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जानिए गर्मियों में पशुओं के चारे की समस्या खत्म करने वाली नेपियर घास के बारे में

जानिए गर्मियों में पशुओं के चारे की समस्या खत्म करने वाली नेपियर घास के बारे में

भारत एक कृषि प्रधान देश है। क्योंकि, यहां की अधिकांश आबादी खेती किसानी पर निर्भर है। कृषि को अर्थव्यवस्था का मुख्य स्तंभ माना जाता है। भारत में खेती के साथ-साथ पशुपालन भी बड़े पैमाने पर किया जाता है। विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में जहां खेती के पश्चात पशुपालन दूसरा सबसे बड़ा व्यवसाय है। किसान गाय-भैंस से लेकर भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में तरह-तरह के पशु पालते हैं। 

दरअसल, महंगाई के साथ-साथ पशुओं का चारा भी फिलहाल काफी महंगा हो गया है। ऐसा माना जाता है, कि चारे के तौर पर पशुओं के लिए हरी घास सबसे अच्छा विकल्प होती है। यदि पशुओं को खुराक में हरी घास खिलाई जाए, तो उनका दुग्ध उत्पादन भी बढ़ जाता है। लेकिन, पशुपालकों के सामने समस्या यही है, कि इतनी सारी मात्रा में वे हरी घास का प्रबंध कहां से करें? अब गर्मियों की दस्तक शुरू होने वाली है। इस मौसम में पशुपालकों के सामने पशु चारा एक बड़ी समस्या बनी रहती है। अब ऐसे में पशुपालकों की ये चुनौती हाथी घास आसानी से दूर कर सकती है।

नेपियर घास पशुपालकों की समस्या का समाधान है 

किसानों और पशुपालकों की इसी समस्या का हल ये हाथी घास जिसको नेपियर घास (Nepiyar Grass) भी कहा जाता है। यह एक तरह का पशु चारा है। यह तीव्रता से उगने वाली घास है और इसकी ऊंचाई काफी अधिक होती है। ऊंचाई में ये इंसानों से भी बड़ी होती है। इस वजह से इसको हाथी घास कहा जाता है। पशुओं के लिए यह एक बेहद पौष्टिक चारा है। कृषि विशेषज्ञों द्वारा दी गई जानकारी के मुताबिक, सबसे पहली नेपियर हाईब्रिड घास अफ्रीका में तैयार की गई थी। अब इसके बाद ये बाकी देशों में फैली और आज विभिन्न देशों में इसे उगाया जा रहा है।

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नेपियर घास को तेजी से अपना रहे लोग

भारत में यह घास 1912 के तकरीबन पहुंची थी, जब तमिलनाडु के कोयम्बटूर में नेपियर हाइब्रिड घास पैदा हुई। दिल्ली में इसे 1962 में पहली बार तैयार किया गया। इसकी पहली हाइब्रिड किस्म को पूसा जियंत नेपियर नाम दिया गया। वर्षभर में इस घास को 6 से 8 बार काटा जा सकता है और हरे चारे को अर्जित किया जा सकता है। वहीं, यदि इसकी उपज कम हो तो इसे पुनः खोदकर लगा दिया जाता है। पशु चारे के तौर पर इस घास को काफी तीव्रता से उपयोग किया जा रहा है।

नेपियर घास गर्म मौसम का सबसे उत्तम चारा है 

हाइब्रिड नेपियर घास को गर्म मौसम की फसल कहा जाता है, क्योंकि यह गर्मी में तेजी से बढ़ती है। विशेषकर उस वक्त जब तापमान 31 डिग्री के करीब होता है। इस फसल के लिए सबसे उपयुक्त तापमान 31 डिग्री है। परंतु, 15 डिग्री से कम तापमान पर इसकी उपज कम हो सकती है। नेपियर फसल के लिए गर्मियों में धूप और थोड़ी बारिश काफी अच्छी मानी जाती है। 

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नेपियर घास की खेती के लिए मृदा व सिंचाई 

नेपियर घास का उत्पादन हर तरह की मृदा में आसानी से किया जा सकता है। हालांकि, दोमट मृदा इसके लिए सबसे उपयुक्त मानी जाती है। खेत की तैयारी के लिए एक क्रॉस जुताई हैरो से और फिर एक क्रॉस जुताई कल्टीवेटर से करनी उचित रहती है। इससे खरपतवार पूर्ण रूप से समाप्त हो जाते हैं। इसे अच्छे से लगाने के लिए समुचित दूरी पर मेड़ बनानी चाहिए। इसको तने की कटिंग और जड़ों द्वारा भी लगाया जा सकता है। हालांकि, वर्तमान में ऑनलाइन भी इसके बीज मिलने लगे हैं। खेत में 20-25 दिन तक हल्की सिंचाई करते रहना चाहिए।

गोवंश में कुपोषण से लगातार बाँझपन की समस्या बढ़ती जा रही है

गोवंश में कुपोषण से लगातार बाँझपन की समस्या बढ़ती जा रही है

पशुओं में कुपोषण की वजह से बांझपन की बीमारियां निरंतर बढ़ती जा रही हैं। खास कर गोवंश में देखी जा रही है। गोवंश में बांझपन के बढ़ते मामलों के का सबसे बड़ा कारण कुपोषण है। इसका मतलब है, कि पशुओं को पौष्टिक आहार नहीं मिल पा रहा है। इस गंभीर समस्या से किसानों के साथ-साथ पशुपालन से संबंधित समस्त संस्थाऐं भी काफी परेशान हैं। सरदार बल्लभभाई पटेल कृषि विश्वविद्यालय वेटनरी कॉलेज के अधिष्ठाता डॉ राजीव सिंह ने बताया है, कि व्यस्क पशुओं में कम वजन व जननागों के अल्प विकास से पशुओं में प्रजनन क्षमता में कमी देखने को मिल रही है। जैसा कि उपरोक्त में बताया गया है, कि इसका मुख्य कारण कुपोषण है। इफ्को टोकियो जनरल इंश्योरेंस लिमिटेड के वित्तीय सहयोग से कृषि विश्व विद्यालय और पशुपालन विभाग द्वारा मेरठ के ग्राम बेहरामपुर मोरना ब्लॉक जानी खुर्द में निशुल्क पशु स्वास्थ्य शिविर का आयोजन कुलपति डॉ के.के. सिंह एवं पशुपालन विभाग के अपर निदेशक डॉ अरुण जादौन के निर्देश में हुआ है।

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इस उपलक्ष्य पर परियोजना के मार्ग दर्शक डॉ राजवीर सिंह ने कहा है, कि मादा पशुओं को संतुलित आहार के साथ-साथ प्रोटीन और खनिज मिश्रण जरूर देना चाहिए। जिसकी सहायता से उनकी गर्भधारण क्षमता बरकरार रहे। परियोजना प्रभारी डॉ अमित वर्मा का कहना है, कि पशुओं में खनिज तत्वों के अभाव की वजह से भूख ना लगना, बढ़वार एवं प्रजनन क्षमता में कमी जैसे समय पर गर्मी में ना आना, अविकसित संतानो की उत्पत्ति, दूध उत्पादन में कमी, एनीमिया इत्यादि समस्याऐं आ सकती हैं। बतादें, कि पशुओं को प्रतिदिन 30 - 50 ग्राम मिनरल मिक्सचर पाउडर पशु आहार के लिए जरूर देना चाहिए। पशु स्वास्थ्य शिविर में पशु चिकित्सा महाविद्यालय कॉलेज मेरठ के विशेषज्ञों इनमें डॉ. अमित वर्मा, डॉ अरविन्द सिंह, डॉ अजीत कुमार सिंह, डॉ विकास जायसवाल, डॉ प्रेमसागर मौर्या, डॉ आशुतोष त्रिपाठी और डॉ रमाकांत इत्यादि की टीम के द्वारा 157 पशुओं को कृमिनाशक, बाँझपन प्रबंधन, गर्भावस्था निदान, रक्त व गोबर की जाँच जैसी पशु चिकित्सा सेवाएं और तदानुसार मुफ्त दवाएं भी प्रदान की गईं। पशु चिकित्साधिकारी डॉ रिंकू नारायण एवं डॉ विभा सिंह ने पशुपालन के लिए सरकार की तरफ से दिए जाने वाले किसान क्रेडिट कार्ड तथा सब्सिड़ी योजनाओं के संबंध में जानकारी प्रदान की। प्रशांत कौशिक ग्राम प्रधान समेत अन्य ग्रामवासियों ने शिविर के आयोजन हेतु कृषि विवि की कोशिशों की सराहना करते हुए धन्यवाद व्यक्त किया।

अब उत्तर प्रदेश में होगी स्ट्रॉबेरी की खेती, सरकार ने शुरू की तैयारी

अब उत्तर प्रदेश में होगी स्ट्रॉबेरी की खेती, सरकार ने शुरू की तैयारी

स्ट्रॉबेरी (strawberry) एक शानदार फल है। जिसकी खेती समान्यतः पश्चिमी ठन्डे देशों में की जाती है। लेकिन इसकी बढ़ती हुई मांग को लेकर अब भारत में भी कई किसान इस खेती पर काम करना शुरू कर चुके हैं। पश्चिमी देशों में स्ट्रॉबेरी की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है जो वहां पर किसानों के लिए लाभ का सौदा है। इसको देखकर दुनिया में अन्य देशों के किसान भी इसकी खेती शुरू कर चुके हैं। भारत में स्ट्रॉबेरी की खेती करना और उसे खरीदना एक स्टेटस का सिंबल है। इसी कड़ी में उत्तर प्रदेश सरकार दिनोंदिन इस खेती को बढ़ावा देने के लिए प्रयास कर रही है। इसके लिए प्रदेश में नई जमीन की तलाश की जा रही है जहां स्ट्रॉबेरी की खेती की जा सके। [caption id="attachment_10376" align="alignright" width="225"]एक उत्तम स्ट्रॉबेरी (A Perfect Strawberry) एक उत्तम स्ट्रॉबेरी (A Perfect Strawberry)[/caption] उत्तर प्रदेश सरकार के अंतर्गत आने वाले उद्यान विभाग की गहन रिसर्च के बाद यह पाया गया है कि प्रयागराज की जमीन और जलवायु स्ट्रॉबेरी की खेती के लिए पूरी तरह से उपयुक्त है। इसके लिए सरकार ने प्रायोगिक तौर पर कार्य करना शुरू किया है और बागवानी विभाग ने 2 हेक्टेयर जमीन में खेती करना शुरू कर दी है, जिसके भविष्य में बेहतर परिणाम देखने को मिल सकते हैं। बागवानी विभाग के द्वारा प्रयागराज की जमीन की स्ट्रॉबेरी की खेती करने के उद्देश्य से टेस्टिंग की गई थी जिसमें बेहतरीन परिणाम निकलकर सामने आये हैं। स्ट्रॉबेरी की खेती से जुड़े सरकारी अधिकारियों का कहना है कि जल्द ही प्रयागराज में बड़े पैमाने पर स्ट्रॉबेरी की खेती आरम्भ की जाएगी।

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स्ट्रॉबेरी की खेती करना बेहद महंगा सौदा है। लेकिन इस खेती में मुनाफा भी उतना ही शानदार मिलता है जितनी लागत लगती है। स्ट्रॉबेरी की खेती में लागत और मुनाफे का अंतर अन्य खेती की तुलना में बेहद ज्यादा होता है। भारत में स्ट्रॉबेरी की एक एकड़ में खेती करने में लगभग 4 लाख रुपये की लागत आती है। जबकि इसकी खेती के बाद किसानों को प्रति एकड़ 18-20 लाख रुपये का रिटर्न मिलता है, जो एक शानदार रिटर्न है। प्रयागराज के जिला बागवानी अधिकारी नलिन सुंदरम भट्ट ने बताया कि एक हेक्टेयर (2.47 एकड़) खेत में लगभग 54,000 स्ट्रॉबेरी के पौधे लगाए जा सकते हैं और साथ ही इस खेती में ज्यादा से ज्यादा जमीन का इस्तेमाल किया जा सकता है। [caption id="attachment_10375" align="alignleft" width="321"]आधा स्ट्रॉबेरी दृश्य (Half cut strawberry view) आधा स्ट्रॉबेरी आंतरिक संरचना दिखा रहा है (Half cut strawberry view)[/caption] खेती विशेषज्ञों के अनुसार स्ट्रॉबेरी की खेती को ज्यादा पानी की जरुरत भी नहीं होती है। यह भारतीय किसानों के लिए एक शुभ संकेत है क्योंकि भारत में आजकल हो रहे दोहन के कारण भूमिगत जल लगातार नीचे की ओर जा रहा है, जिसके कारण ट्यूबवेल सूख रहे हैं और सिंचाई के साधनों में लगातार कमी आ रही है। इसलिए भारतीय किसान अन्य खेती के साथ स्ट्रॉबेरी की खेती के लिए भी पानी का उचित प्रबंधन करने की कोशिश कर रहे हैं, ताकि सिंचाई के लिए उपयुक्त मात्रा में पानी की उलब्धता बनाई जा सके।    

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स्ट्रॉबेरी की खेती के लिए रेतीली मिट्टी या भुरभुरी जमीन की जरुरत होती है। इसके साथ ही स्ट्रॉबेरी की खेती के लिए 12 से लेकर 18 डिग्री सेल्सियस के बीच तापमान हो तो बहुत ही अच्छा होता है। यह परिस्थियां उत्तर भारत में सर्दियों में निर्मित होती हैं, इसलिए सर्दियों के समय स्ट्रॉबेरी की खेती किसान भाई अपने खेतों में कर सकते हैं और मोटा मुनाफा कमा सकते हैं। इजरायल की मदद से भारत में अब ड्रिप सिंचाई पर भी काम तेजी से हो रहा है, यह सिंचाई तकनीक इस खेती के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। क्योंकि इस माध्यम से सिंचाई करने पर सिंचाई की लागत में किसान भाई 30 प्रतिशत तक की कमी कर सकते हैं। इसके साथ ही भारी मात्रा में पानी की बचत होती है। ड्रिप सिंचाई का सेट-अप खरीदना और उसे इस्तेमाल करना बेहद आसान है। आजकल बाजार में तरह-तरह के ब्रांड ड्रिप सिंचाई का सेट-अप किसानों को उपलब्ध करवा रहे हैं। [caption id="attachment_10377" align="alignright" width="300"]एक नर्सरी पॉट में स्ट्रॉबेरी (strawberries in a nursery pot) एक नर्सरी पॉट में स्ट्रॉबेरी (Strawberries in a nursery pot)[/caption] उत्तर प्रदेश के बागवानी अधिकारियों ने बताया कि स्ट्रॉबेरी की खेती में एक एकड़ जमीन में लगभग 22,000 पौधे या एक एक हेक्टेयर जमीन में लगभग 54,000 पौधे  लगाए जा सकते हैं। इस खेती में किसान भाई लगभग 200 क्विंटल प्रति एकड़ की उपज ले सकते हैं। स्ट्रॉबेरी की खेती में लाभ का प्रतिशत 30 से लेकर 50 तक हो सकता है। यह फसल के आने के समय, उत्पादन, डिमांड और बाजार भाव पर निर्भर करता है। भारत में स्ट्रॉबेरी की खेती सितम्बर और अक्टूबर में शुरू कर दी जाती है। शुरूआती तौर पर स्ट्रॉबेरी के पौधों को ऊंची मेढ़ों पर उगाया जाता है ताकि पौधों के पास पानी इकठ्ठा होने से पौधे सड़ न जाएं। पौधों को मिट्टी के संपर्क से रोकने के लिए प्लास्टिक की मल्च (पन्नी) का उपयोग किया जाता है। स्ट्रॉबेरी के पौधे जनवरी में फल देना प्रारम्भ कर देते हैं जो मार्च तक उत्पादन देते रहते हैं। पिछले कुछ सालों में भारत में स्ट्रॉबेरी की तेजी से डिमांड बढ़ी है। स्ट्रॉबेरी बढ़ती हुई डिमांड भारत में इसकी लोकप्रियता को दिखाता है। [caption id="attachment_10379" align="alignleft" width="300"]स्ट्रॉबेरी की सतह का क्लोजअप (Closeup of the surface of a strawberry) स्ट्रॉबेरी की सतह का क्लोजअप (Closeup of the surface of a strawberry)[/caption] उत्तर प्रदेश के बागवानी विभाग ने बताया कि सरकार स्ट्रॉबेरी की खेती शुरू करने के लिए किसानों को प्रोत्साहित कर रही है। इसके अंतर्गत सरकार किसानों को स्ट्रॉबेरी के पौधे 15 से 20 रूपये प्रति पौधे की दर से मुहैया करवाने जा रही है। सरकार की कोशिश है कि किसान इस खेती की तरफ ज्यादा से ज्यादा आकर्षित हो ताकि किसान भी इस खेती के माध्यम से ज्यादा मुनाफा कमा सकें। सरकार के द्वारा सस्ते दामों पर उपलब्ध करवाए जा रहे पौधों को प्राप्त करने के लिए प्रयागराज के जिला बागवानी विभाग में पंजीयन करवाना जरूरी है। जिसके बाद सरकार किसानों को सस्ते दामों में पौधे उपलब्ध करवाएगी। पंजीकरण करवाने के लिए किसान को अपने साथ आधार कार्ड, जमीन के कागज, आय प्रमाण पत्र, निवास प्रमाण पत्र, बैंक की पासबुक, पासपोर्ट साइज फोटोग्राफ इत्यादि ले जाना अनिवार्य है। [caption id="attachment_10380" align="alignright" width="300"]पके और कच्चे स्ट्रॉबेरी (Ripe and unripe strawberries) पके और कच्चे स्ट्रॉबेरी (Ripe and unripe strawberries)[/caption] जानकारों ने बताया कि कुछ सालों पहले पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों में खास तौर पर सहारनपुर और पीलीभीत में स्ट्रॉबेरी की खेती शुरू की गई थी। वहां इस खेती के बेहतर परिणाम देखने को मिले हैं। सबसे पहले इन जिलों के किसानों की ये खेती करने में सरकार ने मदद की थी लेकिन अब जिले के किसान इस मामले में पूरी तरह से आत्मनिर्भर बन चुके हैं। इसको देखते हुए सरकार प्रयागराज में स्ट्रॉबेरी की खेती शुरू करने को लेकर बेहद उत्साहित है। सरकार के अधिकारियों का कहना है, चूंकि इस खेती में पानी की बेहद कम आवश्यकता होती है और पानी का प्रबंधन भी उचित तरीके से किया जा सकता है, इसलिए स्ट्रॉबेरी की खेती का प्रयोग सूखा प्रभावित बुंदेलखंड के साथ लगभग 2 दर्जन जिलों में किया जा रहा है और अब कई जिलों में तो प्रयोग के बाद अब खेती शुरू भी कर दी गई है।
पोषक अनाज की श्रेणी में शामिल की गई इस फसल से किसान अच्छी आय कर सकते हैं

पोषक अनाज की श्रेणी में शामिल की गई इस फसल से किसान अच्छी आय कर सकते हैं

हम बात करने जा रहे हैं, किनोवा फसल के बारे में जिसको अनाज के तौर पर उगाया जाता है। किनोवा की फसल का जनक अमेरिका को माना जाता है। किनोवा के बीजों में विभिन्न प्रकार के पोषक तत्व विघमान रहते हैं। जिसका उपभोग करने से हार्ट अटैक, कैंसर, खून की कमी, सांस की बीमारियों में बेहद लाभकारी होता है। इस वजह से किनोवा की खेती भी अच्छी आय का स्त्रोत है। किनोवा को रबी सीजन की मुख्य नकदी फसल कहा जाता हैं, जिसका उत्पादन अक्टूबर से लेकर मार्च तक होता है। किनोवा पत्तेदार सब्जी बथुआ की किस्म का सदस्य पौधा है इसी सहित यह एक पोषक अनाज भी है। आपको बतादें कि किनोवा को प्रोटीन का बेहतरीन स्रोत भी कहा जाता है। जो कि शरीर में वसा को कम करने, कोलस्ट्रॉल घटाने एवं वजन कम करने के लिए फायदेमंद है। इसकी अच्छी गुणवत्ता को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा इसको पोषण अनाज की श्रेणी में शम्मिलित किया गया है। साथ ही, बाजार में इसकी मांग में काफी वृद्धि हो रही है, जिससे किसानों हेतु खेती भी मुनाफे का सौदा माना जा रहा है।

किनोवा की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु एवं तापमान

किनोवा का उत्पादन हिमालयीन क्षेत्र से लेकर उत्तर मैदानी क्षेत्रों में आसानी से हो सकती है। सर्दियों का सीजन किनोवा की खेती के लिए उपयुक्त माना जाता है। इसके पौधे ठंडों में पड़ने वाले पाले को भी आसानी से सहन कर सकते हैं। बीजों को अंकुरित होने हेतु 18 से 22 डिग्री तापमान की आवश्यकता होती है। अधिकतम 35 डिग्री तापमान को ही बीज सहन कर सकता है। किसी भी फसल की बेहतर पैदावार के लिए जलवायु एवं तापमान एक मुख्य भूमिका अदा करते हैं।

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किनोवा की खेती के लिए उपयुक्त मिट्टी

किनोवा की कृषि हेतु तकरीबन समस्त मृदा अनुकूल मानी जाती हैं। परंतु, किसान भाई यह अवश्य ध्यान रखें कि भूमि अच्छी जल निकासी वाली होनी अनिवार्य है। साथ ही, भूमि के पीएच मान का सामान्य होना अत्यंत आवश्यक है। भारत में किनोवा का उत्पादन रबी सीजन में किया जाता है।

कौन-सा समय किनोवा की बुवाई के लिए अच्छा माना जाता है

भारत की जलवायु के अनुरूप बीजों की बुआई नवम्बर से मार्च की समयावधि में करनी चाहिए। हालाँकि, विभिन्न स्थानों पर इसकी कृषि जून से जुलाई के माह में भी की जा सकती है।

किनोवा की खेती से पहले बीजों की मात्रा एवं बीज उपचार

अगर हम बात करें किनोवा की खेती के लिए प्रति एकड़ कितने बीज की आवश्यकता होती है। तो आपको बतादें कि किनोवा की खेती के लिए तकरीबन 1 से 1.5 किलो बीज की आवश्यकता होती है। बीजों की रोपाई से पूर्व बीज उपचार करना बेहद जरुरी होता है। बीज उपचारित होने से अंकुरण के वक्त कोई दिक्कत नहीं होती एवं फसल भी रोग मुक्त हो जाती है। किनोवा की बुआई से पूर्व बीज को गाय के मूत्र में 24 घंटे हेतु डालकर उपचारित करना आवश्यक है।
इस राज्य में 3000 महिलाएं होंगी सशक्त 1705 आंगनबाड़ी केंद्रों को मिलेगा पौष्टिक आहार

इस राज्य में 3000 महिलाएं होंगी सशक्त 1705 आंगनबाड़ी केंद्रों को मिलेगा पौष्टिक आहार

आपकी जानकारी के लिए बतादें कि बांदा जिले में चलने वाले 1705 आंगनबाड़ी केंद्रों पर वर्तमान में पोषाहार की आपूर्ति बाहर से की जा रही है। हालाँकि, अब शीघ्र ही बुंदेलखंड में तैयार किए जा रहे पोषाहार के माध्यम से बच्चे, महिलाएं एवं किशोरियों का स्वास्थ्य काफी बेहतर होगा। उत्तर प्रदेश राज्य के बांदा जनपद में स्वयं सहायता समूह की करीबन 3000 महिलाएं वर्तमान में पोषाहार तैयार करके उड़ान भरेंगी। इन महिलाओं के माध्यम से स्वयं अपना धन खर्चकर 9000000 रुपए की लागत से टीएचआर इकाई की स्थापना की है। इसी माह से इसमें पोषाहार तैयार होने लग जाएगा एवं महिलाएं समस्त आंगनबाड़ी केंद्रों में इसकी आपूर्ति किया करेंगी।

इन उद्योगों से जिले के 300 समूह जोड़े जाएंगे

इसी प्रकार महुआ एवं बबेरू ब्लॉक में भी टीएचआर प्लांट निर्माणाधीन है, जहां पर मई माह से पोषाहार तैयार होना चालू हो जाएगा। इन उद्योगों से जिले के 300 समूह प्रत्यक्ष रूप से जुड़ेंगे एवं रोजगार के माध्यम से स्वयं आय में बढ़ोत्तरी करेंगे। आपकी जानकारी के लिए बतादें कि शासन नारी सशक्तिकरण के अंतर्गत ग्रामीण महिलाओं को योजनाओं से जोड़के उनको रोजगार देने के पथ पर अग्रसर है। विशेष बात तो यह है, कि पशुपालन, मनरेगा, आपूर्ति विभाग एवं जिला कार्यक्रम विभाग की योजनाओं को महिलाओं के द्वारा संचालित किए जाने पर जोर दिया जा रहा है।

एक समूह से 30000 रुपये इकट्ठे किए जाएंगे

खबरों के अनुसार, जिले में सुचारू 1705 आंगनबाड़ी केंद्रों पर वर्तमान में पोषाहार की आपूर्ति बाहर से की जाती है। परंतु, फिलहाल अति शीघ्र ही बुंदेलखंड में निर्मित पोषाहार से बच्चे, किशोरियां और महिलाओं का बेहतरीन स्वास्थ्य बनेगा। प्रदेश ग्रामीण आजीविका मिशन की तरफ से जिले के 3 ब्लॉक बबेरू, महुआ एवं बड़ोखर खुर्द में टेक होम राशन टीएचआर प्लांट स्थापित किया जाएगा। जरुरी बात यह है, कि एक प्लांट का खर्च तकरीबन 9000000 रुपए है। यह धनराशि स्वयं सहायता समूह की महिलाएं निजी फंड से लगा रही हैं। प्रत्येक समूह से 30000 रुपये इकट्ठे किए गए हैं।

जानें कितने खाद्य पदार्थ तैयार किए जाएंगे

टीएचआर प्लांटों के माध्यम से जिले की 3000 महिलाओं की आजीविका के लिए रोजगार का अवसर प्राप्त होगा। इस प्लांट में बच्चों के लिए आंगनवाड़ी केंद्रों में बटने वाला पोषाहार तैयार किया जाएगा। एक प्लांट के अंतर्गत 100 समूह मतलब कि लगभग 1000 महिलाओं को जोड़ा जाएंगा। महिलाओं द्वारा प्लांट में बर्फी, एनर्जी हलवा, प्रीमिक्स मूंग, दाल, खिचड़ी, आटा, बेसन, हलवा निर्मित किया जाएगा। यह खाद्य पदार्थ खाद्यान हेतु तैयार होगें, जो कि पैकेट में बिल्कुल बंद रहेंगे। 

1 अप्रैल से खाद्यान सामग्री की आपूर्ति करेंगे

खाद्यान सामग्री की आपूर्ति 1 अप्रैल से आंगनवाड़ी केंद्र में करने की योजना है। दूरस्थ एड़ी में विशिष्ट मंडी स्थल के समीप निर्मित किए टीएचआर प्लांट में लगभग कार्य पूर्ण हो गया है। मुख्य विकास अधिकारी वेद प्रकाश मौर्या ने इसके संदर्भ में सोमवार को निरीक्षण किया था एवं 1 हफ्ते में इसकी शुरूआत करने के निर्देश भी दिए गए हैं। इससे महिलाओं के सशक्तिकरण को काफी प्रोत्साहन मिलेगा।

जानें देसी गाय और जर्सी गाय में अंतर और दुग्ध उत्पादन क्षमता

जानें देसी गाय और जर्सी गाय में अंतर और दुग्ध उत्पादन क्षमता

किसान एवं पशुपालक अपनी आमदनी को बढ़ाने के लिए विभिन्न प्रकार के दुधारू पशुओं का पालन किया करते है। सामान्य तोर पर देखा जाए तो आज के दोर में पशुपालन सबसे शानदार व्यवसाय है। 

लेकिन, सामान्य तोर पर देखा गया है, कि पशुपालकों को गायों की सटीक जानकारी का अभाव होने के चलते उन्हें विभिन्न प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। 

ऐसे में आज हम किसानों व पशुपालकों के लिए देसी और जर्सी गाय से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण जानकारी लेकर आए हैं। इससे आपको अपनी आवश्यकता के अनुसार उचित गाय चयन का पालन कर सके। 

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भारत देश में ऐसे तो विभिन्न प्रकार की गाय की नस्लें पाई जाती हैं। लेकिन देसी और जर्सी गाय का पालन अधिकांश पशुपालकों के द्वारा किया जाता है।

भारतीय देसी गाय 

भारतीय गाय को भी देसी गाय कहा जाता है। ये बॉश इंडिकस श्रेणी की गाय होती हैं। इनकी पहचान लंबे सींग और बड़े कूबड़ से होती है। 

इस गाय का विकास प्रकृति द्वारा होता है। उत्तर भारत में देसी गाय की बहुत सी नस्लें पाई जाती हैं। देसी गाय अधिकतर गर्म तापमान में रहती हैं। इस गाय की दूध देने की क्षमता काफी ज्यादा शानदार होती है। 

जर्सी गाय 

जर्सी गाय बॉश टेरेस की श्रेणी में आती हैं। जर्सी गाय देसी गाय की तुलना में ज्यादा दूध देती हैं। इन गायों के लंबे सींगें और बड़े कूबड़ नहीं होते हैं। गाय का निर्यात भारत में सबसे ज्यादा होता है। जर्सी गाय ठंडी जलवायु में रहती है। 

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देसी और जर्सी गाय में पाए जाने वाले प्रमुख अंतर 

सनातन धर्म के अनुरूप भारत में देसी गाय को माता का दर्जा मिला है, तो वहीं जर्सी गाय को ब्रिटेन में प्रमुख स्थान मिला है। बॉश इंडिकस श्रेणी में देसी गाय आती है और जर्सी गाय बॉश टोरस की श्रेणी में आती है।

देसी गाय का विकास प्रकृति पर निर्भर है। देसी गाय का विकास जलवायु परिस्थितियों, चारे की उपलब्धता, काम करने के तरीके आदि के आधार पर होता है। वहीं, जर्सी गाय का विकास ठंडे तापमान के अनुरूप होता है। 

देसी गाय के सींग लंबे और बड़े कूबड़ होते हैं। लेकिन, ऐसा जर्सी गाय में नहीं होता है। देसी गायों का कद जर्सी गायों की तुलना में छोटा होता है।