न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर किसान क्यों कर रहे हैं विरोध प्रदर्शन?

By: MeriKheti
Published on: 01-Oct-2020

केंद्र सरकार ने हाल में संसद में कृषि से जुड़े तीन विधेयक पेश किए। सरकार का दावा है कि ये विधेयक कृषि क्षेत्र में क्रांतिकारी सुधार लाएँगे।भारी हंगामे के बीच ये विधेयक राज्यसभा में पारित हो गए। इसके बाद राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने 27 सितंबर, 2020 को इन्हें अपनी मंज़ूरी दे दी जिसके बाद इन विधेयकों ने कानून का रूप ले लिया। संसद में पारित हुए इन तीन विधेयकों में - कृषक उपज व्‍यापार और वाणिज्‍य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक, 2020, कृषक (सशक्‍तिकरण व संरक्षण) कीमत आश्‍वासन और कृषि सेवा पर क़रार विधेयक, 2020 और आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक, 2020 शामिल हैं। इन विधेयकों को लेकर किसानों के मन में कई तरह की आशंकाएं हैं। हाल में पंजाब और हरियाणा में किसानों ने कई बार प्रदर्शन किए हैं। साथ ही एक देश व्यापी विरोध प्रदर्शन भी किया गया। किसानों का मानना है कि ये विधेयक धीरे-धीरे एपीएमसी की व्यवस्था को खत्म कर देंगे और निजी कंपनियों यानी कॉरपोरेट को बढ़ावा देंगे जिससे किसानों को उनकी फसल का उचित मूल्य नहीं मिलेगा। विशेषज्ञों का मानना है कि एमएसपी को लेकर इतना विरोध प्रदर्शन नहीं होता अगर एमएसपी पर आधारित मौजूदा खरीद व्यवस्था जारी रखने के लिए विधेयक में कोई प्रावधान रखा जाता। या फिर विधेयक में सिर्फ एक वाक्य होता कि इस कानून में ऐसा कुछ भी नहीं है जो सरकार को एमएसपी की घोषणा करने से रोकेगा और वह पहले की तरह ही इन दरों पर फसल खरीदती रहेगी। किसानों और सरकार में टकराव हालाँकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर बार-बार ये कह रहे हैं कि एमएसपी और मंडी व्यवस्था जारी रहेगी लेकिन किसान संगठन चाहते हैं कि सरकार इसका कानून बना दे। अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के संयोजक वीएम सिंह ने कहा कि अगर सरकार की मंशा साफ है तो न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानून बना दे। वहीं प्रदर्शनकारी किसानों कहना है कि उनकी सिर्फ इतनी सी मांग है कि सरकार एमएसपी को कानून बना दे ताकि वह जो भी दर तय करेगी, देशभर की कृषि मंडियों में या उससे बाहर कहीं पर भी उससे कम पर कृषि उपज की खरीद नहीं होगी। कृषि मंत्री ने यह भी कहा है कि एमएसपी पहले भी किसी कानून का हिस्सा नहीं था और अब भी किसी कानून का हिस्सा नहीं है। उनकी बात सही है। वहीं योजना आयोग के पूर्व सदस्य और कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) के पूर्व प्रमुख अभिजीत सेन का कहना है, “यह केवल सरकार की एक नीति है जो प्रशासनिक नीति निर्धारण का हिस्सा है। सरकार फसलों के लिए एमएसपी की घोषणा करती है लेकिन ऐसा कोई कानून नहीं है जो इनके कार्यान्वयन को अनिवार्य बनाता हो।“ सरकार का रुख  प्रधानमंत्री ने किसानों की आशंकाओं को दूर करनी की कोशिश की। उन्होंने एक बयान में कहा, "मैं देश के किसानों को भरोसा देता हूं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था जैसी पहले चली आ रही थी, वैसी ही चलेगी और हर सीजन में सरकारी खरीद के लिए अभियान चलाया जाता रहेगा। देश में किसी भी राज्य का किसान, किसी को भी, कहीं पर भी अपना अनाज, फल, सब्जी अपनी मर्जी से बेच सकेगा, लेकिन कुछ लोग किसानों को बरगलाने में जुटे हैं।“ वहीं कृषि मंत्री ने राज्यसभा में दोनों विधेयकों पर चर्चा करते हुए न्यूनतम समर्थन मूल्य और सरकारी खरीद को लेकर अपनी और पूर्ववर्ती यूपीए सरकार के आंकड़े की तुलना पेश की। उन्होंने कहा, "2014-15 में धान की एमएसपी 1,410 रुपए थी जो 2019-20 में बढ़कर 1,815 रुपए है। इसी तरह गेहूँ की एमएसपी 1,525 से बढ़कर 1,925 रुपए पर पहुंच गयी (जो 2021-22 के लिए 1,975  रुपए तय की गई थी। जबकि मूंगफली के लिए एमएसपी 4,030 रुपए से बढ़कर 5,090 रुपए, सोयाबीन के लिए 2,600 रुपए से बढ़कर 3,710 रुपए हुआ और चने के लिए यह 3,500 रुपए (2015-16) से बढ़ाकर 4,875 (2020-21) रुपए प्रति क्विंटल कर दिया गया।" कृषि विशेषज्ञों की राय कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि हालांकि सरकार और खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य चलता रहेगा। लेकिन किसान इस बयान को भ्रामक मान रहे हैं। अभी भी, 23 फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य है लेकिन सरकारी एजेंसियां इनमें से ज़्यादातर को नहीं खरीदती हैं। एक संभावना ये है कि भविष्य में न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा की जाएगी लेकिन किसानों को इसका कोई ख़ास फायदा नहीं होगा। इससे भी आगे बढ़कर एक भय ये है कि अगर जनवितरण प्रणाली यानी पीडीएस सिस्टम बंद किया जाता है तो सरकार को कुछ भी खरीदने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। कृषि उपज वाणिज्य एवं व्यापार-संवर्धन एवं सुविधा कानून और एमएसपी  सरकार का दावा है कि इस कानून के लागू हो जाने से किसानों के लिए एक सुगम और मुक्त माहौल तैयार हो सकेगा, जिसमें उन्हें अपनी सुविधा के हिसाब से कृषि उत्पाद खरीदने और बेचने की आजादी होगी। 'एक देश, एक कृषि मंडी' बनेगी। कोई अपनी उपज कहीं भी बेच सकेगा. किसानों को अधिक विकल्प मिलेंगे, जिससे बाजार की लागत कम होगी और उन्हें अपने उपज की बेहतर कीमत मिल सकेगी। इस कानून से पैन कार्ड धारक कोई भी व्यक्ति, कंपनी, सुपर मार्केट किसी भी किसान का माल किसी भी जगह पर खरीद सकते हैं। कृषि माल की बिक्री कृषि उपज मंडी समिति (APMC) में होने की शर्त हटा ली गई है। जो खरीद मंडी से बाहर होगी, उस पर किसी भी तरह का टैक्स नहीं लगेगा। सरकार का दावा है कि कृषि में लाए जा रहे बदलावों से किसानों की आमदनी बढ़ेगी, उन्हें नए अवसर मिलेंगे। बिचौलिए खत्म होंगे, इससे सबसे ज्यादा फायदा छोटे किसानों को होगा, लेकिन किसान संगठन और विपक्ष का कहना है ये किसानों के लिए हित में नहीं है, खेती और मंडियों पर बड़ी-बड़ी कॉरपोरेट कंपनियां हावी हो जाएंगी। किसानों की मांग इसे लेकर किसानों को यह डर है कि जब उनके उत्पाद की खरीद मंडी में नहीं होगी तो सरकार इस बात को रेगुलेट नहीं कर पाएगी कि किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) मिल रहा है या नहीं। विधेयक में एमएसपी की गारंटी नहीं दी गई है। किसान अपनी फसल के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी मांग रहे हैं। वो इसे किसानों का कानूनी अधिकार बनवाना चाहते हैं, ताकि तय रेट से कम पर खरीद करने वाले जेल में डाले जा सकें। तर्क एमएसपी को कानून का रूप देने का मतलब होगा कि इससे कम कीमत पर फसल खरीदने पर सभी निजी कंपनियों पर कानूनी कार्रवाई की जा सकती है। इससे बाजार पर नकारात्मक असर पड़ सकता है और निजी कंपनियाँ कृषि उपज खरीदना बंद कर देंगी। सरकार के पास उन सभी फसलों की खरीद के लिए संसाधन नहीं हैं जिनके लिए एमएसपी की घोषणा की जाती है। यहाँ तक कि गेहूँ और धान के लिए भी केंद्र सरकार पूरे देश में एमएसपी की पूरी गारंटी नहीं दे सकती। राष्‍ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश के महज छह प्रतिशत किसान ही एमएसपी से लाभान्वित होते हैं। बाकी 94 प्रतिशत किसान बाजार की उथल-पुथल से प्रभावित होते हैं। समाधान एमसीपी को लेकर जारी उहापोह की स्थिति से बचने के लिए सरकार और किसानों के बीच एक प्रत्यक्ष संवाद की ज़रूरत है। साथ ही सरकार को किसानों की हर तरह की आशंका को दूर करने के लिए पहल करनी चाहिए। किसान हमारे अन्नदाता है, केवल यह कहना काफी नहीं होगा, उनकी आशंकाओं पर ध्यान देना होगा और ज़रूरत पड़ी तो सरकार को कानून में बदलाव करने से हिचकिचाना नहीं चाहिए।        

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