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सहफसली तकनीक से किसान अपनी कमाई कर सकते हैं दोगुना

सहफसली तकनीक से किसान अपनी कमाई कर सकते हैं दोगुना

किसानों को परंपरागत खेती में लगातार नुकसान होता आ रहा है, जिसके कारण जहाँ किसानों में आत्महत्या की प्रवृति बढ़ रही है, वहीं किसान खेती से विमुख भी होते जा रहे हैं. इसको लेकर सरकार भी चिंतित है. लगातार खेती में नुकसान के कारण किसानों का खेती से मोहभंग होना स्वभाविक है, इसी के कारण सरकार आर्थिक तौर पर मदद करने के लिए कई योजनाओं पर काम कर रही है. सरकार की तरफ से किसानों को खेती में सहफसली तकनीक (multiple cropping or multicropping or intercropping) अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है. विशेषज्ञों की मानें, तो ऐसा करने से जमीन की उत्पादकता बढ़ती है, साथ ही एकल फसली व्यवस्था या मोनोक्रॉपिंग (Monocropping) तकनीक की खेती के मुकाबले मुनाफा भी दोगुना हो जाता है.


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सहफसली खेती के फायदे

परंपरागत खेती में किसान खरीफ और रवि के मौसम में एक ही फसल लगा पाते हैं. किसानों को एक फसल की ही कीमत मिलती है. जो मुनाफा होता है, उसी में उनकी मेहनत और कृषि लागत भी होता है. जबकि, सहफसली तकनीक में किसान मुख्य फसल के साथ अन्य फसल भी लगाते हैं. स्वाभाविक है, उन्हें जब दो या अधिक फसल एक ही मौसम में मिलेगा, तो आमदनी भी ज्यादा होगी. किसानों के लिए सहफसली खेती काफी फायदेमंद होता है. कृषि वैज्ञानिक लंबी अवधि के पौधे के साथ ही छोटी अवधि के पौधों को लगाने का प्रयोग करने की सलाह किसानों को देते हैं. किसानों को सहफसली खेती करनी चाहिए, ऐसा करने से मुख्य फसल के साथ-साथ अन्य फसलों का भी मुनाफा मिलता है, जिससे आमदनी दुगुनी हो सकती है.


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धान की फसल के साथ लगाएं कौन सा पौधा

सहफसली तकनीक के बारे में कृषि विशेषज्ञ डॉक्टर दयाशंकर श्रीवास्तव सलाह देते हैं, कि धान की खेती करने वाले किसानों को खेत के मेड़ पर नेपियर घास उगाना चाहिए. इसके अलावा उसके बगल में कोलस पौधों को लगाना चाहिए. नेपियर घास पशुपालकों के लिए पशु आहार के रूप में दिया जाता है, जिससे दुधारू पशुओं का दूध उत्पादन बढ़ता है और उसका लाभ पशुपालकों को मिलता है, वहीं घास की अच्छी कीमत भी प्राप्त की जा सकती है. बाजार में भी इसकी अच्छी कीमत मिलती है.


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गन्ना, मक्की, अरहर और सूरजमुखी के साथ लगाएं ये फसल

पंजाब हरियाणा और उत्तर भारत समेत कई राज्यों में किसानों के बीच आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ रही है और इसका कारण लगातार खेती में नुकसान बताया जाता है. इसका कारण यह भी है की फसल विविधीकरण नहीं अपनाने के कारण जमीन की उत्पादकता भी घटती है और साथ हीं भूजल स्तर भी नीचे गिर जाता है. ऐसे में किसानों के सामने सहफसली खेती एक बढ़िया विकल्प बन सकता है. इस विषय पर दयाशंकर श्रीवास्तव बताते हैं कि सितंबर से गन्ने की बुवाई की शुरुआत हो जाएगी. गन्ना एक लंबी अवधि वाला फसल है. इसके हर पौधों के बीच में खाली जगह होता है. ऐसे में किसान पौधों के बीच में लहसुन, हल्दी, अदरक और मेथी जैसे फसलों को लगा सकते हैं. इन सबके अलावा मक्का के फसल के साथ दलहन और तिलहन की फसलों को लगाकर मुनाफा कमाया जा सकता है. सूरजमुखी और अरहर की खेती के साथ भी सहफसली तकनीक को अपनाकर मुनाफा कमाया जा सकता है. कृषि वैज्ञानिक सह्फसली खेती के साथ-साथ इंटीग्रेटेड फार्मिंग सिस्टम (Integrated Farming System) यानी ‘एकीकृत कृषि प्रणाली’ की भी सलाह देते हैं. इसके तहत खेतों के बगल में मुर्गी पालन, मछली पालन आदि का भी उत्पादन और व्यवसाय किया जा सकता है, ऐसा करने से कम जगह में खेती से भी बढ़िया मुनाफा कमाया जा सकता है.
पशु संबंधित इस व्यवसाय से आप मोटा मुनाफा कमा सकते हैं

पशु संबंधित इस व्यवसाय से आप मोटा मुनाफा कमा सकते हैं

भारत में दूध की माँग में बेहद बढ़ोत्तरी देखी जा रही है, इसके साथ-साथ पशुओं को अच्छा और उम्दा चारा खिलाना बेहद आवश्यक है। इसलिए आप भी स्वयं के गांव में पशु चारे का व्यवसाय करके अच्छा खासा लाभ उठा सकते हैं, इस व्यवसाय हेतु सरकार भी आपको अनुदान देगी। क्योंकि ग्रामीण अर्थव्यवस्था के दो आधार स्तंभ हैं, पहला कृषि एवं दूसरा पशुपालन। लेकिन अगर इन दोनों पहलुओं को देखें तो यह आपस में एक-दूसरे के पूरक की तरह हैं। बीते काफी समय से किसान कृषि करके फसलों से पैदावार लेते आये हैं, परंतु साथ ही अधिक व अतिरिक्त आमदनी हेतु पशुपालन भी अच्छा स्त्रोत है। गाँव में कृषि से उत्पन्न फसल अवशेष पशुओं के चारे के रूप में प्रयोग होता है, साथ ही, पशुओं के अपशिष्ट गोबर से खाद निर्मित कर फसल द्वारा बहुत अच्छी पैदावार लेने में सहायता मिलती है। वर्तमान में इन दोनों कार्यों के मध्य आपको क्या व्यवसायिक अवसर प्राप्त हो सकता है इसके विषय में हम आपको बताने जा रहे हैं।


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अब हम बात करने जा रहे हैं, पशु चारे से किये जाने वाले व्यवसाय की, बाजार में निरंतर पशु चारे की माँग में वृद्धि हो रही है। इसकी मुख्य वजह अधिक माँग और कम आपूर्ति है। इसलिए चारे का भाव आसमान को छू रहा है। कभी-कभी पशु चारे की समस्या भी उत्पन्न हो जाती है। यदि आप भी अपने गाँव में कृषि कार्य करते हैं, तो आपको आज से ही इस व्यवसाय को आरंभ कर देना चाहिए। आगामी वक्त में दूध की माँग एवं पशुपालन का चलन बढ़ने वाला है। ऐसी स्थिति में पशु चारा निर्माण का व्यवसाय आपको वर्षभर के अंतराल में ही मोटा लाभ दिला सकता है।

पशु चारा इकाई स्थापित करने के लिए सरकार से अनुमति जरूर लेनी चाहिए

अगर आप दुधारु पशुओं से अच्छा दूध लेना चाहते हैं तो आपको याद रहे कि उनको चारा भी अच्छा ही खिलाना होगा। बहुत सारे किसान एवं पशुपालक अपने खेत में ही चारा उत्पन्न करते हैं एवं सालभर के लिए चारा भंडारण भी करते हैं। परंतु यदि आप पशु चारे की प्रोसेसिंग को उच्च स्तर पर ले करके व्यवसायिक रूप निर्मित करना चाहते हैं, तो सरकार द्वारा लाइसेंस प्राप्त करना पंजीयन कराना भी अत्यंत आवश्यक है। FSSAI द्वारा इस लाइसेंस को जारी किया जाता है। इसके अतिरिक्त पर्यावरण विभाग से NOC एवं पशु चारा निर्मित करने वाले उपकरणों के उपयोग हेतु भी स्वीकृति लेनी पड़ सकती है। क्योंकि यह व्यवसाय पशुओं से संबंधित होता है, इसलिए पशुपालन विभाग की भी कुछ औपचारिकता पूर्ण करनी होंगी। पशु चारे की इकाईयाँ स्थापित करने हेतु सूक्ष्म खाद्य उद्योग उन्नयन योजना में आवेदन कर पंजीयन नंबर लें, इसके साथ में आपको आर्थिक सहायता भी प्राप्त हो जाएगी। साथ ही, पशु चारे को विक्रय हेतु GST Registration भी लेना अत्यंत आवश्यक है। अगर आप स्वयं के ब्रांड नाम से पशु चारा बाजार में बेच रहे हैं, ऐसे में ट्रेड मार्क ISI मानक के अनुसार आपको BIS प्रमाणपत्र भी लेना जरुरी होगा।

पशु चारा बनाने के लिए आवश्यक उत्पाद

पशु चारा निर्माण संबंधित कोई इकाई, प्लांट अथवा व्यवसाय करने जा रहे हैं, तो ऐसी स्थिति में आरंभ से ही बेहतरीन योजना बनाकर चलें। प्लांट के लिए जगह, मजदूरों की नियुक्ति, ट्रांसपोर्ट के साधन, व्यवसाय की मार्केटिंग, पूंजी, कच्चे माल, मशीनरी की व्यवस्था अवश्य कर लें। सबसे विशेष बात जिसका अधिक ध्यान रखें जहां पशु चारे की इकाई या प्लांट स्थापित कर रहे हैं, उस जगह की सकड़ें एवं अन्य भी आधारभूत संरचना जैसे बिजली, पानी बेहतर होनी चाहिए। जिससे पशु चारे को बेहतर तरीके से इधर से उधर पहुँचाया जा सके।


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पशु चारा निर्माण एवं भंडारण हेतु 2000 से 2500 स्क्वायर फीट जगह होनी चहिए, इसमें 1000 से 1500 स्क्वायर फीट जगह मशीनरी हेतु होगी। साथ ही, 900 से 1000 स्क्वायर फीट जगह कच्चे माल व चारे के भंडारण हेतु होगी। पशु चारा निर्माण हेतु जिस भी कच्चे माल का उपयोग होता है जैसे कि मूंगफली की खल, सरसों की खल, सोयाबीन, चावल, गेहूं, चना, मक्के की भूसी, चोकर, नमक आदि प्रत्यक्ष रूप से थोक विक्रेता द्वारा न्यूनतम कीमतों पर खरीदें।

पशु चारे की इकाई स्थापित करने में कितना खर्च आता है

यदि आप स्वयं के गांव में आपकी भूमि है, तो कुल खर्च में से बेहद खर्च बचेगा। परंतु स्वयं की भूमि के मालिक नहीं हो ऐसी स्थित में प्लांट खोलने हेतु आपको 5 से 10 लाख रुपए का व्यय करना होगा। साथ ही, पशु चारे को बेचने हेतु पैकेजिंग, परिवहन, बिजली एवं विपणन पर भी व्यय करना पड़ेगा। पशु चारे की यूनिट स्थापित करने हेतु 10 से 20 लाख रुपये तक का खर्च आ सकता है। मानी सी बात है, कि गांव में रहने वाले किसान, पशुपालक व अन्य लोगों हेतु इस प्रकार की ज्यादा कीमत इकट्ठा करना सरल साबित नहीं होगा। इस वजह से केंद्र सरकार द्वारा सूक्ष्म खाद्य उद्योग उन्नयन योजना जारी की गयी है, इसके अंतर्गत कुल खर्च पर 35 फीसद का अनुदान प्राप्त हो सकता है। नाबार्ड अथवा अन्य वित्तीय संस्थाएं भी पशु चारे के व्यय हेतु कर्ज की व्यवस्था करती हैं। बतादें, कि आपके दस्तावेज सही और पूरे हैं, तो 10 लाख रुपये तक की धनराशि के कर्ज हेतु भी आवेदन कर सकते हैं।
गोबर के जरिए फौज की वर्दी निर्मित करने के साथ ही, उत्पादन योग्य बनाया जाएगा रेगिस्तान

गोबर के जरिए फौज की वर्दी निर्मित करने के साथ ही, उत्पादन योग्य बनाया जाएगा रेगिस्तान

केंद्र एवं राज्य सरकार के माध्यम से राजस्थान के जनपद कोटा में कृषि महोत्सव का आयोजन किया जा रहा है। इस कार्यक्रम के अंतर्गत देशभर से विभिन्न स्टार्टअप (startup) भी शम्मिलित होने के लिए पहुंच रहे हैं। इसमें एक अनोखा स्टार्टअप (startup) भी सम्मिलित हुआ है, इसके अंतर्गत गोबर के जरिए रसायन निर्मित कर विभिन्न रूप में प्रयोग किया जा रहा है। आईआईटियन (IITians) डॉक्टर सत्य प्रकाश वर्मा के मुताबिक उनके द्वारा गोबर खरीदी होती है। उसके बाद में विभिन्न प्रकार के रसायन तैयार किए जाते हैं। इस रसायन के उपयोग से सेना के जवानों की वर्दी भी बनाई जा सकती है। इसके अतिरिक्त रेगिस्तान को उत्पादक निर्मित करने एवं पुताई हेतु भी प्रयोग किए जाने वाले पेंट भी तैयार हो रहा है। डॉ. सत्य प्रकाश वर्मा कहा है, कि यह गाय के गोबर द्वारा रसायनिक विधि के माध्यम से निकलने वाले नैनोसैलूलोज से हो रहा है। डेढ़ वर्ष पूर्व उन्होंने स्टार्टअप गोबर वाला डॉट कॉम (.com) चालू किया था। जिसके माध्यम से प्राप्त होने वाले गोबर द्वारा रसायन प्रोसेस के जरिए नैनोसैलूलोज तैयार किया जा रहा है। जो कि हजारों रुपए किलोग्राम में विक्रय किया जा रहा है। इसके विभिन्न अतिरिक्त इस्तेमाल भी किए जा रहे हैं। उनका यह दावा है, कि नैनोसैलूलोज तैयार होने के उपरांत गोबर में बचा हुआ तरल एक गोंद की भांति हो जाता है, जिसको लिग्निन कहा जाता हैं। यह लिग्निन प्लाई निर्माण के कार्य में लिया जाता है एवं 45 रुपए प्रतिकिलो तक के भाव में विक्रय होता है।
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राजस्थान राज्य के जनपद कोटा में जय हिंद नगर के रहने वाले सत्य प्रकाश वर्मा जी विगत कई वर्षों से पशुओं के अपशिष्ट के ऊपर गंभीरता से शोध में जुटे हुए हैं। उन्होंने वर्ष 2003 में आईआईटी बॉम्बे से रसायन इंजीनियरिंग में बीटेक की डिग्री हासिल की है। साथ ही, वर्ष 2007 के दौरान उन्होंने पीएचडी भी आईआईटी बॉम्बे से करी है। इसके उपरांत फ्लोरिडा से मार्केटिंग मैनेजमेंट से भी पीएचडी कर रखी है। सत्यप्रकाश वर्मा जी ने नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ मैनेजमेंट मुम्बई (National Institute of Management Mumbai) से एमबीए की डिग्री भी हांसिल की है। इस सब के उपरांत सत्य प्रकाश एवं उनकी इंजीनियर पत्नी भावना गोरा दुबई में रहने लगे। दुबई में उन्होंने ऑयल इंडस्ट्री में नौकरी किया करते थे। उसके कुछ समय उपरांत वहीं पर स्वयं का व्यवसाय आरंभ किया एवं ऑयल एंड गैस कंपनीज हेतु उत्पाद निर्मित करने में जुट गए। इस समय के अंतर्गत सत्य प्रकाश जी गाय, बकरी और सुअर के अपशिष्ट पदार्थों पर निरंतर शोध में लगे हुए थे। वह स्वयं की कंपनी को भारत में स्थापित करने के उद्देश्य से ही देश वापस आए हैं।

वैदिक पेंट जलरोधक होता है

डॉ. सत्य प्रकाश वर्मा का कहना है, कि गोबर द्वारा निकाले गए इस अल्फा नैनोसैलूलोज का इस्तेमाल वैदिक पेंट को बनाने हेतु होता है। इसका इस्तेमाल तीन प्रकार की पेंटिंग करने के लिए किया जाता है। इन तीन प्रकार में पहला वॉल पुट्टी, दूसरा वॉल प्राइमर एवं तीसरा इमर्शन होता है। इसको प्लास्टिक पेंट के नाम से भी जाना जाता है। वॉल पुट्टी के उपरांत किसी भी पेंट की जरुरत नहीं पड़ती है। यह आपको विभिन्न रंग में मिल जाता है एवं यह पेंट वाटरप्रूफ भी रहता है। आपको बतादें, कि इसका उपयोग अब बड़े पैमाने पर किया जाने लगा है। ये भी देखें: इस राज्य की आदिवासी महिलाएं गोबर से पेंट बनाकर आत्मनिर्भर बन रहीं हैं

रेगिस्तान को इस विधि से बनाया जा रहा है उपजाऊ क्षेत्र

उनका कहना है, कि नैनो बायो उर्वरक तैयार करने में भी नैनोसैलूलोज का इस्तेमाल किया जाता है। इसके माध्यम से रेगिस्तान की रेतीली भूमि को उपजाऊ किया जाता है। नैनोसैलूलोज की निश्चित मात्रा को रेगिस्तान की मिट्टी पर फैलाया जाता है। तदोपरांत वह जमाव हेतु तैयार हो जाती है। रेगिस्तान की भूमि पहले से कहीं अधिक उत्पादक होती है। भूमि में मात्र जमाव का तत्व विघमान नहीं होता है, वह भी नैनोसैलूलोज डालने के उपरांत आ जाता है।

डीआरडीओ की सहायता से निर्मित की जा रही फौज की वर्दी

डॉ.सत्य प्रकाश के बताने के अनुसार, नैनोसैलूलोज के माध्यम से वे फाइबर का निर्माण कर रहे हैं। जिसका इस्तेमाल सैनिकों की वर्दी निर्मित करने हेतु हो रहा है। इसके अंतर्गत हेलमेट से लेकर जूता तक भी आता हैं। उनका कहना है, कि यह यूनिफॉर्म सामान्यतः सैनिकों की वर्दी से बेहद कम वजन व अधिक मजबूत भी मानी जाती है। यह वर्दी पसीने को भी सोख जाती है। इसके अतिरिक्त यदि सैनिक घायल हो जाए, तो इस यूनिफार्म के कारण से ब्लड क्लॉटिंग बड़ी सुगमता से हो जाती है। इस प्रकार यह एक टिशू रीजनरेशन आरंभ कर देती है। इससे जवान के जीवन की समयावधि काफी बढ़ जाती है।