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हाइब्रिड

जानिए सरसों की बुआई के बाद फसल की कैसे करें देखभाल

जानिए सरसों की बुआई के बाद फसल की कैसे करें देखभाल

किसान भाइयों यदि हम आज सरसों की फसल की बात करे तो आजकल सरसों के तेल के दाम बहुत ऊंचे होने के कारण इसका महत्व बढ़ गया है। प्रत्येक किसान अधिक से अधिक लाभ कमाने के लिए सरसों की फसल करना चाहेगा। उस पर यदि सरसों की फसल अच्छी हो जाये तो सोने पर सुहागा हो जायेगा।  इसके लिये किसान भाइयों को शुरू से अंत तक फसल की देखभाल करनी होगी। किसान भाइयों को समय-समय पर जरूरत के हिसाब से खाद-पानी, निराई-गुड़ाई, रोग, कीट प्रकोप से बचाने के अनेक उपाय करने होंगे।

सबसे पहले पौधों की दूरी का ध्यान रखें

बुआई के बाद सबसे पहले किसान भाइयों को बुआई के लगभग 15 से 20 दिनों के बाद खेत का निरीक्षण करना चाहिये तथा पौधों  का विरलीकरण यानी निश्चित दूरी से अधिक पौधों की छंटाई करनी चाहिये ।  इससे फसल को  दो तरह के लाभ मिलते हैं। पहला लाभ  यह कि  पौधों के लिए आवश्यक 10-15 सेन्टीमीटर की दूरी मिल जाती है। जिससे फसल को होने वाले नुकसान से बचा जा सकता है। दूसरा लाभ यह है कि खरपतवार का नियंत्रण भी  हो जाता है।

सिंचाई का विशेष प्रबंध करें

सरसों की फसल के लिए आवश्यकतानुसार सिंचाई करनी होती है। बरसात होती है तो उसका ध्यान रखते हुए सिंचाई का प्रबंधन करना होता है। सरसों की अच्छी फसल के लिए खेत की नमी, फसल की नस्ल और मिट्टी  की श्रेणी के अनुसार किसान भाइयों को खेत की जांच पड़ताल करनी चाहिये। उसके बाद आवश्यकता हो तो पहली सिंचाई 15 से 20 दिन में ही करें। उसके बाद 30 से 40 दिन बाद उस समय सिंचाई करें जब फूल आने वाले हों।  इसके बाद तीसरी सिंचाई 2 से ढाई महीने के बाद उस समय करनी चाहिये जब फलियां बनने वाली हों। जहां पर पानी की कमी हो या पानी खारा हो तो किसान भाइयों को चाहिये कि अपने खेतों में सिर्फ एक ही बार सिंचाई करें।



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कैसे करें खरपतवार का नियंत्रण

सिंचाई के अच्छे प्रबंधन के साथ ही सरसों की फसल की देखभाल में खरपतवार का नियंत्रण करना बहुत जरूरी होता है। क्योंकि किसान भाई जब खेत में खाद व सिंचाई का अच्छा प्रबंधन करते हैं तो खेत में सरसों के पौधों के साथ ही उसमें उग आये खरपतवार भी तेजी से विकसित होने लगते हैं। इसका फसल पर सीधा प्रभाव पड़ने लगता है। इसलिये किसान भाइयों को चाहिये कि सरसों की फसल की देखभाल करते समय खरपतवार के नियंत्रण पर विशेष ध्यान दें।  खरपतवार का नियंत्रण इस प्रकार करना चाहिये:-
  1. बुआई के लगभग 25 से 30 दिन बाद निराई गुड़ाई करनी चाहिये। इससे पौंधों के सांस लेने की क्षमता बढ़ जाती है तथा  इससे  पौधों को तेजी से अच्छा विकास होता है।
  2. खरपतवार का अच्छी तरह नियंत्रण करने से फसल में 60 प्रतिशत तक की वृद्धि हो सकती है। किसान भाइयों को अच्छी फसल का लाभ हासिल करने के लिए खरपतवार का प्रबंधन करना ही होगा।
  3. खरपतवार के नियंत्रण के लिए किसान भाई रासायनिक पदार्थों का भी उपयोग कर सकते हैं। इसके लिए पेन्डी मिथैलीन (30 ईसी) की 3.5 लीटर को 1000 लीटर पानी में मिलाकर बुआई के तुरन्त बाद छिड़काव करना चाहिये।  यदि पेन्डी मिथेलीन का प्रबंध न हो सके उसकी जगह फ्रलुक्लोरेलिन (45 ईसी) का घोल मिलाकर छिड़काव करना चाहिये ।  इससे खरपतवार नहीं उत्पन्न होता है।
sarson ki kheti

कीट प्रकोप व रोग का ऐसे करें उपचार

कहते हैं कि जब तक फसल सुरक्षित किसान भाई के घर न पहुंच जाये तब तक अनेक बाधाएं फसलों में लगतीं रहतीं हैं। ऐसी ही एक बड़ी व्याधि हैं कीट प्रकोप और फसली रोग। इनसे बचाने के लिए किसान भाइयों को लगातार अपनी फसल की निगरानी करते रहना चाहिये और जो भी कीटों का प्रकोप और रोग के संकेत दिखाई दें तत्काल उनका उपचार करना चाहिये। वरना फसल की पैदावार काफी प्रभावित होती है और किसान भाइयों को  होने वाले अच्छे लाभ पर ग्रहण लग जाता है। आइये जानते हैं कि सरसों की फसल पर कौन-कौन से रोग और कीट लगते हैं और किस प्रकार से किसान भाइयों को उनका उपचार करना चाहिये। सरसों की फसल पर लगने वाले रोग व कीट इस प्रकार हैं:-
  1. चेंपा या माहू
  2. आरा मक्खी
  3. चितकबरा कीट
  4. लीफ माइनर
  5. बिहार हेयरी केटर पिलर
  6. सफेद रतुवा
  7. काला धब्बा या पर्ण चित्ती
  8. चूर्णिल आसिता
  9. मृदूरोमिल आसिता
  10. तना गलन



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1. चेंपा या माहू: सरसों का प्रमुख कीट चेंपा या माहू है। जो फसल को पूरी तरह से बर्बाद कर देता है। सरसों में लगने वाले माहू पंखों वालें और बिना पंखों वाले हरे या सिलेटी रंग के होते हैं। इनकी लम्बी डेढ़ से तीन मिलीमीटर होती है। इस कीट के शिशु व प्रौढ़ पौधों के कोमल तनों, पत्तियों, फूलों एवं नई फलियों के रस चूसकर उनको कमजोर एवं क्षतिग्रस्त करते हैं। इस कीट के प्रकोप का खतरा दिसम्बर से लेकर मार्च तक बना रहता है।  इस दौरान किसान भाइयों को सतर्क रहना चाहिये।

क्या उपाय करने चाहिये

जब फसल चेंपा या माहू से प्रभावित दिखें और उसका प्रभाव बढ़ता दिखे तो किसान भाइयों को तत्काल एक्टिव होकर डाइमिथोएट  30 ईसी या मोनोग्रोटोफास (न्यूवाक्रोन) का लिक्विड एक लीटर को 800 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिये। यदि दुबारा कीट का प्रकोप हों तो 15 दिन के अंतराल पर छिड़काव करना चाहिये।  माहू से प्रभावित पौधों की शाखाओं को तोड़कर जमीन में दबा देना चाहिये।  इसके अलावा किसान भाइयों को माहू से प्रभावित फसल को बचाने के लिए कीट नाशी फेंटोथिओन 50 ईसी एक लीटर को 800 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिये। इसका छिड़काव करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि शाम के समय स्प्रे करना होगा। sarson ki kheti 2. आरा मक्खी: सरसों की फसल में लगने वाले इस कीट के नियंत्रण के लिए मेलाथियान 50 ईसी की एक लीटर को 500 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर का छिड़काव करना चाहिये। एक बार में कीट न खत्म हों तो दुबारा छिड़काव करना चाहिये। 3.चितकबरा कीट : इस कीट से बचाव करने के लिए प्रति हेक्टेयर के हिसाब से क्यूलनालफास चूर्ण को 1.5 प्रतिशत को मिट्टी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिये। जब इस कीट का प्रकोप अपने चरम सीमा पर पहुंच जाये तो उस समय मेलाथियान 50 ईसी की 500 मि.ली. मात्रा को 500 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर के हिसाब से छिड़कना चाहिये। 4.लीफ माइनर: इस कीट के प्रकोप के दिखते ही मेलाथियान 50 ईसी का छिड़काव करने से लाभ मिलेगा। 5.बिहार हेयरी केटर पिलर : डाइमोथिएट के घोल का छिड़काव करने से इस कीट से बचाव हो सकता है। 6. सफेद रतुवा : सरसों की फसल में लगने वाले रोग से बचाव के लिए मैन्कोजेब (डाइथेन एम-45) के 0.2 प्रतिशत घोल का छिड़काव करें। आवश्यकतानुसार तीन बार तक छिड़काव किया जा सकता है। 7. काला धब्बा या पर्ण चित्ती: इस रोग से बचाव के लिए आईप्रोडियाँन, मेन्कोजेब के 0.2 प्रतिशत घोल का छिड़काव करें। 8. चूर्णिल आसिता: इस रोग की रोकथाम करने के लिए सल्फर का 0.2 प्रतिशत या डिनोकाप 0.1 प्रतिशत का घोल बनाकर छिड़काव करे। 9. मृदूरोमिल आसिता: सफेद रतुआ के प्रबंधन से ये रोग अपने आप ही नियंत्रित हो जाता है। 10. तना गलन: फंफूदीनाशक कार्बेन्डाजिम 0.1 प्रतिशत का छिड़काव फूल आने के समय किया जाना चाहिये। बुआई के लगभग 60-70 दिन बाद यह रोग लगता है। उसी समय रोगनाशी का छिड़काव करने  से  फायदा मिलता है।



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देश की सभी मंडियों में एमएसपी से ऊपर बिक रही सरसों

देश की सभी मंडियों में एमएसपी से ऊपर बिक रही सरसों

दशकों से खाद्य तेलों के मामलों में हम आत्मनिर्भर नहीं हो पाए हैं। हमें जरूरत के लिए खाद्य तेल विदेशों से मंगाने पढ़ते रहे हैं। इस बार सरसों का क्षेत्रफल बढ़नी से उम्मीद जगी थी कि हम विदेशों पर खाद्य तेल के मामले में काफी हद तक कम निर्भर रहेंगे लेकिन मौसम की प्रतिकूलता ने सरसों की फसल को काफी इलाकों में नुकसान पहुंचाया है। इसका असर मंडियों में सरसों की आवक शुरू होने के साथ ही दिख रहा है। समूचे देश की मंडियों में सरसों न्यूनतम समर्थन मूल्य से ऊपर ही बिक रही है। सरसों सभी मंडियों में 6000 के पार ही चल रही है।

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सरसों को रोकें या बेचें

Sarson

घटती कृषि जोतों के चलते ज्यादातर किसान लघु या सीमांत ही हैं। कम जमीन पर की गई खेती से उनकी जरूरत है कभी पूरी नहीं होती। इसके चलते वह मजबूर होते हैं फसल तैयार होने के साथ ही उसे मंडी में बेचकर अगली फसल की तैयारी की जाए और घरेलू जरूरतों की पूर्ति की जाए लेकिन कुछ बड़ी किसान अपनी फसल को रोकते हैं। किसके लिए वह तेजी मंदी का आकलन भी करते हैं। बाजार की स्थिति सरकार की नीतियों पर निर्भर करती है। यदि सरकार ने विदेशों से खाद्य तेलों का निर्यात तेज किया तो स्थानीय बाजार में कीमतें गिर जाएंगे। रूस यूक्रेन युद्ध यदि लंबा खींचता है तो भी बाजार प्रभावित रहेगा। पांच राज्यों के चुनाव में खाद्य तेल की कीमतों का मुद्दा भारतीय जनता पार्टी के लिए दिक्कत जदा रहा। सरकार किसी भी कीमत पर खाद्य तेलों की कीमतों को नीचे लाना चाहेगी। इससे सरसों की कीमतें गिरना तय है। मंडियों में आवक तेज होने के साथ ही कारोबारी भी बाजार की चाल के अनुरूप कीमतों को गिराते उठाते रहेंगे।

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प्रतिकूल मौसम ने प्रभावित की फसल

Sarson ki fasal

यह बात अलग है कि देश में इस बार सरसों की बुवाई बंपर स्तर पर की गई लेकिन इसे मौसम में भरपूर झकझोर दिया। बुबाई के सीजन में ही बरसात पढ़ने से राजस्थान सहित कई जगहों पर किसानों को दोबारा फसल बोनी पड़ी। इसके चलते फसल लेट भी हो गई। पछेती फसल में फफूंदी जनित तना गलन जैसे कई रोग प्रभावी हो गए। इसका व्यापक असर उत्पादन और उत्पाद की गुणवत्ता पर पड़ा है। हालिया तौर पर फसल की कटाई के समय पर हरियाणा सहित कई जगहों पर ओलावृष्टि ने फसल को नुकसान पहुंचाया है।

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रूस यूक्रेन युद्ध का क्या होगा असर

रूस यूक्रेन युद्ध का असर समूचे विश्व पर किसी न किसी रूप में पड़ना तय है। परोक्ष अपरोक्ष रूप से हर देश को इस युद्ध का खामियाजा भुगतना ही पड़ेगा। युद्ध अधिक लंबा खिंचेगा तो विश्व समुदाय के समर्थन में हर देश को सहभागिता दिखानी ही पड़ेगी। इसके चलते गुटनिरपेक्षता की बात बेईमनी होगी और विश्व व्यापार प्रभावित होगा। कोरोना काल के दौरान बिगड़ी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के उद्यम को एक और बड़ा झटका लगेगा। विदेशों पर निर्भरता वाली वस्तुओं की कीमतों में इजाफा होना तय है।

सरकारी समर्थन मूल्य से ऊपर बिक रही सरसों

sarson ke layi

सरसों की फसल की मंडियों में आना शुरू हुई है जिसके चलते अभी वो एमएसपी से ऊपर बिक रही है। मंडी में आवक बढ़ने के बाद स्थिति स्पष्ट होगी कि खरीददार सरसो को कितना गिराएंगे। उत्तर प्रदेश की मंडियों में सरसों 6200 से 7000 तक बिक रही है वहीं कई जगह वह 7000 के पार भी बिक रही है। गुजरे 3 दिनों में सरसों की कीमतें में 200 से 400 ₹500 तक की गिरावट एवं कई जगह कुछ बढत साफ देखी गई। 15 मार्च तक सरसों की आवक और उत्पादन के अनुमानों के आधार पर बाजार में कीमतों की स्थिरता का पता चल पाएगा। अभी खरीदार दैनिक मांग के अनुरूप सरसों की पेराई का फल एवं तेल की सप्लाई दे रहे हैं। कारोबारी एवं किसानों के स्तर पर स्टॉक की पोजीशन 15 मार्च के बाद ही क्लियर होगी।

इस वैज्ञानिक विधि से करोगे खेती, तो यह तिलहन फसल बदल सकती है किस्मत

इस वैज्ञानिक विधि से करोगे खेती, तो यह तिलहन फसल बदल सकती है किस्मत

पिछले कुछ समय से टेक्नोलॉजी में काफी सुधार की वजह से कृषि की तरफ रुझान देखने को मिला है और बड़ी-बड़ी मल्टीनेशनल कंपनियों को छोड़कर आने वाले युवा भी, अब धीरे-धीरे नई वैज्ञानिक तकनीकों के माध्यम से भारतीय कृषि को एक बदलाव की तरफ ले जाते हुए दिखाई दे रहे हैं।

जो खेत काफी समय से बिना बुवाई के परती पड़े हुए थे, अब उन्हीं खेतों में अच्छी तकनीक के इस्तेमाल और सही समय पर अच्छा मैनेजमेंट करने की वजह से आज बहुत ही उत्तम श्रेणी की फसल लहलहा रही है। 

इन्हीं तकनीकों से कुछ युवाओं ने पिछले 1 से 2 वर्ष में तिलहन फसलों के क्षेत्र में आये हुए नए विकास के पीछे अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। तिलहन फसलों में मूंगफली को बहुत ही कम समय में अच्छी कमाई वाली फसल माना जाता है।

पिछले कुछ समय से बाजार में आई हुई हाइब्रिड मूंगफली का अच्छा दाम तो मिलता ही है, साथ ही इसे उगाने में होने वाले खर्चे भी काफी कम हो गए हैं। केवल दस बीस हजार रुपये की लागत में तैयार हुई इस हाइब्रिड मूंगफली को बेचकर अस्सी हजार रुपये से एक लाख रुपए तक कमाए जा सकते हैं।

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इस कमाई के पीछे की वैज्ञानिक विधि को चक्रीय खेती या चक्रीय-कृषि के नाम से जाना जाता है, जिसमें अगेती फसलों को उगाया जाता है। 

अगेती फसल मुख्यतया उस फसल को बोला जाता है जो हमारे खेतों में उगाई जाने वाली प्रमुख खाद्यान्न फसल जैसे कि गेहूं और चावल के कुछ समय पहले ही बोई जाती है, और जब तक अगली खाद्यान्न फसल की बुवाई का समय होता है तब तक इसकी कटाई भी पूरी की जा सकती है। 

इस विधि के तहत आप एक हेक्टर में ही करीब 500 क्विंटल मूंगफली का उत्पादन कर सकते हैं और यह केवल 60 से 70 दिन में तैयार की जा सकती है।

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मूंगफली को मंडी में बेचने के अलावा इसके तेल की भी अच्छी कीमत मिलती है और हाल ही में हाइब्रिड बीज आ जाने के बाद तो मूंगफली के दाने बहुत ही बड़े आकार के बनने लगे हैं और उनका आकार बड़ा होने की वजह से उनसे तेल भी अधिक मिलता है। 

चक्रीय खेती के तहत बहुत ही कम समय में एक तिलहन फसल को उगाया जाता है और उसके तुरंत बाद खाद्यान्न की किसी फसल को उगाया जाता है। जैसे कि हम अपने खेतों में समय-समय पर खाद्यान्न की फसलें उगाते हैं, लेकिन एक फसल की कटाई हो जाने के बाद में बीच में बचे हुए समय में खेत को परती ही छोड़ दिया जाता है, लेकिन यदि इसी बचे हुए समय का इस्तेमाल करते हुए हम तिलहन फसलों का उत्पादन करें, जिनमें मूंगफली सबसे प्रमुख फसल मानी जाती है।

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भारत में मानसून मौसम की शुरुआत होने से ठीक पहले मार्च में मूंगफली की खेती शुरू की जाती है। अगेती फसलों का सबसे बड़ा फायदा यह होता है कि इन्हें तैयार होने में बहुत ही कम समय लगता है, साथ ही इनकी अधिक मांग होने की वजह से मूल्य भी अच्छा खासा मिलता है। 

इससे हमारा उत्पादन तो बढ़ेगा ही पर साथ ही हमारे खेत की मिट्टी की उर्वरता में भी काफी सुधार होता है। इसके पीछे का कारण यह है, कि भारत की मिट्टि में आमतौर पर नाइट्रोजन की काफी कमी देखी जाती है और मूंगफली जैसी फसलों की जड़ें नाइट्रोजन यौगिकीकरण या आम भाषा में नाइट्रोजन फिक्सेशन (Nitrogen Fixation), यानी कि नाइट्रोजन केंद्रीकरण का काम करती है और मिट्टी को अन्य खाद्यान्न फसलों के लिए भी उपजाऊ बनाती है। 

इसके लिए आप समय-समय पर कृषि विभाग से सॉइल हेल्थ कार्ड के जरिए अपनी मिट्टी में उपलब्ध उर्वरकों की जांच भी करवा सकते हैं।

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मूंगफली के द्वारा किए गए नाइट्रोजन के केंद्रीकरण की वजह से हमें यूरिया का छिड़काव भी काफी सीमित मात्रा में करना पड़ता है, जिससे कि फर्टिलाइजर में होने वाले खर्चे भी काफी कम हो सकते हैं। 

इसी बचे हुए पैसे का इस्तेमाल हम अपने खेत की यील्ड को बढ़ाने में भी कर सकते हैं। यदि आपके पास इस प्रकार की हाइब्रिड मूंगफली के अच्छे बीज उपलब्ध नहीं है तो उद्यान विभाग और दिल्ली में स्थित पूसा इंस्टीट्यूट के कृषि वैज्ञानिकों के द्वारा समय-समय पर एडवाइजरी जारी की जाती है जिसमें बताया जाता है कि आपको किस कम्पनी की हाइब्रिड मूंगफली का इस्तेमाल करना चाहिए। 

समय-समय पर होने वाले किसान चौपाल और ट्रेनिंग सेंटरों के साथ ही दूरदर्शन के द्वारा संचालित डीडी किसान चैनल का इस्तेमाल कर, युवा लोग मूंगफली उत्पादन के साथ ही अपनी स्वयं की आर्थिक स्थिति तो सुधार ही रहें हैं, पर इसके अलावा भारत के कृषि क्षेत्र को उन्नत बनाने में अपना भरपूर सहयोग दे रहे हैं। 

आशा करते हैं कि मूंगफली की इस चक्रीय खेती विधि की बारे में Merikheti.com कि यह जानकारी आपको पसंद आई होगी और आप भी भारत में तिलहन फसलों के उत्पादन को बढ़ाने के अलावा अपनी आर्थिक स्थिति में भी सुधार करने में सफल होंगे।

जायद में हाइब्रिड करेला की खेती किसानों को मालामाल बना सकती है, जानें कैसे

जायद में हाइब्रिड करेला की खेती किसानों को मालामाल बना सकती है, जानें कैसे

किसान भाई रबी की फसलों की कटाई करने की तैयारी में है। अप्रैल महीने में किसान रबी की फसलों के प्रबंधन के बाद हाइब्रिड करेला उगाकर तगड़ा मुनाफा हासिल कर सकते हैं। 

करेला की खेती सालभर में दो बार की जा सकती है। सर्दियों वाले करेला की किस्मों की बुआई जनवरी-फरवरी में की जाती है, जिसकी मई-जून में उपज मिलती है। 

वहीं, गर्मियों वाली किस्मों की बुआई बरसात के दौरान जून-जुलाई में की जाती हैं, जिसकी उपज दिसंबर तक प्राप्त होती हैं।

समय के बदलाव के साथ-साथ कृषि क्षेत्र भी आधुनिक तकनीक और अधिक मुनाफा देने वाली फसलों की तरफ रुख कर रहे हैं। वर्तमान में किसान पारंपरिक फसलों की बजाय बागवानी फसलों की खेती पर अधिक अग्रसर हो रहे हैं। 

अब किसान बड़े ही योजनाबद्ध तरीके से बाजार में दोहरे उद्देश्य को पूर्ण करने वाली सब्जियों का उत्पादन कर रहे हैं। क्योंकि, बाजार में इस प्रकार की सब्जियों की मांग बढ़ती जा रही है। 

दरअसल, करेला की सब्जी की भोजन हेतु सब्जी होने के साथ-साथ एक अच्छी औषधी है।

पारंपरिक खेती की बजाय व्यावसायिक खेती पर बल

तकनीकी युग में अधिकांश किसान व्यावसायिक खेती पर ज्यादा बल दे रहे हैं। विशेषकर, बहुत सारी कंपनियां किसानों को अग्रिम धनराशि देकर करेले की खेती करवा रही हैं। 

इसके लिए लघु कृषक कम जमीन में मचान प्रणाली का इस्तेमाल कर खेती कर रहे हैं। इससे करेले की फसल में सड़ने-गलने का संकट अत्यंत कम होता जा रहा है। साथ ही, किसानों को कम लागत में शानदार पैदावार हांसिल हो रही है।

हाइब्रिड करेला की खेती के लिए कैसा मौसम होना चाहिए  

हाइब्रिड करेला की सदाबहार प्रजातियों की खेती के लिए मौसम की कोई भी सीमा नहीं है। इसलिए बहुत सारे किसान अलग-अलग इलाकों में हाइब्रिड करेला उगाकर शानदार धनराशि अर्जित कर रहे हैं। 

इनके फल 12 से 13 सेमी लंबे और 80 से 90 ग्राम वजन के होते हैं। हाइब्रिड करेला की खेती करने पर एक एकड़ में 72 से 76 क्विंटल उत्पादन प्राप्त होता है, जो सामान्य से काफी ज्यादा है। 

हाइब्रिड करेला कम परिश्रम में अधिक फल प्रदान करता है 

कृषि विशेषज्ञों के अनुसार, हाइब्रिड करेला कम मेहनत में देसी करेले की तुलना में अधिक उपज प्रदान करते हैं। वर्तमान में किसान भाई देसी करेले की खेती पर ज्यादा जोर दे रहे हैं। 

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किसान भाई ध्यान रखें कि हाइब्रिड करेला के पौधे बड़ी तीव्रता से बढ़ते हैं। हाइब्रिड करेला के फल काफी बड़े होते हैं, जो कि सामान्य तौर पर नहीं होता है। इनकी संख्या काफी ज्यादा होती है। हालाँकि, हाइब्रिड करेला की खेती भी देसी करेला की तरह ही की जाती है। 

जानकारी के लिए बतादें, कि हाइब्रिड करेला का रंग और स्वाद काफी अच्छा होता है, इसलिए इसके बीज काफी ज्यादा महंगे होते हैं। 

हाइब्रिड करेला की सबसे अच्छी किस्में

कोयंबटूर लौंग और हाइब्रिड करेला की प्रिया किस्में उत्पादन में सबसे अग्रणी हैं। करेले की बेहतरीन और उत्तम किस्मों में कल्याणपुर सोना, बारहमासी करेला, प्रिया सीओ-1, एसडीयू-1, पंजाब करेला-1, पंजाब-14, सोलन हारा, सोलन, पूसा टू सीजनल, पूसा स्पेशल, कल्याणपुर, कोयंबटूर लॉन्ग और बारहमासी भी शामिल हैं। हाइब्रिड करेले की खेती करने के लिए खेत में अच्छी जल निकासी वाली बलुई दोमट मिट्टी सबसे बढ़िया रहती है।

लौकी की खेती कैसे की जाती है जानिए सम्पूर्ण जानकारी के बारे में

लौकी की खेती कैसे की जाती है जानिए सम्पूर्ण जानकारी के बारे में

लौकी भारत में सब्जी के रूप में बड़े पैमाने पर उगाई जाती है और इसके फल साल भर उपलब्ध रहते हैं। लौकी नाम फल के बोतल जैसे आकार और अतीत में कंटेनर के रूप में इसके उपयोग के कारण पड़ा। नरम अवस्था में फलों का उपयोग पकी हुई सब्जी के रूप में और मिठाइयाँ बनाने के लिए किया जाता है। परिपक्व फलों के कठोर छिलकों का उपयोग पानी के जग, घरेलू बर्तन, मछली पकड़ने के लिए जाल के रूप में किया जाता है। सब्जी के रूप में यह आसानी से पचने योग्य है। इसकी तासीर ठंडी होती है और कार्डियोटोनिक गुण के कारण मूत्रवर्धक होता है।  लोकि से कई रोग जैसे की कब्ज, रतौंधी और खांसी को नियंत्रित किया जा सकता है। पीलिया के इलाज के लिए पत्ते का काढ़ा बनाकर सेवन किया जाता है। इसके बीजों का उपयोग जलोदर रोग में किया जाता है।  

लौकी की फसल के लिए उपयुक्त जलवायु

लौकी एक सामान्य गर्म मौसम की सब्जी है। खरबूजा और तरबूज की तुलना में लोकि की फसल ठंडी जलवायु को बेहतर सहन करती है। लोकि की फसल पाले को बर्दाश्त नहीं कर सकती। अच्छी जल निकास वाली उपजाऊ गाद दोमट होती है।  यह भी पढ़ें:
लौकी की खेती से संबंधित विस्तृत जानकारी इसकी खेती के लिए गर्म और नम जलवायु अनुकूल होती है। रात का तापमान 18- 22°C और  दिन का तापमान 30-35  इसकी उचित वृद्धि और उच्च फल के लिए इष्टतम होता है। 

खेत की तैयारी     

फसल की बुवाई से पहले खेत को तैयार किया जाता है। खेत को प्लॉव से एक बार गहरी जुताई करके तैयार करें उसके बाद इसके बाद 2 बार हैरो की मदद से खेत को अच्छी तरह से जोते। आखरी जुताई के समय खेत में 4 टन प्रति एकड़ की दर से गोबर की खाद या कम्पोस्ट को अच्छी तरह मिट्टी में मिला दें।             

बीज की बुवाई

यदि आप चाहे तो सीधे बीजो को खेत में लगाकर भी इसकी खेती कर सकते है | इसके लिए आपको तैयार की गयी नालियों में बीजो को लगाना होता है| बीजो की रोपाई से पहले तैयार की गयी नालियों में पानी को लगा देना चाहिए उसके बाद उसमे बीज रोपाई करना चाहिए।  यह भी पढ़ें: जानिए लौकी की उन्नत खेती कैसे करें लौकी की जल्दी और अधिक पैदावार के लिए इसके पौधों को नर्सरी में तैयार कर ले फिर सीधे खेत में लगा दे। पौधों को बुवाई के लगभग 20 से 25 दिन पहले तैयार कर लेना चाहिए। इसके अतिरिक्त बीजो को रोग मुक्त करने के लिए बीज रोपाई से पहले उन्हें गोमूत्र या बाविस्टीन से उपचारित कर लेना चाहिए। इससे बीजो में लगने वाले रोगो का खतरा कम हो जाता है, तथा पैदावार भी अधिक होती है। 

रोपाई का समय और तरीका

बारिश के मौसम में इसकी खेती करने के लिए बीजो की जून के महीने में रोपाई कर देनी चाहिए। इसके अतिरिक्त पहाड़ी क्षेत्रों में इसकी रोपाई को मार्च या अप्रैल के महीने में करना चाहिए।  समतल भूमि में की गयी लौकी की खेती को किसी सहारे की जरूरत नहीं होती है | ऐसी स्थिति में इसकी बेल जमीन में फैलती है, किन्तु जमीन से ऊपर इसकी खेती करने में इसे सहारे की जरूरत होती है। इसके लिए खेत में 10 फ़ीट की दूरी पर बासो को गाड़कर जल बनाकर तैयार कर लिया जाता है, जिसमे पौधों को चढ़ाया जाता है। इस विधि को अधिकतर बारिश के मौसम में अपनाया जाता है।  

फसल में खरपतवार नियंत्रण  

खरपतवार नियंत्रण करने के लिए फसल में समय समय पर निराई गुड़ाई करते रहे ताकि फसल को खरपतवार मुक्त रखा जा सकें।  यह भी पढ़ें: सही लागत-उत्पादन अनुपात को समझ सब्ज़ी उगाकर कैसे कमाएँ अच्छा मुनाफ़ा, जानें बचत करने की पूरी प्रक्रिया रासायनिक तरीके से खरपतवार पर नियंत्रण के लिए ब्यूटाक्लोर का छिड़काव जमीन में बीज रोपाई से पहले तथा बीज रोपाई के तुरंत बाद करनी चाहिए| खरपतवार के नियंत्रण से पौधे अच्छे से वृद्धि करते है, तथा पैदावार भी अच्छी होती है | 

फसल में उर्वरक और पोषक तत्व प्रबंधन

फसल से उचित उपज प्राप्त करने के लिए 40 किलोग्राम नाइट्रोजन, 15 - 20 किलोग्राम फॉस्फोरस और 20 किलोग्राम पोटाश प्रति एकड़ की दर से खेत में डालें।    

लौकी के प्रमुख रोग और उनका नियंत्रण

  • लौकी (घीया) एक प्रमुख फलीय सब्जी है जो भारतीय खाद्य पदार्थों में आमतौर पर प्रयोग होती है। यह कई प्रमुख रोगों के प्रभावित हो सकती है, जिनमें से कुछ मुख्य हैं:
  • लौकी मोजैक्यूलर वायरस रोग (Luffa Mosaic Virus Disease):
  • इस रोग में पत्तियों पर पीले या हरे रंग के पट्टे दिखाई देते हैं। यह रोग पौधों की वृद्धि और उत्पादन पर असर डालता है।
  • नियंत्रण के लिए, स्वस्थ बीजों का उपयोग करें और बीमार पौधों को नष्ट करें।
  • लौकी मॉसेक वायरस रोग (Luffa Mosaic Virus Disease):
  • इस रोग में पत्तियों पर सफेद या हरे रंग के दाग दिखाई देते हैं। यह पौधों की वृद्धि पर नकारात्मक प्रभाव डालता है।
  • नियंत्रण के लिए, स्वस्थ बीजों का उपयोग करें और संक्रमित पौधों को नष्ट करें।
  • दाग रोग (Powdery Mildew): यह रोग पात्र प्रभावित करके पौधों पर धूल की तरह सफेद दाग उत्पन्न करता है। इसके नियंत्रण के लिए निम्नलिखित उपाय अपनाएं:
  • दाग रोग से प्रभावित पौधों को हटाएं और उन्हें जला दें।
  • पौधों की पर्यावरण संगठना को सुधारें, उचित वेंटिलेशन प्रदान करें और पानी की आपूर्ति को नियमित रखें।
  • दाग रोग के लिए केमिकल फंगिसाइड का उपयोग करें, जैसे कि सल्फर युक्त फंगिसाइड।

लौकी के फल की तुड़ाई और पैदावार

फसल की बुवाई और रोपाई के लगभग 50 दिन बाद लौकी उड़ाई के लिए तैयार हो जाती है। जब लौकी सही आकर की दिखने लगे तब उसकी तुड़ाई कर ले। तुड़ाई करते समय किसी धारदार चाकू या दराती का इस्तेमाल करें। लौकी को तोड़ते समय फल के ऊपर थोड़ा सा डंठल छोड़ दें जिससे फल कुछ समय तक फल ताजा रहें। लौकी की तुड़ाई के तुरंत बाद पैक कर बाजार में बेचने के लिए भेज देना चाहिए | फलो की तुड़ाई शाम या सुबह दोनों ही समय की जा सकती है। एक एकड़ भूमि से लगभग 200 क्विंटल का उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। 
भिंडी की खेती की सम्पूर्ण जानकारी

भिंडी की खेती की सम्पूर्ण जानकारी

सब्जियों में भिंडी का प्रमुख स्थान है। ये सब्जी बहुत सारे पोषक तत्वों से भरपूर सब्जी है। इसको लोग लेडी फिंगर या ओकारा के नाम से भी जानते हैं। 

भिंडी में मुख्य रूप से प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, खनिज लवणों जैसे कैल्शियम, फास्फोरस के अतिरिक्त विटामिन 'ए', बी, 'सी', थाईमीन एवं रिबोफ्लेविन भी पाया जाता है। इसमें विटामिन ए तथा सी पर्याप्त मात्रा में पाये जाते हैं। 

भिंडी के फल में आयोडीन की मात्रा अधिक होती है तथा भिंडी की सब्जी कब्ज रोगी के लिए विशेष गुणकारी होती है। भिंडी को कई तरह से बनाया जाता है जैसे सूखी भिंडी, आलू के साथ, प्याज के साथ इत्यादि | 

भिंडी को किसी भी तरह की मिट्टी में उगाया जा सकता है। भिंडी की खेती पूरे देश में की जाती है। विश्व में भारत का भिंडी उत्पादन में पहला स्थान है।

भिंडी के लिए खेत की तैयारी:

भिंडी को लगाने के लिए खेत को हैरो से कम से कम दो बार गहरी जुताई करके पाटा लगा देना चाहिए जिससे की खेत समतल हो जाये। 

इसके बाद उसमे गोबर की बनी हुई खाद डाल के मिला देना चाहिए. खेत की मिट्टी भुरभुरी और पर्याप्त नमी वाली होनी चाहिए।

खेती के लिए मौसम:

भिंडी की खेती के लिए उपयुक्त तापमान 17 से 25 डिग्री के बीच होना चाहिए। ये इसके बीज को अंकुरित करने के लिए बहुत अच्छा होता है. हालाँकि इससे ज्यादा तापमान पर भी बीज अंकुरित होता है। 

लेकिन 17 डिग्री से नीचे का तापमान होने पर बीज अंकुरित होने में दिक्कत होती है। भिंडी के लिए थोड़ा गर्म और नमी वाला मौसम ज्यादा सही रहता है। ठन्डे तापमान पर भिंडी को नहीं उगाया जा सकता है।

भिंडी की बुवाई का समय:

भिंडी को साल में दो बार उगाया जाता है - फरवरी-मार्च तथा जून-जुलाई में। अगर आपको भिंडी की फसल को व्यावसायिक रूप देना है तो आप इस तरह से इसको लगाएं की हर तीसरे सप्ताह में आप भिंडी लगाते रहें। 

ये प्रक्रिया आप फ़रवरी से जुलाई या अगस्त तक कर सकते हैं इससे आपको एक अंतराल के बाद भिंडी की फसल मिलती रहेगी। 

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भिंडी का बीज कितने दिन में अंकुरित होता है:

जब आप भिंडी को खेत में पर्याप्त नमी के साथ लगाते हैं तो इस बीज को अंकुरित होने में 7 से 10 दिन का समय लगता है। इसका समय कम या ज्यादा मौसम, बीज की गुणवत्ता ,जमीन उपजाऊ शक्ति, बीज की गहराई आदि पर निर्भर करता है। भिंडी का बीज

भिंडी की अगेती खेती कैसे करें:

गर्मी में भिंडी की बुवाई कतारों में करनी चाहिए। कतार से कतार की दूरी 40-50 सेमी एवं कतार में पौधे से पौधे की दूरी 20-25 सेमी रखनी चाहिए जिससे कि पौधे को फैलने के लिए पर्याप्त जगह मिल सके। 

बीज की 2 से 3 सेमी गहरी बुआई करें। बुवाई से पहले बीजों को 3 ग्राम मेन्कोजेब कार्बेन्डाजिम प्रति किलो के हिसाब से उपचारित करना चाहिए।

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भिंडी की उन्नत किस्में:

  1. पूसा ए-4: यह भिंडी की अच्छी एवं एक उन्नत किस्म है। जैसा कि नाम से ही पता चल रहा है यह प्रजाति 1995 में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान , नई दिल्ली ( पूसा) द्वारा निकाली गई है। यह एफिड तथा जैसिड के प्रति सहनशील है। एफिड (माहु) एक छोटे आकर का कीट होता है ये कीड़े पत्तियों का रस चूसते हैं। 
  2. जेसिड (हरा मच्छर/फुदका) लक्षण: इस कीट के निम्फ (शिशु कीट) और प्रौढ़ (बड़ा कीट) दोनों ही अवस्था फसल को क्षति पहुँचाते हैं। यह कीट पौधों के कोमल तनों, पत्ती एवं पुष्प भागों से रस चूसकर पौधों का विकास रोक देते हैं। यह पीतरोग यैलो वेन मोजैक विषाणु रोधी है। फल मध्यम आकार के गहरे, कम लस वाले, 12-15 सेमी लंबे तथा आकर्षक होते हैं। बोने के लगभग 15 दिन बाद से फल आना शुरू हो जाते है तथा पहली तुड़ाई 45 दिनों बाद शुरु हो जाती है। इसकी औसत पैदावार ग्रीष्म में 10 टन व खरीफ में 12 टन प्रति एकड़ है।
  3. परभानी क्रान्ति: यह प्रजाति 1985 में मराठवाड़ाई कृषि विश्वविद्यालय, परभनी द्वारा निकाली गई है। इसमें ५० दिन में फल आना शुरू हो जाता है।
  4. पंजाब-7: यह प्रजाति पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना द्वारा निकाली गई है।
  5. अर्का अभय: यह प्रजाति भारतीय बागवानी अनुसंधान संस्थान, बैंगलोर द्वारा निकाली गई हैं।
  6. अर्का अनामिका: यह प्रजाति भी भारतीय बागवानी अनुसंधान संस्थान, बैंगलोर द्वारा निकाली गई हैं।
  7. वर्षा उपहार: जैसा नाम से विदित हो रहा है ये प्रजाति वर्षा ऋतू में सर्वाधिक उत्पादन देती है तथा इस किस्म को चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार द्वारा विकसित किया गया है।
  8. हिसार उन्नत: इस किस्म को चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार द्वारा विकसित किया गया है।
  9. वी.आर.ओ.-6: यह प्रजाति भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान,वाराणसी द्वारा 2003 में निकाली गई हैं। इसको काशी प्रगति के नाम से भी जाना जाता है।

भिंडी बीज की जानकारी:

सिंचित अवस्था में 2.5 से 3 किग्रा तथा असिंचित अवस्था में 5-7 किग्रा प्रति हेक्टेअर की आवश्यकता होती है। संकर किस्मों के लिए 5 कि.ग्रा. प्रति हेक्टर की बीजदर पर्याप्त होती है। 

भिंडी के बीज सीधे खेत में ही बोये जाते हैं। बीज बोने से पहले खेत को तैयार करने के लिये 2-3 बार जुताई करनी चाहिए।

टमाटर की फसल में एकीकृत कीट प्रबंधन

टमाटर की फसल में एकीकृत कीट प्रबंधन

टमाटर उत्पादन किसानों के लिए बहुत ही लाभदायक व्यवसाय है। जहां जलवायु की विविधता के कारण विभिन्न प्रकार की सब्जियों की खेती सफलतापूर्वक की जा रही है। सब्जियों पर कीटों का प्रकोप अधिक होता है। इससे पैदावार में कमी आती है और किसानों को नाशीकीटों द्वारा नुकसान झेलना पड़ता है। अतः कीटों का नियंत्रण अत्यंत महत्वपूर्ण है। कीटनाशकों के दुष्प्रभावों को देखते हुए एकीकृत कीट प्रबंधन पर अधिक बल देने की आवश्यकता है।

टमाटर का फलछेदक

यह एक बहुपौधभक्षी कीट है, जो कि टमाटर को नुकसान पहुंचाता है। इस कीट की सुंडिया कोमल पत्तियों और फूलों पर आक्रमण करती है तथा फिर फल मे छेद करके फल को ग्रसित करती है। फलछेदक की मादा शाम के समय पत्तों के निचले हिस्से पर हल्के पीले व सफेद रंग के अंडे देती हैं। इन अंडों से तीन से चार दिनों बाद हरे एवं भूरे रंग की सुंडियां निकलती हैं। पूरी तरह से विकसित सूंडी हरे रंग की होती है, जिनमें गहरे भूरे रंग की धारियां होती है। यह कीट फलों में छेद करके अपने शरीर का आधा भाग अंदर घुसाकर फल का गूदा खाती है। इसके कारण फल सड़ जाता है। इसका जीवनचक्र 4 से 6 सप्ताह में पूरा होता है।

तंबाकू की फलछेदक सुंडी

यह भी एक बहुपौधभक्षी कीट है। इसके अगले पंख स्लेटी लाल भूरे रंग के होते हैं। पिछले पंख मटमैले सफेद रंग के, जिसमें गहरे भूरे रंग की किनारी होती है। इसकी मादा पत्तों के नीचे 100 से 300 अंडे समूह में देती है, जिनको ऊपर से पीले भूरे रंग के बालों से मादा द्वारा ढक दिया जाता है। इन अंडो से 4 से 5 दिनों में हरे पीले रंग की सुंडियां निकलती हैं। ये प्रारम्भ मे समूह में रहकर पत्तियों की ऊपरी सतह खुरचकर खाती हैं। पूर्ण विकसित सूंडी जमीन के अंदर जाकर प्यूपा बनाती है। इस कीट का जीवनचक्र 30 से 40 दिनों में पूरा होता है। टमाटर की टहनियों पे किट संक्रमण [kit infection on tomato twigs]

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फल मक्खी

फल मक्खी आकार में छोटी होती है, परंतु काफी हानिकारक होती है। यह मक्खी बरसात के मौसम में अधिक नुकसान करती हैं। इनके वयस्कों के गले में पीले रंग की धारियां देखी जा सकती हैं। इस कीट की मादा मक्खी फल प्ररोह के अग्रभाग में अथवा फल के अंदर अंडे देती है। इन अंडों से चार-पांच दिनों में सफेद रंग के शिशु (मैगट) निकल जाते है। ये फलों के अंदर घुसकर इसके गूदे को खाना प्रारंभ कर देते हैं। ये सुंडियां तीन अवस्थाओं से गुजरती हैं तथा मृदा में पूर्णतः विकसित होने पर प्यूपा बन जाती हैं। इन प्यूपा से 8 से 10 दिनों में वयस्क मक्खी निकलती है। यह लगभग एक माह तक जीवित रहती हैं।

सफेद मक्खी

सफेद मक्खी का प्रकोप टमाटर की फसल की शुरूआत से अंत तक रहता है। इस कीट की मक्खी सफेद रंग की होती है और बहुत ही छोटी होती हैं। इसके वयस्क एवं शिशु दोनों ही फलों से रस चूसकर नुकसान पहुंचाते हैं। सफेद मक्खी की मादा पत्तों की निचली सतह में 150 से 250 अंडे देती हैं। ये अंडे बहुत महीन होते हैं जिन्हें नंगी आंखों से नहीं देखा जा सकता। इन अंडों से 5 से 10 दिनों में शिशु निकलते हैं। शिशु तीन अवस्थाओं को पार कर चैथी अवस्था में पहुंचकर प्यूपा में परिवर्तित हो जाते हैं। प्यूपा से 10 से 15 दिनों बाद में वयस्क निकलते हैं और जीवनचक्र फिर से आरंभ कर देते है। इस कीट के शरीर से मीठा पदार्थ निकलता रहता है, जो पत्तों पर जम जाता है। इस पर काली फफूंद का आक्रमण होता है तथा पौधों को नुकसान पहुंचता है।

सफेद मक्खी का पत्तीयों पर प्रकोप

टमाटर के पत्तों पर सफेद कीट [white pests on tomato leaf ]

पर्ण खनिक कीट

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यह एक बहुभक्षी कीट है, जो कि संपूर्ण विश्व में सब्जियों एवं फलों की 50 से अधिक किस्मों को नुकसान पहुंचाता है। इसकी मादा पत्ते के ऊतक एवं निचली सतह के अंदर अंडा देती है। अण्डों से दो-तीन दिनों बाद निकलकर शिशु पत्ते की दो सतहों के बीच में रहकर नुकसान पहुंचाते हैं। ये शिशु सर्पाकार सुरंगों का निर्माण करते हैं। इन सफेद सुरंगों के कारण प्रकाश संश्लेषण की क्रिया प्रभावित होती है तथा फसल की पैदावार पर प्रतिकूल असर पड़ता है। वयस्क शिशु 8 से 12 दिनों बाद मृदा में गिरकर प्यूपा बनाते हैं। इनसे 8 से 10 दिनों बाद वयस्क निकल जाते हैं।

पर्ण खनिक कीट से ग्रसित पत्ती में सर्पाकार सुरंग

कटुआ कीट

यह कीट छोटे पौधों को काफी नुकसान पहुंचाता है। कटुआ कीट छोटे पौधों को रात के समय काटते हैं और कभी-कभी कटे हुए छोटे पौधों को जमीन के अंदर भी ले जाते हैं। एक मादा सफेद रंग के 1200-1900 अंडे देती हैं। इनमें से चार पांच दिनों बाद सूंडी बाहर निकलती है। इसकी सुंडियां गंदी सलेटी भूरे-काले रंग की होती हैं। ये दिन के समय मृदा में छुपी हुई रहती हैं। पौधरोपण के समय से ही ये पौधे को मृदा की धरातल के बराबर तने को काटकर खाती हैं। इसकी सुंडियां लगभग 40 दिनों तक सक्रिय रहती हैं। इसका प्यूपा भी जमीन के अंदर ही बनता है। इसमें से लगभग 15 दिनों में वयस्क पतंगा निकलता है। इस कीट का जीवनचक्र 30 से 60 दिनों में पूरा हो जाता हैं।

टमाटर के पत्तों पर कीट से बनी सुरंग [insect tunnel on tomato leaves]

 

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कटुआ कीट का प्रकोप

एकीकृत कीट प्रबंधन

  • क्षतिग्रस्त फलों को इकट्ठा करके नष्ट कर दें।
  • खेत में सफाई पर विशेश ध्यान दें।
  • खेतों में फसलचक्र को बढ़ावा दें।
  • गर्मियों में खेत की गहरी जुताई करें।
  • अण्डों को और समूह में रहने वाली सुंडियों को एकत्रित करके नष्ट कर देन चाहिए।
  • टमाटर की 16 पंक्तियों के बाद दो पंक्तियां गेंदे की लगाएं और गेंदे पर लगी सुंडियों को मारते रहें।
  • रात्रि के समय रोशनी ‘प्रकाश प्रपंच‘ का इस्तेमाल करना चहिए।
  • नर वयस्कों को पकड़ने के लिए ‘फेरोमोन प्रपंच‘ (रासायनिक) का इस्तेमाल भी उपयोगी है। एक एकड़ जमीन में चार से पांच ट्रैप लगाने चाहिए।
  • फूल आने पर बैसिल्स थुरिनजियंसिस वार कुर्सटाकी5 लीटर प्रति हैक्टर (70 मि.ली. 100 लीटर पानी में डइपैल 8 लीटर) का छिड़काव करें।
  • ट्राइकोग्रामा प्रेटियोसम के अंडो का 20,000 प्रति एकड़ चार बार प्रति सप्ताह की दर से खेतों में प्रयोग करें।
  • सफेद मक्खी और पर्ण खनिक को पकड़ने के लिए पीले रंग के चिपचिपे (गोंद लगे हुए) लगे हुए ट्रैप का इस्तेमाल करना चाहिए। प्रति 20 मीटर में एक ट्रैप लगा सकते हैं।
  • फल मक्खी के नर वयस्कों को पकड़ने के लिए क्युन्योर नामक आकर्षक या पालम ट्रैप का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। 10 ग्राम गुड़ अथवा चीनी का घोल और 2 मि.ली. मैलाथियान (50 ई.सी.) प्रति लीटर पानी में घोल कर छिडकाव करें। मिथाइल यूजीनॉल (40 मि.ली.) और मैलाथियान (20 मि.ली.) (2 मि.ली. प्रति लीटर पानी) के घोल को बोतलों में डालकर टमाटर के खेत में लटकाने से इस कीट को नियंत्रित किया जा सकता है।
  • अधिक प्रकोप होने पर क्विनालफॉस 20 प्रतिशत (1.5 मि.ली. प्रति लीटर पानी) या लैम्डा-साईहैलोथ्रिन (5 प्रतिशत ई.सी.) या इमिडाक्लोप्रिड5 मि.ली. प्रति लीटर पानी या ट्रायजोफॉस 1 मि.ली. प्रति लीटर पानी का छिड़काव करें।
  • खेत तैयार करते समय मृदा में क्लोरपाइरिफोस 20 ई.सी. 2 लीटर का 20 से 25 कि.ग्रा. रेत में मिलाकर प्रति हैक्टर खेत में अच्छी तरह मिला दें।
जानिए लौकी की उन्नत खेती कैसे करें

जानिए लौकी की उन्नत खेती कैसे करें

लौकी की खेती करके किसान अपनी दैनिक जरूरतों के लिए रोजाना के हिसाब से आमदनी कर सकता है.लौकी आम से लेकर खास सभी के लिए लाभप्रद है. ताजगी से भरपूर लौकी कद्दूवर्गीय में खास सब्जी है. इससे बहुत तरह के व्यंजन जैसे रायता, कोफ्ता, हलवा व खीर, जूस वगैरह बनाने के लिए भी इस्तेमाल करते हैं. आजकल मोटापा भी एक रोग बनकर उभर रहा है. इसके नियंत्रण के लिए भी लौकी का जूस पीने की सलाह दी जाती है बशर्ते यह पूरी तरह से आर्गेनिक उत्पादन हो. अगर किसी कीटनाशक या इंजेक्शन का प्रयोग करके इसे उगाया गया हो तो ये काफी नुकसान दायक हो जाती है. यह कब्ज को कम करने, पेट को साफ करने, खांसी या बलगम दूर करने में बहुत फायदेमंद है. इस के मुलायम फलों में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट व खनिजलवण के अलावा प्रचुर मात्रा में विटामिन पाए जाते हैं. लौकी की खेती पहाड़ी इलाकों से ले कर दक्षिण भारत के राज्यों तक की जाती है. निर्यात के लिहाज से सब्जियों में लौकी खास है.

लौकी उगाने का सही समय:

लौकी एक
कद्दूवर्गीय सब्जी है. इसकी खेती गांव में किसान कई तरह से करते हैं इसकी खेती अपने घर के प्रयोग के लिए माता और बहनें अपने बिटोड़े और बुर्जी पर लगा कर भी करती हैं. बाकी किसान इसको खेत में भी करते हैं. लौकी की फसल वर्ष में तीन बार उगाई जाती है. जायद, खरीफ और रबी में लौकी की फसल उगाई जाती है। इसकी बुवाई मध्य जनवरी, खरीफ मध्य जून से प्रथम जुलाई तक और रबी सितम्बर अन्त और प्रथम अक्टूबर में लौकी की खेती की जाती है। जायद की अगेती बुवाई के लिए मध्य जनवरी के लगभग लौकी की नर्सरी की जाती है. अगेती बुबाई से किसान भाइयों को अच्छा भाव मिल जाता है. लौकी उगाने का सही समय

मौसम और जलवायु:

इसके बीज को अंकुरित होने के लिए 20 डिग्री के आसपास तापमान की आवश्कयता होती है. बाकी इसके फल लगाने के लिए कोई भी सामान्य मौसम सही रहता है. अगर हम बात करें किसान के बुर्जी या बिटोड़े के फल की तो इसकी बुबाई पहली बारिश के बाद की जाती है जो की जून और जुलाई के महीने में होता है और इस पर फल सर्दियों में लगना शुरू होता है. बाकी इसको सभी सीजन में उगाया जा सकता है. बारिश के मौसम में अगर इसको कीड़ों से बचाना हो तो इसको जाल लगा कर जमीन से 5 फुट के ऊपर कर देना चाहिए. इससे मिटटी की वजह से फल खराब नहीं होते तथा इनका रंग भी चमकदार होता है. ये भी पढ़ें: तोरई की खेती में भरपूर पैसा

मिटटी की गुणवत्ता और खेत की तैयारी:

लौकी की फसल के लिए खेत में पुराणी फसल के जो अवशेष हैं उनको गहरी जुताई करके नीचे दबा देना चाहिए. इससे वो खरपतवार भी नहीं बनेंगें और खाद का भी काम करेंगें.इसको किसी भी तरह की मिटटी में उगाया जा सकता है लेकिन ध्यान रहे इसके खेत में पानी जमा नहीं होना चाहिए इससे इसकी फसल और फल दोनों ही ख़राब होते हैं. खेत से पानी निकासी की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए. और अगर संभव हो तो इसके खेत में गोबर की सड़ी हुई खाद कम से कम 50 से 60 कुंतल की हिसाब से मिला दें. इससे खेत को ज्यादा रासायनिक खाद पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा.इसकी तैयारी करते समय पलेवा के बाद इसकी जुताई ऐसे समय करें जबकि न तो खेत ज्यादा गीला हो और नहीं ज्यादा सूखा जिससे जुताई करते समय इसकी मिटटी भुरभुरी होकर फेल जाये. इसके बात इसमें हल्का पाटा लगा देना चाहिए जिससे की खेत समतल हो जाये और पानी रुकने की संभावना न हो. ये भी पढ़ें: अच्छे मुनाफे को तैयार करें बेलों की पौध

लौकी की कुछ उन्नत किस्में:

सामान्यतः हमारे देश में जिस फसल या सब्जी की किस्म बनाई जाती है वो किसी न किसी कृषि संस्थान द्वारा बनाई जाती है तथा वो संस्थान उस किस्म को अपने संस्थान के नाम से जोड़ देते हैं. जैसे नीचे दिए गए किस्मों के नाम इसी को दर्शाते हैं. नीचे दी गई पैदावार के आंकड़े स्थान, मौसम और जमीन की पैदावार आदि पर निर्भर करते हैं.

कोयम्बटूर‐१:

तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय, कोयंबटूर द्वारा उत्पादित यह किस्म उसी के नाम से भी जानी जाती है .यह जून व दिसम्बर में बोने के लिए उपयुक्त किस्म है, इसकी उपज 280 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है जो लवणीय क्षारीय और सीमांत मृदाओं में उगाने के लिए उपयुक्त होती हैं

अर्का बहार:

यह किस्म खरीफ और जायद दोनों मौसम में उगाने के लिए उपयुक्त है. बीज बोने के 120 दिन बाद फल की तुडाई की जा सकती है. इसकी उपज 400 से 450 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त की जा सकती है.

पूसा समर प्रोलिफिक राउन्ड:

इसको पूसा कृषि संस्थान द्वारा विकसित किया गया है. यह अगेती किस्म है. इसकी बेलों का बढ़वार अधिक और फैलने वाली होती हैं. फल गोल मुलायम /कच्चा होने पर 15 से 18 सेमी. तक के घेरे वाले होतें हैं, जों हल्के हरें रंग के होतें है. बसंत और ग्रीष्म दोंनों ऋतुओं के लिए उपयुक्त हैं.

पंजाब गोल:

इस किस्म के पौधे घनी शाखाओं वाले होते है. और यह अधिक फल देने वाली किस्म है. फल गोल, कोमल, और चमकीलें होंते हैं. इसे बसंत कालीन मौसम में लगा सकतें हैं. इसकी उपज 175 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है.

पुसा समर प्रोलेफिक लाग:

यह किस्म गर्मी और वर्षा दोनों ही मौसम में उगाने के लिए उपयुक्त रहती हैं. इसकी बेल की बढ़वार अच्छी होती हैं, इसमें फल अधिक संख्या में लगतें हैं. इसकी फल 40 से 45 सेंमी. लम्बें तथा 15 से 22 सेमी. घेरे वालें होते हैं, जो हल्के हरें रंग के होतें हैं. उपज 150 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

नरेंद्र रश्मि:

यह फैजाबाद में विकसित प्रजाती हैं. प्रति पौधा से औसतन 10‐12 फल प्राप्त होते है. फल बोतलनुमा और सकरी होती हैं, डन्ठल की तरफ गूदा सफेद औैर करीब 300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त होती है.

पूसा संदेश:

इसके फलों का औसतन वजन 600 ग्राम होता है एवं दोनों ऋतुओं में बोई जाती हैं. 60‐65 दिनों में फल देना शुरू हो जाता हैं और 300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है.

पूसा हाईब्रिड‐३:

फल हरे लंबे एवं सीधे होते है. फल आकर्षक हरे रंग एवं एक किलो वजन के होते है. दोंनों ऋतुओं में इसकी फसल ली जा सकती है. यह संकर किस्म 425 क्ंवटल प्रति हेक्टेयर की उपज देती है. फल 60‐65 दिनों में निकलनें लगतें है.

पूसा नवीन:

यह संकर किस्म है, फल सुडोल आकर्षक हरे रंग के होते है एवं औसतन उपज 400‐450 क्ंवटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है, यह उपयोगी व्यवसायिक किस्म है.

लौकी की फसल में लगने वाले कीड़े :

1 - लाल कीडा (रेड पम्पकिन बीटल):

उपाय: निंदाई गुडाई कर खेत को साफ रखना चाहिए. फसल कटाई के बाद खेतों की गहरी जुताई करना चाहिएए जिससे जमीन में छिपे हुए कीट तथा अण्डे ऊपर आकर सूर्य की गर्मी या चिडियों द्वारा नष्ट हो जायें.सुबह के समय जब ओस हो तब राख का छिड़काव करना चाहिए.

2 - फल मक्खी (फ्रूट फ्लाई):

क्षतिग्रस्त तथा नीचे गिरे हुए फलों को नष्ट कर देना चाहिए.सब्जियों के जो फल भूमी पर बढ़ रहें हो उन्हें समय समय पर पलटते रहना चाहिए.

लोकी में लगने वाले मुख्य रोग:

  • चुर्णी फफूंदी
  • उकठा (म्लानि)
टमाटर की खेती : अगस्त क्यों है टमाटर की खेती के लिए वरदान

टमाटर की खेती : अगस्त क्यों है टमाटर की खेती के लिए वरदान

बारिश में आम तौर पर खाने में सब्जियों के विकल्प कम हो जाते हैं। खास तौर पर टमाटर (Tomato) के भाव बारिश में अधिक रहने से किसानो के लिए बरसात में टमाटर की खेती (Barsaat Mein Tamatar Ki Kheti), मुनाफे का शत प्रतिशत सफल सौदा कही जा सकती है।

सड़ने गलने का खतरा

बारिश के दिनों में फसलों के सड़ने-गलने का खतरा रहता है। अल्प काल तक स्टोर किए जा सकने के कारण टोमैटो कल्टीवेशन (Tomato Cultivation) यानी टमाटर की खेती (tamaatar kee khetee) बारिश में और भी ज्यादा परेशानी का सौदा हो जाती है।



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ऐसे में सबसे अहम सवाल यह उठता है कि, बरसात में टमाटर की खेती कैसे करें (barsaat mein tamatar ki kheti kaise karen) या फिर बारिश के मौसम में टमाटर की खेती प्रारंभ करने का उचित समय क्या है, या फिर बरसाती टमाटर की खेती करते समय किन बातों का खास तौर पर ध्यान रखना चाहिए आदि, आदि। लेकिन याद रखें कि, अति बारिश की स्थिति में टमाटर की सुकुमार फसल के खराब होने का खतरा जरा ज्यादा बढ़ जाता है। हालांकि यह भी सत्य है कि, बरसात में टमाटर की खेती कठिन जरूर है, लेकिन असंभव कतई नहीं।

मेरीखेती पर करें टमाटर की खेती से सम्बंधित जिज्ञासा का समाधान

चिंता न करें मेरीखेती पर हम बताएंगे टमाटर की ऐसी किस्मों के बारे में, जिन्हें वैज्ञानिक तरीके से खास तौर पर बारिश में टमाटर की किसानी के लिए ईजाद किया गया है। साथ करेंगे आपकी सभी जिज्ञासाओं का समाधान भी।

बारिश में टमाटर की नर्सरी की तैयारी अहम

बारिश में टमाटर की खेती के लिए उसकी पौध तैयार करना किसान मित्रों के लिए सबसे अहम कारक है। टमाटर की पौध को प्रोट्रे या फिर सीधे खेत में तैयार किया जा सकता है। सीधे तौर पर खेत में टमाटर की पौध की तैयारी के वक्त, सबसे ज्यादा ध्यान रखने वाली बात यह है कि जहां टमाटर की नर्सरी बनाई जा रही है, वह भूमि बारिश के पानी में न डूबती हो। साथ ही इस स्थान पर कम से कम 4 घंटे तक धूप भी आती हो। टमाटर की पौध की तैयारी करने वाला स्थान, भूमि से यदि एक से दो फीट की ऊंचाई पर हो तो तेज या अति बारिश की स्थिति में भी टमाटर की पौध सुरक्षित रहती है।

टोमैटो नर्सरी की नापजोख का गणित

टोमैटो नर्सरी (Tomato Nursery) में क्यारियों का गणित सबसे अधिक अहम होता है। किसानों को क्यारी बनाते समय यह ध्यान रखना चाहिए, कि इनकी चौड़ाई 1 से 1.5 मीटर हो। इसकी लंबाई 3 मीटर तक हो सकती है। इस नापजोख की 4 से 6 क्यारियों की तैयारी के उपरांत बारी आती है टमाटर के बीजारोपण की।

टमाटर का बीजारोपण

टमाटर के बीजों के बीजारोपण के पहले कृषि वैज्ञानिक एवं अनुभवी किसान टमाटर बीजों को बाविस्टिन या थिरम से उपचारित करने की सलाह देते हैं।

टमाटर के पौधों की रोपाई में पानी की भूमिका

बीजारोपण के बाद नर्सरी एक महीने से लेकर 40 दिन में तैयार हो जाती है। नर्सरी में तैयार टमाटर की पौध को इच्छित भूमि में रोपने के 10 दिन पहले, नर्सरी में तैयार किए जा रहे टमाटर के पौधों को पानी देना बंद करने से टमाटर के पौधे तंदरुस्त एवं विकास के लिए पूरी तरह तैयार हो जाते हैं। इस विधि से टमाटर रोपने के कारण, रोपाई के बाद टमाटर के पौधों के सूखने का खतरा भी कम हो जाता है।

टमाटर की रोपाई के लिए अगस्त है खास

महीना अगस्त का चल रहा है, एवं यह समय किसानो के लिए टमाटर की खेती के लिए सबसे मुफीद माना जाता है। अगस्त में रोपाई करने के लिए किसान को जुलाई में टमाटर की नर्सरी तैयार करनी होती है। हालांकि, जुलाई में टमाटर की पौध तैयार करने से चूक जाने वाले किसान अगस्त में भी टमाटर की नर्सरी तैयार कर सकते हैं, क्योंकि भारत में बरसाती टमाटर की पैदावार के लिए सितंबर माह में भी टमाटर की पौध की रोपाई किसान करते हैं। हालांकि, ज्यादा मुनाफा हासिल करने के लिए कृषि वैज्ञानिक जुलाई में टमाटर की नर्सरी तैयार करने और अगस्त में रोपाई करने की सलाह देते हैं।



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टमाटर की खेती साल भर खास-खास

भारतीय रसोई में टमाटर की मांग साल भर बनी रहती है। दाल से लेकर सब्जी, सूप सभी में टमाटर अपनी रंगत एवं स्वाद से जायके का लुत्फ बढ़ा देता है। भारत में आम तौर पर टमाटर की खेती साल भर की जाती है। शरद यानी सर्दी के मौसम के लिए टमाटर की फसल की तैयारी हेतु किसान के लिए जुलाई से सितम्बर का मौसम खास होता है। इस कालखंड की फसल में किसान को टमाटर की पौध की बारिश से रक्षा करना अनिवार्य होता है। बसंत अर्थात गर्मी में टमाटर की पैदावार के लिए साल में नवम्बर से दिसम्बर का समय खास होता है। पहाड़ी इलाकों में मार्च से अप्रैल के दौरान भी टमाटर के बीजों को लगाया जा सकता है। जुलाई-अगस्त माह में रोपण आधारित टमाटर की खेती पर किसान को फरवरी से मार्च तक ध्यान देना होता है। इसी तरह नवंबर-दिसंबर में टमाटर रोपण आधारित किसानी मेें किसान जून-जुलाई तक व्यस्त रहता है।

एक हेक्टेयर का गणित

जीवांशयुक्त दोमट मिट्टी टमाटर की पौध के लिए सहायक होती है। मिट्टी की ऐसी गुणवत्ता वाले एक हेक्टेयर खेत में किसान टमाटर के 15 हजार पौधे लगाकर अपना मुनाफा पक्का कर सकता है।

देसी के बजाए संकर की सलाह

जुलाई के माह में तैयार की जाने वाली बारिश के टमाटर की खेती के लिए कृषि वैज्ञानिकों ने टमाटर की सहायक किस्में सुझाई हैं। जुलाई माह में टमाटर की बुवाई के इच्छुक किसानों को वैज्ञानिक, कुछ देसी को किस्मों से बचने की सलाह देते हैं। इन देसी किस्म के टमाटर के पौधों में बारिश के दौरान मौसमी प्रकोेप का असर देखा जाता है। कीट लगने या दागी फल ऊगने से किसान की कृषि आय भी प्रभावित हो सकती है।



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ऐसे में सलाहकार टमाटर की देसी किस्म के बजाए संकर प्रजाति के बीजों का इस्तेमाल करने की सलाह देते हैं। टमाटर के संकर प्रजाति के बीजों की खासियत यह है, कि यह बीज किसी भी तरह की जमीन पर पनपने में सक्षम होते हैं। साथ ही देसी प्रजाति के बजाए संकर किस्म की टमाटर की खेती किसान के लिए अनुकूल परिस्थितियों में फायदे का शत प्रतिशत सौदा साबित होती है।

टमाटर की कुछ खास प्रजातियां

भारत के किसान, कृषि भूमि की गुणवत्ता के लिहाज से अपने अनुभव के आधार पर, स्थानीय तौर पर प्रचलित किस्मों के टमाटर की खेती करते हैं। हालांकि, टमाटर की ऐसी कुछ किस्में प्रमुख हैं जिनकी भारत में मुख्य तौर पर खेती की जाती है।

टमाटर की कुछ संकर प्रजातियां :

  • पूसा सदाबहार
  • स्वर्ण लालिमा
  • स्वर्ण नवीन
  • स्वर्ण वैभव (संकर)
  • स्वर्ण समृद्धि (संकर)
  • स्वर्ण सम्पदा (संकर)

टमाटर की कुछ खास उन्नत देसी किस्में :

  • पूसा शीतल
  • पूसा-120
  • पूसा रूबी
  • पूसा गौरव
  • अर्का विकास
  • अर्का सौरभ
  • सोनाली

हाइब्रिड टोमैटो (Hybrid Tomato) की खासे प्रचलित किस्में :

  • पूसा हाइब्रिड-1
  • पूसा हाइब्रिड-2
  • पूसा हाइब्रिड-4
  • रश्मि और अविनाश-2
  • अभिलाष
  • नामधारी इत्यादि

बरसाती टमाटर की प्रचलित किस्म

बरसाती टमाटर की उमदा किस्मों की बात करें तो बारिश में अभिलाष टमाटर के बीज बोने की सलाह कृषि विशेषज्ञ एवं सलाहकार देते हैं। इसकी वजह, इसकी कम लागत में होने वाली अधिक पैदावार बताई जाती है। बारिश के टमाटर की उम्मीद से अधिक पैदावार के लिए जुलाई से लेकर सितंबर तक अभिलाष टमाटर के बीज रोपकर नर्सरी तैयार करने की सलाह दी जाती है।

अभिलाष किस्म की खासियत

कम लागत में किसान की भरपूर कमाई की अभिलाषा पूरी करने वाला, अभिलाष किस्म का टमाटर कई खूबियों से भरपूर है। बरसाती टमाटर की खेती के लिए अभिलाष टमाटर का बीज उपयुक्त माना गया है। इस प्रजाति का टमाटर भारत के विभिन्न राज्यों में रबी, खरीफ दोनों सीजन में उगाया जाता है। इस संकर प्रजाति के बीज की खासियत यह भी है कि, इसके पौधे में पनपने वाले फल आकार में एक समान होते हैं। अपने जीवन के अंतिम वक्त तक समान आकार के टमाटर उगाने में सक्षम, अभिलाष प्रजाति के टमाटर के बीज से किसान को बारिश में भी टमाटर की अच्छी पैदावार प्राप्त होती है।



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बाजार में मिलने वाले अभिलाष टमाटर बीज की दर 50 से 60 ग्राम प्रति एकड़ मानी जाती है। इससे हासिल टमाटर के फल का रंग आकर्षक लाल तथा आकार गोल होता है। दी गई जानकारी के अनुसार, नर्सरी की तैयारी से लेकर 65 से 70 दिनों के समय काल में अभिलाष प्रजाति के टमाटर की पहली तुड़ाई संभव हो जाती है। वजन की बात करें, तो इस प्रजाति के टमाटर के फलों का औसत वजन अनुकूल परिस्थितियों में 75 से 85 ग्राम अनुमानित है।

अभिलाष टमाटर की खेती का इन राज्यों में प्रचलन

अभिलाष प्रजाति के टमाटर की खेती मूल रूप से राजस्थान, हरियाणा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल, पंजाब, बिहार, मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र राज्य के किसान करते हैं।

जानिये कम लागत वाली मक्का की इन फसलों को, जो दूध के जितनी पोषक तत्वों से हैं भरपूर

जानिये कम लागत वाली मक्का की इन फसलों को, जो दूध के जितनी पोषक तत्वों से हैं भरपूर

जी हां बात बिलकुल सही है, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (ICAR) के भाकृअनुप-विवेकानन्द पर्वतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, अल्मोड़ा (ICAR-Vivekananda Parvatiya Krishi Anusandhan Sansthan, Almora) ने यह उपलब्धि हासिल की है। संस्थान ने बायो-फोर्टिफाईड मक्का (Maize) की नई किस्में जारी की हैं, जो पोषक तत्वों से भरपूर हैं। अपने पोषक तत्वों के कारण मक्का की यह नई किस्में अन्य प्रचलित किस्मों से बहुत भिन्न हैं।

अंतर के कारण

मक्का की चलन में उगाई जाने वाली दूसरी किस्मों में अमीनो अम्ल (amino acid) मुख्य तौर पर प्रोटीन ( पोषक तत्व ) जैसे ट्रिप्टोफैन व लाइसीन की कमी होती है। विवेकानन्द पर्वतीय कृषि अनुसंधान संस्थान ने पारंपरिक एवं सहायक चयन विधि के माध्यम से इस कमी को पूरा किया है।

ग्लास फुल दूध जितना हेल्दी !

संस्थान ने गुणवत्ता युक्त प्रोटीन से लैस मक्का की इन खास किस्मों में विशिष्ट अमीनो अम्ल की मात्रा में सुधार किया है। इन विकसित किस्मों में इसकी मात्रा सामान्य मक्का से 30-40 फीसदी तक ज्यादा है। मतलब उन्नत प्रजाति के मक्के में पोषण की मात्रा लगभग स्वस्थ जीव के दूध के बराबर है!

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क्यूपीएम प्रजाति (QPM - Quality protein maize)

विवेकानन्द कृषि अनुसंधान संस्थान अल्मोड़ा ने मक्के के जिन खास किस्मों को विकसित किया है, उनको समितियों का भी अनुमोदन मिला है। संस्थान में विकसित की गई एक क्यूपीएम प्रजाति को केंद्रीय प्रजाति विमोचन समिति ने उत्तर पश्चिमी तथा उत्तर पूर्वी पर्वतीय क्षेत्रों, जबकि दो क्यूपीएम प्रजातियों को राज्य बीज विमोचन समिति ने जारी किया है। उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों की जैविक दशाओं को ध्यान में रखकर अप्रैल '2022 में इन्हें जारी किया गया था।

मक्का कार्यशाला के परिणाम :

कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा विकसित प्रजातियों में शामिल, वीएल क्यूपीएम हाइब्रिड 45 मक्का प्रजाति (VL QPM Hybrid 45 Makka) की पहचान अप्रैल 2022 में हुई थी। दी गई जानकारी के अनुसार, 65वीं वार्षिक मक्का कार्यशाला में इन्हें तैयार किया गया।

इन प्रदेशों की जलवायु का ध्यान :

उत्तर पश्चिमी पर्वतीय अंचल (जम्मू व कश्मीर, हिमाचल प्रदेश व उत्तराखंड) एवं उत्तर पूर्वी पर्वतीय क्षेत्र खास तौर पर असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड, सिक्किम व त्रिपुरा की जलवायु के हिसाब से इनको तैयार किया गया था।

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बीमारियों से लड़ने में कारगर :

संस्थान की इस प्रजाति में टर्सिकम व मेडिस पर्ण झुलसा तरह की बीमारियों के लिए मध्यम प्रतिरोधकता भी है।

अगेती की प्रकृति वाली प्रजाति

वीएल क्यूपीएम हाइब्रिड 61 (VL QPM Hybrid 61) अगेती यानी जल्द मुनाफा देने वाली प्रजाति है, जो 85 से 90 दिन में तैयार हो जाती है।

परीक्षणों के परिणाम

जांच परीक्षणों की बात करें तो राज्य-स्तरीय समन्वित परीक्षणों में इसके बेहतर परिणाम मिले हैं। जांच में इसकी औसत उपज लगभग साढ़े चार हजार किलोग्राम है, जिसमेें ट्रिप्टोफैन, लाइसीन व प्रोटीन की मात्रा क्रमश: 0.76, 3.30 व 9.16 प्रतिशत है। तो किसान भाई, आप भी हो जाएं तैयार, दुग्ध जितने पोषण से लैस, कम लागत वाली मक्के की इन फसलों से हेल्दी मुनाफा कमाने के लिए !
केन्या के किसानों ने कृषि समस्याओं का समाधान निकाला, भारत को भी सीखना चाहिए

केन्या के किसानों ने कृषि समस्याओं का समाधान निकाला, भारत को भी सीखना चाहिए

केन्या के किसानों द्वारा फसल चक्र अपनाकर देसी किस्मों की फसलों की और रुख किया है। देसी किस्मों से पैदावार वृद्धि हेतु केन्या की जलवायु, पक्षी एवं मित्र कीट भी अपनी सहायक भूमिका निभायेंगे। आज पूरा विश्व कृषि क्षेत्र में विभिन्न प्रकार के संकटों से झूझ रहा है, जैसे कि अप्रत्याशित अत्यधिक बारिश, कीट व फसल रोग संक्रमण और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं से पैदावार बहुत प्रभावित होती है। भारत का भी यही हाल है, परंतु आपको बतादें कि केन्या के किसानों द्वारा प्राकृतिक आपदाओं से निपटने हेतु देसी एवं स्थानीय फसलों की खेती का चयन किया है। संयुक्त राष्ट्र (UN) व विश्व बैंक द्वारा विभिन्न रिपोर्ट्स में जलवायु परिवर्तन की वजह से खाद्य परेशानियों में बढ़ोत्तरी एवं उत्पादन में घटोत्तरी की समस्या के बारे में बताया है। परंतु केन्या के कृषकों ने जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से बचने हेतु कंदों की खेती, देसी फसल और पत्तेदार सब्जियों की खेती की ओर रुख किया है। केन्या के लघु व सीमान्त कृषकों को इस परिवर्तन से बेहतर परिणाम प्राप्त हो रहा है।


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भारतीय किसानों द्वारा भी अब देसी किस्मों की खेती की तरफ कदम बढ़ाया जा रहा है। देशी किस्मों पर किसी आपदा का दुष्प्रभाव नहीं पड़ता ना ही सूखे की चिंता ना ही कीट व रोगों का डर। जलवायु परिवर्तन व समय की मांग के अनुसार देसी किस्मों की फसल का चयन ही अच्छा विकल्प है। साथ ही, उगाये गए बीज को बेचने की अपेक्षा बचाकर के ही पुनः बुवाई करके बीज के व्यय से भी बचा जा सकता है। क्योंकि हाइब्रिड बीज का केवल एक ही बार उपयोग होता है और अत्यंत महँगे भी होते हैं। इन्ही सब वजहों से केन्या की विभिन्न एनजीओ ने देसी किस्मों के बीजों का चयन के साथ साथ भण्डारण व प्रबंधन भी करने लगे हैं।

कौन से किसान देसी किस्म की खेती करते हैं

मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार केन्या में अब छोटे किसानों ने खेती हेतु 80% तक देसी बीजों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है, दरअसल कई किसानों को बीजों की उपलब्धता एवं उन्हें पुनः एकत्रित करने हेतु काफी समस्या का सामना करना पड़ता है। यूनेस्को द्वारा देसी खाद्य पदार्थों को सांस्कृतिक विरासत के रूप में मान्यता दी है, जो कि केन्याई कृषकों की सराहनीय पहल की वजह से प्राप्त हुई। केन्या के किसानों की इन्ही सकारात्मक पहल व कोशिशों की वजह से सरकार भी सहयोग करने के लिए तैयार हो गयी है। देसी किस्मों की फसल से देश की खाद्य आपूर्ति की समस्या दूर होने के साथ ही इन किस्मों का प्रयोग भी काफी हद तक बढ़ेगा।


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भारत को भी देसी किस्मों की खेती की ओर ध्यान देना चाहिए

वर्तमान में भारत एक बड़े खाद्य आपूर्तिकर्ता के रूप में अहम भूमिका निभा रहा है। सरकार द्वारा भारत में फिलहाल जैविक कृषि एवं प्राकृतिक खेती हेतु प्रोत्साहन दिया जा रहा है, परंतु देसी किस्मों के स्थान पर अब हाइब्रिड किस्मों का प्रयोग हो रहा है। हालाँकि भारत में ऐसी संस्थाएं एवं किसान आज भी है, जो वैज्ञानिक कृषि के अतिरिक्त देसी किस्मों को संजोये हुए हैं। वर्तमान में भी अधिकाँश गांवों में देसी किस्मों के जरिये कृषि होती है, एवं बीजों को आगामी फसलों हेतु बचा कर रखा जाता है। दरअसल, देसी बीज बैंकों की आज भी कमी है अधिकाँश देसी किस्में बिल्कुल गायब हो चुकी हैं, लेकिन कुछ किस्में बैंक में सुरक्षित रखी हैं। मौसमिक बदलाव से भारत के किसान भी काफी प्रभावित हैं।
देसी और हाइब्रिड टमाटर में क्या हैं अंतर, जाने क्यों बढ़ रही है देसी टमाटर की मांग

देसी और हाइब्रिड टमाटर में क्या हैं अंतर, जाने क्यों बढ़ रही है देसी टमाटर की मांग

आजकल हम भले ही किसी ठेले से
सब्जियां खरीद रहे हों या फिर किसी वेबसाइट के माध्यम से ऑनलाइन सब्जियों की डिलीवरी करवाना चाहते हैं। दोनों ही जगह हमें दो तरह के टमाटर देखने को मिलते हैं। हमें हाइब्रिड और देसी दो तरह के टमाटर का विकल्प मिलता है, यह दोनों हैं तो टमाटर ही फिर इन दोनों में क्या अंतर है?

अगर मांग की बात करें तो देसी टमाटर आजकल ज्यादा पसंद किए जाते हैं।

क्या है देसी और हाइब्रिड टमाटर में अंतर

टमाटर किसी भी सब्जी के स्वाद में चार चांद लगा देते हैं, इसके अलावा सूप आदि में भी टमाटर बहुत पसंद किया जाता है। ऐसे में हमें जानने की जरूरत है, कि देसी और हाइब्रिड टमाटर में आखिर अंतर क्या है। दोनों हैं तो टमाटर ही लेकिन आपकी जानकारी के लिए बता दें कि इन दोनों ही किस्म में जमीन आसमान का अंतर है। अगर आप देसी टमाटर की पहचान करना चाहते हैं, तो आप उसके रंग से उसकी पहचान कर सकते हैं। यह टमाटर एकदम लाल नहीं होता है, बल्कि हल्का पीला और हरा सा नजर आता है। कभी कभी देखने में लगता है, कि जैसे टमाटर पका हुआ नहीं है, लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है, यह टमाटर सब्जी को या किसी भी देश को एक हल्का खट्टा मीठा टेस्ट देता है और यह रस से भरा हुआ होता है। साथ ही यह काफी पौष्टिक भी माना जाता है।


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वहीं पर हाइब्रिड टमाटर बड़े बड़े आकार के होते हैं और एकदम टाइट होते हैं। इनका रंग सुर्ख लाल होता है और इन को दबाने पर ऐसा लगता है, जैसे इनमें कोई रस नहीं है। अगर स्वास्थ्य की दृष्टि से देखा जाए तो यह टमाटर ज्यादा अच्छा नहीं माना जाता है। यह लंबे समय तक चल तो जाते हैं, लेकिन इनके ऊपर का छिलका आदि सख्त होने के कारण यह स्वास्थ्य को कई तरह की हानियां पहुंचा सकते हैं।

क्यों है देसी टमाटर ज्यादा मांग में

अगर देसी और हाइब्रिड दोनों तरह के टमाटर की तुलना की जाए तो आजकल देसी टमाटर ज्यादा डिमांड में है पर इसका कारण है।
  • देसी टमाटर हाइब्रिड टमाटर के मुकाबले ज्यादा अच्छा स्वाद देते हैं, इनमें रस होता है जो किसी भी डिश में चार चांद लगा देता है।
  • देसी टमाटर हाइब्रिड टमाटर के मुकाबले स्वास्थ्य के लिए ज्यादा लाभकारी होते हैं और डॉक्टर आदि भी आजकल देसी या ऑर्गेनिक टमाटर खाने की ही सलाह देते हैं।
  • देसी टमाटर की कीमत हाइब्रिड टमाटर से कम होती है, तो ऐसे में अगर लोगों को सस्ते में अच्छी चीज मिलेगी तो उसकी डिमांड बढ़ना लाजमी है।

भारत में मिलने वाली देसी टमाटर की नस्ल

काशी अमृत, काशी विशेष, काशी हेमंत, काशी शरद, काशी अनुपम और काशी अभिमा, ये 6 तरह की किस्म भारत में काफी लोकप्रिय हैं।


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छत्तीसगढ़, ओड़िसा, आंध्रप्रदेश और एमपी के किसान काशी हेमंत को उगाना पसंद करते हैं। वहीं, पहाड़ी क्षेत्रों में किसानों की पहली पसंद काशी शरद है। जबकि, गरम जलवायु के क्षेत्र माने जाने वाले हरियाणा, राजस्थान और गुजरात के किसान काशी अनुपम को अपनी पहली पसंद मानते हैं। काशी विशेष टमाटर एक ऐसी किस्म है, जो हर जगह उगाई जा सकती है।