शकरकंद की फसल को कंदीय वर्ग में स्थान दिया गया है। भारत में शकरकंद की खेती अपना प्रमुख स्थान रखती है। भारत में शकरकंद की खेत का क्षेत्रफल प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है।
किसान आधुनिक ढंग से शकरकंद की खेती कर के अच्छा उत्पादन कर बेहतरीन आमदनी कर रहे हैं। शकरकंद की खेती व्यापारिक दृष्टिकोण से भी बेहद फायदेमंद है।
यदि आप शकरकंद की खेती करना चाहते हैं एवं शकरकंद की खेती के आधुनिक तरीके जानना चाहते हैं। तो यह आर्टिकल आपके लिए काफी मददगार साबित होगा।
क्योंकि शकरकंद की खेती कब और कैसे की जाती है, इसके लिए उपयुक्त जलवायु, मिट्टी, खाद व उर्वरक क्या हैं। शकरकंद की खेती के लिए कितना पीएच मान होना चाहिए और शकरकंद की रोपाई कैसे करें आदि की जानकारी इस लेख में मिलेगी।
शकरकंद की फसल का बेहतरीन उत्पादन लेने के लिए मिट्टी का पी. एच. 5.8 से 6.7 के मध्य होना चाहिए। शकरकंद की खेती के लिए शीतोष्ण और समशीतोष्ण जलवायु अनुकूल मानी जाती है।
शकरकंद की खेती के लिए सर्वोत्तम तापमान 21 से 27 डिग्री के मध्य होना चाहिए। शकरकंद के लिए 75 से 150 सेंटीमीटर वर्षा अनुकूल मानी जाती है।
शकरकंद की खेती मुख्यतः वर्षा ऋतु में जून से अगस्त में की जाती है। रबी के मौसम में अक्टूबर से जनवरी में सिंचाई के साथ की जाती है। उत्तर भारत में शकरकन्द की खेती रबी, खरीफ व जायद तीनों मौसम में की जाती है।
खरीफ ऋतु में इसकी खेती सर्वाधिक की जाती है। खरीफ सीजन में 15 जुलाई से 30 अगस्त तक शकरकंद की लताओं को लगा देना चाहिए। सिंचाई की सुविधा सहित रबी (अक्टूबर से जनवरी) के मौसम में भी शकरकंद की खेती की जाती है।
जायद ऋतुओं में, इसकी लताओं को लगाने का वक्त फरवरी से मई तक का होता है। इस मौसम में खेती का प्रमुख उद्देश्य लताओं को जीवित रखना होता है।
जिससे कि खरीफ की खेती में उनका इस्तेमाल हो सके। लताओं के अतिरिक्त शकरकन्द के कन्द को लगाकर भी सुनहरी शकरकन्द की खेती की जा सकती है।
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गौरी किस्म की शकरकंद से औसतन उत्पादन तकरीबन 20 टन तक हो जाती है। इस किस्म को खरीफ एवं रवी के मौसम में उत्पादित किया जाता है।
श्री कनका- शकरकंद की श्री कनका किस्म को साल 2004 में विकसित किया गया था। इस किस्म के कन्द का छिलका दूधिया रंग का होता है। इसको काटने पर पीले रंग का गूदा नजर आता है।
यह 100 से 110 दिन के समयांतराल में पककर तैयार होने वाली किस्म है। इस किस्म का उत्पादन 20 से 25 टन प्रति हेक्टेयर है। एस टी-13 - शकरकंद की इस किस्म का गूदा बैगनी काले रंग का होता है।
जानकारी के लिए बतादें, कि कंद को काटने पर गूदा बिल्कुल चुकंदर जैसे रंग का नजर आता है। इस किस्म के अंदर बीटा केरोटिन की मात्रा जीरो होती है।
लेकिन, एंथोसायनिन (90 मिली ग्राम प्रति 100 ग्राम) वर्णक की वजह से इसका रंग बैंगनी-काला होता है। साथ ही, मिठास भी काफी कम होती हैं।
लेकिन, एंटीऑक्सीडेन्ट एवं आयु बढ़ाने के लिए अच्छी साबित होती है। यह 110 दिन की समयावधि में पककर तैयार हो जाती है। साथ ही, इसका उत्पादन 14 से 15 टन प्रति हैक्टर होता है।
एस टी- 14 - शकरकंद की यह किस्म साल 2011 में इजात की गई थी। शकरकंद की इस किस्म के कंद का रंग थोड़ा पीला वहीं गूदे का रंग हरा पीला होता है।
इस किस्म के अंदर उच्च मात्रा में वीटा केरोटिन (20 मिली ग्राम प्रति 30 ग्राम) विघमान रहता है। इस किस्म को तैयार होने में 110 दिन का वक्त लगता है। यदि इसकी उपज की बात की जाए तो वह 15 से 71 टन प्रति हेक्टेयर होती है।
आज तक के परीक्षण में इस किस्म को सबसे अच्छा पाया गया है। सिपस्वा 2- शकरकंद की इस किस्म का उत्पादन अम्लीय मृदा में भी किया जा सकता है।
इनमें केरोटिन की प्रचूर मात्रा होती है। शकरकंद की यह किस्म 110 दिन की समयावधि में पककर तैयार हो जाती है। इसकी उपज 20 से 24 टन प्रति हेक्टेयर है।
इन किस्मों अतिरिक्त शकरकंद की और भी कई सारी किस्में जैसे कि - पूसा सफेद, पूसा रेड, पूसा सुहावनी, एच- 268, एस- 30, वर्षा और कोनकन, अशवनी, राजेन्द्र शकरकंद- 35, 43 और 51, करन, भुवन संकर, सीओ- 1, 2 और 3, और जवाहर शकरकंद- 145 और संकर किस्मों में एच- 41 और 42 आदि हैं। किसान भाई अपने क्षेत्र के अनुरूप किस्म का चयन करें।
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यदि शकरकंद की लताओं का फैलाव पूरे खेत में हो जाता हैं, तो खरपतवार का जमाव नहीं हो पाता है। यदि खेत में कुछ खरपतवार उगते हैं, तो मिट्टी चढ़ाते वक्त उखाड़ फेंकने चाहिऐं।
रासायनिक उर्वरकों में 50 किलोग्राम नाइट्रोजन और 25 किलोग्राम फॉस्फोरस तथा 50 किलोग्राम पोटाश की जरूरत प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग करनी चाहिए।
नाइट्रोजन की आधी मात्रा फॉस्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा शुरू में लता लगाने के दौरान ही जड़ों में देनी चाहिए। शेष नाइट्रोजन को दो भागों में बांटकर एक हिस्सा 15 दिन में दूसरा हिस्सा 45 दिन टाप ड्रेसिंग के रूप में इस्तेमाल करना चाहिए।
जानकारी के लिए बतादें, कि अत्यधिक अम्लीय जमीन में 500 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से चूने का इस्तेमाल कंद विकास के लिए बेहतर रहता है।
इनके अतिरिक्त मैगनीशियम सल्फेट, जिंकसल्फेट और बोरॉन 25:15:10 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करने पर कन्द फटने की दिक्कत नहीं आती हैं। वहीं समान आकार के कन्द लगते हैं।