ककोड़ा, जिसे विभिन्न क्षेत्रों में खेख्सा भी कहा जाता है, कद्दू वर्गीय एक बहुवर्षीय लता है। यह पौधा भारत के जंगलों, पहाड़ी इलाकों और शुष्क क्षेत्रों में स्वाभाविक रूप से पाया जाता है। इसकी खासियत यह है कि यह बिना विशेष देखभाल और प्रबंधन के भी अच्छी उपज देता है। यही कारण है कि इसे अर्ध-पारंपरिक और वाणिज्यिक खेती, दोनों के लिए उपयुक्त माना जाता है। kakoda ki kheti, किसानो के लिए आय का अच्छा स्त्रोत हो सकती है।
इस फसल का एक और विशेष गुण यह है कि इसके मादा पौधों से लगातार 8–10 वर्षों तक उपज मिलती रहती है। यानी एक बार पौधे की स्थापना कर देने के बाद लंबे समय तक लाभ प्राप्त किया जा सकता है। इसके फल का प्रयोग सब्ज़ी, अचार और विभिन्न औषधीय उत्पादों के निर्माण में किया जाता है।
ककोड़ा केवल खाद्य फसल ही नहीं, बल्कि एक औषधीय पौधा भी है। आयुर्वेद में इसके अनेक चिकित्सीय उपयोग बताए गए हैं।
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ककोड़ा की बाजार में अच्छी मांग रहती है। ताजे फलों की कीमत लगभग ₹90–100 प्रति किलोग्राम तक मिलती है। यदि किसान इसके फलों का प्रसंस्करण (processing) कर सुखाए हुए फल, अचार, या अन्य मूल्यवर्धित उत्पाद बनाएं तो इसकी कीमत और भी अधिक मिल सकती है।
कम लागत और कम देखभाल में उच्च लाभ देने वाली यह फसल किसानों को पारंपरिक फसलों का एक मजबूत विकल्प प्रदान करती है। ग्रामीण क्षेत्रों में इसकी संगठित खेती और प्रोसेसिंग से किसान अपनी आय में उल्लेखनीय वृद्धि कर सकते हैं।
ककोड़ा की बुवाई का समय एवं विधि
भारत में विकसित की गई कुछ ककोड़ा की उन्नत किस्में इस प्रकार हैं:
ककोड़ा की उन्नत किस्में रोग प्रतिरोधक क्षमता अधिक रखती हैं और वाणिज्यिक खेती के लिए उपयुक्त हैं।
अंतिम जुताई के समय प्रति हेक्टेयर 200–250 क्विंटल गोबर की खाद डालना लाभकारी है।
इसके अतिरिक्त रासायनिक उर्वरकों की मात्रा इस प्रकार रखी जाती है:
यूरिया – 65 किलोग्राम
सिंगल सुपर फॉस्फेट (SSP) – 375 किलोग्राम
म्यूरेट ऑफ पोटाश (MOP) – 67 किलोग्राम
ककोड़ा पर सामान्यतः रोगों का प्रभाव कम देखा जाता है, लेकिन फल मक्खी हानिकारक साबित हो सकती है। इसके नियंत्रण हेतु – इमिडाक्लोप्रिड या क्विनालफॉस 25 ईसी की 2–3 मिली मात्रा प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव किया जाता है।
ककोड़ा की खेती किसानों के लिए एक कम लागत, लंबी अवधि और अधिक मुनाफा देने वाला विकल्प है। यह केवल खाद्य और पोषण संबंधी महत्व ही नहीं रखता, बल्कि औषधीय गुणों के कारण इसकी मांग बाजार में लगातार बनी रहती है। यदि इसकी संगठित खेती, प्रसंस्करण और विपणन प्रणाली विकसित की जाए तो यह ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सशक्त बनाने और किसानों की आय दोगुनी करने में बड़ी भूमिका निभा सकता है।