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ज्वार की खेती से पाएं दाना और चारा

ज्वार की खेती से पाएं दाना और चारा

ज्वार को ज्यादा तादाद में किसान चारे के लिए उगाते हैं लेकिन कई इलाकों में इसकी खेती दाने के लिए भी की जाती है। ज्वार की खेती के लिए 6 से 8.30 पीएच वाली मिट्टी उपयुक्त रहती है। 

उचित जल निकासी, बेहतर जल धारण क्षमता वाली उपजाऊ मिट्टी में इसकी खेती श्रेष्ठ रहती है। देसी किस्में कमजोर जमीन में भी हो जाती है। 

ज्वार ऐसी फसल है जो कम पानी में भी हो जाती है तथा दो-चार दिन अगर पानी भरा भी रहे तब भी यह बची रहती है। ज्वार की खेती उत्तर भारत में खरीफ सीजन में एवं दक्षिण भारत में रबी सीजन में की जाती है। इसलिए ज्वार की मांग साल भर बनी रहती है।

खेत की तैयारी

ज्वार की खेती के लिए खेत को कल्टीवेटर एवं
हैरो दोनों से जुड़ना चाहिए ताकि मिट्टी भुरभुरी हो जाए। अच्छी फसल के लिए कंपोस्ट खाद का प्रयोग जरूर करना चाहिए। 

यदि खेत साल में कुछ महीने के लिए खाली रहता हो तो हरी खाद के लिए ढेंचा लगा देना चाहिए। ढैंचा की 60 दिन की फसल को दो ढाई फीट की अवस्था पर खेत में हैरों चलाकर जोत देना चाहिए। यदि सिंचाई के लिए पानी संभव हो तो खेत में पानी लगा देना चाहिए ताकि ढेंचा जल्दी से गल जाए।

ज्वार की उन्नत किस्में

मध्यप्रदेश के लिए ज्वार की संकर किस्म सी एस एच 5, 9, 14 एवं 18 उपयुक्त हैं। पुन्ह बीज से जमने वाली ओपी किस्मों में जवाहर ज्वार 741, जवाहर ज्वार 938, एसपीवी 1022, जवाहर ज्वार 1041 एवं एएसआर-1 जैसी अनेक किस्में बाजार में उपलब्ध रहती हैं। 

उत्तर प्रदेश के लिए सीएचएस 16, 14, 9, सीएसवी 13 एवं 15, वर्षा, मऊ t1 एवं मऊ टी2 किस्म उपयुक्त हैं। शंकर किस्मों से दाना 38 कुंटल एवं चारा 140 क्विंटल तक प्राप्त हो जाता है।

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कम उपजाऊ जमीन के लिए किस्में

यूं तो ज्वार की संकर किस्में बेहद अच्छा उत्पादन देने वाली बाजार में मौजूद हैं लेकिन प्रतिकूल परिस्थितियों और कमजोर जमीन में देसी किस्में अच्छा उत्पादन दे जाती हैं। 

इनमें उज्जैन की उज्जैन है लव कुश, विदिशा, आंवला आदि किस्मों से दाने की उपज 12 से 16 कुंटल एवं चारे की उपज 30 से 40 कुंटल तक मिल जाती है।

उर्वरक प्रबंधन

बुवाई के समय 50 किलोग्राम नाइट्रोजन 80 किलोग्राम फास्फोरस एवं 30 किलोग्राम पोटाश संस्तुत की जाती है। नाइट्रोजन की आधी मात्रा ही जुताई के समय डालनी चाहिए बाकी उर्वरक पूरे डाल देने चाहिए।

ज्वार की बुवाई, भूमि तैयारी व उन्नत किस्मों की जानकारी

ज्वार की बुवाई, भूमि तैयारी व उन्नत किस्मों की जानकारी

भारत के अंदर ज्वार की खेती आदि काल से होती आ रही है। भारत में ज्वार की खेती मोटे दाने वाली अनाज फसल और हरे चारे के रूप में की जाती है। 

पशुओं के चारे के तोर पर ज्वार के सभी भागों का उपयोग किया जाता है। यह एक तरह की जंगली घास है, जिसकी बाली के दाने मोटे अनाजों में शुमार किए जाते हैं। ज्वार (संस्कृत रूयवनाल, यवाकार या जूर्ण) एक प्रमुख फसल है। 

ज्वार की पैदावार कम बारिश वाले इलाकों में अनाज और चारा दोनों के लिए बोई जाती हैं। ज्वार जानवरों का एक विशेष महत्वपूर्ण एवं पौष्टिक चारा है। 

भारत में यह फसल का उत्पादन करीब सवा चार करोड़ एकड़ जमीन में किया जाता है। ज्वार भी बहुत तरह की होती है, जिनके पौधों में कोई खास भेद नजर नहीं पड़ता है। ज्वार की फसल दो तरह की होती है, एक रबी, दूसरी खरीफ। 

मक्का भी इसी का एक प्रकार है। इसलिए कहीं-कहीं मक्का भी ज्वार ही कहलाता है। ज्वार को जोन्हरी, जुंडी आदि नामों से भी जानते हैं। ज्वार की खेती सिंचित और असिंचित दोनों इलाकों पर आसानी से की जा सकती है। 

अगर हम अपने भारत की बात करें, तो ज्वार की खेती खरीफ की फसलों के साथ की जाती है। ज्वार के पौधे 10 से 12 फिट की लंबाई तक के हो सकते हैं। इनको हरे रूप में कई बार काटा जा सकता है। 

इसके पौधे को किसी खास तापमान की आवश्यकता नही होती। अधिकांश किसान भाई इसकी खेती हरे चारे के तोर पर ही करते हैं। परंतु, कुछ किसान भाई इसे व्यापारिक रूप से भी उगाते हैं। 

अगर आप भी ज्वार की व्यवसायिक खेती करने का मन बना रहे हैं। हम आपको इसकी बुवाई, भूमि तैयारी व उन्नत किस्मों से जुड़ी जरूरी जानकारी प्रदान करेंगे।

अच्छी उपज के लिए ज्वार की बुवाई कब करें ?

भारत के अंदर ज्वार की खेती खरीफ की फसलों के साथ की जाती है। अब ऐसे में ज्वार के बीज की रोपाई अप्रैल से मई माह के अंत तक की जानी चाहिए। भारत में ज्वार को सिंचाई करके वर्षा से पहले एवं वर्षा शुरू होते ही इसकी बोवाई की जाती है। 

अगर किसान बरसात से पहले सिंचाई करके यह बो दी जाए, तो फसल और अधिक तेजी से तैयार हो जाती है। ज्वार के बीजों को अंकुरण के समय सामान्य तापमान की आवश्यकता होती है। 

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उसके बाद पौधों को विकास करने के लिए 25 से 30 डिग्री तापमान उपयुक्त होता है। परंतु, इसके पूरी तरह से विकसित पौधे 45 डिग्री तापमान पर भी सहजता से विकास कर लेते हैं।

ज्वार की खेती के लिए कौन-सी मिट्टी सबसे अच्छी है ?

ज्वार एक खरीफ की मोटे आनाज वाली गर्मी की फसल है। यह फसल 45 डिग्री के तापमान को झेलकर बड़ी आसानी से विकास कर सकती है। वैसे तो ज्वार की फसल को किसी भी प्रकार की भूमि में उगाया जा सकता है। 

लेकिन, अधिक मात्रा में उपज प्राप्त करने के लिए इसकी खेती उचित जल निकासी वाली चिकनी मृदा में करें। इसकी खेती के लिए जमीन का पीएच मान 5 से 7 के बीच होना चाहिए। 

इसकी खेती खरीफ की फसल के साथ की जाती है। उस समय गर्मी का मौसम होता है, गर्मियों के मौसम में बेहतर ढ़ंग से सिंचाई कर शानदार उपज हांसिल की जा सकती है।

बेहतर उपज के लिए ज्वार की उन्नत किस्में 

आज के समय में ज्वार की महत्ता और खाद्यान्न की बढती हुई मांग को मद्देनजर रखते हुए कृषि वैज्ञानिकों ने ज्वार की ज्यादा पैदावार और बार-बार कटाई के लिए नवीनतम संकर और संकुल प्रजातियों को विकसित किया है। ज्वार की नवीन किस्में तुलनात्मक बौनी हैं एवं उनमें अधिक उपज देने की क्षमता है। 

अनुमोदित दाने के लिए ज्वार की उन्नतशील किस्में सी एस एच 5, एस पी वी 96 (आर जे 96), एस एस जी 59 -3, एम पी चरी राजस्थान चरी 1, राजस्थान चरी 2, पूसा चरी 23, सी.एस.एच 16, सी.एस.बी. 13, पी.सी.एच. 106 आदि ज्वार उन्नत किस्में है। इन किस्मों की खेती हरे चारे और दाने के लिए की जाती है। 

ज्वार की यह किस्में 100 से 120 दिन के समयांतराल में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इन किस्में से किसानों को 500 से 800 क्विंटल प्रति हेक्टेयर के अनुरूप पशुओं के लिए हरा चारा हो जाता है। 

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90 से 150 क्विंटल प्रति हेक्टेयर के हिसाब से सूखा चारा प्राप्त हो जाता है। साथ ही, 15 से 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से दाने हांसिल हो सकते हैं।

ज्वार की बुवाई के लिए खेत की तैयारी 

ज्वार की खेती के लिए शुरुआत में खेत की दो से तीन गहरी जुताई कर उसमें 10 से 12 टन उचित मात्रा में गोबर की खाद डाल दें। उसके बाद फिर से खेत की जुताई कर खाद को मिट्टी में मिला दें। 

खाद को मिट्टी में मिलाने के बाद खेत में पानी चलाकर खेत का पलेव कर दे। पलेव के तीन से चार दिन बाद जब खेत सूखने लगे तब रोटावेटर चलाकर खेत की मिट्टी को भुरभुरा बना लें। 

उसके बाद खेत में पाटा चलाकर उसे समतल बना लें। ज्वार के खेत में जैविक खाद के अलावा रासायनिक खाद के तौर पर एक बोरा डी.ए.पी. की उचित मात्रा प्रति हेक्टेयर के हिसाब से खेत में दें। 

ज्वार की खेती हरे चारे के रूप में करने पर ज्वार के पौधों की हर कटाई के बाद 20 से 25 किलो यूरिया प्रति हेक्टेयर के हिसाब से समय समय पर खेत में देते रहें।

ज्वार की खेती से कर सकते हैं अच्छी खासी कमाई, जाने संपूर्ण जानकारी

ज्वार की खेती से कर सकते हैं अच्छी खासी कमाई, जाने संपूर्ण जानकारी

ज्वार जिसे इंग्लिश में Sorghum कहा जाता है, भारत में काफी ज्यादा उगाए जाती हैं। इसकी खेती ज्यादातर खाद या फिर जानवरों के चारे के रूप में की जाती है। आंकड़ों की मानें तो ज्वार की खेती में भारत तीसरे नंबर पर आता है।

इसकी खेती उत्तरी भारत में खरीफ के मौसम में और दक्षिणी भारत में रबी के मौसम में की जाती है। ज्वार की प्रोटीन में लाइसीन अमीनो अम्ल (Lysine Amino acid) की मात्रा 1.4 से 2.4 प्रतिशत तक पाई जाती है, जो पौष्टिकता की दृष्टि से काफी कम है। 

जहां पर ज्यादा बारिश होती है। वहां पर ज्वार की खेती का उत्पादन काफी अच्छी तरह से होता है। किसान चाहे तो अपनी बाकी खेती के बीच में ज्वार के पौधे लगाकर इसका उत्पादन कर सकते हैं। 

इस फसल का एक फायदा है कि इस के दाने और कड़वी दोनों ही बेचे जा सकते हैं और उनके काफी अच्छे मूल्य बाजार में मिल जाते हैं।

कैसे करें खेत की तैयारी

एक्सपर्ट की मानें तो ज्वार की फसल कम वर्षा में भी उड़ जाती है। इसके अलावा अगर किसी कारण से फसल में थोड़े समय के लिए पानी खड़ा हो जाए तो भी यह फसल ज्यादा प्रभावित नहीं होती है। 

पिछली फसल के कट जाने के बाद मिट्टी पलटने वाले हल से खेत में 15-20 सेमी। गहरी जुताई करनी चाहिए। इसके बाद 4-5 बार देशी हल चलाकर मिट्टी को भुरभुरा कर लेना चाहिए। 

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ज्वार को कई अलग-अलग मिट्टी में उगाया जा सकता है। ज्वार गहरी, उपजाऊ, अच्छी जल निकासी वाली दोमट मिट्टी में सर्वोत्तम उपज देगा। फिर भी, यह उथली मिट्टी और सूखे की स्थिति में अच्छा प्रदर्शन करता है।

भूमि के अनुसार उपयुक्त किस्में

अगर ज्वार की फसल की बात की जाए तो यह लगभग हर तरह की मिट्टी में उगाई जा सकती है। सभी प्रकार की भारी और हल्की मिट्टियां, लाल या पीली दोमट और यहां तक कि रेतीली मिट्टियो में भी उगाई जाती है। 

परन्तु इसके लिए उचित जल निकास वाली भारी मिट्टियां (मटियार दोमट) सर्वोत्तम होती है। जो जमीन ज्यादा पानी सकती है, वहां पर ज्वार की पैदावार सबसे ज्यादा होती है। इसके अलावा मध्यप्रदेश जैसी पथरीली भूमि पर भी इसकी खेती देखी जा सकती है। 

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ज्वार से अच्छी उपज के लिए उन्नतशील किस्मों का शुद्ध बीज ही बोना चाहिए। किस्म का चयन बुआई का समय और क्षेत्र अनुकूलता के आधार पर करना चाहिए। जितना ज्यादा हो सके बीज अच्छी संस्थाओं से खरीदने के बाद ही बोएं। 

ज्वार में दो प्रकार की किस्मों के बीज उपलब्ध हैं संकर एंव उन्नत किस्में। संकर किस्म की बुआई के लिए प्रतिवर्ष नया प्रमाणित बीज ही प्रयोग में लाना चाहिए। उन्नत जातियों का बीज प्रतिवर्ष बदलना नहीं पड़ता।

खरीफ में ज्वार की खेती के लिए जलवायु

अगर सबसे बेहतर जलवायु की बात की जाए तो ज्वार की फसल के लिए गर्म जलवायु सबसे बेहतर रहती है। लेकिन इसे अलग-अलग तरह की जलवायु में भी उगाया जा सकता है। अगर तापमान की बात की जाए तो 26 से 30 डिग्री तक का तापमान इसके लिए उचित माना गया है।

ज्वार का उपयोग

ज्वार का सबसे ज्यादा उपयोग भारत में पशुओं के चारे के तौर पर किया जाता है। इसके अलावा इसका इस्तेमाल जैव ईंधन, शराब, स्टार्च या फिर कई तरह के खाद्य उत्पाद बनाने के लिए भी किया जा सकता है। 

यह पोषण का एक प्रमुख स्रोत है और शुष्क भूमि कृषि क्षेत्रों में संसाधन-गरीब आबादी को पोषण और आजीविका सुरक्षा प्रदान करता है।

खरीफ में ज्वार की उन्नत खेती के तरीके

● खरीफ में ज्वार की खेती के लिए भूमि की तैयारी
सबसे पहले खेत की अच्छी तरह से जुताई करने के बाद उसमें लगभग 10 टन गोबर की खाद डालकर आप इसके लिए भूमि तैयार कर सकते हैं.

खरीफ में ज्वार की खेती का समय

ज्वार की बुवाई का उपयुक्त समय जून के तीसरे सप्ताह से जुलाई के पहले सप्ताह तक मानसून की शुरुआत के साथ है.

खरीफ में ज्वार की खेती के लिए बीज उपचार

बीज का उपचार 5 ग्राम इमिडाक्लोप्रिड 70 डब्ल्यूएस + 2 ग्राम कार्बेन्डाजिम (बाविस्टिन) प्रति किलोग्राम ज्वार के बीज, या थायोमेथोक्साम 3 ग्राम/किलो बीज से करें। प्रमुख कीट-पीड़कों के प्रकोप और मृदा जनित रोगों से बचने के लिए बीज उपचार आवश्यक है।

खरीफ में ज्वार की खेती के लिए उर्वरकों का प्रयोग

उर्वरकों का उपयोग नीचे बताए अनुसार मिट्टी के प्रकार के आधार पर किया जाना चाहिए। हल्की मिट्टी और कम वर्षा वाले क्षेत्रों के लिए: बुवाई के समय 30 किग्रा N, 30 किग्रा P2O5 और 20 किग्रा K2O प्रति हेक्टेयर डालें। बुवाई के 30-35 दिनों के बाद (डीएएस) में 30 किग्रा नाइट्रोजन का प्रयोग करें।

ज्वार को प्रभावित करने वाले प्रमुख कीट

1. शूट फ्लाई कीट (ताना मक्खी)

यह ज्वार को सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाला कीट है और यह अंकुरण के समय में ही फसल को अपने प्रकोप में ले लेता है। एकबार यह कीट लग जाने के बाद फसल बढ़ती नहीं है और सूख जाती है। अगर फसल में सूट फ्लाई कीट लग गया है, तो उसे दोबारा सही करना मुश्किल हो जाता है।

ज्वार में शूट फ्लाई (ताना मक्खी) के नियंत्रण के उपाय

इसे मानसून की शुरुआत से 7 से 10 दिनों के भीतर अगेती बुवाई और देरी से बुवाई के मामले में 10 से 12 किग्रा/हेक्टेयर की दर से उच्च बीज दर का उपयोग करके प्रबंधित किया जा सकता है।

2. तना छेदक कीट (स्टेम बोरर)

अंकुरण शुरू होने के लगभग दूसरे सप्ताह से लेकर फसल के पूरा पकने तक इस कीट का आक्रमण फसल पर हो सकता है। यह कीट फसल के पत्तों में छेद करना शुरू कर देते हैं, जिससे पूरी फसल बर्बाद हो जाती है। 

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ज्वार में तना छेदक कीट के नियंत्रण के उपाय

पिछली फसल के डंठलों को उखाड़कर जला दें और डंठलों को काटकर नष्ट कर दें, ताकि इसे आगे बढ़ने से रोका जा सके। उभरने के 20 और 35 दिनों के बाद संक्रमित पौधों के पत्तों के चक्करों के अंदर कार्बोफ्यूरान 3जी @ 8-12 किग्रा/हेक्टेयर की आवश्यकता के आधार पर छिड़काव से नुकसान कम होता है।

3. ज्वार में ‘फॉल आर्मीवर्म’ कीट

फॉल आर्मीवर्म

यह कीट ज्वार की 100 से अधिक प्रजातियों को प्रभावित करता है। ज्यादातर यह ग्रमिनी ज्वार में देखने को मिलता है। लेकिन इसका प्रकोप बाकी किस्म की ज्वार में भी हो सकता है।

ज्वार में फॉल आर्मीवर्म के नियंत्रण के उपाय

• खेत की गहरी जुताई फॉल आर्मीवर्म लार्वा और प्यूपा को धूप और प्राकृतिक शत्रुओं के संपर्क में लाती है।

ज्वार में लगने वाले प्रमुख रोग

1. ज्वार में अनाज की फफूंदी

ज्वार में कभी-कभी काले सफेद या फिर गुलाबी रंग की फफूंद लग जाती है और यह पूरी तरह से फसल पर विकसित हो जाती है। संक्रमित अनाज हल्के वजन के, मुलायम, चूर्ण जैसे, पोषण की गुणवत्ता में कम, अंकुरण में खराब और मानव उपभोग के लिए बाजार में कम स्वीकार्यता वाले होते हैं।

ज्वार में अनाज की फफूंदी के नियंत्रण के उपाय

मोल्ड सहिष्णु किस्मों का उपयोग और अनाज की सुखाने के बाद शारीरिक परिपक्वता पर फसल की कटाई। प्रोपीकोनाज़ोल @ 0.2% का छिड़काव फूल आने से शुरू करके और 10 दिनों के बाद दूसरा छिड़काव करने की सलाह दी जाती है।

2. ज्वार में डाउनी मिल्ड्यू (फफूंदी)

इस तरह की फफूंद लगने से ज्वार की फसल के पत्तों के निचले हिस्से में सफेद धब्बे दिखाई देने लगते हैं। यह सबसे ज्यादा फसल पर आने वाले फूलों को प्रभावित करता है और ऐसा होने से फसल में बीज उत्पादन नहीं हो पाता है। 

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ज्वार में डाउनी मिल्ड्यू (फफूंदी) के नियंत्रण के उपाय

मिट्टी से पैदा होने वाले ओस्पोर्स को कम करने के लिए रोपण से पहले गहरी गर्मियों की जुताई बहुत सहायक होती है। इसके अलावा मेटालेक्सिल या रिडोमिल 25 WP @ 1g a.i./kg के साथ बीज ड्रेसिंग के बाद रिडोमिल-MZ @ 3g/L पानी के साथ स्प्रे करने से भी प्रभाव कम होता है।

ज्वार की कटाई

अगर आप चाहते हैं, कि आप की फसल पर किसी भी तरह के कीट आदि का प्रकोप ना हो तो एक बार फसल परिपक्व हो जाने के बाद तुरंत उसकी कटाई कर लेना चाहिए। 

सबसे पहले आप इसमें से बीज के फूलों को निकालते हैं और उसके बाद बाकी फसल की कटाई की जाती है। इन्हें लगभग 1 सप्ताह के लिए खेत में ही छोड़ दिया जाता है, ताकि उनके सूखने के बाद बीज निकाले जा सके।

ज्वार को सुखाना/बैगिंग करना

एक बार फसल काट लेने के बाद उसे 1 से 2 दिन तक धूप में सुखाया जाता है। ताकि उस में नमी की मात्रा कम हो सके। इसके बाद आप उन्हें पैकिंग प्लास्टिक या फिर झूठ की थैलियों में डालकर रख सकते हैं।

खाद्य एवं चारे के रूप में उपयोग की जाने वाली ज्वार की फसल की संपूर्ण जानकारी 

खाद्य एवं चारे के रूप में उपयोग की जाने वाली ज्वार की फसल की संपूर्ण जानकारी 

ज्वार को अंग्रेजी भाषा में सोरघम कहा जाता है। मूलतः भारत में इसकी खेती खाद्य और पशुओं के लिए चारा के तौर पर की जाती है। इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़) के सस्य विज्ञान विभाग के प्राध्यापक डॉ .गजेन्द्र सिंह तोमर द्वारा अपने एक लेख में लिखा गया है, कि ज्वार की खेती भारत के अंदर तीसरे स्थान पर है। अनाज और चारे के लिए की जाने वाली ज्वार की खेती उत्तरी भारत के अंदर खरीफ के मौसम में एवं दक्षिणी भारत में रबी के मौसम में की जाती है। ज्वार को अंग्रेजी में सोरघम कहा जाता है। मूलतः भारत में इसकी खेती खाद्य एवं जानवरों के लिए चारे के तौर पर की जाती है। इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़) के सस्य विज्ञान विभाग के प्राध्यापक डॉ .गजेन्द्र सिंह तोमर के अनुसार ज्वार की खेती का भारत में तीसरा स्थान है। अनाज व चारे के लिए की उगाए जाने वाली ज्वार की खेती उत्तरी भारत में खरीफ के मौसम में और दक्षिणी भारत में रबी के मौसम में की जाती है। ज्वार की प्रोटीन में लाइसीन अमीनो अम्ल की मात्रा 1.4 से 2.4 फीसद तक पाई जाती है, जो कि पौष्टिकता की दृष्टि से बेहद कम है। इसके दाने में ल्यूसीन अमीनो अम्ल की ज्यादा उपलब्धता होने की वजह ज्वार खाने वाले लोगों में पैलाग्रा नामक रोग का संक्रमण हो सकता है। इसकी फसल ज्यादा वर्षा वाले क्षेत्रों में सबसे बेहतर होती है। ज्वार की अच्छी कीमतों को ध्यान में रखते हुए यदि कुछ किसान मिलकर अपने आस-पास लगे हुए खेतों में इस फसल को उत्पादित कर ज्यादा फायदा ले सकते हैं। क्योंकि इसके दाने एवं कड़वी दोनों ही अच्छे भाव पर बेचे जा सकते हैं।

ज्वार की खेती करने के लिए भूमि को किस प्रकार तैयार करें

डॉ. गजेन्द्र सिंह के अनुसार, ज्वार की फसल कम बारिश में भी अच्छा उत्पादन दे सकती है। कुछ वक्त के लिए जल-भराव रहने पर भी सहन कर लेती है। विगत फसल के कट जाने के उपरांत मृदा पलटने वाले हल से खेत में 15-20 सेमी. गहरी जुताई करनी चाहिए। इसके उपरांत 4-5 बार देशी हल चलाकर मृदा को भुरभुरा कर लेना चाहिए। बुवाई से पहले पाटा चलाकर खेत को एकसार कर लेना चाहिए। मालवा व निमाड़ में ट्रैक्टर द्वारा चलने वाले कल्टीवेटर और बखर से जुताई करके भूमि को सही ढंग से भुरभुरी बनाते हैं। ग्वालियर संभाग में देशी हल अथवा ट्रेक्टर द्वारा चलने वाले कल्टीवेटर से भूमि को भुरभुरी बनाकर पाटा से खेत को एकसार कर बुवाई करते हैं।

जमीन के अनुरूप ज्वार की उपयुक्त प्रजातियां कुछ इस प्रकार हैं

ज्वार की फसल समस्त प्रकार की भारी एवं हल्की मिट्टियां, लाल व पीली दोमट एवं यहां तक कि रेतीली मृदाओं में भी उगाई जाती है। परंतु, इसके लिए समुचित जल निकास वाली भारी मिट्टियां (मटियार दोमट) सबसे अच्छी होती हैं। असिंचित अवस्था में ज्यादा जल धारण क्षमता वाली मृदाओं में ज्वार की उपज ज्यादा होती है। मध्य प्रदेश में भारी जमीन से लेकर पथरीले जमीन पर इसका उत्पादन किया जाता है। छत्तीसगढ़ की भाटा-भर्री भूमिओं में इसकी खेती सफलता पूर्वक की जा सकती है। ज्वार की फसल 6.0 से 8.5 पी. एच. वाली मृदाओं में सफलतापूर्वक उत्पादित की जा सकती है। ज्वार से बेहतरीन पैदावार के लिए उन्नतशील प्रजातियों का शुद्ध बीज ही बोना चाहिए। किस्म का चुनाव बोआई का वक्त एवं क्षेत्र अनुकूलता के आधार पर होना चाहिए। साथ ही, बीज प्रमाणित संस्थाओं का ही बिजाई के लिए उपयोग करें अथवा उन्नत प्रजातियों का खुद का बनाया हुआ बीज उपयोग करें। ज्वार में दो तरह की किस्मों के बीज मौजूद हैं-संकर एंव उन्नत किस्में। संकर किस्म की बिजाई के लिए हर साल नवीन प्रमाणित बीज ही उपयोग में लाना चाहिए। उन्नत प्रजातियों का बीज हर साल  बदलना नहीं पड़ता है। यह भी पढ़ें: ज्वार की खेती से पाएं दाना और चारा

ज्वार की संकर प्रजातियां निम्नलिखित हैं

मध्यप्रदेश के लिए ज्वार की समर्थित संकर प्रजातियां सीएसएच-14, सीएसएच-18, सीएसएच5, सीएसएच9 है। इनके अतिरिक्त जिनका बीज प्रति वर्ष नया नहीं बदलना पड़ता है। वो है एसपीवी 1022, एएसआर-1, जवाहर ज्वार 741, जवाहर ज्वार 938 और जवाहर ज्वार 1041 इनके बीजों के लिए ज्वार अनुसंधान परियोजना, कृषि महाविद्यालय इंदौर से संपर्क साध सकते हैं। ढाई एकड़ के खेत में बिजाई के लिए 10-12 किलोग्राम बीज की आवश्यकता होती है। उत्तर प्रदेश में सीएसबी-13, वषा, मऊ टी-1, मऊ टी-2, सीएसएच-16, सीएसएच-14, सीएमएच-9, सीएसबी-15 का उत्पादन किया जाता है।

ज्वार की कम समय में पकने वाली प्रजातियां

अगर ज्वार की देशी प्रजातियों के आकार की बात की जाए तो इसके पौधे ऊंचाई वाले, लंबे और गोल भुट्टों वाले होते थे। इनमें दाने एकदम सटे हुए लगते थे।  पीला आंवला, लवकुश, विदिशा 60-1, ज्वार की उज्जैन 3, उज्जैन 6 प्रमुख प्रचलित प्रजातियां थीं। इनका उत्पादन 12 से 16 क्विंटल दाना एवं 30 से 40 क्विंटल कड़वी (पशु चारा) प्रति एकड़ तक प्राप्त हो जाता था। इनका दाना मीठा और स्वादिष्ट होता था। बतादें कि यह प्रजातियां कम पानी और अपेक्षाकृत हल्की भूमि में उत्पादित हो जाने की वजह से आदिवासी क्षेत्रों की मुख्य फसल थी। यह उनके जीवन यापन का मुख्य जरिया था। साथ ही, इससे उनके मवेशियों को चारा भी प्राप्त हो जाता था। इनके झुके हुए ठोस भुटटों पर पक्षियों हेतु बैठने का स्थान न होने की वजह हानि कम होती थी। पैदावार को ध्यान में रखते हुए ज्वार में बुवाई का समय काफी महत्वपूर्ण है। ज्वार की फसल को मानसून आने के एक हफ्ते पूर्व सूखे में बुवाई करने से उत्पादन में 22.7 प्रतिशत वृद्धि देखी गई है।