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कानपुर

उड़द की खेती कैसे की जाती है जानिए सम्पूर्ण जानकारी (Urad Dal Farming in Hindi)

उड़द की खेती कैसे की जाती है जानिए सम्पूर्ण जानकारी (Urad Dal Farming in Hindi)

उड़द की खेती के लिए नम एवं गर्म मौसम की आवश्यकता होती है। वृद्धि के लिये 25-30 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान उपयुक्त होता है। 700-900 मिमी वर्षा वाले क्षेत्रो मे उड़द को सफलता पूर्वक उगाया जाता है। 

फूल अवस्था पर अधिक वर्षा होना हानिकारक है। पकने की अवस्था पर वर्षा होने पर दाना खराब हो जाता है। उड़द की खरीफ एवं ग्रीष्म कालीन खेती की जा सकती है।

भूमि का चुनाव एवं तैयारी 

उड़द की खेती विभिन्न प्रकार की भूमि मे होती है। हल्की रेतीली, दोमट या मध्यम प्रकार की भूमि जिसमे पानी का निकास अच्छा हो उड़द के लिये अधिक उपयुक्त होती है। 

पी.एच. मान 7-8 के बीच वाली भूमि उड़द के लिये उपजाऊ होती है। उड़द की खेती के लिए अम्लीय व क्षारीय भूमि उपयुक्त नही होती है। खेती की तैयारी के लिए खेती की पहले हल से गहरी जुताई कर ले फिर 2 - 3 बार हैरो से खेती की जुताई कर के खेत को समतल बना ले | 

वर्षा आरम्भ होने के पहले बुवाई करने से पौधो की बढ़वार अच्छी होती है। उड़द के बीज खेत में तैयार की पंक्ति में लगाए जाते है| पंक्ति में रोपाई के लिए मशीन का इस्तेमाल किया जाता है | 

खेत में तैयार की गई पंक्तियों के मध्य 10 से 15 CM दूरी होती है, तथा बीजो को 4 से 5 CM की दूरी पर लगाया जाता है | खरीफ के मौसम में अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए इसके बीजो की रोपाई जून के महीने में की जानी चाहिए | 

जायद के मौसम में अच्छी पैदावार के लिए बीजो को मार्च और अप्रैल माह के मध्य में लगाया जाता है | 

उड़द की किस्मे 

उर्द-19, पंत उर्द-30, पी.डी.एम.-1 (वसंत ऋतु), यू.जी. 218, पी.एस.-1, नरेन्द्र उर्द-1, डब्ल्यू.बी.यू.-108, डी.पी.यू. 88-31, आई.पी.यू.-94-1 (उत्तरा), आई.सी.पी.यू. 94-1 (उत्तरा), एल.बी.जी.-17, एल.बी.जी. 402, कृषणा, एच. 30 एवं यू.एस.-131, एस.डी.टी 3

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बीज की मात्रा एवं बीजउपचार 

उड़द का बीज6-8 किलो प्रति एकड़ की दर से बोना चाहिये। बुबाई के पूर्व बीज को 3 ग्राम थायरम या 2.5 ग्राम डायथेन एम-45 प्रति किलो बीज के मान से उपचारित करे। 

जैविक बीजोपचार के लिये ट्राइकोडर्मा फफूँद नाशक 5 से 6 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपयोग किया जाता है।

बुवाई का समय एवं तरीका 

मानसून के आगमन पर या जून के अंतिम सप्ताह मे पर्याप्त वर्षा होने पर बुबाई करे । बोनी नाली या तिफन से करे, कतारों की दूरी 30 सेमी. तथा पौधो से पौधो की दूरी 10 सेमी. रखे तथा बीज 4-6 सेमी. की गहराई पर बोये।

खाद एवं उर्वरक की मात्रा  

नाइट्रोजन 8-12 किलोग्राम व सल्फर 20-24 किलोग्राम पोटाश 10 किलोग्राम प्रति एकड़ के हिसाब से दे। सम्पूर्ण खाद की मात्रा बुबाई की समय कतारों  मे बीज के ठीक नीचे डालना चाहिये। 

दलहनी फसलो मे गंधक युक्त उर्वरक जैसे सिंगल सुपर फास्फेट, अमोनियम सल्फेट, जिप्सम आदि का उपयोग करना चाहिये। विशेषतः गंधक की कमी वाले क्षेत्र मे 8 किलो ग्राम गंधक प्रति एकड़ गंधक युक्त उर्वरको के माध्यम से दे।

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सिंचाई

वैसे तो उड़द की फसल को सिंचाई की अधिक आवश्यकता नहीं होती है, क्योंकी ये एक खरीफ की फसल है | फूल एवं दाना भरने के समय खेत मे नमी न हो तो एक सिंचाई करनी चाहिए।

फसल में खरपतवार नियंत्रण  

खरपतवार फसल को अनुमान से कही अधिक क्षति पहुँचाते है। अतः विपुल उत्पादन के लिए समय पर निदाई-गुड़ाई कुल्पा व डोरा आदि चलाते हुये अन्य आधुनिक नींदानाशक का समुचित उपयोग करना चाहिये। 

खरपतवारनाशी वासालिन 800 मिली. से 1000 मिली. प्रति एकड़ 250 लीटर पानी मे घोल बनाकर जमीन बखरने के पूर्व नमी युक्त खेत मे छिड़कने से अच्छे परिणाम मिलते है।

उड़द की फसल के प्रमुख रोग और रोग का नियंत्रण 

जड़ सड़न एवं पत्ती झुलसा

यह बीमारी राइजोक्टोनिया सोलेनाई फफूंद से होते हैं। इसका प्रकोप फली वाली अवस्था में सबसे अधिक होता है। प्रारम्भिक अवस्था में रोगजनक सड़न, बीजोंकुर झुलसन एवं जड़ सड़न के लक्षण प्रकट करता है। 

रोग से ग्रसित पौधों की पत्तियां पीली पड़ जाती है एवं उन पर अनियमित आकार के भूरे रंग के धब्बे दिखाई देते हैं। कुछ समय बाद ये छोटे-छोटे धब्बे आपस में मिल जाते हैं और पत्तियों पर बड़े क्षेत्र में दिखते हैं। 

पत्तियां समय से पूर्व गिरने लगती हैं। आधारीय एवं जल वाला भाग काला पड़ जाता है एवं रोगी भाग आसानी से छिल जाता है। रोगी पौधे मुरझाकर सूखने लगते हैं। इन पौधों की जड़ को फाड़कर देखने पर आंतरिक भाग में लालिमा दिखाई देती है।

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जीवाणु पत्ती झुलसा

 यह बीमारी जेन्थोमोनासा फेसिओलाई नामक जीवाणु से पैदा होती है। रोग के लक्षण पत्तियों की ऊपरी सतह पर भूरे रंग के सूखे हुए उभरे धब्बों के रूप में प्रकट होते है। रोग बढ़ने पर बहुत सारे छोटे-छोटे उभरे हुए धब्बे आपस में मिल जाते हैं। 

पत्तियां पीली पड़कर समय से पूर्व ही गिर जाती हैं। पत्तियों की निचली सतह लाल रंग की हो जाती है। रोग के लक्षण तना एवं पत्तियों पर भी दिखाई देते हैं।

पीला चित्तेरी रोग

इस रोग की प्रारम्भिक अवस्था में चित्तकवरे धब्बे के रूप में पत्तियों पर दिखाई पड़ते हैं। बाद में धब्बे बड़े होकर पूरी पत्ती पर फैल जाते हैं। जिससे पत्तियों के साथ-साथ पूरा पौधा भी पीला पड़ जाता है।

यदि यह रोग आरम्भिक अवस्था में लग जाता है तो उपज में शतप्रतिशत हानि संभव है। यह रोग विषाणु द्वारा मृदा, बीज तथा संस्पर्श द्वारा संचालित नहीं होता है। जबकि सफेद मक्खी जो चूसक कीट है के द्वारा फैलता है।

पर्ण व्याकुंचन रोग या झुर्रीदार पत्ती रोग 

यह भी विषाणु रोग है। इस रोग के लक्षण बोने के चार सप्ताह बाद प्रकट होते हैं। तथा पौधे की तीसरी पत्ती पर दिखाई पड़ते हैं। पत्तियाँ सामान्य से अधिक वृद्धि तथा झुर्रियां या मड़ोरपन लिये हुये तथा खुरदरी हो जाती है। 

रोगी पौधे में पुष्पक्रम गुच्छे की तरह दिखाई देता है। फसल पकने के समय तक भी इस रोग में पौधे हरे ही रहते हैं। साथ ही पीला चित्तेरी रोग का संक्रमण हो जाता है।

मौजेक मौटल रोग

इस रोग को कुर्बरता के नाम से भी जाना जाता है तथा इसका प्रकोप मूंग की अपेक्षा उर्द पर अधिक होता है। इस रोग द्वारा पैदावार में भारी हानि होती है। प्रारम्भिक लक्षण हल्के हरे धब्बे के रूप में पत्तियों पर शुरू होते हैं बाद में पत्तियाँ सिकुड़ जाती हैं तथा फफोले युक्त हो जाती हैं। यह विषाणु बीज द्वारा संचारित होता है।

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रोगों का नियंत्रण

पीला चित्तेरी रोग में सफेद मक्खी के नियंत्रण हेतु मेटासिस्टाक्स (आक्सीडेमाटान मेथाइल) 0.1 प्रतिषत या डाइमेथोएट 0.2 प्रतिशत प्रति हेक्टयर (210मिली/लीटर पानी) तथा सल्फेक्स 3ग्रा./ली. का छिड़काव 500-600 लीटर पानी में घोलकर 3-4 छिड़काव 15 दिन के अंतर पर करके रोग का प्रकोप कम किया जा सकता है।

झुर्रीदार पत्ती रोग, मौजेक मोटल, पर्ण कुंचन आदि रोगों के नियंत्रण हेतु इमिडाक्लोपिरिड 5 ग्रा./कि.ग्रा. की दर से बीजोपचार तथा बुबाई के 15 दिन के उपरांत 0.25 मि.मी./ली. से इन रोगों के रोग वाहक कीटों पर नियंत्रण किया जा सकता है।

सरकोस्पोरा पत्र बुंदकी रोग, रूक्ष रोग, मेक्रोफोमिना ब्लाइट या चारकोल विगलन आदि के नियंत्रण हेतु कार्बेन्डाजिम या बेनलेट कवकनाशी (2 मि.ली./लीटर पानी) अथवा मेन्कोजेब 0.30 प्रतिशत का छिड़काव रोगों के लक्षण दिखते ही 15 दिन के अंतराल पर करें।

चूर्णी कवक रोग के लिये गंधक 3 कि.ग्रा. (पाउडर)/हेक्ट. की दर से भुरकाव करें।बीज को ट्राइकोडर्मा विरिडी, 5 ग्राम/कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करें।जीवाणु पर्ण बुंदकी रोग के बचाव हेेतु 500 पी.पी.एम. स्ट्रेप्टोमाइसीन सल्फेट से बीज का उपचार करना चाहिये। स्ट्रेप्टोमाइसीन 100 पी.पी.एम. का छिड़काव रोग नियंत्रण के लिये प्रभावी रहता है।

फसल की कटाई

उड़द के पौधे बीज रोपाई के तक़रीबन 80 से 90 दिन बाद पैदावार देने के लिए तैयार हो जाते है | जब पौधों की पत्तियां पीले रंग की और फलियों का रंग काला दिखाई देने लगे उस दौरान इसके पौधों को जड़ के पास से काट लिया जाता है |

इसके पौधों को खेत में ही एकत्रित कर सुखा लिया जाता है | इसके बाद सूखी हुई फलियों को थ्रेसर के माध्यम से निकाल लिया जाता है | उड़द के पौधे एक  एकड़ के खेत में तक़रीबन 6 क्विंटल का उत्पादन दे देते है |

कानपूर आईआईटी द्वारा विकसित कम जल खपत में अधिक पैदावार करने वाला गेंहू का बीज

कानपूर आईआईटी द्वारा विकसित कम जल खपत में अधिक पैदावार करने वाला गेंहू का बीज

आईआईटी कानपुर (IIT Kanpur; Indian Institute of Technology) द्वारा गेहूं की नवीनतम किस्म को विकसित किया है, जिसकी बुआई करने के उपरांत 35 दिनों तक पानी लगाने की आवश्यकता नहीं होती है। उत्तर भारत के राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश, हरियाणा एवं बिहार समेत ज्यादातर राज्य धान की कटाई करने के उपरांत गेहूं की बुआई करते हैं। दरअसल, अभी कई राज्यों में गेहूं की बुआई प्रारम्भ हो चुकी है, जिसके लिए किसान बाजार से उम्दा किस्म के गेहूं के बीज की खरीद कर रहे हैं  ताकि पैदावार ज्यादा से ज्यादा कर सकें। लेकिन कुछ किसान अभी तक धान की कटाई भी नहीं कर पाए हैं। अब किसानों के लिए एक ऐसे गेहूं की उम्दा किस्म बाजार में आ चुकी है, जो कि कम जल संचय करने के बावजूद भी अच्छी पैदावार करती है। फसल का उत्पादन बेहतरीन होता है।

इस गेंहू की किस्म की मुख्य विशेषता क्या हैं ?

आईआईटी कानपुर के द्वारा गेहूं की नवीन एवं उम्दा किस्म को विकसित करने के साथ साथ किसानों को अत्यधिक जल की आपूर्ति में खर्च होने से भी बेहद राहत दिलाई है, क्योंकि गेंहू की इस किस्म में बुवाई के उपरांत 35 दिनों तक पानी देने की कोई आवश्यकता नहीं होती है। साथ ही यह गेहूं की किस्म, गर्मी एवं गर्म हवाओं से भी प्रभावित नहीं होती है, साथ ही इन गेंहू को झुलसने या सूखने का भी कोई खतरा नहीं होता। किसानों को गेंहू में पानी लगाने के लिए काफी समय का अंतराल तो मिलेगा ही, साथ ही जल की आवश्यकता भी कम होने के कारण उनकी लागत में कमी आयेगी।


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इस किस्म के गेंहु में कितने दिन तक सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती ?

आईआईटी कानपुर इंक्यूबेटेड कंपनी एलसीबी फर्टिलाइजर (LCB Fertilizers) गेहूं का नैनो कोटेड पार्टिकल सीड तैयार कर चुका है, जिसकी विशेषता है कि इसकी बुवाई करने के उपरांत 35 दिनों तक फसल की सिंचाई करने की कोई आवश्यकता नहीं होती है। एलसीबी के शोधकर्ताओं ने बताया है कि अभी तक जो उनके द्वारा रिसर्च हुई है वह कभी भी निष्फल नहीं रही है। शोधकर्ताओं के द्वारा बताया गया है कि गेहूं के बीज में नैनो पार्टिकल एवं सुपर एब्जार्बेंट पॉलिमर की कोटिंग हुई है, जिसके तहत गेहूं पर लगा पॉलिमर 268 गुना ज्यादा पानी संचय करता है। अधिक जल संचय के कारण ही गेहूं की फसल में 35 दिनों तक सिंचाई की कोई आवश्यता नहीं होती है।

इस गेंहू की किस्म को तैयार होने में कितना समय लगता है ?

उपरोक्त में जैसा बताया गया है कि उत्तर प्रदेश एवं हरियाणा सहित ज्यादातर जनपदों में धान की कटाई भी प्रारंभ हो चुकी है। अब गेहूं की बुवाई करते वक्त वहाँ के किसान इस गेंहू की किस्म के बीज को प्रयोग करें तो उनको जलपूर्ति के लिए करने वाले खर्च में बेहद बचत होगी। इस बीज की खासियत है कि यह 78 डिग्री तापमान को झेलने के बाद भी ज्यों की त्यों खड़े रहेंगे। साथ ही, इस किस्म के गेंहू की फसल 120 से 150 दिन में मात्र दो सिंचाई होने के बाद पककर कटाई के लिए तैयार हो जाती है।
आसान है दलहनी फसल उड़द की खेती करना, यह मौसम है सबसे अच्छा

आसान है दलहनी फसल उड़द की खेती करना, यह मौसम है सबसे अच्छा

उड़द की खेती दलहनी फसल एक रूप में देश के कई हिस्सों में की जाती है. जिसमें यूपी, एमपी, बिहार, राजस्थान, हरियाणा जैसे राज्य शामिल हैं. उड़द की फसल अल्प अवधि की फसल होती है. जो दो से ढ़ाई महीने में पककर तैयार हो जाती है. उड़द के दानों में 60 फीसद कर्बोहाईड्रेट, 25 फीसद प्रोटीन और करीब 1.3 फीसद फैट होता है. अगर किसान उड़द की खेती करना चाहते हैं, तो पहले इससे जुड़ी जानकारी के बारे में जान लेना जरूरी है. विश्व स्तर पर उड़द की खेती उत्पादन सबसे ज्यादा भारत में होता है. पिछले कई दशकों में उड़द की खेती जायद सीजन में की जा रही है. दलहनी फसल उड़द स्वास्थ्य के लिए बेहद अच्छी होने के साथ साथ जमीन के लिए भी पोषक तत्वों से भरपूर होती है. इसके अलावा उड़द की फसल को हरी खाद के रूप में इस्तेमाल किया जाता है.

उड़द की खेती के लिए कैसी हो जलवायु?

उड़द की खेती के लिए हलके नम और गर्म मौसम की जरूरत होती है. हालांकि की उड़द की फसल की ज्यादातर किस्में काफी संवेदी होती हैं. इसकी फसल को बढ़ने के लिए लगभग 20 से 30 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान की जरूरत होती है. लेकिन इअकी फसल 35 से 40 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान भी आसानी से सह सकती है. उड़द को आसानी से उगाने के लिए बारिश वाली जगहें भी उपयुक्त होती हैं. खासकर वहां जहां पर 600 से 700 मिमी बारिश हो. ज्यादा जल भराव वाली जगहों पर इसकी खेती नहीं की जा सकती. फसल में जब फूल हों या वो पकने की अवस्था में हो, तो बारिश इस फसल को बर्बाद कर सकती है.

कैसे करें भूमि का चयन?

उड़द की खेती कई तरह की जमीन में की जा सकती है. जिसमें से हल्की रेतेली, दोमट या फिर मीडियम तरह की जमीन जिसमें, पानी का निकास अच्छी तरह से हो, ऐसी जमीन उपयुक्त रहती है. उड़द की उपजाऊ जमीन के लिए उसका पी एच मां 7 से 8 के बीच का होना चाहिए. बारिश के शुरू होने से पहले ही इसके पौधे की अच्छी ग्रोथ हो जाती है. खेत समतल हो और पानी का निकास अच्छा हो, इसका ध्यान भी देना बेहद जरूरी है.

उड़द की उन्नत किस्मों के बारे में

  • टी-9 उड़द की किस्म को पकने में करीब 70 से 75 दिनों का समय लगता है. इसकी औसत पैदावार की बात करें तो 10 से 11 क्विंटल प्रति हेक्टेयर के हिसाब से इसकी पैदावार होती है. इसका बीज मीडियम छोटा, हल्का काला और मीडियम ऊंचाई वाला पौधा होता है.
  • पंत यू-30 उड़द की किस्म को पकने में 70 दिनों का समय लगता है. वहीं इसकी पैदावार 10 से 12 क्विंटल प्रति हेक्टेयर के हिसाब से होती है. इसके दाने काले और मीडियम आकार के होते हैं. जो पीला मौजेक क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है.
  • खरगोन-3 उड़द की किस्म को पकने में 85 से 90 दिनों का समय लगता है. इसकी औसत पैदावार 8 से 10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर के हिसाब से होती है. इसका दाना बड़ा और हल्का काला होता है. इसका पौधा फैलने वाला होता है.
  • पी डी यू-1 उड़द की किस्म को पकने में 70 से 80 दिनों का समय लगता है. इसकी औसत पैदावार 12 से 14 क्विंटल प्रति हेक्टेयर के हिसाब से होती है. इसका दाना काला बड़ा और जायद के सीजन के लिए बेहतर होता है.
  • जवाहर उड़द-2 किस्म की उड़द की फसल को पकने में 70 दिनों का समय लगता है. इसकी पैदावार 10 से 11 क्विंटल प्रति हेक्टेयर के हिसाब से होती है. इसके बीज मीडियम छोटे चमकीले काले, तनी पर फलियां आस पास के गुच्छों में लगती है.
  • जवाहर उड़द-3 उड़द की किस्म को पकने में 70 से 75 दिनों का समय लगता है. इसके पैदावार अन्य की तुलना में कम यानि की 4 से 4.80 क्विंटल प्रति हेक्टेयर के हिसाब से होती है. इसके बीज मीडियम छोटे और इसका पौधा कम फैलने वाला होता है.
  • टी पी यू-4 उड़द की किस्म 70 से 75 दिनों में पककर तैयार होती है. इसकी पैदावार भी 4 से 4.80 क्विंटल प्रति हेक्टेयर के हिसाब से होती है. इसका पौधा मीडियम ऊंचाई वाला सीधा होता है.

फसल में कैसी हो खाद और उर्वरक?

उड़द की फसल दलहनी फसल होती है. जिसे ज्यादा नत्रजन की जरूरत नहीं होती. पौधों की शुरूआती अवस्था में जब तक जड़ों में नत्रजन एकत्र करने वाले जीवाणु काम करते रहते हैं, तब तक के लिए 15 से 20 किलो नत्रजन 40 से 50 किलो फास्फोरस और 40 किलो पोटाश प्रति हेक्टेयर के हिसाब से बीजों की बुवाई के कते समय मिट्टी में मिला दें. पूरी खाद की मात्रा बुवाई के समय कतारों में बीज के नीचे डालें. ये भी पढ़े: Urad dal ki kheti: इसी फरवरी में बो दें उड़द

कितनी हो बीज की मात्रा?

उड़द के बीज को प्रति एकड़ के हिसाब से 6 से 8 किलो की मात्रा में बोना चाहिए. बुवाई के पहले बीज के तीन ग्राम थायरम या ढ़ाई ग्राम डायथेन एम-45 से उपचारित कर लें. इसके अलावा बीजोपचार के लिए ट्राइकोडर्मा फफूंद नाशक को तकरीबन 5 से 6 ग्राम प्रति किलो की दर से इस्तेमाल किया जा सकता है.

क्या है बुवाई का सही तरीका?

बारिश के मौसमे के आने  पर या जून के आखिरी हफ्ते में भरपूर बारिश होने पर उड़द के बीजों की बुवाई करें. इसकी बुवाई तिफन या फिर नाली में कर सकते हैं. जहां कतारों की दूरी करीब 30 सेंटी मीटर और एक पौधे से दूसरे पौधे की दूरी 10 सेंटी मीटर की होनी चाहिए. बीज को 4 से 6 सेंटी मीटर की गहराई पर बोएं. गर्मियों के सीजन में इसकी बुवाई फरवरी के आखिरी तक या अप्रैल के पहले हफ्ते में कर लेनी चाहिए.

कैसे करें सिंचाई?

उड़द की खेती में आमतौर पर बारिश के मौसम में सिचाई करने की जरूरत नहीं पड़ती. लेकिन इसकी फली बनते वक्त अगर खेत में भरपूर नमी नहीं है तो एक सिंचाई जरुर कर देनी चाहिए. जायद के सीजन में उड़द की खेती के लिए तीन से चार सिंचाई की जरूरत होती है. जिसके लिए पलेवा करने के बाद बीजों की बुवाई की जाती है. जहां दो से तीन सिंचाई 15 से 20 दिनों के अंतर में करनी चाहिए. फसल में जब फूल बनें तो खेत में पर्याप्त नमी हो इसका ध्यान जरुर रखें.

कैसे करें रोग की रोकथाम?

  • उड़द में लगने वाला समान्य रोग पीला मोजेक विषाणु रोग है. जो वायरस से फैलता है. इसका असर 4 से 5 हफ्ते के बाद नजर आता है. इस रोग में पत्तियों का रंग पीला और धब्बेदार हो जाता है. जिसके बाद पत्तियां सूख जाती हैं. इसका उपचार करके इस पर नियंत्रण किया जा सकता है.
  • पत्ती मोडन रोग में पत्तियां शिराओं से ऊपर की तरफ मुड़ जाती हैं और नीचे से अंदर की तरफ मुड़ जाती हैं. जिसकी वजह से पत्तियों की ग्रोथ रुक जाती है और पौधे मर जाते हैं. यह एक विषाणु जनित बीमारी है. इससे बचने के लिए थ्रीप्स के लिए एसीफेट 75 फीसद एस पी या 2 मीली डाईमैथोएट प्रति लीटर के हिसाब से स्प्रे बुवाई करते समय ही कर देना चाहिए.
  • फसल को पत्ती धब्बा रोग से बचाने के लिए कार्बेन्डाजिम 1 किलो एक हजार लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए.
  • फसक को सेफ मक्खी रोग से बचाने के डायमेथोएट 30 ई सी 2 मिली लीटर पानी के साथ घोलकर छिड़काव करना चाहिए.
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कैसे करें रासायनिक कीटनाशकों का इस्तेमाल?

  • जब भी कीटनाशी घोल तैयार करें तो उसमें चिपचिपा पदार्थ जरूर मिलाएं. ताकि बारिश का पानी कीटनाशक पत्तियों पर पड़कर घुलकर ना बहे.
  • धूल कीटनाशकों का छिड़काव हमेशा सुबह ही करें.
  • किसी की भी सलाह पर दो या उससे ज्यादा कीटनाशकों को ना मिलाएं. मौसम के हिसाब से ही हमेशा कीटनाशकों का इस्तेमाल करें.
  • जब भी कीटनाशक का घोल तैयार करें तो उसके लिए किसी मग्घे का इस्तेमाल करें. फिर स्प्रे टंकी में पानी से मिलाएं. ध्यान रखें कि, कीटनाशक को कभी भी डायरेक्ट टंकी में ना मिलाएं.
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कैसे करें निदाई और गुड़ाई?

खरपतवार फसलों को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं. अच्छे उत्पादन के लिए समय समय पर फसल की निदाई और गुड़ाई करनी चाहिए. इसके लिए कुल्पा और डोरा का इस्तेमाल कर सकते हैं. इसके आलवा फसलों में आधुनिक कीटनाशक का इस्तेमाल करना चाहिए.

कैसे करें उड़द की कटाई?

उड़द की फसल लगभग 85 से 90 दिनों में पककर तैयार हो जाती है. उड़द की फसल की कटाई के लिए हंसिया का इस्तेमाल करें. कटाई का काम कम से कम 70 से 80 फीसद फलियों के पक जाने पर करें. खलियान में ले जाने के लिए फसलों का बंडल बना लेंगे तो काम आसान हो जाएगा. उड़द की अच्छी पैदावार के लिए आपको हमारी बताई हुई खास बातों को ध्यान में रखते हुए खेती करनी चाहिए. जिससे आपको फायदा भी हो सके और अच्छी इनकम भी हो सके.
IIT कानपुर ने 5 हजार फीट ऊँचे बादलों पर केमिकल गिराकर की बारिश

IIT कानपुर ने 5 हजार फीट ऊँचे बादलों पर केमिकल गिराकर की बारिश

जानकारी के लिए बतादें कि आईआईटी कानपुर 2017 से इस प्रॉजेक्ट पर कार्यरत रहा है। परंतु, बहुत सालों से डीजीसीए से अनुमति ना मिलने पर मामला लंबित था। संपूर्ण तैयारियों के पश्चात विगत दिनों डीजीसीए ने टेस्ट फ्लाइट की मंजूरी दे दी। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान कानपुर के छात्रों द्वारा नवीन कीर्तिमान स्‍थापित किया है। दीर्घ काल से क्‍लाउड सीडिंग (Cloud Seeding) के माध्यम से बारिश कराने की कोशिश में लगे कानपुर आईआईटी के छात्रों के हाथ बड़ी सफलता लगी है। यहां के छात्रों ने 5 हजार फीट की ऊंचाई से बादलों पर केमिकल गिराकर बारिश कराने में सफल हुए हैं। इस परीक्षण से कृत्रिम वर्षा कराने की आशा लगी है।

काफी समय से परीक्षण चल रहा था

आईआईटी कानपुर 2017 से इस प्रॉजेक्ट पर कार्य कर रहा है। परंतु, विगत काफी सालों से डीजीसीए से स्वीकृति मिलने पर मामला बाधित था। समस्त तैयारियों के पश्चात विगत दिनों डीजीसीए ने टेस्ट फ्लाइट की स्वीकृति दे दी है। उत्तर प्रदेश सरकार विगत दोनों पूर्व क्लाउड सीडिंग के परीक्षण की अनुमति दे दी थी।

इस तरह परीक्षण किया गया

जानकारी के अनुसार, आईआईटी की हवाई पट्टी से उड़े सेसना एयरक्राफ्ट ने 5 हजार फीट की ऊंचाई पर घने बादलों के मध्य दानेदार केमिकल पाउडर फायर किया। यह सब कुछ बिल्कुल आईआईटी के ऊपर ही किया गया था। केमिकल फायर करने के पश्चात तुरंत बारिश शुरू हो गई। जानकारों का कहना है, कि क्लाउड सीडिंग (Cloud Seeding) के लिए सर्टिफिकेशन नियामक एजेंसी डीजीसीए ही देता है।  इस सफल परीक्षण फ्लाइट के परिणामों का आकलन करने के पश्चात निर्धारित किया जाएगा कि आगे और टेस्ट किए जाए अथवा नहीं। इस दौरान आईआईटी व उसके आसपास तीव्र बारिश हुई। यह भी पढ़ें: नैनो यूरिया का ड्रोन से गुजरात में परीक्षण

सूखा जैसे हालातों से जूझा जा सकता है

क्‍लाउड सीडिंग (Cloud Seeding) में बारिश की संभावना को बढ़ाने के मकसद से विभिन्‍न रासायनों जैसे कि सिल्‍वर, आयोडाइड, सूखी बर्फ, नमक एवं अन्‍य तत्‍वों को शम्मिलित किया गया है। आईआईडी कानपुर के इस परीक्षण में सेना के विमान का उपयोग किया गया था। कानपुर आईआईटी के प्रोफेसर का कहना है, कि क्‍लाउड सीडिंग (Cloud Seeding) परीक्षा सफल रहा है। इससे आगामी समय में वायु प्रदूषण एवं सूखा जैसे हालातों से निपटा जा सकेगा। कृत्रिम बारिश से आम लोगों को काफी सहूलियत मिल पाएगी। किसानों की फसलों का बचाव किया जा सकेगा।