अंगूर के बाग में कीटों के साथ साथ रोगों का भी प्रकोप होता है। रोगों के कारण अंगूर की उपज में काफी हद तक कमी आती है।
अंगूर की बीमारियों मुख्य रूप से मौसम की स्थिति, इनोकुलम (बीमारी का इतिहास) की उपस्थिति और बेलों की संवेदनशीलता पर निर्भर करती है।
इसका मतलब है कि एक बीमारी एक साल में विनाशकारी हो सकती है। इस लेख में हम आपको अंगूर में लगने वाले प्रमुख रोग, लक्षण और प्रबंधन के उपाय के बारे में जानकारी देंगे।
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रोग से प्रभावित पत्तियों की ऊपरी सतह पर अनियमित, पीले, पारदर्शी धब्बे दिखाई देते हैं। इसके अनुरूप, निचली सतह पर सफेद, पाउडर जैसा फफूंदीयुक्त विकास देखा जाता है।
प्रभावित पत्तियाँ पीली होकर भूरी पड़ जाती हैं और सूख जाती हैं। समय से पहले पत्तों का गिरना (defoliation) होता है। कोमल शाखाओं का रुक जाना या बौना रह जाना। तनों पर भूरे और गहरे धंसे हुए धब्बे बनते हैं।
बेरी (फलियों) पर सफेद फफूंदी दिखाई देती है, जो बाद में चमड़े जैसी होकर सिकुड़ जाती है। यदि बाद में संक्रमण होता है तो फलों में सड़न दिखाई देती है, लेकिन फल की त्वचा फटती नहीं है।
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पत्तियों की ऊपरी सतह पर सफेद चूर्ण जैसा फफूंद विकसित होता है। पत्तियों का आकार बिगड़ जाता है और रंग बदल जाता है। तना गहरा भूरा हो जाता है। फूलों पर संक्रमण होने से फूल झड़ जाते हैं और फल कम बनते हैं।
यदि शुरुआती अवस्था में बेरी संक्रमित होती है तो वह झड़ जाती है। पुराने फलों पर चूर्ण जैसा विकास साफ दिखाई देता है और संक्रमण के कारण फल की त्वचा फट जाती है।
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यह रोग सबसे पहले फलों पर गहरे लाल धब्बों के रूप में दिखाई देता है। बाद में ये धब्बे गोलाकार, धंसे हुए, राख जैसे भूरे हो जाते हैं और उनके चारों ओर गहरे रंग की सीमा बन जाती है, जिससे यह “बर्ड्स-आई रॉट” जैसा प्रतीत होता है।
धब्बों का आकार 1/4 इंच से लेकर फल के आधे हिस्से तक हो सकता है। यह फफूंद तने, टेंड्रिल, पत्तियों की नसों और डंठलों को भी प्रभावित करती है।
युवा तनों पर कई धब्बे दिखाई देते हैं जो आपस में मिलकर तने को घेर लेते हैं और उसका ऊपरी भाग मर जाता है। पत्तियों और डंठलों पर धब्बों के कारण वे मुड़ जाते हैं या विकृत हो जाते हैं।
इन रोगों का प्रमुख प्रभाव अंगूर की उपज और गुणवत्ता पर पड़ता है। विशेषकर यदि रोग का प्रारंभिक अवस्था में पता न लगाया जाए, तो यह पूरी फसल को नुकसान पहुँचा सकता है।
डाउन मिल्ड्यू नम और आद्र्र जलवायु में तेजी से फैलता है जबकि पाउडरी मिल्ड्यू शुष्क और गर्म परिस्थितियों में सक्रिय होता है। बर्ड्स-आई स्पॉट विशेष रूप से गीले मौसम में अधिक फैलता है।
समय-समय पर बाग की निगरानी, रोगग्रस्त भागों को काटकर हटाना, रोग प्रतिरोधी किस्मों का चयन करना और उचित छिड़काव कार्यक्रम अपनाना बहुत आवश्यक है।
जैविक विकल्पों में नीम आधारित उत्पाद या ट्राइकोडर्मा जैव फफूंदनाशी का भी उपयोग किया जा सकता है। रासायनिक दवाओं का प्रयोग करते समय उनके अनुशंसित मात्रा और छिड़काव के समय का पालन अवश्य करें, ताकि फसल और पर्यावरण दोनों सुरक्षित रहें।