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कहीं आप की गेहूं की फसल भी इस रोग से प्रभावित तो नहीं हो रही, लक्षणों पर जरूर दें ध्यान

कहीं आप की गेहूं की फसल भी इस रोग से प्रभावित तो नहीं हो रही, लक्षणों पर जरूर दें ध्यान

उत्तर भारत में पिछले कुछ दिनों से बारिश हो रही है। इस बार इसको गेहूं की फसल के लिए अच्छा माना जाता है। लेकिन अगर बारिश ज्यादा होती है, तो यह कभी-कभी गेहूं की फसल में रतुआ रोग का कारण भी बन जाती है। इस बीमारी से फसल की पत्तियां पीली पड़ जाती हैं और कभी-कभी पूरी फसल बर्बाद हो जाती है।

रतुआ रोग का सबसे बड़ा कारण है नमी

गेहूं की फसल में यह बीमारी ज्यादातर इसी मौसम में देखने को मिलती हैं।
रतुआ रोग में पत्तियां पीली, भूरी या फिर काले रंग के धब्बों से भर जाती हैं। पत्तों पर छोटे-छोटे धब्बे बन जाते हैं। जिसमें आपको पीला चूर्ण देखने को मिलता है। हाथ लगाते ही पता पूरी तरह से पीला होकर जुड़ जाता है।

पत्तियां पीली पड़ने का कारण केवल रतुआ रोग नहीं

कृषि वैज्ञानिकों का कहना है, कि रतुआ रोग गेहूं की फसल को प्रभावित करता है और उसकी पत्तियां पीली कर देता है। लेकिन जरूरी नहीं कि हमेशा पत्तियां पीली होने का कारण यही रोग हो। बहुत बार किसानों को लगता है, कि उनकी फसल में किसी ना किसी तरह का रोग हो गया है। इसलिए फसल की पत्तियों पर असर हो रहा है। बहुत बार गेहूं की फसल की पत्तियां पोषण की कमी के कारण भी रंग बदलने लगती हैं।
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आप इस बात का पता इस तरह से लगा सकते हैं, कि अगर आपकी गेहूं की फसल में रतुआ रोग है और आप उसकी पत्तियों को हाथ लगाते हैं। तो आपके हाथों पर एक चिपचिपा पदार्थ लग जाता है। जबकि पोषण की कमी के कारण पत्तियों में हुए बदलाव में ऐसा कुछ नहीं देखने को मिलता है।

मार्च आने तक सभी लक्षणों पर ध्यान दें और करें बचाव

कृषि विशेषज्ञों का मानना है, कि अगर आपकी गेहूं की फसल में पोषण की कमी है या फिर उसमें रतुआ रोग है। तो दिसंबर से मार्च के बीच में आपको यह लक्षण दिखाई देने लगते हैं। इन महीनों में उत्तर भारत में तापमान 10 डिग्री से 15 डिग्री सेल्सियस के बीच रहता है। जो इस रोग के लिए एकदम सही माना गया है। हरियाणा की बात की जाए तो यहां पर अंबाला और यमुनानगर दोनों ही जिलों में इस रोग के काफी ज्यादा मामले सामने आए हैं।
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आप कुछ तरीके अपनाकर इन दोनों ही चीजों से अपनी फसल का बचाव कर सकते हैं। बचाव के लिए प्रोपकोनाजोल 200 मिलीलीटर को 200 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें। अगर आपको लग रहा है, कि आप की फसल में बीमारी ज्यादा है तो आप एक बार फिर से छिड़काव कर सकते हैं। इसके अलावा किसानों को यह सलामी दी जा रही है, कि वह फसल को उगाने के लिए उत्तम क्वालिटी के बीज इस्तेमाल करें। ताकि फसल रोग से प्रभावित ना हो।
केले का सिगाटोका पत्ती धब्बा रोग, कारण, लक्षण, प्रभाव एवं प्रबंधित करने के विभिन्न उपाय

केले का सिगाटोका पत्ती धब्बा रोग, कारण, लक्षण, प्रभाव एवं प्रबंधित करने के विभिन्न उपाय

सिगाटोका लीफ स्पॉट एक विनाशकारी कवक रोग है जो केले के पौधों, विशेष रूप से लोकप्रिय कैवेंडिश किस्म को प्रभावित करता है। यह माइकोस्फेरेला जीनस से संबंधित कवक के कारण होता है, जिसमें माइकोस्फेरेला फिजिएंसिस (ब्लैक सिगाटोका) और माइकोस्फेरेला म्यूजिकोला (येलो सिगाटोका) इस बीमारी के लिए जिम्मेदार सबसे प्रमुख प्रजातियां हैं। सिगाटोका लीफ स्पॉट दुनिया भर में केले की खेती के लिए एक महत्वपूर्ण खतरा है।

सिगाटोका लीफ स्पॉट के लक्षण

सिगाटोका पत्ती का धब्बा विशिष्ट लक्षणों के माध्यम से प्रकट होता है जो मुख्य रूप से केले के पौधे की पत्तियों को प्रभावित करता है। जैसे-जैसे बीमारी बढ़ती है ये लक्षण विभिन्न चरणों में बढ़ते हैं: पीले धब्बे : प्रारंभ में, निचली पत्तियों पर छोटे पीले धब्बे दिखाई देते हैं, जो सबसे पुराने होते हैं। ये धब्बे संक्रमण का पहला दिखाई देने वाला संकेत हैं और अक्सर इन्हें नज़रअंदाज कर दिया जाता है। काले धब्बे : जैसे-जैसे बीमारी बढ़ती है, ये पीले धब्बे पीले आभामंडल के साथ गहरे, कोणीय धब्बों में विकसित हो जाते हैं। ये धब्बे विशिष्ट धब्बे हैं जो बीमारी को इसका नाम देते हैं। समय के साथ, गहरे धब्बे बड़े हो जाते हैं और पत्तियों पर व्यापक परिगलित क्षेत्र बनाने के लिए विलीन हो जाते हैं। यह पौधे के प्रकाश संश्लेषण और समग्र स्वास्थ्य को गंभीर रूप से प्रभावित करता है। समय से पहले पत्ती का जीर्ण होना : गंभीर संक्रमण से पत्तियां समय से पहले जीर्ण हो जाती हैं, जिससे पौधे की ऊर्जा पैदा करने की क्षमता कम हो जाती है और फलों का विकास सीमित हो जाता है।

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भारत के इन क्षेत्रों में केले की फसल को पनामा विल्ट रोग ने बेहद प्रभावित किया हैफलों की गुणवत्ता और उपज में कमी : अंततः, सिगाटोका पत्ती का धब्बा केले की फसल की गुणवत्ता और उपज दोनों को काफी कम कर देता है। गंभीर रूप से प्रभावित पौधे छोटे, विकृत फल पैदा करते हैं या कभी कभी फल पैदा करने में विफल हो जाते हैं।

फैलाव और प्रभाव

सिगाटोका पत्ती धब्बा मुख्य रूप से संक्रमित पत्तियों पर उत्पन्न बीजाणुओं के माध्यम से फैलता है। हवा, बारिश और मानवीय गतिविधियाँ इन बीजाणुओं को लंबी दूरी तक फैलाने में मदद करती हैं। यदि इस रोग का प्रबंधन न किया गया तो यह 50-70% तक उपज की हानि का कारण बन सकता है,यह रोग दुनिया भर के केला किसानों के लिए एक बहुत बड़ी चिंता का कारण है।

सिगाटोका लीफ स्पॉट रोग का प्रबंधन कैसे करें?

केले की खेती पर इसके प्रभाव को कम करने के लिए सिगाटोका पत्ती धब्बा का प्रभावी प्रबंधन महत्वपूर्ण है। एकीकृत रोग प्रबंधन (आईडीएम) रणनीतियों को अक्सर नियोजित किया जाता है, जिसमें रोग के प्रसार को नियंत्रित करने और रोकने के लिए विभिन्न दृष्टिकोणों का संयोजन किया जाता है। सिगाटोका लीफ स्पॉट के लिए आईडीएम के प्रमुख घटक निम्नलिखित हैं:

1. विभिन्न कृषि कार्य

फसल चक्र : एक ही स्थान पर लगातार केले की खेत करने से बचना चाहिए। रोग के जीवन चक्र को बाधित करने के लिए अन्य फसलों के साथ चक्रण करें। दूरी और छंटाई : पौधों के बीच उचित दूरी और सूखी एवं रोगग्रस्त पत्तियों की कटाई छंटाई से वायु परिसंचरण में सुधार होता है, आर्द्रता कम होती है जिसकी वजह से रोगकारक कवक के विकास को रोका जा सकता है। स्वच्छता : बीमारी को फैलने से रोकने के लिए संक्रमित पत्तियों को हटा दें और नष्ट कर दें। इसमें अधिक संवेदनशील पुरानी पत्तियों को समय पर हटाना शामिल है।

2. प्रतिरोधी किस्में

केले की उन किस्मों का उपयोग करें जो सिगाटोका पत्ती धब्बा के प्रति कुछ हद तक प्रतिरोध प्रदर्शित करती हैं। जबकि पूर्ण प्रतिरोध दुर्लभ है, प्रतिरोधी किस्में अभी भी रोग की गंभीरता को कम कर सकती हैं।

3. रासायनिक नियंत्रण

सिगाटोका लीफ स्पॉट को प्रबंधित करने के लिए व्यावसायिक केले की खेती में अक्सर फफूंदनाशकों का उपयोग किया जाता है। फफूंदनाशकों के नियमित प्रयोग से बीमारी को नियंत्रित करने में मदद मिलती है। हालाँकि, प्रतिरोध विकास को रोकने और पर्यावरणीय प्रभाव को कम करने के लिए कवकनाशी का जिम्मेदार उपयोग महत्वपूर्ण है।आईसीएआर - अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजना (फल) के अन्तर्गत देश के विभिन्न केंद्रों पर किए गए अनुसंधान के उपरांत यह पाया गया की खनिज तेल 1% + निम्नलिखित में से कोई एक कवकनाशी जैसे प्रोपिकोनाज़ोल (0.1%) या कार्बेन्डाजिम + मैन्कोज़ेब का कॉम्बिनेशन (0.1%) याकार्बेन्डाजिम (0.1%) या ट्राइफ्लॉक्सीस्ट्रोबिन + टेबुकोनाजोल (1.4 ग्राम प्रति लीटर) का छिड़काव 25-30 दिनों के अंतराल पर रोग की उग्रता के अनुसार 5-7 बार छिड़काव करने से रोग को आसानी से प्रबंधित किया जा सकता है जिससे उपज में 20% की वृद्धि दर्ज़ किया गया। छिड़काव हेतु प्रयोग होने वाला खनिज तेल, एक बायोडिग्रेडेबल तेल है।

4. जैविक नियंत्रण

कुछ लाभकारी सूक्ष्मजीव सिगाटोका लीफ स्पॉट फंगस को दबाने में मदद करते हैं। प्रभावी जैविक नियंत्रण विधियों को विकसित करने के लिए अनुसंधान जारी है।

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5. निगरानी और शीघ्र पता लगाना

संक्रमण के शुरुआती लक्षणों के लिए केले के पौधों का नियमित निरीक्षण करें। शीघ्र पता लगाने से समय पर हस्तक्षेप करना संभव हो पाता है , जिसकी वजह से रोग नियंत्रण में सहायता मिलती है।

6. मौसम आधारित रोग पूर्वानुमान

आजकल कही कही क्षेत्र में सिगाटोका लीफ स्पॉट के प्रकोप की भविष्यवाणी करने के लिए मौसम डेटा और रोग मॉडलिंग का उपयोग किया जा रहा हैं। यह जानकारी किसानों को फफूंदनाशी के प्रयोग की अधिक प्रभावी ढंग से योजना बनाने में मदद करती है।

7. आनुवंशिक सुधार

सिगाटोका लीफ स्पॉट के प्रति बेहतर प्रतिरोध के साथ केले की किस्मों को विकसित करने पर शोध जारी है। इस दृष्टिकोण का उद्देश्य बीमारी का दीर्घकालिक समाधान प्रदान करना है।

8. शिक्षा और प्रशिक्षण

सिगाटोका पत्ती धब्बा को प्रभावी ढंग से नियंत्रित करने के लिए किसानों को रोग की पहचान और उचित रोग प्रबंधन उपायों में प्रशिक्षण देना आवश्यक है।

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चुनौतियाँ और भविष्य की दिशाएँ

रोग की फफूंदनाशकों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता विकसित करने की क्षमता, इसके तेजी से फैलने और प्रतिरोधी केले की किस्मों की सीमित उपलब्धता के कारण सिगाटोका लीफ स्पॉट का प्रबंधन एक जटिल चुनौती बनी हुई है। इसके अतिरिक्त, रासायनिक नियंत्रण विधियों से जुड़ी पर्यावरणीय चिंताएँ टिकाऊ और पर्यावरण के अनुकूल समाधानों की आवश्यकता पर प्रकाश डालती हैं। भविष्य में, निरंतर अनुसंधान और विकास प्रयास महत्वपूर्ण हैं। इसमें केले की अधिक प्रतिरोधी किस्मों को विकसित करने के लिए प्रजनन कार्यक्रम, बेहतर रोग पूर्वानुमान मॉडल और नवीन जैविक नियंत्रण विधियों की खोज शामिल है। रोग प्रबंधन में सर्वोत्तम प्रथाओं को अपनाना सुनिश्चित करने के लिए किसानों तक शिक्षा और पहुंच समान रूप से महत्वपूर्ण है। अंत में कह सकते है की सिगाटोका लीफ स्पॉट विश्व स्तर पर केले की खेती के लिए एक गंभीर खतरा है। प्रभावी रोग प्रबंधन के लिए एक समग्र दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है जो कृषि क्रिया, प्रतिरोधी किस्मों, रासायनिक और जैविक नियंत्रण विधियों, निगरानी और चल रहे अनुसंधान को जोड़ती है। इन रणनीतियों को लागू करके, केला किसान सिगाटोका लीफ स्पॉट के प्रभाव को कम कर सकते हैं और अपनी फसलों, आजीविका और समग्र रूप से केला उद्योग की रक्षा करते हैं।

गर्मियों के मौसम में ऐसे करें प्याज की खेती, होगा बंपर मुनाफा

गर्मियों के मौसम में ऐसे करें प्याज की खेती, होगा बंपर मुनाफा

देश के कई राज्यों में प्याज की खेती साल में सिर्फ एक बार की जाती है। लेकिन कुछ राज्य ऐसे भी हैं जहां प्याज की खेती साल में तीन बार की जाती है। इसमें महाराष्ट्र का स्थान सबसे ऊपर है। इस राज्य के धुले, अहमदनगर, नासिक, पुणे और शोलापुर जिलों में प्याज का बंपर उत्पादन होता है। यहां पर साल में अमूमन तीन बार प्याज की खेती की जाती है। इसलिए महाराष्ट्र को देश का सबसे बड़ा प्याज उत्पादक राज्य कहा जाता है। महाराष्ट्र के नाशिक जिले की लासलगांव मंडी को एशिया की सबसे बड़ी प्याज की मंडी का दर्जा प्राप्त है। प्याज का उपयोग ज्यादातर सब्जी के रूप में हर घर में किया जाता है। इसके अलावा थोड़ी बहुत मात्रा में इसका उपयोग दवाई बनाने में भी किया जाता है। प्याज की फसल सामान्यतः 100 से 120 दिनों के भीतर तैयार हो जाती है। प्याज का बंपर उत्पादन होने के कारण किसान भाई इस खेती से ज्यादा मुनाफा कमाते हैं।

प्याज की खेती के लिए उचित जलवायु और मृदा

प्याज की खेती के लिए ज्यादा तापमान उचित नहीं माना जाता। ऐसे में गर्मियों के मौसम में किसानों को यह सुनिश्चित करना होता है कि खेत का तापमान बहुत ज्यादा न बढ़ने पाए। इसके साथ ही शुष्क जलवायु इस खेती के लिए बेहतर मानी जाती है। अगर प्याज की खेती में मृदा की बात करें तो  उचित जलनिकास एवं जीवांषयुक्त उपजाऊ दोमट तथा बलुई दोमट मिट्टी इसके लिए उपयुक्त होती है। प्याज की खेती अत्यंत गीली या दलदली जमीन पर नहीं करना चाहिए। प्याज की खेती के लिए मिट्टी का पी.एच. मान 6.5-7.5 के मध्य होना चाहिए। इसके लिए किसान भाई बुवाई के पहले मृदा परीक्षण अवश्य करवा लें।

प्याज की किस्में

बाजार में प्याज की कुछ किस्में ज्यादा प्रसिद्ध हैं, जिनमें एग्री फाउण्ड डार्क रेड, एन-53 और भीमा सुपर का नाम आता है। एग्री फाउण्ड डार्क रेड किस्म को भारत में कहीं भी आसानी से उगाया जा सकता है। इसके कंद गोलाकार होते हैं, जिनका आकार 4 से 6 सेंटीमीटर बड़ा होता है। इसके साथ ही यह फसल 95-110 दिनों के भीतर तैयार हो जाती है। यह किस्म एक हेक्टेयर में 300 क्विंटल का उत्पादन दे सकती है। ये भी पढ़े: वैज्ञानिकों ने निकाली प्याज़ की नयी क़िस्में, ख़रीफ़ और रबी में उगाएँ एक साथ एन-53 किस्म को भी भारत में कहीं भी उगाया जा सकता है। लेकिन इसकी फसल 140 दिनों में तैयार होती है। साथ ही इस किस्म का उत्पादन 250-300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होता है। भीमा सुपर एक अलग तरह की प्याज की किस्म है। जिसमें किसानों को उगाने में ज्यादा मेहनत नहीं करनी होती है। यह किस्म 110-115 दिन में तैयार हो जाती है और इसका उत्पादन भी 250-300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होता है।

ऐसे करें भूमि की तैयारी

प्याज की खेती के लिए भूमि को अच्छे से तैयार करना बेहद जरूरी है। इसके लिए कल्टीवेटर या हैरो की मदद से 2 से 3 बार जुताई करें। जुताई के साथ ही खेत में पाटा अवश्य चलाएं, ताकि मिट्टी भुरभुरी हो सके और नमी सुरक्षित रहे। भूमि की सतह से 15 से.मी. उंचाई पर 1.2 मीटर का बेड तैयार कर लें। जिस पर प्याज की बुवाई की जाती है।

खाद एवं उर्वरक की मात्रा

प्याज की फसल के लिए खाद एवं उर्वरक का प्रयोग मिट्टी के परीक्षण के आधार पर करना चाहिए। अगर खेत में अधिक पोषक तत्वों की जरूरत हो तो खेत में गोबर की सड़ी खाद 20-25 टन/हेक्टेयर की दर से बुवाई के 1 माह पूर्व डालना चाहिए। इसके अलावा खेत में नत्रजन 100 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर, स्फुर 50 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर तथा पोटाश 50 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर के हिसाब से डाल सकते हैं। यदि खेत की गुणवत्ता ज्यादा ही खराब है तो खेत में सल्फर 25 कि.ग्रा.एवं जिंक 5 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से डाल सकते हैं। ये भी पढ़े: आलू प्याज भंडारण गृह खोलने के लिए इस राज्य में दी जा रही बंपर छूट

ऐसे तैयार करें पौध

प्याज की पौध को उठी हुई क्यारियों में तैयार किया जाता है। बोने के पहले बीजों को अच्छे से उपचारित करना चाहिए। प्रति वर्ग मीटर क्षेत्र में 15 से 20 ग्राम बीज बोना चाहिए। इसके लिए 3 वर्ग मीटर की क्यारियां बनाना चाहिए। एक हेक्टेयर भूमि में 8 से 10 किलोग्राम बीज बोया जाता है।

ऐसे करें रोपाई

प्याज की पौध की रोपाई मिट्टी के तैयार किए गए बेड में की जाती है। इसके लिए एक हेक्टेयर क्षेत्र में रोपाई करने के लिए 12 से 15 क्विंटल पौध की जरूरत होती है। पौध की रोपाई कूड़ शैय्या पद्धति से करना चाहिए। इसमें 1.2 मीटर चौड़ा बेड एवं लगभग 30 से.मी. चौड़ी नाली तैयार की जाती हैं। पौध को अंकुरित होने के 45 दिन बाद ही बेड पर लगाना चाहिए।

खरपतवार नियंत्रण

प्याज की फसल में खरपतवार से छुटकारा पाने के लिए समय-समय पर निराई गुड़ाई की जरूरत होती है। पूरी फसल के दौरान कम से कम 3 से 4 बार निराई गुड़ाई अवश्य करना चाहिए। इसके अलावा खरपतवार को नष्ट करने के लिए रासायनिक पदार्थो का उपयोग भी किया जा सकता है। इसके लिए पौध की रोपाई के 3 दिन पश्चात 2.5 से 3.5 लीटर/हेक्टेयर की दर से पैन्डीमैथेलिन का छिड़काव किया जा सकता है। इसे 750 लीटर पानी में घोला चाहिए। इसके अलावा इतने ही पानी में 600-1000 मिली/हेक्टेयर के हिसाब से ऑक्सीफ्लोरोफेन का छिड़काव भी किया जा सकता है। ये भी पढ़े: प्याज की खेती के जरूरी कार्य व रोग नियंत्रण

प्याज की फसल की सिंचाई

प्याज की फसल में सिंचाई बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण है। अन्यथा फसल तुरंत ही सूख जाएगी। इस फसल में यह ध्यान देने योग्य बात होती है कि जब कंदों का निर्माण हो रहा हो तब खेत में पानी की कमी न रहे। नहीं तो पौध का विकास रुक जाएगा और प्याज का आकार बड़ा नहीं हो पाएगा। ऐसे में उपज प्रभावित हो सकती है। आवश्यकतानुसार 8 से 10 दिन के अंतराल में फसल में पानी देते रहें। यदि खेत में पानी रुकने लगे तो उसकी जल्द से जल्द निकासी की व्यवस्था करना चाहिए। अन्यथा फसल में फफूंदी जनित रोग लगने की संभावना बढ़ जाती है।

कंदों की खुदाई

जैसे ही प्याज की पत्तियां सूखने लगती हैं और प्याज की गांठ अपना आकार ले लेती है तो 10-15 दिन पहले सिंचाई बंद कर देना चाहिए। जब खेत पूरी तरह से सूख जाए, उसके बाद पौधों के शीर्ष को पैर की मदद से कुचल देना चाहिए। इससे कंदों की वृद्धि रुक जाती है और कंद ठोस हो जाते हैं। इसके बाद कंदों को खोदकर खेत में ही सुखाना चाहिए। सूखने के बाद प्याज को भरकर भंडारण के लिए भेज देना चाहिए।
इस राज्य के किसान फसल पर हुए फफूंद संक्रमण से बेहद चिंतित सरकार से मांगी आर्थिक सहायता

इस राज्य के किसान फसल पर हुए फफूंद संक्रमण से बेहद चिंतित सरकार से मांगी आर्थिक सहायता

महाराष्ट्र राज्य में संतरा, मिर्च, पपीता पर रोगिक संक्रमण के बाद वर्तमान में चने की फसल भी संक्रमित हो रही है। चने पर फफूंद संक्रमण की वजह से पौधे बर्बाद होते जा रहे हैं, इस बात से किसान बहुत चिंतित दिखाई दे रहे हैं। बतादें, कि इस वर्ष में चने की पैदावार काफी कम हुई है। इसके साथ साथ अन्य फसल भी जैसे कि मिर्च, संतरा और पपीता सहित बहुत सारी फसलों पर फफूंद संक्रमण एवं कीटों का प्रकोप जारी है। उत्पादकों को लाखों की हानि वहन करनी पड़ रही है। महाराष्ट्र राज्य में फसलीय रोगों की वजह से फसलें बेहद गंभीर रूप से नष्ट होती जा रही हैं। किसान सरकार से सहायता की फरियाद कर रहे हैं। ऐसे में महाराष्ट्र के किसानों की चने की फसल भी फफूंद के कारण रोगग्रसित हो गयी है। विशेषज्ञों के अनुसार, कीट एवं फफूंद से फसलों को बचाने हेतु किसानों को बेहतर ढंग से फसल की देखभाल करने की अत्यंत आवश्यकता है।

चने की फसल को बर्बाद कर रहा फफूंद

महाराष्ट्र राज्य में चने की फसल फफूंद की वजह से गंभीर रूप से प्रभावित हो रही है। प्रदेश में चने का उत्पादन फसल बर्बाद होने के कारण घटता जा रहा है। महाराष्ट्र राज्य के नंदुरबार जनपद में चने की फसल का उत्पादन काफी बड़े क्षेत्रफल में उच्च पैमाने पर किया जाता है। फफूंद की वजह से चने के पौधे खराब होना आरंभ हो चुके हैैं। किसान इस बात से बेहद चिंतित हैं, कि यदि चने की फसल इसी प्रकार नष्ट होती रही तो, उनके द्वारा फसल पर किया गया व्यय भी निकाल पाना असंभव सा साबित होगा।


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आखिर किस वजह से यह समस्या उत्पन्न हुई है

महाराष्ट्र के बहुत सारे जनपदों में चने की फसल का उत्पादन किया जाता है। प्रतिवर्ष चने का उत्पादन कर किसान अच्छा खासा मुनाफा कमाते हैं। परंतु चने की फसल में फफूंद संक्रमण की वजह से किसानों को इससे अच्छी आय मिलने की अब कोई संभावना नहीं बची है। फसल रोगिक संक्रमण की वजह से काफी प्रभावित हो गयी है। विशेषज्ञों द्वारा चने की फसल पर फफूंद लगने का यह कारण बताया गया है, कि बेमौसम बरसात एवं आसमान में बादल छाए रहने की वजह से फसल को पर्याप्त मात्रा में धूप नहीं मिल पायी है और धूप न मिलना इस संक्रमण की मुख्य वजह बना है। फफूंद ने चने की फसल को गंभीर रूप से बर्बाद करना आरंभ कर दिया है।

किसानों ने सरकार से की आर्थिक सहायता की गुहार

फसल के गंभीर रूप से प्रभावित होने की वजह से पीड़ित किसान राज्य सरकार एवं केंद्र सरकार से सहायता हेतु गुहार कर रहे हैं। राज्य के बहुत सारे जनपदों के किसानों ने महाराष्ट्र कृषि विभाग से भी सहायता के लिए मांग की है। किसानों का कहना है, कि फसलों को बर्बाद कर रहे इस रोग से चना की फसल के उत्पादन में निश्चित रूप से घटोत्तरी होगी। फफूंद रोग बेहद तीव्रता से पौधों को बर्बाद करता जा रहा है, यहां तक कि बड़े पौधे भी इस रोग की वजह से नष्ट होते जा रहे हैं। बचे हुए पौधे भी कोई खाश उत्पादन नहीं दे पाएंगे। किसानों ने बहुत बेहतरीन ढंग व मन से चने की फसल का उत्पादन किया था। इसलिए उनको इस वर्ष रबी सीजन में चने की फसल से होने वाली पैदावार से अच्छा खासा मुनाफा मिलने की आशा थी। परंतु परिणाम बिल्कुल विपरीत ही देखने को मिले हैं। किसान केंद्र सरकार एवं राज्य सरकार से आर्थिक सहायता हेतु गुहार कर रहे हैं।
कीड़ाजड़ी की खेती से किसान बन सकते हैं करोड़पति, जानिए कैसे होती है खेती

कीड़ाजड़ी की खेती से किसान बन सकते हैं करोड़पति, जानिए कैसे होती है खेती

उत्तराखंड से लेकर लद्दाख, चीन भूटान और नेपाल जैसे इलाकों में कीड़ाजड़ी (keedajadi or caterpillar fungus; Ophiocordyceps sinensis) पाया जाता है. मई से जुलाई के बीच का समय इनकी पैदावार के लिए सबसे अच्छा माना जाता है. हम ऐसे देश का हिस्सा हैं जहां की धरती को संजीवनी धरती कहा जाता है. यहां पर नेचुरल औषधी और जड़ी बूटियों की भरमार है. यहां पर कई ऐसी जड़ी बूटियां हैं, जिनकी मदद से गंभीर से गंभीर बीमारियों से बचा जा सकता है जिनमें से एक है कीड़ा जड़ी. भारत में कीड़ाजड़ी का उत्पादन औषधी के रूप में किया जाता है जिसकी डिमांड पूरी दुनिया में है. वहीं इसकी बिक्री की बात करें, जो काफी ज्यादा होती है. सोने से भी महंगा बिकने वाली कीड़ा जड़ी को सुखाकर बाजार में करीब 50 से 60 लाख रुपये किलो तक में बेचा जाता है. इसे दुनिया की सबसे महंगी जड़ी माना जाता है. कीड़ाजड़ी से लोग लाखों रुपये कमा सकते हैं. इससे जुड़े कई तरह के स्वास्थ्य लाभ भी होते हैं. अपने अनगिनत गुणों की वजह से ये पूरी दुनिया भर में फेमस है. बता दें जब हिमालय की बर्फ पिघलती है तो नेपाल के सैंकड़ों ग्रामीण चोटी से इस जड़ी बूटी को इकट्ठा करते हैं और साफ़ करके रख लेते हैं. ऐसे में अगर आप भी कीड़ा जड़ी की खेती करके मालामाल होने के बारे में सोच रहे हैं, तो इससे जुड़ी ये जानकारियां आपके काफी काम आ सकती हैं.

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कीड़ाजड़ी की खेती के बारे में (About wormwood cultivation)

कीड़ा जड़ी एक फफूंद है, जो सबसे ज्यादा पहाड़ों की चोटियों में पाया जाता है. यह उस जगह पर मिलता है, जहां पर पेड़ पौधे उगना बंद हो जाते है. मई से लेकर जुलाई तक के महीने के बेच में बर्फ पिघलने के समय इसकी पैदावार हिमालय के साथ साथ उत्तराखंड, लद्दाख, चीन, भूटान और नेपाल जैसे इलाकों में सबसे ज्यादा होती है. कीड़ा जड़ी एक खास तरह की जड़ी बूटी है, जिसकी खेती हर जगह करनी संभव नहीं है. इस जड़ी बूटी के लिए सबसे अच्छा महिना जून से लेकर अगस्त के बीच का होता है. लेकिन इसे नियंत्रित वातावरण में ग्रीन हाउस के अंदर विकसित किया जा सकता है. सिर्फ सेहत के लिहाज से ही नहीं बल्कि यह पहाड़ियों की आमदनी का अच्छा खासा जरिया है. इसकी महंगाई की वजह से इसे बेचना काफी मुश्किल होता है. ज्यादातर हिमालयी इलाकों में लोग इसकी तस्करी भी करते हैं.

क्या है कीड़ाजड़ी ?

आसान शब्दों में समझा जाए तो इसे एक तरह का जंगली मशरूम कहा जा सकता है, जो कैटरपिलर्स को मारकर उसी के ऊपर पनपना शुरू कर देता है. ये आधा कीड़ा होता है, इसलिए इसे कीड़ा जड़ी कहा जाता है.इसका साइंटिफिक नाम कॉॢडसेप्स साइनेसिस (cordyceps sinensis) है.

10 बाई 10 के कमरे में करें खेती

आजकल के किसान खेती में आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल करते हैं. जो उनके लिए किसी वरदान से कम नहीं है. लाखों की कमीत वाला कीड़ा जड़ी की खेती अगर आप भी करना चाहते हैं, तो उसके लिए 10 बाई 10 का कमरा ही काफी है. लेकिन इसके लिए आपको कमरा एक आधुनिक लैब में बदलना होगा. जिसमें आपकी मदद संबंधित कृषि विशेषज्ञ कर सकता है.

कैसा हो लैब का वातावरण?

कीड़ा जड़ी की कहती के लिए लैब में ठीक वैसा ही वातावरण होना चाहिए, जैसा हिमायत की घाटियों में होता है. इसके लिए बेसिक इक्विपमेंट की जरूरत पड़ती है. इसके लिए 7 से 8 लाख रुपये तक का खर्च हो सकता है. जिसके करीब तीन महीने के अंदर कीड़ा जड़ी की फसल तैयार हो जाती है. पहली फसल 5 किलो तक होती है. जिसकी बाजार में कीमत लगभग 8 से 9 लाख रुपये तक हो सकती है. इस तरह आप साल भर में चार बार कीड़ा जड़ी की फसल को तैयार कर सकते हैं. जो एक साल में लगभग 60 लाख तक का मुनाफा दे सकती है.

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क्या है कीड़ा जड़ी का इस्तेमाल?

वैसे तो कीड़ा जड़ी का इस्तेमाल अलग अलग तरीके से किया जा सकता है. वो क्या है ये जान लेते हैं.
  • कीड़ा जड़ी ब्लड शुगर को कंट्रोल में रखता है.
  • सांस लेने की तकलीफ को कीड़ा जड़ी दूर करता है.
  • कीड़ा जड़ी से किडनी या लीवर से जुड़ी समस्या नहीं होती.
  • शरीर में ऑक्सीजन की मात्रा को बनाए रखने में कीड़ा जड़ी कारगर है.
  • पुरुष और महिलाओं में प्रजनन क्षमता और स्पर्म काउंट बढ़ाने में कीड़ा जड़ी मदद करती है.
  • इम्यून सिस्टम को अच्छा रखने के लिए कीड़ा जड़ी फायदेमंद है.
  • कीड़ा जड़ी से खून और हड्डियों को मजबूत बनाने में मदद मिलती है.

कैसे करें कीड़ा जड़ी की पहचान?

काफी लोग हैं जो कीड़ा जड़ी की पहचान नहीं कर पाते. अगर आप भी उनमें से एक हैं, तो बता दें कि कीड़ा जड़ी एक कीड़े की तरह होता है. जब वो उगता है तो हरे रंग का होता है. जो खुरदुरा होता है. इसके अलावा वो कई जगह से नुकीला होता है. इसे छीलकर खाया जाता है. इसे चूर्ण उया पाउडर के रूप में भी तैयार किया जाता है.

कीड़ा जड़ी की प्रजातियां

पूरी दुनियाभर में कीड़ा जड़ी की कुल 680 प्रजातियां हैं. जिसमें से डसेप्स मिलिट्रि का उत्पादन कई देशों में सबसे ज्यादा किया जाता है. इंटरनेशन मार्केट में इसकी काफी ज्यादा डिमांड है. इससे चाय, कैप्सूल और पाउडर तैयार किया जाता है.

गुणों से भरपूर कीड़ा जड़ी

कीड़ा जड़ी में कई पोषक तत्वों के अलावा प्रोटीन, पेपटाइड्स, अमीनो एसिड, विटामिन बी 1, बी 2 और बी 12 भी मौजूद होते हैं. किडनी का इलाज करने हो एनर्जी को बढ़ाना हो, हर मामले में कीड़ा जड़ी जीवन रक्षक की तरह काम करता है.

कैसे खाएं कीड़ा जड़ी

कीड़ा जड़ी को खाने का काफी आसान तरीका है. एक समान्य व्यक्ति कीड़ा जड़ी की एक बार  में लगभग 0.3 से 0.7 ग्राम के बीच में खा सकता है. इसका सेवन रोजाना किया जा सकता है. इसे खाने का तरीका कैसा होना चाहिए, ये जान लेते हैं.
  • कीड़ा जड़ी का सेवन गर्म पानी में घोलकर किया जा सकता है.
  • अगर अप चाहें तो कीड़ा जड़ी के चूर्ण को दूध में मिलाकर पी सकते हैं.
  • आप चाहें तो इसे ऐसे ही जड़ी बूटी के रूप में खा सकते हैं.
  • अगर दूध नहीं तो किसी भी तरह के पेय में मिलाकर कीड़ा जड़ी का सेवन कर सकते हैं.
लाजवाब औषधीय गुणों से भरपूर कीड़ा जड़ी की कीमत लाखों में है. इसके इंटरनेशल बाजार की बात करें तो इसकी कीमत 20 से 25 लाख रुपये तक हो सकती है. इसकी खेती करने के लिए आप जितनी लागत लगाएंगे उससे कहीं गुना ज्यादा मुनाफा आपको मालामाल कर सकता है.
किसान परवल की खेती से कुछ महीनों में ही अच्छी-खासी कमाई कर सकते हैं

किसान परवल की खेती से कुछ महीनों में ही अच्छी-खासी कमाई कर सकते हैं

किसान भाई परवल की खेती से अच्छी खासी आमदनी कर सकते हैं। यह दीर्घकाल तक किसानों को फायदा प्रदान कर सकती है। आलू-परवल की सब्जी अधिकांश लोगों को काफी पसंद होती है। इस वजह से हर प्रकार के कार्यक्रम में यह सब्जी आपको बड़ी आसानी से खाने के लिए मिल जाती है। हमारे भारत में इसकी कितनी लोकप्रियता है, इसके संबंध में शायद ही किसी को नहीं पता हो। यदि किसान अपनी आमदनी को बढ़ाने के लिए खेत में किसी अन्य फसल को उगाने के विषय में सोच रहे हैं, तो परवल उनके लिए काफी अच्छा विकल्प हो सकता है। केवल एक एकड़ में परवल की खेती से अन्नदाता किसान वर्षभर में लाखों की आमदनी कर सकते हैं। इसकी खेती के लिए अधिक लागात नहीं लगानी पड़ती है। अब हम एक एकड़ जमीन में परवल की खेती पर कितना खर्च होता है और कितना लाभ के बारे में।

खेत के एक एकड़ हिस्से में परवल के कितने पौधे लग सकते हैं

परवल की खेती भी बाकी अन्य फसलों की तरह से ही होती है। इसकी खेती के लिए सर्व प्रथम खेतों की जुताई कर ली जाती है। उसके बाद रोटावेटर से खेत को समतल रूप दिया जाता है। जिससे कि आगे चलकर सिंचाई में किसी प्रकार की दिक्कत परेशानी ना हो। इसके उपरांत परवल के पौधे खेत में आठ फीट की दूरी पर रोप जाते हैं। इसी प्रकार एक एकड़ भूमि में तकरीबन 650 परवल के पौधे लगते हैं। साथ ही, रोपण के वक्त गोबर की खाद डालकर भूमि को अधिक उपजाऊ बनाया जाता है। जिससे कि उत्पादन अधिक हो सके। साथ ही, जून से अगस्त व अक्टूबर से नवंबर का माह इसकी रोपाई के लिए अनुकूल माना जाता है। परवल को तैयार होने में अन्य सब्जियों की भांति ही लगभग तीन महीने का वक्त लगता है। इसकी खासियत यह है, कि परवल तैयार होने के उपरांत करीब आठ-नौ माह तक पैदावार देते हैं। ये भी पढ़े: इस राज्य में कृषि उपकरणों पर दिया जा रहा है 50 प्रतिशत तक अनुदान

परवल की खेती से किसान कितना लाभ उठा सकते हैं

पौधे, रोपाई और सिंचाई समेत सभी खर्चों का योग करें तो एक एकड़ में परवल की खेती पर तकरीबन 25 हजार रुपये की लागत आती है। साथ ही, उत्पादन तकरीबन 150-250 क्विंटल तक होता है। यदि बाजार में परवल की थोक कीमत की बात की जाए। तो यह कम से कम 3000 रुपये क्विंटल तक बिकता है। सीधी सी बात है, किसान इसको बेचकर के कुछ ही महीनों में लाखों की कमाई कर सकते हैं। बतादें, कि परवल के अंदर भी बहुत सारे गुण होते हैं। इसे खाने सेहत हमेशा अच्छी रहती है। इसमें विटामिन-बी 1, विटामिन-बी 2 और विटामिन-सी जैसे पोषक तत्व विघमान रहते हैं। जो कि बहुत सारी बीमारियों को शरीर से दूर रखने में अपनी अहम भूमिका निभाती है।
परवल की सबसे बड़ी समस्या फल, लत्तर और जड़ सड़न रोग को कैसे करें प्रबन्धित?

परवल की सबसे बड़ी समस्या फल, लत्तर और जड़ सड़न रोग को कैसे करें प्रबन्धित?

Dr AK Singh
डॉ एसके सिंह
प्रोफ़ेसर सह मुख्य वैज्ञानिक (पौधा रोग) एवं
विभागाध्यक्ष, पोस्ट ग्रेजुएट डिपार्टमेंट ऑफ प्लांट पैथोलॉजी, डॉ. राजेंद्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय , पूसा , समस्तीपुर, बिहार
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sksraupusa@gmail.com/sksingh@rpcau.ac.in
विश्व में परवल की खेती भारत के अलावा चीन, रूस, थाईलैंड, पोलैंड, पाकिस्तान, बंगलादेश, नेपाल, श्रीलंका, मिश्र तथा म्यानमार में होती है। भारत में इसकी खेती उत्तर प्रदेश, बिहार, असम, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, मद्रास, महाराष्ट्र, गुजरात, केरल तथा तामिलनाडु राज्यों में परवल की खेती की जाती है। उत्तर प्रदेश में परवल की खेती व्यावसायिक स्तर पर जौनपुर, फैजाबाद, गोण्डा, वाराणसी, गाजीपुर, बलिया तथा देवरिया जनपदों में होती है ,जबकि बिहार में परवल की व्यावसायिक खेती पटना, वैशाली, मुजफ्फरपुर, समस्तीपुर, चम्पारण, सीतामढ़ी, बेगूसराय, खगड़िया, मुंगेर तथा भागलपुर में होती है। बिहार में इसकी खेती मैदानी तथा दियारा क्षेत्रों में की जाती है। बरसात में परवल में फल, लत्तर और जड़ सडन रोग कुछ ज्यादा ही देखने को मिलता है ,इसका प्रमुख कारण वातावरण में नमी का ज्यादा होना प्रमुख है। यह रोग देश के प्रमुख परवल उगाने वाले सभी क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर होती है। इस रोग की गंभीरता लगभग सभी परवल उत्पादक क्षेत्रो में देखने को मिलता है । यह रोग खेत में खड़ी फसल में तो देखने को मिलता ही है इसके अलावा यह रोग जब फल तोड़ लेते है, उस समय भी देखने को मिलता है। फलों पर गीले गहरे रंग के धब्बे बनते हैं, ये धब्बे बढ़कर फल को सड़ा देते हैं तथा इन सड़े फलों से बदबू आने लगती है, जो फल जमीन से सटे होते है, वे ज्यादा रोगग्रस्त होते हैं। सड़े फल पर रुई जैसा कवक दिखाई पड़ता है।

परवल में जड़ एवं लत्तर सड़न के कारण

फफूंद रोग कारक : परवल में जड़ एवं बेल (लत्तर) सड़न के लिए एक से अधिक रोगकारक जिम्मेदार है। फाइटोफ्थोरा मेलोनिस (Phytophthora melonis) के कारण परवल (Trichosanthes dioica) के फल, लत्तर और जड़ के सड़न की बीमारी होती है इसके अतरिक्त राइजोक्टोनिया सोलानी, फ्यूसेरियम की विभिन्न प्रजातियां और पाइथियम की विभिन्न प्रजातियां भी परवल में जड़ और बेल के सड़ने के पीछे प्रमुख कारण हैं। ये रोगज़नक़ गर्म और आर्द्र परिस्थितियों में अधिक पनपते हैं, जिससे फसल संवेदनशील हो जाती है, खासकर बरसात के मौसम में।

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किसान परवल की खेती से कुछ महीनों में ही अच्छी-खासी कमाई कर सकते हैं खराब जल निकासी: जल जमाव वाली मिट्टी या अपर्याप्त जल निकासी प्रणालियाँ कवक के विकास के लिए आदर्श वातावरण बनाती हैं। जड़ों और लताओं के आसपास अतिरिक्त नमी सड़ांध के विकास को बढ़ावा देती है। दूषित मिट्टी और रोपण सामग्री: दूषित मिट्टी या संक्रमित रोपण सामग्री का उपयोग करने से फसल में रोगज़नक़ आ सकते हैं। उचित मिट्टी का बंध्याकरण और रोग-मुक्त पौध का उपयोग आवश्यक निवारक उपाय हैं।

परवल पर सड़न का प्रभाव

उपज में कमी: जड़ और बेल के सड़ने से फसल की पैदावार में काफी कमी आ सकती है। संक्रमित पौधे छोटे, विकृत फल पैदा कर सकते हैं, या गंभीर मामलों में, कटाई योग्य उपज देने में विफल हो सकते हैं। आर्थिक नुकसान: किसानों के लिए, कम पैदावार का मतलब कम आय है। बीज, उर्वरक और श्रम जैसे इनपुट की लागत की भरपाई नहीं की जाती है, जिससे वित्तीय नुकसान होता है। फसल की गुणवत्ता: फसल जीवित रहने पर भी परवल की गुणवत्ता से समझौता किया जा सकता है। सड़ी हुई लताएँ और जड़ें सब्जी के स्वाद और बनावट को प्रभावित करती हैं, जिससे यह विपणन योग्य नहीं रह पाता है।

परवल में जड़ एवं लत्तर सड़न रोग को कैसे करें प्रबंधित ?

परवल में जड़ और बेल सड़न के प्रभावी प्रबंधन में निवारक और उपचारात्मक उपायों का संयोजन शामिल है। इस समस्या के समाधान के लिए यहां कुछ उपाय निम्नवत हैं यथा.

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फसल चक्र और स्थल चयन

रोग चक्र को तोड़ने के लिए फसल चक्र प्रणाली लागू करें। लगातार सीज़न के लिए एक ही मिट्टी में परवल लगाने से बचें। जलभराव के जोखिम को कम करने के लिए अच्छी जल निकासी वाले, ऊंचे रोपण स्थल चुनें।

मिट्टी की तैयारी

रोपण से पहले, सुनिश्चित करें कि मिट्टी ठीक से तैयार है। मिट्टी की संरचना और जल निकासी में सुधार के लिए खाद जैसे कार्बनिक पदार्थ शामिल करें। मृदा सौरीकरण का प्रयोग करें, एक ऐसी तकनीक जहां प्लास्टिक शीट का उपयोग गर्मी को रोकने और रोपण से पहले मिट्टी से पैदा होने वाले रोगजनकों को मारने के लिए किया जाता है।

बीज का चयन एवं उपचार

प्रतिष्ठित स्रोतों से रोगमुक्त रोपण सामग्री का उपयोग करें। रोपाई से पहले फफूंद संक्रमण की संभावना को कम करने के लिए रोपण सामग्री को फफूंदनाशक से उपचारित करें।

उचित जल प्रबंधन

जड़ों और लताओं के आसपास अत्यधिक नमी से बचते हुए, फसल की सिंचाई सावधानी से करें। जड़ क्षेत्र में सीधे पानी पहुंचाने के लिए ड्रिप सिंचाई का उपयोग करें, जिससे फंगल संपर्क कम हो जाए।

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कवकनाशी का प्रयोग

निवारक उपाय के रूप में फफूंदनाशकों का प्रयोग करें, विशेष रूप से पौधे के विकास के प्रारंभिक चरण के दौरान। इसके नियंत्रण के लिए फलों को जमीन के सम्पर्क में नहीं आने देना चाहिए। इसके लिए जमीन पर पुआल या सरकंडा को बिछा देना चाहिए। फफुंदनाशक जिसमे रीडोमिल एवं मैंकोजेब मिला हो यथा रीडोमिल एम गोल्ड @ 2ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करने एवं इसी घोल से परवल के आसपास की मिट्टी को खूब अच्छी तरह से भीगा देने से रोग की उग्रता में कमी आती है। ध्यान देने योग्य बात यह है की दवा छिडकाव के 10 दिन के बाद ही परवल के फलों की तुड़ाई करनी चाहिए । दवा छिडकाव करने से पूर्व सभी तुड़ाई योग्य फलों को तोड़ लेना चाहिए । मौसम पूर्वानुमान के बाद ही दवा छिडकाव का कार्यक्रम निर्धारित करना चाहिए ,क्योकि यदि दवा छिडकाव के तुरंत बाद बरसात हो जाने पर आशातीत लाभ नही मिलता है। उचित कवकनाशी और प्रयोग कार्यक्रम पर मार्गदर्शन के लिए कृषि विशेषज्ञों से परामर्श लें।

जैविक नियंत्रण

ट्राइकोडर्मा की विभिन्न प्रजातियां जैसे लाभकारी सूक्ष्मजीवों के उपयोग करें जो रोगजनक कवक को दबाने में मदद करते हैं।

स्वच्छता

संक्रमित पौधों के मलबे को हटाकर और नष्ट करके खेत की अच्छी स्वच्छता अपनाएं। यह मिट्टी में रोगज़नक़ों के निर्माण को रोकता है। बीमारी को फैलने से रोकने के लिए औजारों और उपकरणों को कीटाणुरहित करें।

प्रतिरोधी किस्में

यदि उपलब्ध हो तो परवल की ऐसी किस्में चुनें जिनमें जड़ और बेल सड़न के प्रति प्रतिरोधक क्षमता हो। प्रतिरोधी किस्में संक्रमण के खतरे को काफी हद तक कम कर सकती हैं।

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पोषक तत्व प्रबंधन

मिट्टी में पोषक तत्वों का संतुलित स्तर बनाए रखें। पोषक तत्वों की कमी वाले पौधे रोगों के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं। मृदा परीक्षण के आधार पर उर्वरक का प्रयोग की नियमित निगरानी और समायोजन करें।

प्रशिक्षण और शिक्षा

किसानों को रोग की पहचान और प्रबंधन तकनीकों में प्रशिक्षित करें। समय पर सलाह और सहायता के लिए स्थानीय सहायता नेटवर्क और विस्तार सेवाएँ स्थापित करें।

मौसम की निगरानी

मौसम की स्थिति पर नज़र रखें, विशेषकर बरसात के मौसम में। जब परिस्थितियाँ फंगल वृद्धि के अनुकूल हों तो निवारक उपाय लागू करें। अंत में कहने का तात्पर्य है की परवल में जड़ और बेल का सड़ना किसानों के लिए एक चुनौतीपूर्ण हो सकता है, लेकिन सही प्रबंधन रणनीतियों के साथ, इसके प्रभाव को कम किया जा सकता है। फसल चक्र, मिट्टी की तैयारी और उचित जल प्रबंधन जैसे निवारक उपाय महत्वपूर्ण हैं। इसके अतिरिक्त, रोग प्रतिरोधी किस्मों और जैविक नियंत्रण विधियों का उपयोग फसल के लचीलेपन को और बढ़ा सकता है। रोग प्रबंधन के लिए समग्र दृष्टिकोण अपनाकर और सर्वोत्तम प्रथाओं के बारे में सूचित रहकर, किसान अपनी परवल फसलों की रक्षा कर सकते हैं और अधिक सुरक्षित और लाभदायक फसल सुनिश्चित कर सकते हैं।