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बासमती चावल की इन किस्मों से खरीफ सीजन में मिलेगा तगड़ा मुनाफा, जानें कहाँ से खरीदें

Published on: 29-Apr-2024

भारत चावल उत्पादन के मामले में विश्व में दूसरा स्थान रखता है। बासमती धान की सीधी बिजाई के लिए आप पूसा बासमती 1847, पूसा बासमती 1885 और पूसा बासमती 1886 का चुनाव अपने क्षेत्र की जलवायु एवं मृदा, फसल चक्र और संसाधनों को ध्यान में रखते हुए कर सकते हैं। 

इन तीनों प्रजातियों का बीज बासमती निर्यात विकास प्रतिष्ठान मोदीपुरम मेरठ के फार्म पर उपलब्ध हैं आप चाहें तो आकर खरीद सकते हैं।

वैज्ञानिकों ने पूसा बासमती 1847, पूसा बासमती 1885 और पूसा बासमती 1886 को रोग रोधी के रूप में विकसित किया है। वैज्ञानिकों का कहना है, कि पूसा बासमती 1847 रोग रोधी है। 

इसके ऊपर बैक्टीरियल ब्लाइट और ब्लास्ट का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। यह जल्द ही तैयार हो जाएगी। अगर किसान भाई पूसा बासमती 1847 की खेती करते हैं, तो प्रति हेक्टेयर 57 क्विंटल पैदावार मिलेगी। 

इसी प्रकार पूसा बासमती 1885 भी रोगरोधी है। यह 135 दिन के अंतर्गत पककर तैयार हो जाती है। इसकी औसत पैदावार 46.8 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। 

वहीं, पूसा बासमती 1886 भी बैक्टीरियल ब्लाइट एवं ब्लास्ट रोग रोधी है। इसकी औसत उपज 44.9 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है।

बासमती धान में इन रोगों का संक्रमण होता है  

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि बासमती धान में झुलसा और झोका रोग काफी तीव्रता से लगता है। इस रोग के लगने से उत्पादन काफी प्रभावित हो जाता है। 

ऐसे में किसान धान के ऊपर पानी में मिलाकर ट्राइसाइक्लाजोल का छिड़काव करते हैं। ऐसी स्थिति में चावल में रसायनों का प्रभाव काफी बढ़ जाता है। इसकी वजह से इन चावलों का निर्यात यूरोपीय देशों में नहीं हो पाता है। 

परंतु, अब किसानों को चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है। वैज्ञानिकों ने पुरानी प्रजातियों को ही विकसित कर रोग रोधी बना दिया है। 

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यानी के अब बासमती की इन किस्मों में जीवाणु झुलसा और झोका रोग नहीं लगेंगे। ऐसे में कीटनाशकों के ऊपर होने वाले खर्च से किसानों को राहत मिलेगी। साथ ही, उपज भी काफी बढ़ जाएगी।

सीधी बिजाई से मुख्यत: निम्नलिखित लाभ मिलते हैं 

प्रायः धान की खेती में जल की काफी मात्रा में आवश्यकता होती है। बासमती चावल की इन किस्मों की खेती करने पर जल की काफी कम खपत होती है। 

इन किस्मों की कटाई कम समयांतराल में हो जाती है। इन किस्मों की धान की फसल में अधिक श्रम भी नहीं करना पड़ेगा। इसके साथ-साथ रोपाई पर आने वाला खर्चा भी काफी कम होगा।

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