कोरोना की तीसरी लहर से पूर्व बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं की दरकार | Merikheti

कोरोना की तीसरी लहर से पूर्व बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं की दरकार

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स्वास्थ्य सेवाओं का हाल बेहाल है। साल 2017 के नेशनल हेल्थ प्रोफाइल के अनुसार 10,189 लोगों पर एक एलोपैथिक चिकित्सक एवं 90,189 ध्लोगों पर एक सरकारी अस्पताल है। देश में एक हजार की आबादी पर पांच बैड हैं जिनकी संख्या बंग्लादेश में 87 है। कई अन्य अविकसित देशों के सापेक्ष हमारे यहां संसाधन कम हैं।आक्सफेम इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक देश के अस्पतालों की बैड की उपलब्धता के हिसाब से भारत 167 देशों में 155 वें स्थान पर है। दस हजार लोगों के लिए पांच बैड एवं 8.6 डाक्टर हैं। गांव में जहां 70 फीसदी आबादी रहती हैं वहां कुल उपलब्ध बैड़ों का 40 प्रतिशत ही हैं। यानी ग्रामीण अंचल में दस हजार लोगों के लिए अधिकतम दो बैड ही हिस्से में आ रहे हैं।

अब तीसरी लहर को लेकर सरकारें तैयारी करने में लगी हैं लेेकिन सोचने वाली बात यह है कि नातो चंद रोज में डाक्टर तैयार किए जा सकते हैं ना और ज्यादा संसाधनों का बहुत ज्यादा विकास किया जा सकता है। ऐसे में फिर जन स्वास्थ्य की चिंता की जाए तो उसका बेहतर समाधान क्या हो। स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में भी शहरी और ग्रामीण, गरीब और अमीर वाली धारणा के अनुरूप ही उपचार मिला। गांवों से शहर अच्छे रहे और गरीबों से अमीरों को ज्यादा सहूलियतें मिल पाईं। इसी तरह मुसलमानों से ज्यादा हिन्दू इलाज करा जाए। ऑक्सफैम इंडिया की स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में असमानता से जुड़ी 2021 की रिपोर्ट में ये बातें सामने आईं हैं। स्वास्थ्य बीमा के अभाव में लोग बड़े पैमाने पर प्रभावित हुए।

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रिपोर्ट के खास तथ्य

—सामान्य वर्ग के 65.7 प्रतिशत परिवारों के पास शौचालय सुविधा सुधरी हैं।
—अनुसूचित जाति के 25.9 प्रतिशत लोगों के पास यह सुविधा है।
—सामान्य श्रेणी की तुलना में 12.6 प्रतिशत बच्चों का शारीरिक विकास नहीं हुआ है।
—सामान्य वर्ग के लोगों के सापेक्ष निचले स्तर वाले 20 फीसदी लोगों के पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्युदर तीन गुना अधिक है।
—एकीकृत बाल विकास सेवा के अन्तर्गत अस्पतालों में जन्म एवं खाद्य सामग्री की उपलब्धता हिन्दू परिवारों की तुलना में मुस्लिम परिवारों में 10 प्रतिशत कम है।
—टीकाकारण भी हिन्दुओं के सापेक्ष मुस्लिमों में तकरीबन आठ फीसदी कम कराया जाता है।

पैसा जीने का आधार

—गरीबों के मुुकाबले अमीर लोग तकरीबन साढे सात साल ज्यादा जीते हैं।
—गरीब तबके की महिलाओं के मुकाबले सामान्य वर्ग की महिला करीब 15 साल ज्यादा जीती है।
—शिशु मृत्युदर में सुधार के बावजूद सामान्य वर्ग के सापेक्ष गरीब, दलित, ओबीसी एवं आदिवासियों में शिशु मृत्युदर ज्यादा है।
—सरकारी आंकड़ों के अनुसार बीमारियों पर खर्चे के कारण सालाना 6 करोड़ लोग और गरीब हो जाते हैं।
—आक्सफोम की रिपोर्ट के मुताबिक स्वास्थ्य खर्च के लिहाज से भारत का स्थान 154 वां है।
—करीब पौने दौसौ देशों की श्रंखला में नीचे से यह स्थान पांचवां है।

पंचायत के मुखियाओं के तैयार होने की दरकार

पंच, सरपंच, प्रमुख और अध्यक्ष बनने की होड़ में निर्वाचन आयोग की तमाम बंदिशों के बाद भी करोड़ों करोड़ खर्च कर दिया जाता है लेकिन कोरोना जैसी महामारी के दौर में चंद उदाहरण ही सामने आए कि किसी ग्राम प्रधान ने अपने यहां विद्यालय या पंचायत घर में कोविड़ सेंटर स्थापित किए। यदि स्थानीय चिकित्सकों की मदद से इस तरह की व्यवस्था जन और सरकारी सहयोग से शुरू हो जाए तो काम बेहद आसान हो जाए। बड़ी पंचायतों में चंद आक्सीजन सिलेंडर, सघन वैक्सीनेशन जैसे उपक्रमों पर अभी से काम शुरू होतो आने वाली दिक्कतों का मुकाबला आसनी से किया जा सकता है। लोगों को तड़प तड़प कर मरने से बचाया जा सकता है।

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