्रति प्रतिरोधी है। 10-पूसा बासमती 1718 का उत्पादन 46.4 कुंटल प्रति हेक्टेयर बोकारो अवधि 135 दिन है। यह किस्म बैक्टीरियल लीफ ब्लाइट के प्रति प्रतिरोध ही है। 11-पूसा बासमती 1692 का उत्पादन 52.6 कुंतल प्रति हेक्टेयर है। यह पकने में 115 दिन का समय लेती है। उच्च उत्पादन जल्दी पकने वाली किस्म है।

 गेहूं

gehu ki kheti 1-एचडी 3059 का उत्पादन 42.6 कुंतल प्रति हेक्टेयर व पकाव अवधि 121 दिन है। यह पछेती की किस्में है। 2-एचडी 3086 का उत्पादन 56.3 कुंटल एवं पकाव अवधि 145 दिन है। 3-एचडी 2967 का उत्पादन 45.5 कुंतल प्रति हेक्टेयर। वह पकने में 145 से लेती है। 4-एच डी सीएसडब्ल्यू 18 का उत्पादन 62.8 कुंतल प्रति हेक्टेयर है। पीला रतुआ प्रतिरोधी 150 दिन में पकती है। 5-एचडी 3117 से 47.9 कुंटल उत्पादन 110 दिन में मिल जाता है । यह किस्म करनाल बंट रतुआ प्रतिरोधी पछेती किस्म है। 6-एचडी 3226 से 57.5 कुंटल उत्पादन 142 दिन में मिल जाता है। 7-एचडी 3237 से 4 कुंतल उत्पादन 145 दिन में मिलता है। ये भी पढ़े: सर्दी में पाला, शीतलहर व ओलावृष्टि से ऐसे बचाएं गेहूं की फसल 8-एच आई 1620 से 49.1 कुंदन उत्पादन के 40 दिन में मिलता है। यह कंम पानी वाली किस्म है। 9-एच आई 1628 से 50.4 कुंतल उत्पादन 147 में मिलता है। 10-एच आई 1621 से 32.8 कुंतल उत्पादन 102 दिन में मिल जाता है यह पछेती किस्म है। 11-एचडी 3271 किस्म से कुंतल उत्पादन 104 दिन में मिलता है यह अति पछेती किस्म है पीला रतुआ प्रतिरोधी है। 12-एचडी 3298 से 39 कुंतल प्रति हेक्टेयर उत्पादन 104 दिन में मिल जाता है।

मक्का

Makka ki kheti 1-पूसा एच एम 4 संकर किस्म से 64.2 कुंतल प्रति हेक्टेयर उत्पादन मिलता है । यह पकने में 87 दिन का समय देती है और इसमें प्रोटीन अत्यधिक है। 2-पूसा सुपर स्वीट कॉर्न संकर सै 93 कुंतल उत्पादन 75 दिन में मिल जाता है। 3-पूसा एचक्यूपीएम 5 संकर 64.7 कुंतल प्रति हेक्टेयर उत्पादन 92 दिन में मिलता है। बाजरा (खरीफ) 1-पूसा कंपोजिट 701 से , 80 दिन में 23.5 कुंतल उत्पादन मिलता है। 2-पूसा 1201 संकर से 28.1 कुंतल उत्पादन 80 दिन में मिलता है।

चना

chana ki kheti 1-पूसा 372 से 125 दिन में 19 कुंतल प्रति हेक्टेयर उत्पादन मिलता है। 2-पूसा 547 से 130 दिन में 18 कुंतल उत्पादन मिलता है।

अरहर

arhar ki kheti 1-अरहर की पूसा 991 किस्म 142 दिन में तैयार होती है व 16.5 कुंदन उत्पादन मिलता है। 2- पूसा 2001 से 18.7 कुंतल उत्पादन 140 दिन में मिलता है। 3- पूसा 2002 किस्म से 143 दिन में 17.7 कुंतल उपज मिलती है। 4-पूसा अरहर 16 से 120 दिन में 19.8 कुंतल उपज मिलती है।

मूंग (खरीफ)

Mung ki kheti 1-पूसा विशाल 65 दिन में 11.5 कुंतल उपज देती है। यह किस्मत एक साथ पकने वाली है। 2- पूसा 9531 से 65 दिन में 11.5 कुंटल उत्पादन मिलता है। यह भी एक साथ पकने वाली किस्म है। 3- पूसा 1431 किस्म से 66 दिन में 12.9 कुंतल प्रति हेक्टेयर उत्पादन मिलता है।

मसूर

masoor ki dal 1- एल 4076 किस्म 125 दिन में पकने वाली है । इससे 13.5 कुंतल उत्पादन मिलता है। 2- एवं 4147 से ,125 दिन में 15 कुंतल उपज मिलती है। दोनों किस्म  फ्म्यूजेरियम बिल्ट रोग प्रतिरोधी है।

सरसों(रबी)

sarson ki kheti 1-जल्द पकने वाली पीएम 25 किस्म से 105 दिन में 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज मिलती है। 2-प्रीति बाई के लिए उपयुक्त पीएम 26 किस्म से 126 दिन में 16.4 कुंतल तक उपज मिलती है। 3-41.5% की उच्च तेल मात्रा वाली पीएम 28 किस्म 107 दिन में 19.9 कुंतल तक उपज दे जाती है। 4-कुछ तेल प्रतिशत वाली पीएम 3100 किस्म से 23.3  कुंतल प्रति हेक्टेयर तक उपज मिलती है ।यह पकने में 142 दिन का समय लेती है। 5- पीएम 32 किस्म से 145 दिन में 27.1 कुंतल उपज दे ती है।

सोयाबीन (खरीफ)

soybean 1-पुसा सोयाबीन 9712 किस्म पीला मोजेक प्रतिरोधी है। 115 दिन में 22.5 कुंतल प्रति हेक्टेयर उपज देती है। 2-पूसा 12 किस्म 128 दिन मैं 22.9 कुंतल उपज देती है।

लेखक

राजवीर यादव, फिरोज हुसैन, देवेंद्र के यादव एवं अशोक के सिंह
गेहूं का उत्पादन करने वाले किसान भाई इन रोगों के बारे में ज़रूर रहें जागरूक

गेहूं का उत्पादन करने वाले किसान भाई इन रोगों के बारे में ज़रूर रहें जागरूक

सर्दियों के मौसम में लगभग पूरे उत्तर भारत में गेहूं की फसल लगाई जाती है। इस फसल के लिए सर्दियां काफी अच्छी मानी गई है। गेहूं का अच्छा उत्पादन किसानों को मार्किट में इससे अच्छे दाम दिवा सकता है। लेकिन अगर कहीं आपकी फसल में किसी ना किसी तरह के कवक जनित व अन्य रोग लग जाएं तो ये गेहूं को बर्बाद भी कर सकते हैं। ऐसे में आपके मुनाफे में कमी तो होती ही है साथ ही आपको परेशानी का सामना भी करना पड़ता है। किसानों को इन सभी तरह के रोगों से सावधान रहने की जरूरत है। देश के ज्यादातर हिस्सों में गेहूं की बुवाई पूरी हो चुकी है और कुछ हिस्सों में इसकी बुवाई होना बाकी भी है। एक्सपर्ट की माने तो ये पाला आलू, सरसों समेत अन्य रबी फसलों के लिए नुकसान पहुंचाता है। वहीं अधिक सर्दी पड़ना गेंहूँ की सेहत के लिए बेहद लाभकारी है। आलू कम सिंचाई वाली फसल है। इसलिए फसल में अधिक पानी होना इसे कई बार नुकसान पहुंचाता है। आइए आज हम जानते हैं, कि और कौन-कौन से रोग गेहूं को नुकसान पहुंचाते हैं।

करनाल बंट रोग

यह गेहूं में होने वाला काफी प्रमुख रोग है। इस रोग की उपज मानी जाए तो यह रोग मृदा, बीज एवं वायु जनित रोग है। गेंहूँ में होने वाला करनाल बंट टिलेटिया इंडिका नामक कवक से पैदा होता है। इसे आंशिक बंट कहा जाता है। इस रोग के होने पर फसल पर लगने वाली बाली के अंदर काला बुरादा भर जाता है। ऐसा होने से पूरी फसल एकदम खराब हो जाती है और उससे सड़ी हुई मछली जैसी बदबू आती है। यह रोग ट्राईमिथाइल एमीन के कारण होता है। यह गेहूं के बड़े क्षेत्र को प्रभावित करता है। इसलिए इस रोग को गेहूं का कैंसर भी कहा जाता है।

अनावृत कंड रोग

यह रोग भी काफी मात्रा में इस फसल को प्रभावित करता है। गेहूं में होने वाला प्रमुख रोग अनावृत कंड लूज स्मट के नाम से भी जाना जाता है। यह बीज जनित रोग है। इसका सबसे बड़ा कारण अस्टीलेगो न्यूडा ट्रिटिसाई नामक कवक है। इस रोग में गेहूं के पौधों की सारी बालियां काली होने लगती है। एक बार बालियां काली हो जाने के बाद में पौधा सूख जाता है। यह बड़े फसली क्षेत्र को प्रभावित करता है, इसके होने पर गेहूं की उत्पादकता तेेजी से घटती है।
ये भी देखें: गेहूं की फसल का समय पर अच्छा प्रबंधन करके कैसे किसान अच्छी पैदावार ले सकते हैं।

चूर्णिल आसिता रोग

चूर्णिल आसिता मृदा एवं हवा से होने वाला रोग है। इसका प्रमुख कारण ब्लूमेरिया ट्रिटिसाई नामक कवक है। इस रोग के होने पर पौधों की पत्ती, पर्णव्रतों और बालियों पर सफेद चूर्ण जम जाता है। बाद में यह पूरे पौधे पर फैल जाता है। प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया बंद होने के कारण पौधे की मौत हो जाती है।

लीफ ब्लाइट रोग

यह रोग मुख्यत: बाईपोलेरिस सोरोकिनियाना नामक कवक से पैदा होता है। यह रोग सम्पूर्ण भारत में पाया जाता है। लेकिन इस रोग का प्रकोप नम तथा गर्म जलवायु वाले उत्तर पूर्वी क्षेत्र में अधिक होता है। इस रोग में फसल की पत्तियों पर भूरे रन के धब्बे बनने शुरू हो जाते हैं। जो फसल के उत्पादन को प्रभावित करते हैं।
ये भी देखें: गेहूं की फसल में पत्तियों का पीलापन कर रहा है किसानों को परेशान; जाने क्या है वजह

फुट रांट रोग

यह रोग ज्यादा तापमान वाले हिस्से जैसे मध्य प्रदेश, गुजरात तथा कर्नाटक में ज्यादा फसलों को प्रभावित करता है और सोयाबीन-गेहूं फसल चक्र में अधिक होता है। यह रोग स्क्लरोसियम रोलफसाई नामक कवक से होता है, जो कि संक्रमित भूमि में पाया जाता है। इसमें पौधों की जड़ के ऊपर काले और सफ़ेद फफूंद लगने लगते हैं। जो पौधे की जड़ को ही सड़ा देता है और रोगी पौधा मर जाता है।