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Isabgol Farming-ईसबगोल की खेती में लगाइये हजारों और पाइए लाखों

Isabgol Farming-ईसबगोल की खेती में लगाइये हजारों और पाइए लाखों

किसान भाइयों, आज के जमाने में कम लागत में अधिक कमाई कौन नहीं करना चाहता है, फिर किसान भाई ही इसमें पीछे क्यों रहें? ऐसा नहीं कि किसानों के लिये संभव नहीं है, संभव है लेकिन जरा सा उस ओर ध्यान देने की जरूरत है। बाकी आप खेती तो करते हो चाहे गेहूं की खेती करो चाहे जीरा की खेती करो। खेती तो खेती है लेकिन दोनों के बाजार भाव में जमीन आसमान का अंतर होता है। कहने का मतलब यह है कि जिन किसान भाइयों को कम समय में अधिक कमाई करनी है, उन्हें परम्परागत खेती से हट कर खेती करनी होगी। ऐसे किसान भाइयों को सगंधीय व औषधीय फसलों की खेती करनी होगी, उन्हें अपनी मनचाही मंजिल मिल जायेगी। आज हम यहां पर ऐसी ही खेती के बारे में बताने जा रहे हैं, जिसमें आपको हजारों रुपये की लागत लगानी है और जब फसल तैयार होगी तो आपको लाखों की कमाई होगी। साथ में समय भी बहुत कम लगेगा।

आइये जानते हैं कि ईसबगोल का क्या महत्व है ?

ईसबगोल की खेती

ईसबगोल एक अत्यंत महत्वपूर्ण औषधीय फसल है। औषधीय फसलों के निर्यात में ईसबगोल का पहला स्थान है। मौजूदा समय में भारत से प्रतिवर्ष 120 करोड़ रुपये के मूल्य का ईसबगोल विदेशों को निर्यात हो रहा है।भारत में ईसबगोल का उत्पादन उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात, पंजाब, राजस्थान, हरियाणा आदि में होता है। ईसबगोल के बीज पर पाए जाने वाला छिलका ही इसका औषधीय उत्पाद है, जिसे ईसबगोल की भूसी के नाम से पहचाना जाता है। ईसबगोल के बीज में एक चौथाई भूसी होती है। ईसबगोल की भूसी का उपयोग पेट की सफाई, कब्जियत, दस्त, आंव,पेचिस,अल्सर, बवासीर जैसी बीमारियों के उपचार में दवा के रूप में किया जाता है। इसके अलावा इसका उपयोग आइस्क्रीम, रंग-रोगन व प्रिंटिंग उद्योग में भी किया जाता है।

किस प्रकार की जाती है ईसबगोल की खेती?

ईसबगोल की खेती के लिए किस प्रकार की जलवायु, मिट्टी, बीज,खाद, सिंचाई प्रबंधन आदि चाहिये उसके बारे में जानते हैं।

भूमि एवं जलवायु

ईसबगोल की खेती के लिए दोमट और बलुई मिट्टी सबसे उपयुक्त मानी जाती है। इसके अलावा जलनिकासी का विशेष प्रबंध होना चाहिये, जलभराव में यह फसल बहुत जल्द खराब हो जाती है। इसकी फसल के लिए मिट्टी का पीएच मान 7-8 होना चाहिये। यह फसल थोड़ी सी क्षारीय व रेतीली मिट्टी में उगाई जा सकती है। ईसबगोल की खेती के लिए उष्णकटिबंधीय जलवायु सबसे उपयुक्त मानी जाती है। इसकी खेती रबी की फसलों के साथ की जाती है। इसकी फसल के लिए 25 डिग्री सेल्सियश के आसपास तापमान की आवश्यकता होती है। इसकी फसल को शुरुआत में पानी की जरूरत होती है लेकिन फसल के  पकने के समय पानी से नुकसान हो जाता है। उस समय अधिक गर्मी की आवश्यकता होती है।

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उन्नत किस्में

ईसबगोल की अनेक उन्नत किस्में हैं। इनका चयन क्षेत्र की भूमि, फसल के पकने की अवधि और पैदावार के आधार पर किया जाता है। जवाहर ईसबगोल-4: इस तरह के बीज से रोपाई के लगभग 110-120 दिन बाद फसल पककर तैयार हो जाती है। इसका उत्पादन प्रति हेक्टेयर 15 क्विंटल तक होता है। आर.आई. 89: इसका पौधा छोटे आकार का होता है। इसकी भी फसल 120 दिनों में तैयार हो जाती है और उत्पादन 12 से 15 क्विंटल तक होता है। गुजरात ईसबगोल-2: इस बीज से गुजरात में सबसे अधिक खेती की जाती है। इस बीज से प्रति हेक्टेयर 10 क्विंटल के आसपास उत्पादन होता है। आई.आई.1: अधिक उत्पादन के लिए यह बीज तैयार किया गया है। इस बीज से उत्पादन 16 क्विंटल से 18 क्विंटल तक प्रति हेक्टेयर होता है। हरियाणा ईसबगोल-5: इसकी फसल भी 120 दिन में ही तैयार हो जाती है और इससे उत्पादन 10 से 12 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होता है। इसके अलावा अन्य किस्मों में गुजरात ईसबगोल-1, हरियाणा ईसबगोल-2, निहारिका, ट्राबे सेलेक्Ñशन 1 से 10 तक आदि का चयन करके बुआई की जा सकती है। ईसबगोल की उन्नत किस्में

खेत की तैयारी कैसे करें

ईसबगोल की खेती के लिए खेत से पुरानी फसल के अवशेषों को  समाप्त करके मिट्टी पलटने वाले हल से गहरी जुताई करनी चाहिये। उसके बाद खेत में गोबर की खाद डालकर उसे मिट्टी में कल्टीवेटर से मिला दें। इसके बाद पानीदेकर उसे छोड़ दें। जब मिट्टी की ऊपरी सतह सूखने लगे तब खेत की रोटावेटर से गहरी जुताई करें। फिर पाटा चलाकर खेत को समतल बना लें ताकि खेत में जलनिकासी की अच्छी व्यवस्था हो सके। जो किसान भाई ईसबगोल की खेती मेड़ों पर करना चाहते हों उन्हें जुताई के बाद खेतों में निश्चित दूरी की मेड़ बना लेनी चाहिये।

बुआई का समय और बुआई के तरीके

ईसबगोल की खेती में समय पर बुआई का बहुत महत्व है। इसकी पछैती खेती में अनेक तरह के रोग लगने की संभावनाएं रहतीं हैं। इसलिये किसान भाइयों को चाहिये कि इसका निर्धारित समय अक्टूबर के अंतिम सप्ताह से नवंबर के मध्य तक अवश्य बुआई कर लेनी चाहिये। बुआई से पहले बीजों को मेटालेक्जिकल से उपचारित कर लेनाचाहिये। एक हेक्टेयर में लगभग 5 किलो बीज की आवश्यकता पड़ती है। समतल भूमि में ईसबगोल के बीजों की बुआई छिड़काव विधि से की जाती है और मेड़ पर बीजों की बुआई ड्रिल प्रणाली से की जाती है, इसमें किसान भाइयों को चाहिये कि मेड़ों के बीच की दूरी एक फिट के रखें  तथा बीजों की दूरी दो इंच के बराबर रखें तो अच्छा उत्पादन मिलेगा। छिड़काव विधि से बुआई करने के लिए पहले समतल भूमि में बीजों का छिड़काव कर दें उसके बाद कल्टीवेटर के पीछे पाटा बांधकर खेत की दो बार हल्की जुताई कर दें। इससे बीज मिट्टी में अच्छी तरह से मिल जाते हैं। ये भी पढ़े: भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान कि सुझाई इस वैज्ञानिक तकनीक से करें करेले की बेमौसमी खेती

सिंचाई प्रबंधन

ईसबगोल की फसल को अधिक सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। बुआई के तुरंत बाद हल्की सिंचाई करना लाभप्रद रहता है। यदि बीजों का अंकुरण कम दिखाई दे तो 4-5 दिन बाद हल्की सिंचाई कर देनी चाहिये। अंकुरण के बाद पौधों को मात्र दो-तीन सिंचाई की जरूरत होती है, जिसमें पहली सिंचाई 30 से 35 दिन के बाद और दूसरी सिंचाई 50 से 60 दिन बाद करनी चाहिये। फव्वारा विधि से सिंचाई करने से अधिक लाभ होता है।

खाद प्रबंधन

ईसबगोल की खेती के लिए जुताई के वक्त प्रतिहेक्टेयर 10 गाड़ी गोबर की खाद खेत में देनी चाहिये। इसके साथ एक बोरा एनपीके प्रति हेक्टेयर के हिसाब से देना अच्छा रहेगा। साथ ही 25 किलो प्रति हेक्टेयर सिंचाई के समय डालने से पैदावार और अच्छी होती है।

खरपतवार प्रबंधन

ईसबगोल की खेती में दो बार निराई-गुड़ाई करने की आवश्यकता होती है। पहली बार बुआई के एक माह बाद और दूसरी बार लगभग दो माह बाद निराई गुड़ाई की जानी चाहिये। इसके अलावा खरपतवार नियंत्रण के लिए बुआई के बाद सल्फोसल्फ्यूरॉन या आइसोप्रोट्यून का छिड़काव करना चाहिये।

ईशबगोल के पौधों में लगने वाले रोग और उपचार

हालांकि ईसबगोल के पौधों में रोग बहुत कम लगते हैं, फिर भी कुछ ऐसे भी रोग हैं जिनके लगने से पौधा जल्दी नष्ट हो जाता है। इससे फसल बर्बाद हो जाती है। प्रमुख रोग इस प्रकार हैं:- मोयला: ईसबगोल के पौधे में लगने वाला यह रोग कीटों से लगता है। इस रोग का प्रभाव बुआई के दो माह बाद जब पौधों में फूल आना शुरू होते हैं तभी दिखाई देने लगता है। इस रोग में कीट पौधों का रस चूसने लगते है और पौधा जल्द ही सूख जाता है। किसान भाइयों जैसे ही इस रोग के संकेत मिलें तो तत्काल ही पौधों पर इमिडाक्लोपिड या आॅक्सी मिथाइल डेमेटान की उचित मात्रा का छिड़काव करना चाहिये। फसल बच जायेगी। मृदुरोमिल आसिता : यह रोग ईसबगोल के पौधे पर बाली निकलने के समय दिखाई देता है। रोग लगते ही पौधे की बढ़वार रुक जाती है और पत्तियों पर सफेद रंग का चूर्ण दिखाई देने लगता है। रोग का पता लगते ही पौधों पर कॉपर आक्सीक्लोराइड या मैंकोजेब का छिड़काव करना लाभदायक साबित होगा। ये भी पढ़े: कीटनाशक दवाएं महंगी, मजबूरी में वाशिंग पाउडर छिड़काव कर रहे किसान

फसल की कटाई

ईसबगोल के पौधों की पत्तियां जब पली पड़कर सूखने लगती हैं, तब समझ लेना चाहिये कि अब फसल पक कर तैयार हो गयी है और उसकी कटाई कर लेनी चाहिये। किसान भाइयों कटाई के समय यह ध्यान रखना जरूरी है कि फसल की कटाई सुबह के समय ही करनी चाहिये जिससे बालियों से बीज कम झड़ते हैं। छोटे किसान जो छोटे रकबे में खेती करने वाले छोटे किसान भाई तो इसकी बालियों को सुखाकर हाथ से मसल कर दानों को निकाल लेते हैं जबकि बड़े किसान भाई इसके दानों को मशीनों की सहायता से निकालते हैं। पेड़ो की भूसी पशु चारे के रूप में काम आती है।  इसलिये किसान भाई इसका भी बहुत ध्यान रखते हैं।

किसानोंं को मिलता है कितना लाभ

ईसबगोल की औसतन पैदावार 10 से 12 क्विंटल प्रति हेक्टेयर के आसपास पाई जाती है। इसके दानों से मिलने वाली भूसी की मात्रा 25 प्रतिशत के आसपास होती है। इस तरह से औसतन ढाई से तीन क्विंटल प्रति हेक्टेयर भूसी तैयार होती है। इसका बाजार में 11 से 15 हजार रुपये क्विंटल के आसपास रहता है। इस तरह से किसान भाइयों को प्रति हेक्टेयर 3 से 4 लाख रुपये तक की कमाई हो जाती है। यह फसल कुल 110 से 120 दिन में तैयार होती है। इस तरह से किसान भाइयों को मात्र चार महीने में हजारों की लागत से लाखों रुपये की कमाई हो सकती है।
ईसबगोल को जैविक खाद से तैयार करने पर दोगुनी हो गई गुजरात के किसानों की आय

ईसबगोल को जैविक खाद से तैयार करने पर दोगुनी हो गई गुजरात के किसानों की आय

विश्व में इसबगोल(Isabgol or Psyllium husk (सिलियम)) के उत्पादन तथा निर्यात में शीर्ष पर विराजमान भारत के किसान, अब जैविक खेती की मदद लेकर अपनी आय को दोगुना करने में सफल हो रहे हैं। वर्तमान में भारत में प्रति वर्ष लगभग एक लाख टन इसबगोल उत्पादन किया जाता है। गुजरात और राजस्थान जैसे राज्यों में इसबगोल की उत्पादकता 700 किलो ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से भी अधिक हो रही है। गुजरात और राजस्थान के किसान भाईयों ने अब धीरे धीरे रासायनिक उर्वरकों की तुलना में जैविक पदार्थों का इस्तेमाल कर उत्पादन को बढ़ाने के साथ ही अपनी आय को सुधारने में भी सफलता हासिल की है। वर्तमान में भारत में उत्पादित किया जा रहा ईसबगोल, अंतरराष्ट्रीय कंपनियों को 1800 से 2000 रुपया प्रति किलोग्राम की दर से बेचा जा रहा है, लेकिन किसानों को केवल 40 रुपये प्रति किलोग्राम की दर से ही भुगतान किया जाता है, सामान को कम्पनियों तक पहुंचाने वाले एजेंट ही सारा मुनाफा कमा लेते हैं।


क्या है इसबगोल और इसका इस्तेमाल ?

इसबगोल के बीजों में एक छिलके के जैसा पदार्थ होता है, जिसका इस्तेमाल औषधीय तत्व के रूप में किया जाता है। इस बीज को पीसकर पाउडर बनाया जाता है, जिसका प्रयोग करने से पेट में कब्ज और गर्मी जैसी समस्याओं से छुटकारा मिलता है। इसके अलावा डायरिया और पेचिश जैसे रोगों को दूर करने में भी इसबगोल का आयुर्वेदिक औषधि के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। 


इसबगोल उत्पादन के लिए आवश्यक मृदा और जलवायु :

रबी के मौसम में उगाई जाने वाली इस फसल के लिए ठंडी जलवायुवीय स्थितियों की आवश्यकता होती है। फसल के उत्पादन से पहले किसान भाइयों को ध्यान रखना चाहिए कि कम नमी की मात्रा वाले क्षेत्रों में इसबगोल का उत्पादन सर्वाधिक होता है। अक्टूबर महीने के आखिरी सप्ताह या नवंबर की शुरुआती सप्ताह में इसबगोल की बुवाई की जाती है। 7 से अधिक पीएच मान वाली मृदा इसबगोल के लिए सर्वोत्तम मानी जाती है, वर्तमान में भारतीय किसान 'दोमट बलुई मृदा' से सर्वाधिक उत्पादन प्राप्त कर पा रहे हैं।


 

इसबगोल उत्पादन के लिए कैसे तैयार करें जैविक मृदा और बीज उपचार ?

राजस्थान के बाड़मेर जिले में रहने वाले किसान विश्वप्रसाद बताते हैं कि वर्तमान में वह ट्राइकोडर्मा (Trichoderma) नाम के फफूंदनाशक का इस्तेमाल कर बीजों का बेहतर उपचार कर रहे हैं। ट्राइकोडर्मा एक लाभकारी और प्रदूषण रहित सुरक्षित फफूंदनाशी होता है, वर्तमान में कृषि वैज्ञानिक इसे जैविक श्रेणी में शामिल करते हैं। बेहतर बीज उपचार के लिए शुरुआत में इसबगोल के बीजों को पानी में डुबोकर गीला किया जाता है और उन्हें ट्राइकोडरमा के साथ तैयार किए गए एक घोल में मिलाकर कुछ समय के लिए रख देना चाहिए। एक किलोग्राम ट्राइकोडरमा के घोल में 25 किलोग्राम जैविक खाद को मिला करें एक एकड़ में इस्तेमाल होने वाले बीजों का उपचार किया जा सकता है। इस प्रक्रिया की मदद से इसबगोल के पौधों में होने वाले तनागलन और कई अन्य रोगों से सफलतापूर्वक निदान पाया जा सकता है।

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भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के से जुड़ी एक गैर सरकारी संस्थान की एक रिपोर्ट के अनुसार इसबगोल के प्रति हैक्टेयर के क्षेत्र में उत्पादन करने में लगभग पन्द्रह हज़ार रुपए का खर्चा आता है और वर्तमान बाजार दर से को आधार मानकर किसान एक लाख रुपये तक कि उपज प्राप्त कर सकते हैं। किसान विश्वप्रसाद बताते हैं कि पिछले साल उन्होंने अस्सी हजार रुपए प्रति हेक्टेयर की दर से मुनाफा कमाया है।


 

वर्तमान में लोकप्रिय इसबगोल की उन्नत किस्में :

वर्तमान में भारतीय किसान परिपक्वता की अवधि के आधार पर इसबगोल की अलग-अलग किस्म का उत्पादन करना पसंद करते हैं। पूसा के कृषि वैज्ञानिकों के द्वारा सुझाई गयी कुछ इसबगोल की कुछ उन्नत किस्में जैसे कि आर.आई.-89 (R. I.- 89) नामक किस्म 110 से 120 दिनों में परिपक्व हो जाती है और इस किस्म से प्रति हेक्टेयर क्षेत्र से 15 क्विंटल तक इसबगोल का उत्पादन किया जा सकता है। इसके अलावा एम आई जी -2 (MIG-2) नाम की किस्म तीन से चार सिंचाईयों में ही पक कर तैयार हो जाती है। यह किस्म सर्वाधिक उत्पादन देती है और इसकी मदद से प्रति हेक्टेयर क्षेत्र में सामान्यतः 18 क्विंटल से भी अधिक औसत उपज प्राप्त की जा सकती है। 


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इसबगोल उत्पादन के दौरान कैसे करें खाद एवं उर्वरकों का बेहतर प्रबंधन तथा सिंचाई योजना :

वर्तमान में इसबगोल उत्पादन में एक सफल किसान के रूप में उभरे गुजरात और राजस्थान क्षेत्र में रहने वाले किसान जैविक खाद अर्थात गोबर की खाद और वर्मी कंपोस्ट का इस्तेमाल करना सर्वोत्तम मानते हैं। अधिक पैदावार के लिए किसान मृदा परीक्षण की मदद से पोषक तत्वों की भी समय पर जांच करवा रहे हैं। इस फसल के उत्पादन के लिए नाइट्रोजन की बहुत ही कम आवश्यकता होती है, लेकिन फिर भी प्रति हेक्टेयर क्षेत्र में 10 किलोग्राम नाइट्रोजन तथा 25 से 30 किलोग्राम फास्फोरस का इस्तेमाल किया जा सकता है। वर्तमान में डिजिटल तकनीकों की मदद से किसानी क्षेत्र में मुनाफा कमाने वाले किसान एजेटॉबेक्टर कल्चर (Azotobacter culture) की मदद से भी बीजों का उपचार कर रहे हैं, जिससे नाइट्रोजन जैसे उर्वरक को खरीदने में आने वाली लागत को कम किया जा सकता है। इसबगोल की फसल की सिंचाई योजना के दौरान बुवाई के तुरंत बाद ही पहली सिंचाई करनी चाहिए। फसल का अंकुरण शुरू होने से पहले पानी का सीमित प्रयोग ही बेहतर उत्पादकता देता है। इसबगोल के एक सीजन को तैयार होने में लगभग तीन से चार सिंचाईयों की आवश्यकता होती है। किसान भाई अपनी सहूलियत के अनुसार बुवाई के तुरंत बाद पहली सिंचाई करने के पश्चात अगली सिंचाई 35 दिनों के अंतराल के बाद कर सकते हैं।

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इसबगोल की फसल में होने वाले रोग और उनका उपचार :

भारतीय क्षेत्र की जलवायु के अनुसार वर्तमान में इसबगोल में मृदुरोमिल नामक एक फफूंद मुख्य रोग के रूप में देखा जाता है। इस रोग की निशानी के रूप में पत्तियों में सबसे पहले धब्बे के जैसे आकार दिखाई देना शुरू होता है, इसके बाद यह पूरी पत्ती पर फैल कर उसे नष्ट कर देते हैं। अधिक नमी वाले स्थानों पर इस रोग के प्रभाव अधिक भी हो सकते हैं। इस फफूंद का प्रभाव कम करने के लिए खड़ी फसल पर लकड़ी के बुरादे से तैयार हुई राख का छिड़काव करना चाहिए। इसके अलावा जैविक कृषि से तैयार नीम के पत्तियों को पीस कर एक जैविक कीट घोल बनाकर समय-समय पर इसबगोल की फसल पर छिड़काव करना चाहिए। आशा करते हैं हमारे किसान भाइयों को Merikheti.com की मदद से पश्चिमी भारत में स्थित राज्यों में रहने वाले किसान भाइयों की मुनाफा कमाने की पूरी जैविक क्रिया विधि के बारे में जानकारी मिल गई होगी और आप भी भविष्य में कम लागत के साथ की जाने वाली जैविक खेती की तरफ रुझान करते हुए अच्छा मुनाफा कमा पाएंगे।