अलसी की खेती से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी
अलसी की फसल बहुउद्देशीय फसल होने की वजह भारत भर में आजकल अलसी की मांग अत्यंत बढ़ी है। अलसी बहुमूल्य तिलहन फसल है, जिसका इस्तेमाल विभिन्न उद्योगों के साथ-साथ औषधियां तैयार करने में भी किया जाता है। अलसी के हर एक हिस्से का प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष तौर पर बहुत सारे रूपों में इस्तेमाल किया जा सकता है। अलसी के बीज से निकलने वाला तेल प्रायः सेवन के तौर पर इस्तेमाल में नही लिया जाता है, बल्कि दवाइयाँ बनाने में होता है। इसके तेल का इस्तेमाल वार्निश, पेंट्स व स्नेहक निर्मित करने के साथ पैड इंक और प्रेस प्रिंटिंग हेतु स्याही निर्मित करने में इस्तेमाल किया जाता है। इसका बीज फोड़ों फुन्सी में पुल्टिस बनाकर इस्तेमाल किया जाता है। अलसी के तने के माध्यम से उच्च गुणवत्ता वाला रेशा अर्जित किया जाता है। वहीं, रेशे से लिनेन निर्मित किया जाता है। अलसी की खली दूध देने वाले पशुओं के लिये पशु आहार के तौर पर इस्तेमाल की जाती है। साथ ही, खली में बहुत सारे पौध पौषक तत्वों की समुचित मात्रा होने की वजह इसका इस्तेमाल खाद के तौर पर किया जाता है। अलसी के पौधे का काष्ठीय हिस्सा और छोटे-छोटे रेशों का इस्तेमाल कागज निर्मित करने में किया जाता है।खाद एवं उर्वरक का इस तरह इस्तेमाल करें
असिंचित इलाकों के लिए शानदार उत्पादन हांसिल करने हेतु नत्रजन 50 किग्रा. फास्फोरस 40 किग्रा. और 40 किग्रा. पोटाश की दर से और सिंचित क्षेत्रों में 100 किग्रा. नत्रजन, 60 किग्रा. फास्फोरस एवं 40 किग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें। असिंचित दशा में नत्रजन व फास्फोरस और पोटाश की संपूर्ण मात्रा तथा सिंचित दशा में नत्रजन की आधी मात्रा व फास्फोरस की भरपूर मात्रा बिजाई के समय चोगें द्वारा 2-3 सेमी. नीचे इस्तेमाल करें। वहीं, सिंचित दशा में नत्रजन की शेष आधी मात्रा आप ड्रेसिंग के तौर पर प्रथम सिंचाई के पश्चात उपयोग करें। फास्फोरस के लिए सुपर फास्फेट का इस्तेमाल ज्यादा लाभप्रद है।ये भी पढ़ें: अलसी की खेती से संबंधित विस्तृत जानकारी
अलसी की खेती में इस प्रकार सिंचाई करें
यह फसल मूलतः असिंचित रूप में बोई जाती है। लेकिन, जहाँ सिंचाई का साधन मौजूद है, वहाँ दो सिंचाई पहली फूल आने पर तथा दूसरी दाना बनते वक्त करने से उत्पादन में वृद्धि होती है।अलसी में खतपतवार नियंत्रण इस तरह करें
मुख्य रूप से अलसी में कुष्णनील, हिरनखुरी, चटरी-मटरी, अकरा-अकरी, जंगली गाजर, प्याजी, खरतुआ, सत्यानाशी, बथुआ और सेंजी इत्यादि प्रकार के खरपतवार देखे गए हैं, इन खरपतवारों के नियंत्रण के लिए किसान यह उपाय करें।ये भी पढ़ें: अलसी की खेती से भाग जाएगा आर्थिक आलस
सरसों के खेत की तैयारी करते समय याद रखें की इसकी खेत में घास न होने पाए और हर बारिश के बाद खेत की जुताई कर देनी चाहिए जिससे की सरसों में पानी देने की जरूरत नहीं पड़ती या फिर कम पानी की जरूरत होती है। सरसों के खेत की जुताई गहरी होनी चाहिए तथा इसकी मिटटी भुरभुरी होनी चाहिए। सरसों की जड़ें गहरी जाती हैं इसलिए इसको गहरी जुताई की आवश्यकता होती है। याद रहे की इसकी खेती समतल खेत में ज्यादा सही होती है इसको ज्यादा पानी की आवश्यकता नहीं होती है तो इसके खेत में पानी नहीं भरना चाहिए नहीं तो इसकी फसल के गलने की समस्या हो जाती है।
सरसों की बुवाई दो समय पर की जा सकती है जो अगस्त से लेकर अक्टूबर तक की जाती है. राई सरसों को अगस्त के अंतिम सप्ताह या सितम्बर के पहले सप्ताह में लगा देना चाहिए। पीली सरसों को सितम्बर में लगा देना चाहिए तथा सामान्य सरसों या काली सरसों को 15 अक्टूबर से पहले बो देना चाहिए। ध्यान रहे की खेत में में पर्याप्त नमी होनी चाहिए जिससे की पौधे को पनपने में आसानी हो।
उर्वरकों का प्रयोग
2018 तक एआईसीआरपी- आरएम की छतरी के तहत, रेपसीड-सरसों की कुल 248 किस्में जारी की गई हैं, इनमें से 185 किस्मों को अधिसूचित किया गया है (भारतीय सरसों-113; टोरिया -25; पीली सरसों -17; गोभी सरसों -11) भूरा सरसों -5; करन राई -5; तारामिरा -8 और काली सरसों -1)। इनमें छह संकर और जैविक (सफेद जंग, अल्टरनेरिया ब्लाइट, पाउडर फफूंदी) और अजैविक तनाव (लवणता, उच्च तापमान) के लिए सहिष्णुता वाले किस्में और विशिष्ट लक्षणों को विशिष्ट बढ़ती परिस्थितियों के लिए अनुशंसित किया गया है।




2. आरा मक्खी: सरसों की फसल में लगने वाले इस कीट के नियंत्रण के लिए मेलाथियान 50 ईसी की एक लीटर को 500 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर का छिड़काव करना चाहिये। एक बार में कीट न खत्म हों तो दुबारा छिड़काव करना चाहिये।
3.चितकबरा कीट : इस कीट से बचाव करने के लिए प्रति हेक्टेयर के हिसाब से क्यूलनालफास चूर्ण को 1.5 प्रतिशत को मिट्टी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिये। जब इस कीट का प्रकोप अपने चरम सीमा पर पहुंच जाये तो उस समय मेलाथियान 50 ईसी की 500 मि.ली. मात्रा को 500 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर के हिसाब से छिड़कना चाहिये।
4.लीफ माइनर: इस कीट के प्रकोप के दिखते ही मेलाथियान 50 ईसी का छिड़काव करने से लाभ मिलेगा।
5.बिहार हेयरी केटर पिलर : डाइमोथिएट के घोल का छिड़काव करने से इस कीट से बचाव हो सकता है।
6. सफेद रतुवा : सरसों की फसल में लगने वाले रोग से बचाव के लिए मैन्कोजेब (डाइथेन एम-45) के 0.2 प्रतिशत घोल का छिड़काव करें। आवश्यकतानुसार तीन बार तक छिड़काव किया जा सकता है।
7. काला धब्बा या पर्ण चित्ती: इस रोग से बचाव के लिए आईप्रोडियाँन, मेन्कोजेब के 0.2 प्रतिशत घोल का छिड़काव करें।
8. चूर्णिल आसिता: इस रोग की रोकथाम करने के लिए सल्फर का 0.2 प्रतिशत या डिनोकाप 0.1 प्रतिशत का घोल बनाकर छिड़काव करे।
9. मृदूरोमिल आसिता: सफेद रतुआ के प्रबंधन से ये रोग अपने आप ही नियंत्रित हो जाता है।
10. तना गलन: फंफूदीनाशक कार्बेन्डाजिम 0.1 प्रतिशत का छिड़काव फूल आने के समय किया जाना चाहिये। बुआई के लगभग 60-70 दिन बाद यह रोग लगता है। उसी समय रोगनाशी का छिड़काव करने से फायदा मिलता है।



