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तितली मटर (अपराजिता) के फूलों में छुपे सेहत के राज, ब्लू टी बनाने में मददगार, कमाई के अवसर अपार

तितली मटर (अपराजिता) के फूलों में छुपे सेहत के राज, ब्लू टी बनाने में मददगार, कमाई के अवसर अपार

रंगबिरंगी तितली किसके मन को नहीं भाती, लेकिन हम बात कर रहे हैं, प्रमुख दलहनी फसलों में से एक तितली मटर के बारे में। आमतौर पर इसे अपराजिता (butterfly pea, blue pea, Aprajita, Cordofan pea, Blue Tea Flowers or Asian pigeonwings) भी कहा जाता है। 

इंसान और पशुओं के लिए गुणकारी

बहुउद्देशीय दलहनी कुल के पौधोंं में से एक तितली मटर यानी अपराजिता की पहचान उसके औषधीय गुणों के कारण भी दुनिया भर में है। इंसान और पशुओं तक के लिए गुणकारी इस फसल की खेती को बढ़ावा देकर, किसान भाई अपनी कमाई को कई तरीके से बढ़ा सकते हैं। 

ब्लू टी की तैयारी

तितली मटर के फूल की चाय (Butterfly pea flower tea)

बात औषधीय गुणों की हो रही है तो आपको बता दें कि, चिकित्सीय तत्वों से भरपूर अपरजिता यानी तितली मटर के फूलों से अब ब्लू टी बनाने की दिशा में भी काम किया जा रहा है।

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ब्लू टी से ब्लड शुगर कंट्रोल

जी हां परीक्षणों के मुताबिक तितली मटर (अपराजिता) के फूलों से बनी चाय की चुस्की, मधुमेह यानी कि डायबिटीज पीड़ितों के लिए मददगार होगी। जांच परीक्षणों के मुताबिक इसके तत्व ब्लड शुगर लेवल को कम करते हैं।

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पशुओं का पोषक चारा

इंसान के स्वास्थ्य के लिए मददगार इसके औषधीय गुणों के अलावा तितली मटर (अपराजिता) का उपयोग पशु चारे में भी उपयोगी है। चारे के रूप में इसका उपयोग भूसा आदि अन्य पशु आहार की अपेक्षा ज्यादा पौष्टिक, स्वादिष्ट एवं पाचन शील माना जाता है। तितली मटर (अपराजिता) के पौधे का तना बहुत पतला साथ ही मुलायम होता है। इसकी पत्तियां चौड़ी और अधिक संख्या में होने से पशु आहार के लिए इसे उत्तम माना गया है।

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अनुभवों के मुताबिक अपेक्षाकृत रूप से दूसरी दलहनी फसलों की तुलना में इसकी कटाई या चराई के बाद अल्प अवधि में ही इसके पौधों में पुनर्विकास शुरू हो जाता है। 

एशिया और अफ्रीका में उत्पत्ति :

तितली मटर (अपराजिता) की खेती की उत्पत्ति का मूल स्थान मूलतः एशिया के उष्ण कटिबंधीय क्षेत्र एवं अफ्रीका में माना गया है। इसकी खेती की बात करें तो मुख्य रूप से अमेरिका, अफीका, आस्ट्रेलिया, चीन और भारत में इसकी किसानी का प्रचलन है। 

मददगार जलवायु

  • इसकी खेती मुख्यतः प्रतिकूल जलवायु क्षेत्रों में प्रचलित है। मध्यम खारी मृदा इलाकों में इसका पर्याप्त पोषण होता है।
  • तितली मटर प्रतिकूल जलवायु जैसे–सुखा, गर्मी एवं सर्दी में भी विकसित हो सकती है।
  • ऐसी मिट्टी, जिनका पी–एच मान 4.7 से 8.5 के मध्य रहता है में यह भली तरह विकसित होने में कारगर है।
  • मध्यम खारी मिट्टी के लिए भी यह मित्रवत है।
  • हालांकि जलमग्न स्थिति के प्रति यह बहुत संवेदनशील है। इसकी वृद्धि के लिए 32 डिग्री सेल्सियस तापमान सेहतकारी माना जाता है।

तितली मटर के बीज की अहमियत :

कहावत तो सुनी होगी आपने, बोए बीज बबूल के तो फल कहां से होए। ठीक इसी तरह तितली मटर (अपराजिता) की उन्नत फसल के लिए भी बीज अति महत्वपूर्ण है। कृषक वर्ग को इसका बीज चुनते समय अधिक उत्पादन एवं रोग प्रतिरोध क्षमता का विशेष तौर पर ध्यान रखना चाहिए।

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तितली मटर की कुछ उन्नत किस्में :

तितली मटर की उन्नत किस्मों की बात करें तो काजरी–466, 752, 1433, जबकि आईजीएफआरआई की 23–1, 12–1, 40 –1 के साथ ही जेजीसीटी–2013–3 (बुंदेलक्लाइटोरिया -1), आईएलसीटी–249 एवं आईएलसीटी-278 इत्यादि किस्में उन्नत प्रजाति में शामिल हैं। 

तितली मटर की बुवाई के मानक :

अनुमानित तौर पर शुद्ध फसल के लिए बीज दर 20 से 25 किलोग्राम मानी गई है। मिश्रित फसल के लिए 10 से 15 किलोग्राम, जबकि 4 से 5 किलोग्राम बीज स्थायी चरागाह के लिए एवं 8 से 10 किलोग्राम बीज प्रति हैक्टेयर अल्पावधि चरण चरागाह के लिए आदर्श पैमाना माना गया है। तय मान से बुवाई 20–25 × 08 – 10 सेमी की दूरी एवं ढ़ाई से तीन सेमी की गहराई पर करनी चाहिए। कृषि वैज्ञानिक उपचारित बीजों की भी सलाह देते हैं। अधिक पैदावार के लिए गर्मी में सिंचाई का प्रबंधन अनिवार्य है। 

तितली मटर की कटाई का उचित प्रबंधन :

मटर के पके फल खेत में न गिर जाएं इसलिए तितली मटर की कटाई समय रहते कर लेना चाहिए। हालांकि इस बात का ध्यान भी रखना अनिवार्य है कि मटर की फसल परिपक्व हो चुकी हो। जड़ बेहतर रूप से जम जाए इसलिए पहले साल इससे केवल एक कटाई लेने की सलाह जानकार देते हैं।

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तितली मटर के उत्पादन का पैमाना :

उपज बरानी की दशा में स्थितियां अनुकूल रहने पर लगभग 1 से 3 टन सूखा चारा और 100 से 150 किलो बीज प्रति हेक्टेयर मिल सकता है। इतनी बड़ी ही सिंचित जमीन पर सूखा चारा 8 से 10 टन, जबकि बीज पांच सौ से छह सौ किलो तक उपज सकता है। 

पोषक तत्वों से भरपूर खुराक :

तितली मटर में प्रोटीन की मात्रा 19-23 फीसदी तक मानी गई है। क्रूड फ़ाइबर 29-38, एनडीफ 42-54 फीसदी तो फ़ाइबर 21-29 प्रतिशत पाया जाता है। पाचन शक्ति इसकी 60-75 फीसदी तक होती है।

चाय की खेती से जुड़ी विस्तृत जानकारी

चाय की खेती से जुड़ी विस्तृत जानकारी

भारत के अंदर चाय की खेती काफी पहले से की जा रही है। दरअसल, साल 1835 में अंग्रेजो ने सबसे पहले असम के बागो में चाय लगाकर इसकी शुरुआत की थी। आज के समय में भारत के विभिन्न राज्यों में चाय की खेती की जाती है। इससे पूर्व चाय की खेती सिर्फ पहाड़ी क्षेत्रों में ही की जाती थी। लेकिन, अब यह पहाड़ी क्षेत्रों से लेकर मैदानी इलाकों तक पहुंच चुकी है। दुनिया में भारत चाय उत्पादन के संदर्भ में दूसरे स्थान पर है। विश्व की लगभग 27 फीसद चाय का उत्पादन भारत के अंदर ही किया जाता है। इसके साथ ही 11 फीसद चाय उपभोग के साथ भारत सबसे बड़ा चाय का उपभोगकर्ता भी है। चाय को पेय प्रदार्थ के तौर पर उपभोग में लाया जाता है। अगर चाय का सेवन सीमित रूप में करते है, तो आपको इससे विभिन्न लाभ मिलते हैं। भारत में चाय का सर्वाधिक सेवन किया जाता है। विश्व में भी जल के उपरांत यदि किसी पेय प्रदार्थ का सबसे ज्यादा उपयोग किया जाता है, उसका नाम चाय है। चाय में कैफीन भी काफी ज्यादा मात्रा में विघमान रहती है। चाय प्रमुख तौर पर काले रंग में पाई जाती है, जिसे पौधों और पत्तियों से तैयार किया जाता है। गर्म जलवायु में चाय के पौधे अच्छे से प्रगति करते है। यदि आप भी चाय की खेती करना चाहते हैं, तो आइए हम इस लेख में आपको चाय की खेती से जुड़ी अहम जानकारी देंगे।

चाय की खेती हेतु मृदा, जलवायु एवं तापमान कैसा होना चाहिए

चाय की खेती करने के लिए हल्की अम्लीय जमीन की जरूरत होती है। इसकी खेती के लिए बेहतर जल निकासी वाली भूमि होना अति आवश्यक है। क्योंकि, जलभराव वाली जगहों पर इसके पौधे काफी शीघ्रता से नष्ट हो जाते हैं।
चाय की खेती अधिकांश पहाड़ी इलाकों में की जाती है। चाय की खेती हेतु जमीन का P.H. मान 5.4 से 6 के बीच रहना चाहिए। चाय की खेती के लिए उष्णकटिबंधीय जलवायु को उपयुक्त माना जाता है। चाय के पौधों को गर्मी के साथ-साथ वर्षा की भी जरुरत पड़ती है। शुष्क और गर्म जलवायु में इसके पौधे अच्छे से विकास करते हैं। इसके अतिरिक्त छायादार स्थानों पर भी इसके पौधों को विकास करने में सहजता होती है। अचानक से होने वाला जलवायु परिवर्तन फसल के लिए नुकसानदायक होता है। इसके पौधों को शुरुआत में सामान्य तापमान की जरूरत पड़ती है। चाय के पौधों को विकास करने के लिए 20 से 30 डिग्री तापमान की आवश्यकता होती है। चाय के पौधे कम से कम 15 डिग्री और ज्यादा से ज्यादा 45 डिग्री तापमान ही झेल सकते हैं।

जानें चाय की उन्नत किस्में कौन-कौन सी हैं

चीनी जात चाय

चाय की इस किस्म में पौधों का आकार झाड़ीनुमा होता है, जिसमें निकलने वाली पत्तियां चिकनी और सीधी होती हैं। इसके पौधों पर बीज काफी शीघ्रता से निकल आते हैं और इसमें चीनी टैग की खुशबू विघमान होती है। इसकी पत्तियों को तोड़ने के दौरान अगर अच्छी पत्तियों का चयन किया जाता है, तो चाय भी उच्च गुणवत्ता वाली अर्जित होती है।

असमी जात चाय

चाय की यह प्रजाति विश्व में सबसे बेहतरीन मानी जाती है। इसके पौधों पर निकलने वाली पत्तियों का रंग थोड़ा हरा होता है, जिसमें पत्तियां चमकदार एवं मुलायम होती हैं। इस प्रजाति के पौधों को फिर से रोपण करने के लिए भी उपयोग में लिया जा सकता है।

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व्हाइट पिओनी चाय

चाय की यह व्हाइट पिओनी प्रजाति सर्वाधिक चीन में उत्पादित की जाती है। इस प्रजाति के पौधों पर निकलने वाली पत्तियां कोमल एवं बड्स के जरिए से तैयार की जाती हैं। साथ ही, चाय में हल्का कड़कपन भी पाया जाता है। इसको जल में डालने पर इसका रंग हल्का हो जाता है।

सिल्वर निडल व्हाइट चाय

सिल्वर निडल व्हाइट प्रजाति की चाय को कलियों के जरिए से तैयार किया जाता है। इस प्रजाति की कलियां चहुंओर से रोये से ढक जाती हैं। इसके बीज पानी में डालने पर हल्के रंग के पड़ जाते हैं। सिल्वर निडल व्हाइट किस्म का स्वाद मीठा एवं ताजगी वाला होता है।

चाय कितने तरह की होती है

चाय की उन्नत प्रजातियों से चाय प्रमुख तौर पर काली, सफेद और हरे रंग की अर्जित हो जाती है। इसकी पत्तियों, शाखाओं एवं कोमल हिस्सों को प्रोसेसिंग के जरिए से तैयार किया जाता है।

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सफेद चाय

सफेद चाय को तैयार करने के लिए पौधों की ताजा एवं कोमल पत्तियों को उपयोग किया जाता है। इस प्रकार की चाय स्वाद का स्वाद मीठा होता है। इसमें एंटी-ऑक्सिडेंट की मात्रा ज्यादा और कैफीन की मात्रा काफी कम पाई जाती है।

हरी चाय

हरी चाय की पत्तियों से विभिन्न प्रकार की चाय बनाई जाती है। इसके पौधों में निकलने वाली कच्ची पत्तियों से हरी चाय को तैयार करते है। इस चाय में एंटी-ऑक्सिडेंट की मात्रा सर्वाधिक होती है।

काली या आम चाय

यह एक साधारण चाय होती है, जो कि प्रमुख तौर पर हर घर में मौजूद होती हैं। इसके दानों को विभिन्न तरह की चायों को बनाने हेतु इस्तेमाल में लाया जाता है। परंतु, सामान्य तौर पर इसको साधारण चाय के लिए उपयोग में लाते हैं। इस प्रजाति की चाय को तैयार करने के लिए पत्तियों को तोड़के कर्ल किया जाता है, जिससे दानेदार बीज भी मिल जाते हैं।

चाय की खेती के लिए भूमि की तैयारी एवं खाद

चाय के पौधे एक बार तैयार हो जाने के पश्चात विभिन्न सालों तक पैदावार देते हैं। इसलिए इसके खेत को बेहतर ढ़ंग से तैयार कर लिया जाता है। भारत में इसका उत्पादन अधिकांश पर्वतीय इलाकों में ढलान वाली भूमि में किया जाता है। इसके लिए भूमि में गड्डों को तैयार कर लिया जाता है। यह गड्डे पंक्तिबद्ध ढ़ंग से दो से तीन फीट का फासला रखते हुए तैयार किये जाते हैं। इसके अतिरिक्त पंक्तियों के बीच भी एक से डेढ़ मीटर का फासला रखा जाता है। इसके उपरांत तैयार गड्डों में जैविक खाद के तौर पर 15 KG पुरानी गोबर की खाद व रासायनिक खाद स्वरूप 90 KG पोटाश, 90 KG नाइट्रोजन और 90 KG सुपर फास्फेट की मात्रा को मृदा में मिश्रित कर प्रति हेक्टेयर में तैयार गड्डो में भर दिया जाता है। यह समस्त गड्डे पौध रोपाई से एक महीने पूर्व तैयार कर लिए जाते हैं | इसके पश्चात भी इस खाद को पौधों की कटाई के चलते साल में तीन बार देना पड़ता है।

चाय के पौधों को प्रभावित करने वाले रोग और उनका नियंत्रण कैसे करें

बतादें, कि अन्य फसलों की भांति ही चाय के पौधों में भी विभिन्न प्रकार के रोग लग जाते है, जो पौधों पर आक्रमण करके बर्बाद कर देते हैं। अगर इन रोगों का नियंत्रण समयानुसार नहीं किया जाता है, तो उत्पादन काफी प्रभावित होता है। इसके पौधों में मूल विगलन, चारकोल विगलन, गुलाबी रोग, भूरा मूल विगलन रोग, फफोला अंगमारी, अंखुवा चित्ती, काला मूल विगलन, भूरी अंगमारी, शैवाल, काला विगलन कीट और शीर्षरम्भी क्षय जैसे अनेक रोग दिखाई पड़ जाते हैं। जो कि चाय के उत्पादन को बेहद प्रभावित करते हैं। इन रोगो से पौधों का संरक्षण करने हेतु रासायनिक कीटनाशक का छिड़काव समुचित मात्रा में किया जाता है।

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चाय की खेती से कितनी आमदनी होती है

चाय के पौधे रोपाई के एक साल पश्चात पत्तियों की कटाई के लिए तैयार हो जाते है। इसके उपरांत पत्तियों की तुड़ाई को एक वर्ष में तीन बार किया जा सकता है। बतादें, कि इसकी प्रथम तुड़ाई मार्च के महीने में की जाती है। वहीं, अतिरिक्त तुड़ाई को तीन माह के समयांतराल में करना होता है। चाय की विभिन्न तरह की उन्नत प्रजातियों से प्रति हेक्टेयर 600 से 800 KG की पैदावार हांसिल हो जाती है। बाजार में चाय का भाव बेहद अच्छा होता है, जिससे किसान भाई चाय की एक साल की फसल से डेढ़ से दो लाख तक की आमदनी सहजता से कर सकते हैं।
थनैला रोग को रोकने का एक मात्र उपाय टीटासूल लिक्विड स्प्रे किट (Teatasule Liquid (Spray Kit))

थनैला रोग को रोकने का एक मात्र उपाय टीटासूल लिक्विड स्प्रे किट (Teatasule Liquid (Spray Kit))

डेयरी कैटल अर्थात दुधारू पशु, डेयरी उद्योग या पशुपालन की रीढ़ होती है, लेकिन इन पशुओं में आए दिन कई तरह के रोग होने का खतरा बना रहता है. इसमे सबसे अधिक खतरा थनैला रोग (Thanaila Rog) से होता है, जिसको लेकर पशुपालक हमेशा परेशान रहते हैं. थनैला रोग केवल पशुओं को ही बीमार नहीं करता बल्कि, पशुपालकों को भी आर्थिक रूप से बीमार कर देता है. पशु के थन में सूजन, थान (अयन) का गरम होना एवं थान का रंग हल्का लाल होना आदि थनैला रोग की प्रमुख पहचान है. थनैला रोग का संक्रमण जब बढ़ जाता है तो दूध निकलने का रास्ता सिकुड़ कर पतला और बारीक हो जाता है, जिससे दूध निकलने में परेशानी होती है. साथ ही दूध का फट के आना, मवाद आना जैसे लक्षण दिखाई देते हैं.

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क्यों होता है दुधारु पशुओं में थनैला रोग ?

दुधारू पशुओं को थनैला रोग थनों में चोट लगने, थन पर गोबर के लगने, मूत्र अथवा कीचड़ के संक्रमण होने से होता है. वहीं दूध दुहते समय साफ-सफाई पर ध्यान नहीं देने से और पशु बाड़े की नियमित रूप से साफ-सफाई न करने से भी यह संक्रमण होता है. ज्ञात हो कि जब मौसम में नमी अधिक होती है या वर्षाकाल का मौसम होता है, तब इस रोग का प्रकोप और भी बढ़ जाता है.

थनैला रोग की रोकथाम के उपाय

दुधारू पशुओं में थनैला रोग के लक्षण दिखाई देने पर तुरंत निकट के पशु चिकित्सालय या पशु चिकित्सक से परामर्श करनी चाहिए. थनैला रोग में होम्योपैथिक पशु दवाई भी बहुत कारगर है.

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होम्योपैथिक पशु दवाई की प्रमुख कंपनी गोयल वेट फार्मा प्राइवेट लिमिटेड ने पशुओं में बढ़ते थनैला रोग के संक्रमण को रोकने के लिए टीटासूल लिक्विड स्प्रे किट का निर्माण किया है जो बेहद असरदार है. टीटासूल लिक्विड स्प्रे किट - (Teatasule Liquid (Spray Kit)) थनेला रोग के उपचार के लिए बेहतरीन व कारगर होम्योपैथिक पशु औषधि माना जाता है. यह मादा पशुओं के थनैला रोग के सभी अवस्था के लिए असरदार होम्योपैथिक दवाई है. यह दूध के गुलाबी, दूध में खून के थक्के, दूध में मवाद के कारण पीलापन, दूध फटना, पानी जैसा दूध होना तथा थान का पत्थर जैसा सख़्त होना जैसे स्थिति में बहुत प्रभावी है.

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टीटासूल लिक्विड स्प्रे कैसे किया जाता है इस्तेमाल

टीटासूल के एक पैक में टीटासूल नंबर -1 तथा टीटासूल नंबर-2 की 30 मिली स्प्रे बोतल होती है, जिसे रोगग्रस्त पशुओं को सुबह और शाम, दिए गए निर्देशों के अनुसार देना होता है या पशु चिकित्सक के सलाह के अनुसार देना चाहिए.

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• थन की सूजन व थनैला रोग में एंटीबायोटिक या इंजेक्शन या दवाओं से ज्यादा आराम टीटासूल होम्योपैथिक दवा देता है. • जब एंटीबायोटिक दवायें काम नहीं करती हैं तब भी टीटासूल आराम देता है • थनों की सूजन पुरानी पड़ने लगे और थनों के तनु कठोर हो जाये तो टीटासूल थनों के कड़ेपन को दूर करता है और दुग्ध ग्रंथियों को कार्यशील बनाता है. • थनों के कड़ेपन को व थनों में चिराव आदि को भी टीटासूल ठीक करता है. • दुग्ध ग्रंथियों में दुग्ध के बहाव को नियमित कर कार्यशील बनाने में टीटासूल सहायक होता है.
Sagwan: एक एकड़ में मात्र इतने पौधे लगाकर सागवान की खेती से करोड़ पक्के !

Sagwan: एक एकड़ में मात्र इतने पौधे लगाकर सागवान की खेती से करोड़ पक्के !

नेशनल-इंटरनेशनल मार्केट में छाल-पत्तों से लेकर लकड़ी तक की डिमांड वाले सागवान प्लांट की फार्मिंग (Sagwan Farming) से करोड़ों रुपए का मुनाफा तय है। कृषि विज्ञान एवं किसानी की पारंपरिक विधियों के सम्मिश्रण से सागवान की खेती कर किसान करोड़ों रुपयों का मुनाफा अर्जित कर सकते हैं।

ट्रिक करोड़ों की

मेरीखेती में, हम एक एकड़ के मान के आधार पर सागवान की खेती (Sagwan Ki Kheti) के तरीकों एवं उससे मिलने वाले अनुमानित लाभ पर फोकस करेंगे। कड़ी लकड़ी वाले इस पेड़ के जरिये, पेड़ के मालिक करोड़पति बन सकते हैं।

सागवान की खेती का गणित

खेत ही क्या, मुद्रा यानी रुपया (भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका), डॉलर, दिरहम, युआन का रोल जहां आ जाता है, वहां किसी वस्तु, सेवा या विचार की गुणवत्ता, उसकी जरूरत एवं उपलब्धता और कीमत ही उसकी सफलता की कुंजी मानी जाती है। सागवान की खेती (Teak Wood Farming) भी प्रकृति का वह विकल्प है जिसकी गुणवत्ता, मांग और कीमत उसे उत्पाद के तौर पर श्रेष्ठ बनाती है।

सागवान की डिमांड

सागवान को स्थानीय स्तर पर सगौना, सागौन, टीक, टीकवुड (Teak, Teakwood) भी कहा जाता है। इसकी लकड़ियों का जहाज़, रेल, बड़े यात्री वाहनों और फर्नीचर इंडस्ट्री सेक्टर तक व्यापक मार्केट है।

सागवान के औषधीय गुण

जीवित सागवान पेड़ की छाल और पत्तियां तक मनुष्य के लिए गुणकारी होती हैं। औषधीय उपचार में भी सागौन की छाल, पत्ती एवं जड़ों का उपयोग किया जाता है। खास तौर पर कई तरह की शक्ति वर्धक दवाएं भी इससे बनाई जाती हैं।

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मतलब साफ है कि सागवान फार्मिंग (Sagwan Farming) में लाभ के अवसर अपार हैं, सागौन के पेड़ के जरिए किसान बढ़िया मुनाफा कमा सकते हैं।

अड़ियल स्वभाव वाला है सागवान का पेड़

खेत, जंगल, झरना, पोखर कहीं भी पनपने वाले अड़ियल स्वभाव के सागवान पौधे की खेती (Sagwan Cultivation) के मात्र इतने ही फायदे नहीं हैं, बल्कि यह गुणों की भरमार है।

जंगल नहीं अब खेतों की भी शान

पारंपरिक खेती-किसानी में आधुनिक कृषि विज्ञान की युक्तियों के साथ आज का किसान किसानी से दिन दूनी रात चौगुनी कमाई के विकल्प तलाश रहा है। कभी खेत से मात्र मुख्य फसल उपजाने वाला आज का किसान अब आय के अन्य विकल्प भी अपना रहा है।

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ऐसा ही एक विकल्प है सागवान फार्मिंग (Sagwan Farming) भी, लेकिन इसके लाभ हासिल करने के लिए कुछ खास चीजों का ध्यान रखने की जरूरत है। मसलन पौधरोपण के तरीके, पौधरोपण का समय, देखभाल में रखी जाने वाली सावधानियां, संभावित नुकसान, आदि।

सागवान के पौधे की कीमत

ऑनलाइन कृषि उत्पाद, पौधे आदि बेचने वाली कंपनियां मात्र 20 रुपए में सागवान के पौधे की सेल ऑफर कर रही हैं। नर्सरियों में पौधे की गुणवत्ता के आधार पर सागवान की कीमत में घट-बढ़ हो सकती है।

सागवान है मुनाफे का सौदा

मतलब आज लगाया गया सागवान का 20 रुपए का पौधा दस साल बाद परिपक्व होने पर आज की कीमत के मान से 25 से 40 हजार रुपए तक किसान को कमा कर दे सकता है। अधिक संख्या में रोपेे गए पौधे अधिक लाभ का पक्का संकेत है!

सागवान है सहफसली विकल्प

अब किसान एक करोड़ रुपए के मुनाफे के लिए 10 साल तो नहीं रुक सकता तो ऐसे में नियमित कमाई भी संभव है। सहफसली कृषि विधि से किसान सागवान के पेड़ों के बीच की भूमि पर सब्जियों और फूलों की खेती कर कमाई और मुनाफे को डबल कर सकते हैं।

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सागवान के पेड़ की परिपक़्वता में कितने साल लगेंगे ?

सागवान का पेड़ 10 से 12 साल बाद परिपक़्व होने पर किसान को 25 से 40 हजार रुपये तक कमा कर देगा। परिपक़्व सागवान का प्रत्येक पेड़ लम्बाई और मोटाई के हिसाब से 25 हजार से 40 हजार रुपये तक बिकता है। कृषि अनुसंधान के अनुसार एक एकड़ खेत में लगभग 120 सागवान के पौधे लगते हैं। यह पेड़ अपनी परिपक्वता के बाद भी करोड़ों रुपए की हैसियत रखते हैं। मतलब साफ है कि खेत में बारिश, गर्मी, तेज ठंड में यदि कोई फसल न भी हो, तब भी सागौन के करोड़ों रुपए के चंद पेड़, आमदनी की आस हो सकते हैं।

असम के चाय उत्पादकों को सामान्य चाय उत्पादन की आशा

असम के चाय उत्पादकों को सामान्य चाय उत्पादन की आशा

चाय का उच्चतम उत्पादक राज्य माने जाने वाले असम राज्य के चाय उत्पादक पूर्व में बेहद चिंताग्रस्त थे। चिंता की वजह यह थी, कि उनको यह संभावना लग रही थी, कि उनकी कम बारिश की वजह से प्रथम फ्लश फसल प्रभावित होगी। दीर्घकाल से सूखे के उपरांत, असम के समस्त चाय बागानों में विगत कुछ दिनों में बेहतरीन बारिश हुई है। जिससे बागान मालिकों के मुँह पर खुशी छा गई है, क्योंकि बरसात से नए सीजन के पूर्व फ्लश उत्पादन के "सामान्य" होने की आशा है। ये भी पढ़े: भारत ने किया रिकॉर्ड तोड़ चाय का निर्यात चाय के उच्चतम उत्पादक राज्य असम में चाय उत्पादक पूर्व में बेहद चिंतित थे। क्योंकि, वह आशा कर रहे थे, कि कम वर्षा से पहली फ्लश फसल प्रभावित होगी। “इससे पहले असम के कुछ इलाकों में बारिश हुई थी, जबकि कुछ इलाके बिल्कुल सूखे रहे थे। लेकिन अब राज्य के सभी हिस्सों में बारिश हुई है। पिछले पांच दिनों में पूरे असम में बारिश हुई है। मुझे लगता है, कि पहली फ्लश फसल पर कोई प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। हमें एक सामान्य फसल मिलनी चाहिए, ” नॉर्थ ईस्टर्न टी एसोसिएशन (NETA) के सलाहकार बिद्यानंद बरकाकोटी ने बताया।

असम चाय उद्योग के लिए पहली फ्लश फसलों का उत्पादन सामान्यतयः मार्च और अप्रैल में किया जाता है।

“पहला फ्लश अब अच्छा रहा है, क्योंकि असम के सभी हिस्सों में बारिश हो रही है। मार्च की फसल पिछले साल की तुलना में बेहतर होनी चाहिए। पिछले साल फसल देरी से शुरू हुई थी। इस साल इसकी शुरुआत जल्दी हो गई है, जो अच्छी बात है। पिछले सप्ताह तक पिछले वर्ष की समान अवधि की तुलना में वर्षा की कमी थी। अब निश्चित तौर पर यह आगे बढ़ गया है।" ये भी पढ़े: सही लागत-उत्पादन अनुपात को समझ सब्ज़ी उगाकर कैसे कमाएँ अच्छा मुनाफ़ा, जानें बचत करने की पूरी प्रक्रिया प्रथम फ्लश फसल असम में कुल चाय उत्पादन का तकरीबन 10% है। हालांकि, असम चाय उद्योग हेतु दूसरा फ्लश ज्यादा जरुरी है, क्योंकि यह प्रीमियम किस्म होती है। दूसरी फ्लश फसलें सामान्यतः मई एवं जून में उत्पादित की जाती हैं। 2022 में, असम चाय का उत्पादन 687.93 मिलियन किलोग्राम रहा था। वहीं, 2021 में यह 667.73 मिलियन किलोग्राम था। 2021 में उत्पादन वर्ष के आरंभिक माहों (जनवरी, फरवरी और मार्च) के साथ-साथ 2020 के बाद (अक्टूबर, नवंबर और दिसंबर) के समय कम वर्षा की वजह से कम था। “खरीदार मार्च में असम चाय उत्पादन पर इतना निर्भर नहीं हैं। आगे चलकर कीमतें अप्रैल और मई में हुए उत्पादन पर निर्भर करेंगी। जहां तक मैं देखता हूं बाजार अभी भी भूखा नहीं है। ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि सर्दियों के दौरान खपत उम्मीद के मुताबिक नहीं बढ़ी थी, जो तुलनात्मक रूप से गर्म थी।"
मुरैना की गजक और रीवा के सुंदरजा आम के बाद अब कांगड़ा चाय को मिला GI टैग

मुरैना की गजक और रीवा के सुंदरजा आम के बाद अब कांगड़ा चाय को मिला GI टैग

चाय की मांग देश के साथ साथ विदेशों तक हो रही है। भारत के हिमाचल प्रदेश की कांगड़ा चाय विदेशों तक प्रसिद्ध हो गई है। कांगड़ा चाय को यूरोपीय संघ के जरिए जीआई (GI) टैग हांसिल हुआ है। अब इसकी वजह से यूरोपीय संघ देशों में कांगड़ा चाय को अच्छी खासी प्रसिद्धि मिली है। आजकल केवल राष्ट्रीय ही नहीं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय उत्पाद अपना परचम लहरा रहे हैं। देश के संतरा, चावल, आम, सेब और गेंहू के अतिरिक्त बहुत सी अन्य फल सब्जियों को विदेशी पटल पर पसंद किया जाता है। दार्जिलिंग की चाय भी बेहद मशहूर होती है। फिलहाल, हिमाचल प्रदेश की चाय ने विदेशों में भी अपनी अदा दिखा रही है। कांगड़ा की चाय अपनी एक पहचान बना रही है। बतादें कि हिमाचल की कांगड़ा चाय को विदेश से जीआई (GI) टैग मिला है। इससे किसानों की आमदनी को बढ़ाने में सहायता मिलेगी। आइए जानने की कोशिश करते हैं कि हिमाचल की कौन सी चाय को जीआई टैग मिला है.

मुरैना की गजक और रीवा के सुंदरजा आम के बाद अब कांगड़ा चाय को मिला जीआई टैग

हाल ही में मुरैना की गजक एवं
रीवा के सुंदरजा आम को जीआई टैग मिल गया है। फिलहाल, विदेश से हिमाचल प्रदेश की कांगड़ा चाय को जीआई टैग मिला है। यूरोपीय संघ के स्तर से कांगड़ा चाय को जीआई टैग दिया गया है। इसका यह लाभ हुआ है, कि कांगड़ा की चाय को भारत के अतिरिक्त विदेश मेें भी अच्छी पहचान स्थापित करने मेें सहायता मिलेगी। विदेशों तक इसकी मांग बढ़ने से इसकी खपत भी ज्यादा होगी। इससे किसानों की आय में भी वृद्धि हो जाएगी।

हिमाचल की कांगड़ा चाय को किस वर्ष में मिला इंडियन जीआई टैग

आपको बतादें कि असम और दार्जलिंग में बहुत बड़े पैमाने पर चाय का उत्पादन किया जाता है। हिमाचल प्रदेश में भी बड़े इलाके में चाय की खेती की जाती है। हिमाचल में चाय की खेती ने वर्ष 1999 में काफी तेजी से रफ्तार पकड़ी थी। बढ़ते उत्पादन को ध्यान में रखते हुए वर्ष 2005 में इसको भारतीय जीआई टैग प्राप्त हुआ है। बतादें, कि चाय की खेती समुद्री तल से 1400 मीटर की ऊंचाई पर की जाती है।

इसमें भरपूर मात्रा पोषक तत्व पाए जाते हैं

हिमाचल प्रदेश की कांगड़ा चाय में पोषक तत्वों की प्रचूर मात्रा पाई जाती है। बतादें, कि इसकी पत्तियों में लगभग 3 प्रतिशत कैफीन, अमीनो एसिड और 13 फीसद कैटेचिन मौजूद रहती है। जो कि मस्तिष्क को आराम पहुँचाने का कार्य करती है। खबरों के अनुसार, कांगड़ा घाटी में ऊलोंग, काली और सफेद चाय का उत्पादन किया जाता है। धौलाधार पर्वत श्रृंखला में बहुत से जगहों पर भी कांगड़ा चाय उगाई जाती है। ये भी पढ़े: किन वजहों से लद्दाख के इस फल को मिला जीआई टैग

जीआई टैग का क्या मतलब होता है

किसी भी राज्य में यदि कोई उत्पाद अपनी अनूठी विशेषता की वजह से देश और दुनिया में अपना परचम लहराने लगे तब भारत सरकार अथवा विदेशी सरकारों द्वारा उसको प्रमाणित किया जाता है। बतादें कि इसको प्रमाणित करने के कार्य को जीआई टैग मतलब कि जीओ ग्राफिकल इंडीकेटर के नाम से बुलाया जाता है।
शिक्षक की नौकरी छोड़ शुरू किया नर्सरी का व्यवसाय, आय में हुआ इजाफा

शिक्षक की नौकरी छोड़ शुरू किया नर्सरी का व्यवसाय, आय में हुआ इजाफा

आज हम आपको ऐसे दो भाईयों के बारे में बताऐंगे जो कि राजस्थान के करौली जनपद के रहने वाले हैं। एक का नाम सुरजन सिंह है, तो दूसरे का नाम मोहर सिंह है। दोनों पहले प्राइवेट स्कूल में नौकरी करते थे। खेती में मेहनत ज्यादा और फायदा कम होने के चलते लोग नौकरी करना अधिक पसंद कर रहे हैं। यहां तक कि प्राइवेट नौकरी करने के लिए लोग लाइन में कतारबद्ध खड़े रहते हैं। परंतु, आज हम ऐसे दो भाइयों के संबंध में बात करेंगे, जिनमें खेती से संबंधित व्यवसाय करने की इच्छा के चलते अच्छी- खासी प्राइवेट नौकरी छोड़ दी। अब यह दोनों भाई फूल, फल और सब्जियों की नर्सरी लगाकर प्रति माह मोटी आमदनी कर रहे हैं। इन दोनों भाइयों का कहना है, कि नर्सरी का बिजनेस शुरू करते ही उनकी आमदनी पहले की तुलना में दोगुनी हो गई है। अब ये दोनों भाई बाकी युवाओं के लिए भी मिसाल बन चुके हैं।

आमदनी के साथ-साथ पर्यावरण भी स्वच्छ हो रहा है

ये दोनों भाई राजस्थान के करौली जनपद के रहने वाले हैं। एक का नाम सुरजन सिंह है तो दूसरे का नाम मोहर सिंह। हालाँकि, पहले दोनों प्राइवेट स्कूल में ही नौकरी करते थे। इससे उनके घर का खर्चा नहीं चलता था। ऐसे में दोनों ने कुछ अलग हटकर व्यवसाय शुरू करने की योजना बनाई। तभी दोनों भाइयों के दिमाग में नर्सरी का व्यवसाय शुरू करने का आइडिया आया। मुख्य बात यह है, कि दोनों भाइयों ने किराए पर जमीन लेकर दो महीने पहले ही नर्सरी का व्यवसाय शुरू किया है। दोनों भाइयों का कहना है, कि यह एक ऐसा व्यवसाय है, जिससे आमदनी तो हो ही रही है, साथ में पर्यावरण भी स्वच्छ हो रहा है।

प्राइवेट स्कूल में शिक्षक की नौकरी किया करते थे

सुरजन सिंह का कहना है, कि पहले वे प्राइवेट स्कूल में टीचर की नौकरी करते थे। दरअसल, इससे उनको अच्छी आमदनी नहीं हो रही थी। इस वजह से उन्होंने नर्सरी का बिजनेस चालू करने की योजना बनाई। इसके पश्चात उन्होंने ट्रायल के रूप में एक छोटी सी नर्सरी लगाकर अपना व्यवसाय शुरू किया। इससे उनको काफी ज्यादा फायदा हुआ। इसके उपरांत दोनों भाइयों ने किराए पर भूमि लेकर बेहद बड़े इलाके में नर्सरी लगानी चालू कर दी। अब उनकी नर्सरी में काफी बड़ी तादात में लोग पौधे खरीदने आ रहे हैं। ये भी पढ़े: मैनेजर की नौकरी छोड़ की बंजर जमीन पर खेती, कमा रहे हैं लाखों

हजारों रुपए के पौधे इनकी नर्सरी में हैं

साथ ही, मोहर सिंह का कहना है कि इस नर्सरी में विभिन्न किस्मों के पौधे हैं। इनमें से कई पौधों को हमने कोलकाता से मंगवाया है, जिसकी अच्छी बिक्री हो रही है। इसके अतिरिक्त वह देसी पौधों को स्वयं ही नर्सरी में तैयार कर रहे हैं। फिलहाल, उनकी नर्सरी में 20 रुपए से लेकर 1200 रुपए तक के पौधे हैं। इससे आप यह आंकलन कर सकते हैं, कि किस किस तरह के पौधे इनकी नर्सरी में मौजूद हैं।
चाय की खेती आप अपने घर में भी आसानी से कर सकते हैं

चाय की खेती आप अपने घर में भी आसानी से कर सकते हैं

आपकी जानकरी के लिए बतादें, कि घर पर चाय उगाना एक बेहतरीन विकल्प साबित हो सकता है। दरअसल, आप इसको अपने घर में ही उगाकर उपयोग में ला सकते हैं। साथ ही, आप इसको बेच भी सकते हैं। हमारे भारत में हर घर में चाय के शौकीन मिल जाएंगे। ये चाय के चाहने वाले सुबह से लेकर रात तक ना जाने कितनी बार चाय पी लेते होंगे। अगर आप अथवा आपके घर में कोई चाय का दीवाना है, तो आपके लिए यह समाचार अत्यंत महत्वपूर्ण है। आज हम आपको जानकारी देंगे कि किस तरह आप घर में ही अदरक को उगा सकते हैं। साथ ही, बाजार से लाने के स्थान पर इसको इस्तेमाल में लिया जा सकता है। आप चाय को घर के बगीचे में बीजों की सहायता से उगा सकते हैं। इसे पैदा करने के लिए आप सर्व प्रथम इसके बीजों को भिगो लें। इन बीजों को अंकुरित होने तक जल में भिगो कर ही रखें। अगर आप चाय के पौधों को बीजों की मदद से नहीं पैदा करना चाहते हैं, तो आप इसे नर्सरी से भी खरीद सकते हैं। नर्सरी से लाने के पश्चात इसकी रोपाई करने की आवश्यकता होती है। ठीक तरह से इनकी देखभाल करने के उपरांत इसे आप उपयोग में ले सकते हैं।

चाय उत्पादन के लिए ये काम बेहद जरूरी हैं

बतादें, कि चाय का बेहतरीन उत्पादन पाने के लिए आप कहीं से भी उसकी कटिंग को लाकर लगा सकते हैं। बेहतर देखभाल करने के उपरांत बस कुछ ही दिनों में यह पौधे अपनी पकड़ भूमि में अच्छी बना लेते हैं। बतादें, कि इसके उत्पादन के दौरान तापमान का भी विशेष ख्याल रखना होता है। चाय की फसल 10 डिग्री से लेकर 35 डिग्री सेल्सियस तक बेहतरीन ढ़ंग से उगती है।

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असम के चाय उत्पादकों को सामान्य चाय उत्पादन की आशा चाय के पौधों को तैयार होने में लगभग एक वर्ष से लेकर डेढ़ वर्ष का समय लग जाता है। इसकी पत्तियों की तुड़ाई एक साल के अंदर तीन बार की जा सकती है। एक हेक्टेयर भूमि में लगभग 500 किलो तक चाय की पैदावार हो जाती है। आप चाय का इस्तेमाल अपने घर में कर सकते हैं। अगर आपका बगीचा बड़ा है, तो आप अत्यधिक मात्रा में चाय उत्पादन कर इसकी पैकिंग करके बाजार में भी बेच सकते हैं।

चाय की खेती के लिए उर्वरक की मात्रा

चाय के पौधों को उर्वरकों की ज्यादा आवश्यकता होती है। इसके लिए गड्डों को तैयार करने के दौरान उनमें 15 किलो के आसपास पुरानी गोबर की खाद एवं रासायनिक उर्वरक के तौर पर नाइट्रोजन 90 से 120 किलो, सिंगल सुपर फास्फेट 90 किलो एवं पोटाश 90 किलो की मात्रा को प्रति हेक्टेयर के हिसाब से पौधों में देना चाहिए। उर्वरक की यह मात्रा वर्ष में तीन बार पौधों की कटाई के पश्चात देनी चाहिए। इसके अतिरिक्त खेत में सल्फर का अभाव होने पर खेत में जिप्सम का छिडकाव शुरुआत में ही कर देना चाहिए।