ककोड़ा, जिसे कई क्षेत्रों में खेख्सा भी कहा जाता है, एक बहुवर्षीय लता वाली कद्दू वर्गीय फसल है, जो भारत के जंगलों, पहाड़ी इलाकों और शुष्क क्षेत्र में स्वाभाविक रूप से उगती है।
यह फसल बिना अधिक देखभाल के भी अच्छे परिणाम देती है, जिससे यह अर्ध-पारंपरिक और वाणिज्यिक खेती दोनों के लिए उपयुक्त बनती है।
इसके मादा पौधे से निरंतर 8-10 वर्षों तक उपज मिलती रहती है, जिससे एक बार लगाकर लंबे समय तक लाभ प्राप्त किया जा सकता है। इसके फल का उपयोग सब्जी, अचार और औषधीय उत्पादों में किया जाता है।
ककोड़ा एक औषधीय पौधा भी है, जो कई शारीरिक विकारों में लाभकारी माना जाता है। यह विशेष रूप से कफ, खांसी, पाचन तंत्र की गड़बड़ी, वात-पित्त संतुलन, और हृदय संबंधी समस्याओं के इलाज में सहायक होता है।
इसकी जड़ें बवासीर, मूत्र विकार और बुखार के उपचार में उपयोगी हैं। यह मधुमेह रोगियों के लिए भी लाभकारी मानी जाती है क्योंकि यह ब्लड शुगर को नियंत्रित करने में मदद करती है। साथ ही यह शरीर को ऊर्जा प्रदान करती है और रोग प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ाती है।
ककोड़ा की बाजार में भारी मांग है। इसके ताजे फलों की कीमत लगभग ₹90-100 प्रति किलोग्राम तक मिलती है। यदि इसकी प्रोसेसिंग कर के सुखाए हुए फल या अचार बनाए जाएं, तो यह मूल्य और अधिक बढ़ सकता है।
इससे किसानों को अच्छा मुनाफा हो सकता है, खासकर वे किसान जो पारंपरिक फसलों के विकल्प तलाश रहे हैं। इसकी खेती कम लागत और कम देखभाल में अधिक लाभ देने वाली मानी जाती है।
यह फसल गर्म व नमी वाली जलवायु में सबसे अच्छा उत्पादन देती है। इसे 1500-2500 मिमी वर्षा और 20-30 डिग्री सेल्सियस तापमान वाले क्षेत्र अधिक अनुकूल लगते हैं।
अच्छी जल निकासी वाली, जैविक तत्वों से भरपूर रेतीली-दोमट मिट्टी इसकी वृद्धि के लिए सबसे उपयुक्त होती है। मिट्टी का pH 6 से 7 के बीच होना चाहिए, क्योंकि अत्यधिक अम्लीय मिट्टी इसके लिए हानिकारक हो सकती है।
ककोड़ा की बुवाई का उपयुक्त समय जून से जुलाई होता है। इसकी खेती बीज और वानस्पतिक विधियों दोनों से की जा सकती है, लेकिन अधिक उपज के लिए जड़ कंद (रूट ट्यूबर) द्वारा प्रवर्धन बेहतर रहता है।
पौधों को 2×2 मीटर की दूरी पर लगाया जाता है, और प्रत्येक 4×4 मीटर के प्लॉट में 1 नर और 8 मादा पौधे लगाकर पर्याप्त परागण और उपज सुनिश्चित की जाती है।
इन किस्मों की उपज अधिक होती है और ये रोगों के प्रति अधिक सहनशील होती हैं।
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70-80% अंकुरण क्षमता वाले बीज का चयन किया जाना चाहिए। सामान्यतः 8-10 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त होता है।
अंतिम जुताई के समय प्रति हेक्टेयर 200-250 क्विंटल गोबर की खाद मिलाई जाती है। इसके अलावा निम्नलिखित रासायनिक उर्वरकों का भी प्रयोग किया जाता है:
हालांकि ककोड़ा पर रोगों का प्रभाव कम होता है, लेकिन फल मक्खी नुकसानदायक होती है। इसके नियंत्रण के लिए इमिडाक्लोप्रिड या क्विनालफॉस 25 ई.सी. की 2-3 मिली मात्रा प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करना लाभकारी होता है।
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पौधों की अच्छी वृद्धि और फल की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए सहारा देना आवश्यक होता है। इसके लिए बांस, सूखी लकड़ी, या लोहे के एंगल पर जालीनुमा संरचना (5-6 फीट ऊँचाई, 4 फीट गोल व्यास) बनाना चाहिए, जिससे बेलें ऊपर चढ़कर अच्छा उत्पादन दें।
ककोड़ा की खेती पारंपरिक और औषधीय दोनों दृष्टिकोणों से अत्यंत लाभकारी है। कम लागत, लंबी अवधि की उपज और औषधीय व पोषण संबंधी लाभ इसे किसानों के लिए एक उत्तम विकल्प बनाते हैं। यदि इसकी प्रोसेसिंग एवं विपणन प्रणाली विकसित की जाए, तो यह ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सशक्त बना सकती है।