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अरुगुला की खेती की जानकारी | How To Grow Arugula (Rocket Leaves) In Hindi

अरुगुला की खेती की जानकारी | How To Grow Arugula (Rocket Leaves) In Hindi

पिछले कुछ वर्षों से भारतीय कृषि क्षेत्र में भी विविध प्रकार से कृषि पालन किया जा रहा है। इस विविधता के पीछे सरकार की कुछ बेहतरीन नीतियां और युवा किसानों का कृषि क्षेत्र में निरंतर विश्वास, आने वाले समय में भारतीय कृषि को तकनीक और उत्पादन के स्तर पर विश्व में सर्वश्रेष्ठ बनाने में सहायक हो सकता है।

क्या है अरुगुला ?

अरुगुला या आर्गुला (
Arugula) एक प्रकार की सलाद होती है, जिसे भारत के अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है। हालांकि कुछ युवा और संपन्न किसानों को छोड़कर इस सलाद की फसल का उत्पादन बहुत ही कम क्षेत्रों और कम किसानों के द्वारा किया जाता है। इसे रॉकेट सलाद (Rocket (Eruca vesicaria)), भूमध्यसागरीय सलाद (Mediterranean Salad) और गारघिर (Gargeer) के नाम से भी जाना जाता है। वर्तमान में जिम के माध्यम से बॉडीबिल्डिंग करने वाले युवाओं में इस सलाद का सेवन काफी लोकप्रिय हो रहा है। अरुगुला सलाद की मदद से शरीर में कई सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी की पूर्ति तो होती ही है, साथ ही इसमें पाए जाने वाले प्रोटीन तथा आयरन के गुण स्वास्थ्य प्रेमियों की शारीरिक आवश्यकताओं की मांग को पूरी करने के लिए पर्याप्त होते है। भारत के उत्तरी पूर्वी राज्यों में इसका उत्पादन अक्टूबर महीने के अंतिम सप्ताह में शुरू किया जाता है, क्योंकि इस फसल के लिए 10 डिग्री से 25 डिग्री सेंटीग्रेड के मध्य तापमान की आवश्यकता होती है, इसीलिए दक्षिणी और तटीय राज्यों में अरुगुला की उत्पादकता काफी कम देखने को मिलती है। पिछले कुछ समय से राजस्थान, पंजाब तथा हरियाणा इस सलाद के उत्पादन में सबसे बड़े उत्पादक के रूप में उभर कर सामने आए है। पंजाब में उत्पादित होने वाली अरुगुला सलाद की मांग अमेरिका तथा कनाडा की कई मल्टिनैशनल कम्पनियों में लगातार बढ़ती जा रही है।

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अरुगुला उत्पादन के लिए सर्वश्रेष्ठ मृदा :

वैसे तो इस सलाद का उत्पादन अलग-अलग प्रकार की मृदा में किया जा सकता है, लेकिन दोमट और बलुई दोमट मिट्टी में इसकी उत्पादकता सर्वश्रेष्ठ प्राप्त होती है। साथ ही किसान भाई ध्यान रखें कि बेहतरीन सिंचाई के साथ तैयार की हुई मिट्टी, इस फसल में लगने वाले रोगों की प्रभाविकता को काफी कम कर सकती है। अरुगुला की बुवाई करने से पहले किसान सेवा केंद्र के वैज्ञानिकों की मदद से अपने खेत की मिट्टी की अम्लीयता की जांच जरूर करवाएं, क्योंकि सलाद के उत्पादन के लिए मिट्टी की पीएच का मान 6 से लेकर 7 के बीच में होना चाहिए ,अधिक क्षारीयता वाली मिट्टी इसके उत्पादकता को बहुत ही कम कर सकती है। इस फसल की एक और खास बात यह है कि यह पाले जैसी स्थिति को आसानी से झेल सकती है, लेकिन अधिक धूप पड़ने पर इसके पत्ते सूख जाते है। कई किसान भाई इस सलाद के उत्पादन के दौरान, उसे ढकने के लिए इस्तेमाल में होने वाले कवर और अधिक गर्मी से बचाने के लिए बेहतरीन सिंचाई की व्यवस्था पर पूरा ध्यान देते है।

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अरुगुला सलाद की अलग-अलग किस्म :

वर्तमान में कृषि वैज्ञानिकों के द्वारा तैयार की गई अरुगुला सलाद की हाइब्रिड किस्में भारतीय किसानों के बीच काफी लोकप्रिय हो रही है। इन्हीं कुछ किस्मों में से एस्ट्रो (Astro), रेड ड्रैगन (Red Dragon), रॉकेट तथा स्लो बोल्ट(Slow Bolt) और वसाबी जैसी किस्में शंकर विधि से तैयार की गई है। इसी वजह से ऊपर बताई गई सभी किस्में जलवायु में होने वाले सामान्य परिवर्तन को आसानी से झेल सकती है और मौसम में आने वाले उतार-चढ़ाव के दौरान भी बेहतर उत्पादन कर सकती है। हरियाणा और पंजाब के क्षेत्रों में रेड ड्रैगन तथा वसाबी किस्म की सलाद का उत्पादन सर्वाधिक किया जाता है। अंतरराष्ट्रीय मार्केट में स्लो बोल्ट किस्म की बढ़ती मांग की वजह से जम्मू कश्मीर और हिमाचल प्रदेश के कुछ सम्पन्न किसानों के द्वारा इसका उत्पादन भी बड़े स्तर पर शुरू कर दिया गया है। अरुगुला सलाद की एक खास बात यह भी है कि इसकी लगभग सभी प्रकार की किस्में 40 से 50 दिन में पूरी तरीके से तैयार की जा सकती है।

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कैसे करें बीज उपचार और बुवाई :

अरुगुला सलाद के बीजों में कीटनाशी काफी जल्दी प्रभाव पैदा कर सकते है, इसीलिए इसे इन्हें बोने से पहले बीज उपचार करना आवश्यक हो जाता है। अपने खेत में इन बीजों को बोने से पहले पूरी तरीके से जर्मिनेट (Germinate) कर लें। वर्तमान में कई बड़े किसानों के द्वारा इन बीजों को एक मशीन में डालकर इन्हें मोटे दानों के रूप में बदल दिया जाता है, इस विधि को पेलेटाइज़िंग (Pelletizing) कहते है, इसके बाद इन बीजों की बुवाई करने पर इनमें कीटनाशी और कवक जैसी बीमारी फैलने का खतरा बहुत ही कम हो जाता है। अरुगुला की खेती के लिए मुख्यतया, अंतराल कृषि विधि को अपनाया जाता है, इसे स्टैगर्ड प्लांटिंग (Staggered Planting) भी कहते है। इस विधि में पौधे के बीजों की एक साथ बुवाई करने के स्थान पर, एक से दो सप्ताह के अंतराल पर लगातार बोया जाता है और इन बीजों को बोते समय दो पंक्तियों के मध्य की दूरी 12 से 15 इंच रखनी होती है, साथ ही दो छोटी पौध के बीच की दूरी कम से कम 6 इंच होनी चाहिए। पौध के बीच में सीमित दूरी रखने से मृदा कुपोषण और एक पौधे से दूसरे पौधे में फैलने वाली बीमारियों की दर को कम किया जा सकता है।

कौनसे उर्वरकों का करें इस्तेमाल :

किसान भाई यह बात तो जानते ही है कि जैविक उर्वरक किन्हीं भी प्रकार के रासायनिक उर्वरकों से सर्वश्रेष्ठ होते है। यदि आप भी कृषि कार्यों की अतिरिक्त पशुपालन करते है,तो वहां से प्राप्त जैविक खाद का इस्तेमाल उर्वरक के तौर पर कर सकते है। इसके अलावा कुछ सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी को दूर करने के लिए फसल के उगते समय ही नाइट्रोजन का 50 ग्राम प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करना उपयुक्त रहता है। साथ ही फास्फोरस और पोटेशियम जैसे रासायनिक उर्वरकों की मदद से इस फसल की जड़ों में होने वाली बीमारियों को कम करने के साथ ही वृद्धि दर को काफी तेज किया जा सकता है। अरुगुला की पौध लगने से पहले ही खेत की मिट्टी में वैज्ञानिकों के द्वारा सुझाई गई सल्फर की सीमित मात्रा का छिड़काव मिट्टी की उर्वरता को बढ़ाने में सहायक होता है।

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कैसे करें उपयुक्त सिंचाई :

अरुगुला जैसी सलाद वाली फसल को पानी की नियमित स्तर पर आवश्यकता होती है, क्योंकि इस फसल की जड़े बहुत ही जल्दी पानी को सोख लेती है। अलग अलग मौसम के अनुसार लगभग 8 से 10 इंच पानी की आवश्यकता पौधे के अंकुरित होने से लेकर लगभग 50 दिन तक जरूरी होती है। हल्की और बलुई मिट्टी और अधिक पानी की मांग भी कर सकती है, इसीलिए आप अपने खेत की मिट्टी की वैरायटी के अनुसार पानी की मात्रा निर्धारित कर सकते है।

अरुगुला सलाद में लगने वाली बीमारियां और उनका उपचार :

वैसे तो एक सलाद की फसल होने की वजह से इस फसल की रोगाणुनासक क्षमता सर्वश्रेष्ठ होती है, परंतु फिर भी भारत की मिट्टियों में कई प्रकार के पोषक तत्वों की कमी की वजह से अरुगुला जैसे सलाद में भी कई रोग लग सकते है जैसे कि :
  • बेक्टेरिया ब्लाइट ( Bacterial Blight ) :

बैक्टीरिया की वजह से होने वाले इस रोग में पौधे की पत्तियां भूरे रंग की हो जाती है और थोड़े दिन बाद इनका रंग पीला पड़ने लगता है। मुख्यतः यह समस्या तब होती है जब रात और दिन के तापमान में अंतराल काफी अधिक हो जाता है। इस रोग से बचने के लिए अरुगुला के बीजों का सही तरह से उपचार करके ही बुवाई करनी चाहिए। बीजों को बोने से पहले उन्हें एक दिन तक गर्म पानी में डालकर रखना चाहिए, साथ ही आप अपने खेत में रूपांतरित कृषि विधि का प्रयोग भी कर सकते हैं, इस विधि में एक बार एक जगह पर एक फसल उगाने के बाद अगले सीजन में उस जगह पर दूसरी फसल का उत्पादन किया जाता है। साथियों बाजार में बिकने वाले कई एंटीबैक्टीरियल रसायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल भी किया जा सकता है।
  • कोमल फफूंद रोग :

इस रोग में पौधे की पत्तियां फंगस का शिकार हो जाती है और पती के ऊपरी हिस्से तथा उनके तलवे में सफेद रंग का फफूंद लगना शुरू हो जाता है। धीरे-धीरे यह फफूंद पौधे की पतियों को बीच में से काट कर खोखला बना देता है, जिससे फसल की उत्पादकता काफी कम हो जाती है। इस रोग से बचने के लिए दो पौधों के बीच की जगह पर्याप्त होनी चाहिए, साथ ही निराई गुड़ाई कर पौधे के आसपास उगने वाले खरपतवार को निरंतर समय पर हटाते रहना होगा। मृदा और मौसम में ज्यादा नमी की वजह से भी यह रोग आसानी से फैलता है, इसलिए नमी को कम करने के लिए खेत को हवादार बनाने के लिए उचित प्रबंधन किया जाना चाहिए। आशा करते है कि Merikheti.com के द्वारा दी गई इस जानकारी के माध्यम से, किसान भाइयों को एक नई और अच्छा उत्पादन देने वाली फसल के बारे में पता लगा होगा और भविष्य में आप भी अपने खेत में बेहतरीन वैज्ञानिक विधि की मदद से अरुगुला की खेती कर अच्छा मुनाफा कमा पाएंगे।
परती खेत में करें इन सब्जियों की बुवाई, होगी अच्छी कमाई

परती खेत में करें इन सब्जियों की बुवाई, होगी अच्छी कमाई

सितंबर महीने में अपने परती पड़े खेत में करें इन फली या सब्जियों की बुवाई

भारत के खेतों में मानसून की शुरुआत में बोयी गयी
खरीफ की फसलों को अक्टूबर महीने की शुरुआत में काटना शुरू कर दिया जाता है, पर यदि किसी कारणवश आपने खरीफ की फसल की बुवाई नहीं की है और जुलाई या अगस्त महीने के बीत जाने के बाद सितंबर में किसी फसल के उत्पादन के बारे में सोच रहे हैं, तो आप कुछ फसलों का उत्पादन कर सकते है, जिन्हें मुख्यतः सब्जी के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।

मानसून में बदलाव :

सितंबर महीने के पहले या दूसरे सप्ताह में भारत के लगभग सभी हिस्सों से मानसून लौटना शुरू हो जाता है और इसके बाद मौसम ज्यादा गर्म भी नहीं रहता और ना ही ज्यादा ठंडा रहता है। इस मौसम में किसी भी सीमित पानी की आवश्यकता वाली फसल की पौध को वृद्धि करने के लिए एक बहुत ही अच्छी जलवायु मिल सकती है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) के द्वारा जारी की गई एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में इस्तेमाल आने वाली सब्जियों की बुवाई मुख्यतः अगस्त महीने के अंतिम सप्ताह या फिर सितंबर में की जाती है।

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भारत मौसम विज्ञान विभाग ने दी किसानों को सलाह, कैसे करें मानसून में फसलों और जानवरों की देखभाल कृषि क्षेत्र से जुड़ी इसी संस्थान की एडवाइजरी के अनुसार, भारत के किसान नीचे बताइए गई किसी भी फली या सब्जियों का उत्पादन कर सितंबर महीने में भी अपने परती पड़े खेत से अच्छा उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं।
  • मटर की खेती

 15 से 30 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान में के साथ 400 मिलीमीटर की बारिश में तैयार होने वाली यह सब्जी दोमट और बलुई दोमट मिट्टी में उगाई जा सकती है। मानसून के समय अच्छी तरीके से पानी मिली हुई मिट्टी इसके उत्पादन को काफी बढ़ा सकती है।अपने खेत में दो से तीन बार जुताई करने के बाद इसके बीज को जमीन से 2 से 3 सेंटीमीटर के अंदर दबाकर उगाया जा सकता है।
मटर की खेती से संबंधित पूरी जानकारी और बीमारियों से इलाज के लिए यह भी देखें : जानिए मटर की बुआई और देखभाल कैसे करें
  • पालक की खेती

वर्तमान में उत्तरी भारत में पालक के लगभग सभी किसानों के द्वारा हाइब्रिड यानी कि संकर बीज का इस्तेमाल किया जाता है। 40 से 50 दिन में पूरी तरह से तैयार होने वाली यह सब्जी किसी भी प्रकार की मिट्टी में आसानी से उगाई जा सकती है, हालांकि इसकी पौध लगाने से पहले किसानों को मिट्टी की अम्लता की जांच जरूर कर लेनी चाहिए। 25 से 30 डिग्री सेंटीग्रेड के मध्य बेहतर उत्पादन देने वाली यह सब्जी पतझड़ के मौसम में सर्वाधिक वृद्धि दिखाती है। प्रति हेक्टेयर 20 से 30 किलोग्राम बीज की मात्रा से बुवाई करने के तुरंत बाद खेत की सिंचाई कर देनी चाहिए।
पालक की खेती के दौरान खेत को तैयार करने की विधि और इस फसल में लगने वाले रोगों से निदान के बारे में 
संपूर्ण जानकारी प्राप्त करने के लिए, यह भी देखें : पालक की खेती की सम्पूर्ण जानकारी
  • पत्ता गोभी की खेती

सितंबर महीने के पहले या दूसरे सप्ताह में शुरुआत में नर्सरी में पौध उगाकर 20 से 40 दिन में खेत में पौध को स्थानांतरित कर उगायी जा सकने वाली यह सब्जी भारत में लगभग पूरे वर्ष भर इस्तेमाल की जाती है। 70 से 80 दिनों के अंतर्गत पूरी तरह तैयार होने वाली यह फसल पोषक तत्वों से भरपूर और अच्छी सिंचाई वाली मिट्टी में आसानी से बेहतरीन उत्पादकता प्रदान कर सकती है। ड्रिप सिंचाई विधि तथा उर्वरकों के सीमित इस्तेमाल से इस फसल की पत्तियों की ग्रोथ काफी तेजी से बढ़ती है। 15 से 30 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान में तैयार होने वाली यह सब्जी की फसल जब तक कुछ पत्तियां नहीं निकालती है, अच्छी मात्रा में पानी की मांग करती है। इस फसल की खास बात यह है कि इससे बहुत ही कम जगह में अधिक पैदावार की जा सकती है, क्योंकि इसके दो पौध के मध्य की दूरी 30 सेंटीमीटर तक रखनी होती है, इस वजह से एक हेक्टेयर में लगभग 20 हज़ार से 40 हज़ार छोटी पौध लगायी जा सकती है।
पत्ता गोभी फसल तैयार करने की संपूर्ण जानकारी और इसकी वृद्धि के दौरान होने वाले रोगों के निदान के लिए,
यह भी देखें : पत्ता गोभी की खेती की सम्पूर्ण जानकारी
  • बैंगन की खेती

भारत में अलग-अलग नामों से उगाई जाने वाली यह सब्जी 15 से 25 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान के मध्य अच्छी उत्पादकता प्रदान करती है। हालांकि, इस सब्जी की खेती खरीफ और रबी की फसल के अलावा पतझड़ के समय भी की जाती है। अलग-अलग प्रकार की मिट्टी में उगने वाली यह फसल अम्लीय मिट्टी में सर्वाधिक प्रभावी साबित होती है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के अनुसार एक हेक्टेयर क्षेत्र में बैंगन उत्पादित करने के लिए लगभग 400 से 500 ग्राम बीज की आवश्यकता होती है। इन बीजों को पहले नर्सरी में तैयार किया जाता है और उसके बाद खेत को अच्छी तरीके से तैयार कर 50 सेंटीमीटर की दूरी रखते हुए बुवाई जाती है। ऑर्गेनिक खाद और रासायनिक उर्वरकों के सीमित इस्तेमाल से 8 से 10 दिन के अंतराल पर बेहतरीन सिंचाई की मदद से भारत के किसान काफी मुनाफा कमा रहे है।
बैंगन की फसल से जुड़ी हुई अलग-अलग किस्म और वैज्ञानिकों के द्वारा जारी की गई नई विधियों की संपूर्ण जानकारी के लिए, 
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  • मूली की खेती

सितंबर से लेकर अक्टूबर के महीनों में उगाई जाने वाली यह सब्जी बहुत ही जल्दी तैयार हो सकती है। पिछले कुछ समय में बाजार में बढ़ती मांग की वजह से इस फसल का उत्पादन करने वाले किसान काफी अच्छा मुनाफा कमा रहे है। 15 से 20 सेंटीग्रेड के तापमान में अच्छी उत्पादकता देने वाली यह फसल उपजाऊ बलुई दोमट मिट्टी में अपनी अलग-अलग किस्मों के अनुसार प्रभावी साबित होती है। किसान भाई कृषि विज्ञान केंद्र से अपनी खेत की मिट्टी की अम्लीयत या क्षारीयता की जांच अवश्य कराएं, क्योंकि इस फसल के उत्पादन के लिए खेत की पीएच लगभग 6.5 से 7.5 के मध्य होनी चाहिए। सितंबर के महीने में अच्छी तरीके से खेत को तैयार करने के बाद गोबर की खाद का इस्तेमाल कर, 10 से 12 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बीज की बुवाई करते हुए उचित सिंचाई प्रबंधन के साथ अच्छी पैदावार प्राप्त की जा सकती है।
मूली की फसल में लगने वाले कई प्रकार के रोग और इसकी अलग-अलग किस्मों की जलवायु के साथ उत्पादकता का पता लगाने के लिए, 
यह भी देखें : मूली की खेती (Radish cultivation in hindi)
  • लहसुन की खेती

ऊटी 1 और सिंगापुर रेड तथा मद्रासी नाम की अलग-अलग किस्म के साथ उगाई जाने वाली लहसुन की फसल लगभग 12 से 25 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान में बोयी जाती है। पोषक तत्वों से भरपूर और अच्छी तरह से सिंचाई की हुई मिट्टी इस फसल की उत्पादकता के लिए सर्वश्रेष्ठ साबित होती है। प्रति हेक्टेयर क्षेत्र में 500 से 600 किलोग्राम बीज के साथ उगाई जाने वाली यह खेती कई प्रकार के रोगों के खिलाफ स्वतः ही कीटाणुनाशक की तरह बर्ताव कर सकती है। बलुई और दोमट मिट्टी में प्रभावी साबित होने वाली यह फसल भारत में आंध्र प्रदेश तथा उत्तर प्रदेश के अलावा गुजरात राज्य में उगाई जाती है। वर्तमान में भारतीय किसानों के द्वारा लहसुन की गोदावरी और श्वेता किस्मों को काफी पसंद किया जा रहा है। इस फसल का उत्पादन जुताई और बिना जुताई वाले खेतों में किया जा सकता है। पहाड़ी क्षेत्र वाले इलाकों में सितंबर के महीने को लहसुन की बुवाई के लिए सर्वश्रेष्ठ माना जाता है, जबकि समतल मैदानों में इसकी बुवाई अक्टूबर और नवंबर महीने में की जाती है।
लहसुन की फसल से जुड़ी हुई अलग-अलग किस्म और जलवायु के साथ उनकी प्रभावी उत्पादकता को जानने के अलावा,
इस फसल में लगने वाले रोगों के निदान के लिए यह भी देखें : लहसुन को कीट रोगों से बचाएं
भारत के किसान भाई इस फसल के बारे में कम ही जानकारी रखते है, परंतु अरुगुला (Arugula) सब्जी से होने वाली उत्पादकता से कम समय में काफी अच्छा मुनाफा कमाया जा सकता है। इसे भारत में गारगीर (Gargeer) के नाम से जाना जाता है।यह एक तरीके से पालक के जैसे ही दिखने वाली सब्जी की फसल होती है जो कि कई प्रकार के विटामिन की कमी को दूर कर सकती है। पिछले कुछ समय से उत्तरी भारत के कुछ राज्यों में इस सब्जी की डिमांड बढ़ने की वजह से कई युवा किसान इसका उत्पादन कर रहे है। सितंबर महीने के दूसरे सप्ताह में बोई जाने वाली यह सब्जी वैसे तो किसी भी प्रकार की मिट्टी में अच्छा उत्पादन दे सकती है, परंतु यदि मिट्टी की ph 7 से अधिक हो तो यह अधिक प्रभावी साबित होती है। पानी के सीमित इस्तेमाल और जैविक खाद की मदद से इस फसल की वृद्धि दर को काफी तेजी से बढ़ाया जा सकता है। इस सब्जी की फसल की छोटी पौध 7 से 10 दिन में अंकुरित होना शुरू हो जाती है। बहुत ही कम खर्चे पर तैयार होने वाली यह फसल 30 दिन में पूरी तरीके से तैयार हो सकती है। दक्षिण भारत के राज्यों में इसकी बुवाई सितंबर महीने के दूसरे सप्ताह में शुरू हो जाती है, जबकि उत्तरी भारत में यह अक्टूबर महीने के पहले सप्ताह में बोयी जाती है। इस फसल के उत्पादन में बहुत ही कम सूक्ष्म पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है परंतु फिर भी नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटेशियम के सीमित इस्तेमाल से उत्पादकता को 50% तक बढ़ाया जा सकता है।


ये भी पढ़ें: अगस्त में ऐसे लगाएं गोभी-पालक-शलजम, जाड़े में होगी बंपर कमाई, नहीं होगा कोई गम
आशा करते हैं कि Merikheti.com के द्वारा किसान भाइयों को सितंबर महीने में बुवाई कर उत्पादित की जा सकने वाली फसलों के बारे में दी गई यह जानकारी पसंद आई होगी और यदि आप भी किसी कारणवश खरीफ की फसल का उत्पादन नहीं कर पाए है तो खाली पड़ी हुई जमीन में इन सब्जी की फसलों का उत्पादन कर कम समय में अच्छा मुनाफा कमा सकेंगे।