वृंदावन में आयोजित अंतरराष्ट्रीय कृषि संगोष्ठी में पशुओं का पैराट्यूबरकुलोसिस रोग रहा चर्चा का महत्वपूर्ण विषय

Published on: 29-Oct-2024
Updated on: 19-Nov-2024
International Agricultural Symposium held in Vrindavan, focusing on Paratuberculosis disease in livestock and its impact on animal health and farming practices
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आपकी जानकारी के लिए बता दें कि 21.10.2024 से 25.10.2024 तक वृंदावन की विश्व-प्रसिद्ध कृष्ण नगरी में आयोजित इस संगोष्ठी में देश-विदेश के 80 से अधिक वैज्ञानिकों ने पशुओं में इस गंभीर रोग पर गहन विचार-विमर्श किया। 

आइए जानते है इस संगोष्ठी के बारे में विस्तार से -

संगोष्ठी में 18 देशों के वैज्ञानिक हुए शामिल

  • इस संगोष्ठी में 18 देशों के करीब 58 वैज्ञानिकों ने भाग लिया और अपने विचार साझा किए, पशुओं के पैराट्यूबरकुलोसिस रोग पर अधिक चर्चा हुई, क्योंकि पैराट्यूबरकुलोसिस एक लम्बे समय तक चलने वाला रोग है, जो इलाज-रहित बीमारियों की श्रेणी में आता है। 
  • इस रोग की पहचान और निदान पशुओं में करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य माना जाता है। 
  • इसके कारण गाय, भैंस, बकरी, भेड़, याक, मिथुन, ऊंट जैसे कई महत्वपूर्ण पशुओं का उत्पादन क्षमता में गिरावट आती है। 
  • यह संगोष्ठी हर दो साल में विश्व के विभिन्न शहरों में आयोजित की जाती है। इस श्रृंखला का यह 16वां आयोजन था, जो भारत के वृंदावन शहर में हुआ। 
  • इससे पहले यह केवल विकसित देशों में आयोजित हुई है, जैसे कि यूके, यूएसए, मैक्सिको, डेनमार्क, फ्रांस, इटली, जापान, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, स्पेन इत्यादि। 
  • अगली संगोष्ठी (17वीं ICP) के लिए जर्मनी को चुना गया है, और यह 2026 में जर्मनी में होगी।

इस आयोजन में दो वैज्ञानिकों को मिला लाइफ टाइम एचीवमेन्ट अवार्ड

डॉ0 शूरवीर सिंह एवं डॉ0 नेम सिंह को पैराटूयूबरकलोसिस रोग पर अनुसंधान एवं रोगथाम विषय पर उत्कृष्ट कार्य हेतु संगोष्ठी में लाइफ टाइम एचीवमेन्ट अवार्डष् से सम्मान्ति किया गया। 

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भारत में पैराट्यूबरकुलोसिस रोग पर कई दशक से हो रहा है अध्ययन

  • भारत में इस लाइलाज रोग पर कुछ कार्य 1950 के दशक में किया गया था, परंतु उस समय परीक्षण के लिए विदेश से जौहनिन मंगाया जाता था जो कारगर नहीं था। 
  • इस कारण भारत का जे.डी. (जॉनस डिजीज) नियंत्रण कार्यक्रम जल्दी ही समाप्त हो गया। 1950 से 1970 तक तकनीकी की कमी के कारण इस रोग पर अधिक शोध नहीं हो पाया। 
  • 1980 के दशक में केंद्रीय बकरी अनुसंधान संस्थान, मथुरा की स्थापना के बाद इस रोग पर अध्ययन का नया दौर शुरू हुआ।
  • भारत कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली ने इस संस्थान में दो वैज्ञानिकों (डॉ. शूरवीर सिंह और डॉ. नेम सिंह) को नियुक्त किया। 
  • डॉ. नेम सिंह ने पशु स्वास्थ्य विभाग के अध्यक्ष के रूप में कार्यभार संभाला। इस संस्थान की बकरियों में पैराट्यूबरकुलोसिस रोग की व्यापकता के चलते इससे उत्पन्न समस्याओं जैसे दस्त, कमजोरी, दूध और मांस उत्पादन में कमी, और गर्भधारण में गिरावट जैसी समस्याओं का सामना किया गया। 
  • बीमारी के फैलाव को रोकने के लिए टेस्ट और कॉलिंग विधि को अपनाया गया, लेकिन इसके प्रयोग से विशेष प्रभाव नहीं दिखा। 
  • इसके बाद, रोग पहचान के लिए एलाइजा और डीएनए तकनीक का उपयोग शुरू हुआ जिससे परीक्षण का समय कम हुआ, लेकिन रोग का प्रभाव बना रहा।
  • 2002 में, जब इस रोग के जीवाणु को दूध में पाया गया, तब टीके के बारे में विचार शुरू हुआ। 2004-2014 तक अथक प्रयासों से देश का पहला स्वदेशी टीका विकसित हुआ, जिसे चार प्रमुख घरेलू पशुओं (गाय, भैंस, बकरी और भेड़) पर परीक्षण किया गया। 
  • 16 सितंबर 2015 को सीएसआईआर के फाउंडेशन दिवस पर यह टीका भारत के केंद्रीय मंत्री डॉ. हर्षवर्धन द्वारा लॉन्च किया गया। 
  • इस स्वदेशी टीके को ड्रग कंट्रोलर जनरल से मान्यता मिली है। टीका रोगग्रस्त पशुओं में स्वास्थ्य सुधार और उत्पादन में वृद्धि का कारण बना। 
  • इसके प्रभावी परिणामों के कारण एनआरडीसी, नई दिल्ली ने इसे ‘सोसायटल अवार्ड’ से सम्मानित किया।
  • डॉ. शूरवीर सिंह जीएलए विश्वविद्यालय, मथुरा के बायोटेक विभाग में अभी भी शोध कर रहे हैं और केंद्र सरकार की विभिन्न संस्थाओं द्वारा वित्तपोषित परियोजनाओं के माध्यम से किसानों के पशुओं पर टीके का परीक्षण जारी है जिससे पशुओं की उत्पादकता बढ़ रही है।
  • डॉ. शूरवीर इस संगोष्ठी की आठवीं संगोष्ठी से लगातार भाग ले रहे हैं और उनके अनुरोध पर ही आईएपी, यूएसए ने 16वीं संगोष्ठी को वृंदावन में आयोजित करने की अनुमति दी।
  • इस संगोष्ठी का आयोजन जीएलए विश्वविद्यालय के सहयोग से 21-25 अक्टूबर 2024 तक हुआ, जिसमें 18 देशों से 54 से अधिक विदेशी वैज्ञानिकों और भारत से 25 वैज्ञानिकों ने भाग लिया। 
  • इस अवसर पर एलओसी और आईएपी द्वारा डॉ. शूरवीर सिंह (1984-2024) और डॉ. नेम सिंह (पूर्व निदेशक, आईवीआरआई, बरेली) को लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड से सम्मानित किया गया।

इस आयोजन को सफल बनाने में जीएलए विश्वविद्यालय के डॉ. ए.के. गुप्ता (उपकुलपति), डॉ. शूरवीर सिंह (ऑर्गनाइजिंग चेयर), डॉ. जगदीप सिंह सोहल (ऑर्गनाइजिंग सेक्रेटरी), डॉ. सौरव गुप्ता (कोऑर्गनाइजिंग सेक्रेटरी) और अन्य सदस्यों जैसे डॉ. नवभारत, डॉ. स्वरूप, डॉ. अंजना, डॉ. अनुजा, डॉ. हिमांशु और विभाग के जेआरएफ हर्षित बंसल, पीएचडी छात्र अंकुश, समीक्षा, विजय, नीरज, दीनदयाल, विशाल और सोहनलाल का विशेष योगदान रहा।