ककोड़ा की खेती कैसे करें : जानें खेती का सही तरीका, होगा अधिक मुनाफा

Published on: 02-Sep-2025
Updated on: 03-Sep-2025

ककोड़ा की खेती कैसे करें 

ककोड़ा, जिसे विभिन्न क्षेत्रों में खेख्सा भी कहा जाता है, कद्दू वर्गीय एक बहुवर्षीय लता है। यह पौधा भारत के जंगलों, पहाड़ी इलाकों और शुष्क क्षेत्रों में स्वाभाविक रूप से पाया जाता है। इसकी खासियत यह है कि यह बिना विशेष देखभाल और प्रबंधन के भी अच्छी उपज देता है। यही कारण है कि इसे अर्ध-पारंपरिक और वाणिज्यिक खेती, दोनों के लिए उपयुक्त माना जाता है। kakoda ki kheti, किसानो के लिए आय का अच्छा स्त्रोत हो सकती है। 

इस फसल का एक और विशेष गुण यह है कि इसके मादा पौधों से लगातार 8–10 वर्षों तक उपज मिलती रहती है। यानी एक बार पौधे की स्थापना कर देने के बाद लंबे समय तक लाभ प्राप्त किया जा सकता है। इसके फल का प्रयोग सब्ज़ी, अचार और विभिन्न औषधीय उत्पादों के निर्माण में किया जाता है।

ककोड़ा के औषधीय गुण

ककोड़ा केवल खाद्य फसल ही नहीं, बल्कि एक औषधीय पौधा भी है। आयुर्वेद में इसके अनेक चिकित्सीय उपयोग बताए गए हैं।

  • यह कफ, खांसी, पाचन संबंधी विकार, वात-पित्त संतुलन और हृदय रोगों में लाभकारी माना जाता है।
  • इसकी जड़ें बवासीर, मूत्र विकार और बुखार के उपचार में उपयोगी होती हैं।
  • मधुमेह के रोगियों के लिए यह फायदेमंद है क्योंकि यह रक्त शर्करा के स्तर को नियंत्रित करने में मदद करती है।
  •  यह शरीर को ऊर्जा प्रदान करता है और रोग प्रतिरोधक क्षमता को मजबूत बनाता है।
  •  इसकी पत्तियां और फल दोनों ही औषधीय उपयोग के लिए काम आते हैं, इसलिए इसका महत्व और भी बढ़ जाता है।

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ककोड़ा की खेती का आर्थिक महत्व

ककोड़ा की बाजार में अच्छी मांग रहती है। ताजे फलों की कीमत लगभग ₹90–100 प्रति किलोग्राम तक मिलती है। यदि किसान इसके फलों का प्रसंस्करण (processing) कर सुखाए हुए फल, अचार, या अन्य मूल्यवर्धित उत्पाद बनाएं तो इसकी कीमत और भी अधिक मिल सकती है।

कम लागत और कम देखभाल में उच्च लाभ देने वाली यह फसल किसानों को पारंपरिक फसलों का एक मजबूत विकल्प प्रदान करती है। ग्रामीण क्षेत्रों में इसकी संगठित खेती और प्रोसेसिंग से किसान अपनी आय में उल्लेखनीय वृद्धि कर सकते हैं।

ककोड़ा की खेती में अनुकूल जलवायु और मिट्टी

  • ककोड़ा गर्म और आर्द्र (नमी वाली) जलवायु में बेहतर उत्पादन देता है।
  • इसे 1500–2500 मिमी वर्षा और 20–30°C तापमान वाले क्षेत्र अनुकूल लगते हैं।
  • अच्छी जल निकासी वाली, कार्बनिक पदार्थों से भरपूर रेतीली-दोमट मिट्टी इसकी वृद्धि के लिए सबसे उपयुक्त होती है।
  • मिट्टी का pH 6.0–7.0 होना चाहिए। अधिक अम्लीय मिट्टी पौधों की वृद्धि को प्रभावित कर सकती है।

ककोड़ा की बुवाई का समय एवं विधि

  • ककोड़ा की बुवाई का सर्वोत्तम समय जून से जुलाई तक होता है।
  • इसकी खेती बीज एवं वानस्पतिक (root tuber) दोनों विधियों से की जाती है, परंतु जड़ कंद से प्रवर्धन अधिक सफल और उच्च उपज देने वाला होता है।
  • पौधों को 2×2 मीटर की दूरी पर रोपित किया जाता है।
  • प्रत्येक 4×4 मीटर क्षेत्र में 1 नर पौधा और 8 मादा पौधे लगाने से परागण एवं उत्पादन दोनों बेहतर होते हैं।

ककोड़ा की उन्नत किस्में

भारत में विकसित की गई कुछ ककोड़ा की उन्नत किस्में इस प्रकार हैं:

  •  इंदिरा कंकोड़-1
  •  अम्बिका-12-1
  •  अम्बिका-12-2
  •  अम्बिका-12-3

ककोड़ा की उन्नत किस्में रोग प्रतिरोधक क्षमता अधिक रखती हैं और वाणिज्यिक खेती के लिए उपयुक्त हैं।

बीज मात्रा

  • अच्छे अंकुरण (70–80%) वाले बीज का चयन जरूरी है।
  • सामान्यत: 8–10 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त माना जाता है।

खाद एवं उर्वरक प्रबंधन

अंतिम जुताई के समय प्रति हेक्टेयर 200–250 क्विंटल गोबर की खाद डालना लाभकारी है।

 इसके अतिरिक्त रासायनिक उर्वरकों की मात्रा इस प्रकार रखी जाती है:

यूरिया – 65 किलोग्राम

सिंगल सुपर फॉस्फेट (SSP) – 375 किलोग्राम

म्यूरेट ऑफ पोटाश (MOP) – 67 किलोग्राम


सिंचाई और खरपतवार नियंत्रण

  • बुवाई के तुरंत बाद हल्की सिंचाई करनी चाहिए।
  • बरसात में अतिरिक्त सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती, परंतु लंबे समय तक सूखे की स्थिति में सिंचाई आवश्यक है।
  • जलभराव से बचाने के लिए खेत में उत्तम जल निकासी की व्यवस्था होनी चाहिए।
  • 2–3 बार निराई-गुड़ाई कर खरपतवार को नियंत्रित किया जा सकता है।

कीट एवं रोग प्रबंधन

ककोड़ा पर सामान्यतः रोगों का प्रभाव कम देखा जाता है, लेकिन फल मक्खी हानिकारक साबित हो सकती है। इसके नियंत्रण हेतु – इमिडाक्लोप्रिड या क्विनालफॉस 25 ईसी की 2–3 मिली मात्रा प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव किया जाता है।

पौधों को सहारा देना (स्टेकिंग)

  • बेहतर फलन और गुणवत्तापूर्ण उत्पादन के लिए पौधों को सहारा देना आवश्यक है। इसके लिए बांस, सूखी लकड़ी या लोहे के एंगल का प्रयोग कर जालीनुमा संरचना बनाई जाती है।
  • यह संरचना 5–6 फीट ऊंची और लगभग 4 फीट चौड़ी होनी चाहिए, ताकि बेलें आसानी से फैल सकें और भरपूर उत्पादन दे सकें।

निष्कर्ष

ककोड़ा की खेती किसानों के लिए एक कम लागत, लंबी अवधि और अधिक मुनाफा देने वाला विकल्प है। यह केवल खाद्य और पोषण संबंधी महत्व ही नहीं रखता, बल्कि औषधीय गुणों के कारण इसकी मांग बाजार में लगातार बनी रहती है। यदि इसकी संगठित खेती, प्रसंस्करण और विपणन प्रणाली विकसित की जाए तो यह ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सशक्त बनाने और किसानों की आय दोगुनी करने में बड़ी भूमिका निभा सकता है।