कम पैसे में उगायें हरा चारा, बढ़ेगा दूध, बनेगा कमाई का सहारा

Published on: 08-Jul-2021

हमारे किसान भाइयों के लिए पशुपालन बहुत बड़ा सहारा है। पशुपालन का काम अच्छी तरह से हो और उससे होने वाला दुग्ध उत्पादन अच्छा हो तो किसानोंं को काफी अच्छी आय हो सकती है। पशुपालन के लिए पौष्टिक एवं संतुलित आहार का प्रबंधन करना सबसे महत्वपूर्ण कार्य है। इसमें हरे चारे का प्रबंधन करना सबसे अधिक महत्व का काम है। हरे चारे का प्रबंधन इसलिये सबसे अधिक महत्व का काम है क्योंकि हमारे देश में अनेक स्थान शुष्क स्थान हैं एवं मौसम परिवर्तन के कारण सभी जगहों में एक ऐसा समय भी आ जाता है जब हरा चारा नहीं मिल पाता है। किसान भाइयों की इस समस्या को देखते हुए कृषि वैज्ञानिकोें ने शुष्क प्रदेशों और शुष्क मौसम में कम लागत में हरा चारा उगाने की खोज की है। इससे किसान भाई कम लागत में हरा चारा उगा कर दुग्ध उत्पादन बढ़ा सकते हैं, इससे उनकी कमाई बढ़ सकती है।

क्या है बीटा वल्गैरिस

बीटा वल्गैरिस चुकंदर परिवार की एक प्रजाति है। इसकी खास बात यह है कि यह कम पानी और खराब मिट्टी में भी उगाया जा सकता है। कम से कम लागत में प्रति हेक्टेयर 200 टन के हिसाब से उगाया जा सकता है। इसकी खेती में केवल चार माह का समय लगता है। सबसे खास बात यह है जब खेतों में हरा चारा समाप्त हो जाता है उस समय इसकी फसल तैयार होती है। इसकी खेती करने से किसान भाइयों को उस समय हरा चारा मिल जाता है जब उन्हें हरे चारे की सबसे अधिक जरूरत होती है।

दूध उत्पादन में बहुत ही लाभकारी है बीटा वल्गैरिस

इस हरे चारे को पशुओं को खिला कर जब परीक्षण किया गया तो इसके नतीजे बहुत ही शानदार निकले। वैज्ञानिकों सैकड़ों किसानों के समक्ष प्रदर्शन करके साबित किया कि बीटा वल्गैरिस का उपयोग करने के बाद पशुओं के दुग्ध उत्पादन में लगभग 10 प्रतिशत तक की वृद्धि हुई। इसके साथ दूध के फैट्स में भी काफी बढ़ोदरी हुई। कुल मिलाकर बीटा वल्गैरिस पशुपालकों के लिए वरदान साबित हो सकता है।

कितनी लागत आती है

वैज्ञानिकों ने इस नयी प्रजाति की खेती की लागत के बारे में बताया कि इसकी खेती में कम पानी, कम प्रबंधन व रोग मुक्त व कीट मुक्त होने के कारण इसमें बहुत कम लागत आती है। कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार इस प्रजाति के एक किलों चारे को उगाने में 50 पैसे की लागत आती है। इससे सस्ता चारा आपको कहीं नहीं  मिल सकता है।

इसलिये है पशुओं के लिए लाभकारी

अमारैन्थ परिवार का सदस्य है बीटा वल्गैरिस। आम तौर पर इसकी जड़ों और पत्तियों का सेवन सलाद व सब्जी के रूप में किया जाता है। लेकिन इसे पशु चारे के रूप में बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जाता है। इसमें चीनी, प्रोटीन, कार्बनिक एसिड, कैल्शियम, मैग्नीशियम, फास्फोरस, आयरन, विटामिन बी, बी1 और सी भारी मात्रा में होता है। इसके उपयोग से पशुओं का स्वास्थ्य अच्छा रहता है, स्वास्थ्य अच्छा रहने के कारण दुग्ध उत्पादन में भी वृद्धि होती है। बीटा वल्गैरिस अपने उपयोगी गुणों के कारण पोषक तत्वों से भरपूर है, जो पशुओं के लिए काफी लाभकारी है।



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बीटा वल्गैरिस की खेती किस प्रकार से की जाती है

आम बोलचाल की भाषा में चुकन्दर कहा जाता है। हालांकि चुकन्दर की खेती आम तौर पर ठंडे स्थान पर की जाती है लेकिन राजस्थान के कृषि वैज्ञानिकों ने चुकन्दर की ऐसी नयी प्रजाति की खोज की है जो गर्म प्रदेश व क्षारीय भूमि में भी पैदा की जा सकती है।

भूमि व जलवायु

चुकन्दर की नयी प्रजाति की खेती सभी प्रकार की जलवायु में की जा सकती है। आम तौर पर इसकी फसल के लिए 20 से 22 डिग्री सेल्सियश के तापमान की आवश्यकता होती है लेकिन नयी प्रजाति को इससे थोड़े से अधिक तापमान में भी उगाया जा सकता है। भारत में इसकी खेती क्षेत्रों के हिसाब से पूरे साल की जाती है। चुकन्दर की खेती के लिए दोमट और बलुई दोमट मिट्टी सबसे उपयुक्त बताई जाती है लेकिन यह क्षारीय व थोड़ी खराब मिट्टी में भी पैदा की जा सकती है। बीटा वल्गैरिस की खेती 9 पीएच मान वाली मृदा में भी की जा सकती है।

खेत की तैयारी कैसे करें

यदि मिट्टी भारी व चिकनी हो तो उसे पहले मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई करें और उसके बाद 3-4 हल्की जुताई करके पाटा लगायें उसके बाद उसे पलेवा करके छोड़ दें। यदि रेतीली भूमि में खेती करनी हो तो 2-3 जुताई करें और उसमें खाद व उर्वरक को मिलाकर छोड़ दें। इसके अलावा यदि बाग-बगीचे में इसकी खेती करनी हो तो वहां खड़ी घास-फूस को निकाल कर अलग कर दें उसके बाद 3-4 जुताई करें। इसके बाद छोटी-छोटी क्यारियां बना लें।

उन्नत किस्में

बीटा वल्गैरिस की उन्नत किस्में जलवायु और मिट्टी के अनुसार चयनित करनी चाहिये, जिससे अधिक से अधिक उत्पादन मिल सके। उन्नत किस्मों में कुद इस प्रकार हैं:- मिस्र की कॉस्बी: इस प्रजाति की खेती को तैयार करने में 55 से 60 दिनों का समय लगता है। इसकी जड़ें चिकनी व गहरी बैगनी रंग की होती हं । डेट्राइट डार्क रेड: चुकंदर की इस प्रजाति की खेती अपने रस व गूदे के लिए मशहूर है। यह प्रजाति सबसे अधिक उत्पादन देने वाली होती है। इस प्रजाति के चुकंदर की जड़ का रंग लाल होता है तथा इसकी पत्तियां लम्बी होती हैं। इन पत्तियों का रंग हरा और मैरून मिला जुला होता है। अर्ली वंडर: इसकी जड़ें चिपटी और चिकनी होतीं हैं। इस नस्ल की खेती भी 55 से 60 दिन में तैयार हो जाती है। इस की पत्तिया हरें रंग की होतीं हैं।

बुआई कैसे की जाती है

मृदा की नमी और बुआई के समय और क्षेत्र की जलवायु व बीज की जाति पर यह निर्भर करता है कि इसकी बुआई कब की जाये। वैसे आम तौर पर मैदानी इलाके में अक्टूबर से नवंबर का समय बुआई के लिए सर्वोत्तम बताया गया है। उत्तर भारत के खाली खेतों में इसकी बुआई अगस्त मे भी की जा सकती है जबकि पहाड़ी क्षेत्रों में इसकी बुआई फरवरी माह के आसपास की जाती है तथा दक्षिण भारत में इसे जून व जुलाई में भी बोया जाता है। इसकी बुआई मेड़ बनाकर की जाती है। मेड़ से मेड़ की दूरी डेढ़ फुट होनी चाहिये। पौधों से पौधों की दूरी आधा फुट रखनी चाहिये। बुआई से पहले बीज को 12 घंटे तक पानी में डुबो कर रखना लाभकारी होता है। प्रत्येक बीज में कई अंकुर निकल सकते हैं, उनकी भी छंटाई की जानी चाहिये।

खाद प्रबंधन

खेत को तैयार करते समय 10 से 15 टन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से गोबर की खाद देनी चाहिये। इसके अलवा 35 किलो नाइट्रोजन, 50 किलो फास्फोरस और 30 किलो पोटाश डालनी चाहिये। उर्वरकों की इतनी ही मात्रा उस समय खेत में डालनी चाहिये जब खेत में पौधे 10-15 सेंटीमीटर के हो जायें तथा जड़ों पर मिट्टी चढ़ाई जाये।

सिंचाई प्रबंधन

चुकंदर की खेती के लिए अधिक पानी की आवश्यकता नहंीं होती है। अधिक पानी वाले क्षेत्रों के लिए अलग किस्म की चुकंदर के बीजों का इस्तेमाल किया जाता है। चुकंदर की नयी प्रजाति की खेती में 30 किलो हरा चारा उगाने के लिए सिर्फ एक घन मीटर पानी की आवश्यकता होती है। इसकी खेती के लिए अंकुरण के समय तक पानी की जरूरत होती है। पौधे में अंकुर निकल आयें उसके बाद पानी की आवश्यकता नहीं होती है। यदि खेत काफी सूखा नजर आये तभी हल्की सिंचाई करनी चाहिये। अधिक सिंचाई से पत्तियां खराब हो जातीं हैं और कंद के सड़ने का खतरा उत्पन्न हो जाता है

खरपतवार नियंत्रण

बुआई के एक महीने बाद निराई गुड़ाई करनी चाहिये। दूसरी निराई गुड़ाई 50 दिन के बाद करनी चाहिये। इसके अलावा खत तैयार करते समय स्टाम्प 3 लिटर का छिड़काव करेंगे तो खरपतवार के कम होने की संभावना है।

कीट एवं रोग प्रबंधन

आम तौर पर देखा गया है कि चुकंदर की खेती में कोई बड़ा रोग नहीं लगता है। छोटे-मोटे रोग एवं कीट लगने पर कीटनाशकों का उपयोग कर उसको नियंत्रित किया जा सकता है।
  1. बिहार रोमिल इल्ली: चुकन्दर की फसल में इस कीट के लगने से बहुत हानि हो सकती है। इस कीट के लगने का पता चलने पर किसान भाइयों को थायडान या थायमेट 10 ग्राम का प्रयोग करना चाहिये।
  2. लीफ स्पॉट: चुकन्दर में लगने वाली इस बीमारी को पर्ण चित्ती भी कहा जाता है। लीफ स्पाट से बचाव के लिए प्रभावित पत्तियों को खेत से निकाल देना चाहिये तथा कीटनाशकों का इस्तेमाल करना चाहिये।
  3. रूट रॉट: इस बीमारी को मूल विगलन कहा जाता है। इस बीमारी का सही समय पर उपचार न किये जाने से कंद गलने लगती हैं और पौधा मुरझा जाता है। इस रोग के पता लगते ही कीट नियंत्रण दवायें यानी कीटनाशकों का प्रयोग करके फसल को बचाना चाहिये।

खुदाई कैसे करें

जब जड़ें बड़े आकार की हो जायें तभी खुदाई की जानी चाहिये। सबसे बेहतर तो यही होगा कि किसान भाई अपनी जरूरत के हिसाब से खुदाई करेंगे तो इसका उन्हें बहुत लाभ मिलेगा। यदि पशु चारे के लिए इसकी खेती की है तो रोजाना पशु चारा जितना जरूरी है उतनी ही खुदाई करें। यदि बाजार में बेचने के लिए खेती की है तो बाजार भाव को देखकर ही इसकी खुदाई करें। खुदाई से थोड़े समय पहले सिंचाई करेंगे तो खुदाई आसानी से हो जायेगी और कंद के कटने या खराब होने का खतरा भी कम हो जायेगा। खुदाई के बाद जड़ों को अच्छी तरह से धोने के बाद ही चारे में इस्तेमाल करें। यदि बाजार में बेचनी हो तो उन जड़ों की कटाई छंटाई करें।            

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