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पर्यावरण

पराली जलाने की समस्या से कैसे निपटा जाए?

पराली जलाने की समस्या से कैसे निपटा जाए?

हमारे देश में किसान फसलों के बचे भागों यानी अवशेषों को कचरा समझ कर खेत में ही जला देते हैं. इस कचरे को पराली कहा जाता है. इसे खेत में जलाने से ना केवल प्रदूषण फैलता है बल्कि खेत को भी काफी नुकसान होता है. ऐसा करने से खेत के लाभदायी सूक्ष्मजीव मर जाते हैं और खेत की मिट्टी इन बचे भागों में पाए जाने वाले महत्त्वपूर्ण पोषक तत्त्वों से वंचित रह जाती है. किसानों का तर्क है कि धान के बाद उन्हें खेत में गेहूं की बुआई करनी होती है और धान की पराली का कोई समाधान नहीं होने के कारण उन्हें इसे जलाना पड़ता है. पराली जलाने पर कानूनी रोक लगाने के बावजूद, सही विकल्प ना होने की वजह से पराली जलाया जाना कम नहीं हुआ है. खरीफ फसलों (मुख्यतः धान) को हाथों से काटने और फसल अवशेष का पर्यावरणीय दृष्टि से सुरक्षित तरीके से निपटान करने के काम में ना केवल ज्यादा समय लगता है बल्कि श्रम लागत भी अधिक हो जाती है. इससे कृषि का लागत मूल्य काफी बढ़ जाता है और किसान को घाटा होता है. इसलिए इस स्थिति से बचने के लिए और रबी की फसल की सही समय पर बुआई के लिए किसान अपने फसल के अवशेष को जलाना बेहतर समझते हैं. अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान (आईएफपीआरआई) के एक अध्ययन के मुताबिक उत्तर भारत में जलने वाली पराली की वजह से देश को हर साल लगभग दो लाख करोड़ रुपए का नुकसान होता है. राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में सर्दियों में बढ़ने वाले दम घोंटू प्रदूषण की एक बड़ी वजह पड़ोसी राज्यों पंजाब और हरियाणा में पराली का जलाया जाना है. अकेले पंजाब में ही अनुमानित तौर पर 44 से 51 मिलियन मेट्रिक टन पराली जलायी जाती है. इससे होने वाला प्रदूषण हवाओं के साथ दिल्ली-एनसीआर में पहुंच जाता है. अध्ययन के मुताबिक केवल धान के अवशेष को जलाने से ही 2015 में भारत में 66,200 मौतें हुईं. इतना ही नहीं, अवशेष जलने से मिट्टी की उर्वरता पर भी बुरा असर पड़ा. साथ ही, इससे पैदा होने वाली ग्रीन हाउस गैस की वजह से पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचता है.

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कृषि एवं पर्यावरण विषय पर वैज्ञानिक संवाद

कृषि एवं पर्यावरण विषय पर वैज्ञानिक संवाद

सरसों अनुसंधान निदेशालय सेवर भरतपुर में कृषि एवं पर्यावरण विषय पर दो ब्याख्यानमालाओं का आयोजन किया गया। हाइब्रिड मोड में आयोजित ब्याख्यान में डॉ वाई. एस. परमार औद्योगिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय, सोलन के पूर्वकुलपति डॉ एच. सी. शर्मा ने कीट-रोधक प्रजातियों के बारे में चर्चा करते हुए कीट-प्रतिरोधी प्रजातियों के विकास पर प्रकाश डाला। डॉ शर्मा ने चना एवं बाजरा फसलों में लगने वाले कीटों के बारे में जानकारी देते हुए इन फसलों में कीट-प्रतिरोधी किस्मों के बारे में विस्तार से बात की। 

 भारतीय तिलहन अनुसंधान संस्थान हैदराबाद के पूर्व निदेशक डॉ डी. एम. हेगडे ने भारत में जल संसाधनों की उपलब्धता पर व्याख्यान देते हुए कृषि में सिचाईं एवं जल प्रबंधन के इतिहास के बारे में चर्चा की। उन्होंने बताया कि लगातार प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता घटने के  कारण वर्ष 2007 से ही भारत जल की कमी  वाले देशों की सूची में शामिल है जो कि हमारे लिए चिंता का विषय होना चाहिए। डॉ हेगडे ने बताया कि सिचाईं की आधुनिक विधियों का प्रयोग कर हम उपलब्ध जल संसाधनों के अनुचित दोहन से बच सकते हैं। उन्होंने वर्षा जल के संचयन पर जोर देते हुए कहा कि जल की समस्या को सुलझाने के लिए ऐसे प्रयास तेजी से करने पड़ेंगे। 

कार्यक्रम की अध्यक्षता पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना के प्राफेसर सुरिंदर सिंह बंगा ने की। उन्होंने बदलते पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए सरसों की उन्नत किस्मों के विकास के बारे में वैज्ञानिकों को सुझाव दिए।कार्यक्रम का आयोजन संस्थान के निदेशक डॉ पी. के. राय ने किया । डॉ राय ने सरसों की फसल में सिचाईं की उन्नत तकनीकियों के बारे में जानकारी दी।संस्थान में उपस्थित सभी वैज्ञानिकों ने प्रत्यक्ष रूप से एवं अन्य राज्यों के वैज्ञानिकों ने ऑनलाइन माध्यम से इस कार्यक्रम में भाग लिया । कार्यक्रम का संचालन संस्थान के वैज्ञानिक डॉ प्रशांत यादव ने किया।

जैविक खेती पर इस संस्थान में मिलता है मुफ्त प्रशिक्षण, घर बैठे शुरू हो जाती है कमाई

जैविक खेती पर इस संस्थान में मिलता है मुफ्त प्रशिक्षण, घर बैठे शुरू हो जाती है कमाई

जालंधर में नूरमहल के दिव्य ज्योति जागृति संस्थान (Divya Jyoti Jagrati Sansthan)ने जैविक खेती की प्रेरणा एवं प्रशिक्षण के पुनीत कार्य में मिसाल कायम की है। बीते 15 सालों से पर्यावरण संरक्षण की दिशा में रत इस संस्थान ने कैसे अपने मिशन को दिशा दी है, कैसे यहां किसानों को प्रशिक्षित किया जाता है, कैसे सेवादार इसमें हाथ बंटाते हैं जानिये।

सफलता की कहानी -

जैविक खेती के मामले में आदर्श नूरमहल के दिव्य ज्योति जागृति संस्थान में जनजागृति एवं प्रशिक्षण की शुरुआत कुल 50 एकड़ की भूमि से हुई थी। अब 300 एकड़ जमीन पर जैविक खेती की जा रही है। अनाज की बंपर पैदावार के लिए आदर्श रही पंजाब की मिट्टी, खेती में व्यापक एवं अनियंत्रित तरीके से हो रहे रासायनिक खाद और कीटनाशकों के इस्तेमाल से लगातार उपजाऊ क्षमता खो रही है। जालंधर के नूरमहल स्थित दिव्य ज्योति जागृति संस्थान ने इस समस्या के समाधान की दिशा में आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया है।

गौसेवा एवं प्रेरणा -

संस्थान में गोसेवा के साथ-साथ पिछले 15 सालों से किसानों को जैविक खेती के लाभ बताकर प्रेरित करने के साथ ही प्रशिक्षित किया जा रहा है। संस्थान की सफलता का प्रमाण यही है कि साल 2007 में 50 एकड़ भूमि पर शुरू की गई जैविक कृषि आधारित खेती का विस्तार अब 300 एकड़ से भी ज्यादा ऊर्जावान जमीन के रूप में हो गया है। यहां की जा रही जैविक खेती को पर्यावरण संवर्धन की दिशा में मिसाल माना जाता है। ये भी पढ़ें: देश में प्राकृतिक खेती को बढ़ावा, 30 फीसदी जमीन पर नेचुरल फार्मिंग की व्यवस्था

सेवादार करते हैं खेती -

संस्थान के सेवादार ही यहां खेती-किसानी का काम संभालते हैं। किसान एवं पर्यावरण के प्रति लगाव रखने वालों को संस्थान में विशेष कैंप की मदद से प्रशिक्षित किया जाता है। गौरतलब है कि गौसेवा, प्रशिक्षण के रूप में जनसेवा एवं जैविक कृषि के प्रसार के लिए प्रेरित कर संस्थान प्रकृति संवर्धन एवं स्वस्थ समाज के निर्माण में अतुलनीय योगदान प्रदान कर रहा है।

रासायनिक खाद के नुकसान -

संस्थान के सेवादार शिविरों में इस बारे में जागरूक करते हैं कि रासायनिक खाद व कीटनाशक से लोग किस तरह असाध्य बीमारियों की चपेट में आते हैं। इससे होने वाली शुगर असंतुलन, ब्लड प्रेशर, जोड़ दर्द व कैंसर जैसी बीमारियों के बारे में लोगों को शिविर में सावधान किया जाता है। ये भी पढ़ें: जैविक खेती में किसानों का ज्यादा रुझान : गोबर की भी होगी बुकिंग यहां लोगों की इस जिज्ञासा का भी समाधान किया जाता है कि जैविक खेती के कितने सारे फायदे हैं। जैविक कृषि विधि से संस्थान गेहूं, धान, दाल, तेल बीज, हल्दी, शिमला मिर्च, लाल मिर्च, कद्दू, अरबी की खेती कर रहा है। साथ ही यहां फल एवं औषधीय उपयोग के पौधे भी तैयार किए जाते हैं।

गोमूत्र निर्मित देसी कीटनाशक के फायदे -

संस्थान के सेवादार फसल को खरपतवार और अन्य नुकसान पहुंचाने वाले कीड़ों से बचाने के लिए खास तौर से तैयार देसी कीटनाशक का प्रयोग करते हैं। इस स्पेशल कीटनाशक में भांग, नीम, आक, गोमूत्र, धतूरा, लाल मिर्च, खट्टी लस्सी, फिटकरी मिश्रण शामिल रहता है। इसका घोल तैयार किया जाता है। फसल की पैदावार बढ़ाने के लिए जैविक कृषि के इस स्पेशल स्प्रे का इस्तेमाल समय-समय पर किया जाता है। ये भी पढ़ें: गाय के गोबर से बन रहे सीमेंट और ईंट, घर बनाकर किसान कर रहा लाखों की कमाई

जैविक उत्पाद का अच्छा बाजार -

जैविक उत्पादों की बिक्री में आसानी होती है, जबकि इसका दाम भी अच्छा मिल जाता है। इस कारण संस्थान में प्रशिक्षित कई किसान जैविक कृषि को आदर्श मान अब अपना चुके हैं। जैविक कृषि आधारित उत्पादों की डिमांड इतनी है कि, लोग घर पर आकर फसल एवं उत्पाद खरीद लेते हैं। इससे उत्पादक कृषक को मंडी व अन्य जगहों पर नहीं जाना पड़ता।

पृथक मंडी की दरकार -

यहां कार्यरत सेवादारों की सलाह है कि जैविक कृषि को सहारा देने के लिए सरकार को जैविक कृषि आधारित उत्पादों के लिए या तो अलग मंडी बनाना चाहिए या फिर मंडी में ही विशिष्ट व्यवस्था के तहत इसके प्रसार के लिए खास प्रबंध किए जाने चाहिए। ये भी पढ़ें: एशिया की सबसे बड़ी कृषि मंडी भारत में बनेगी, कई राज्यों के किसानों को मिलेगा फायदा संस्थान की खास बात यह है कि, प्रशिक्षण व रहने-खाने की सुविधा यहां मुफ्त प्रदान की जाती है। संस्थान की 50 एकड़ भूमि पर सब्जियां जबकि 250 एकड़ जमीन पर अन्य फसलों को उगाया जाता है।

कथा, प्रवचन के साथ आधुनिक मीडिया -

अधिक से अधिक लोगों तक जैविक कृषि की जरूरत, उसके तरीकों एवं लाभ आदि के बारे में उपयोगी जानकारी पहुंचाने के लिए संस्थान धार्मिक समागमों में कथा, प्रवचन के माध्यम से प्रेरित करता है। इसके अलावा आधुनिक संचार माध्यमों खास तौर पर इंटरनेट के प्रचलित सोशल मीडिया जैसे तरीकों से भी जैव कृषि उपयोगिता जानकारी का विस्तार किया जाता है। संस्थान के हितकार खेती प्रकल्प में पैदा ज्यादातर उत्पादों की खपत आश्रम में ही हो जाती है। कुछ उत्पादों के विक्रय के लिए संस्थान में एक पृथक केंद्र स्थापित किया गया है।

गोबर, गोमूत्र आधारित जीव अमृत -

जानकारी के अनुसार संस्थान में लगभग 900 देसी नस्ल की गायों की सेवा की जाती है। इन गायों के गोबर से देसी खाद, जबकि गो-मूत्र से जीव अमृत (जीवामृत) निर्मित किया जाता है। इस मिश्रण में गोमूत्र, गुड़ व गोबर की निर्धारित मात्रा मिलाई जाती है। गौरतलब है कि गोबर के जीवाणु जमीन की उपजाऊ शक्ति बढ़ाने में अति महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
Natural Farming: प्राकृतिक खेती में छिपे जल-जंगल-जमीन संग इंसान की सेहत से जुड़े इतने सारे राज

Natural Farming: प्राकृतिक खेती में छिपे जल-जंगल-जमीन संग इंसान की सेहत से जुड़े इतने सारे राज

जीरो बजट खेती की दीवानी क्यों हुई दुनिया? नुकसान के बाद दुनिया लाभ देख हैरान ! नीति आयोग ने किया गुणगान

भूमण्डलीय ऊष्मीकरण या आम भाषा में ग्लोबल वॉर्मिंग (Global Warming) से हासिल नतीजों के कारण पर्यावरण संरक्षण (Environmental protection), संतुलन व संवर्धन के प्रति संवेदनशील हुई दुनिया में नेट ज़ीरो एमिशन (net zero emission) यानी शुद्ध शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करने के लिए देश नैचुरल फार्मिंग (Natural Farming) यानी प्राकृतिक खेती का रुख कर रहे हैं। प्राकृतिक खेती क्या है? इसमें क्या करना पड़ता है? क्या प्राकृतिक खेती बहुत महंगी है? जानिये इन सवालों के जवाब।

खेत और किसान की जरूरत

इसके लिए यह समझना होगा कि, किसी खेत या किसान के लिए सबसे अधिक जरूरी चीज क्या है? उत्तर है खुराक और स्वास्थ्य देखभाल।मतलब, यदि किसी खेत के लिए जरूरी खुराक यानी उसके पोषक तत्व और पादप संरक्षण सामग्री का प्रबंध प्राकृतिक तरीके से किया जाए, तो उसे ही प्राकृतिक खेती (Natural Farming) कहते हैं।

प्राकृतिक खेती क्या है?

प्राकृतिक खेती, प्रकृति के द्वारा स्वयं के विस्तार के लिए किए जाने वाले प्रबंधों का मानवीय अध्ययन है। इसमें कृषि विज्ञान ने किसानी में उन तरीकों कोे अपनाना श्रेष्यकर समझा है, जिसे प्रकृति खुद अपने संवर्धन के लिए करती है। प्राकृतिक खेती में किसी रासायनिक पदार्धों के अमानक प्रयोग के बजाए, प्रकृति आधारित संवर्धन के तरीके अपनाए जाते हैं। इंटीग्रेटेड फार्मिंग सिस्टम (Integrated Farming System) या एकीकृत कृषि प्रणाली, प्राकृतिक खेती का वह तरीका है, जिसकी मदद से प्रकृति के साथ, प्राकृतिक तरीके से खेती किसानी कर किसान कृषि आय में उल्लेखनीय वृद्धि कर सकता है।


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प्राकृतिक संसाधनों के प्रति देशों की सभ्यता का प्रमाण तय करने वाले नेट ज़ीरो एमिशन (net zero emission) यानी शुद्ध शून्य उत्सर्जन अलार्म, के कारण देशों और उनसे जुड़े किसानों को कृषि के तरीकों में बदलाव करना होगा। COP26 summit, Glasgow, में भारत ने 2070 तक, अपने नेट ज़ीरो एमिशन को शून्य करने का वादा किया है। इसी प्रयास के तहत भारत में केंद्र एवं राज्य सरकार, इंटीग्रेटेड फार्मिंग सिस्टम (Integrated Farming System) को अपनाने के लिए किसानों को प्रेरित कर रही हैं। प्राकृतिक खेती में सिंचाई, सलाह, संसाधन के प्रबंध के लिए किसानों को प्रोत्साहन योजनाओं के जरिए लाभान्वित किया जा रहा है।


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प्राकृतिक खेती के लाभ

प्राकृतिक खेती के लाभों की यदि बात करें, तो इसमें घरेलू संसाधनों से आवश्यक पोषक तत्व और पादप संरक्षण सामग्री तैयार की जा सकती है। किसान इस प्रकृति के साथ वाली किसानी की विधि से कृषि उत्पादन लागत में भारी कटौती कर कृषि उपज से होने वाली साधारण आय को अच्छी-खासी रिटर्न में तब्दील कर सकते हैं। प्राकृतिक खेती से खेत में उर्वरक और अन्य रसायनों की आवश्यकता समाप्त हो जाती है।

प्राकृतिक खेती की जरूरत

एफएओ 2017, खाद्य और कृषि का भविष्य – रुझान और चुनौतियां शीर्षक आधारित रिपोर्ट के अनुसार नीति आयोग (NITI Aayog) ने मानवीय जीवन क्रम से जुड़े कुछ अनुमान, पूर्वानुमान प्रस्तुत किए हैं। नीति आयोग द्वारा प्रस्तुत जानकारी के अनुसार, विश्व की आबादी वर्ष 2050 तक लगभग 10 अरब तक हो जाने का पूर्वानुमान है। मामूली आर्थिक विकास की स्थिति में, इससे कृषि मांग में वर्ष 2013 की मांग की तुलना में 50% तक की वृद्धि होगी। नीति आयोग ने खाद्य उत्पादन विस्तार और आर्थिक विकास से प्राकृतिक पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव पर चिंता जताई है। बीते कुछ सालों में वन आच्छादन और जैव विविधता में आई उल्लेखनीय कमी पर भी आयोग चिंतित है। रिपोर्ट के अनुसार, उच्च इनपुट, संसाधन प्रधान खेती रीति के कारण बड़े पैमाने पर वनों की कटाई, पानी की कमी, मृदा क्षरण और ग्रीनहाउस गैस का उच्च स्तरीय उत्सर्जन होने से पर्यावरण संतुलन प्रभावित हुआ है। वर्तमान में बेमौसम पड़ रही तेज गर्मी, सूखा, बाढ़, आंधी-तूफान जैसी व्याथियों के समाधान के लिए कृषि-पारिस्थितिकी, कृषि-वानिकी, जलवायु-स्मार्ट कृषि और संरक्षण कृषि जैसे ‘समग्र’ दृष्टिकोणों पर देश, सरकार एवं किसानों को मिलकर काम करना होगा। खेती किसानी की दिशा में अब एक समन्वित परिवर्तनकारी प्रक्रिया को अपनाने की जरूरत है।

भविष्य की पीढ़ियों का ख्याल

हमें स्वयं के साथ अपनी आने वाली पीढ़ियों का भी यदि ख्याल रखना है, धरती पर यदि भविष्य की पीढ़ी के लिए जीवन की गुंजाइश शेष छोड़ना है तो इसके लिए प्राकृतिक खेती ही सर्वश्रेष्ठ विचार होगा।


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यह वह विधि है, जिसमें कृषि-पारिस्थितिकी के उपयोग के परिणामस्वरूप भावी पीढ़ियों की जरूरतों से समझौता किए बगैर, बेहतर पैदावार हासिल होती है। एफएओ और अन्य अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने भी प्राकृतिक खेती अपनाने के लिए तमाम सहयोगी योजनाएं जारी की हैं।

प्राकृतिक खेती (Natural Farming) के लाभों को 9 भागों में रखा जा सकता है :

1. उपज में सुधार 2. रासायनिक आदान अनुप्रयोग उन्मूलन 3. उत्पादन की कम लागत से आय में वृद्धि 4. बेहतर स्वास्थ्य सुनिश्चितिकरण 5. पानी की कम खपत 6. पर्यावरण संरक्षण 7. मृदा स्वास्थ्य संरक्षण एवं बहाली 8. पशुधन स्थिरता 9.रोजगार सृजन

नो केमिकल फार्मिंग

प्राकृतिक खेती को रासायनमुक्त खेती ( No Chemical Farming) भी कहा जाता है। इसमें केवल प्राकृतिक आदानों का उपयोग किया जाता है। कृषि-पारिस्थितिकी तंत्र पर आधारित, यह एक विविध कृषि प्रणाली है। इसमें फसलों, पेड़ों और पशुधन एकीकृत रूप से कृषि कार्य में प्रयुक्त होते हैं। इस समन्वित एकीकरण से कार्यात्मक जैव विविधता के सर्वोत्तम उपयोग में किसान को मदद मिलती है।


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प्रकृति आधारित विधि

अपने उद्भव से मौजूद प्रकृति संवर्धन की वह विधि है जिसे मानव ने बाद में पहचान कर अपनी सुविधा के हिसाब से प्राकृतिक खेती का नाम दिया। कृषि की इस प्राचीन पद्धति में भूमि के प्राकृतिक स्वरूप को बनाए रखा जाता है। प्राकृतिक खेती में रासायनिक कीटनाशक का उपयोग वर्जित है। जो तत्व प्रकृति में पाए जाते है, उन्हीं को खेती में कीटनाशक के रूप में अपनाया जाता है। एक तरह से चींटी, चीटे, केंचुए जैसे जीव इस खेती की सफलता का मुख्य आधार होते हैं। जिस तरह प्रकृति बगैर मशीन, फावड़े के अपना संवर्धन करती है ठीक उसी युक्ति का प्रयोग प्राकृतिक खेती में किया जाता है।

ये चार सिद्धांत प्राकृतिक खेती के आधार

प्राकृतिक कृषि के सीधे-साधे चार सिद्धांत हैं, जो किसी को भी आसानी से समझ में आ सकते हैं। ये चार सिद्धांत हैं:
  • हल का उपयोग नहीं, खेत पर जुताई-निंदाई नहीं, बिलकुल प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र की तरह की जाने वाली इस खेती में जुताई, निराई की जरूरत नहीं होती।
  • किसी तरह का कोई रासायनिक उर्वरक या फिर पहले से तैयार की हुई खाद का उपयोग नहीं
  • हल या शाक को नुकसान पहुंचाने वाले किसी औजार द्वारा कोई निंदाई, गुड़ाई नहीं
  • रसायनों पर तो किसी तरह की कोई निर्भरता बिलकुल नहीं।

जीरो बजट खेती (Zero Budget Farming)

अब जिस खेती में निराई गुड़ाई की जरूरत न हो, तो उसे जीरो बजट की खेती ही कहा जा सकता है। प्राकृतिक खेती को ही जीरो बजट खेती भी कहा जाता है। प्राकृतिक खेती में प्रकृति प्रदत्त संसाधनों को लाभकारी बनाने के तरीके निहित हैं। किसी बाहरी कृत्रिम तरीके से निर्मित रासायनिक उत्पाद का उपयोग प्राकृतिक खेती में वर्जित है। जीरो बजट वाली प्राकृतिक खेती में गाय के गोबर एवं गौमूत्र का उपयोग कर भूमि की उर्वरता बढ़ाई जाती है। शून्य उत्पादन लागत की प्राकृतिक खेती पद्धति के लिए अलग से कोई इनपुट खरीदना जरूरी नहीं है। जापानियों द्वारा प्रकाश में लाई गई इस विधि की खेती में पारंपरिक तरीकों के विपरीत केवल 10 प्रतिशत पानी की दरकार होती है।
अनुवांशिक रूप से संशोधित फसल (जेनेटिकली मोडिफाइड क्रॉप्स - Genetically Modified Crops)

अनुवांशिक रूप से संशोधित फसल (जेनेटिकली मोडिफाइड क्रॉप्स - Genetically Modified Crops)

एक समय विश्व व्यापार में होने वाले निर्यात में भारतीय कृषि की भूमिका चीन के बाद में दूसरे स्थान पर हुआ करती थी। हालांकि अभी भी कुछ फसलों के उत्पादन और निर्यात में भारत सर्वश्रेष्ठ स्थान पर है, परंतु अन्य फसलों में उत्पादकता बढ़ाने के लिए पिछले कुछ समय से भारतीय कृषि वैज्ञानिकों और विदेश के कई बड़े कृषि विश्वविद्यालयों की सहायता से आनुवांशिकरूप से संशोधित फसलें तैयार की जा रही है। इस प्रकार तैयार फसलों को 'जेनेटिकली मोडिफाइड क्रॉप्स' या 'जीएम फसल' (Genetically Modified Crops) भी कहा जाता है।

क्या होती है आनुवांशिक रूप से संशोधित फसल (What is Genetically Modified Crops) ?

इन फसलों को एक ऐसे पौधे से तैयार किया जाता है जिसकी जीन में आंशिक रूप से या फिर पूरी तरीके से परिवर्तन कर दिया जाता है। एक सामान्य पौधे की जीन में दूसरी पौधे की जीन को शामिल कर दिया जाता है। मुख्यतः यह कार्य इस प्राथमिक पौधे के कुछ गुणों को बदलने के लिए किया जाता है। इस तकनीक की मदद से पौधे की उत्पादकता को बहुत ही आसानी से बढ़ाया जा सकता है, साथ ही कई कीट और जीवाणुओं के प्रतिरोधक क्षमता भी तैयार की जाती है। अलग-अलग पौधों में होने वाले रोगों के खिलाफ प्रतिरोधी क्षमता का विकास भी जेनेटिकली मोडिफाइड विधि के तहत किया जाता है। 

जेनेटिकली मोडिफाइड (GM) फसल तैयार करने की विधियां तथा तकनीक:

वर्तमान में कृषि वैज्ञानिकों के द्वारा अनुवांशिक रूप से संशोधित फ़सल तैयार करने के लिए अलग-अलग विधियों का इस्तेमाल किया जाता है। अमेरिका के खाद्य एवं ड्रग व्यवस्थापक संस्थान यानी
फ़ूड एण्ड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (FDA या USFDA - Food and Drug Administration Organisation) की तरफ से कुछ विधियों के बारे में जानकारियां उपलब्ध करवाई गई है, जो कि निम्न प्रकार है:- 

  • परंपरागत संशोधन विधि (Conventional Modification Method) :-

 इस विधि का इस्तेमाल प्राचीन काल से ही किसानों के द्वारा किया जा रहा है।परंपरागत संशोधित विधि के तहत एक ही पौधे की अलग-अलग ब्रीड को चुना जाता है और दोनों ब्रीड के मध्य पोलिनेशन करवाया जाता है। इस क्रॉस पोलीनेशन (Cross-pollination) से तैयार नई पौध तैयार पहले की तुलना में बेहतरीन उत्पादन करने के अलावा पोषक तत्वों की भी अच्छी गुणवत्ता उपलब्ध करवा सकती है। वर्तमान में किसानों के द्वारा उगाए जाने वाले लगभग सभी प्रकार के अनाज और फल-सब्जियां इसी परंपरागत संशोधित विधि से तैयार की हुई रहती है। 

  • जीन में बदलाव कर संशोधन करना :-

यह विधि डीएनए (DNA) की खोज के बाद शुरू हुई थी। वर्तमान में इस विधि के तहत जेनेटिक इंजीनियरिंग (Genetic Engineering) और जीनोम एडिटिंग (Genome Editing) जैसी दो विधियां आती है। 

  • पहली विधि में किसी एक बैक्टीरिया या वायरस की जीन को पौधे की जीन में सम्मिलित कर दिया जाता है। इस तरह तैयार यह नया पौधा भविष्य में इस वायरस या बैक्टीरिया से होने वाली बीमारियों के खिलाफ आसानी से प्रतिरोधी क्षमता तैयार कर सकता है।
  • जिनोम एडिटिंग विधि में किसी पौधे की जीन में से कुछ अनावश्यक जीन्स को हटाया जाता है। कई बार किसी पौधे की एक पूरी जीन के कुछ हिस्से की वजह से बीमारियां जल्दी लग सकती है, इसलिए इस विधि के तहत जीन के उस कमजोर हिस्से को काटकर अलग कर दिया जाता है और बाकी बची हुई जिन को पुनः जोड़ दिया जाता है।

भारत में कौन करता है जीएम फसलों को रेगुलेट (Regulate)?

किसी भी प्रकार की अनुवांशिक रूप से संशोधित फसल को मार्केट में बेचने और इस्तेमाल करने योग्य बनाने से पहले फसल तैयार करने वाली कम्पनी को सरकार के द्वारा अनुमति की आवश्यकता होती है। वर्तमान में यह अनुमति 'जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रेजल कमेटी' (Genetic Engineering Appraisal Committee (GEAC)) के द्वारा दी जाती है। यह समिति पर्यावरण मंत्रालय (Ministry of Environment, Forest and Climate Change) के अंतर्गत काम करती है। इस समिति से अनुमति मिल जाने के बाद पर्यावरण मंत्रालय के द्वारा अंतिम परमिशन प्रदान की जाती है  

वर्तमान में भारत में इस्तेमाल होने वाली जेनेटिक मॉडिफाइड फसलें :

पर्यावरण मंत्रालय और जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रेजल समिति की वेबसाइट के अनुसार वर्तमान में भारत में केवल एक ही अनुवांशिक रूप से संशोधित फसल उगाने की अनुमति दी गई है। 

  • बीटी कॉटन (Bt-Cotton) :

महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और गुजरात में वर्तमान में इस्तेमाल की जा रही इस फसल की संशोधित किस्म को भारत सरकार के द्वारा 2002 में अनुमति प्रदान की गई थी। जेनेटिक इंजीनियरिंग विधि से तैयार की गई इस फसल में मिट्टी में पाया जाने वाला एक बैक्टीरिया Bacillus Thuringiensis की जीन को इस्तेमाल किया जाता है, जोकि कपास की सामान्य फसल को नुकसान पहुंचाने वाले गुलाबी रंग के कीड़े (Pink Bollworm) के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता तैयार करता है। कृषि मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में उत्पादित होने वाले कपास में केवल इसी एक कीड़े की वजह से ही लगभग 30 से 40 प्रतिशत कपास पूरी तरीके से अनुपयोगी हो जाती है। ये भी पढ़ें : पंजाबः पिंक बॉलवर्म, मौसम से नुकसान, विभागीय उदासीनता, फसल विविधीकरण से दूरी Ht-bt-cotton नाम से मार्केट में बेची जाने वाली अनुवांशिक रूप से संशोधित फसल में इस बैक्टीरिया के अलावा एक और अतिरिक्त जीन इस्तेमाल की जाती है, जो कि कपास के छोटे पौधे को खरपतवार को खत्म करने के लिए इस्तेमाल में आने वाले रासायनिक केमिकल Glyphosphosate से बचाने में मददगार होता है। 

  • बीटी ब्रिंजल (Bt-Brinjal ) :-

बैंगन की फसल में लगने वाले रोगों से बचाने के लिए तैयार की गई यह अनुवांशिक संशोधित फसल को शुरुआत में अप्रेजल समिति के द्वारा अनुमति दे दी गई थी, परंतु बाद में इस प्रकार तैयार फसल को खाने से होने वाले कई रोगों को मध्य नजर रखते हुए इस अनुमति को वापस ले लिया गया था। हाल ही में पर्यावरण के क्षेत्र में काम कर रहे कई एनजीओ (NGOs) के विरोध के बाद अनुवांशिक रूप से तैयार की गई मशरूम की संशोधित फ़सल के दैनिक इस्तेमाल पर भी रोक लगा दी गई है।  

जेनेटिकली मोडिफाइड फसलों से होने वाले फायदे :

अनुवांशिक रूप से संशोधित की हुई फसलें किसानों की आय को बढ़ाने और खर्चे को कम करने के अलावा कई दूसरे प्रकार के फायदे भी उपलब्ध करवा सकती है, जैसे कि स्वर्णिम चावल (Golden Rice) नाम की एक जेनेटिकली मोडिफाइड फ़सल स्वाद में बेहतरीन होने के अलावा परंपरागत चावल की खेती की तुलना में बहुत ही कम समय में पक कर तैयार हो जाती है।

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इसके अलावा अलग-अलग रोगों के साथ ही खरपतवार को नष्ट करने के लिए इस्तेमाल में आने वाले रासायनिक उर्वरकों के खिलाफ भी प्रतिरोधी क्षमता विकसित कर सकती है। इस प्रकार तैयार फसलों में पोषक तत्वों की मात्रा तो अधिक मिलती ही है, साथ ही रासायनिक उर्वरकों का भी कम इस्तेमाल करना पड़ता है, जिससे खेत की मृदा की गुणवत्ता भी बरकरार रहती है। यदि ऐसी फसलों को पशुओं को खिलाया जाए, तो पशुओं की प्रतिरक्षा प्रणाली भी मजबूत होती है और उनकी वृद्धि को भी बढ़ाया जा सकता है, जिससे पशुओं से अधिक मांस, अंडे और दूध प्राप्त किया जा सकता है। यदि बात करें पर्यावरणीय फायदों की, तो यह फसलें मिट्टी की उर्वरता को तो बढ़ाती ही है, साथ ही पानी के काफी कम इस्तेमाल में भी आसानी से बड़ी हो सकती है, इसीलिए रेगिस्तानी और कम बारिश होने वाले क्षेत्रों में इन फसलों का उत्पादन आसानी से किया जा सकता है। जेनेटिकली मोडिफाइड फसलों का इस्तेमाल प्राकृतिक खरपतवार नाशक के रूप में भी किया जा सकता है क्योंकि bt-cotton जैसी फ़सल में ऐसे बैक्टीरिया और वायरस की जीन का इस्तेमाल किया जाता है, जो कि पौधे के आसपास उगने वाली खरपतवार को पूरी तरीके से नष्ट कर सकती है। यदि बात करें किसानों के फायदे की तो इन फसलों की कम लागत पर अच्छी पैदावार की जा सकती है, क्योंकि कम सिंचाई और मृदा की कम देखभाल की वजह से खर्चे कम होने से से किसान का मुनाफा बढ़ने के साथ ही बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए भोजन की मांग की की पूर्ति भी सही समय पर की जा सकती है।

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जेनेटिकली मोडिफाइड फसलों के इस्तेमाल से पहले रखें इन बातों का ध्यान:

अरुणाचल प्रदेश में कुछ किसानों के द्वारा सोयाबीन की अनुवांशिक रूप से संशोधित फसल का गैर कानूनी रूप से इस्तेमाल किया जा रहा था, हालांकि इसके इस्तेमाल से किसानों की आमदनी तो बढ़ी परंतु पूरी जांच पड़ताल ना करने और फसल को तैयार करने वाली कम्पनी के द्वारा भारतीय क्षेत्रों को ध्यान में रखकर संशोधन ना करने की वजह से उस क्षेत्र में पाई जाने वाली तितली की एक प्रजाति पूरी तरीके से खत्म हो चुकी है। ऐसा ही एक और उदाहरण गोल्डन चावल के रूप में भी देखा जा सकता है। भारत में पूरी तरीके से प्रतिबंधित चावल की अनुवांशिक रूप से संशोधित यह फसल महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के कुछ किसानों के द्वारा गैरकानूनी रूप से उत्पादित की जा रही है। केवल आमदनी बढ़ाने और जल्दी पक कर तैयार होने जैसे फायदों को ही ध्यान में रखते हुए इस फसल के द्वारा तैयार चावल के इस्तेमाल से होने वाले नुकसान पर कंपनी और किसानों के द्वारा कोई ध्यान नहीं दिया गया, जिसकी वजह से इसे खाने वाले लोगों में अंधापन और शरीर में कई दूसरी बीमारियों के अलावा मौत होने जैसी खबरें भी सामने आई है। इसीलिए आशा करते हैं कि हमारे किसान भाई ऊपर बताई गई दो घटनाओं से सीख ले पाएंगे और कभी भी गैरकानूनी रूप से अलग-अलग कंपनी के द्वारा बेचे जाने वाली जेनेटिकली मोडिफाइड फसलों का इस्तेमाल नहीं करेंगे। आशा करते है कि किसान भाइयों को Merikheti.com के द्वारा आनुवांशिक रूप से संशोधन कर प्राप्त की गई फसलों के बारे में पूरी जानकारी मिल गई होगी और भविष्य में बीटी-कॉटन और सरकार से अनुमति प्राप्त ऐसी फसलों का उत्पादन कर आप भी कम लागत पर अच्छा मुनाफा कमा पाएंगे।

उतर प्रदेश में किसानों को गुरुकुल में दिया जायेगा प्राकृतिक खेती को बेहतर तरीके से करने का प्रशिक्षण

उतर प्रदेश में किसानों को गुरुकुल में दिया जायेगा प्राकृतिक खेती को बेहतर तरीके से करने का प्रशिक्षण

उत्तर प्रदेश में किसानों को  प्राकृतिक खेती यानी नैचुरल फार्मिंग (Natural Farming) करने की बेहतरीन कलाएं सिखाई जायेंगी, जिसमें वैज्ञानिक एवं प्रगतिशील किसान भी बेहतरीन ढंग से दिशा निर्देशन के साथ गुरुकुल की ओर चलेंगे। भारत में पर्यावरण अनुकूल ​प्राकृतिक खेती को प्रोत्साहन देने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार भी आगे है। राज्य सरकार रबी सीजन के दौरान एक लाख हेक्टेयर भूमि में गौ सम्बंधित खेती करने का संकल्प किया है, जिसको पूर्ण करने हेतु गुरुकुल के माध्यम से किसानों को प्राकृतिक खेती करने का ज्ञान दिया जायेगा।

गुरुकुल में होगा प्राकृतिक खेती करने का प्रशिक्षण

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी द्वारा गौ सम्बंधित खेती को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। उत्तर प्रदेश में प्राकृतिक खेती बोर्ड का गठन भी हो चुका है। इस सन्दर्भ में आगे बढ़ते हुए अब किसानों को गुरुकुलों की सहायता द्वारा ट्रेनिंग देने का भी संकल्प नक्की हुआ है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी ने एक सम्बोधन के दौरान कहा है कि किसान प्राकृतिक खेती के जरिये कम खर्च करके अच्छा खासा मुनाफा कमा सकते हैं। इसकी बेहतर सलाह एवं जानकारी देने के लिए वैज्ञानिकों द्वारा सहायता मिलेगी, जिससे किसान अत्यधिक लागत लगाने की समस्या से छुटकारा पा सके, साथ ही आय को दोगुनी कर सके।


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उत्तर प्रदेश के एक लाख हेक्टेयर भूमि में होगी प्राकृतिक खेती

रबी सीजन के दौरान उत्तर प्रदेश में गौ सम्बंधित १ लाख हेक्टेयर भूमि में प्राकृतिक खेती करने का संकल्प किया गया है। प्राकृतिक खेती को अच्छे तरीके व तकनीक से जानने के लिए कुछ समय पहले यूपी के कृषि मंत्री, कृषि से सम्बंधित समस्त बड़े जिम्मेदार अधिकारियों एवं प्रगतिशील किसानों द्वारा हरियाणा के कुरुक्षेत्र जनपद का भ्रमण किया गया। फिलहाल उत्तर प्रदेश राज्य में मिशन ऑन नेचुरल फार्मिंग (Mission on Natural Farming) के चलते किसानों को एकत्रित किया जा रहा है।

गौ आधारित प्राकृतिक खेती के लिए सरकार द्वारा क्या व्यवस्था की गयी है ?

उत्तर प्रदेश राज्य में गौ आधारित खेती करने के लिए २३ जनपदों के ३९ ब्लाकों में २३,५१० हेक्टेयर में ४७० ​क्लस्टर स्थापित किए जायेंगे। इसी सन्दर्भ में उत्त्तर प्रदेश के ४ कृषि विश्वविद्यालयों को भी लैब निर्माण करने हेतु आदेश के साथ साथ प्राकृतिक खेती करने का प्रमाण पत्र भी जारी किया गया। 89 कृषि विज्ञान केंद्रों के सहयोग से यह कृषि विश्वविद्यालय सर्टिफिकेशन एवं प्राकृतिक खेती से सम्बंधित उत्पादों के विपणन में भी सहायता करेंगे। साथ ही समस्त मंडियों में भी प्राकृतिक उत्पादों को विशेष स्थान दिया जायेगा। राज्य सरकार द्वारा बुंदेलखंड की भूमि पर प्राकृतिक कृषि को प्रोत्साहित करने की भी पहल शुरू की गयी है। बुंदेलखंड में १२००० हेक्टेयर में खेती के लिए 235 क्लस्टर स्थापित होंगे जिसमें ७ जनपदों के ४७ ब्लॉक में सम्मिलित हैं। प्राकृतिक खेती के लिए सरकार सब्सिडी भी प्रदान करेगी।
पंजाब कृषि विश्वविद्यालय द्वारा पराली से निर्मित किया गया बागवानी प्लांटर्स से होंगे ये लाभ

पंजाब कृषि विश्वविद्यालय द्वारा पराली से निर्मित किया गया बागवानी प्लांटर्स से होंगे ये लाभ

विशेषज्ञों के अनुसार शहरों में बढ़ रहे बागवानी के शौक के बीच पराली के इन नर्सरी प्लांटर्स का प्रयोग किचन बागवानी अथवा सामान्य पौधरोपण हेतु किया जा सकता है। देश में धान की कटाई के उपरांत पराली को खत्म करना बहुत ही चुनौतीपूर्ण कार्य हो जाता है। अधिकाँश किसान इस पराली का समुचित प्रबंधन करने की जगह जलाकर प्रदूषण में भागीदार बनते हैं। इसकी वजह से पर्यावरण प्रदूषण में वृध्दि हुई है व लोगों का स्वास्थ्य बेहद दुष्प्रभावित होता है। इस समस्या को मूल जड़ से समाप्त करने हेतु सरकार व वैज्ञानिक निरंतर कोशिश कर रहे हैं, जिसके बावजूद इस वर्ष भी बेहद संख्या में पराली जलाने की घटनाएं देखने को मिली हैं। बतादें कि, पराली के समुचित प्रबंधन हेतु विभिन्न राज्यों में पराली को पशु चारा बनाने को खरीदा जा रहा है।

पंजाब कृषि विश्वविद्यालय द्वारा यह उपाय निकाला गया

पंजाब कृषि विश्वविद्यालय (PAU) द्वारा पराली के समुचित प्रबंधन करने हेतु उपाय निकाला गया है। दरअसल, पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के डिपार्टमेंट आफ अपैरल एंड टेक्सटाइल ने पराली से नर्सरी प्लांटर्स निर्मित किये हैं। इन प्लांटर्स की सहायता से प्लास्टिक व सीमेंट के प्लांटर्स के आधीन कम रहेंगे व पेड़-पौधे भी उचित तरीके से उन्नति करेंगे। विषेशज्ञों के अनुसार शहरों में तीव्रता से बड़ रहे बागवानी के खुमार के बीच इन नर्सरी प्लांटर्स का प्रयोग किचन बागवानी के लिए भी हो पायेगा। पराली के इन प्लांटर्स में उत्पादित होने वाली सब्जियां स्वास्थ्य हेतु अत्यंत लाभकारी होंगी।


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पराली से निर्मित होंगे प्लांटर्स

कृषि विशेषज्ञों के अनुसार पराली से निर्मित नर्सरी प्लांटर्स किसानों के एवं किचन बागवानी का शौक रखने वालों हेतु भी लाभकारी है। निश्चित रूप से इससे प्लास्टिक के प्लांटर्स पर निर्भरता में कमी आएगी। पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी के डिपार्टमेंट आफ अपैरल एंड टेक्सटाइल की रिसर्च एसोसिएट डॉ. मनीषा सेठी जी का कहना है, कि वर्तमान दौर में पेड़-पौधे लगाने का शौक बढ़ रहा है। आज तक लोग पौधे लगाने हेतु प्लास्टिक के प्लांटर्स का प्रयोग कर रहे थे। दरअसल प्लास्टिक प्लांटर्स से प्रदूषण बढ़ता है, इसलिए पराली से बने नर्सरी प्लांटर्स अब प्लास्टिक प्लांटर्स की जगह ले रहे हैं।

किस प्रकार से होगा उपयोग

विशेषज्ञों ने कहा है, कि केवल किचन बागवानी हेतु नहीं, पराली से बने प्लांटर्स को पौधा सहित भूमि में भी लगाया जा सकता है। पूर्ण रूप से पराली निर्मित इस प्लांटर्स में किसी भी अन्य पदार्थ का उपयोग नहीं हुआ है। इसके प्रयोग से भूमि में भी उर्वरक की पूर्ति होगी व खरपतवार से भी निपटा जा सकेगा। कृषि वैज्ञानिकों द्वारा इन प्लांटर्स में पौधरोपण का परीक्षण भी किया जा चुका है। विशेषज्ञों ने इस पराली के प्लांटर का भाव १० से १५ रुपये करीब है, यदि प्लांटर को मशीन द्वारा निर्मित किया जाये तो २ से ३ रुपये में बन सकता है। पंजाब कृषि विश्वविद्यालय द्वारा प्रशिक्षण लेकर किसान व युवा प्लांटर बना सकते हैं। किसान खेती करते समय प्लांटर मैनुफैक्चरिंग यूनिट स्थापित कर इनका उत्पादन कर अन्य नर्सरियों को विक्रय कर सकते हैं।
जानें भारत में पौराणिक काल से की जाने वाली कृषि के बारे में, कमाएं कम खर्च में अधिक मुनाफा

जानें भारत में पौराणिक काल से की जाने वाली कृषि के बारे में, कमाएं कम खर्च में अधिक मुनाफा

परमाकल्चर' कृषि को 'कृषि का स्वर्ग' कहा जाए तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है, इसकी वजह फसल, मवेशी, पक्षी, मछलियां, झाड़ी, पेड़ एक पारितंत्र का निर्माण कर देते हैं। न्यूनतम व्यय करके किसानों की आमदनी बढ़ोत्तरी करने की उम्दा रणनीति है। खेती-किसानी में हुए समय समय पर नवीन परिवर्तन देखे जा रहे हैं। इस क्षेत्र में प्रयासरत कृषि वैज्ञानिकों के आविष्कार एवं कुछ किसानों के नवाचार का परिणाम है। वर्तमान में भारत भी कृषि के क्षेत्र में बहुत मजबूती से उभर कर सामने आ रहा है, यहां कृषि संबंधित काफी दिक्कतें तो हैं, साथ ही समाधान भी निकल लिया जाता है। आजकल कृषकों के समक्ष सबसे बड़ी दिक्क्त यह है कि उनको किसी भी फसल के उत्पादन हेतु काफी खर्च करना पड़ता है, जिसकी वजह से किसान समुचित लाभ अर्जित नहीं कर पते हैं। लेकिन किसानों की खेती में दिलचस्पी होने के लिए लाभ अहम भूमिका निभाता है। विदेशी किसानों के समक्ष यह चुनौती नहीं है, क्योंकि विदेशी किसान 'परमाकल्चर' कृषि पर कार्यरत हैं। इस इको-सिस्टम के अंतर्गत पशु, पक्षी, मछली, फसल, झाडियां, पेड़-पौधे आपस में ही एक-दूसरे की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। एक तरह से देखें तो भारत की एकीकृत कृषि प्रणाली के समरूप, जिसके अंतर्गत खेती-किसानी सहित पशु चारा उत्पादन, सिंचाई, बागवानी, वानिकी, पशुपालन, मुर्गी पालन, मछली पालन, खाद निर्माण इत्यादि का कार्य एक स्थाई भूमि पर किया जाता है। इसको स्थाई कृषि अथवा परमाकल्चर के नाम से जाना जाता है। एक बार आरंभ में व्यय करना आवश्यक होता है, उसके उपरांत इस इकोसिस्टम के माध्यम से आपस में प्रत्येक वस्तु की आपूर्ति होती रहती है एवं न्यूनतम व्यय में अत्यधिक पैदावार अर्जित कर सकते हैं।

परमाकल्चर फार्मिंग से हो सकता है अच्छा मुनाफा

यदि किसान चाहे तो स्वयं के खेत को परमाकल्चर में परिवर्तित कर सकता है। लघु किसानों हेतु तो यह उपाय वरदान वरदान के समरूप है। कम भूमि द्वारा बेहद लाभ अर्जित करने हेतु परमाकल्चर द्वारा बेहतरीन लाभ कमाया जा सकता है क्योंकि यह काफी अच्छा विकल्प होता है। इस कृषि पद्धति के अंतर्गत सर्वाधिक ध्यान जल के प्रबंधन एवं मृदा की संरचना को अच्छा बनाने हेतु रहता है। मृदा की संरचना यदि उत्तम रही तो 1 एकड़ भूमि द्वारा भी लाखों में लाभ लिया जा सकता है। परमाकल्चर कृषि आमदनी का बेहतरीन स्त्रोत होने के साथ साथ पर्यावरण संरक्षण एवं जैवविविधता हेतु भी बहुत ज्यादा लाभदायक होती है।
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परमाकल्चर के सबसे बेहतरीन बात यह है, कि इसके लिए किसी प्रकार का अतिरिक्त निवेश नहीं किया जाता है। विशेषरूप से किसानों के समीप गांव में हर तरह के संसाधन उपलब्ध होते हैं। परमाकल्चर की सहायता से किसान को कम व्यय में भिन्न-भिन्न प्रकार का उत्पादन (उत्पादन में विविधता) एवं अधिकाँश मात्रा में उत्पादन अर्जन करने में काफी सहायता प्राप्त होती है। परमाकल्चर को पैसा बचाकर, पैसा कमाने वाला सिस्टम भी कहा जाता है, क्योंकि पशुओं के अवशिष्ट द्वारा खाद-उर्वरक निर्मित किए जाते हैं, जिससे कि रसायनिक उर्वरकों पर किए जाने वाला व्यय बच जाता है। जिससे पशुओं को खेत से बहुत सारी फसलों के अवशेष खाने हेतु मिल जाते हैं, जो दूध के उत्पादन में भूमिका निभाता है। जल का समुचित प्रबंधन करने से सिंचाई हेतु किए जाने वाला व्यय बच जाता है। साथ ही, इसी जल के अंदर मछली पालन भी किया जा सकता है। जिसके हेतु खेत के एक भाग में तालाब निर्मित किया जाता है, जहां बारिश का जल इकत्रित किया जाता है। इस कृषि पद्धति से कोई हानि नहीं होती है। अगर किसान खेत को परमाकल्चर के जरिए सृजन करें तो पर्यावरण सहित किसान की प्रत्येक जरूरत खेत की चारदीवारी में ही पूर्ण हो सकती है।

भारत एक ऐसा देश है जहां परमाकल्चर कृषि पौराणिक काल से की जाती है

वर्तमान के आधुनिक दौर में मशीन, तकनीक एवं विज्ञान द्वारा खेती के ढ़ांचे को परिवर्तित करके रख दिया है, परंतु आज भी भारत ने अपनी परंपरागत विधियों द्वारा विश्वभर में अपना लोहा मनवाने का कार्य किया है। वर्तमान में भी देश कृषि उत्पादन में सबसे आगे है, साथ ही, भारत अनेकों देशों की खाद्य आपूर्ति को पूर्ण करने में अहम भूमिका निभाता है। देश द्वारा उच्च स्तरीय पैमाने पर कृषि खाद्य उत्पादों का निर्यात किया जा रहा है। आज हम भले ही कृषि क्षेत्र में एडवांस रहने हेतु विदेशी कल्चर एवं विधियों का प्रयोग कर रहे हों। परंतु, बहुत से ऐसी चीजें भी मौजूद हैं, जिनको विदेश में रहने वाले लोगों ने भी भारत से प्रेरित होकर आरंभ किया है। उन्हीं में से एक परमाकल्चर भी है। हो सकता है, आपको यह सुनने में अजीब सा अनुभव हो, परंतु भारत के लिए परमाकल्चर किसी नई विधि का का नाम नहीं है। देश में इस कृषि पद्धति को वैदिक काल से ही उपयोग में लिया जा रहा है। क्योंकि भारत ने आरंभ से ही जैव विविधता एवं पर्यावरण संरक्षण का कार्य करते हुए खाद्य आपूर्ति को सुनिश्चित करने में अहम भूमिका निभाई है। हालांकि मध्य के कुछ दशकों में कृषि के क्षेत्र में तीव्रता से बहुत ज्यादा परिवर्तन देखने को मिले हैं, परिणामस्वरूप हम अपने ही महत्त्व को विस्मृत करते जा रहे हैं।
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आपको जानकारी के लिए बतादें कि परमाकल्चर की भाँति कृषि भारत में युगों-युगों से चलती आ रही है। इस कृषि में किसान परंपरागत विधि से उत्पादन करते हैं। पर्यावरण संतुलन हेतु खेत के चारों तरफ वृक्ष लगाए जाते हैं। पशुओं को पाला जाता है, जिनसे खेतों में जुताई की जा सके। इन पशुओं को खेतों से उत्पन्न चारा खिलाया जाता है, बदले में पशु दूध व गोबर प्रदान करते हैं। दूध का किसान अपने व्यक्तिगत कार्य में उपयोग करते हैं अथवा बेचकर धन कमाते हैं वहीं दूसरी तरफ गोबर का उपयोग खेती करने हेतु खाद निर्माण में किया जाता है। इस प्रकार से एक-दूजे की जरूरतें पूर्ण होती रहती हैं, वो भी किसी बाहरी अतिरिक्त व्यय के बिना ही। साथ ही, आपस में संतुलन भी कायम रहता है। आजकल कृषि करने हेतु बीज खरीदने के चलन में वृद्धि हुई है, जो कि जलवायु परिवर्तन के अनुरूप है। जबकि प्राचीन काल में फसल द्वारा बीजों को बचाकर आगामी बुवाई हेतु एकत्रित करके रखा जाता था, यही वजह है, कि पौराणिक काल से ही कृषि एक संतुलन का कार्य था ना कि किसी खर्च का।
कहीं आपके खेत में भी तो नहीं है ये खतरनाक पेड़, कर देगा भूमि को बंजर

कहीं आपके खेत में भी तो नहीं है ये खतरनाक पेड़, कर देगा भूमि को बंजर

खेतों में फसल के साथ-साथ मेड़ पर कई तरह के पेड़ किसानों द्वारा लगवाए जाते हैं। आर्थिक रूप से काफी उपयोगी होने के कारण किसान अब आम, अमरूद, जामुन, शीशम और नीलगिरी (Eucalyptus) की बागवानी को अपना रहे हैं। एक बार जब ये पेड़ बड़े हो जाते हैं, तो किसान इन्हें बाज़ार में बेच कर अच्छा खासा मुनाफा कमा सकते हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं, कि कुछ ऐसे पेड़ भी हैं, जिन्हें अगर आपने गलती से खेत में लगा लिया तो 4-5 साल के अंदर ही वो आपकी पूरी भूमि को बंजर कर सकते हैं। खेती-किसानी से अतिरिक्त मुनाफा कमाने के लिए अब किसान अपने खेत की मेडों पर अलग अलग तरह के पेड़ लगाते हैं। 4-5 साल के अंतराल में ये पेड़ बड़े हो जाते हैं, और इन्हें लकड़ी या अन्य चीजों के लिए बाज़ार में जाकर बेचा जा सकता है। इससे कई बार अच्छा मुनाफ़ा भी मिल जाता है। कई पेड़ों को ज्यादा देखभाल की आवश्यकता नहीं होती, सिर्फ मिट्टी और जलवायु के अनुरूप बड़े हो जाते हैं। लेकिन कुछ पेड़ों को देखभाल के साथ-साथ निगरानी की भी सख्त जरूरत होती है। जरा-सी लापरवाही और किसान की खेती में नुकसान हो सकता है। आपको जानकर हैरानी होगी कि नकदी खेती में शामिल यूकेलिप्टस (Eucalyptus) यानी नीलगिरी का पेड़ खेती योग्य जमीन के लिए खास अच्छा नहीं होता। ये आपकी जमीन से सभी तरह के पोषक तत्व खींच लेता है और कुछ ही समय में खेत की भूमि को बंजर बना सकते हैं।

एक्सपर्ट्स का क्या है कहना

अगर प्रोडक्ट्स की बात की जाए तो नीलगिरी के पेड़ से लकड़ी, तेल और पशु चारा मिलता है। इसके साथ ही इस पेड़ को उगाना भी बेहद आसान है। जमीन पर पौधों की रोपाई के बाद 5 साल के अंदर पौधा तैयार हो जाता है यानी 5 साल के अंदर किसान नीलगिरी की खेती करें। एक ही बार में लाखों की कमाई हो सकती है। लेकिन कमाई के चक्कर में किसानों को बहुत कुछ गंवाना भी पड़ सकता है। ये पेड़ आपके खेत के लिए बेहद हानिकारक हो सकता है।
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एक्सपर्ट बताते हैं कि इस पेड़ की जड़े धरती में काफी गहराई तक जाती हैं। यह बड़ी ही तेजी से मिट्टी के पोषक तत्वों और पानी को सोख लेता है, जिससे मिट्टी की संरचना सूखी और बंजर होने लगती है। अगर आप इसका अच्छी तरह से विकास करना चाहते हैं, तो सिंचाई के लिए रोजाना इसमें लगभग 12 लीटर पानी लगता है। जबकि सामान्य प्रजातियों के पेड़ रोजाना 3 लीटर सिंचाई में ही तैयार हो जाते हैं। यदि सिंचाई ना मिले तो इस पेड़ की जड़ें जमीन से पानी (भूजल) को सोखना चालू कर देती है। ऐसा करने से आपके खेत की सामान्य मिट्टी पहले से सूखी हो जाती है जो बाकी फसल के लायक नहीं रह जाती है।

पर्यावरण के लिए नई चुनौती

कई मीडिया रिपोर्ट से पता चला है, कि जिन इलाकों में यूकेलिप्टस (Eucalyptus) यानी नीलगिरी की खेती की जा रही थी। वहां भूजल स्तर गिरता जा रहा है। इसके उत्पादन के कारण ही कई इलाकों को डेंजर जोन भी घोषित कर दिया गया है। पिछले कुछ सालों में किसानों ने बिना सोचे समझे और बिना पूरी जानकारी के हजारों नीलगिरी के पेड़ लगाए हैं। ताकि एक समय के बाद अच्छी आमदनी हो जाए। लेकिन थोड़ा मुनाफा लंबे समय के लिए दिक्कत पैदा कर सकता है। इसी के चलते कृषि एक्सपर्ट मानते हैं, कि अगर आप इस पेड़ को फिर भी लगाना चाहते हैं। कोशिश करें कि यह किसी नहर, तालाब या अन्य जल स्त्रोत के किनारे ही लगाया जाए।
इस तकनीक से किसान सिर्फ पानी द्वारा सब्जियां और फल उगा सकते हैं

इस तकनीक से किसान सिर्फ पानी द्वारा सब्जियां और फल उगा सकते हैं

किसान भाइयों आपको खेती करने के लिए भूमि की कोई आवश्यकता नहीं है। अब किसान भाई पानी पर ही फल और सब्जियां पैदा कर सकते हैं। जो कि पोषण तत्वों से भरपूर होंगी। विश्व भर में खेती को सुगम करने के लिए नवीन तकनीक विकसित की जा रही हैं। 

इन समस्त तकनीकों की सहायता से संसाधनों की बचत एवं मेहनत की खपत भी कम होती है। हाइड्रोपोनिक्स तकनीक भी इसी में शुमार है। जहां पारंपरिक खेती में कृषि यंत्रों, खेत, उर्वरक, खाद एवं सिंचाई की बड़ी मात्रा में जरूरत पड़ती है।

वहीं, इको फ्रेंडली-हाइड्रोपोनिक्स तकनीक से बेहतरीन फसल कम पानी में पैदा की जा सकती है। हाइड्रोपोनिक्स खेती में मिट्टी की आवश्यकता नहीं होती है। इस वजह से इसको संरक्षित ढांचे में करना चाहिए। 

इसमें पानी के अतिरिक्त खनिज पदार्थ एवं पोषक तत्व बीजों एवं पौधों को मिलते हैं। बतादें, कि इनमें कैल्शियम, पोटाश, जिंक, सल्फर, आयरन, फास्फोरस, नाइट्रोजन, मैग्नीशियम और अन्य बहुत सारे पोषक तत्व शामिल हैं, जिससे फसल की पैदावार 25–30 प्रतिशत बढ़ती है।

हाइड्रोपॉनिक्स तकनीक से संसाधनों के साथ परिश्रम की खपत भी कम है

दुनिया भर में खेती को सुगम बनाने के लिए नवीन तकनीक तैयार की जा रही हैं। इससे संसाधनों की बचत एवं परिश्रम की खपत कम होती है। हाइड्रोपोनिक्स तकनीक भी इसके अंतर्गत शम्मिलित हैं। 

जहां पारंपरिक खेती में कृषि यंत्रों, खेत, उर्वरक, खाद और सिंचाई की बड़ी मात्रा में जरूरत पड़ती है। उधर इको फ्रेंडली-हाइड्रोपोनिक्स तकनीक के माध्यम से बेहतरीन फसल कम पानी में पैदा की जा सकती है।

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हाइड्रोपॉनिक्स तकनीक से उगाए सब्जियां

इस तकनीक में प्लास्टिक की पाइपों में बड़े छेद निर्मित किए जाते हैं। जहां पर छोटे-छोटे पौधे भी लगाए जाते हैं। पानी से 25-30 प्रतिशत ज्यादा विकास होता है। इन पौधों को बीज बोकर ट्रे में बड़ा किया जाता है। 

बतादें, कि ब्रिटेन, जर्मनी, अमेरिका और सिंगापुर में हाइड्रोपॉनिक का इस्तेमाल हो रहा है। यह तकनीक भारतीय किसानों एवं युवा लोगों में भी काफी हद तक लोकप्रिय हो रही है। 

हाइड्रोपोनिक खेती में बड़े-बड़े खेत की जरूरत नहीं पड़ती है। किसान भाई कम भूमि के हिस्से पर भी खेती कर सकते हैं।

इस तकनीक से ये सब्जियां और फल उगाए जा सकते हैं

हाइड्रोपोनिक्स तकनीक सब्जियों की खेती के अंतर्गत सफल हो चुकी है। भारत में बहुत सारे किसान इस तकनीक का इस्तेमाल करके छोटे पत्ते वाली सब्जियों की खेती कर रहे हैं, जैसे कि खीरा, मटर, मिर्च, करेला, स्ट्रॉबेरी, ब्लैकबेरी, ब्लूबेरी, तरबूज, खरबूज, अनानास, गाजर, शलजम, ककड़ी, मूली, अनानास, शिमला मिर्च, धनिया, टमाटर और पालक।

हाइड्रोपॉनिक्स तकनीक के जरिए पोषण से भरपूर सब्जियां उगती हैं

हाइड्रोपॉनिक्स तकनीक के माध्यम से उगने वाली सब्जियां पोषण से भरपूर होती हैं। इसलिए इनकी हमेशा मांग बनी रहती है। 100 वर्ग फुट के इलाके में इसे निर्मित करने की लागत 50,000 से 60,000 रुपये हो सकती है। 

साथ ही, 100 वर्ग फुट इलाके में 200 सब्जी पौधे लगाए जा सकते हैं। कमाई के संदर्भ में यह तकनीक ज्यादा रकबे में किसानों को मुनाफा दिला सकती है। हाइड्रोपॉनिक्स को ज्यादा धन कमाने के लिए कम क्षेत्रफल में अनाजी फसलों के साथ पौधे लगाए जा सकते हैं।