खुशखबरी: इस नवीन तकनीक से अब हर मौसम में खेती करना हुआ आसान
भारत एक कृषि समृद्ध देश है। भारत में पारंपरिक फसलों के अतिरिक्त सब्जियों और फलों की खेती भी की जाती है। सब्जियों एवं फलों में मोटा मुनाफा देखकर पिछले कुछ वर्षों में किसानों का रुझान इस तरफ तीव्रता से बढ़ा है।
बहुत सारे किसान तो पॉलीहाउस तकनीक के माध्यम से ऑफ सीजन की फल-सब्जियों को उगाकर मोटा मुनाफा अर्जित कर रहे हैं।
हालांकि, पॉली हाउस तकनीक महंगी होने के चलते प्रत्येक किसान को इसका लाभ नहीं मिल पाता है। इसी बात को मद्देनजर रखते हुए बिरसा कृषि विश्वविद्यालय रांची के कृषि वैज्ञानिकों ने पॉली हाउस की नवीन तकनीक को विकसित किया है।
यह तकनीक किसानों के लिए हर फसल में लाभदायक साबित होगी। इस तकनीक के माध्यम से हर मौसम की फल-सब्जियों को उगाया जा सकेगा।
कृषि वैज्ञानिकों ने विकसित की नवीन पॉली हाउस तकनीक
नया कीर्तिमान स्थापित करते हुए कृषि वैज्ञानिकों ने "छत विस्थापित पॉली हाउस" नवीन तकनीक को विकसित किया है। पॉली हाउस तकनीक के जरिए किसान साल भर खेती तो कर पाते हैं।
लेकिन, उन्हें कई समस्याओं का भी सामना करना पड़ता है। खासकर गर्मियों के मौसम में जब ज्यादा तापमान को नियंत्रित करना मुश्किल हो जाता है।
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इसी समस्या का समाधान निकालते हुए बिरसा कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने इस नई तकनीक को इजात किया है। जहां किसान जब चाहे मौसम के अनुसार पॉली हाउस की छत को बदल सकते हैं। इससे वर्ष भर गुणवत्तापूर्ण फल और सब्सिजों की पैदावार हो सकेगी।
पॉली हाउस तकनीक इतनी खास क्यों है ?
पॉलीहाउस या ग्रीन हाउस की तकनीक बहुत सारी विशेषताओं को ध्यान में रखती है। यह वातावरण के नियंत्रण, पौधों की वृद्धि, फसलों की सुरक्षा और उचित देखरेख के जरिए उन्हें उचित मात्रा में पोषण प्रदान करने के लिए तैयार किया जाता है।
इसके अतिरिक्त पॉलीहाउस को बनाने में कुछ खास तकनीकी दिशा-निर्देशों का पालन करना जरूरी होता है, जैसे कि उचित वातावरण, पौधों की बेहतर देखभाल आदि।
इस तरह पॉलीहाउस तकनीक की जरूरत उत्तम वातावरण, पौधों की वृद्धि और फसलों की सुरक्षा के संदर्भ में महत्वपूर्ण है।
इसके इस्तेमाल से खुले खेत में खेती की अपेक्षा सब्जियों की विपणन योग्य गुणवत्ता कम से कम 50% प्रतिशत और उत्पादकता 30 से 40 प्रतिशत तक बढ़ जाती है।
"छत विस्थापित पॉली हाउस" कैसे कार्य करता है ?
दरअसल, इस पॉलीहाउस में छत को छोड़कर बाकी पूरा स्ट्रक्चर यूवी स्टेबलाइज्ड कीड़ा रोधी प्लास्टिक से ढंका हुआ रहता है। गर्मी के मौसम में यह यूवी स्टेबलाइज्ड फिल्म (200 माइक्रोन) से ढंका हुआ रहता है।
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वहीं, जाड़े के मौसम में हरे शेड-नेट से कवर किया हुआ रहता है। इस नए विकसित पॉलीहाउस की खूबी यह मौसम के अनुरूप काम करने के लिए तैयार की गई है।
नवंबर महीने से लेकर फरवरी महीने तक पॉलीहाउस के रूप में काम करता है। वहीं, जून से लेकर अक्टूबर महीने तक यह रेन शेल्टर के तोर पर कार्य करता है और फिर मार्च से मई तक यह शेड नेट के रूप में काम करता है।
इसमें यह मिट्टी और वायु के तापमान ओर प्रकाश की तीव्रता को नियंत्रित करके इसे साल भर खेती के लिए उपयुक्त बनाता है। इससे सब्जियों की उत्पादकता काफी ज्यादा बढ़ती है।
पॉलीहाउस - बाहर से[/caption]
पॉलीहाउस निर्माण कार्य[/caption]
इसके अलावा पॉलीहाउस को हमेशा समतल धरातल पर ही बनाना चाहिए और पॉलीहाउस का स्थान अपने आसपास के समतल धरातल से थोड़ा ऊपर उठा हुआ होना चाहिए। इसके लिए या तो आप कोई ऐसी जगह निश्चित कर सकते हैं जो ऊपर उठी हुई हो, या फिर अपने खेत की ही समतल जगह पर मिट्टी का जमाव कर स्थान को ऊपर उठा सकते है।
पॉलीघर या पॉलीहाउस -भीतर से (Polyhouse - inside view)[/caption]
कृषि वैज्ञानिकों की राय में पोली हाउस में कार्बन डाइऑक्साइड के अधिक सांद्रण की वजह से उत्पाद अधिक तैयार होते हैं और परंपरागत तरीके से की जाने वाली खुली खेती की तुलना में पॉलीहाउस में लगभग 2 गुना तक उत्पाद प्राप्त हो सकते हैं।
वर्तमान में पॉलीहाउस में मशीनीकरण के बेहतर इस्तेमाल की वजह से फर्टिलाइजर का छिड़काव और पानी की नियमित सिंचाई स्वचालित रूप से ही हो रही है, इसी वजह से किसान भाइयों की मजदूरी में लगने वाली लागत कम खर्च होती है।
हालांकि इन सभी फायदों के अलावा पॉलीहाउस फार्मिंग के कुछ नकारात्मक प्रभाव भी हैं, जैसे कि पॉलीहाउस को बनाना और पूरी तरह सेट अप करना काफी खर्चीला होता है। इसके अलावा पॉलीहाउस विधि से होने वाली कृषि की निरंतर निगरानी रखनी होती है और तापमान या नमी में थोड़े से बदलाव होने की वजह से ही फसल का नुकसान हो सकता है। पॉलीहाउस को चलाने के लिए किसी स्किल्ड सुपरवाइजर की आवश्यकता होती है और किसान भाइयों को कई प्रकार का तकनीकी ज्ञान हासिल करना होता है।
खुले पर्यावरण से मिलने वाले कई पोषक तत्व और हवा में उपलब्ध कई सूक्ष्म पोषक तत्व पॉलीहाउस फार्मिंग में पौधे तक नहीं पहुंच पाते हैं, इसीलिए इस विधि में उर्वरक और कीटनाशक का अधिक इस्तेमाल किया जाता है जो कि जैविक खेती की तरफ बढ़ते भारतीय किसानों की सोच के लिए नकारात्मक असर देता है।
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