Khinni Ka Ped: खिरनी के पेड़ से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी

By: Merikheti
Published on: 24-Dec-2023

भारत के प्राचीन व आयुर्वेदिक ग्रंथों में इस khinni ka fal (खिरनी के फल) का अत्यधिक गुणगान गाया है। यह मीठा एवं हल्का सा कसैले स्वाद का फल शरीर के लिए अत्यंत लाभकारी है। खिरनी मसल्स को सशक्त करती है एवं पाचन तंत्र को दुरुस्त भी बनाए रखती है। इस फल के अंदर शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने का भी गुण विघमान है। इसकी उत्पत्ति भारत एवं नजदीकी देशों में मानी जाती है।

खिरनी के पेड़ (Khinni Ka Ped) की होती है काफी दीर्घायु

khinni ka fal (खिरनी के फल) आकार में दिखने में भले ही छोटी है। परंतु, इसका स्वाद शानदार माना जाता है। इसे उसी भांति बेचा जाता है, जैसे गन्ने की फांके (गंडेरी) बेची जाती है। मतलब बर्फ के ऊपर फांकों को ठंडी कर उसे ग्राहकों को दिया जाता है। खिरनी को भी ऐसे ही बेचा जाता है। परंतु, आजकल बड़े स्टोरों में यह पैकैट़स में भी मिलती है। खिरनी के पेड़ों पर सितंबर से दिसंबर के माह में फूल लगते हैं। साथ ही, अप्रैल से जून के माह में फल पकते हैं। यह पेड़ों पर इतनी ज्यादा मात्रा में लगती है, कि कुछ एक दिन तो पूरा पेड़ संतरी रंग का दिखाई देने लगता है। ये भी पढ़ें : Madhuca longifolia: महुआ के पेड़ की उपयोगिताऐं एवं विशेषताऐं क्या हैं?

खिरनी यानी खिन्नी का उल्लेख खराद कला में भी हुआ है

कृषि विशेषज्ञ और वैज्ञानिकों का कहना है, कि यदि इसके पेड़ को कोई हानि न पहुंचाई जाए तो वह एक हजार वर्ष तक जिंदा रह सकता है। खिरनी के पेड़ (Khinni Ka Ped) से गोंद भी निकलती है, जो कि बहुत सारे कामों में आती है। खिरनी के पेड़ की लकड़ी काफी ज्यादा मजबूत एवं चिकनी होती है। भारत के संस्कृति मंत्रालय के मुताबिक, राजस्थान के उदयपुर से संबंधित ‘खराद कला’ का इतिहास 250 वर्षों से भी ज्यादा प्राचीन है। यह एक ऐसी काष्ठ कला है, जिसमें आकृतियों को निर्मित करने के लिए ‘खिरनी की लकड़ी’ का इस्तेमाल किया जाता है। ये भी पढ़ें : जानिए यूकलिप्टस पेड़ की खूबियों के बारे में

खिन्नी के पेड़ का पौराणिक महत्व क्या है ?

यह जानकर आप दंग रह जाऐंगे कि भारत के कुछ प्राचीन ग्रंथों में खिरनी को अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है। साथ ही, इसे फलों के राजा की भी उपाधि प्रदान की गई है। आयुर्वेद के ग्रंथों में खिरनी को राजादन, राजफल इत्यादि कहा गया है। पुराणों के अंदर खिरनी की गुठली (बीजों) से निर्मित तेल को प्रमुख माना गया है। ग्रंथ के मुताबिक, देवताओं द्वारा सम्मानित वैद्य अश्विनी कुमारों ने एक ऐसे स्वास्थ्यवर्धक तेल को तैयार किया था, जो किसी भी प्रकार के रोग से लड़ने की क्षमता रखता था। इस तेल का नाम उन्होंने “अमृत तैल” निर्धारित किया था। इस तेल का इस्तेमाल उस दौर में राजाओं द्वारा किया जाता था। इस तेल को बनाने में अन्य औषधियों/वनस्पतियों के साथ ही खिरनी के बीज के तेल का भी उपयोग किया जाता था।

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