सिसल एक शुष्क जलवायु में उगाया जाने वाला पत्ती रेशा उत्पादक पौधा है, जिसकी पत्तियाँ मोटी, लंबी (1 से 1.5 मीटर), और रसीली होती हैं।
इनकी सतह पर एक मोमयुक्त परत होती है, जिससे यह मरूद्भिद (xerophytic) पौधों की श्रेणी में आता है। एक स्वस्थ सिसल पौधा अपने औसतन 10–12 वर्षों के जीवनकाल में 200–250 पत्तियाँ देता है।
इससे निकाला गया रेशा रस्सी, सुतली, कार्पेट बैकिंग, ब्रश और अन्य औद्योगिक उत्पादों में उपयोग किया जाता है।
सिसल अधिक तापमान सहन कर सकता है और 50°C तक जीवित रह सकता है। इसके लिए 60–125 सेमी वर्षा वाले क्षेत्र उपयुक्त हैं। हालांकि, इसकी आदर्श वृद्धि 10°C से 32°C के तापमान में होती है। ओलावृष्टि से इसकी पत्तियाँ और रेशा क्षतिग्रस्त हो सकते हैं।
ये भी पढ़ें: देशी कपास की उन्नत किस्में
सिसल को हल्की, रेतीली-दोमट और चूना युक्त मृदा पसंद होती है। जल निकासी वाली भूमि इसके लिए सर्वोत्तम होती है, जबकि भारी और जलभराव वाली जमीन इससे नुकसान पहुंचाती है।
मृदा में कैल्शियम की उपस्थिति जड़ों के विकास को प्रोत्साहित करती है। लाल मिट्टी और चूना पत्थर वाली भूमि में रेशा उत्पादन अच्छा देखा गया है।
भारत में सिसल फूल नहीं देता, अतः इसका प्रचार मुख्यतः बुलबिल और सकर्स से किया जाता है। एक पौधा 400–800 बुलबिल उत्पन्न कर सकता है।
इन्हें फरवरी से अप्रैल तक नर्सरी में लगाया जाता है। "कायिक भ्रूणजनन" तकनीक के प्रयोग से 95% तक पौधों की जीवित रहने की संभावना होती है, जिससे रोपण दर बेहतर होती है।
प्राथमिक और माध्यमिक दो चरणों में नर्सरी तैयार की जाती है। प्राथमिक नर्सरी में पौधों को 10×7 सेमी दूरी पर लगाया जाता है। माध्यमिक नर्सरी में 50×25 सेमी दूरी के साथ फफूंदनाशक उपचार कर रोपण किया जाता है। हर 11वीं पंक्ति कार्य सुविधा हेतु खाली रखी जाती है।
ये भी पढ़ें: रेशम किट पालन (सेरीकल्चर) क्या है: कैसे करें रेशम किट पालन?
रोपण से पहले रोपण सामग्री को 30–45 दिन छाया में रखा जा सकता है। गर्मियों में 1 घन फीट गड्ढों में जैविक खाद और चूने के साथ रोपण किया जाता है।
दो पंक्ति रोपण विधियाँ अपनाई जाती हैं—कम और उच्च घनत्व वाली। उच्च घनत्व रोपण में 6666 पौधे/हेक्टेयर, जबकि कम घनत्व में 4000 पौधे/हेक्टेयर लगाए जाते हैं।
पहले तीन वर्षों में फसल नहीं मिलती, इसलिए अंतरवर्ती फसल जैसे लोबिया, मटर, सफेद मूसली, एलोवेरा या लेमन ग्रास उगाई जा सकती है। मल्चिंग से नमी संरक्षित रहती है और मृदा उर्वरता में सुधार होता है।
पहले 45 दिन अत्यंत महत्वपूर्ण होते हैं। मेटोलाक्लोर (500 ग्राम/हेक्टेयर) से 89.2% तक खरपतवार नियंत्रित किए जा सकते हैं। 3–4 बार निराई जरूरी होती है।
सिफारिश की गई मात्रा 60:30:60 (N\:P\:K) किग्रा/हेक्टेयर है। इसके साथ 20 किग्रा बोरेक्स और 15 किग्रा जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर देने से फाइबर उत्पादन और पत्तियों की लंबाई में सुधार होता है।
सिसल वर्षा पर निर्भर होता है लेकिन ड्रिप सिंचाई से बेहतर परिणाम मिलते हैं। दो सप्ताह के अंतराल पर सिंचाई से पत्तियाँ अधिक लंबी होती हैं। वर्षा ऋतु में जल निकासी जरूरी है।
भारत में औसतन 600–800 किग्रा/हेक्टेयर रेशा उत्पादन होता है, लेकिन वैज्ञानिक तरीकों और बेहतर प्रबंधन से यह 2000 किग्रा/हे. या अधिक तक पहुँच सकता है।
बढ़ती जैविक उत्पादों की मांग और सस्ते रेशे की आवश्यकता को देखते हुए सिसल की व्यावसायिक खेती किसानों के लिए एक लाभकारी विकल्प बन सकती है। इससे सूखे और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में टिकाऊ कृषि को भी बढ़ावा मिलता है।