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जाने काजू की खेती की सम्पूर्ण जानकारी

जाने काजू की खेती की सम्पूर्ण जानकारी

काजू भारत का एक लोकप्रिय नट है। काजू  लगभग एक इंच मोटा होता ह।  काजू एक प्रकार का पेड़ होता है ,जिसका उपयोग सूखे मेवे के रूप में किया जाता है। काजू दो परतो के साथ एक शेल के अंदर घिरा हुआ होता है ,और यह शेल चिकना और तैलीय होता है। काजू का उत्पादन भारत जैसे देश के कई राज्यों में किया जाता है। जैसे : पश्चिम बंगाल , तमिल नाडू , केरला , उड़ीसा, महाराष्ट्र और गोवा।

कब और कैसे करें काजू की खेती 

काजू की खेती किसानों द्वारा अप्रैल और मई माह में की जाती है। किसानों द्वारा काजू की खेती के लिए सबसे पहले भूमि को तैयार किया जाता है। इसमें भूमि पर होने वाले अनावश्यक पौधे और झाड़ियों को उखाड़ दिया जाता है। इसके बाद खेत में 3 -4  बार जुताई की जाती है , जुताई की जाने के बाद खेत को पाटा लगाकर समतल बनाया जाता है। उसके बाद भूमि को अधिक उपजाऊ बनाने के बाद किसानों द्वारा गोबर खाद का भी प्रयोग किया जाता है। आवश्यकतानुसार , किसानों द्वारा खेत में गोबर की खाद डालकर , खेत की अच्छे से जुताई की जाती है।

कैसे करें बुवाई 

किसानों द्वारा काजू के पौधे की बुवाई के लिए खेत में 15 -20  से मी की दूरी पर खेत में गढ्डे बनाये जाते है। गड्डो को कम से कम 15  -20 दिनों के लिए खाली छोड़ दिया जाता है। उसके बाद गड्डो में डीएपी और गोबर की खाद को ऊपरी मिट्टी में मिलाकर अच्छे से भर दिया जाता है। ध्यान रखे गड्डो के पास की भूमि ऐसी न हो जहाँ  पानी भरने की समस्या उत्पन्न हो , उससे काजू के पौधे पर काफी प्रभाव पड सकता है। 

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काजू के पौधो को वैसे वर्षा काल में लगाना ही बेहतर माना जाता है। बुवाई के बाद खेत में होने वाली खरपतवार को रोकने के लिए किसानों द्वारा समय समय नराई और गुड़ाई का काम किया जाता है। 

काजू की उन्नत किस्में

काजू की विभिन्न किस्में इस प्रकार है , जिनका उत्पादन किसानों द्वारा किया जा सकता है। वेगुरला-4 , उल्लाल -2 , उल्लाल -4 , बी पी पी -1 , बी पी पी -2 , टी -40 यह सब काजू की प्रमुख किस्में है, जिनका उत्पादन कर किसान ज्यादा मुनाफा कमा सकता है।  इन किस्मो का ज्यादातर उत्पादन मध्य प्रदेश , केरला , बंगाल , उड़ीसा और कर्नाटकजैसे राज्यों में किया जाता है।

काजू की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु और मृदा 

काजू की खेती के लिए वैसे सभी प्रकार की मिट्टी में की जा सकती है। काजू का ज्यादातर उत्पादन वर्षा वाले क्षेत्रों में किया जाता है , इसीलिए काजू की खेती के लिए समुद्र तटीय ,लाल और लेटराइट मिट्टी को बेहतर माना गया है। काजू का मुख़्यत उत्पादन झारखंड राज्य में किया जाता है ,क्योकि यहां की मृदा और जलवायु को काजू की खेती के लिए उपयुक्त माना जाता है।  काजू को उष्णकटिबंधीय फसल माना जाता है , इसीलिए ,इसके उत्पादन के लिए गर्म और उष्ण जलवायु के आवश्यकता होती है।

काजू की खेती में उपयुक्त खाद एवं उर्वरक 

काजू की खेती के अधिक उत्पादन के लिए किसान गोबर खाद के साथ साथ यूरिया , पोटाश और फास्फेट का  उपयोग कर सकते है। पहले वर्ष में किसानों द्वारा 70  ग्राम फॉस्फेट, 200 ग्राम यूरिया और 300 ग्राम यूरिया का प्रयोग किया जाता है।  कुछ समय बाद , फसल के बढ़वार के साथ इसकी मात्रा दुगनी कर देनी चाहिए।  किसानों द्वारा समय पर कीट और खरपतवार की समस्या को भी खेत में देखते रहना चाहिए।

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काजू के अच्छे उत्पादन के लिए किसानों को समय समय पर पेड़ों की काँट-छाँट करते रहना चाहिए। यह सब काजू के पेड़ को अच्छा ढाँचा देने के लिए आवश्यक है। किसानों द्वारा काजू के पेड़ों की जाँच करते रहना चाहिए , और समय समय पर पेड़ में सूखने वाली टहनियों या रोगग्रस्त टहनियों को निकाल दिया जाना चाहिए। काजू की फसल में लगने वाले बहुत से कीट ऐसे होते है , जो काजू के पेड़ में आने वाली नयी कोपलों और पत्तियों  का रस चूसकर पौधे को झुलसा देती है।

काजू की फसल की तुड़ाई कब की जाती है 

काजू की फसल लगभग फेब्रुअरी से अप्रैल माह तक तैयार होती है। काजू की पूरी  फसल की तुड़ाई नहीं की जाती है , केवल गिरे हुए नट को ही इकट्ठा किया जाता है। नट को इकट्ठा करने के बाद , उन्हें धुप में अच्छे से सुखाया जाता है। धुप में अच्छे से सुखाने के बाद किसानो द्वारा उन्हें जूट के बोरों में भर दिया जाता है। इन बोरों को किसी ऊँचे स्थान पर रखा जाता है , ताकि फसल को नमी से दूर रखा जा सके।

काजू का वानस्पातिक नाम अनाकार्डियम ऑक्सिडेंटले एल है।  काजू में पोषक तत्व के साथ बहुत से न्यूट्रिशनल गुण भी पाए जाते है। जो की स्वास्थ्य के लिए बेहद लाभकारी होते है।  काजू का उपयोग दिमाग की कार्यक्षमता को बढ़ाने के लिए भी किया जाता है।  जिन व्यक्तियों को हड्डियों , मधुमेह और हीमोग्लोबिन से जुडी समस्याएं है , उनमे भी काजू लाभकारी सिद्ध  हुआ है।

काजू की अब तक 33 किस्मो की पहचान की गयी है , लेकिन सिर्फ 26  प्रकार की ही किस्मो को बाजार में बेचा जाता है। जिनमे से डब्ल्यू -180 की किस्म को "काजू का राजा "माना जाता है , क्योंकि इसमें बहुत से बायोएक्टिव कम्पाउंड पाए जाते है ,जो हमारे शरीर में होने वाले रक्त की कमी को पूरा करते है , कैंसर जैसी बीमारियों से लड़ने में सहायक रहते है , शरीर में होने वाले दर्द और सूजन में लाभकारी होता है।

किसानों के लिए जैविक खेती करना बेहद फायदेमंद, जैविक उत्पादों की बढ़ रही मांग

किसानों के लिए जैविक खेती करना बेहद फायदेमंद, जैविक उत्पादों की बढ़ रही मांग

जैविक खेती से कैंसर दिल और दिमाग की खतरनाक बीमारियों से लड़ने में भी सहायता मिलती है। प्रतिदिन कसरत और व्यायाम के साथ प्राकृतिक सब्जी और फलों का आहार आपके जीवन में बहार ला सकता है।

ऑर्गेनिक फार्मिंग मतलब जैविक खेती को पर्यावरण का संरक्षक माना जाता है। कोरोना महामारी के बाद से लोगों में स्वास्थ्य के प्रति काफी ज्यादा जागरुकता पैदा हुई है। बुद्धिजीवी वर्ग खाने पीने में रासायनिक खाद्य से उगाई सब्जी के स्थान पर जैविक खेती से उगाई सब्जियों को प्राथमिकता दे रहा है।

बीते 4 वर्षों में दो गुना से ज्यादा उत्पादन हुआ है

भारत में विगत चार वर्षों से जैविक खेती का क्षेत्रफल यानी रकबा बढ़ रहा है और दोगुने से भी ज्यादा हो गया है। 2019-20 में रकबा 29.41 लाख हेक्टेयर था, 2020-21 में यह बढ़कर 38.19 लाख हेक्टेयर हो गया और पिछले साल 2021-22 में यह 59.12 लाख हेक्टेयर था।

कई गंभीर बीमारियों से लड़ने में बेहद सहायक

प्राकृतिक कीटनाशकों पर आधारित जैविक खेती से कैंसर और दिल दिमाग की खतरनाक बीमारियों से लड़ने में भी मदद मिलती है। प्रतिदिन कसरत और व्यायाम के साथ प्राकृतिक सब्जी और फलों का आहार आपके जीवन में शानदार बहार ला सकता है।

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भारत की धाक संपूर्ण वैश्विक बाजार में है 

जैविक खेती के वैश्विक बाजार में भारत तेजी से अपनी धाक जमा रहा है। इतनी ज्यादा मांग है कि सप्लाई पूरी नहीं हो पाती है। आने वाले वर्षों में जैविक खेती के क्षेत्र में निश्चित तौर पर काफी ज्यादा संभावनाएं हैं। सभी लोग अपने स्वास्थ को लेकर जागरुक हो रहे हैं। 

जैविक खेती इस प्रकार शुरु करें 

सामान्य तौर पर लोग सवाल पूछते हैं, कि जैविक खेती कैसे आरंभ करें ? जैविक खेती के लिए सबसे पहले आप जहां खेती करना चाहते हैं। वहां की मिट्टी को समझें। ऑर्गेनिक खेती शुरू करने से पहले किसान इसका प्रशिक्षण लेकर शुरुआत करें तो चुनौतियों को काफी कम किया जा सकता है। किसान को बाजार की डिमांड को समझते हुए फसल का चयन करना है, कि वह कौन सी फसल उगाए। इसके लिए किसान अपने नजदीकी कृषि विज्ञान केंद्र या कृषि विश्वविद्यालयों के विशेषज्ञों से मशवरा और राय अवश्य ले लें।

सावधान : बढ़ती गर्मी में इस तरह करें अपने पशुओं की देखभाल

सावधान : बढ़ती गर्मी में इस तरह करें अपने पशुओं की देखभाल

फिलहाल गर्मी के दिन शुरू हो गए हैं। आम जनता के साथ-साथ पशुओं को भी गर्मी प्रभावित करेगी। ऐसे में मवेशियों को भूख कम और प्यास ज्यादा लगती है। पशुपालक अपने मवेशियों को दिन में न्यूनतम तीन बार जल पिलाएं। 

जिससे कि उनके शरीर को गर्म तापमान को सहन करने में सहायता प्राप्त हो सके। इसके अतिरिक्त लू से संरक्षण हेतु पशुओं के जल में थोड़ी मात्रा में नमक और आटा मिला देना चाहिए। 

भारत के विभिन्न राज्यों में गर्मी परवान चढ़ रही है। इसमें महाराष्ट्र राज्य सहित बहुत से प्रदेशों में तापमान 40 डिग्री पर है। साथ ही, गर्म हवाओं की हालत देखने को मिल रही है। साथ ही, उत्तर भारत के अधिकांश प्रदेशों में तापमान 35 डिग्री तक हो गया है। 

इस मध्य मवेशियों को गर्म हवा लगने की आशंका रहती है। लू लगने की वजह से आम तौर पर पशुओं की त्वचा में सिकुड़न और उनकी दूध देने की क्षमता में गिरावट देखने को मिलती है। 

हालात यहां तक हो जाते हैं, कि इसके चलते पशुओं की मृत्यु तक हो जाने की बात सामने आती है। ऐसी भयावय स्थिति से पशुओं का संरक्षण करने के लिए उनकी बेहतर देखभाल करना अत्यंत आवश्यक है।

पशुओं को पानी पिलाते रहें

गर्मी के दिनों में मवेशियों को न्यूनतम 3 बार जल पिलाना काफी आवश्यक होता है। इसकी मुख्य वजह यह है, कि जल पिलाने से पशुओं के तापमान को एक पर्याप्त संतुलन में रखने में सहायता प्राप्त होती है। 

इसके अतिरिक्त मवेशियों को जल में थोड़ी मात्रा में नमक और आटा मिलाकर पिलाने से गर्म हवा लगने की आशंका काफी कम रहती है। 

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यदि आपके पशुओं को अधिक बुखार है और उनकी जीभ तक बाहर निकली दिख रही है। साथ ही, उनको सांस लेने में भी दिक्कत का सामना करना पड़ रहा है। उनके मुंह के समीप झाग निकलते दिखाई पड़ रहे हैं तब ऐसी हालत में पशु की शक्ति कम हो जाती है। 

विशेषज्ञों के मुताबिक, ऐसे हालात में अस्वस्थ पशुओं को सरसों का तेल पिलाना काफी लाभकारी साबित हो सकता है। सरसों के तेल में वसा की प्रचूर मात्रा पायी जाती है। जिसकी वजह से शारीरिक शक्ति बढ़ती है। विशेषज्ञों के अनुरूप गाय और भैंस के पैदा हुए बच्चों को सरसों का तेल पिलाया जा सकता है।

पशुओं को सरसों का तेल कितनी मात्रा में पिलाया जाना चाहिए

सीतापुर जनपद के पशुपालन वैज्ञानिक डॉ आनंद सिंह के अनुरूप, गर्मी एवं लू से पशुओं का संरक्षण करने के लिए काफी ऊर्जा की जरूरत होती है। ऐसी हालत में सरसों के तेल का सेवन कराना बेहद लाभकारी होता है। 

ऊर्जा मिलने से पशु तात्कालिक रूप से बेहतर महसूस करने लगते हैं। हालांकि, सरसों का तेल पशुओं को प्रतिदिन देना लाभकारी नहीं माना जाता है। 

डॉ आनंद सिंह के अनुसार, पशुओं को सरसों का तेल तभी पिलायें, जब वह बीमार हों अथवा ऊर्जा स्तर निम्न हो। इसके अतिरिक्त पशुओं को एक बार में 100 -200 ML से अधिक तेल नहीं पिलाना चाहिए। 

हालांकि, अगर आपकी भैंस या गायों के पेट में गैस बन गई है, तो उस परिस्थिति में आप अवश्य उन्हें 400 से 500 ML सरसों का तेल पिला सकते हैं। 

साथ ही, पशुओं के रहने का स्थान ऐसी जगह होना चाहिए जहां पर प्रदूषित हवा नहीं पहुँचती हो। पशुओं के निवास स्थान पर हवा के आवागमन के लिए रोशनदान अथवा खुला स्थान होना काफी जरुरी है।

पशुओं की खुराक पर जोर दें

गर्मी के मौसम में लू के चलते पशुओं में दूध देने की क्षमता कम हो जाती है। उनको इस बीच प्रचूर मात्रा में हरा एवं पौष्टिक चारा देना अत्यंत आवश्यक होता है। 

हरा चारा अधिक ऊर्जा प्रदान करता है। हरे चारे में 70-90 फीसद तक जल की मात्रा होती है। यह समयानुसार जल की आपूर्ति सुनिश्चित करती है। इससे पशुओं की दूध देने की क्षमता काफी बढ़ जाती है।

पशुपालन विभाग की तरफ से निकाली गई बंपर भर्ती, उम्मीदवार 5 जुलाई से आवेदन कर सकते हैं

पशुपालन विभाग की तरफ से निकाली गई बंपर भर्ती, उम्मीदवार 5 जुलाई से आवेदन कर सकते हैं

बीपीएनएल के ओर से सर्वे इंचार्ज एवं सर्वेयर पद पर अच्छी खासी संख्या में भर्तियां निकाली हैं। इस भर्ती में सर्वे इंचार्ज पद के लिए 574 वहीं सर्वेयर पद के लिए 2870 भर्तियां निर्धारित की गई हैं। भारतीय पशुपालन निगम लिमिटेड में बंपर भर्ती निकली है। यदि आप सरकारी नौकरी करना चाहते हैं एवं पशुपालन में आपकी रुचि है तो ये भर्ती आपके लिए ही है। सबसे खास बात यह है, कि इस भर्ती में 10वीं पास लोग भी हिस्सा ले सकते हैं। जो भी इच्छुक उम्मीदवार इस भर्ती परीक्षा में बैठना चाहते हैं, उनको 5 जुलाई से पूर्व इस परीक्षा के लिए आवेदन फॉर्म भरना पड़ेगा। इस भर्ती से जुड़ी समस्त जानकारी आपको बीपीएनएल की आधिकारिक वेबसाइट पर प्राप्त हो जाएगी।

भर्ती हेतु आवेदनकर्ता पर क्या-क्या होना चाहिए

भारतीय पशुपालन निगम लिमिटेड मतलब कि बीपीएनएल द्वारा सर्वे इंचार्ज और सर्वेयर पद पर बंपर भर्तियां निकाली हैं। इस भर्ती में सर्वे इंचार्ज पद के लिए 574 एवं सर्वेयर पद के लिए 2870 भर्तियां निर्धारित की गई हैं। आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि जो लोग भी सर्वे इंचार्ज पद पर आवेदन करना चाहते हैं, उन उम्मीदवारों की आयु सीमा 21 से 40 वर्ष के मध्य होनी अति आवश्यक है। इसके साथ ही उनके पास भारत के किसी मान्यता प्राप्त कॉलेज से 12वीं पास का रिजल्ट भी होना अनिवार्य है। वहीं, सर्वेयर पद के लिए जो उम्मीदवार इच्छुक हैं, उनकी आयु सीमा 18 से 40 वर्ष के मध्य होनी चाहिए। साथ ही, उनके पास 10वीं पास का रिजल्ट अवश्य होना चाहिए। हालांकि, ऐसा नहीं है, कि इस भर्ती के लिए केवल 10वीं अथवा 12वीं पास लोग ही आवेदन कर सकते हैं। यदि आप इससे अधिक पढ़े लिखे हैं, तब भी आप इस भर्ती के लिए आवेदन कर सकते हैं। यह भी पढ़ें: इन पशुपालन में होता है जमकर मुनाफा

भर्ती परीक्षा हेतु कितनी फीस तय की गई है

भारतीय पशुपालन निगम लिमिटेड की भर्ती परीक्षा की फीस की बात की जाए तो सर्वे इंचार्ज पद पर आवेदन करने के लिए उम्मीदवारों को 944 रुपये की फीस जमा करनी पड़ेगी। इसके अतिरिक्त सर्वेयर पद के लिए जो उम्मीदवार आवेदन करना चाहते हैं, उनकी फीस 826 रुपये निर्धारित की गई है। समस्त उम्मीदवारों का चयन ऑनलाइन टेस्ट एवं इंटरव्यू के अनुसार होगा। सबसे खास बात यह है, कि आवेदन की प्रक्रिया आरंभ हो चुकी है और अंतिम तिथि 5 जुलाई 2023 है।
गोवंश में कुपोषण से लगातार बाँझपन की समस्या बढ़ती जा रही है

गोवंश में कुपोषण से लगातार बाँझपन की समस्या बढ़ती जा रही है

पशुओं में कुपोषण की वजह से बांझपन की बीमारियां निरंतर बढ़ती जा रही हैं। खास कर गोवंश में देखी जा रही है। गोवंश में बांझपन के बढ़ते मामलों के का सबसे बड़ा कारण कुपोषण है। इसका मतलब है, कि पशुओं को पौष्टिक आहार नहीं मिल पा रहा है। इस गंभीर समस्या से किसानों के साथ-साथ पशुपालन से संबंधित समस्त संस्थाऐं भी काफी परेशान हैं। सरदार बल्लभभाई पटेल कृषि विश्वविद्यालय वेटनरी कॉलेज के अधिष्ठाता डॉ राजीव सिंह ने बताया है, कि व्यस्क पशुओं में कम वजन व जननागों के अल्प विकास से पशुओं में प्रजनन क्षमता में कमी देखने को मिल रही है। जैसा कि उपरोक्त में बताया गया है, कि इसका मुख्य कारण कुपोषण है। इफ्को टोकियो जनरल इंश्योरेंस लिमिटेड के वित्तीय सहयोग से कृषि विश्व विद्यालय और पशुपालन विभाग द्वारा मेरठ के ग्राम बेहरामपुर मोरना ब्लॉक जानी खुर्द में निशुल्क पशु स्वास्थ्य शिविर का आयोजन कुलपति डॉ के.के. सिंह एवं पशुपालन विभाग के अपर निदेशक डॉ अरुण जादौन के निर्देश में हुआ है।

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इस उपलक्ष्य पर परियोजना के मार्ग दर्शक डॉ राजवीर सिंह ने कहा है, कि मादा पशुओं को संतुलित आहार के साथ-साथ प्रोटीन और खनिज मिश्रण जरूर देना चाहिए। जिसकी सहायता से उनकी गर्भधारण क्षमता बरकरार रहे। परियोजना प्रभारी डॉ अमित वर्मा का कहना है, कि पशुओं में खनिज तत्वों के अभाव की वजह से भूख ना लगना, बढ़वार एवं प्रजनन क्षमता में कमी जैसे समय पर गर्मी में ना आना, अविकसित संतानो की उत्पत्ति, दूध उत्पादन में कमी, एनीमिया इत्यादि समस्याऐं आ सकती हैं। बतादें, कि पशुओं को प्रतिदिन 30 - 50 ग्राम मिनरल मिक्सचर पाउडर पशु आहार के लिए जरूर देना चाहिए। पशु स्वास्थ्य शिविर में पशु चिकित्सा महाविद्यालय कॉलेज मेरठ के विशेषज्ञों इनमें डॉ. अमित वर्मा, डॉ अरविन्द सिंह, डॉ अजीत कुमार सिंह, डॉ विकास जायसवाल, डॉ प्रेमसागर मौर्या, डॉ आशुतोष त्रिपाठी और डॉ रमाकांत इत्यादि की टीम के द्वारा 157 पशुओं को कृमिनाशक, बाँझपन प्रबंधन, गर्भावस्था निदान, रक्त व गोबर की जाँच जैसी पशु चिकित्सा सेवाएं और तदानुसार मुफ्त दवाएं भी प्रदान की गईं। पशु चिकित्साधिकारी डॉ रिंकू नारायण एवं डॉ विभा सिंह ने पशुपालन के लिए सरकार की तरफ से दिए जाने वाले किसान क्रेडिट कार्ड तथा सब्सिड़ी योजनाओं के संबंध में जानकारी प्रदान की। प्रशांत कौशिक ग्राम प्रधान समेत अन्य ग्रामवासियों ने शिविर के आयोजन हेतु कृषि विवि की कोशिशों की सराहना करते हुए धन्यवाद व्यक्त किया।

नांदेड स्थित कपास अनुसंधान केंद्र ने विकसित की कपास की तीन नवीन किस्में

नांदेड स्थित कपास अनुसंधान केंद्र ने विकसित की कपास की तीन नवीन किस्में

किसान भाइयों की जानकारी के लिए बतादें, कि नांदेड़ मौजूद कपास अनुसंधान केंद्र ने विगत छह साल के शोध के उपरांत कपास की तीन बीटी किस्में विकसित की हैं। इन किस्मों को हाल ही में नई दिल्ली में आयोजित केंद्रीय किस्म चयन समिति की बैठक में स्वीकृत दी गई है। दावा यह भी किया गया है, क‍ि इनके बीजों का तीन वर्ष तक इस्तेमाल किया जा सकता है। वसंतराव नाइक मराठवाड़ा कृषि विश्वविद्यालय, परभणी के नांदेड़ मौजूद कपास अनुसंधान केंद्र ने कपास की तीन नवीन किस्में इजात की हैं। अब इन किस्मों से किसानों को अधिक फायदा होगा। किसानों के लिए बीज की लागत को कम करने में सहायता मिलेगी। बतादें, कि पैदावार भी काफी अच्छी होगी। इन क‍िस्मों को शुष्क जमीन वाले इलाकों में भी उगाया जा सकता है। यह बीटी क‍िस्म है, बीटी कॉटन के बीज के ल‍िए किसानों को निजी कंपनियों पर आश्रित रहना पड़ता था, ज‍िससे उन्हें बीज पर अधिक धनराशि खर्च करनी पड़ती थी। वर्तमान में नवीन क‍िस्में किसानों को एक विकल्प मुहैय्या कराएगी। यूनिवर्सिटी की तरफ से यह दावा किया गया है।

कपास की तीन नई किस्में इजात की गई

नांदेड़ मौजूद कपास अनुसंधान केंद्र ने विगत छह साल के शोध के पश्चात कपास की तीन बीटी किस्में इजात की हैं। इनमें एनएच 1901 बीटी, एनएच 1902 बीटी एवं एनएच 1904 बीटी शम्मिलित हैं। इन किस्मों को वर्तमान में नई दिल्ली में आयोजित केंद्रीय किस्म चयन समिति की बैठक में स्वीकृति दी गई है। इनकी बिजाई लागत संकर किस्मों की तुलना में कम होने का दावा क‍िया गया है। दावा यह भी किया गया है, क‍ि इनके बीजों का तीन वर्ष तक इस्तेमाल किया जा सकता है। ये भी पढ़े: कपास की खेती की संपूर्ण जानकारी

ये किस्में क‍िन राज्यों के ल‍िए विकसित की गई हैं

बतादें, कि इन किस्मों में खादों का उपयोग भी कम होगा। हालांकि, किसानों की तरफ से कपास की ऐसी किस्मों की मांग है। परंतु, किस्मों की अनुपलब्धता की वजह राज्य में सबसे ज्यादा संकर कपास की खेती की गई है। इस जरूरत को ध्यान में रखते हुए ही नवीन क‍िस्में तैयार की गई हैं। महाराष्ट्र प्रमुख कपास उत्पादक राज्य है। यहां बड़े पैमाने पर क‍िसान कॉटन की खेती पर न‍िर्भर हैं। ये तीन नवीन क‍िस्में महाराष्ट्र, गुजरात एवं मध्य प्रदेश के ल‍िए उपयुक्त हैं।

दक्ष‍िण भारत के ल‍िए विकसित की गई अलग क‍िस्म

यह दावा किया गया है, क‍ि परभणी कृषि विश्वविद्यालय कपास की सीधी किस्मों को बीटी तकनीक में परिवर्तित करने वाला राज्य का पहला कृषि विश्वविद्यालय बन चुका है। इससे पूर्व यह प्रयोग नागपुर के केंद्रीय कपास अनुसंधान केंद्र ने किया था। यह किस्म अब किसानों को आगामी वर्ष में खेती के लिए उपलब्ध होगी। साथ ही, परभणी के मेहबूब बाग कपास अनुसंधान केंद्र ने स्वदेशी कपास की एक सीधी किस्म 'पीए 833' विकसित की है, जो दक्षिण भारत के लिए अनुकूल है। ये भी पढ़े: किसानों के लिए सफेद सोना साबित हो रही कपास की खेती : MSP से डबल हो गए कपास के दाम

विकसित की गई इन तीन नवीन क‍िस्मों की विशेषता

कपास की इन तीन नवीन क‍िस्मों में संकर किस्म के मुकाबले में कम रासायनिक उर्वरकों की जरूरत होती है। इस किस्म में रस चूसने वाले कीट, जीवाणु झुलसा रोग और पत्ती धब्बा रोग नहीं लगता है। यह इन रोगों के प्रत‍ि बेहद सहनशील है। इस किस्म की कपास का उत्पादन 35 से 37 प्रतिशत है। धागों की लंबाई मध्यम है। मजबूती और टिकाऊपन भी काफी अच्छा है। यूनिवर्सिटी का दावा है, कि यह किस्म सघन खेती के लिए भी अच्छी है।
बन्नी नस्ल की भैंस देती है 15 लीटर दूध, जानिए इसके बारे में

बन्नी नस्ल की भैंस देती है 15 लीटर दूध, जानिए इसके बारे में

बन्नी भैंस पाकिस्तान के सिंध प्रान्त की किस्म है, जो भारत में गुजरात प्रांत में दुग्ध उत्पादन के लिए मुख्य रूप से पाली जाती है। बन्नी भैंस का पालन गुजरात के सिंध प्रांत की जनजाति मालधारी करती है। जो दूध की पैदावार के लिए इस जनजाति की रीढ़ की हड्डी मानी जाती है। बन्नी नस्ल की भैंस गुजरात राज्य के अंदर पाई जाती है। गुजरात राज्य के कच्छ जनपद में ज्यादा पाई जाने की वजह से इसे कच्छी भी कहा जाता है। यदि हम इस भैंस के दूसरे नाम ‘बन्नी’ के विषय में बात करें तो यह गुजरात राज्य के कच्छ जनपद की एक चरवाहा जनजाति के नाम पर है। इस जनजाति को मालधारी जनजाति के नाम से भी जाना जाता है। यह भैंस इस समुदाय की रीढ़ भी कही जाती है।

भारत सरकार ने 2010 में इसे भैंसों की ग्यारहवीं अलग नस्ल का दर्जा हांसिल हुआ

बाजार में इस भैंस की कीमत 50 हजार से लेकर 1 लाख रुपये तक है। यदि इस भैंस की उत्पत्ति की बात की जाए तो यह भैंस पाकिस्तान के सिंध प्रान्त की नस्ल मानी जाती है। मालधारी नस्ल की यह भैंस विगत 500 सालों से इस प्रान्त की मालधारी जनजाति अथवा यहां शासन करने वाले लोगों के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण पशुधन के रूप में थी। पाकिस्तान में अब इस भूमि को बन्नी भूमि के नाम से जाना जाता है। आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि भारत के अंदर साल 2010 में इसे भैंसों की ग्यारहवीं अलग नस्ल का दर्जा हांसिल हुआ था। इनकी शारीरिक विशेषताएं अथवा
दुग्ध उत्पादन की क्षमता भी बाकी भैंसों के मुकाबले में काफी अलग होती है। आप इस भैंस की पहचान कैसे करें।

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बन्नी भैंस की कितनी कीमत है

दूध उत्पादन क्षमता के लिए पशुपालकों में प्रसिद्ध बन्नी भैंस की ज्यादा कीमत के कारण भी बहुत सारे पशुपालक इसे खरीद नहीं पाते हैं। आपको बता दें एक बन्नी भैंस की कीमत 1 लाख रुपए से 3 लाख रुपए तक हो सकती है।

बन्नी भैंस की क्या खूबियां होती हैं

बन्नी भैंस का शरीर कॉम्पैक्ट, पच्चर आकार का होता है। इसके शरीर की लम्बाई 150 से 160 सेंटीमीटर तक हो होती है। इसकी पूंछ की लम्बाई 85 से 90 सेमी तक होती है। बतादें, कि नर बन्नी भैंसा का वजन 525-562 किलोग्राम तक होता है। मादा बन्नी भैंस का वजन लगभग 475-575 किलोग्राम तक होता है। यह भैंस काले रंग की होती है, लेकिन 5% तक भूरा रंग शामिल हो सकता है। निचले पैरों, माथे और पूंछ में सफ़ेद धब्बे होते हैं। बन्नी मादा भैंस के सींग ऊर्ध्वाधर दिशा में मुड़े हुए होते हैं। साथ ही कुछ प्रतिशत उलटे दोहरे गोलाई में होते हैं। नर बन्नी के सींग 70 प्रतिशत तक उल्टे एकल गोलाई में होते हैं। बन्नी भैंस औसतन 6000 लीटर वार्षिक दूध का उत्पादन करती है। वहीं, यह प्रतिदिन 10 से 18 लीटर दूध की पैदावार करती है। बन्नी भैंस साल में 290 से 295 दिनों तक दूध देती है।
सरसों की फसल के रोग और उनकी रोकथाम के उपाय

सरसों की फसल के रोग और उनकी रोकथाम के उपाय

सरसों की फसल का रकबा बढ़ गया है क्योकि खाद्य तेलों की मांग और आपूर्ति में आये अंतर की वजह से इसकी कीमत अच्छी रहने की उम्मीद है. इसी वजह से इसकी बुबाई भी ज्यादा मात्रा में की गई है. अभी हमारे किसान भाई सरसों में पानी और खाद लगा कर उसकी बढ़वार और पेड़ पर कोई रोग न आये उसके ऊपर ध्यान केंद्रित रख रहे हैं. सरसों की खेती में लागत काम और देखभाल ज्यादा होती है क्योकि इसको कच्ची फसल बोला जाता है. इसको कई प्रकार के कीटों से खतरा रहता है इनमे मुख्यतः माहू मक्खी, सुंडी, चेंपा आदि है. अगर इसका समय से उपचार न किया जाये तो ये 10 से 90% तक फसल को नुकसान कर जाता है. इसलिए यह अति आवश्यक है कि इन कीटों की सही पहचान कर उचित और समय पर रोकथाम की जाए. यदि समय रहते इन रोगों एवं कीटों का नियंत्रण कर लिया जाये तो सरसों के उत्पादन में बढ़ोत्तरी की जा सकती है.

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मेरीखेती के WhatsApp ग्रुप के सदस्य ने हमें अपने खेत का फोटो भेजा तथा इस पर जानकारी चाही इस पर हमारे सलाहकार मंडल के सदस्य श्री दिलीप यादव जी ने उनकी समस्या का समाधान किया. नीचे दिए गए फोटो को देखकर आप भी अपने उचित सलाह हमारे किसान भाइयों को दे सकते हैं.

सरसों के प्रमुख कीट और नियंत्रण:

आरा मक्खी:

इस समय सरसों में चित्रित कीट व माहू कीट का प्रकोप होने का डर ज्यादा रहता है. इसके असर से शुरू में फसलों के छोटे पौधों पर आरा मक्खी की गिडारें ( सुंडी, काली गिडार व बालदार गिडार) नुकसान पंहुचाती हैं, गिडारें काले रंग की होती हैं जो पत्तियों को बहुत तेजी के साथ किनारों से विभिन्न प्रकार के छेद बनाती हुई खाती हैं जिसके कारण पत्तियां बिल्कुल छलनी हो जाती हैं. इससे पेड़ सूख जाता है और समाप्त हो जाता है. उपाय: मेलाथियान 50 ई.सी. की 200 मि.ली. मात्रा को 200 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ छिड़काव करें, तथा पानी भी लगा दें. जिससे की नीचे आने वाले कीट डूब कर मर जाएँ.

माहू या चेंपा:

यह रोग देर से बोई गई प्रजाति पर ज्यादा आता है लेकिन कई बार मौसम अगर जल्दी गरम हो जाये और फसल पर फलियां बन रही हों या कच्ची हो तो इसका ज्यादा नुकसान होता है. यह फसल को पूरी तरह से ख़तम कर देता है. उपाय: बायोएजेन्ट वर्टिसिलियम लिकेनाइ एक किलोग्राम प्रति हेक्टेयर एवं 7 दिन के अंतराल पर मिथाइल डिमेटोन (25 ई.सी.) या डाइमिथोएट (30 ई.सी) 500 मि.ली./हेक्टेयर का छिड़काव करें.

मृदुरोमिल आसिता:

लक्षण- जब सरसों के पौधे 15 से 20 दिन के होते हैं तब पत्तों की निचली सतह पर हल्के बैंगनी से भूरे रंग के धब्बे नजर आते हैं बहुत अधिक नमी में इस रोग का कवक तने तथा स्टेग हैड’ पर भी दिखाई देता है| यह रोग फूलों वाली शाखाओं पर अधिकतर सफेद रतुआ के साथ ही आता हैं|

सफेद रतुआ

लक्षण- सरसों की पत्तियों के निचली सतह पर चमकीले सफेद उभरे हुए धब्बे बनते हैं, पत्तियों को ऊपरी सतह पीली पड़ जाती हैं, जिससे पत्तियों झुलसकर गिर जाती हैं एवं पौधे कमजोर हो जाते हैं| रोग की अधिकता में ये सफेद धब्वे तने और कलियों पर भी दिखाई देते नमी रहने पर रतुआ एवं रोमिल रोगो के मिले जुले धन्ये ‘स्टेग हैड” (विकृत फ्लों) पर साफ दिखाई देते हैं|

काले धब्बों का रोग

लक्षण- सरसों की पत्तियों पर छोटे-छोटे गहरे भूरे गोल धब्बे बनते हैं, जो बाद में तेजी से बढ़ कर काले और बड़े आकार के हो जाते हैं, एवं इन धब्बों में गोल छल्ले साफ नजर आते हैं| रोग की अधिकता में बहुत से धवे आपस में मिलकर बड़ा रूप ले लेते हैं तथा फलस्वरूप पत्तियां सूख कर गिर जाती हैं, तने और फलों पर भी गोल गहरे भूरे रंग के धब्बे बनते हैं|

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तना गलन

लक्षण- सरसों के तनों पर लम्बे व भूरे जलसिक्त धब्बे बनते हैं, जिन पर बाद में सफेद फफूंद की तह बन जाती है, यह सफेद फंफूद पत्तियों, टहनियों और फलियों पर भी नजर आ सकते हैं| उग्र आक्रमण यदि फुल निकलने या फलियाँ बनने के समय पर हो तो तने टूट जाते हैं एवं पौधे मुरझा कर सूख जाते हैं| फसल की कटाई के उपरान्त ये फफूंद के पिण्ड भूमि में गिर जाते हैं या बचे हुए दूठों (अवशेषों) में प्रर्याप्त मात्रा में रहते हैं, जो खेत की तैयारी के समय भूमि में मिल जाते हैं| उपरोक्त रोगों का सामूहिक उपचार- सरसों की खेती को तना गलन रोग से बचाने के लिये 2 ग्राम बाविस्टिन प्रति किलो बीज की दर से बीजोपचार करें|

छिड़काव कार्यक्रम

सरसों की खेती में आल्टनेरिया ब्लाईट, सफेद रतुआ या ऊनी मिल्ड्यू के लक्षण दिखते ही डाइथेन एम- 45 का 0.2 प्रतिशत घोल का छिड़काव सरसों की खेती पर दो बार 15 दिन के अन्तर पर करें| जिन क्षेत्रों में तना गलन रोग का प्रकोप हर वर्ष अधिक होता है, वहां बाविस्टिन से 2 ग्राम प्रति किलो को दर से बीज का उपचार करे और इसी दवा का बिजाई के 45 से 50 और 65 से 70 दिन बाद 0.1 प्रतिशत की दर से छिड़काव करें|
गेहूं के साथ सरसों की खेती, फायदे व नुकसान

गेहूं के साथ सरसों की खेती, फायदे व नुकसान

हमारे देश में मिश्रित फसल उगाने की परम्परा बहुत प्राचीन काल से चली आ रही है। पुराने समय में किसान भाई एक खेत में एक समय में एक से अधिक फसल उगाते थे। लेकिन इन फसलों का चयन बहुत सावधानीपूर्वक करना होता है क्योंकि यदि फसलों के चुनाव के बिना किसान भाइयों ने कोई ऐसी दो फसलें एक साथ खेत में उगाई जो होती तो एक समय में ही हैं लेकिन उनके लिए मौसम, सिंचाई, उर्वरक व खाद प्रबंधन आदि अलग-अलग होते हैं । इसके अलावा कभी कभी तो ऐसा होता है कि दो फसलों में एक फसल जल्दी तैयार होती है तो दूसरी देर से तैयार होती है। एक फसल के सर्दी का मौसम फायदेमंद होता है तो दूसरे के लिए नुकसानदायक होता है। एक निश्चित दूरी की पंक्ति व पौधों से पौधों की दूरी पर बोई जाती है तो दूसरी छिटकवां या बिना पंक्ति के ही बोई जाती हैं।

Mustard Farming

फसलों का चयन बहुत सावधानी से करें

वैसे कहा जाता है कि मिश्रित खेती के लिए ऐसी फसलों का चुनाव करना चाहिये कि दोनों फसलों के लिए उस क्षेत्र की भूमि,जलवायु व सिंचाई की आवश्यकता उपयुक्त हों यानी एक जैसी जरूरत होतीं हों। इसके बावजूद जानकार लोगों का मानना है कि अनाज व दलहनी फसलों को मिलाकर बोने से उत्पादन अच्छा होता है लेकिन अनाज व तिलहन की फसल की बुआई से बचना चाहिये।

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एक फसल को फायदा तो दूसरे को नुकसान

wheat cultivation

मौसम के प्रतिकूल प्रभाव से एक फसल को नुकसान होता है तो दूसरी फसल से कुछ अच्छी पैदावार हो जाती है। गेहूं व सरसों की मिलीजुली खेती से वर्षा की कमी से सरसों की फसल को नुकसान हो सकता है जबकि गेहूं की फसल को उतना नुकसान नही होगा वहीं सिंचाई की जल की कमी होने से सरसों की फसल अच्छी होगी जबकि गेहूं की फसल खराब हो सकती है।

क्यों सही नहीं होती एक साथ गेहूं व सरसों की खेती

गेहूं के साथ जौ, चना, मटर की फसल को अच्छा माना जाता है लेकिन गेहूं के साथ सरसों की फसल को अच्छा नहीं माना जाता है क्योंकि इन दोनों फसलों की प्राकृतिक जरूरतें अलग-अलग होतीं हैं। इन दोनों फसलों की खेती के लिए भूमि, खाद, सिंचाई आदि की व्यवस्था भी अलग-अलग की जाती हैं। इनका खाद व उर्वरक प्रबंधन भी अलग अलग होता है। दोनों ही फसलों की बुआई व कटाई का समय भी अलग-अलग होता है। इन दोनों फसलों को एक साथ करने से किसान भाइयों को अनेक दिक्कतों का सामना करना पड़ सकता है।

जानें सबसे ज्यादा सरसों की खरीद किस राज्य में हुई है, नाफेड को खुद भी क्यों करनी पड़ी खरीद शुरू

जानें सबसे ज्यादा सरसों की खरीद किस राज्य में हुई है, नाफेड को खुद भी क्यों करनी पड़ी खरीद शुरू

नाफेड ने मार्केटिंग सीजन 2023-24 के लिए सरसों की एमएसपी दर 5450 रुपये प्रति क्विंटल तय किया है। अगर हम राजस्थान की बात करें तो यह भारत का एकमात्र प्रदेश है, जो अकेला 42 फीसदी सरसों की पैदावार करता है। गेहूं समेत भारत के ज्यादातर राज्यों में तिलहन की खरीद भी चालू हो चुकी है। हरियाणा, मध्य प्रदेश और राजस्थान समेत विभिन्न राज्यों में एमएसपी पर सरसों की खरीद की जा रही है। मौसम के गर्म होते-होते सरसों की खरीद में तीव्रता भी होती जा रही है। यही कारण है, कि भारतीय राष्ट्रीय कृषि सहकारी विपणन संघ (नाफेड) द्वारा अब तक 169217.45 मिट्रिक टन सरसों की खरीद की जा चुकी है। साथ ही, इसके एवज में किसान भाइयों के खाते में करोड़ों रुपये की धनराशि भी भेजी जा चुकी है। इससे सरसों का उत्पादन करने वाले कृषक काफी खुश हैं। ऐसी स्थिति में किसानों को आशा है, कि आगामी दिनों में सरसों खरीदी में और ज्यादा तीव्रता आएगी।

नाफेड ने खुद की सरसों की खरीद शुरू

किसान तक की खबरों के अनुसार, तीन वर्ष बाद ऐसा हुआ है, कि न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम दर होने के कारण नाफेड स्वयं सरसों की खरीदी कर रहा है। इससे पूर्व किसान स्वयं मंडियों में जाकर व्यापारियों को एमएसपी से महंगी कीमत पर सरसों विक्रय करते थे। अब तक 84914 किसानों ने एमएसपी पर सरसों विक्रय करते है। इसके एवज उनके खाते में 922.24 रुपये भेजे जा चुके हैं। आहिस्ते-आहिस्ते सरसों खरीद केंद्रों पर किसानों की संख्या काफी बढ़ती जा रही है। हालाँकि, बेमौसम बारिश के कारण से राजस्थान एवं मध्य प्रदेश समेत बहुत से तिलहन उपादक राज्यों में फसल की कटाई में विलंब हो गया था। साथ ही, बरसात से सरसों की फसल को काफी क्षति भी पहुंची है। यह भी पढ़ें: न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद के लिए 25 फरवरी तक करवा सकते हैं, रजिस्ट्रेशन मध्य प्रदेश के किसान

हरियाणा में विगत 20 मार्च से सरसों की खरीद शुरू हो चुकी है

भारत में राजस्थान सरसों का सर्वाधिक उत्पादन करता है। परंतु, इस बार हरियाणा सरसों की खरीद करने के संबंध में राजस्थान से आगे है। नाफेड ने अब तक हरियाणा के अंदर 139226.38 मिट्रिक टन सरसों की खरीद करली है। हालाँकि, हरियाणा राज्य में भी देश के कुल उत्पादन का अकेले 13.5 फीसद सरसों का उत्पादन किया जाता है। इसके बदले में कृषकों को 758.78 करोड़ रुपये दिए गए हैं। विशेष बात यह है, कि हरियाणा में विगत 20 मार्च से सरसों की खरीद शुरू की गई है।

इन राज्यों में इतने मीट्रिक टन सरसों की एमएसपी पर खरीद की जा चुकी है

नाफेड ने मार्केटिंग सीजन 2023-24 हेतु सरसों की एमएसपी दर 5450 रुपये प्रति क्विंटल तय कर दी है। यदि हम राजस्थान की बात करें तो यहां की जलवायु के अनुरूप यह भारत का एकमात्र राज्य है, जो अकेला 42 फसदी सरसों का उत्पादन करता है। इसके बावजूद भी राजस्थान में अब तक 4708.40 मिट्रिक टन ही सरसों की खरीद हो सकती है। साथ ही, सरसों उत्पादन में मध्य प्रदेश भी कोई पीछे नहीं है। यह 12 प्रतिशत सरसों का उत्पादन किया करता है। मध्य प्रदेश में अब तक 9977.74 मीट्रिक टन सरसों की खरीद संपन्न हुई है। इसके उपरांत गुजरात 4.2 फीसद सरसों का उत्पादन करता है।
किसान सरसों की इस किस्म की खेती कर बेहतरीन मुनाफा उठा सकते हैं

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आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि नवगोल्ड किस्म के सरसों का उत्पादन आम सरसों के मुकाबले अच्छी होती है। जानें इसकी खेती के तरीके के बारे में। हमारे भारत देश में सरसों की खेती रबी के सीजन में की जाती है। इसकी खेती के लिए खेतों की बेहतरीन जुताई सहित सिंचाई की उत्तम व्यवस्था भी होनी चाहिए। बाजार में आजकल कई तरह की सरसों की किस्में पाई जाती हैं। ऐसी स्थिति में नवगोल्ड भी सरसों की एक विशेष किस्म की फसल हैं, जिसकी खेती कर आप कम परिश्रम में अधिक पैदावार कर सकते हैं।

नवगोल्ड किस्म के सरसों के उत्पादन हेतु तापमान

नवगोल्ड किस्म के सरसों की पैदावार 20 से 25 डिग्री सेल्सियस के तापमान में की जाती है। इसकी खेती समस्त प्रकार की मृदाओं में की जा सकती है। परंतु, बलुई मृदा में इसकी बेहतरीन पैदावार होती है। इसके बीज की बुआई बीजोपचार करने के बाद ही करें, जिससे पैदावार काफी बेहतरीन होती है।

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नवगोल्ड किस्म के सरसों के उत्पादन हेतु सर्वप्रथम खेत को रोटावेटर के माध्यम से जोत लें। साथ ही, पाटा लगाकर खेत को एकसार करलें। साथ ही, इस बात का खास ख्याल रखें कि एकसार भूमि पर ही सरसों के पौधों का अच्छी तरह विकास हो पाता है।

नवगोल्ड किस्म की फसल में सिंचाई

नवगोल्ड किस्म के बीजों का निर्माण नवीन वैज्ञानिक विधि के माध्यम से किया जाता है। इस फसल को पूरी खेती की प्रक्रिया में बस एक बार ही सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। फसल में सिंचाई फूल आने के दौरान ही कर देनी चाहिए।

नवगोल्ड किस्म की खेती के लिए खाद और उर्वरक

नवगोल्ड किस्म के बीजों के लिए जैविक खाद का इस्तेमाल अच्छा माना जाता है। इसके उत्पादन के लिए गोबर के खाद का इस्तेमाल करना चाहिए। मृदा में नाइट्रोजन, पोटाश की मात्रा एवं फास्फोरस को संतुलन में रखना चाहिए।

सरसों की खेती के लिए खरपतवार का नियंत्रण

सरसों की खेती के लिए इसके खेत को समयानुसार निराई एवं गुड़ाई की जरूरत पड़ती है। बुवाई के 15 से 20 दिन उपरांत खेत में खर पतवार आने शुरू हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में आप खरपतवार नाशी पेंडामेथालिन 30 रसायन का छिड़काव मृदा में कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त यदि इसमें लगने वाले प्रमुख रोग सफ़ेद किट्ट, चूणिल, तुलासिता, आल्टरनेरिया और पत्ती झुलसा जैसे रोग लगते हैं, तो आप फसलों पर मेन्कोजेब का छिड़काव कर सकते हैं। नवगोल्ड किस्म के सरसों में सामान्य किस्म के मुकाबले अधिक तेल का उत्पादन होता है। साथ ही, इसकी खेती के लिए भी अधिक सिंचाई एवं परिश्रम की आवश्यकता नहीं पड़ती है।
कृषि वैज्ञानिकों ने विकसित की सरसों की तीन नई उन्नत किस्में, जानें इनकी खासियत

कृषि वैज्ञानिकों ने विकसित की सरसों की तीन नई उन्नत किस्में, जानें इनकी खासियत

सीएसएसआरआई (CSSRI) के कृषि वैज्ञानिकों द्वारा सोडिक मतलब कि क्षारीय भूमि इलाकों के लिए सरसों की तीन उन्नत किस्में सीएस-61, सीएस-62 और सीएस-64 विकसित की गई हैं। बतादें, कि विकसित की गई सरसों की ये तीनों किस्में कृषकों को वर्ष 2024 तक मिलेगी। भारत के किसानों को ज्यादा लाभ हांसिल कराने के लिए केंद्रीय मृदा एवं लवणता अनुसंधान संस्थान (CSSRI) ने सरसों की 3 नवीन उन्नत किस्मों को तैयार किया है। सरसों की इन तीनों बेहतरीन किस्मों से किसानों को ज्यादा उत्पादन मिलेगा। साथ ही, सरसों की इन तीनों किस्मों की खेती सोडिक अर्थात क्षारीय भूमि में भी सहजता से की जा सकेगी। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, वैज्ञानिकों के द्वारा विकसित की गई सरसों की तीनों प्रजातियां किसानों के हाथों में साल 2024 तक उपलब्ध हो पाऐंगी। दरअसल, हम बात कर रहे हैं, सीएस-61, सीएस-62 और सीएस-64 किस्मों के बारे में।

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किसान सरसों की इस किस्म की खेती कर बेहतरीन मुनाफा उठा सकते हैं ज्ञात हो कि इन किस्मों से पूर्व भी कृषि वैज्ञानिकों के द्वारा सरसों की कुछ लवण सहनशील किस्में सीएस-56, सीएस-58 और सीएस-60 किस्में तैयार की जा चुकी हैं, जो वर्तमान में किसानों को उपलब्ध कराई जा रही हैं। इसके साथ ही, सरसों के यह बीज कृषि विभागों व बीज संस्थानों के द्वारा बांटे जा रहे हैं।

सरसों की नवीन उन्नत किस्मों की खेती

केंद्रीय मृदा एवं लवणता अनुसंधान संस्थान में विकसित की गईं सरसों की बेहतरीन किस्में सीएस-61, सीएस-62 और सीएस-64 वैसे तो प्रत्येक इलाके में अच्छी पैदावार देंगी। परंतु, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब और जम्मू, कश्मीर के क्षेत्रों में ज्यादा उपज प्रदान करेंगी। बतादें, कि इन तीनों किस्मों से किसान के खेतों में सरसों की फसल बेहतरीन ढ़ंग से लहलहाएगी। इसके अतिरिक्त बाजार में भी इसकी अच्छी-खासी कीमत मिल सकेगी।

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सरसों की इन विकसित की गई उन्नत किस्मों की खूबियां

सरसों की इन तीनों उन्नत किस्मों की खेती ऐसे इलाकों के लिए वरदान का काम करेगी, जहां की मिट्टी में सरसों की खेती नहीं हो पाती है। सरसों की सीएस-61, सीएस-62 एवं सीएस-64 किस्म को ऐसे ही क्षेत्रों के लिए तैयार किया गया है, जिन इलाकों में आज भी सरसों की पैदावार नहीं होती है। वहां के किसान भाई भी इन किस्मों की सहायता से सरसों की फसल का फायदा उठा सकें। साथ ही, सरसों की यह तीनों नवीन किस्में प्रति हेक्टेयर तकरीबन 27 से 29 क्विंटल तक उत्पादन देंगी। वहीं, सोडिक मतलब की क्षारीय जमीन में यह किस्म प्रति हेक्टेयर 21 से 23 क्विंटल पैदावार प्रदान करेगी। इसके अतिरिक्त सरसों की इन किस्मों में तेल की मात्रा लगभग 41 फीसद तक रहेगी।

भारत के किन क्षेत्रों में सरसों की खेती नहीं होती है

भारत के बहुत से राज्यों में सरसों की खेती नहीं हो पाती है। जैसे कि हरियाणा एवं पंजाब के कुछ इलाकों में सरसों का उत्पादन नहीं होता है। इसके अतिरिक्त उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़, कौशांबी, लखनऊ, कानपुर, इटावा और हरदोई इत्यादि बहुत सारे क्षेत्रों में सरसों की खेती नहीं की जाती है। वैज्ञानिकों द्वारा विकसित की गई सरसों की इन तीनों किस्मों से अब इन क्षेत्रों में भी सरसों की फसल लहराएगी।