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घर पर मिट्टी के परीक्षण के चार आसान तरीके

घर पर मिट्टी के परीक्षण के चार आसान तरीके

किसान भाइयों आप यह तो जानते ही हैं कि मिट्टी अच्छी हो तो फसल अधिक हो सकती है। मिट्टी की कमियों को दूर करके फसल उगायी जायेगी तो अधिक फायदा होगा। सरकार ने मृदा परीक्षण के लिए सेंटर खोल दिये हैं, उसके लिये किसान भाइयों को अपने जरूरी काम छोड़ कर सरकारी सेंटरों तक आने-जाने की दौड़ भाग करनी होती है। यदि यही मृदा परीक्षण का काम घर पर आसान तरीकों से हो जाये तो फिर कहना ही क्या? आज हम आपके लिए वो चार आसान तरीके लेकर आये हैं, जिनसे आप घर बैठे अपनी मिट्टी यानी मृदा का परीक्षण कर सकते हैं।

मिट्टी के परीक्षण के चार आसान तरीके:

प्रथम चरण

मृदा में  पानी को सोखने की क्षमता, अम्लीय या खनिज तत्व की कमी या अधिकता की जानकारी मिल जाने से किसान भाई किसी प्रकार की अप्रिय स्थिति से बच सकते हैं। आम तौर पर तीन तरह की मिट्टी होती है। चिकनी मिट्टी, रेतीली मिट्टी या दोमट मिट्टी होती है। 1.चिकनी मिट्टी में पोषक तत्व अधिक होते हैं लेकिन इसमें पानी देर तक बना रहता है। 2.रेतीली मिट्टी में पानी जल्दी से निकल जाता है लेकिन इसमें खनिज तत्व कम होते हैं और क्षारीय होती है। 3.दोमट मिट्टी खेती के लिए सबसे अधिक उपजाऊ होती है। इसमें खनिज तत्व अधिक होते हैं और पानी जल्दी सूख जाता है लेकिन नमी काफी देर तक बनी रहती है। इन मिट्टियों को कैसे पहचानें, पहले चरण में यह है कि आप अपनी मिट्टी गीली नहीं बल्कि नमी वाली मिट्टी हाथ में लें और उसे कसके निचोड़ने की कोशिश करें। जब आप हाथ खोलेंगे तो उसमें तीन तरह के परिणाम सामने आयेंगे उससे पहचान लेगें कि आपकी मिट्टी कौन सी है 1.पहला परिणाम होगा कि जैसे ही आप हाथ खोलेगें तो मिट्टी ढेला बना नजर आयेगा उसे हल्के से प्रहार करेंगे तो वह बिखर जायेगी लेकिन महीन नहीं होगी यानी छोटे-छोटे ढेले बने रहेंगे तो समझिये कि आपकी मिट्टी दोमट मिट्टी है जो खेती के लिए सबसे अधिक उपयोगी होती है। 2.दूसरा परिणाम यह होगा कि मिट्टी निचोड़ने के बाद हाथ खोलेंगे और मिट्टी के ढेले पर हल्का सा प्रहार करेंगे तो यह मिट्टी उस जगह से पिचक जायेगी यानी टूटेगी नहीं। ऐसी स्थिति किसान भाइयों को समझना चाहिये कि उनकी मिट्टी चिकनी मिट्टी है। 3.तीसरा परिणाम यह होगा कि हाथ खोलने के बाद जब मिट्टी के ढेले पर हल्का सा प्रहार करेंगे तो वह पूरी तरह से बिखर जायेगी यानी रेत बन जायेगी । इस तरह से आपकी मिट्टी का परीक्षण हो जायेगा। इसके बाद आपको यह समझना चाहिये कि आपकी मिट्टी कैसी है। मिट्टी में यदि कमियां हों तो उनका उपचार करके अपनी मनचाही फसल उगा सकते हैं। [embed]https://www.youtube.com/watch?v=30hjGe10MIw&t[/embed]

दूसरा चरण

दूसरे चरण में आपको मिट्टी की जल निकासी की समस्या का परीक्षण करना बताया जा रहा है। खेती में जल निकासी का परीक्षण करना बहुत ही आवश्यक है। जलभराव से कई तरह के फसलों के पौधों की जड़ें सड़ जाती हैं और फसल नष्ट हो जाती है। मिट्टी की जलनिकासी का परीक्षण इस तरह से करें:- जो किसान भाई इस तरह का परीक्षण अपने खेत का करना चाहते हों तो उन्हें वहां पर छह इंच लम्बा और छह इंच चौड़ा तथा एक फुट गहरा गड्ढा खोदना चहिये। इस गड्ढे में पानी भर दें, पहली बार इसका पानी अपने आप निकलने दें। जब एक बार गड्ढे का पानी निकल जाये तो उसमें दोबारा पानी भर दें। इसके बाद उस गड्ढे पर नजर रखें तथा पानी डालने का टाइम नोट करना चाहिये। फिर उसका पानी निकलने का समय नोट करें। यदि पानी निकलने में चार घंटे से अधिक समय लगता है तो आपको समझना चाहिये कि आपकी इस मिट्टी में जल निकासी की समस्या है। यानी जल निकासी की गति काफी धीमी है। इसके बाद उस मिट्टी का उपचार कराना चाहिये। उसके बाद ही कोई फसल बोने की योजना बनानी चाहिये।

तीसरा चरण

अब तीसरे चरण के रूप में हम मिट्टी की उर्वरा शक्ति यानी उसकी जैविक शक्ति का परीक्षण करेंगे। मिट्टी की जैविक शक्ति उसकी उर्वरा शक्ति का परिचय देती है। इसका परीक्षण करके आप मिट्टी की जैविक गतिविधियों की परख कर सकते हैं। इससे आपको मालूम हो सकता है कि आपकी मिट्टी कितनी उपजाऊ  है। क्योंकि यदि आपकी मिट्टी में केंचुए हैं तो आपको यह समझना चाहिये कि आपकी मिट्टी में अन्य तरह के भी बैक्टीरिया व कीट भी हो सकते हैं। केंचुए और बैक्टीरिया तो आपकी खेती के लिए लाभकारी होते हैं और यह मिट्टी को स्वस्थ और उपजाऊ बनाने में मदद करते हैं लेकिन रोगाणु कीट आपकी फसल को नुकसान भी पहुंचा सकते हैं। उनका उपचार आपको पहले से ही करना होगा। 1.जैविक शक्ति का परीक्षण करने के लिए आप यह तय करें कि आपकी मिट्टी कम से कम 55 डिग्री तक गर्म हो गई है। उस स्थिति में मिट्टी में नमी है तब आप मिट्टी में एक फुट लम्बा और एक फुट चौड़ा तथा एक फुट गहरा गड्ढा खोदें। गड्ढे से निकली मिट्टी को किसी कार्ड बोर्ड पर रख लें। 2.इसके बाद आप इस मिट्टी को आप अपने हाथों से छानते हुए उसे गड्ढे में वापस डालने की कोशिश करें। इस प्रक्रिया को पूरा करते समय आप मिट्टी व गड्ढे पर पैनी नजर रखें। मिट्टी को छानते वक्त आपके हाथों में केंचुएं टकराते हैं तो आपको उनकी गिनती करते रहना चाहिये। इस दौरान आपको अपनी मिट्टी में यदि 10 केंचुए मिल जाते हैं तो आपको खुश हो जाना चाहिये क्योंकि इस तरह की मिट्टी बहुत उपजाऊ होती है और खेती के लिए बहुत अच्छी मानी जा सकती है। 3.यदि इससे कम केंचुए आपको मिलते हैं तो आपका यह जान लेना चाहिये कि आपकी मिट्टी की जैविक शक्ति बहुत कम है। यह मिट्टी स्वस्थ जैविक बैक्टीरिया वाली नहीं है और इसमें जैविक शक्ति वाले जीवाणुओं को पनपने देने की शक्ति नहीं है। इसका अर्थ यह समझना चाहिये कि आपकी मिट्टी में पर्याप्त कार्बन नहीं है और यह मिट्टी अम्लीय या क्षारीय है। इस तरह की मिट्टी का आवश्यक उपचार कराकर ही उसे फसल योग्य बना सकते हैं। इस तरह के परीक्षण से किसान भाइयों को उर्वरक प्रबंधन में भी काफी मदद मिल सकती है। [embed]https://www.youtube.com/watch?v=C4mhtK8HEiY[/embed]

चौथा चरण

किसान भाइयों मिट्टी की अम्ल और क्षार की परख करने के लिए हमें पीएच मान का परीक्षण करना होगा। मिट्टी के अम्ल या क्षारीय स्तर के आधार पर ही यह कहा जा सकता है कि आपकी मिट्टी कितनी उपजाऊ है और उसमें कौन-कौन सी फसल ली जा सकती है और कौन सी नहीं ली जा सकती है। कुछ फसलें कम उपजाऊ वाली मिट्टी में भी उगाई जा सकती है जबकि अधिकांश फसलों के लिए सामान्य पीएच मान वाली मिट्टी चाहिये। इसलिये मिट्टी का पीएच मान निकालना बहुत आवश्यक होता है। इसे दूसरे शब्दों में कहा जाये कि इस पीएच मान पर ही खेती का भाग्य टिका होता है। इसकी जांच के बिना खेती के बारे में फैसला नहीं किया जा सकता है। किसान भाइयों आपकी मिट्टी के अम्लीय स्तर पर सारा कुछ निर्भर करता है कि आपके खेत में पौधे किस तरह से विकसित हो सकते हैं और कौन सी खेती की जा सकती है। पीएम मान का परीक्षण शून्य से लेकर 14 तक किया जा सकता है। इसमें पीएम मान्य शून्य बहुत अम्लीय होता है और 14 बहुत क्षारीय होता है। ये अम्लीय और क्षारीय दोनों एक शब्द नहीं हैं और दोनों के अर्थ अलग-अलग हैं। हम जानते हैं कि अम्लीय और क्षारीय में क्या अंतर होता है।

1.अम्लीय मिट्टी क्या होती है

अम्लीय मिट्टी उसे माना जा सकता है जिसका पीएच मान शून्य से लेकर 5 या 6 तक होता है। इस मिट्टी में हाइड्रोक्साइड आयन की मात्रा कम हो ती है। यदि इस तरह के घोल के स्वाद की बात करें तो इसका स्वाद खट्टा होता है। पीएच का मान जितना कम होता है, उतनी ही वह मिट्टी अम्लीय अधिक  होती है। इस तरह की मिट्टी में जैविक उर्वरा शक्ति नहीं होती है।

2.क्षारीय मिट्टी क्या होती है

क्षारीय मिट्टी वह होती है जिसका पीएच मान 8 से 14 तक होता है। इस तरह की मिट्टी में हाइड्रोक्साइड आयन की मात्रा ज्यादा होती है। यदि हम इस तरह के घोल की बात करें तो परीक्षण में इसका स्वाद कसैला होता है और इसका लिटमस टेस्ट में रंग नीला होता है। अधिक क्षारीय मिट्टी में फसल व मिट्टी को स्वस्थ बनाने वाले बैक्टीरिया नहीं होते हैं। अच्छी खेती के लिए पीएम मान 6 से सात के बीच सबसे अच्छा माना जाता है। मिट्टी का पीएच मान 5 से कम या 8 से अधिक होता है। इस तरह की मिट्टी में फसल अच्छी नहीं हो सकती। किसान भाइयों इसके लिए प्रत्येक उद्यान केन्द्र में पीएच परीक्षण किट आसानी से मिल जाती है। यह किट काफी अच्छे टेस्टिंग के परिणाम देतीं हैं। इससे आप अपनी मिट्टी के पीएच मान को आसानी से जांच परख सकते हैं। यदि आपकी मिट्टी का पीच मान 6 से 7 के बीच है तो आपको कोई समस्या नहीं है और इससे कम या अधिक होने पर आपको सहकारी सेवा केन्द्रों या जिला कृषि केन्द्रों से सम्पर्क करना होता। वो आपकी मिट्टी को परीक्षण के लिए लैब में भेजेंगे और जांच रिपोर्ट में आपको सारी बातें बताई जायेंगी।  जो कमियां होंगी उनके उपचार के बारे में भी बताया जायेगा।  इस तरह से आप अपनी मिट्टी का सुधार करके अपनी मनचाही फसल ले सकते हैं।
अधिक पैदावार के लिए करें मृदा सुधार

अधिक पैदावार के लिए करें मृदा सुधार

विनोद कुमार शर्मा, रविंद्र कुमार एवं कपिल आत्माराम भारत में कृषि प्रगति का श्रेय किसान एवं वैज्ञानिकों की कड़ी मेहनत के अलावा उन्नत किस्म उर्वरकों एवं सिंचित क्षेत्र को जाता है. 

इसमें अकेले उर्वरकों का खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि के लिए 50 परसेंट योगदान माना जाता है. उल्लेखनीय है कि फसलों द्वारा उपयोग की जाने वाली पोषक तत्वों की मात्रा और आपूर्ति में बहुत बड़ा अंतर है. 

फसलें कम उर्वरक लेती हैंं, किसान ज्यादा डालते हैं जिसका दुष्प्रभाव जमीन की उर्वरा शक्ति पर लगातार पड़ रहा है. देश के किसान उर्वरकों के उपयोग में न तो वैज्ञानिकों की संस्तुति का ध्यान रखते हैं ना अपने ज्ञान विशेष का। 

असंतुलित उर्वरकों के उपयोग से उन्नत व पौधों को हर तत्व की पूरी मात्रा मिल पाती है और ना ही उत्पादन ठीक होता है। इसके अलावा किसानों की लागत और बढ़ जाती है। 

जरूरत इस बात की है कि किसान संतुलित उर्वरकों का प्रयोग करें ताकि उत्पादन अच्छा और गुणवत्ता युक्त हो एवं मृदा स्वास्थ्य ठीक रहे।

उपज में इजाफा ना होने के कारण

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  • मृदा में मौजूद पोषक तत्वों की सही जानकारी का अभाव रहता है। 
  • किस फसल के लिए कौन सा पोषक तत्व जरूरी है इसका ज्ञान ना होना। 
  • मुख्य एवं क्षमा सूक्ष्म पोषक तत्वों के विषय में जानकारी ना होना। 
  • उर्वरकों के उपयोग की विधि एवं समय कर सही निर्धारण न होना। 
  • सिंचाई जल का प्रबंधन ठीक ना होना। 
  • फसलों में कीट एवं खरपतवार प्रबंधन समय से ना होना।
  • लगातार एक ही फसल चक्र अपनाना। 
  • कार्बनिक खाद का उपयोग न करने से रासायनिक खादों से भी उपज में ठीक वृद्धि ना होना।

मृदा परीक्षण क्यों जरूरी है

यदि फसल उगाने की तकनीक के साथ उर्वरकों का प्रयोग मिट्टी परीक्षण के आधार पर किया जाए तो दोहरा लाभ होता है। 

किसानों को गैर जरूरी उर्वरकों पर होने वाला खर्च नहीं करना होता इसके अलावा संतुलित उर्वरक फसल को मिलने के कारण उत्पादन अच्छा और गुणवत्ता युक्त होता है। संतुलित उर्वरक प्रयोग से मिट्टी की भौतिक दशा यानी सेहत ठीक रहती है।

फसलों के लिए उर्वरकों की वैज्ञानिक संस्तुति

इस विधि को विकसित करने के लिए वैज्ञानिकों द्वारा दशकों पहले देश के विभिन्न भागों और राज्यों एवं मिट्टी की विभिन्न दशाओं में नाइट्रोजन, फास्फोरस एवं पोटाश उर्वरक की अलग-अलग मात्रा तथा उनके संयोजन के साथ विभिन्न फसलों पर प्रयोग किए गए। 

इन प्रयोगों के फसलों की उपज पर होने वाले प्रभावों व आर्थिक पहलुओं का मूल्यांकन करने के बाद विभिन्न फसलों के लिए सामान्य संस्तुति यां  विकसित की गईं। कुछ प्रमुख फसलों की सामान्य संस्तुतियां प्रस्तुत हैं।

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फसलें/उर्वरक तत्वों की मात्रा किलोग्राम प्रति हेक्टेयर

नाइट्रोजन फास्फोरस/ पोटाश  धान 120 60 40 गेहूं  120 60 40 मक्का  120 60 40 बाजरा  80 40 40 सरसों    80 40 80 अरहर  25 60 × चना  25 50 × मूग  25 50 × उर्द 25 50 ×

वैज्ञानिक सुझाव भी कारगर नहीं

इस विधि का मुख्य जोश लिया है की इसमें मिट्टी की उर्वरा शक्ति का ध्यान नहीं रखा जाता। खेतों की उर्वरा शक्ति अलग-अलग होती है लेकिन बिना जांच के हमें एक समान ही खाद लगाना पड़ता है। 

किसी खेत में किसी एक तत्व की मात्रा पहले से ही मौजूद होती है लेकिन बगैर जांच के हम उसे और डाल देते हैं। उपज पर इसका अनुकूल प्रभाव नहीं पड़ता।

पोषक तत्वों की कमी के लक्षण

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  1. नाइट्रोजन- पुरानी पत्तियों का रंग पीला पड़ जाता है। अधिक कमी होने पर पत्तियां बोरी होकर सूख जाती हैैं
  2. फास्फोरस-पत्तियों एवं तनाव पर लाल लिया बैगनी रंग आ जाता है। जड़ों के फैलाव में कमी हो जाती है। 
  3. पोटेशियम- पुरानी पत्तियों के किनारे पीले पड़ जाते हैं। पत्तियां बाद में भंवरी झुलसी हुई लगने लगती हैं। 
  4. सल्फर- नई पत्तियों का रंग हल्का हरा एवं पीला पड़ने लगता है दलहनी फसलों में गांठें कब बनती हैं। 
  5. कैल्शियम-नई पत्तियां पीली अथवा गहरी हो जाती हैं। पत्तियों का आकार सिकुड़ जाता है। 
  6. मैग्नीशियम पुरानी पत्तियों की नसें हरी रहती हैं लेकिन उनके बीच का स्थान पीला पड़ जाता है। पत्तियां छोटी और सख्त हो जाते हैं। 
  7. जिंक-पुरानी पत्तियों पर हल्के पीले रंग के धब्बे देखने लगते हैं। शिरा के दोनों और रंगहीन पट्टी जिंक की कमी के लक्षण है। 
  8. आयरन-नई पत्तियों की शिराओं के बीच का भाग पीला हो जाता है। अधिक कमी पर पत्तियां हल्की सफ़ेद हो जाती हैैं। ंं ९-कॉपर-पत्तियों के शिराओं की चोटी-छोटी एवं मुड़ी हुई हल्की हरी पीली हो जाती है। 
  9. मैग्नीज-की कमी होने पर नई पत्तियों की शिराएं भूरे रंग की तथा पत्तियां पीली से भूरे रंग में बदल जाती हैं। ११-बोरान-नई पत्तियां गुच्छों का रूप ले लेती हैं। डंठल, तना एवं फल फटने लगते हैं। 
  10. मालिब्डेनम-पत्तियों के किनारे झुलस या मुड जाते हैं या कटोरी का आकार ले सकते हैं।

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क्या है बायो फर्टिलाइजर

बायो फर्टिलाइजर जमीन में मौजूद पढ़े अतिरिक्त खादों को घुलनशील बनाकर पौधों को पहुंचाने में मददगार होता है।

नत्रजन तत्व की पूर्ति के लिए

राइजोबियम कल्चर-इसका उपयोग दलहनी फसलों के लिए किया जाता है । 1 हेक्टेयर क्षेत्र के लिए 200 ग्राम के 3 पैकेट राइजोबियम लेकर बीज को उपचारित करके बुवाई करें। 

एजेक्वेक्टर एवं एजोस्पाइरिलम कल्चर-बिना दाल वाली सभी फसलों के लिए निम्नानुसार प्रयोग करें। रोपाई वाली फसलों के लिए दो पैकेट कल्चर को 10 लीटर पानी के घोल में पौधे की जड़ों को 15 मिनट तक ठोकर रखने के बाद रोपाई करें।

फास्फोरस तत्व की पूर्ति के लिए

पीएसबी कल्चर-रासायनिक उर्वरकों द्वारा दिए गए फास्फोरस का बहुत बड़ा भाग जमीन में घुलनशील होकर फसलों को नहीं मिल पाता । पीएसबी कल्चर फास्फोरस को घुलनशील बनाकर फसलों को उपलब्ध कराता है ।

बीजोपचार उपरोक्तानुसार करें या 2 किलो कल्चर को 100 किलोग्राम गोबर की खाद में मिलाकर खेत में मिला दे। वैम कल्चर-यह कल्चर फास्फोरस के साथ-साथ दूसरे सभी तत्वों की उपलब्धता बढ़ा देता है । उपरोक्त अनुसार बीज उपचार करें।

प्राकृतिक खेती और मसालों का उत्पादन कर एक किसान बना करोड़पति

प्राकृतिक खेती और मसालों का उत्पादन कर एक किसान बना करोड़पति

राधेश्याम परिहार जो कि आगर मालवा जिले में रहते है, ये अपने प्रदेश में प्राकृतिक खेती करने में पहले स्थान पर है. मध्यप्रदेश सरकार ने उन्हें ये उपाधि दी है. राधेश्याम ने 12 वर्षो से खेती छोड़कर मसाला और औषधि की जैविक खेती कर रहे है. इन्हे कई पुरस्कारों से भी नवाजा गया है, जैसे- कृषक सम्राट, धरती मित्र, कृषक भूषण और इनके कार्य को राज्य स्तरीय सराहना देने के लिए इन्हें जैव विविधता पर 2021-22 का राज्य स्तरीय प्रथम पुरस्कार भी दिया गया है.

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ये रसायनिक खेती से ज्यादा प्राकृतिक खेती में विश्वास रखते थे. जिस वजह से इन्होंने रसायनिक खेती का विरोध किया. जिसकी वजह से उनके पिता ने उनको एक एकड़ जमीन जमीन देकर उन्हें अलग कर लिया. जिसके बाद राधेश्याम ने मसाला और औषधि में खेती शुरू की और मेहनत करके अपना ब्रांड बनाया और उसे तमाम ऑनलाइन साइट्स पर उपलब्ध करवाया और बेचना शुरू किया. पहले मिट्टी की जांच कराई, ज्यादातर कमियों को दूर किया और फिर इतनी मेहनत करने के बाद वो सफल हो गए. अभी के समय राधेश्याम किसान नही है अब वो कारोबारी बन गए है. अभी के समय सालाना टर्नओवर जैविक खेती के उत्पादों का एक करोड़ 80 लाख रुपए है.

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प्राकृतिक खेती के बारे में जानकारी देने के लिए राधेश्याम जी ने फार्म हाउस में पाठशाला शुरू की. इनसे प्रभावित होकर 10 जिलों के 1200 से अधिक किसानों ने प्राकृतिक खेती करना शुरू किया और काफी मुनाफा भी कमा रहे है. फार्म में फूड प्रोसेसिंग इकाई, दुर्लभ वनस्पतियों, रासायनिक खेती से होने वाले नुकसान, जीव-जंतुओं की प्राकृतिक खेती में भूमिका और उनका योगदान जैसे विषयों पर समय-समय पर नि:शुल्क संगोष्ठी की जाती है.

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परंपरागत खेती में मुनाफा न होने के कारण राधेश्याम ने कृषि मेलो और कृषि विश्वविद्यालयों में जाकर समझा कि मसाला एवं औषधि की खेती करके अधिक मुनाफा कैसे कमाए. फिर उन्होंने पारंपरिक खेती में कम ध्यान दिया और मसाला और औषधि की खेती शुरू कर दी. जब देखा कि मसाला और औषधि की खेती में ज्यादा मुनाफा मिल रहा है तो उन्होंने पारंपरिक खेती बंद कर इसी राह में चल पड़े और आज अच्छा मुनाफा कमा रहे है. यदि मसाले की खेती करनी है तो उसके लिए रेतीली दोमट वाली मिट्टी की जरूरत है. साथ ही उस जमीन में पानी की बरसात के पानी का भराव न होना चाहिए नही तो फसल खराब हो सकती है. इसी वजह से राधेश्याम साल का 1 करोड़ 80 लाख रुपए कमाते है.
कम उर्वरा शक्ति से बेहतर उत्पादन की तरफ बढ़ती हमारी मिट्टी

कम उर्वरा शक्ति से बेहतर उत्पादन की तरफ बढ़ती हमारी मिट्टी

भारत में पाई जाने वाली मृदा का वर्गीकरण और सम्पूर्ण जानकारी

कई लाखों साल में बनकर तैयार होने वाली मिट्टी की एक छोटी सी परत, किसान भाइयों के लिए कृषि के दौरान इस्तेमाल में आने वाली एक महत्वपूर्ण प्राकृतिक स्रोत है। बेहतरीन गुणवत्ता की मृदा की मदद से ही आज हम अपनी खेती से अधिक उत्पादकता प्राप्त कर पा रहे हैं, साथ ही इस मृदा में कई प्रकार के छोटे जीव जंतु भी रहते है। हर प्रकार की मिट्टी में जैविक और अजैविक तत्व पाए जाते हैं, जैविक तत्व को
ह्यूमस (humus) के नाम से जाना जाता है।

भारतीय मृदा का वर्गीकरण (Soil classification) :

अलग-अलग प्रकार की मृदा निर्माण में शामिल अलग-अलग प्रकार के कारक, उनके रंग, मृदा के कणों की मोटाई, उम्र तथा रासायनिक और भौतिक गुणों के आधार पर भारत में पायी जाने वाली मृदा को कई प्रकार से विभाजित किया जा सकता है, जो कि निम्न प्रकार से है :- अलग-अलग प्रकार की वातावरणीय परिस्थितियां और वहां पाए जाने वाली वनस्पति तथा लैंडफॉर्म (Landform) विभिन्न प्रकार की मृदा निर्माण में सहायक भूमिका निभाते है।


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जलोढ़ मिट्टी (Alluvial soil) :

भारत के कुल क्षेत्रफल में पायी जाने वाली सभी मृदाओं में सर्वाधिक योगदान जलोढ़ मिट्टी या दोमट मृदा का ही है।

उतरी भारतीय समतल मैदान पूर्णतः जलोढ़ मिट्टी (jalod mitti) से ही निर्मित है, इन मैदानों का निर्माण मुख्यतः गंगा, ब्रह्मपुत्र और सिंधु नदी के नदी तंत्र द्वारा लाए जाने वाले मिट्टी से हुआ है। राजस्थान और गुजरात के कुछ क्षेत्रों में भी जलोढ़ मृदा पाई जाती है। इसके अलावा पूर्वी भारत की नदियों के डेल्टा के द्वारा भी जलोढ़ मृदा के मैदानों को तैयार किया गया है, जिनमें महानदी, गोदावरी और कृष्णा नदियों की मुख्य भूमिका रही है।

जलोढ़ मृदा में मिट्टी और सिल्ट की अलग-अलग मात्रा पाई जाती है। जलोढ़ मृदा निर्माण में लगने वाले समय अथार्त उम्र के आधार पर, इसे दो भागों में विभाजित किया जाता है, जिन्हें बांगर (Bangar) और खादर (Khadar) के नाम से जाना जाता है।

खादर प्रकार की जलोढ़ मृदा को नई जलोढ़ कहा जाता है और इसमें पतले कणों (Fine Particles) की संख्या ज्यादा होती है और बांगर की तुलना में यह ज्यादा उर्वरा शक्ति वाली मृदा होती है

यदि बात करें जलोढ़ मृदा में पाए जाने वाले पोषक तत्वों की, तो इसमें पोटाश, फास्फोरिक अम्ल और लाइम जैसे पोषक तत्वों की उचित मात्रा पाई जाती है। इसीलिए इस प्रकार की मृदा गन्ना, धान और गेहूं के अलावा कई प्रकार की दालों के उत्पादन के लिए सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है।

जलोढ़ मृदा की बेहतर उर्वरा शक्ति की वजह से जिन जगहों पर यह मृदा पाई जाती है, वहां पर अग्रसर कृषि (Intensive Cultivation) की जाती है और ऐसी जगहों का जनसंख्या घनत्व भी अधिक होता है।

सूखी और कम बारिश वाली जगह पर पाई जाने वाली मृदा में अम्लता के गुण ज्यादा होते है, लेकिन मृदा के उचित उपचार एवं बेहतर सिंचाई की मदद से इसे भी कृषि में इस्तेमाल योग्य बनाया जा सकता है।

लाल एवं पीली मृदा (Red and Yellow soil) :

आग्नेय प्रकार की चट्टानों से निर्मित होने वाली यह मृदा कम वर्षा वाले क्षेत्रों में पाई जाती है। दक्कन के पठार के पूर्वी और दक्षिणी हिस्सों में इस प्रकार की मृदा का सर्वाधिक देखा जाता है। इसके अलावा उड़ीसा, छत्तीसगढ़ एवं गंगा के मैदानों के दक्षिणी क्षेत्रों में भी कुछ क्षेत्रों में यह मृदा पायी जाती है।

इस प्रकार की मृदा का रंग लाल होने का पीछे का कारण यह है कि इसके निर्माण में आयरन (iron) चट्टानों का योगदान रहता है और जब यह मृदा पूरी तरह से हाइड्रेट रूप (Hydrate Form) में होती है, तो इनका रंग पीला दिखाई देता है।

काली मृदा (Black soil) :

कपास के उत्पादन के लिए सर्वश्रेष्ठ मानी जाने वाली इस मृदा का रंग काला होता है, इसे रेगुरु मृदा (Regur soil) भी कहा जाता है।

दक्कन के पठार (Deccan Plateau) और इसके उत्तरी पूर्वी क्षेत्रों में पाई जाने वाली काली मृदा, जमीन से निकले लावा से निर्मित हुई है, इसीलिए इसका रंग काला होता है। महाराष्ट्र और सौराष्ट्र के पठारी क्षेत्र के अलावा मालवा और मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ में पाई जाने वाली रेगुर मिट्टी गोदावरी और कृष्णा नदी की घाटियों में भी फैली हुई है।

पतले पार्टीकल से बनी हुई यह मिट्टी पानी और उसकी नमी को बहुत ही अच्छे से रोक कर रख सकती है।

कई प्रकार के मृदा पोषक तत्व जैसे कि कैलशियम कार्बोनेट, मैग्नीशियम और पोटेशियम तथा लाइम की अधिकता वाली इस मिट्टी में फास्फोरस जैसे सूक्ष्म तत्वों की कमी पाई जाती है।

गर्मी के मौसम के दौरान इस प्रकार की मृदा में बड़े-बड़े क्रेक (cracks) दिखाई देते है, जो कि इस मृदा का एक बेहतरीन लक्षण है और इन क्रेक की वजह से मिट्टी के अंदर तक हवा का आसानी से आदान-प्रदान हो जाता है।

बारिश के दौरान यह मृदा चिकनी हो जाती है। कृषि वैज्ञानिकों की राय के अनुसार, काली मृदा की मॉनसून आने से पहले ही जुताई कर देना सही रहता है, क्योंकि एक बार बारिश में भीग जाने पर इसकी जुताई करना बहुत मुश्किल होता है।

लेटराइट मृदा (Laterite soil) :

इस मृदा का नामकरण लेटिन भाषा के शब्द 'लेटर' से हुआ है जिसका तात्पर्य होता ईंट।

उष्ण एवं उपोष्ण जलवायुवीय परिस्थितियों से निर्मित हुई यह मिट्टी नमी और सूखे दोनों ही प्रकार के स्थानों पर देखने को मिलती है। एक समय सामान्य प्रकार की मिट्टी के रूप में जाने जाने वाली लेटराइट मृदा उच्च स्तर पर मृदा लीचिंग (soil leaching) होने की वजह से निर्मित हुई है।

लेटराइट मृदा की pH का मान 6 से कम होता है, इसीलिए इन्हें अम्लीय मृदा भी कहा जा सकता है।

दक्षिण के कुछ राज्यों और पश्चिमी घाट से जुड़े हुए राज्य जैसे कि महाराष्ट्र और गोवा में इस प्रकार की मृदा देखने को मिलती है, साथ ही उत्तरी पूर्वी भारत के कई राज्यों में भी यह पाई जाती है।

पतझड़ और हरित वनों को आधार प्रदान करने वाली इस मिट्टी में ह्यूमस की कमी देखने को मिलती है।

लेटराइट मृदा मुख्यतः ढलाव वाली जगहों पर पाई जाती है, इसीलिए मृदा अपरदन जैसी समस्या अधिक देखने को मिलती है।

मृदा संरक्षण की बेहतरीन तकनीकों को अपनाकर केरल, कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे राज्य इसी मृदा के इस्तेमाल से बेहतरीन गुणवत्ता की चाय और कॉफी का उत्पादन कर रहे हैं, साथ ही तमिलनाडु के कुछ क्षेत्रों में पाई जाने वाली लाल लेटराइट मृदा, काजू के उत्पादन के लिए सर्वश्रेष्ठ समझी जाती है।

शुष्क मृदा (Arid soil) :

प्रकृति में लवणीय मृदा के रूप में पहचान बना चुकी शुष्क मृदा भूरे और हल्के लाल रंग में देखी जाती है।

कई जगहों पर पाई जाने वाली शुष्क मृदा में लवणीयता का गुण इतना अधिक होता है कि इस प्रकार की मृदा से दैनिक इस्तेमाल में आने वाला नमक भी प्राप्त किया जाता है।

कम बारिश वाले शुष्क स्थानों और अधिक तापमान वाले क्षेत्रों में पाई जाने वाली इस मृदा में वाष्पोत्सर्जन की दर बहुत तेज होती है, इसी वजह से इनमें ह्यूमस और नमी की कमी भी देखने को मिलती है।

शुष्क मृदा में गहराई पर जाने पर कैल्शियम की मात्रा अधिक हो जाती है और मृदा अपरदन के दौरान ऊपर की परत हट जाने से नीचे की बची हुई मिट्टी फसल उत्पादन के लिए पूरी तरीके से अनुपयोगी हो जाती है। हालांकि, पिछले कुछ समय से कृषि विज्ञान की नई तकनीकों और बेहतर मशीनरी की मदद से राजस्थान और गुजरात के शुष्क इलाकों में पाई जाने वाली मिट्टी भी फसल उत्पादकता में वृद्धि देखने को मिली है।

वनीय मृदा (Forest soil) :

चट्टानी और पर्वतीय क्षेत्रों में पायी जाने वाली यह मृदा उस क्षेत्र की पर्यावरणीय परिस्थितियों से प्रभावित होती है।

हिमालय और उसके आसपास के क्षेत्रों में पाई जाने वाली मृदा पर बर्फ पड़ने की वजह से आच्छादन (Denudation) जैसी समस्या देखने को मिलती है और इसी वजह से उसके अम्लीय गुणों में भी वृद्धि होती है, जिस कारण ऊपरी ढलानी क्षेत्रों पर फसल और खेती का उत्पादन नहीं किया जा सकता है और केवल कठिन परिस्थितियों में उगने वाले वनों के पौधे ही विकसित हो पाते है।

घाटी के निचले स्तर पर पाई जाने वाली वनीय मृदा की उर्वरा शक्ति अच्छी होती है, इसीलिए उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के कुछ किसान घाटी से जुड़े हुए समतल मैदानों पर आसानी से कृषि उत्पादन कर सकते है।

इन सभी मृदा के प्रकारों के अलावा भारतीय मृदा को अम्लीयता एवं क्षारीयता के गुणों के आधार पर भी दो भागों में बांटा जा सकता है। वर्षा की अधिकता वाले स्थानों पर पाई जाती पायी जाने वाली और मृदा की लीचिंग होने वाली जगहों की मिट्टी की pH का मान 7 से कम होता है, इसीलिए इन्हें अम्लीय मृदा कहा जाता है और जिन मृदाओं में pH मान 7 से अधिक होता है, उन्हें क्षारीय मृदा कहा जाता हैआईसीएआर (ICAR - The Indian Council of Agricultural Research) की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत के कुल मृदा क्षेत्रफल में 70% हिस्सेदारी अम्लीय मृदा की है।


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भारतीय मृदाओं की समस्या :

किसानों की उपज और मुनाफे के सर्वश्रेष्ठ स्रोत कृषि उत्पादन में मुख्य भूमिका निभाने वाली भारतीय मृदा कई प्रकार की समस्याओं से जूझ रही है। अलग-अलग राज्यों में यह समस्या अलग-अलग हो सकती है, जैसे कि पंजाब और हरियाणा राज्य में पानी के अधिक इस्तेमाल की वजह से मृदा में अम्लीयता एवं लवणता की समस्या बढ़ रही है, जिससे कि समय के साथ इन राज्य में होने वाला उत्पादन भी कम होते जा रहा है। इसके अलावा मध्य भारत और उत्तरी भारत के राज्य में पशुओं के द्वारा इस्तेमाल में आने वाले चारे के कारण ओवरग्रेजिंग (Over-grazing) से खरपतवार बहुत तेजी से बढ़ रही है और इसी कारण मृदा की उर्वरा शक्ति भी कम होती जा रही है।


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इसके अलावा कृषि का आधुनिक मशीनीकरण और अधिक उत्पादन के लिए मृदा पर किए जा रहे रासायनिक उर्वरकों के अंधाधुंध इस्तेमाल से भी नकारात्मक प्रभाव देखने को मिल रहे है और मृदा की उर्वरा शक्ति में भारी कमी होने के साथ ही मर्दा के कणों में आपस में जुड़े रहने की क्षमता भी कम हो रही है, जिससे मृदा अपरदन की समस्या भी अधिक देखने को मिल रही है।

मृदा अपरदन (Soil erosion) :

पानी और हवा की वजह से मृदा की ऊपरी परत के आच्छादन (Denudation) होने की समस्या को ही मृदा अपरदन कहते है। मृदा अपरदन कोई आधुनिक समस्या नहीं है, बल्कि प्राचीन काल से ही चली आ रही है। हालांकि प्रकृति अपने नियमों के अनुसार मृदा अपरदन और मृदा के निर्माण में एक संयम बना कर रखती थी, परंतु पिछले कुछ समय से प्रकृति के साथ मानवीय छेड़छाड़ जैसे कि वनों की कटाई और विकास के लिए किए जा रहे कंस्ट्रक्शन और माइनिंग के कार्य तथा ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्याओं से यह बैलेंस पूरी तरीके से बिगड़ गया है और अब मृदा अपरदन समस्या बहुत तेजी से बढ़ती हुई नजर आ रही है। पानी से होने वाले मृदा अपरदन को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है :-
  • गली अपरदन (Gully erosion) :

मृदा के एक हिस्से के ऊपर से बह रहा पानी मिट्टी को काटकर धीरे-धीरे उसमें एक गहरी गली बना लेता है और धीरे-धीरे यह गली खेत की पूरी जमीन में फैल जाती है।

चंबल नदी के पानी के द्वारा किए गए गली अपरदन की वजह से ही उसके आसपास के क्षेत्र फसल उपजाऊ करने के लिए पूरी तरीके से अनुपयोगी हो चुके है, ऐसे क्षेत्रों को खड़ीन (khadin) नाम से जाना जाता है।

  • परत अपरदन (Sheet erosion) :-

ढलान वाली जगहों पर कई बार पानी एक परत के रूप में मृदा के ऊपर से बहता है और अपने साथ मृदा की ऊपरी परत को भी बहाकर ले जाता है।

किसान भाई यह तो जानते ही है कि बेहतर फ़सल उत्पादन के लिए मृदा की ऊपरी परत सर्वश्रेष्ठ होती है। अपरदन की वजह से ऊपरी परत बह जाने से नीचे बची हुई परत को फिर से उर्वरक और बेहतरीन सिंचाई की कठिन मेहनत के बाद भी उपजाऊ बनाना काफी मुश्किल होता है। पहाड़ी और ढलान वाले क्षेत्रों में मृदा अपरदन की समस्या को रोकना थोड़ा मुश्किल होता है, हालांकि फिर भी कृषि विज्ञान की नई तकनीकों और मृदा अपरदन के क्षेत्र में काम कर रहे सक्रिय एक्टिविस्ट लोगों की मदद से नई तकनीकों का विकास किया जा चुका है, इस प्रकार की तकनीकों को मृदा संरक्षण के नाम से जाना जाता है।


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मृदा अपरदन रोकने / मृदा संरक्षण (Soil Conservation) के लिए अपनाई जाने वाली तकनीक :-

गलत तरीके से जुताई करने की वजह से भी कई बार मृदा अपरदन हो सकता है, क्योंकि यदि आप खेत के एक हिस्से में कल्टीवेटर की मदद से कम गहरी जुताई करते है और दूसरे कोने में अधिक गहरी जुताई हो जाए तो वहां पर ढलान वाला क्षेत्र निर्मित हो जाता है, जिससे पानी को आसानी से लुढ़कने के लिए पर्याप्त जगह मिल जाती है और मृदा का कटाव होना शुरू हो जाता है इस प्रकार से होने वाले मृदा अपरदन को रोकने के लिए समोच्च जुताई (Contour Ploughing ) की विधि को अपनाया जाता है। समोच्च जुताई की मदद से जुताई के दौरान बनने वाली अलग-अलग पंक्तियों में जल का वितरण किया जा सकता है। मिट्टी की गुणवत्ता एवं उर्वरा शक्ति तथा संरचना को बरकरार रखने में मददगार यह विधि पहाड़ी और ढलानी क्षेत्र के किसानों के द्वारा सर्वाधिक इस्तेमाल में लाई जाती है, भारत में भी हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और आसाम तथा सिक्किम जैसे राज्यों के किसान इस विधि की मदद से मृदा अपरदन को रोकने में सफल हुए है। इसके अलावा ऐसे क्षेत्रों में सीढ़ी नुमा खेती (Terrace cultivation) भी की जाती है, जिसमें पहाड़ियों वाले क्षेत्र को अलग-अलग ब्लॉक्स में बांट दिया जाता है और एक सीढ़ी जैसी संरचना बना दी जाती है, जिससे कि पहाड़ी के ऊपरी हिस्से पर गिरने वाला पानी तेज गति से मृदा का कटाव करते हुए नीचे की तरफ ना आ पाए और ढलाव के दौरान ही पानी को रुकने के लिए थोड़ा समय मिल जाए, जिससे मृदा की ऊपरी परत के अपरदन को बचाया जा सकता है। तेज हवा चलने वाले इलाकों में मृदा अपरदन को बचाने के लिए खेत के चारों तरफ बड़े-बड़े पेड़ लगा दिए जाते है, जो कि खेत में उगने वाली फसल को तेज हवा से बचाव प्रदान करते है, इस प्रकार की विधि को शेल्टरबेल्ट / वातरोधक विधि (Shelter belt cultivation) कहा जाता है। भारत के पश्चिमी भागों और रेगिस्तानी क्षेत्रों में खेती वाली जमीन में मिट्टी के टीलों के प्रसार को रोकने के लिए भी इस विधि का इस्तेमाल किया जाता है। इसके अलावा रेगिस्तानी क्षेत्रों में कृषि के लिए प्रयासरत कुछ अरब देश जैसे सऊदी अरेबिया और संयुक्त अरब अमीरात में खेती के दौरान फसलों की पंक्तियों के बीच में घास की अलग-अलग पंक्तियां उगायी जाती है जो कि हवा के दबाव को कम करने के साथ ही वायु से होने वाले मृदा अपरदन को रोकने में सहायक होती है, इस तकनीक को स्ट्रिप क्रॉपिंग / पट्टीदार खेती (Strip Cultivation) के नाम से जाना जाता है।


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मृदा की घटती उर्वरा क्षमता और मृदा संरक्षण को बेहतर बनाने के लिए किए गए सरकारी प्रयास :

हरित क्रांति के शुरुआत में ही भारतीय सरकार और कृषि वैज्ञानिकों ने यह तो समझ लिया था कि केवल उच्च गुणवत्ता वाले बीज और अधिक सिंचाई से ही नहीं, बल्कि मृदा की बेहतर गुणवत्ता से ही अधिक उत्पादन किया जा सकता है और इसी की तर्ज पर चलते हुए भारत सरकार और कई राज्य सरकारों ने मृदा संरक्षण के लिए कुछ सरकारी स्कीम शुरू की है, जो कि निम्न प्रकार है :-

राष्ट्रीय कृषि विकास योजना (RKVY - Rashtriya Krishi Vikas Yojana) :

मृदा की उर्वरा शक्ति को बढ़ाने के अलावा अलग-अलग क्षेत्रों में पायी जाने वाली मृदा की गुणवत्ता में तुलनात्मक अंतर को किसानों तक पहुंचाकर जागरूकता लाने के उद्देश्य से प्रारम्भ की गई यह योजना काफी सफल रही है। इस योजना में मृदा की ऊपरी परत में होने वाले अपरदन को रोकने के लिए कई नए प्रयास किए गए हैं। इसके अलावा नदी-घाटियों के प्रसार को रोकने के लिए भी उपाय सुझाए गए है, जिससे कि पानी के कम फैलाव से लीचिंग तथा खडीन जैसी समस्याएं कम देखने को मिले।

मृदा स्वास्थ्य कार्ड स्कीम (Soil health card scheme) :

2015 में लांच की गई इस स्कीम के तहत भारत सरकार किसानों की मृदा की गुणवत्ता की जांच करने के लिए 'स्वस्थ धरा, खेत हरा' की तर्ज पर काम करते हुए अलग-अलग मृदा स्वास्थ्य कार्ड प्रदान कर रही है।


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मृदा स्वास्थ्य कार्ड में 12 अलग-अलग पैरामीटर के आधार पर किसान भाइयों को उर्वरकों के सीमित इस्तेमाल की सलाह दी जाती है, जिनमें कुछ सूक्ष्म पोषक तत्व जैसे कि नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटेशियम के अलावा द्वितीय पोषक तत्व जैसे कि जिंक, फेरस, कॉपर की मात्रा की जानकारी देने के साथ ही मृदा की अम्लीयता की जानकारी भी प्रदान की जाती है। इस स्कीम के तहत कोई भी किसान भाई अपने आसपास में स्थित कृषि विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिकों की मदद से खेत की मिट्टी की जांच करवा सकता है और उनके द्वारा दी गई सलाह का सही पालन करके हुए मृदा की उर्वरा क्षमता बरकरार रखने के साथ ही अपनी उत्पादकता को बेहतर कर सकता है।

नाबार्ड की मृदा संरक्षण के लिए चलाई गई लोन स्कीम (NABARD loan scheme on Soil Conservation) :

2001 से लगातार संचालित हो रही यह स्कीम किसानों को समोच्च विकास (Sustainable Development) की अवधारणा पर काम करने की सलाह देती है और कुछ नई वैज्ञानिक तकनीकों की मदद से किसान भाइयों की उपज को बढ़ाने में मदद करती है। पर्यावरण के कम नुकसान के साथ मृदा की गुणवत्ता को बेहतर बनाने के लिए ग्रामीण चौपालों का आयोजन किया जाता है, इन चौपालों में किसान भाइयों को मृदा अपरदन के लिए जागरूकता प्रदान की जाती है। इसके अलावा झूम कृषि समस्या से ग्रसित उत्तरी पूर्वी राज्यों में भारत की आजादी से ही मृदा संरक्षण के लिए कई प्रकार की सरकारी योजनाएं चलाई जा रही है।भारत में झूम कृषि मुख्यतः उत्तरी पूर्वी राज्यों में की जाती है। कृषि की इस विधि में कुछ किसानों के द्वारा जंगलों को काट कर साफ कर लिया जाता है और वहां पर फसल उगाई जाती है, जब दो से तीन सीजन के बाद इस जमीन की उर्वरा शक्ति कम हो जाती है तो दूसरी जगह पर बने जंगलों को काट कर वहां की जमीन को इस्तेमाल में लिया जाता है। पिछले कुछ सालों से पर्यावरण के लिए एक घातक विधि के रूप में हो रही झूम खेती को रोकने के लिए किसानों में जागरूकता लाने के लिए कई पर्यावरणविद  और सरकार प्रयासरत है। ईशा फाउंडेशन के द्वारा मृदा संरक्षण के लिए चलाया जा रहा मृदा बचाओ आंदोलन (Save soil movement) अनोखी विश्वस्तरीय पहल है और अब केवल जंगल और पानी ही नहीं बल्कि मृदा संरक्षण के लिए भी कई ग्रामीण किसान भाई प्रयासरत है।
"मृदा से है जीवन अपना, इसकी सुरक्षा हमारा सपना"
की सोच पर काम करने वाले कई किसान भाई पूरे देश भर में प्राकृतिक कृषि और वैज्ञानिक विधियों की मदद से समोच्च विकास की अवधारणा पर आगे बढ़ते हुए भारतीय कृषि की उत्पादन क्षमता बढ़ाने के अलावा मृदा के संरक्षण में भी एक सफल व्यक्तित्व के रूप में उभरकर सामने आए है।
योगी सरकार ने गौ-आधारित प्राकृतिक खेती के लिए तैयार की योजना

योगी सरकार ने गौ-आधारित प्राकृतिक खेती के लिए तैयार की योजना

उत्तर प्रदेश राज्य में आर्गेनिक खेती (Organic farming) के प्रोत्साहन हेतु एवं गौ संरक्षण के हेतु प्रदेश सरकार द्वारा बड़ा कदम उठाया गया है। उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा गौ आधारित प्राकृतिक कृषि योजना बनाई है। इस योजना के अंतर्गत लगभग पौने तीन सौ करोड़ रुपए का व्यय होना है। गौ संरक्षण हेतु उत्तर प्रदेश की योगी सरकार बेहद सजग और जागरुक है। गौ-मूत्र एवं गाय के गोबर का उपयोग औषधियों एवं खेती बाड़ी के लिए हो रहा। गोवंशों के संबंध में अब बड़ी पहल उत्तर प्रदेश सरकार के स्तर से की जा रही है। प्रदेश सरकार द्वारा गोवंश आधारित प्राकृतिक कृषि को प्रोत्साहन देने की पूर्ण रणनीति तैयार करली है। इसकी वजह से किसानों का काफी फायदा होगा।

इस राज्य में होगी गौ आधारित खेती

उत्तर प्रदेश राज्य सरकार द्वारा उच्च स्तर पर गौ आधारित कृषि करने की योजना बना रही है। योजना के अंतर्गत राज्य के 49 जनपदों के 85,750 हेक्टेयर में गौ आधारित प्राकृतिक खेती की जाएगी। इस कृषि में गोवंशों से जुड़ी खादों का उपयोग किया जाएगा। रसायन मुक्त प्राकृतिक खेती द्वारा कृषि उत्पादन की गुणवत्ता अच्छी होगी। इसकी सहायता से भूमि या मृदा की उर्वरक शक्ति अच्छी होगी। साथ ही, प्राकृतिक खेती के अंतर्गत जो भी अनुदान मिलेगा। उसको भी प्रत्यक्ष रूप से कृषकों के खाते में भेजा जाएगा। जो किसान प्राकृतिक कृषि की ओर रुख करना चाहते हैं और करेंगे। उनको सरकार के माध्यम से बढ़ावा भी दिया जाएगा।
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गंगा को प्रदूषित होने से बचाने के लिए सरकार कर रही हर संभव प्रयास

उत्तर प्रदेश सरकार इस परियोजना के माध्यम से गंगा को रसायनिक प्रदूषण से बचाने की पहल कर रही है। योजना के तहत गंगा के किनारे स्थित 27 गांव शम्मिलित होंगे। इस योजना से गंगा के आसपास 5-5 किमी का इलाका कवर किया जाना है। जिससे कि गंगा को प्रदूषित होने से बचाने में सहायता मिल सके। इससे गंगा को निर्मल करने की केंद्र सरकार की योजना को भी पंख लग सकेंगे।

योगी सरकार जारी करेगी प्राकृतिक खेती पोर्टल

प्राकृतिक खेती के उत्पादन को प्रोत्साहन देने हेतु राज्य सरकारें अहम पहल की जाएगी। इसी क्रम में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी यूपी दिवस के अवसर पर प्राकृतिक खेती पोर्टल जारी करेंगे। जो परियोजना केंद्र एवं राज्य सरकार की एकमत पहल है। इसकी कुल लागत 246 करोड़ रुपये की होगी। आगामी चार वर्षों के अंतर्गत प्रति हेक्टेयर के अनुसार केंद्र और राज्य सरकार के संयुक्त प्रयास से चलने वाली इस कल्याणकारी परियोजना के अंतर्गत प्रति हेक्टेयर 28714 रुपये आगामी 4 वर्षों तक खर्च किए जाने हैं।

इस राज्य में 50-50 हेक्टेयर के 1715 क्लस्टर बनाने जा रही है सरकार

परियोजना के अंतर्गत राज्य भर में क्लस्टर स्थापित किए जाने हैं। प्रदेश के 49 जनपदों में 50-50 हेक्टेयर के 1715 क्लस्टर विकसित करने की योजना है। योजना के अंतर्गत निर्धारित किया गया है, कि किसान के पास एक हेक्टेयर से अधिक भूमि नहीं होनी चाहिए। प्रत्येक क्लस्टर में कृषकों का समूह भी जुड़ सकेगा।

इस परियोजना के तहत देशी गाय रखना अत्यंत आवश्यक है

दरअसल, सरकार की परियोजना ही गाय से संबंधित होती है। इस वजह से राज्य सरकार द्वारा निर्धारित किया गया है, कि प्रत्येक कृषि करने वाले कृषक के पास एक देसी गाय होनी अनिवार्य है। इस वजह से सड़कों पर असहाय व छुट्टा घूमने वाली गायों के संरक्षित पालन में वृध्दि हो सकेगी। गाय का गोबर गौ मूत्र, जीवामृत, बीजामृत निर्माण में काफी सहायक होगा। साथ ही, एक विशेष प्रावधान जारी किया गया है, कि जो किसान प्राकृतिक कृषि कार्य करेंगे। उनको केवल बीज ही खेत से बाहर निकालना होगा। विशेषज्ञों ने इस खेती को जीरो बजट की खेती का नाम दिया है।
पराली क्यों नहीं जलाना चाहिए? कैसे जानेंगे की आपकी मिट्टी सजीव है की निर्जीव है ?

पराली क्यों नहीं जलाना चाहिए? कैसे जानेंगे की आपकी मिट्टी सजीव है की निर्जीव है ?

आप की मिट्टी की ऊपरी सतह में पाए जाने वाले सूक्ष्मजीव (माइक्रोब्स) ही निर्धारित करते है की आपकी मिट्टी सजीव है या निर्जीव है,निर्जीव मिट्टी को ही बंजर भूमि कहते है। धान का पुआल जलाने से अत्यधिक गर्मी जी वजह से मिट्टी में पाए जाने वाले सूक्ष्मजीव मर जाते है जिसकी वजह से मिट्टी बंजर हो जाती है। पराली जलाने की समस्या को कम करने के लिए इस तथ्य को प्रचारित करने की आवश्यकता है। कोई भी होशियार एवं जागरूक किसान स्वयं अपनी मिट्टी को स्वयं बंजर नही बनाएगा। तात्कालिक लाभ के लिए एवं जानकारी के अभाव में वह अपने पैरों स्वयं कुल्हारी मार रहा है। यह निर्धारित करने में कि मिट्टी जीवित है या निर्जीव है, इसमें इसकी जैविक, रासायनिक और भौतिक विशेषताओं का आकलन करना शामिल है। मिट्टी एक जटिल पारिस्थितिकी तंत्र है जो सूक्ष्मजीवों से लेकर केंचुए जैसे बड़े जीवों तक जीवों के विविध समुदाय को मिलाकर बनता है। यह गतिशील वातावरण पौधों के जीवन को समर्थन देने और पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। हम विभिन्न संकेतकों और कारकों का पता लगाएंगे जो हमें मिट्टी की जीवित प्रकृति को समझने में मदद करते हैं जैसे.

1. जैविक संकेतक

मिट्टी जीवन से भरपूर है, और इसकी जीवंतता का एक प्रमुख संकेतक सूक्ष्मजीवों की उपस्थिति है। बैक्टीरिया, कवक, प्रोटोजोआ और नेमाटोड मिट्टी के स्वास्थ्य के आवश्यक घटक हैं। ये जीव पोषक चक्र, कार्बनिक पदार्थ अपघटन और रोग दमन में योगदान करते हैं। मृदा परीक्षण, जैसे माइक्रोबियल बायोमास और गतिविधि परख, इन सूक्ष्मजीवों की प्रचुरता और विविधता में अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं।

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केंचुए एक अन्य महत्वपूर्ण जैविक संकेतक हैं। उनकी बिल खोदने की गतिविधियाँ मिट्टी की संरचना, वातन और जल घुसपैठ को बढ़ाती हैं। केंचुओं की उपस्थिति और विविधता का अवलोकन एक स्वस्थ और जैविक रूप से सक्रिय मिट्टी का संकेत देता है।

2. रासायनिक संकेतक

मिट्टी की रासायनिक संरचना से भी उसकी जीवंतता का पता चलता है। जीवित मिट्टी की विशेषता एक संतुलित पोषक तत्व है जो पौधों के विकास का समर्थन करती है। पीएच, पोषक तत्व स्तर (नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटेशियम, आदि), और कार्बनिक पदार्थ सामग्री के लिए मिट्टी का परीक्षण मिट्टी की उर्वरता और पौधों के जीवन को बनाए रखने की क्षमता का आकलन करने में मदद मिलता है। विघटित पौधे और पशु सामग्री से प्राप्त कार्बनिक पदार्थ, जीवित मिट्टी का एक प्रमुख घटक है। यह पोषक तत्व प्रदान करता है, जल प्रतिधारण में सुधार करता है और माइक्रोबियल गतिविधि का समर्थन करता है। उच्च कार्बनिक पदार्थ सामग्री जीवंत और जैविक रूप से सक्रिय मिट्टी का संकेत है।

3. भौतिक संकेतक

मिट्टी की भौतिक संरचना उसकी जीवंतता को प्रभावित करती है। एक स्वस्थ मिट्टी की संरचना उचित जल निकासी, जड़ प्रवेश और वायु परिसंचरण की अनुमति देती है। कणों के बंधन से बनने वाले मृदा समुच्चय, एक अच्छी तरह से संरचित मिट्टी में योगदान करते हैं।

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मिट्टी की बनावट (रेत, गाद, मिट्टी) का अवलोकन करने से इसके भौतिक गुणों के बारे में जानकारी मिल सकती है। जीवित मिट्टी में अक्सर विविध बनावट होती है, जो जल निकासी और जल प्रतिधारण के संतुलित मिश्रण को बढ़ावा देती है। संकुचित या खराब संरचित मिट्टी जैविक गतिविधि की कमी का संकेत देती है।

4. पौधों का स्वास्थ्य

मिट्टी में उगने वाले पौधों का स्वास्थ्य और जीवन शक्ति मिट्टी की जीवंतता का प्रत्यक्ष संकेतक है। हरे-भरे और जोरदार पौधों की वृद्धि पोषक तत्वों से भरपूर और जैविक रूप से सक्रिय मिट्टी का संकेत देती है। इसके विपरीत, रुका हुआ विकास, पीली पत्तियां, या बीमारियों के प्रति बढ़ती संवेदनशीलता मिट्टी की समस्याओं का संकेत देती है। माइकोराइजा पौधों की जड़ों के साथ सहजीवी संबंध बनाते हुए, पोषक तत्व ग्रहण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। माइकोराइजा की उपस्थिति एक जीवित मिट्टी पारिस्थितिकी तंत्र का संकेतक होती है जो पौधे-सूक्ष्मजीव इंटरैक्शन का समर्थन करती है।

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5. मृदा श्वसन

मृदा श्वसन दर को मापने से माइक्रोबियल गतिविधि का प्रत्यक्ष मूल्यांकन मिलता है। सूक्ष्मजीव मिट्टी में कार्बनिक पदार्थों का उपभोग करते हैं, श्वसन के माध्यम से कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ते हैं। उच्च मृदा श्वसन दर एक सक्रिय माइक्रोबियल समुदाय का संकेत देती है और पोषक तत्वों के चक्रण में योगदान करती है।

निष्कर्ष

निष्कर्ष में, यह निर्धारित करने के लिए कि मिट्टी जीवित है या नहीं, इसमें इसकी जैविक, रासायनिक और भौतिक विशेषताओं का व्यापक विश्लेषण शामिल है। सूक्ष्मजीवों और केंचुओं जैसे जैविक संकेतक, पोषक तत्वों के स्तर और कार्बनिक पदार्थ सामग्री जैसे रासायनिक संकेतक और मिट्टी की संरचना जैसे भौतिक संकेतक सामूहिक रूप से मूल्यांकन में योगदान करते हैं। इसके अतिरिक्त, पौधों के स्वास्थ्य का अवलोकन करना और मृदा श्वसन परीक्षण करने से मिट्टी की गतिशील और जीवित प्रकृति के बारे में बहुमूल्य जानकारी मिलती है। कुल मिलाकर, एक समग्र दृष्टिकोण जो कई संकेतकों पर विचार करता है, मिट्टी की आजीविका की गहन समझ के लिए आवश्यक है।