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वैज्ञानिकों ने तैयार की अरहर की नई किस्म, कम जल खपत में देगी अधिक उपज

वैज्ञानिकों ने तैयार की अरहर की नई किस्म, कम जल खपत में देगी अधिक उपज

राजस्थान राज्य में स्थित कोटा एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक ने अरहर की नई किस्म तैयार करली है। इस किस्म में कम पानी की आवश्यकता पड़ेगी, साथ ही आमदनी में भी इजाफा देखने को मिलेगा। देश के किसान दलहन, तिलहन एवं अन्य बागवानी फसलों का उत्पादन करके मोटी आय कर लेते हैं। आए दिन प्रदूषण में होने वाली वृद्धि के साथ-साथ खराब होती जलवायु का प्रभाव फसलों की पैदावार पर भी देखने को मिला है। अच्छी खेती के लिए अच्छा बीज होना भी अत्यंत आवश्यक है। बीज उत्पादकता बढ़ाने, कम जल खपत और बाकी गुणवत्ताओं से युक्त होना चाहिए। इस विषय को लेकर कृषि वैज्ञानिक निरंतर उन्नत किस्म के बीज विकसित करने के लिए शोध में लगे रहते हैं। हाल ही, में ऐसा ही शोध वैज्ञानिकों की तरफ से किया गया है। बतादें, कि अरहर के उन्नत बीज से देश के किसान अंधाधुंध कमाई कर सकेंगे। नवीन प्रजाति के आने से किसान काफी प्रशन्न हैं। 

वैज्ञानिकों ने अरहर की नई प्रजाति एएल-882 तैयार की है

भारत के अंदर बड़ी तादात में किसान दलहन फसलों की बुवाई करते हैं। मीडिया खबरों के मुताबिक, कोटा कृषि विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिक अरहद की नवीन किस्म को तैयार करने के लिए विगत 2 वर्षों से नई प्रजाति विकसित करने में जुटे हुए थे। अब जाकर वैज्ञानिकों के हाथ सफलता लग पाई है। वैज्ञानिकों ने अरहर की नई किस्म एएल-882 तैयार की है। इस प्रजाति के दानों का वजन सिर्फ 8 से 9 ग्राम के आसपास ही है। 

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इस किस्म से 16 से 19 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक

मुख्य बात यह है, कि अरहर के बीजों का वजन भी कुछ ज्यादा नहीं होता है। इनका वजन मात्र 8 से 9 ग्राम तक ही होता है। अरहर की इस किस्म की खासियत यह है, कि इसका उत्पादन 16 से 19 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक हो सकता है। ज्यादा उत्पादन होने की वजह से किसानों को बेहतरीन आमदनी भी हो सकेगी। साथ ही, यह नई किस्म रोग प्रतिरोधक किस्म है। वहीं, अरहर की इस किस्म में होने वाला उखटा रोग भी नहीं हो पाएगा।

आईसीएआर ने भी स्वीकृति प्रदान की है

अरहर की इस किस्म को इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च (icar) की तरफ से स्वीकृति भी दे दी गई है। किसान खेतों में इस किस्म के बीज का इस्तेमाल भी कर सकते हैं। इसके पौधों की ऊंचाई लगभग 200 से 210 सेमी होती है। दानों का रंग भूरा रहता है, अधिक पैदावार पाने के लिए फूल निकलने पर ही एनपीके घुलनशीन उर्वरक का नियमित मात्रा के अनुरूप छिड़काव किया जा सकता है।

चने की खेती कैसे करें एवं चने की खेती के लिए जानकारी

चने की खेती कैसे करें एवं चने की खेती के लिए जानकारी

यह कहावत आज भी ग्रामीण भारत में प्रचलित है। कच्चा चना घोडे को खिलाया जाता है, जो बेहद श्रमसाध्य काम करता है वहीं भुना हुआ चना बीमार मरीज को खिलाया जाता है जिनको कि लीबर में समस्या हो। यानी कि चना हर तरीके से और हर श्रेणी के मनुष्य और पशु दोनों के लिए उपयोगी है। चने की खेती यूंतो हर तरह की भारी मिट्टी में होती है लकिन जिन इलाकों में चने की खेती करना किसानों ने बंद कर दिया है वहां इसकी खेती एक दो किसानों के करने से तोता जैसे पक्षी ज्यादा नुकसान करते हैं। चना बहुत गुणकारी होता है। यह सभी जानते हैं लेकिन इसकी खेती के लिए कई चीजों का ध्यान रखना पड़ता है। नए किसान भाईयों के लिए यह जानना जरूरी है कि चने की खेती कैसे की जाती है। 

चने की खेती

चने की खेती के लिए हल्की दोमट या दोमट मिट्टी अच्छी होती है। भूमि में जल निकास की उपयुक्त व्यवस्था होनी चाहिये। भूमि में अधिक क्षारीयता नहीं होनी चाहिये।  फसल को दीमक एवं कटवर्म के प्रकोप से बचाने के लिए अन्तिम जुताई के समय हैप्टाक्लोर (4 प्रतिशत) या क्यूंनालफॉस (1.5 प्रतिशत) या मिथाइल पैराथियोन (2 प्रतिशत) चूर्ण की 25 कि.ग्रा. मात्रा को प्रति हैक्टेयर की दर से मिट्टी में अच्छी प्रकार मिलाना चाहिये। चने में अनेक प्रकार के कीट एवं बीमारियां हानि पहुँचाते हैं। इनके प्रकोप से फसल को बचाने के लिए बीज को उपचारित करके ही बुवाई करनी चाहिये। बीज को फफूंदनाशी कार्बन्डाजिम आदि, कीटनाशक कोई भी एक एवं राजोबियम कल्चर से उपचारित करें। बीज को उपचारित करके लिए एक लीटर पानी में 250 ग्राम गुड़ को गर्म करके ठंडा होने पर उसमें राइजोबियम कल्चर व फास्फोरस घुलनशील जीवाणु को अच्छी प्रकार मिलाकर उसमें बीज उपचारित करना चाहिये। तदोपरांत छांव में सुखाकर बीज की बिजाई करें। 

चने की बुबाई का समय

असिचिंत क्षेत्रों में चने की बुवाई अक्टूबर के प्रथम पखवाड़े में कर देनी चाहिये। जिन क्षेत्रों में सिंचाई की सुविधा हो वहाँ पर बुवाई 30 अक्टूबर तक अवश्य कर देनी चाहिये। बारानी खेती के लिए 80 कि.ग्रा. तथा सिंचित क्षेत्र के लिए 60 कि.ग्रा. बीज की मात्रा प्रति हैक्टेयर पर्याप्त होती है। बारानी फसल के लिए बीज की गहराई 7 से 10 से.मी. तथा सिंचित क्षेत्र के लिए बीज की बुवाई 5 से 7 से.मी. होनी चाहिये। फसल की बुवाई सीड ड्रिल से करनी चाहिए। 

चने की खेती में खाद एवं उर्वरक कितना डालें

  chane ki kheti 

 किसी भी दलहनी फलस को उर्वरकों की बेहद कम आवश्यकता होती है। नाइट्रोजन फिक्सेसन का काम दलहनी पौधों की जड़ों द्वारा खुद किया जाता है फिर भी उर्वकर प्रबंधन आवश्यक है। पौधों के प्रारंभिक विकास के लिए20 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40 कि.ग्रा. फॉस्फोरस प्रति हैक्टेयर की दर से देना चाहिये। एक हैक्टेयर क्षेत्र के लिए 2.5 टन कस्पोस्ट खाद को भूमि की तैयारी के समय अच्छी प्रकार से मिट्टी में मिला देनी चाहिये।

 

अच्छी पैदाबार के लिए चने की उन्नत किस्में

    chane ki kisme 

 विविधताओं वाले देश में अनेक तरह की पर्यावरणीय परिस्थिति हैं। इनके अनुरूप ही वैज्ञानिकों ने चने की उन्नत किस्मों का विकास किया है। एनबीईजी 119 किस्म 95 दिन में पक कर 19 कुंतल उपज देती है। इसे कर्नाटक, एपी, तमिलनाडु में लगाया जा सकता है। फुले विक्रांत किस्म 110 दिन में तैयार होकर 21 कुंतल उपज देती है। महाराष्ट्र, वेस्ट एमपी एवं गुजरात में लगाने योग्य। अरवीजी 202 किस्म 100 दिन में 20 कुंतल एवं अरवीजी 203 किस्म 100 दिन में 19 कुंतल उपज देती है। उक्त क्षेत्रों में बिजाई योग्य। 

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 एचसी 5 किस्म 140 दिन में 20 कुंतल उपज एवं पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान, उत्तराखण्ड में बोने योग्य। जीबीएम 2 किस्म 110 दिन में 20 कुंतल उपज एवं कर्नाटक, एनबीईजी 47 किस्म 95 दिन में 25 कुंतल प्रति हैक्टेयर तक उपज देती है। आंध्र प्रदेश में लगाने योग्य। फुले जी 115 दिन में 23 कुंतल, बीजी 3062 किस्म 118 दिन में 23 कुंतल, जेजी 24 किस्म 110 दिन में 23 कुंतल तक उपज देती हैं। उक्त किस्मों को महाराष्ट्र, एमपी, गुजरात, यूपी, दक्षिणी राजस्थान आदि क्षेत्रों में लगाया जा सकता है। 

चने की खेती के लिए सिंचाई  

 chnae ki sinchai 

 सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हो तो नमी की कमी होने की स्थिति में एक या दो सिंचाई की जा सकती है। पहली सिंचाई 40 से 50 दिनों बाद तथा दूसरी सिंचाई फलियां आने पर की जानी चाहिये। सिचिंत क्षेत्रों में चने की खेती के लिए 3 से 4 सिंचाई पर्याप्त होती है। पहली सिंचाई फसल की निराई करने के बाद 35-40 दिन बाद,  70-80 दिन बाद दूसरी एवं 105-110 दिनों बाद अन्तिम सिंचाई करनी चाहिये।

चने में खरपतवार नियंत्रण   chana kharatpwar 

 चने में बथुआ, खरतुआ, मोरवा, प्याजी, मोथा, दूब इत्यादि उगते हैं। ये खरपतवार फसल के पौधों के साथ पोषक तत्वों, नमी, स्थान एवं प्रकाश के लिए प्रतिस्पर्धा करके उपज को प्रभावित करते हैं। इसके अतिरिक्त खरपतवारों के द्वारा फसल में अनेक प्रकार की बीमारियों एवं कीटों का भी प्रकोप होता है जो बीज की गुणवत्ता को भी प्रभावित करते हैं। 

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बचाव के लिए चने की फसल में दो बार गुड़ाई करना पर्याप्त होता है। प्रथम गुड़ाई फसल बुवाई के 30-35 दिन पश्चात् व दूसरी 50-55 दिनों बाद करनी चाहिये। यदि मजदूरों की उपलब्धता न हो तो फसल बुवाई के तुरन्त पश्चात् पैन्ड़ीमैथालीन की 2.50 लीटर मात्रा को 500 लीटर पानी में घोल बनाकर खेत में समान रूप से मशीन द्वारा छिड़काव करना चाहिये। फिर बुवाई के 30-35 दिनों बाद एक गुड़ाई कर देनी चाहिये।

 

चने के कीट एवं रोग

यदि खड़ी फसल में दीमक का प्रकोप हो तो क्लोरोपाइरीफोस 20 ईसी या एन्डोसल्फान 35 ईसी की 2 से 3 लीटर मात्रा को प्रति हैक्टेयर की दर से सिंचाई के साथ देनी चाहिये। ध्यान रहे दीमक के नियन्त्रण हेतु कीटनाशी का जड़ों तक पहुँचना बहुत आवश्यक है। कटवर्म की लटें ढेलों के नीचे छिपी होती है तथा रात में पौधों को जड़ों के पास काटकर फसल को नुकसान पहुँचाती हैं। कटवर्म के नियंत्रण हेतु मिथाइल पैराथियोन 2 प्रतिशत या क्यूनालफास 1.50 प्रतिशत चूर्ण की 25 किलोग्राम मात्रा को प्रति हैक्टेयर की दर से भुरकाव शाम के समय करना चाहिये।

 

फली छेदक

  fali chedak 

 यह कीट फली के अंदर घुस कर दानों को खा जाता है। इस कीट के नियंत्रण हेतु फसल में फूल आने से पहले तथा फली लगने के बाद क्यूनालफॉस 1.5 प्रतिशत या मिथाइल पैराथियोन 2 प्रतिशत चूर्ण की 20-25 कि.ग्रा. मात्रा को प्रति हैक्टेयर की दर से भुरकना चाहिये। पानी की उपलब्धता होने पर मोनोक्रोटोफॉस 35 ईसी या क्यूनॉलफोस 25 ईसी की 1.25 लीटर मात्रा को 500 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हैक्टेयर की दर से फसल में फूल आने के समय छिड़काव करना चाहिये। 

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झुलसा रोग (ब्लाइट)

यह बीमारी एक फफूंद के कारण होती है। इस बीमारी के कारण पौधें की जड़ों को छोड़कर तने पत्तियों एवं फलियों पर छोटे गोल तथा भूरे रंग के धब्बे बन जाते है। पौधे की आरम्भिक अवस्था में जमीन के पास तने पर इसके लक्षण स्पष्ट रूप से दिखाई देते है। पहले प्रभावित पौधे पीले व फिर भूरे रंग के हो जाते है तथा अन्ततः पौधा सूखकर मर जाता है। इस रोग के लक्षण दिखाई देने पर मैन्कोजेब नामक फफूंदनाशी की एक कि.ग्रा. या घुलनशील गन्धक की एक कि.ग्रा. या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड की 1.30 कि.ग्रा.मात्रा को 500 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिये। 10 दिनों के अन्तर पर 3-4 छिड़काव करने पर्याप्त होते है।


 

उखटा रोग (विल्ट)

  ukhta rog 

 इस बीमारी के लक्षण जल्दी बुवाई की गयी फसल में बुवाई के 20-25 दिनों बाद स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगते हैं। देरी से बोई गयी फसल में रोग के लक्षण फरवरी व मार्च में दिखाई देते हैं। पहले प्रभावित पौधे पीले रंग के हो जाते हैं तथा नीचे से ऊपर की ओर पत्तियाँ सूखने लगती हैं अन्ततः पौधा सूखकर मर जाता है। इस रोग के नियन्त्रण हेतु भूमि में नमी की कमी नही होनी चाहिये। यदि सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हो तो बीमारी के लक्षण दिखाई देते ही सिंचाई कर देनी चाहिये। रोग रोधी किस्मों जैसै आरएसजी 888ए सी 235 तथा बीजी 256 की बुवाई करनी चाहिये। 

किट्ट (रस्ट)

इस बीमारी के लक्षण फरवरी व मार्च में दिखाई देते हैं। पत्तियों की ऊपरी सतह पर फलियों पर्णवृतों तथा टहनियों पर हल्के भूरे काले रंग के उभरे हुए चकत्ते बन जाते हैं। इस रोग के लक्षण दिखाई देने पर मेन्कोजेब नामक फफूंदनाशी की एक कि.ग्रा. या घुलनशील गन्धक की एक कि.ग्रा. या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड की 1.30 कि.ग्रा. मात्रा को 500 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिये। 

पाले से फसल का बचाव

  chane ki khetti 

 चने की फसल में पाले के प्रभाव के कारण काफी क्षति हो जाती है। पाले के पड़ने की संम्भावना दिसम्बर-जनवरी में अधिक होती है। पाले के प्रभाव से फसल को बचाने के लिए फसल में गन्धक के तेजाब की 0 .1 प्रतिशत मात्रा यानि एक लीटर गन्धक के तेजाब को 1000 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिये। पाला पड़ने की सम्भावना होने पर खेत के चारों और धुआं करना भी लाभदायक रहता है।

जानिए चने की बुआई और देखभाल कैसे करें

जानिए चने की बुआई और देखभाल कैसे करें

चने की दाल, बेसन, हरे चने, भीगे चने, भुने चने, उबले चने, तले चने की बहुत अधिक डिमांड हमेशा रहती है। इसके अलावा चने के बेसन से नमकीन व मिठाइयां सहित अनेक व्यंजन बनने के कारण इसकी मांग दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। इससे चने के दाम भी पहले की अपेक्षा में काफी अधिक हैं। किसान भाइयों के लिए चने की खेती करना फायदे का सौदा है।

कम मेहनत से अधिक पैदावार

चने की खेती बंजर एवं पथरीली जमीन पर भी हो जाती है। इसकी फसल के लिए सिंचाई की भी अधिक आवश्यकता नहीं होती है। न हीं किसान भाइयों को इसकी खेती के लिए अधिक मेहनत ही करनी पड़ती है लेकिन इस की खेती की निगरानी अवश्य ही अन्य फसलों की अपेक्षा अधिक करनी होती है। आइये जानते हैं कि चने की बुआई किस प्रकार से की जाती है।

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असिंचित क्षेत्रों में होती है अधिकांश खेती

रबी के सीजन की यह फसल असिंचित क्षेत्रों में अधिक की जाती है जबकि सिंचित क्षेत्रों में चने की खेती कम की जाती है। सिंचित क्षेत्र में काबुली चने की खेती अधिक की जाती है। शरदकालीन फसल होने की वजह से से इसकी खेती कम वर्षा वाले तथा हल्की ठंडक वाले क्षेत्रों में की जा सकती है। चने की खेती के लिए दोमट व मटियार भूमि सबसे उत्तम मानी जाती है लेकिन दोमट, भारी दोमट मार, मडुआ, पड़आ, पथरीली, बंजर भूमि पर भी चने की  खेती की जा सकती है। काबुली चना के लिए अच्छी भूमि चाहिये। दक्षिण भारत में मटियार दोमट तथा काली मिट्टी में काबुली चने की फसल की जाती है। इस तरह की मिट्टी में नमी अधिक और लम्बे समय तक रहती है। ढेलेदार मिट्टी में भी देशी चने की फसल ली जा सकती है। इसलिये देश के सूखे पठारीय क्षेत्रों में चने की खेती अधिकता से की जाती है।  चने की खेती वाली जमीन के लिए यह देखना होता है कि खेत में पानी तो नहीं भरा रहता है। जलजमाव वाले खेतों में चना की खेती नहीं की जा सकती है। ढलान वाले खेतों में भी चने की खेती की जा सकती है। खेत को तैयार करने के लिए किसान भाइयों को चाहिये कि पहली बार जुताई मिट्टी को पलटने वाले हल से करनी चाहिये। उसके बाद क्रास जुताई करके पाटा लगायें। चने की फसल के बचाव हेतु दीपक एवं कटवर्म के रोधी कीटनाशक का इस्तेमाल अंतिम जुताई के समय करें। उस समय हैप्टाक्लोर चार प्रतिशत या क्यूनालफॉस 1.5 प्रतिशत अथवा मिथाइल पैराथियोन 2 प्रतिशत अथवा एन्डोसल्फॉन 1.5 प्रतिशत चूर्ण को 25 किलो मिट्टी में में अच्छी प्रकार से मिलाएं फिर खेत में फैला दें।

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बुआई कब करें

चने की बुआई के समय की बात करें तो उत्तर भारत में चने की बुआई नवम्बर के प्रथम पखवाड़े में होती है। वैसे देश के मध्य भाग में इससे पहले भी चने की बुआई शुरू हो जाती है। सिंचित क्षेत्र में चने का बीज प्रति हेक्टेयर 60 किलो तक लगता है। काबुली चना का बीज 80 से 90 किलो प्रति हेक्टेयर लगता है तथा छोटे दानों वाली चने की किस्मों की खेती में असिंचित क्षेत्र के लिए 80 किलो तक बीज बुआई में लगता है। अधिक पैदावार लेने के लिए तथा पछैती फसल के लिए 20 से 25 प्रतिशत तक अधिक बीज का उपयोग करना होगा। चने की खेती को अनेक प्रकार के कीट व रोग नुकसान पहुंचाते हैं। इस नुकसान से पहले चने की बुआई से पहले बीज का उपचार व शोधन करना होगा। किसान भाइयों सबसे पहले चने के बीज को फफूंदनाशी, कीटनाशी और राजोबियम कल्चर से उपचारित करें।  चने की खेती को उखटा व जड़ गलन रोग से बचाव करने के लिए बीज को कार्बेन्डाजिम या मैन्कोजेब या थाइरम की 2 ग्राम से प्रतिकिलो बीज को उपचारित करें। दीपक व अन्य भूमिगत कीटों से बचाने के लिए क्लोरोपाइरीफोस 20 ईसी या एन्डोसल्फान 35 ईसी की 8 मिलीलीटर मात्रा से प्रतिकिलो बीज को उपचारित करें। इसके बाद राइजोबियम कल्चर के तीन व घुलनशील फास्फोरस जीवाणु के तीन पैकेटों से बीजों को उपचारित करें। बीज को उपचारित करने के लिए 250 ग्राम गुड़ को एक लीटर पानी में गर्म करके घोले और उसमें राइजोबियम कल्चर व फास्फोरस के घुलनशील जीवाणु को अच्छी प्रकार से मिलाकर बीज उपचारित करें। उपचार करने के बाद बीजों को छाया में सुखायें। किसान भाई चने की बुआई करते समय पौधों का अनुपात सही रखें तो फसल अच्छी होगी। अधिक व कम पौधों से फसल प्रभावित हो सकती है। सही अनुपात के लिए बीज की लाइन से लाइन की दूरी एक से डेढ़ फुट की होनी चाहिये तथा पौधे से पौधे की दूरी 10 सेंटीमीटर होनी चाहिये। बारानी फसल के लिए बीज की गहराई 7 से 10 सेंटीमीटर अच्छी मानी जाती है और सिंचित क्षेत्र के लिए ये गहराई 5 से 7 सेंटी मीटर ही अच्छी मानी जाती है। चने की खेती की देखभाल कैसे करें

चने की खेती की देखभाल कैसे करें

सबसे पहले किसान भाइयों को चने की खेती की बुआई के बाद खरपतवार नियंत्रण पर ध्यान देना होगा क्योंकि खरपतवार से 60 प्रतिशत तक फसल खराब हो सकती है। बुआई के तीन दिन बाद खरपतवार नासी डालें। उसके 10 दिन बाद फिर खेत का निरीक्षण करें यदि खरपतवार दिखता है तो उसकी निराई गुड़ाई करें। इस दौरान पौधों की उचित दूरी का अनुपात भी सही कर लें। अधिक घने पौधे हों तो पौधों को निकालकर उचित दूरी बना लें। साथ ही गुड़ाई कर लें ताकि चने के पौधों की जड़ें मजबूत हो जायें।

सिंचाई प्रबंधन

चने की फसल का अधिक पानी भी दुश्मन होता है। अधिक पानी से पौधों की बढ़वार अधिक लम्बी हो जाती है, जिससे चने कम आते हैं और हवा आदि से पेड़ गिरकर नष्ट भी हो जाते हैं। इसके अलावा खेत में यदि पानी भरता हो तो बरसात होने के समय सावधानी बरतें और जितनी जल्दी हो सके पानी को खेत से निकालें। चने की फसल में बहुत जरूरत होने पर एक सिंचाई कर दें। यदि वर्षा हो जाये तब जमीन की नमी को परखें उसके बाद ही सिंचाई करें।

खाद एवं उर्वरक प्रबंधन

आम तौर पर चने की खेती के लिए 40 किलो फास्फोरस, 20 किलो पोटाश, 20 किलो गंधक, 20 किलो नाइट्रोजन का इस्तेमाल किया जाता है। जिन क्षेत्रों की मिट्टी में बोरान अथवा मोलिब्डेनम की मात्रा कम हो तो वहां पर किसान भाइयों को 10 किलोग्राम बोरेक्स पाउडर या एक किलो अमोनियम मोलिब्डेट का इस्तेमाल करना चाहिये। असिंचित क्षेत्रों में नमी में कमी की स्थिति में 2 प्रतिशत यूरिया के घोल का छिड़काव फली बनने के समय करें।

कीट नियंत्रण के उपाय करें

चने की फसल में मुख्य रूप से फली छेदक कीट लगता है। पछैती फसलों में इसका प्रकोप अधिक होता है। इसके नियंत्रण के लिए इण्डेक्सोकार्ब, स्पाइनोसैड, इमाममेक्टीन बेन्जोएट में से किसी एक का छिड़काव करें। नीम की निबौली के सत का भी प्रयोग कर सकते हैं। इसके अलावा दीमक, अर्द्धकुण्डलीकार, सेमी लूपर कीट लगते हैं। इनका उपचार समय रहते करना चाहिये। चने की खेती में रोग एवं रोकथाम

रोग एवं रोकथाम

1.चने की खेती में उकठा या उकड़ा रोग लगता है। यह एक तरह का फफूंद है और यह मिट्टी या बीज से जुड़ी बीमारी है। इस बीमारी से पौधे मरने लगते हैं। इससे बचाव के लिए समय पर बुआई करें। बीज को गहराई में बोयें। 2.ड्राई रूट रॉट का रोग मिट्टी जनित रोग है। इइस बीमारी के प्रकोप से पौधों की जड़ें अविकसित एवं काली होकर सड़ने और टूट जाती है। इस तरह से पूरा पौधा ही नष्ट हो जाता है। बाद में पौधा भूसे के रूप में बदल जाता है। 3.कॉलर रॉट रोग से पौधे पीले होकर मर जाते हैं। यह रोग बुआई के डेढ़ माह बाद ही लगना शुरू हो जाता है। कांबूडाजिम के या बेनोमिल के घोल से छिड़काव करें। इसके अलावा चांदनी, धूसर फफूंद, हरदा रोग, स्टेम फिलियम ब्लाइट, मोजेक बौना रोग चने की फसल को नुकसान पहुंचाती है।
पंडाल तकनीकी से कुंदरू की खेती करके मिल रहा दोगुना उत्पादन

पंडाल तकनीकी से कुंदरू की खेती करके मिल रहा दोगुना उत्पादन

नई दिल्ली। सामान्यतः भारत में कुंदरू या कुंदुरी (Kundru, Coccinia grandis, Kovakka अथवा Coccinia indica or Coccinia Ivy Gourd) की बहुत ज्यादा लोकप्रियता नहीं है। लेकिन आज देश भर की मंडियों में कुदरु की अच्छी मांग है। मंडियों में बढ़ती मांग को देखते हुए किसानों ने कुंदरू की खेती शुरू कर दी है। कुछ स्थानों पर पंडाल लगाकर कुंदरू की खेती की जा रही है। इससे किसान को फसल का दोगुना उत्पादन मिल रहा है। आंध्र प्रदेश के नरसारावपेट मंडल के गांव मुल्कालूरु के रहने वाले किसान आदित्य नारायन रेड्डी अपनी पत्नी सुशीला के साथ बीते 30 वर्षों से खेती कर रहे हैं। हर साल दोनों पति-पत्नी खेती में नए-नए प्रयोग करते हैं। उनके पास स्वंय की 3 एकड़ जमीन है, जिसमें वह सब्जियां ही उगाते हैं। इस साल उन्होंने अपने एक एकड़ खेत में पंडाल लगाकर कुंदरू की खेती की, जिसमें दोगुना उत्पादन हुआ।
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पंडाल लगाने के लिए किसान ने बैंक से लिया था 2 लाख का लोन

अपनी फसल का उत्पादन बढ़ाने और मेहनत को कम करने के लिए किसान आदित्य नारायण रेड्डी ने बैंक से 2 लाख रुपए का लोन लिया था, जिस पर आंध्र प्रदेश जल क्षेत्र सुधार परियोजना के तहत एक लाख रुपये की सब्सिडी मिली। इस तरह कुल 3 लाख रुपए की लागत से किसान ने अपने खेत पर पंडाल लगाया और आज उसी पंडाल के खेत में कुंदरु कर खेती करके अच्छा मुनाफा कमा रहे हैं।

अर्थ स्थाई पंडाल विधि से खेत में लगाया पंडाल

किसान आदित्य नारायण रेड्डी ने एक ट्रेनिंग प्रोग्राम में अर्थ स्थाई पंडाल विधि (permanent pandals for Creeper vegetables cultivation) सीखकर, 3 लाख रुपए की लागत से अपने खेत में पंडाल लगाया। अर्थ स्थाई पंडाल लगाने से उनका उत्पादन दोगुना यानी 40 टन हो गया। कुंदरू की खेती में प्रति एकड़ लागत तकरीबन 2 लाख रुपये आती है और 40 टन माल को बेचकर करीब 3 लाख रुपए की आमदनी होती है। इस तरह प्रति एकड़ एक लाख रुपए मुनाफा हो जाता है।
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पंडाल विधि में हर दो साल बाद बदलने होते हैं बांस

किसान आदित्य नारायण रेड्डी ने जानकारी देते हुए बताया कि पंडाल खेती में हर दो साल बाद पंडाल के बांस बदलने होते हैं, जिससे पंडाल सुरक्षित व मजबूत बना रहता है और फसल के लिए उपयोगी रहता है। उन्नत शील किसान आज पंडाल विधि से खेती करने के लिए दूसरे किसानों को प्रेरित कर रहे हैं।

सुशीला रेड्डी को मिल चुका है जिले की सर्वश्रेष्ठ महिला का खिताब

किसान आदित्य नारायण रेड्डी की पत्नी सुशीला रेड्डी को साल 2010 में जिले की सर्वश्रेष्ठ महिला का खिताब मिल चुका है। आज सुशीला रेड्डी अपने क्षेत्र के किसानों को प्रशिक्षण देती हैं और खेती से जुड़ी जानकारियां देकर किसानों की मदद कर रहीं हैं।
दलहन की कटाई: मसूर चना [Dalhan ki katai: Masoor, Chana]

दलहन की कटाई: मसूर चना [Dalhan ki katai: Masoor, Chana]

दलहन

दलहन वनस्पतियों की दुनिया में दलहन प्रोटीन का मुख्य स्त्रोत माना जाता है। दलहन द्वारा ही हम  प्रोटीन को सही ढंग से प्राप्त कर पाते हैं। दलहन का अर्थ दाल होता है।दलहन में कई तरह की
दाल की खेती होती है: जैसे राजमा, उड़द की दाल, मूंग की दाल, मसूर की दाल, मटर की दाल, चने की दाल, अरहर की दाल, कुलथी आदि। दलहन की बढ़ती उपयोगिता को देखते हुए इसके दामों में भी काफी इजाफा हो रहे हैं। दलहन के भाव आज भारतीय बाजारों में आसमान छू रहे हैं।

दाल में मौजूद प्रोटीन:

कई तरह के दलहन [variety of grams] दालों में लगभग 50% प्रोटीन मौजूद होते हैं तथा 20% कार्बोहाइड्रेट और करीबन 48% फाइबर की मात्रा मौजूद होती है इसमें सोडियम सिर्फ एक पर्सेंट होता है। इसमें कोलेस्ट्रोल ना के बराबर पाया जाता है। वेजिटेरियन के साथ नॉनवेजिटेरियन को भी दाल खाना काफी पसंद होता है।दाल हमारी पाचन क्रिया में भी आसानी से पच जाती है ,तथा पकाने में भी आसान होती है, डॉक्टर के अनुसार दाल कहीं तरह से हमारे शरीर के लिए फायदेमंद है।

दाल (दलहन) कौन सी फसल है :

यह प्रोटीन युक्त पदार्थ है दाल पूर्व  रूप से खरीफ की फसल है। हर तरह की दालों को लेगयूमिनेसी कुल की फसल कहा जाता है।   दालों  की जड़ों में आपको राइजोबियम नामक जीवाणु मिलेंगे। जिसका मुख्य कार्य वायुमंडल में मौजूद नाइट्रोजन को नाइट्रेट में बदलना होता है तथा मृदा की उर्वरता को बढ़ाता है।

मसूर की दाल कौन सी फसल होती है:

मसूर की दाल यानी (lentil )यह रबी के मौसम में उगाने वाली दलहनी फसल है।मसूर दालों के क्षेत्र में मुख्य स्थान रखती है। यह मध्य प्रदेश के असिंचित क्षेत्रों में उगाई जाने वाली फसल है।

मसूर दाल की खेती का समय:

मसूर दलहन [dalhan - masoor dal ki kheti] मसूर दाल की खेती करने का महीना अक्टूबर से दिसंबर के बीच का होता है।जब इस फसल की बुआई होती है रबी के मौसम में, इस फसल की खेती के लिए दो मिट्टियों का उपयोग किया जाता है:
  1. दोमट मिट्टी

  2. लाल लेटराइट मिट्टी

खेती करने के लिए लाल मिट्टी बहुत ही ज्यादा लाभदायक होती है, उसी प्रकार लाल लेटराइट मिट्टी द्वारा आप अच्छी तरह से खेती कर सकते हैं।

मसूर दाल का उत्पादन करने वाला प्रथम राज्य :

मसूर दाल को उत्पाद करने वाला सबसे प्रथम क्षेत्र मध्य प्रदेश को माना गया है।आंकड़ों के अनुसार लगभग 39. 56% तथा 5.85 लाख हेक्टेयर में इस दाल की बुवाई की जाती है। जिसके अंतर्गत यह प्रथम स्थान पर आता है। वहीं दूसरी ओर उत्तर प्रदेश व बिहार दूसरी श्रेणी में आता है। जो लगभग 34.360% तथा 12.40% का उत्पादन करता है। मसूर दाल का उत्पादन उत्तर प्रदेश में 36.65% और (3.80लाख टन) होता है।मध्यप्रदेश में करीब 28. 82% मसूर दाल का उत्पादन करते हैं। ये भी पढ़े: दलहन की फसलों की लेट वैरायटी की है जरूरत

चना:

Chana चना एक दलहनी फसल है।चना देश की सबसे महत्वपूर्ण कही जाने वाली दलहनी फसल है। इसकी बढ़ती उपयोगिता को देखते हुए इसे दलहनो का राजा भी कहा जाता है। चने में बहुत तरह के प्रोटीन मौजूद होते हैं। इसमें प्रोटीन, वसा, कार्बोहाइड्रेट , जैसे तत्व मौजूद होते हैं।

चने की खेती का समय

चने की खेती को अक्टूबर के महीने में बोया जाता है। इसकी खेती अक्टूबर के शुरू महीने में करनी चाहिए , जहां पर सिंचाई की संभावना अच्छी हो , उन क्षेत्रों में इसको 30 अक्टूबर से बोना शुरू कर दिया जाता है। अच्छी फसल पाने के लिए इसकी इकाइयों को अधिक बढ़ाना चाहिए।

चना कौन सी फसल है

चना रबी की फसल होती है।इसको उगाने के लिए आपको गर्म वातावरण की जरूरत पड़ती है। रबी की प्रमुख फसलों में से चना भी एक प्रमुख फसल है।

चने की फसल सिंचाई

किसानों द्वारा हासिल की गई जानकारी के अनुसार चने की फसल बुवाई करने के बाद 40 से 60 दिनों के बाद इसकी सिंचाई करनी चाहिए।फसल में पौधे के फूल आने से पूर्व यह सिंचाई की जाती है। दूसरी सिंचाई किसान पत्तियों में दाना आने के समय करते हैं।

चने की फसल में डाली जाने वाली खाद;

  • किसान चने की फसल के लिए डीएपी खाद का इस्तेमाल करते हैं जो खेती के लिए बहुत ही ज्यादा उपयोगी साबित होती है।
  • इस खाद का प्रयोग चने की फसल लगाने से पहले किया जाता है।खाद को फसल उगाने से पहले खेत में छिड़का जाता है।
  • डीएपी खाद से फसल को सही मात्रा में नाइट्रोजन प्राप्त होता है।
  • खाद के द्वारा फसल को नाइट्रोजन तथा फास्फोरस की प्राप्ति होती है।
  • इसके उपयोग के बाद यूरिया की भी कोई आवश्यकता नहीं पड़ती है।

चने की अधिक पैदावार के लिए क्या करना होता है:

Chane ki kheti चने की अधिक पैदावार के लिए किसान 3 वर्षों में एक बार ग्रीष्मकालीन की अच्छी तरह से गहरी जुताई करते हैं जिससे फसल की पैदावार ज्यादा हो। किसान प्यूपा को नष्ट करने का कार्य करते हैं। अधिक पैदावार की प्राप्ति के लिए पोषक तत्व की मात्रा में मिट्टी परीक्षण किया जाता है। जब खेत में फूल आते हैं तो किसान T आकार की खुटिया लगाता है।फूल निकलते ही सारी खुटिया को निकाल दिया जाता है।अच्छी खेती के लिए  फेरोमेन ट्रैप्स इस्तेमाल करें।जब फसल की ऊंचाई 15 से 20 सेंटीमीटर तक पहुंच जाए, तो आप खेत की कुटाई करना शुरू कर दें, शाखाएं निकलने व फली आने पर खेत की अच्छे से सिंचाई करें। ये भी पढ़े: धमाल मचा रही चने की नई किस्में

निष्कर्ष

दलहन की कटाई मसूर ,चना से जुड़ी सभी सभी प्रकार की जानकारिया जो आपके लिए फायदेमंद होगी। हमने अपनी इस पोस्ट के जरिए दी है, यदि आपको हमारी पोस्ट के जरिए दी गई जानकारी पसंद आई हो, तो आप ज्यादा से ज्यादा हमारे इस आर्टिकल को सोशल मीडिया पर शेयर करें।
जानिए किस प्रकार घर पर ही मसूर की दाल से जैविक खाद तैयार करें

जानिए किस प्रकार घर पर ही मसूर की दाल से जैविक खाद तैयार करें

बागवानी में हम जिन खादों का इस्तेमाल करते हैं, उनमें जैविक खादों का अपना अहम महत्व होता है। बहुत सारी खादों को हम घर पर ही तैयार कर सकते हैं। आज हम आपको मसूर की दाल से निर्मित होने वाली खाद के विषय में बताने जा रहे हैं। आपको इस खाद को तैयार करने के लिए सिर्फ दो मुठ्ठी मसूर की दाल की आवश्यकता होती है। दरअसल, आप अपने घर के लगभग सभी गमलों में इसका प्रयोग कर सकते हैं। मसूर की दाल से खाद निर्मित किए जाते हैं। खाद अथवा उर्वरक पोधों के पोषण के लिए तो आवश्यक होने के साथ-साथ उनके विकास में भी मददगार साबित होती है। हम घर में बागवानी करते समय विभिन्न प्रकार की जैविक और अजैविक खादों का इस्तेमाल करते हैं। दरअसल, इस लेख में हम आपको बागवानी में इस्तेमाल होने वाली एक ऐसी खाद के विषय में बताएंगे, जिसे निर्मित करने में आपको किसी भी अतिरिक्त सामग्री की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। साथ ही, घर में मौजूद सामग्रियों के जरिए से आप यह खाद घर पर ही बना सकते हैं। दरअसल, इस खाद को हम मसूर की दाल से निर्मित करते हैं। साथ ही, इसका इस्तेमाल हम घर की बागवानी वाले पौधों के लिए भी कर सकते हैं।

खाद तैयार करने की विधि

मसूर की दाल की बात की जाए तो इसमें वे समस्त पोषक तत्व विघमान होते हैं, जिनके चलते पौधों में विकास और वृद्धि को रफ्तार मिलती है। इसको तैयार करने के लिए आपको सबसे पहले दो मुठ्ठी दाल को तकरीबन आधा लीटर पानी में डाल लें। पानी में इस दाल को 4 से 5 घंटे तक रखें। यदि मौसम सर्दी का है, तो आप इसको रात भर भिगो कर रख सकते हैं।

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पानी का मिश्रण किस अनुपात में किया जाए

पौधों में इस खाद को डालने के लिए सर्व प्रथम पानी और दाल को अलग कर लेना है। आपको दाल के भिन्न किए गए पानी में 1:5 के अनुपात में पानी और मिला लेना है। इस पानी को पौधों में एक स्प्रे बोतल से छिड़काव के साथ में पौधों की मृदा में पानी को डाल देना है। यह पानी बहुत सारे पोषक तत्वों से भरपूर होता है, जिसकी वजह से पौधों में होने वाले विकास में वृद्धि होती है। आपको इस बात का विशेष ख्याल रखना है, कि यह पानी आपको पौधों में एक माह में केवल एक बार ही देना है। पानी से केवल पौधों की मिट्टी की ऊपरी सतह भीगने तक ही सिंचाई करनी चाहिए।

किस प्रकार प्रयोग करें

किसान भाइयों यदि आप इस दाल के पानी से खाद तैयार करना चाहते हैं, तो आपको एक बार के इस्तेमाल के पश्चात उस दाल को फेंकना नहीं है। क्योंकि, एक बार के उपयोग के पश्चात भी इसके पोषक तत्व खत्म नहीं होते हैं। आप इस दाल का इस्तेमाल तीन बार तक कर सकते हैं। पौधों में इस खाद का इस्तेमाल पानी के तौर पर नहीं करना चाहिए। बतादें, कि आप इस दाल को महीन पीस लें। साथ ही, इसे पौधों की मिट्टी की ऊपरी परत पर ही मिला दें। आपको इसे मिलाने से पूर्व एक बात का खास ख्याल रखना होगा कि आप जिन पौधों में इस खाद को मिश्रित करने जा रहे हैं, उस मिट्टी की पहले गुड़ाई कर लें। इसके पश्चात ही इसका उपयोग करें।
लोबिया दाल में सेहत के लिए बेहद फायदेमंद पोषक तत्व विघमान रहते हैं

लोबिया दाल में सेहत के लिए बेहद फायदेमंद पोषक तत्व विघमान रहते हैं

लोबिया के अंदर काफी ज्यादा मात्रा में प्रोटीन पाया जाता है, जिसकी वजह से इसे प्रोटीन का पावरहाउस भी कहा जाता है। लोबिया केवल इंसान के लिए ही नहीं बल्कि पशुओं की सेहत के लिए भी काफी फायदेमंद होती है। आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि लोबिया में प्रोटीन, फाइबर, विटामिन, खनिज, एंटीऑक्सीडेंट एवं बहुत सारे अन्य पोषक तत्व भी भरपूर मात्रा में मौजूद होते हैं। हमारे शरीर को दीर्घकाल तक स्वस्थ बनाए रखने के लिए प्रोटीन एक जरूरी तत्व होता है, जो शरीर की मांसपेशियों को सशक्त और विभिन्न प्रकार के रोगों से लड़ने में भी सहायता करता है। जब भी प्रोटीन की बात होती है, तो इसका मुख्य स्त्रोत दूध, घी इत्यादि को माना जाता है। परंतु, क्या आपको मालूम है, कि इन सब से भी कहीं ज्यादा प्रोटीन की मात्रा लोबिया में होती है। लोबिया में काफी अच्छी मात्रा में प्रोटीन होता है। लोबिया को सुपरफूड भी कहा जाता है। क्योंकि यह प्रोटीन का पावर हाउस होता है। यह केवल इंसानों के लिए ही नहीं बल्कि पशुओं के शरीर के लिए भी बेहद लाभकारी होता है। पशुओं के लिए लोबिया हरा चारा होता है, जिससे खाने से दुधारू पशुओं में दूध उत्पादन की क्षमता बढ़ काफी हद तक बढ़ जाती है। लोबिया के अंदर प्रोटीन, फाइबर, विटामिन, खनिज, एंटीऑक्सीडेंट तथा विभिन्न अन्य पोषक तत्वों की मात्रा भी ज्यादा पाई जाती है। यह हरे रंग के दानेदार आकार में होता है। आज हम आपको लोबिया के फायदे और अन्य महत्वपूर्ण जानकारी के विषय में बताऐंगे।

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लोबिया में पोषक तत्व कितनी मात्रा में पाए जाते हैं

  • प्रोटीन की मात्रा- 100 ग्राम लोबिया में तकरीबन 25-30 ग्राम प्रोटीन होता है।
  • फाइबर की मात्रा- 16-25 ग्राम लोबिया में लगभग 100 ग्राम तक फाइबर पाया जाता है।
  • कॉम्प्लेक्स कार्ब्सस की मात्रा- 60-65% कार्बोहाइड्रेट लोबिया में होती है।
  • आयरन की मात्रा- लोबिया के अंदर भरपूर मात्रा में आयरन होता है। इसके अतिरिक्त इसमें विटामिन C और फोलेट की भी भरपूर मात्रा उपलब्ध होती है।
  • ये ही नहीं बल्कि लोबिया की शुरुआती ताजी पत्तियों एवं डंठल में भी पोषक तत्व विघमान होते हैं। इसमें कुछ फीसदी कच्चा प्रोटीन, 3.0% ईथर का अर्क और 26.7% कच्चा फाइबर इत्यादि होता है।
  • लोबिया का सेवन करने से क्या-क्या लाभ होते हैं
  • यदि आप नियमित तौर पर लोबिया का सेवन करते हैं तो निश्चित तौर पर आपका वजन जल्दी से कम होने लगेगा।
  • लोबिया के सेवन से पाचन तंत्र काफी मजबूत बनता है।
  • यदि आप ह्रदय संबंधित किसी भी रोग से ग्रसित हैं, तो आप लोबिया का सेवन करें।
  • रात को सटीक समय पर नींद ना आने की बीमारी और इससे संबंधित अन्य बीमारी के लिए भी लोबिया बेहद फायदेमंद है।
  • लोबिया इम्युनिटी को बूस्ट करने में काफी सहयोग करता है।
  • लोबिया ब्लड शुगर लेवल को काबू में करता है। यदि आप मधुमेह यानी डायबिटीज की बीमारी से जूझ रहे हैं, तो लोबिया का सेवन जरूर करें।
जानिए कैसे करें उड़द की खेती

जानिए कैसे करें उड़द की खेती

उड़द की खेती भारत में लगभग सभी राज्यों में होती है. ये मनुष्यों के लिए तो फायदेमंद है ही साथ ही खेत की सेहत के लिए भी बहुत फायदेमंद है. हमारे देश में दालों की भारी कमी है. इस वजह से भी ये कभी महंगी और ज्यादा मांग वाली दाल है. 

भारत सरकार ने 2019-20 के दौरान 4 लाख टन के कुल उड़द आयात की अनुमति दी थी। यह दर्शाता है की दाल की मांग की पूर्ती हम अपने उत्पादन से नहीं कर पाते हैं इसके लिए हमें दाल के लिए विदेशों पर निर्भर रहना पड़ता है. 

पिछले वित्त वर्ष में भारत सरकार ने 4 लाख टन के आयात की अनुमति दी थी. 2019 - 20 में उद्योग के सूत्रों का कहना है कि वर्तमान में, उड़द केवल म्यांमार में उपलब्ध है। 

म्यांमार में उड़द का हाजिर मूल्य लगभग 810 डॉलर प्रति क्विंटल है। भारत को बारिश की शुरुआत में देरी के कारण उड़द के आयात का सहारा लेना पड़ा, जिसके बाद फसल की अवधि के दौरान अधिक और निरंतर वर्षा के कारण उत्पादन में गिरावट आई। 

 उड़द या किसी भी दलहन वाली फसल के उत्पादन से किसानों को फायदा ही है. बशर्ते की आपकी जमीन उस फसल को पकड़ने वाली हो. कई बार देखा गया है की सब कुछ ठीक होते हुए भी उड़द की फसल नहीं हो पाती है. 

उसके पीछे का कारण कोई भी हो सकता है जैसे मिटटी में पोषण तत्वों की कमी, पानी का सही न होना. इसके लिए हमें अपने खेत की मिटटी और पानी का समय समय पर टेस्ट करना चाहिए. 

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खेत की तैयारी:

उड़द के लिए खेत की तैयारी करते समय पहली जुताई हैंरों से कर देना चाहिए उसके बाद कल्टीवेटर से 3 जोत लगा के पाटा लगा देना चाइए जिससे की खेत समतल हो जाये. 

उड़द की फसल के लिए खेत का चुनाव करते समय ध्यान रखें की खेत में पानी निकासी की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए. जिससे की बारिश में या पानी देते समय अगर पानी ज्यादा हो जाये तो उसे निकला जा सके.

मिटटी:

वैसे उड़द की फसल के लिए दोमट और रेतीली जमीन ज्यादा सही रहती हैं लेकिन इसकी फसल को काली मिटटी में भी उगाया जा सकता है. 

हल्की रेतीली, दोमट या मध्यम प्रकार की भूमि जिसमे पानी का निकास अच्छा हो उड़द के लिये अधिक उपयुक्त होती है। पी.एच. मान 6- 8 के बीच वाली भूमि उड़द के लिये उपजाऊ होती है। अम्लीय व क्षारीय भूमि उपयुक्त नही है।

उड़द की उन्नत किस्में या उड़द के प्रकार :

उड़द की निम्नलिखित किस्में हैं जो की ज्यादातर बोई जाती है. टी-9 , पंत यू-19 , पंत यू - 30 , जे वाई पी और यू जी -218 आदि प्रमुख प्रजातियां हैं. 

बीज की दर या उड़द की बीज दर:

बुवाई के लिए उड़द के बीज की सही दर 12-15 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है अगर बीज किसी अच्छी संस्था या कंपनी ने तैयार किया है तो. और अगर बीज आपके घर का है या पुराना बीज है तो इसकी थोड़ी मात्रा बढ़ा के बोना चाहिए.

खेत में अगर किसी वजह से नमी कम हो, तो 2-3 किलोग्राम बीज की मात्रा प्रति हेक्टेयर बढ़ाई जा सकती है जिससे की अपने खेत में पौधों की कमी न रहे. जब पौधे थोड़े बड़े हो जाएँ तो ज्यादा पास वाले पौधों को एक निश्चित दूरी के हिसाब से रोपाई कर दें.

बुवाई का समय:

फ़रवरी या मार्च में भी उड़द की फसल को लगाया जाता है तथा इस तरह से इस फसल को बारिश शुरू होने से पहले काट लिया जाता है. 

खरीफ मौसम में उड़द की बुवाई का सही समय जुलाई के पहले हफ्ते से ले कर 15-20 अगस्त तक है. हालांकि अगस्त महीने के अंत तक भी इस की बुवाई की जा सकती है. 

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उड़द में खरपतवार नियंत्रण:

बुवाई के 25 से 30 दिन बाद तक खरपतवार फसल को अत्यधिक नुकसान पहुँचातें हैं यदि खेत में खरपतवार अधिक हैं तो 20-25 दिन बाद एक निराई कर देना चाहिए और अगर खरपतवार नहीं भी है तो भी इसमें समय-समय पर निराई गुड़ाई होती रहनी चाहिए। 

जिन खेतों में खरपतवार गम्भीर समस्या हों वहॉं पर बुवाई से एक दो दिन पश्चात पेन्डीमेथलीन की 0.75 किग्रा0 सक्रिय मात्रा को 1000 लीटर पानी में घोलकर एक हेक्टेयर में छिड़काव करना सही रहता है। कोशिश करें की खरपतवार को निराई से ही निकलवायें तो ज्यादा सही रहेगा.

तापमान और उसका असर:

उड़द की फसल पर मौसम का ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है. इसको 40 डिग्री तक का तापमान झेलने की क्षमता होती है. इसको कम से कम 20+ तापमान पर बोया जाना चाहिए.

उड़द की खेती से कमाई:

उड़द की खेती से आमदनी तो अच्छी होती ही है और इसके साथ-साथ खेत को भी अच्छा खाद मिलता है. इसकी पत्तियों से हरा खाद खेत को मिलता है.

Urad dal ki kheti: इसी फरवरी में बो दें उड़द

Urad dal ki kheti: इसी फरवरी में बो दें उड़द

उड़द की दाल को सर्वोत्तम माना गया है। कारण है, इसमें सबसे ज्यादा प्रोटीन का होना। आपके शरीर में जितना प्रोटीन, वसा, कैल्शियम होगा, बुद्धि उतनी ही तेज चलेगी, उतने ही आप निरोगी रहेंगे। यही वजह है कि उड़द की दाल को प्रायः हर भारतीय एक माह में दो बार जरूर खाता है या खाने का प्रयास करता है।

हजारों साल से हो रही है खेती

उड़द दाल की खेती भारत में हजारों साल पहले से हो रही है। यह माना जाता है कि उड़द दाल भारतीय उपमहाद्वीप की ही खोज है। इस दाल को बाद के वक्त में पाकिस्तान, चीन, इंडोनेशिया, श्रीलंका जैसे देशों ने अपना लिया। उड़द की दाल भारत में उपनिषद काल से इस्तेमाल की जा रही है। माना जाता है कि इसके इस्तेमाल से पेट संबंधित बीमारी, मानसिक अवसाद आदि दूर होते हैं।

फायदेमंद है उड़द की खेती

urad ki kheti ये भी पढ़े: दलहनी फसलों में लगने वाले रोग—निदान उड़द की खेती फायदेमंद होती है। इसका बाजार में बढ़िया रेट मिल जाता है। इसकी खेती के लिए मौसम का अनुकूल होना पहली शर्त है। यह माना जाता है कि जब शीतकाल की विदाई हो रही हो और गर्मी आने वाली हो, तब का मौसम इसकी खेती के लिए सर्वाधिक अनुकूल होता है। उस लिहाज से देखें तो पूरे फरवरी माह में आप उड़द की खेती कर सकते हैं। शर्त यह है कि बहुत ठंड या बहुत गर्मी नहीं होनी चाहिए।

70 से 90 दिनों में फसल तैयार

उड़द की फसल को तैयार होने में बहुत वक्त नहीं लगता। कृषि वैज्ञानिक बताते हैं कि अगर फरवरी के मध्य में उड़द की खेती की जाए कि फसल मई के मध्य में आराम से काटी जा सकती है। कुल मिलाकर 80 से 90 दिनों में उड़द की फसल तैयार हो जाती है। हां, इसके लिए जरूरी है कि बारिश न हो। अगर फसल लगाने के पंद्रह रोज पहले हल्की बारिश हो गई तो वह बढ़िया साबित होती है। लेकिन, अगर फसल के बीच में या फिर कटने के टाइम में बारिश हो जाए तो फसल के खराब होने की आशंका रहती है।

आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश सबसे ज्यादा होती है खेती

urad dal ki kheti इसलिए, उड़द की खेती पूरी तरह मौसम के मिजाज पर निर्भर है और यही कारण है कि जहां मौसम ठीक रहता है, वहीं उड़द की खेती भी होती है। इस लिहाज से भारत के उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और आंध्र प्रदेश में उड़द की खेती सबसे ज्यादा होती है। शेष राज्यों में या तो खेती नहीं होती है या फिर बहुत की कम। उपरोक्त तीनों बड़े राज्यों का मौसम राष्ट्रीय स्तर पर आज भी काफी अनुकूल है। ये भी पढ़े: भारत सरकार ने खरीफ फसलों का समर्थन मूल्य बढ़ाया

जमीन का चयन

उड़द की खेती के लिए बहुत जरूरी है जमीन का शानदार होना। यह जमीन हल्की रेतीला, दोमट अथवा मध्यम प्रकार की भूमि हो सकती है जिसमें पानी ठहरे नहीं। अगर पानी ठहर गया तो फिर उड़द की खेती नहीं हो पाएगी। तो यह बहुत जरूरी है कि आप जहां भी उड़द की खेती करना चाहें, उस जमीन पर पानी का निकास बढ़िया हो।

समतल जमीन है जरूरी

जमीन के चयन के बाद यह जरूरी होता है कि वहां तीन से चार बार हल या ट्रैक्टर चला कर खेत को समतल कर लिया जाए। उबड़-खाबड़ या ढलाऊं जमीन पर इसकी फसल कामयाब नहीं होती है। बेहतर यह होता है कि आप तब पौधों की बोनी करें, जब वर्षा न हुई हो। इससे पैदावार बढ़ने की संभावना होती है।

खेती का तरीका

कृषि वाज्ञानिकों के अनुसार, उड़द की अधिकांश फसलें प्रकाशकाल में ही बढ़िया होती हैं। यानी, इन्हें पर्याप्त रौशनी मिलती रहनी चाहिए। मोटे तौर पर 25 से 30 डिग्री सेंटीग्रेट का तापमान इनके लिए सबसे बढ़िया होता है। इसमें रोज पानी देने का झंझट नहीं रहता। हां, खर-पतवार तेजी से हटाते रहना चाहिए और समय-समय पर कीटनाशक का छिड़काव जरूर करते रहना चाहिए। उड़द की फसल में कीड़े बहुत तेजी के साथ लगते हैं। इसलिए यह जरूरी है कि फसल के आधा फीट के होते ही कीटनाशकों का छिड़काव शुरू कर दिया जाए।

फायदा

उड़द में प्रोटीन, कैल्शियम, वसा, रेशा, लवण, कार्बोहाइड्रेट और कैलोरीफिल अलग-अलग अनुपात में होते हैं। आप संयमित तरीके से इस दाल का सेवन करें तो ताजिंदगी स्वस्थ रहेंगे। ये भी पढ़े: खरीफ विपणन सीजन 2020-21 के दौरान न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का क्रियान्वयन

उड़द के प्रकार

urad dal ke prakar टी-9 (75 दिनों में तैयार हो जाता है) पंत यू 30 (70 दिनों में तैयार हो जाता है) खरगोन (85 दिनों में तैयार हो जाता है) पीडीयू-1 (75 दिनों में तैयार हो जाता है) जवाहर (70 दिनों में तैयार हो जाता है) टीपीयू-4 (70 दिनों में तैयार हो जाता है)

कैसे करें बुआई

कृषि वैज्ञानिक बताते हैं कि उड़द का बीज एक एकड़ में 6 से 8 किलो के बीच ही बोना चाहिए। बुआई के पहले बीज को 3 ग्राम थायरम अथवा 2.5 ग्राम डायथेन एम-45 प्रति किलो के आधार पर उपचारित करना चाहिए। हां, दो पौधों के बीच में 10 सेंटीमीटर की दूरी जरूर होनी चाहिए। दो क्यारियों के बीच में 30 सेंटीमीटर की दूरी आवश्यक है। बीज को कम से कम 5 सेंटीमीटर की गहराई में बोना चाहिए। हां, बीज को कम से कम 5 सेंटीमीटर की गहराई में ही बोना चाहिए। ये भी पढ़े: कृषि एवं पर्यावरण विषय पर वैज्ञानिक संवाद

निदाई-गुड़ाई

urad dal ki fasal उड़द की फसल को ज्यादा केयर करने की जरूरत होती है। यह बहुत जरूरी है कि आप उसकी निदाई-गुड़ाई समय पर करते रहें। बड़ा उत्पादन चाहें तो आपको यह काम रोज करना पड़ेगा। अत्याधुनिक कीटनाशकों का इस्तेमाल जरूरी है। अन्यथा ये कीट आपकी फसल को बर्बाद कर देंगे। माना जाता है कि कीटनाशक वासालिन को 250 लीटर पानी में 800 एमएल डाल कर छिड़काव करना चाहिए।

अकेले बोना ज्यादा बेहतर

माना जाता है कि उड़द को अगर अकेला बोया जाए तो 20 किलो बीज प्रति हेक्टेयर के हिसाब से सबसे उचित मानक है। ऐसे ही, अगर आप उड़द के साथ कोई अन्य बोते हैं तो प्रति हेक्टेयर 8 से 10 किलोग्राम उडद का बीच बेहतर होता है।

उड़द के अन्य फायदे

urad dal ke fayde उड़द दाल के अनेक फायदे हैं। आयुर्वेद में इसका जम कर इस्तेमाल होता है। अगर आपको सिरदर्द है तो उड़द दाल आपको राहत दे सकता है। आपको बस 50 ग्राम उड़द दाल में 100 मिलीलीट दूध डालना है और घी पकाना है। उसे आप खाएं। आपकी तकलीफ दूर हो जाएगी। इसके साथ ही, बालों में होने वाली रूसी से भी आपको उड़द दाल छुटकारा दिलाती है। आप उड़द का भस्म बना कर अर्कदूध तथा सरसों मिलाकर एक प्रकार का लेप बना लें। इसके सिर में लगाएं। एक तो आपकी रूसी दूर हो जाएगी, दूसरे अगर आप गंजे हो रहे हैं तो हेयर फाल ठीक हो जाएगा। कुल मिलाकर, अगर आप फरवरी में वैज्ञानिक विधि से उड़द की खेती को लेकर गंभीर हैं तो वक्त न गंवाएं। पहले जमीन समतल कर लें, तीन-चार बार हल-बैल या ट्रैक्टर चला कर उसके घास-फूस अलग कर लें, फिर 5 सेंटीमीटर की गहराई में बीज रोपित करें और लगातार क्यारियों की साफ-सफाई करते रहें। 70 से 90 दिनों के बीच आपकी फसल तैयार हो जाएगी। आप इस फसल का मनचाहा इस्तेमाल कर सकते हैं।
उड़द की खेती कैसे की जाती है जानिए सम्पूर्ण जानकारी (Urad Dal Farming in Hindi)

उड़द की खेती कैसे की जाती है जानिए सम्पूर्ण जानकारी (Urad Dal Farming in Hindi)

उड़द की खेती के लिए नम एवं गर्म मौसम की आवश्यकता होती है। वृद्धि के लिये 25-30 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान उपयुक्त होता है। 700-900 मिमी वर्षा वाले क्षेत्रो मे उड़द को सफलता पूर्वक उगाया जाता है। 

फूल अवस्था पर अधिक वर्षा होना हानिकारक है। पकने की अवस्था पर वर्षा होने पर दाना खराब हो जाता है। उड़द की खरीफ एवं ग्रीष्म कालीन खेती की जा सकती है।

भूमि का चुनाव एवं तैयारी 

उड़द की खेती विभिन्न प्रकार की भूमि मे होती है। हल्की रेतीली, दोमट या मध्यम प्रकार की भूमि जिसमे पानी का निकास अच्छा हो उड़द के लिये अधिक उपयुक्त होती है। 

पी.एच. मान 7-8 के बीच वाली भूमि उड़द के लिये उपजाऊ होती है। उड़द की खेती के लिए अम्लीय व क्षारीय भूमि उपयुक्त नही होती है। खेती की तैयारी के लिए खेती की पहले हल से गहरी जुताई कर ले फिर 2 - 3 बार हैरो से खेती की जुताई कर के खेत को समतल बना ले | 

वर्षा आरम्भ होने के पहले बुवाई करने से पौधो की बढ़वार अच्छी होती है। उड़द के बीज खेत में तैयार की पंक्ति में लगाए जाते है| पंक्ति में रोपाई के लिए मशीन का इस्तेमाल किया जाता है | 

खेत में तैयार की गई पंक्तियों के मध्य 10 से 15 CM दूरी होती है, तथा बीजो को 4 से 5 CM की दूरी पर लगाया जाता है | खरीफ के मौसम में अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए इसके बीजो की रोपाई जून के महीने में की जानी चाहिए | 

जायद के मौसम में अच्छी पैदावार के लिए बीजो को मार्च और अप्रैल माह के मध्य में लगाया जाता है | 

उड़द की किस्मे 

उर्द-19, पंत उर्द-30, पी.डी.एम.-1 (वसंत ऋतु), यू.जी. 218, पी.एस.-1, नरेन्द्र उर्द-1, डब्ल्यू.बी.यू.-108, डी.पी.यू. 88-31, आई.पी.यू.-94-1 (उत्तरा), आई.सी.पी.यू. 94-1 (उत्तरा), एल.बी.जी.-17, एल.बी.जी. 402, कृषणा, एच. 30 एवं यू.एस.-131, एस.डी.टी 3

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बीज की मात्रा एवं बीजउपचार 

उड़द का बीज6-8 किलो प्रति एकड़ की दर से बोना चाहिये। बुबाई के पूर्व बीज को 3 ग्राम थायरम या 2.5 ग्राम डायथेन एम-45 प्रति किलो बीज के मान से उपचारित करे। 

जैविक बीजोपचार के लिये ट्राइकोडर्मा फफूँद नाशक 5 से 6 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपयोग किया जाता है।

बुवाई का समय एवं तरीका 

मानसून के आगमन पर या जून के अंतिम सप्ताह मे पर्याप्त वर्षा होने पर बुबाई करे । बोनी नाली या तिफन से करे, कतारों की दूरी 30 सेमी. तथा पौधो से पौधो की दूरी 10 सेमी. रखे तथा बीज 4-6 सेमी. की गहराई पर बोये।

खाद एवं उर्वरक की मात्रा  

नाइट्रोजन 8-12 किलोग्राम व सल्फर 20-24 किलोग्राम पोटाश 10 किलोग्राम प्रति एकड़ के हिसाब से दे। सम्पूर्ण खाद की मात्रा बुबाई की समय कतारों  मे बीज के ठीक नीचे डालना चाहिये। 

दलहनी फसलो मे गंधक युक्त उर्वरक जैसे सिंगल सुपर फास्फेट, अमोनियम सल्फेट, जिप्सम आदि का उपयोग करना चाहिये। विशेषतः गंधक की कमी वाले क्षेत्र मे 8 किलो ग्राम गंधक प्रति एकड़ गंधक युक्त उर्वरको के माध्यम से दे।

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सिंचाई

वैसे तो उड़द की फसल को सिंचाई की अधिक आवश्यकता नहीं होती है, क्योंकी ये एक खरीफ की फसल है | फूल एवं दाना भरने के समय खेत मे नमी न हो तो एक सिंचाई करनी चाहिए।

फसल में खरपतवार नियंत्रण  

खरपतवार फसल को अनुमान से कही अधिक क्षति पहुँचाते है। अतः विपुल उत्पादन के लिए समय पर निदाई-गुड़ाई कुल्पा व डोरा आदि चलाते हुये अन्य आधुनिक नींदानाशक का समुचित उपयोग करना चाहिये। 

खरपतवारनाशी वासालिन 800 मिली. से 1000 मिली. प्रति एकड़ 250 लीटर पानी मे घोल बनाकर जमीन बखरने के पूर्व नमी युक्त खेत मे छिड़कने से अच्छे परिणाम मिलते है।

उड़द की फसल के प्रमुख रोग और रोग का नियंत्रण 

जड़ सड़न एवं पत्ती झुलसा

यह बीमारी राइजोक्टोनिया सोलेनाई फफूंद से होते हैं। इसका प्रकोप फली वाली अवस्था में सबसे अधिक होता है। प्रारम्भिक अवस्था में रोगजनक सड़न, बीजोंकुर झुलसन एवं जड़ सड़न के लक्षण प्रकट करता है। 

रोग से ग्रसित पौधों की पत्तियां पीली पड़ जाती है एवं उन पर अनियमित आकार के भूरे रंग के धब्बे दिखाई देते हैं। कुछ समय बाद ये छोटे-छोटे धब्बे आपस में मिल जाते हैं और पत्तियों पर बड़े क्षेत्र में दिखते हैं। 

पत्तियां समय से पूर्व गिरने लगती हैं। आधारीय एवं जल वाला भाग काला पड़ जाता है एवं रोगी भाग आसानी से छिल जाता है। रोगी पौधे मुरझाकर सूखने लगते हैं। इन पौधों की जड़ को फाड़कर देखने पर आंतरिक भाग में लालिमा दिखाई देती है।

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जीवाणु पत्ती झुलसा

 यह बीमारी जेन्थोमोनासा फेसिओलाई नामक जीवाणु से पैदा होती है। रोग के लक्षण पत्तियों की ऊपरी सतह पर भूरे रंग के सूखे हुए उभरे धब्बों के रूप में प्रकट होते है। रोग बढ़ने पर बहुत सारे छोटे-छोटे उभरे हुए धब्बे आपस में मिल जाते हैं। 

पत्तियां पीली पड़कर समय से पूर्व ही गिर जाती हैं। पत्तियों की निचली सतह लाल रंग की हो जाती है। रोग के लक्षण तना एवं पत्तियों पर भी दिखाई देते हैं।

पीला चित्तेरी रोग

इस रोग की प्रारम्भिक अवस्था में चित्तकवरे धब्बे के रूप में पत्तियों पर दिखाई पड़ते हैं। बाद में धब्बे बड़े होकर पूरी पत्ती पर फैल जाते हैं। जिससे पत्तियों के साथ-साथ पूरा पौधा भी पीला पड़ जाता है।

यदि यह रोग आरम्भिक अवस्था में लग जाता है तो उपज में शतप्रतिशत हानि संभव है। यह रोग विषाणु द्वारा मृदा, बीज तथा संस्पर्श द्वारा संचालित नहीं होता है। जबकि सफेद मक्खी जो चूसक कीट है के द्वारा फैलता है।

पर्ण व्याकुंचन रोग या झुर्रीदार पत्ती रोग 

यह भी विषाणु रोग है। इस रोग के लक्षण बोने के चार सप्ताह बाद प्रकट होते हैं। तथा पौधे की तीसरी पत्ती पर दिखाई पड़ते हैं। पत्तियाँ सामान्य से अधिक वृद्धि तथा झुर्रियां या मड़ोरपन लिये हुये तथा खुरदरी हो जाती है। 

रोगी पौधे में पुष्पक्रम गुच्छे की तरह दिखाई देता है। फसल पकने के समय तक भी इस रोग में पौधे हरे ही रहते हैं। साथ ही पीला चित्तेरी रोग का संक्रमण हो जाता है।

मौजेक मौटल रोग

इस रोग को कुर्बरता के नाम से भी जाना जाता है तथा इसका प्रकोप मूंग की अपेक्षा उर्द पर अधिक होता है। इस रोग द्वारा पैदावार में भारी हानि होती है। प्रारम्भिक लक्षण हल्के हरे धब्बे के रूप में पत्तियों पर शुरू होते हैं बाद में पत्तियाँ सिकुड़ जाती हैं तथा फफोले युक्त हो जाती हैं। यह विषाणु बीज द्वारा संचारित होता है।

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रोगों का नियंत्रण

पीला चित्तेरी रोग में सफेद मक्खी के नियंत्रण हेतु मेटासिस्टाक्स (आक्सीडेमाटान मेथाइल) 0.1 प्रतिषत या डाइमेथोएट 0.2 प्रतिशत प्रति हेक्टयर (210मिली/लीटर पानी) तथा सल्फेक्स 3ग्रा./ली. का छिड़काव 500-600 लीटर पानी में घोलकर 3-4 छिड़काव 15 दिन के अंतर पर करके रोग का प्रकोप कम किया जा सकता है।

झुर्रीदार पत्ती रोग, मौजेक मोटल, पर्ण कुंचन आदि रोगों के नियंत्रण हेतु इमिडाक्लोपिरिड 5 ग्रा./कि.ग्रा. की दर से बीजोपचार तथा बुबाई के 15 दिन के उपरांत 0.25 मि.मी./ली. से इन रोगों के रोग वाहक कीटों पर नियंत्रण किया जा सकता है।

सरकोस्पोरा पत्र बुंदकी रोग, रूक्ष रोग, मेक्रोफोमिना ब्लाइट या चारकोल विगलन आदि के नियंत्रण हेतु कार्बेन्डाजिम या बेनलेट कवकनाशी (2 मि.ली./लीटर पानी) अथवा मेन्कोजेब 0.30 प्रतिशत का छिड़काव रोगों के लक्षण दिखते ही 15 दिन के अंतराल पर करें।

चूर्णी कवक रोग के लिये गंधक 3 कि.ग्रा. (पाउडर)/हेक्ट. की दर से भुरकाव करें।बीज को ट्राइकोडर्मा विरिडी, 5 ग्राम/कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करें।जीवाणु पर्ण बुंदकी रोग के बचाव हेेतु 500 पी.पी.एम. स्ट्रेप्टोमाइसीन सल्फेट से बीज का उपचार करना चाहिये। स्ट्रेप्टोमाइसीन 100 पी.पी.एम. का छिड़काव रोग नियंत्रण के लिये प्रभावी रहता है।

फसल की कटाई

उड़द के पौधे बीज रोपाई के तक़रीबन 80 से 90 दिन बाद पैदावार देने के लिए तैयार हो जाते है | जब पौधों की पत्तियां पीले रंग की और फलियों का रंग काला दिखाई देने लगे उस दौरान इसके पौधों को जड़ के पास से काट लिया जाता है |

इसके पौधों को खेत में ही एकत्रित कर सुखा लिया जाता है | इसके बाद सूखी हुई फलियों को थ्रेसर के माध्यम से निकाल लिया जाता है | उड़द के पौधे एक  एकड़ के खेत में तक़रीबन 6 क्विंटल का उत्पादन दे देते है |

चंदन की खेती : Sandalwood Farming

चंदन की खेती : Sandalwood Farming

चंदन एक सदाबहार पेड़ है| इसकी खुशबू और औषधीय गुणों की वजह से इसकी काफी मांग होती है| चंदन की खेती कर आप मालामाल हो सकते हैं|

केवल सरकार ही कर सकती है चंदन का एक्सपोर्ट

चंदन की खरीद और बिक्री पर सरकार ने रोक लगा रखी है| 2017 में बने नियम के अनुसार, चंदन की खेती कोई भी कर सकता है, लेकिन चंदन का एक्सपोर्ट सिर्फ सरकार ही कर सकती है|

चन्दन के पौधे या बीज कहाँ से प्राप्त करें

चन्दन की खेती करने के लिए बीज या पौधे किसी का भी रोपण किया जा सकता है| इसके लिए आप दोनों में किसी भी चीज को खरीद सकते हैं| इसके बीज या पौधे खरीदने के लिए आपको केंद्र सरकार के लकड़ी विज्ञान एवं तकनिकी संसथान ( Institute of Wood Science and Technology (IWST) ) जोकि बंगलौर में स्थित से वहाँ से सम्पर्क करना होगा| इसके अलावा भारत के उत्तरप्रदेश में भी इसकी एक नर्सरी है जहाँ आपको इसकी जानकारी एवं पौधे दोनों मिल जायेंगे| इसके लिए आपको मशहूर एल्ब्सन एग्रोफ्रेस्ट्री प्राइवेट लिमिटेड (Albsan Agroforestry Private Limited, Kanpur, Uttar Pradesh )  से सम्पर्क करने की आवश्यकता होगी|

चन्दन की प्रजातियाँ

चन्दन की पूरे विश्व में कुल मिलाकर 16 प्रजातियाँ हैं, जिनमें सेंत्लम एल्बम बहुत ही अच्छी सुगंध वाली होती हैं| इसी में सबसे अधिक औषधीय गुण भी पाए जाते हैं| चंदन की 16 प्रजातियों में सफेद चन्दन, सेंडल, अबेयाद, श्रीखंड, सुखद सेंडल आदि  प्रजाति की चंदन पाई जाती है। सफेद चंदन को बढ़ने के लिए किसी सहायक पौधे की जरूरत होती है| सफेद चंदन के लिए सहायक पौधा अरहर है, जो कि पौधा के विकास में सहायक होता है| अरहर की फसल से चंदन को नाइट्रोजन तो मिलता ही है साथ ही इसके तने और जड़ों की लकड़ी में सुगंधित तेल का अंश बढ़ता जाता है|

सफेद चंदन इन कामों में होता है इस्तेमाल

सफेद चंदन इस्तेमाल औषधीय बनाने, साबुन, अगरबती, कंठी माला, फर्नीचर, लकड़ी के खिलौने, परफ्यूम, हवन सामग्री में होता है|

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चन्दन की खेती करने का तरीका

  • एक एकड़ जमीन में ज्यादा से ज्यादा 375 सफ़ेद चन्दन के पौधे लगा सकते हैं|
  • चन्दन के पौधों में ज्यादा पानी सिंचित नहीं करना होता हैं इसलिए इसके चन्दन के खेत में मेड़ बनाकर पौधे का रोपण किया जाता है| ये मेड़ कम से कम 10 फुट की दूरी पर बनाये जाते हैं|
  • मेड़ के ऊपर चन्दन के जो पौधे लगाये जाते हैं उसी एक दूसरे से दूरी 12 फुट से कम नहीं होनी चाहिये|
  • एक बात जो सबसे ज्यादा ध्यान रखने वाली है वह यह कि चन्दन के पौधे अकेले कभी नहीं लगाये जाते हैं वरना ये सूख जाते हैं| क्योकि चन्दन अर्धपरजीवी पौधा होता है|
  • चन्दन की खेती जिस क्षेत्र में की जाती हैं वहां पर कुछ साथी पौधों को भी लगाना आवश्यक होता है| क्योकि ये चन्दन के विकास में सहायक होते हैं| इसलिए 375 सफेद चन्दन के आसपास 125 अन्य साथी पौधे भी लगाना आवश्यक है|
  • ये साथी पौधे लाल चन्दन, कैजुराइना, देसी नीम, मीठी नीम एवंसहजन के पौधे आदि हो सकते हैं|
  • चन्दन की खेती करने के लिए बीज या पौधे किसी का भी रोपण किया जा सकता है| इसके लिए आप दोनों में किसी भी चीज को खरीद सकते हैं|
  • व्यवसायिक रूप से देखा जाये तो चन्दन की खेती किसान कुछ विशेष सावधानी के साथ आंध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश, तेलंगाना, गुजरात, महाराष्ट्र, बिहार, कर्नाटक, तमिलनाडु आदि जैसे किसी भी राज्य में कर सकते हैं| इसलिए यह किसानों के लिए पैसे कमाने का सुनहरा अवसर है|

चंदन का पेड़ कितने साल में तैयार होता है?

चंदन के पौधों को पेड़ बनने में करीब 12 से 15 साल का समय लगता है| 12 साल में इसका वजन 15 किलो आता है, जबकि 15 साल होते तक इसका वजन 20 किलो हो जाता है|

चंदन की लकड़ी की कीमत क्या है?

बीज भी 300 रुपए किलो बिकते हैं। जानकारी के अनुसार चंदन की लकड़ी का औसत बाजार मूल्य 5 से 6 हजार रुपए प्रतिकिलो है।

चंदन पाउडर स्वास्थ्य के लिए लाभ

चंदन पाउडर का इस्तेमाल न केवल चेहरे को सॉफ्ट और ग्लोइंग बनाता है बल्कि इसके इस्तेमाल से त्वचा से जुड़ी कई समस्याओं का समाधान भी हो जाता है। पित्त के कारण होने वाली पेट की गड़बड़ी में भी चंदन का फायदा मिल सकता है। आप चंदन का इस्तेमाल बुखार को ठीक करने के लिए भी कर सकते हैं।

चंदन की खेती में खाद प्रबंधन

चंदन की खेती (sandalwood Farming) में जैविक खादकी अधिक आवश्यकता नहीं होती है। शुरू में फसल की वृद्धि के समय खाद की जरुरत पड़ती है। लाल मिट्टी के 2 भाग, खाद के 1 भाग और बालू के 1 भाग को खाद के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। गाद भी पौधों को बहुत अच्छा पोषण प्रदान करता है।

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Q:क्या भारत में चन्दन के पौधे लगाना कानूनी रूप से सही है?

Ans: हाँ, लेकिन इसका गैर कानूनी तरीके से उपयोग नहीं किया जाना चाहिए|

Q: चन्दन की लकड़ी की प्रति किलोग्राम कीमत कितनी है?

Ans: 6 से 12 हजार रूपये

Q: भारत में चदन के पौधे कहाँ सबसे ज्यादा विकसित हैं?

Ans: पश्चिम बंगाल

Q: चन्दन की खेती कैसे करें?

Ans: बेहतर मिट्टी, जगह और वातावरण के साथ ही बीज या पौधों की व्यवस्था करके|

Q: चन्दन की लकड़ी इतनी महंगी क्यों होती है?

Ans: क्योकि विश्व भर में इसका उत्पादन बहुत कम होता है और मांग बहुत अधिक होती है|

दलहन बचाएगा सबकी जान

दलहन बचाएगा सबकी जान

दलहनी फसलें किसान और आम इन्सान सभी की जिंदगी बचा सकती है। हर घर में पांव पसार रही बीमरियां बेहद कम हो सकती हैं बशर्ते भोजन की हर थाली में हर दिन दाल शामिल हो। यह तभी संभव है जबकि इनकी कीमतें नींचे आएं। किसान की फसल के समय उन्हें भी ​उचित मूल्य मिले। दलहनी फसलें केमिकल फर्टिलाइजर नहीं चाहतीं। इसी लिए दलहन में प्रोटीन आदि तत्वों के अलावा आर्गेनिक कंटेंट ज्यादा होता है। सरकारों की उपेक्षित नीतियों के चलते फसल के समय किसानों को दालहनी फसलों की समर्थन मूल्य के सापेक्ष आधी कीमतें भी नहीं मिलतीं इधर बिचौलिए और भरसारिए मोटा माल पैदा करते हैं। दलहन में पानी भी कम लगता है। अहम बात यह है कि इसमें किसान की कल्टीवेशन कास्ट यानी कि लागत भी बेहद कम आती है। इसके बाद भी किसान इसे कम लगाते हैं तो उसके कई कारण हैं और इनके लिए सरकारें ही जिम्मेवार हैं। दहलहन के मामले में भारत दुनिया का सबसे बड़ा उपभोक्ता और आयायत देश है। केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने विश्व दलहन दिवस पर पिछले दिनों दलहन उत्पादन में टात्मनिर्भरता की ओर बढ़ने वाली सोच को सार्व​जनिक किया लेकिन वह इस दिशा में क्या कदम उठाएंगे यह देखेने वाली बात है। 

दलहन की नई फसल कब आती है

चना, मटर, अरहर एवं मशूर दलहनी फसलें अक्टूबर-नवंबर में बोई जाती है एवं मार्च-अप्रैल तक हार्वेस्ट हो जाती हैं। 

दलहन की फसल मिट्टी को उपजाऊ कैसे बनाती हैं

दलहन की फसलों यानी उर्द, मूंग, मशूर, चना, अरहर, ढेंचा आदि की जड़ों में प्राकृतिक गांठे होती हैं। पौधा अपनी विकास के लिए वायुमंडल से नाइट्रोजन का अवशोषण करता है। यह नाइट्रोजन पौधे की जड़ों की गानों में इकट्ठा होती है। फसल पक जाने पर उसे काट लिया जाता है और जड़ों में संकलित नाइट्रोजन जमीन के अंदर ही सुरक्षित रह जाती है जो कि अगली फसल के काम आती है। 

देश में दलहन की स्थिति

 

 देश ने 2018-19 के फसल वर्ष (जुलाई-जून) के दौरान 2.34 करोड़ टन दलहन का उत्पादन हुआ । यह 2.6 से 2.7 करोड़ टन की घरेलू मांग से कम है । इस अंतर की भरपाई आयात से की गई। हालांकि, चालू साल में सरकार 2.63 करोड़ टन दलहन उत्पादन का लक्ष्य लेकर चल रही है।

आवारा पशु बने सरदर्द

 

 दलहन के लिए आवारा और जंगली पशु सबसे बड़ी दिक्कत है। जिन इलाकों में पानी की बेहद कमी है वहां दलहन का क्षेत्र बढ़ाया जा सकता है। बड़े क्षेत्र में किसी फसल को लगने से किसानों का आवारा पशुओं आदि का नुकसान भी कम हो जाता है।