गेहूं की फसल में लगने वाले प्रमुख रतुआ रोग

By: Merikheti
Published on: 11-Dec-2023

चावल के बाद गेहूं भारत मुख्य फसल है। रबी के मौसम में गेहूं की बुवाई की जाती है। गेहूं की फसल उत्पादन में किसानों को कई कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। मुख्य रूप से गेहूं की फसल उत्पादन में रोगों के कारण पैदावार कम होती है जिससे की किसानों को नुकसान होता है। आज के इस लेख में हम गेहूं कि फसल में लगने वाले प्रमुख रोगों की बात करेंगे। गेहूं की फसल में कई रोग लगते है परन्तु सबसे ज्यादा नुकसान रतुआ रोग से होता है। रतुआ 3 प्रकार का होता है। भूरा रतुआ, काला रतुआ, पीला रतुआ

पर्ण रतुआ/भूरा रतुआ रोग

यह पक्सीनिया रिकोंडिटा ट्रिटिसाई नामक कवक से होता है तथा सम्पूर्ण भारत में पाया जाता है | इस रोग की शुरुआत उत्तर भारत की हिमालय तथा दक्षिण भारत की निलगिरी पहाड़ियों से शुरू होता है एवं वहां पर जीवित रहता है तथा वहाँ से हवा द्वारा मैदानी क्षेत्रों में फैलकर गेहूं की फसल को संक्रमित करता है |रोग कि पहचान :- इस रोग कि पहचान यह है कि प्रारम्भ में इस रोग के लक्षण नारंगी रंग के सुई की नोक के बिन्दुओं के आकार के बिना क्रम के पत्तियों की उपरी सतह पर उभरते हैं जो बाद में और घने होकर पूरी पत्ती और पर्ण वृन्तों पर फैल जाते हैं | रोगी पत्तियां जल्दी सुख जाती है जिससे प्रकाश संश्लेषण में भी कमी होती है और दाना हल्का बनता है | गर्मी बढने पर इन धब्बों का रंग, पत्तियों की निचली सतह पर काला हो जाता है तथा इसके बाद यह रोग आगे नहीं फैलता है।  इस रोग से गेहूं की उपज में 30 प्रतिशत तक की हानि हो सकती है।

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धारीदार रतुआ या पीला रतुआ रोग 

यह पक्सीनिया स्ट्राईफारमिस नामक कवक से होता है | इस रोग के लक्षण प्रारम्भ में पत्तियों के उपरी सतह पर पीले रंग की धारियों के रूप में देखने को मिलते हैं जो कि धीरे–धीरे पूरी पत्तियों को पीला कर देते हैं तथा पीला पाउडर जमीन पर भी गिरने लगता है  इस स्थिति को गेहूं में पीला रतुआ कहते हैं| यदि यह रोग कल्ले निकलने वाली अवस्था या इससे पहले आ जाता है तो फसल में बाली नहीं आती है | यह रोग उत्तरी हिमालय की पहाड़ियों से उत्तरी मैदानी क्षेत्र में फैलता है | यह रोग तापमान बढने पर कम हो जाता है तथा पत्तियों पर पीली धारियां काले रंग की हो जाती है। मध्य तथा दक्षिणी क्षेत्रों में यह रोग अधिक तापमान की वजह से नहीं फैलता हैं। 

गेहूं का तना रतुआ या काला रतुआ रोग      

इस रोग का रोग जनक पक्सीनिया ग्रैमिनिस ट्रिटिसाई नामक कवक है | यह रोग प्रारम्भ में निलगिरी तथा पलनी पहाड़ियों से आता है तथा इसका प्रकोप दक्षिण तथा मध्य क्षेत्रों में अधिक होता है | उत्तरी क्षेत्र में यह रोग फसल पकने के समय पहुँचता है | इसलिए इसका प्रभाव नगण्य होता है | यह रोग अक्सर 20 डिग्री नगण्य सेंटीग्रेड से अधिक तापमान पर फैलता है | इस रोग के लक्षण तने तथा पत्तियों पर चाकलेट रंग जैसा काला हो जाता है | दक्षिण तथा मध्य क्षेत्रों में जारी की नवीनतम प्रजातियाँ इस रोग के लिए प्रतिरोधी होती है | हालांकि लोक -1 जैसी प्रजातियों में यह रोग काफी लगता है। हाल के कुछ वर्षों में इस रोग की नयी प्रजाति यू.जी. 99 कुछ अफ़्रीकी देशों में विकसित हो गयी है |

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रोगों का नियंत्रण 

इन तीनो रोगों को नियंत्रित करने के लिए किसान को अच्छी तरह से वैज्ञानिकों द्वारा बताये गये प्रभावित उपाय अपनाने चाहिए तथा गेहूं की फसल पर रतुआ की आरम्भिक एवं अनुकूल वातावरण की अवस्था में रसायन प्रोपीकानजोल (टिल्ट 25 प्रतिशत ई.सी.) अथवा ट्राईडिमेफान बेलिटान 25 प्रतिशत ई.सी. अथवा टेबकोनाजोल का छिड़काव 0.1 प्रतिशत की दर से (एक मिली लीटर दवा प्रति लीटर पानी) करने से रतुआ नियंत्रित किया जा सकता है। रसायन का छिड़काव लगभग 15 दिन बाद फिर से आवश्यकतानुसार किया जा सकता है।

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