फार्म बिल (किसान विधेयक) विभिन्न राज्यों में सभी किसान संघों द्वारा विरोध किया गया और सभी विरोध के लिए सड़क पर हैं। इसका मतलब है कि किसानों द्वारा उठाए गए वास्तविक बिल और धारणा के बीच अंतर है, इसलिए इस अंतर को पाटना सरकार का कर्तव्य है। सरकार प्रशासन को किसान संघों के साथ बैठकें आयोजित करनी चाहिए ताकि उनका दृष्टिकोण भी बिल में शामिल हो सके और सभी एक मंच पर आ सकें। Sietz technologies India प्राइवेट लिमिटेड के सीईओ क्रांति दीपक शर्मा का यही कहना है। वह कहते हैं कि बहुत सारी चिंताएँ हैं जिन्हें सरकार को दूर करना चाहिए क्योंकि भारत में किसानों की स्थिति सभी राज्यों में इतनी अच्छी नहीं है। खेती करना लगातार कठिन होता जा रहा है। यही वजह है कि किसान अपने बेटे को किसानी नहीं कराना चाहते। सरकारी नीतियां यदि दोषपूर्ण बनी रही तो वह दिन दूर नहीं कि लोग किसानी छोड़ने लगें। श्री शर्मा ने कहा कि खेती से बेरुखी केवल उसके लाभकारी न रहने के कारण बन रही है। यह बढ़ती जनसंख्या, पोषण आवश्यकताओं और कृषि क्षेत्र पर 80 फ़ीसदी लोगों की निर्भरता को कम करने के साथ ही अन्य क्षेत्रों में सामाजिक, आर्थिक संतुलन को बिगाड़ सकती है। उन्होंने कहा कि कृषि हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ है और अधिक खराब स्थितियों से बचने के लिए नाजुक तरीके से मुद्दे को संभालने की जरूरत है। यह मेरा व्यक्तिगत दृष्टिकोण है और किसी भी राजनीतिक साधन से प्रेरित नहीं है और इसलिए यह दूसरों से भिन्न हो सकता है, लेकिन चूंकि हम कृषि क्षेत्र के साथ निकटता से जुड़े हैं, इसलिए किसान की पेचीदगियां समझते हैं। वह कहते हैं कि ज्यादातर किसान मानते हैं कि देश की आजादी के बाद से अभी तक एमएसपी घोषित तो किया जाता रहा है लेकिन उस पर खरीद की व्यवस्था कोई भी सरकार ठीक से नहीं कर पाई है। सरकार ने 3-3 बिल तो पास किए हैं लेकिन यदि एमएसपी पर जिंसों की खरीद का इंतजाम भी किया होता तो देश में शायद इतना कोहराम ना होता। बिलों पर जनप्रतिनिधि एवं किसान प्रतिनिधियों की राय न लिए जाने से भी मुद्दा गरमाया हुआ है। सरकार के लोग बिलों को कृषि क्षेत्र के लिए संजीवनी और न जाने क्या क्या बता रहे हैं लेकिन हकीकत यह है कि एमएसपी पर खरीद के इंतजाम ना होने के कारण गेहूं और ज्वार, बाजरा, मक्का जैसी सभी फसलें 30 फ़ीसदी से ज़्यादा गिरावट के साथ बाजार में बिक रही हैं। वर्तमान में धान की फसलों की बेकद्री से परेशान किसान कहते फिर रहे हैं कि एक दौर था जब एक-एक ट्रॉली धान ₹100000 का बैठता था वर्तमान में 50000 का भी नहीं बैठ रहा है।किसानों को अर्थव्यवस्था की स्थिति और देश की माली हालत की बहुत ज्यादा जानकारी नहीं होती उन्हें तो सिर्फ मोटा मोटी चीजें ही दिखती और समझ आती हैं। सरकार को किसान के लिए दूरगामी योजनाओं के अलावा तत्कालिक लाभकारी मूल्य की योजनाओं पर भी काम करना चाहिए और ठोस नीति बनानी चाहिए।वह कहते हैं कि यूं तो कानून बनते भी हैं और उनमैं संशोधन भी होते हैं लेकिन एक सरकार कानून बनाए और दूसरी उसमें संशोधन करें तो चीजें बिगड़ती हैं। एकरूपता और एक राय के साथ बनी हुई कोई भी चीज आसानी से नहीं बिगाड़ी जासकती।