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ढैंचा की खेती से संबंधित विस्तृत जानकारी

ढैंचा की खेती से संबंधित विस्तृत जानकारी

भारत के विभिन्न राज्यों में किसान यूरिया के अभाव और कमी से जूझते हैं। यहां की विभिन्न राज्य सरकारों को भी यूरिया की आपूर्ति करने के लिए बहुत साड़ी समस्याओं और परेशानियों का सामना करना पड़ता है। 

आज हम आपको इस लेख में एक ऐसी फसल की जानकारी दे रहे हैं, जो यूरिया की कमी को पूर्ण करती है। ढैंचा की खेती किसान भाइयों के लिए बेहद मुनाफेमंद है। क्योंकि यह नाइट्रोजन का एक बेहतरीन स्रोत मानी जाती है। 

भारत में फसलों की पैदावार को अच्छा खासा करने के लिए यूरिया का उपयोग काफी स्तर पर किया जाता है। क्योंकि, इससे फसलों में नाइट्रोजन की आपूर्ति होती है, जो पौधों के विकास के लिए अत्यंत आवश्यक है।

परंतु, यूरिया जैव उर्वरक नहीं है, जिसकी वजह से प्राकृतिक एवं जैविक खेती का उद्देश्य पूर्ण नहीं हो पाता है। हालांकि, वर्तमान में सामाधान के तोर पर किसान ढैंचा की खेती पर अधिक बल दे रहे हैं। 

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क्योंकि, ढैंचा एक हरी खाद वाली फसल है जो नाइट्रोजन का बेशानदार जरिया है। ढैंचा के इस्तेमाल के बाद खेत में किसी भी अतिरिक्त यूरिया की आवश्यकता नहीं पड़ती। साथ ही, खरपतवार जैसी समस्याएं भी जड़ से समाप्त हो जाती हैं।

ढैंचा की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु 

उपयुक्त जलवायु- ढैंचा की शानदार उपज के लिए इसको खरीफ की फसल के साथ उगाते हैं। पौधों पर गर्म एवं ठंडी जलवायु का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता है। 

परंतु, पौधों को सामान्य बारिश की आवश्यकता होती है। ढैंचा के पौधों के लिए सामान्य तापमान ही उपयुक्त माना जाता है। शर्दियों के दौरान अगर अधिक समय तक तापमान 8 डिग्री से कम रहता है, तो उत्पादन पर प्रभाव पड़ सकता है। 

ढैंचा की खेती के लिए मिट्टी का चयन

ढैंचा के पौधों के लिए काली चिकनी मृदा बेहद शानदार मानी जाती है। ढेंचा का उत्पादन हर प्रकार की भूमि पर किया जा सकता हैं। सामान्य पीएच मान और जलभराव वाली जमीन में भी पौधे काफी अच्छे-तरीके से विकास कर लेते हैं।  

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ढैंचा की खेती के लिए खेत की तैयारी 

सर्व प्रथम खेत की जुताई मृदा पलटने वाले उपकरणों से करनी चाहिए। गहरी जुताई के उपरांत खेत को खुला छोड़ दें, फिर प्रति एकड़ के हिसाब से 10 गाड़ी पुरानी सड़ी गोबर की खाद डालें और अच्छे से मृदा में मिला दें। 

अब खेत में पलेव कर दें और जब खेत की जमीन सूख जाए तो रासायनिक खाद का छिड़काव कर रोटावेटर चलवा देना चाहिए, जिसके पश्चात पाटा लगाकर खेत को एकसार कर देते हैं।

ढैंचा की फसल की बुवाई करने का समय  

हरी खाद की फसल लेने के लिए ढैंचा के बीजों को अप्रैल में लगाते हैं। लेकिन उत्पादन के लिए बीजों को खरीफ की फसल के समय बारिश में लगाते हैं। एक एकड़ के खेत में करीब 10 से 15 किलो बीज की आवश्यकता होती है। 

ढैंचा की फसल की रोपाई  

बीजों को समतल खेत में ड्रिल मशीन के माध्यम से लगाया जाता हैं। इन्हें सरसों की भांति ही पंक्तियों में लगाया जाता है। पंक्ति से पंक्ति के मध्य एक फीट की दूरी रखते हैं और बीजों को 10 सेमी की फासले के लगभग लगाते हैं। 

लघु भूमि में ढैंचा के बीजों की रोपाई छिड़काव के तरीके से करना चाहिए। इसके लिए बीजों को एकसार खेत में छिड़कते हैं। फिर कल्टीवेटर से दो हल्की जुताई करते हैं, दोनों ही विधियों में बीजों को 3 से 4 सेमी की गहराई में लगाएं।

भूमि विकास, जुताई और बीज बोने की तैयारी के लिए उपकरण

भूमि विकास, जुताई और बीज बोने की तैयारी के लिए उपकरण

आइए जानते हैं कि भूमि का विकास किस तरह से किया जाता हैं और भूमि विकास पूर्ण हो जाने के जुताई और बीज बोने के क्या तरीके हैं। 

जुताई और बीज बोने की पूर्ण जानकारी प्राप्त करने के लिए हमारी पोस्ट के अंत तक जरूर बने रहें। आइये जानें भूमि विकास, जुताई और बीज बोने की तैयारी के लिए उपकरण और आधुनिक कृषि यंत्र

बीज बोने के तरीके

बुवाई का क्या अर्थ होता है, मिट्टी की विशेष गहराई को प्राप्त करने के बाद अच्छे अंकुरण बीजों को बोने की क्रिया को बुवाई कहते हैं। कृषि क्षेत्र में बुवाई का अपना एक महत्वपूर्ण स्थान है। 

बीच होने से पहले भूमि को अच्छी तरह से समतल किया जाता है।ताकि बीज बोने के टाइम जमीन उथल-पुथल या उसके कण भूमि में ना रह जाए।भूमि में बीज डालने के बाद बीज की दूरी को ध्यान में रखना आवश्यक होता है इससे अंकुरण अच्छे से फूट सके।

भूमि विकास के लिए भूमि की जुताई

किसी भी फसल की बुआई के लिए जुताई सबसे पहला कदम होती है। मिट्टी को उल्टा पुल्टा कर थोड़ा ढीला करा जाता है।जिससे पौधों और पोषक तत्वों की उपलब्धता को सुनिश्चित किया जा सके। 

जुताई के द्वारा रोपाई में बहुत ही मदद मिलती है और अंकुरण आसानी से भूमि में प्रवेश कर लेते हैं।मिट्टी ढीला करने से सबसे बड़ा फायदा यह होता है।कि मिट्टी को ढीला करने से इनमें मौजूद रोगाणुओं और केंचुओं के विकास में बहुत ही आसानी होती है।

जिससे फसलों को उच्च कोटि का लाभ पहुंचता है। साथ ही साथ यह जुताई खरपतवार आदि में भी काफी सहायता देती है।जुताई के द्वारा मिट्टी पोषक तत्वों से पूरी तरह से भरपूर बनाई जाती है। 

सभी किसान, कृषि फसलों की बुवाई करने से पहले खेत की अच्छी तरह से जुताई करना अनिवार्य समझते हैं।कभी-कभी जुताई  फसलों के आधार पर भी की जाती है। की फसल किस तरह की है ,और उसे कितने तरह की जताई की जरूरत है किन स्थितियों में।

किसान अपनी भूमि की जुताई के लिए कल्टीवेटर , कुदाल, हल आदि उपकरणों का प्रयोग करते हैं।कभी-कभी मिट्टी काफी कठोर हो जाती है और फसलों की जुताई करने के लिए हैरो का इस्तेमाल भी किया जाता है। जिसके बाद जुताई के बाद भी कई प्रकार के जुताई की जाती है।

बुवाई के लिए भूमि को समतल करना

किसान खेतों की जुताई के बाद जो दूसरी क्रिया करते हैं वह भूमि समतल है। समतल यानी भूमि को एक समान करना होता है हल यह किसी भी अन्य उपकरणों के द्वारा। भूमि समतल विभिन्न विभिन्न समय पर फसलों के आधार पर बदलता रहता है। 

किसान समतल के लिए खेतों में मेड, खांचे या अन्य प्रकार की क्रिया को शामिल किए रहते हैं। जो विशिष्ट फसलों के लिए बहुत ही आवश्यक होती हैं। भूमि समतल करने से फसलों में सिंचाई काफी आसानी से हो जाती हैं। 

पौधों को अच्छी तरह से पानी की प्राप्ति हो जाती है पौधों के पनपने और पूर्ण रूप से उत्पादन करने के लिए। भूमि समतल करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण उपकरण यानी लेवलर का इस्तेमाल किया जाता है। लेवलर उपकरण का इस्तेमाल कर भूमि को समतल किया जाता है। 

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खाद का चयन करना

बुवाई के बाद खाद के रूप में गाय की गोबर, नीम के अर्क, केचुआ सिंथेटिक उर्वरकों आदि जैसे जैविक संशोधनों का उपयोग किया जाता है। 

खेतों में मिट्टी की खाद डालने से पहले उसका अच्छी प्रकार से परीक्षण कर लेना चाहिए ,ताकि किसी भी प्रकार से फसलों को हानि ना हो, और मिट्टियों में मौजूद पोषक तत्व और खनिजों की उचित मात्रा की उपलब्धता पूर्ण रूप से सुनिश्चित हो। कुछ प्राकृतिक संशोधन के बाद हमें मिट्टी में खाद मिलानी चाहिए। 

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बीज बोने के एक प्रसारण तरीके

किसान भाई आसान तरीके से बीज बोने का प्रसारण करते हैं। खेतों में बीजों को बेहतरीन ढंग से तैयार कर लिया जाता है और अपने हाथों से भूमि पर बीजों को फेंकना शुरू कर दिया जाता हैं। 

आप हाथ या किसी अन्य उपकरण के द्वारा भी बीज को खेतों में फेंक सकते हैं।  बीज बोने से पहले बीजों का अच्छे से चयन कर लेना चाहिए। कि बीज भूमि के लिए उचित है या नहीं।बीजो को अच्छी तरह से खेतों में बिखेर देना चाहिए।

बीज बोने के लिए डिब्लिंग का इस्तेमाल

खेतों में आसानी से बीज बोने के लिए आजकल किसान भाई डिब्लिंग का भी इस्तेमाल कर रहे हैं। इस उपकरण के जरिए बीजों को डिब्बलर में रखा जाता है। डिब्बलर के निचले हिस्से पर एक छेद होता है जो बीज रखने के लिए उपयोग किया जाता है। 

डिब्बलरों को कोई भी कुशल किसान या श्रमिक आसानी से इस्तेमाल कर सकते हैं। यह एक शंक्वाकार कहने वाला यंत्र है। यह खेतों के बीच, बीज बोने के लिए खेतों में छेद करता है और अंकुरित बीजों को विकसित करता है।

डिब्लिंग विधि का इस्तेमाल कर समय की काफी बचत होती है। डिब्लिंग विधि का इस्तेमाल किसान ज्यादातर सब्जियों की फसल बोने तथा अन्य फसलों के लिए ज्यादा इस्तेमाल किया जाता हैं।

बीज बोने के लिए उपकरण

किसान बीज बोने के लिए अपना आसान और पारंपरिक तरीके का इस्तेमाल करते हैं,जैसे कि अपने हल के पीछे बीजों को गिराते रहते हैं भूमियों पर या आसान हल उपकरण का इस्तेमाल हैं बीज बोने के लिए। 

इनका उपयोग ज्यादातर गेहूं, चना ,मक्का जौ आदि बीजों की बुवाई करने के लिए किया जाता है। इस प्रक्रिया में किसान भूमि को हल द्वारा गहराई करता है ,और उसके पीछे दूसरा व्यक्ति बीजों को खेतों डालता रहता है। इस क्रिया से समय की बहुत हानि होती है।

भूमि विकास के लिए पशु चालित पटेला हैरो उपकरण का इस्तेमाल

पशु चालित पटेला हैरो की लंबाई लगभग 1.50 मीटर और मोटाई कम से कम 10 सेंटीमीटर होती है।पशु चालित पटेला हैरो लकड़ी का बना  हुआ उपकरण होता है। 

इस उपकरण से किसानों को बहुत ही सहायता मिलती है ,क्योंकि इसकी ऊपरी सतह पर घुमावदार हुक बंधा रहता है जो मिट्टियों को उपर नीचे करने में सहायक होता है। 

तथा इस उपकरण के जरिए मिट्टी में भुरभुरा पन आ जाता है।इसका मुख्य कार्य फसल के टूठ, वह इक्कट्ठा करना और खरपतवार को मिट्टी से अलग करना होता है।

पटेला 30 किसानों का कार्य करता है, इसके द्वारा 58 प्रतिशत संचालन में लगने वाले खर्चों की बचत होती है। तथा भूमि उपज में 3 से 4% की बढ़ोतरी होती है।

ब्लेड हैरो उपकरण का इस्तेमाल

या उपकरण स्टील का बना हुआ होता हैं, इसका मुख्य कार्य खरपतवार निकालने के लिए होता है। इस उपकरण में लगे ब्लेड के जरिए खरपतवार आसानी से निकाले जाते हैं। तथा इस उपकरण में लोहे के बड़े बड़े कांटे भी लगे होते। 

इस यंत्र को चलाने के लिए हरिस वह हत्था लगा हुआ होता है। यह यंत्र पूर्ण रूप से स्टील का बना हुआ होता है। इस उपकरण की मदद से किसान मूंगफली आलू आदि फसल की खुदाई भी कर सकते हैं। 

इस यंत्र के द्वारा किसानों को कम से कम 24 मजदूरों की बचत होती हैं और 15% जो खर्च संचालन में लगता है उसकी भी बचत होती है। 3 से  4% फसल उपजाऊ में काफी बढ़ोतरी भी होती है।

ट्रैक्टर चालित मिटटी पलट हल का इस्तेमाल

ट्रैक्टर चालित मिटटी पलट हल स्टील का बना हुआ होता है। इसका जो भाग होता है वो फार,मोल्ड बोर्ड, हरिस , भूमि पार्श्व  वह (लैंड साइड), हल मूल (फ्राग) आदि का होता है। 

इस उपकरण की सहायता से मिट्टी जितने भी सख्त हो, उसको तोड़ा जा सकता है। यह हल सख्त से सख्त मिट्टी को तोड़ने में सक्षम हैं।

यह हल कम से कम 40 से लेकर 50% मजदूरों का काम अकेले करता है। इसकी सहायता से 30% संचालन का खर्चा बचता है। इस हल की सहायता से किसानों को कम से कम 4 से 5% की उच्च कोटि की खेती की प्राप्ति होती है। 

यह हल की जुताई की गहराई का नियंत्रण लगभग हाइड्रोलिक लीवर या ट्रैक्टर के थ्री प्वाइन्ट लिंकेज से किया जाता हैं। हम उम्मीद करते हैं कि आपको हमारी इस पोस्ट के जरिए भूमि विकास, जुताई और बीज बोने की तैयारी के लिए उपकरण व अन्य उपकरणों की पूर्ण जानकारी प्राप्त हुई होगी। 

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वर्मीकम्पोस्ट यूनिट से हर माह लाखों कमा रहे चैनल वाले डॉक्टर साब, अब ताना नहीं, मिलती है शाबाशी

वर्मीकम्पोस्ट यूनिट से हर माह लाखों कमा रहे चैनल वाले डॉक्टर साब, अब ताना नहीं, मिलती है शाबाशी

इतना पढ़ लिख कर सब गुड़ गोबर कर दिया, आपने यह बात तो सुनी ही होगी। लेकिन मेरी खेती पर हम बात करेंगे ऐसे विरले किसान की, जिनके लिए गोबर अब कमाई के मामले में, गुड़ जैसी मिठास घोल रहा है।

वर्मीकम्पोस्ट वाले डॉक्टर साब

हम बात कर रहे हैं राजस्थान, जयपुर के नजदीक सुंदरपुरा गांव में रहने वाले डॉ. श्रवण यादव की।
केंचुआ खाद या वर्मीकम्पोस्ट (Vermicompost) निर्माण में इनकी रुचि देखते हुए, अब लोग इन्हें सम्मान एवं प्रेम से वर्मीकम्पोस्ट वाले डॉक्टर साब भी कहकर बुलाते हैं।

शुरुआत से रुख स्पष्ट

डॉ. श्रवण ने ऑर्गेनिक फार्मिंग संकाय से एमएससी किया है। साल 2012 में उन्हें JRF की स्कॉलरशिप भी मिली। मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी लगी लेकिन उनका मन नौकरी में नहीं लगा। मन नहीं लगा तो डॉ. साब ने नौकरी छोड़ दी। नौकरी छोड़ने के बाद उन्होंने राह पकड़ी उदयपुर महाराणा प्रताप यूनिवर्सिटी की। यहां वे जैविक खेती (Organic Farming) पर पीएचडी करने लगे। इसके उपरांत साल 2018 में डॉ. श्रवण को उसी यूनिवर्सिटी में सीनियर रिसर्च फ़ेलोशिप का काम मिल गया।


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डॉ. श्रवण के मुताबिक उनका मन शुरुआत से ही खेती-किसानी में लगता था। कृषि से जुड़ी छोटी-छोटी बारीकियां सीखने में उन्हें बहुत सुकून मिलता था। इस रुचि के कारण ही उन्होंने पढ़ाई के लिए कृषि विषय चुना और उस पर गहराई से अध्ययन कर जरूरी जानकारियां जुटाईं।

यूं शुरू किया बिजनेस

नौकरी करने के दौरान डॉ. श्रवण की, उनकी सबसे प्रिय चीज खेती-किसानी से दूरी बढ़ती गई। वे बताते हैं कि, नौकरी के कारण उनको कृषि कार्यों के लिए ज्यादा समय नहीं मिल पाता था। इस बीच वर्ष 2020 में कोरोना की वजह से लॉकडाउन की घोषणा के बाद वह अपने गांव सुंदरपुरा लौट आए। इस दौरान उन्हें खेती-किसानी कार्यों के लिए पर्याप्त वक्त मिला तो उन्होंने 17 बेड के साथ वर्मीकम्पोस्ट की एक छोटी यूनिट से बतौर ट्रायल शुरुआत की।

ताना नहीं अब मिलती है शाबाशी

उच्च शिक्षित होकर खाद बनाने के काम में रुचि लेने के कारण शुरुआत में लोगों ने उन्हें ताने सुनाए। परिवार के सदस्यों ने भी शुरू-शुरू में उनके इस काम में अनमने मन से साथ दिया।


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अब जब वर्मीकम्पोस्ट यूनिट से डॉ. श्रवण का लाभ लगातार बढ़ता जा रहा है, तो ताने अब शाबाशी में तब्दील होते जा रहे हैं। परिजन ने भी वर्मीकम्पोस्ट निर्माण की अहमियत को समझा है और वे खुले दिल से डॉ. श्रवण के काम में हाथ बंटाते हैं।

हर माह इतना मुनाफा

डॉ. श्रवण के मुताबिक, वर्मीकम्पोस्ट (केंचुआ खाद ) उत्पादन तकनीक (Vermicompost Production) से हासिल खाद को अन्य किसानों को बेचकर वे हर माह 2 से 3 लाख रुपये कमा रहे हैं। बढ़ते मुनाफे को देखते हुए डॉ. श्रवण ने यूनिट में वर्मीकम्पोस्ट बेड्स की संख्या भी अधिक कर दी है।

अब इतने वर्मीकम्पोस्ट बेड

डॉक्टर साब की वर्मीकम्पोस्ट यूनिट में अब वर्मी कंपोस्ट बेड की संख्या बढ़कर 1 हजार बेड हो गई है।

दावा सर्वोत्कृष्ट का

कृषि कार्यों के लिए समर्पित डॉ. श्रवण का दावा है कि, संपूर्ण भारत में उनकी वर्मीकम्पोस्ट यूनिट का मुकाबला कोई अन्य यूनिट नहीं कर सकती। उनका कहना है कि राजस्थान, जयपुर के नजदीक सुंदरपुरा गांव में स्थित उनकी वर्मीकम्पोस्ट यूनिट, भारत में प्रति किलो सबसे ज्यादा केंचुए देती है। यह यूनिट एक किलो में 2000 केंचुए देती है, जबकि शेष यूनिट में 400 से 500 केंचुए ही मिल पाते हैं।

कृषि मित्रोें को प्रशिक्षण

खुद की वर्मीकम्पोस्ट यूनिट के संचालन के अलावा डॉ. श्रवण अन्य जिज्ञासु कृषकों को भी वर्मीकंपोस्ट बनाने का जब मुफ्त प्रशिक्षण देते हैं, तो किसान मित्र बड़े चाव से डॉक्टर साब के अनुभवों का श्रवण करते हैं।


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मार्केटिंग का मंत्र

डॉक्टर श्रवण वर्मीकम्पोस्ट के लिए बाजार तलाशने सोशल मीडिया तंत्र का भी बखूबी इस्तेमाल कर रहे हैं। डॉ. ऑर्गनिक वर्मीकम्पोस्ट नाम का उनका चैनल किसानों के बीच खासा लोकप्रिय है। इस चैनल पर डॉ. श्रवण वर्मीकम्पोस्ट से जुड़ी जानकारियों को वीडियो के माध्यम से शेयर करते हैं। डॉ. श्रवण से अभी तक 25 हजार से अधिक लोग प्रशिक्षण प्राप्त कर स्वयं वर्मीकम्पोस्ट यूनिट लगाकर अपने खेत से अतिरिक्त आय प्राप्त कर रहे हैं। डॉ. श्रवण यादव के सोशल मीडिया चैनल देखने के लिए, नीचे दिए गये लिंक पर क्लिक करें : यूट्यूब चैनल (YouTube Channel) - "Dr. Organic Farming जैविक खेती" फेसबुक प्रोफाइल (Facebook Profile) : "Dr Organic (Vermicompst) Farm" लिंक्डइन प्रोफाइल (Linkedin Profile) - Dr. Sharvan Yadav

सरकारी प्रोत्साहन

गौरतलब है कि, वर्मीकम्पोस्ट फार्मिंग (Vermicompost Farming) के लिए केंद्र एवं राज्य सरकारें अपने-अपने स्तर पर किसानों को लाभ प्रदान कर रही हैं। रासायनिक कीटनाशक मुक्त फसलों की खेती के लिए सरकारों द्वारा किसानों को लगातार प्रोत्साहित किया जा रहा है।


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रासायन मुक्त खेती का मकसद लोगों को गंभीर बीमारियों से बचाना है। इसका लाभ यह भी है कि इस तरह की खेती किसानी पर किसानों को लागत भी कम आती है। भारत में सरकारों द्वारा प्रोत्साहन योजनाओं की मदद से जैविक खेती को बड़े पैमाने पर बढ़ावा दिया जा रहा है।
हरी खाद से बढ़ाएं जमीन की उपजाऊ ताकत

हरी खाद से बढ़ाएं जमीन की उपजाऊ ताकत

गेहूं धान फसल चक्र के चलते जमीन की उपजाऊ क्षमता में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है। किसी जमाने में बेहतर फसल चक्र के क्रम में साल में कम से कम एक दलहनी फसल हर खेत में ली जाती थी। वर्तमान में फसलें तो 3:00 से 4:00 तक लेने की कोशिश रहती है लेकिन बदले में जमीन को देने के नाम पर केवल डीएपी यूरिया जैसे रासायनिक उर्वरक ही बचे हैं।अब जरूरत जमीन से लेने के साथ उसे कुछ वापस देने की है।वर्तमान समय इसके लिए बिल्कुल उपयुक्त समय है। 

इस समय किसान भाई ढ़ेंचा, समय एवं दलहनी फसलें लगाकर और उन्हें 60 दिन बाद कल्टीवेटर से खेत में जोत कर हरी खाद बना सकते हैं। हरी खाद के लिए सनई एवं ढांचे का बीज थोड़ा ज्यादा डाला जाता है ताकि पौधे पास पास हो और हरी खाद  खेत को भरपूर मिले।वर्तमान में लगाई गई ढांचा एवं समय की फसल को जुलाई के पहले हफ्ते तक जोत कर धान की अच्छी पैदावार ली जा सकती है।दलहनी फसलों की जड़ों में गांठे होती हैं जो मिट्टी को बांटने का काम करती है और इन गांठों मैं पौधे द्वारा वायुमंडल से अवशोषित नाइट्रोजन इकट्ठा होती है जो की आगामी फसल के लिए जमीन में फिक्स हो जाती है।

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खेत में हरी खाद पलटने के बाद जो भी फसल ली जाएगी उसके पौधों का विकास अच्छा होगा अन्य की गुणवत्ता अच्छी होगी एवं फसल में रोग संक्रमण भी कम रहेगा। जिन इलाकों में किसान भाइयों के खेत खाली हैं वह पलेवा करके तत्काल हरी खाद के लिए ढेंचा लगा सकते हैं। 2 महीने की फसल की लंबाई ऐसी तीन फिट हो जाती है खड़ी फसल को हैरो से बारीक काट कर मिट्टी में मिला देना चाहिए। 

यदि पानी मौजूद हो इसके बाद खेत में पानी लगा देना चाहिए। पानी लगाने से बहुत जल्दी सडकर मिट्टी में मिल जाता है और मृदा की भौतिक संरचना यानी उपज क्षमता को बढ़ाता है। यह प्रक्रिया बहुत ज्यादा खर्चीली भी नहीं है। बीज और जुताई की लागत लगाकर डेढ़ हजार प्रति एकड़ से ज्यादा का खर्चा नहीं है लेकिन इससे हरी खाद सैकड़ों कुंटल मिलती है।

आम के फूल व फलन को मार्च में गिरने से ऐसे रोकें: आम के पेड़ के रोगों के उपचार

आम के फूल व फलन को मार्च में गिरने से ऐसे रोकें: आम के पेड़ के रोगों के उपचार

आम जिसे हम फलों का राजा कहते है,  इसके लजीज स्वाद और रस के हम सभी दीवाने है। गर्मियों के मौसम में आम का रस देखते ही मुंह में पानी आने लगता है। 

आम ना केवल अपने स्वाद के लिए सबका पसंदीदा होता है बल्कि यह हमारे  स्वास्थ्य के लिए भी काफी फायदेमंद होता है। आम के अंदर बहुत सारे विटामिन होते है जो हमारी त्वचा की चमक को बनाए रखती है। 

हां आपको मार्च में आम के फूल व फलन को गिरने से रोकने और आम के पेड़ के रोगों के उपचार की जानकारी दी जा रही है।

आम की उपज वाले राज्य और इसकी किस्में [Mango growing states in India and its varieties]

भारत में सबसे ज्यादा आम कन्याकुमारी में लगते है। आम के पेड़ो की अगर हम लंबाई की बात करे तो यह तकरीबन 40 फुट तक होती है। वर्ष 1498 मे केरल में पुर्तगाली लोग मसाला को अपने देश ले जाते थे वही से वे आम भी ले गए। 

भारत में लोकप्रिय आम की किस्में दशहरी , लगड़ा , चौसा, केसर बादमि, तोतापुरी, हीमसागर है। वही हापुस, अल्फांसो आम अपनी मिठास और स्वाद के लिए अंतरराष्ट्रीय बाजारों में भी काफी डिमांड में रहता है।

 

आम के उपयोग और फायदे [Uses and benefits of mango]

आम का आप जूस बना सकते है, आम का रस निकल सकते है और साथ ही साथ कच्चे आम जिसे हम कैरी बोलते है उसका अचार भी बना सकते है। 

आम ना केवल हमारे देश में प्रसिद्ध है बल्कि दुनिया के कई मशहूर देशों में भी इसकी मांग बहुत ज्यादा रहती है। आम कैंसर जैसे रोगों से बचने के लिए काफी ज्यादा फायदेमंद होता है। 

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आम के पौधों को लगाने के लिए सबसे पहले आप गड्ढों की तैयारी इस प्रकार करें [Mango Tree Planting Method]

आम के पेड़ों को लगाने के लिए भारत में सबसे अच्छा समय बारिश यानी कि बसंत रितु को माना गया है। भारत के कुछ ऐसे राज्य हैं जहां पर बहुत ज्यादा वर्षा होती हैं ऐसे में जब वर्षा कम हो उस समय आप आम के पेड़ों को लगाएं। 

क्योंकि शुरुआती दौर में आम के पौधों को ज्यादा पानी देने पर वो सड़ने लग जाते है। इसके कारण कई सारी बीमारियां लगने का डर भी रहता है। 

आम के पेड़ों को लगाने के लिए आप लगभग 70 सेंटीमीटर गहरा और चौड़ा गड्ढा खोल दें और उसके अंदर सड़ा हुआ गोबर और खाद डालकर मिट्टी को अच्छी तरह तैयार कर दीजिए। 

इसके बाद आप आम के बीजों को 1 महीने के बाद उस गड्ढे के अंदर बुवाई कर दीजिए। प्रतीक आम के पेड़ के बीच 10 से 15 मीटर की दूरी अवश्य होनी चाहिए अन्यथा बड़े होने पर पेड़ आपस में ना टकराए।

आम के पौधों की अच्छे से सिंचाई किस प्रकार करें [How to irrigate mango plants properly?]

आम के पेड़ों को बहुत लंबे समय तक काफी ज्यादा मात्रा में पानी की आवश्यकता होती है। एक बार जब आम के बीज गड्ढों में से अंकुरित होकर पौधे के रूप में विकसित होने लगे तब आप नियमित रूप से पौधों की सिंचाई जरूर करें। 

आम के पेड़ों की सिंचाई तीन चरणों में होती हैं। सबसे पहले चरण की सिंचाई फल लगने तक की जाती है और उसके बाद दूसरी सिंचाई में फलों की कांच की गोली के बराबर अवस्था में अच्छी रूप से की जाती हैं। 

 जब एक बार फल पूर्ण रूप से विकसित होकर पकने की अवस्था में आ जाते हैं तब तीसरे चरण की सिंचाई की जाती हैं। सबसे पहले चरण की सिंचाई में ज्यादा पानी की आवश्यकता होती हैं 

आम के पौधों को। सबसे अंतिम चरण यानी तीसरे चरण में आम के पेड़ों को इतनी ज्यादा पानी की आवश्यकता नहीं होती हैं। आम के पेड़ों की सिंचाई करने के लिए थाला विधि सबसे अच्छी मानी जाती हैं इसमें आप हर पेड़ के नीचे नाली भला कर एक साथ सभी पेड़ों को धीरे-धीरे पानी देवे। 

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आम के पौधों के लिए खाद और उर्वरक का इस्तेमाल इस प्रकार करें [How to use manure and fertilizer for mango plants?]

आम के पेड़ को पूर्ण रूप से विकसित होने के लिए बहुत ज्यादा मात्रा में नाइट्रोजन फास्फोरस और पोटेशियम की बहुत ज्यादा आवश्यकता होती हैं। 

ऐसे में आप प्रतिवर्ष आम के पौधों को इन सभी खाद और उर्वरकों की पूर्ण मात्रा में खुराक देवे। यदि आप आम के पौधों में जैविक खाद का इस्तेमाल करना चाहते है तो 40kg सड़ा हुआ गोबर का खाद जरूर देवे। 

इस प्रकार की खाद और सड़ा गोबर डालने से प्रतिवर्ष आम के फलों की पैदावार बढ़ जाती हैं।इसी के साथ साथ अन्य बीमारियां और कीड़े मकोड़ों से भी आम के पौधों का बचाव होता है।

आप नाइट्रोजन पोटाश और फास्फोरस को पौधों में डालने के लिए नालियों का ही इस्तेमाल करें। प्रतिमाह कम से कम तीन से चार बार आम के पौधों को खाद और उर्वरक देना चाहिए इससे उनकी वृद्धि तेजी से होने लगती हैं।

आम के फूल व फलन को झड़ने से रोकने के लिए इन उपायों का इस्तेमाल करें [Remedies to stop the fall of mango blossom flowers & raw fruits]

आम के फलों का झड़ना कई सारे किसानों के लिए बहुत सारी परेशानियां खड़ी कर देता है। सबसे पहले जान लेते हैं ऐसा क्यों होता है ऐसा अधिक गर्मी और तेज गर्म हवाओं के चलने के कारण होता है। 

ऐसे में आप यह सावधानी रखें कि आम के पेड़ों को सीधी गर्म हवा से बचाया जा सके। सबसे ज्यादा आम के पेड़ों के फलों का झड़न मई महीने में होता है। इस समय ज्यादा फलों के गिरने के कारण बागवानों और किसानों को सबसे ज्यादा हानि होती हैं। 

इस समस्या से छुटकारा पाने के लिए आप नियमित रूप से सिंचाई कर सकते हैं। नियमित रूप से सिंचाई करने से आम के पौधों को समय-समय पर पानी की खुराक मिलती रहती हैं इससे फल झड़ने की समस्या को कुछ हद तक रोका जा सकता है। 

आम के फलों के झड़ने का दूसरा कारण यह भी होता है कि आम के पौधों को सही रूप में पोषक तत्व नही मिले हो। इसके लिए आप समय-समय पर जरूरतमंद पोषक तत्व की खुराक पौधों में डालें। 

इसके अलावा आप इन हारमोंस जैसे कि ए एन ए 242 btd5 जी आदि का छिड़काव करके फलों के झाड़न को रोक सकते हैं। आम के पौधों को समय समय पर खाद और उर्वरक केकरा देते रहें इससे पौधा अच्छे से विकसित होता है और अन्य बीमारियों से सुरक्षित भी रहता है।

आम के पौधों में लगने वाले रोगों से इस प्रकार बचाव करें [How to prevent and cure diseases in mango plants]

जिस प्रकार आम हमें खाने में स्वादिष्ट लगते हैं उसी प्रकार कीड़ों मकोड़ों को भी बहुत ज्यादा पसंद आते हैं। ऐसे में इन कीड़ों मकोड़ों की वजह से कई सारी बीमारियां आम के पेड़ों को लग जाती हैं और पूरी फसल नष्ट हो जाती है। 

आम के पेड़ों में सबसे ज्यादा लगने वाला रोग दहिया रोग होता है इससे बचाव के लिए आप घुलनशील गंधक को 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव अवश्य करें। इससे आम के पेड़ों में लगने वाला दहिया रोग मात्र 1 से 2 सप्ताह में पूर्ण रूप से नष्ट हो जाता है। 

इस घोल का छिड़काव आप प्रति सप्ताह दो से तीन बार अवश्य करें। छिड़कावकरते समय यह ध्यान अवसय रखे की ज्यादा मात्रा में घोल को आम के पेड़ों को ना दिया जाए वरना वो मुरझाकर नष्टभी हो सकते है। 

इसके अलावा दूसरा जो रोग आम के पेड़ में लगता है वह होता है कोयलिया रोग। से बचाव के लिए आप el-200 पीपी और 900 मिलीलीटर की मात्रा में घोल बनाकर सप्ताह में तीन से चार बार छिड़काव करें। 

इसका छिड़काव आप 20 20 दिन के अंतराल में जरूर करें और इसका ज्यादा छिड़काव करने से बचें। उपरोक्त उपायों से आप आम के फूल व फलन को गिरने से रोकने में काफी हद तक कामयाब हो सकते हैं ।

कुवैत में खेती के लिए भारत से जाएगा 192 मीट्रिक टन गाय का गोबर

कुवैत में खेती के लिए भारत से जाएगा 192 मीट्रिक टन गाय का गोबर

गोवंश पालकों के लिए खुशखबरी - कुवैत में खेती के लिए भारत से जाएगा १९२ मीट्रिक टन गाय का गोबर

नई दिल्ली। गोवंश पालकों के लिए खुशखबरी है। अब गोवंश का गोबर बेकार नहीं जाएगा। सात समुंदर पार भी गोवंश के गोबर को अब तवज्जो मिलेगी। अब पशुपालकों को गाय के गोबर की उपयोगिता समझनी पड़ेगी। पहली बार देश से 192 मीट्रिक टन गोवंश का गोबर कुवैत में खेती के लिए जाएगा। गोबर को पैक करके कंटेनर के जरिए 15 जून से भेजना शुरू किया जाएगा। सांगानेर स्थित श्री पिंजरापोल गौशाला के सनराइज ऑर्गेनिक पार्क (
sunrise organic park) में इसकी सभी तैयारियां पूरी हो चुकी हैं।

कुवैत में जैविक खेती मिशन की शुरुआत होने जा रही है।

भारतीय जैविक किसान उत्पादक संघ (Organic Farmer Producer Association of India- OFPAI) के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. अतुल गुप्ता ने बताया कि जैविक खेती उत्पादन गो सरंक्षण अभियान का ही नतीजा है। जिसकी शुरुआत हो चुकी है। पहली खेप में 15 जून को कनकपुरा रेलवे स्टेशन से कंटेनर रवाना होंगे। श्री गुप्ता ने बताया कि कुवैत के कृषि विशेषज्ञों के अध्ययन के बाद फसलों के लिए गाय का गोबर बेहद उपयोगी माना गया है। इससे न केवल फसल उत्पादन में बढ़ोतरी होती है, बल्कि जैविक उत्पादों में स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल असर देखने को मिलता है। सनराइज एग्रीलैंड डवलेपमेंट को यह जिम्मेदारी मिलना देश के लिए गर्व की बात है।

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राज्य सरकारों की भी करनी चाहिए पहल

- गाय के गोबर को उपयोग में लेने के लिए राज्य सरकारों को भी पहल करनी चाहिए। जिससे खेती-किसानी और आम नागरिकों को फायदा होगा। साथ ही स्वास्थ्यवर्धक फसलों का उत्पादन होगा। प्राचीन युग से पौधों व फसल उत्पादन में खाद का महत्वपूर्ण उपयोग होता हैं। गोबर के एंटीडियोएक्टिव एवं एंटीथर्मल गुण होने के साथ-साथ 16 प्रकार के उपयोगी खनिज तत्व भी पाए जाते हैं। गोबर इसमें बहुत महत्वपूर्ण है। सभी राज्य सरकारों को इसका फायदा लेना चाहिए।

गाय के गोबर का उपयोग

- प्रोडक्ट विवरण पारंपरिक भारतीय घरों में गाय के गोबर के केक का उपयोग यज्ञ, समारोह, अनुष्ठान आदि के लिए किया जाता है। इसका उपयोग हवा को शुद्ध करने के लिए किया जाता है क्योंकि इसे घी के साथ जलते समय ऑक्सीजन मुक्त करने के लिए कहा जाता है। गाय के गोबर को उर्वरक के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। ये भी पढ़े : सीखें वर्मी कंपोस्ट खाद बनाना 1- बायोगैस, गोबर गैस : गैस और बिजली संकट के दौर में गांवों में आजकल गोबर गैस प्लांट लगाए जाने का प्रचलन चल पड़ा है। पेट्रोल, डीजल, कोयला व गैस तो सब प्राकृतिक स्रोत हैं, किंतु यह बायोगैस तो कभी न समाप्त होने वाला स्रोत है। जब तक गौवंश है, अब तक हमें यह ऊर्जा मिलती रहेगी। एक प्लांट से करीब 7 करोड़ टन लकड़ी बचाई जा सकती है जिससे करीब साढ़े 3 करोड़ पेड़ों को जीवनदान दिया जा सकता है। साथ ही करीब 3 करोड़ टन उत्सर्जित कार्बन डाई ऑक्साइड को भी रोका जा सकता है। 2- गोबर की खाद : गोबर गैस संयंत्र में गैस प्राप्ति के बाद बचे पदार्थ का उपयोग खेती के लिए जैविक खाद बनाने में किया जाता है। खेती के लिए भारतीय गाय का गोबर अमृत समान माना जाता था। इसी अमृत के कारण भारत भूमि सहस्रों वर्षों से सोना उगलती आ रही है। गोबर फसलों के लिए बहुत उपयोगी कीटनाशक सिद्ध हुए हैं। कीटनाशक के रूप में गोबर और गौमूत्र के इस्तेमाल के लिए अनुसंधान केंद्र खोले जा सकते हैं, क्योंकि इनमें रासायनिक उर्वरकों के दुष्प्रभावों के बिना खेतिहर उत्पादन बढ़ाने की अपार क्षमता है। इसके बैक्टीरिया अन्य कई जटिल रोगों में भी फायदेमंद होते हैं। ये भी पढ़े : सीखें नादेप विधि से खाद बनाना 3- गौमूत्र अपने आस-पास के वातावरण को भी शुद्ध रखता है। कृषि में रासायनिक खाद्य और कीटनाशक पदार्थ की जगह गाय का गोबर इस्तेमाल करने से जहां भूमि की उर्वरता बनी रहती है, वहीं उत्पादन भी अधिक होता है। दूसरी ओर पैदा की जा रही सब्जी, फल या अनाज की फसल की गुणवत्ता भी बनी रहती है। जुताई करते समय गिरने वाले गोबर और गौमूत्र से भूमि में स्वतः खाद डलती जाती है। 4- कृषि में रासायनिक खाद्य और कीटनाशक पदार्थ की जगह गाय का गोबर इस्तेमाल करने से जहां भूमि की उर्वरता बनी रहती है, वहीं उत्पादन भी अधिक होता है। दूसरी ओर पैदा की जा रही सब्जी, फल या अनाज की फसल की गुणवत्ता भी बनी रहती है। जुताई करते समय गिरने वाले गोबर और गौमूत्र से भूमि में स्वतः खाद डलती जाती है। 5- प्रकृति के 99% कीट प्रणाली के लिए लाभदायक हैं। गौमूत्र या खमीर हुए छाछ से बने कीटनाशक इन सहायक कीटों को प्रभावित नहीं करते। एक गाय का गोबर 7 एकड़ भूमि को खाद और मूत्र 100 एकड़ भूमि की फसल को कीटों से बचा सकता है। केवल 40 करोड़ गौवंश के गोबर व मूत्र से भारत में 84 लाख एकड़ भूमि को उपजाऊ बनाया जा सकता है। 6- गाय के गोबर का चर्म रोगों में उपचारीय महत्व सर्वविदित है। प्राचीनकाल में मकानों की दीवारों और भूमि को गाय के गोबर से लीपा-पोता जाता था। यह गोबर जहां दीवारों को मजबूत बनाता था वहीं यह घरों पर परजीवियों, मच्छर और कीटाणुओं के हमले भी रोकता था। आज भी गांवों में गाय के गोबर का प्रयोग चूल्हे बनाने, आंगन लीपने एवं मंगल कार्यों में लिया जाता है। 7- गोबर के कंडे या उपले : वैज्ञानिक कहते हैं कि गाय के गोबर में विटामिन बी-12 प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। यह रेडियोधर्मिता को भी सोख लेता है। आम मान्यता है कि गाय के गोबर के कंडे से धुआं करने पर कीटाणु, मच्छर आदि भाग जाते हैं तथा दुर्गंध का नाश हो जाता है। कंडे पर रोटी और बाटी को सेंका जा सकता है। 8- गोबर का पाउडर के रूप में खजूर की फसल में इस्तेमाल करने से फल के आकार में वृद्धि के साथ-साथ उत्पादन में भी बढ़ोतरी होती है।

भारत मे 30% गोबर से बनते हैं उपले

- भारत में 30% गोबर से उपले बनते हैं। जो अधिकांश ग्रामीण अंचल में तैयार किए जाते हैं। इन उपलों को आग जलाने के लिए उपयोग में लिया जाता है। जबकि ब्रिटेन में हर वर्ष 16 लाख यूनिट बिजली का उत्पादन किया जाता है। वहीं चीन में डेढ़ करोड़ परिवारों को घरेलू ऊर्जा के लिए गोबर गैस की आपूर्ति की जाती है। अमेरिका, नेपाल, फिलीपींस तथा दक्षिणी कोरिया ने भारत से जैविक खाद मंगवाना शुरू कर दिया है। -------- लोकेन्द्र नरवार
आगामी 27 सालों में उर्वरकों के उत्सर्जन में हो सकती है भारी कटौती

आगामी 27 सालों में उर्वरकों के उत्सर्जन में हो सकती है भारी कटौती

इन दिनों दुनिया भर में प्रदूषण एक बड़ी समस्या बनी हुई है। जो ग्लोबल वार्मिंग की मुख्य वजह है। प्रदूषण कई चीजों से फैलता है जो पर्यावरण को नुकसान पहुंचाता है। इन दिनों अन्य प्रदूषणों के साथ-साथ उर्वरक प्रदूषण भी चर्चा में है। इन दिनों पूरी दुनिया के किसान भाई खेती में उत्पादन बढ़ाने के लिए नाइट्रोजन युक्त उर्वरकों का प्रयोग करते हैं जो पर्यावरण और जैवविविधता को नुकसान पहुंचाते हैं। ऐसे में खेती में इनके प्रयोग को नियंत्रित करना जरूरी हो गया है। हाल ही में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने एक शोध में पाया है कि आगामी 27 वर्षों में साल 2050 तक उर्वरकों से होने वाले उत्सर्जन को 80 फीसदी तक कम किया जा सकता है। वैज्ञानिकों ने कार्बन उत्सर्जन की बारीकी से गणना की है। शोधकर्ताओं ने बताया है कि खेती में नाइट्रोजन के उपयोग से होने वाला उत्सर्जन वैश्विक स्तर पर होने वाले उत्सर्जन का 5 फीसदी है। यह ध्यान देने योग्य बात है कि वैश्विक स्तर पर कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए नाइट्रोजन युक्त उर्वरकों का धड़ल्ले से उपयोग किया जा रहा है, जो ग्लोबल वार्मिंग का मुख्य कारण बन रहा है।

हर साल रासायनिक उर्वरकों से हो रहा है इतना उत्सर्जन

वैज्ञानिकों ने अपने शोध में बताया है कि हर साल खाद और सिंथेटिक उर्वरक के प्रयोग से 260 करोड़ टन उत्सर्जन हो रहा है। यह उत्सर्जन धरती पर विमानन और शिपिंग कंपनियों के द्वारा किए जा रहे उत्सर्जन से कहीं ज्यादा है। इसको देखते हुए वैज्ञानिक किसानों से वैकल्पिक उर्वरकों के उपयोग की अपील कर रहे हैं क्योंकि लंबी अवधि में यह बेहद हानिकारक है।

उत्सर्जन में कमी लाने के लिए किसानों को करना होगा जागरुख

शोधकर्ताओं ने कहा है कि रासायनिक उर्वरक के दुष्परिणामों को किसानों के समक्ष रखना एक बेहद आसान और अच्छा तरीका है। ऐसा करके उत्सर्जन में कमी लाई जा सकती है। वैज्ञानिकों ने दुनिया में उपयोग किए जाने वाले रासायनिक उर्वरकों का अध्ययन किया है। जिसके बाद उन्होंने अपने शोध में कहा है कि यदि दुनिया भर में यूरिया को अमोनियम नाइट्रेट से बदल दिया जाए तो इससे उत्सर्जन में 20 से 30 फीसद तक की कमी लाई जा सकती है। फिलहाल यूरिया सबसे ज्यादा उत्सर्जन करने वाले उर्वरकों में गिना जाता है। ये भी देखें: उर्वरकों के दुरुपयोग से होने वाली समस्याएं और निपटान के लिए आई नई वैज्ञानिक एडवाइजरी : उत्पादन बढ़ाने के लिए जरूर करें पालन वैज्ञानिकों का अब भी मानना है कि वैश्विक खाद्य जरूरतों को ध्यान में रखते हुए कार्बन उत्सर्जन को कम करना एक बड़ी चुनौती है। फिर भी इस समस्या के समाधान के लिए लगातार शोध करने की जरूरत है, साथ ही नई तकनीकों की खोज की जरूरत है। जिससे भविष्य में उत्सर्जन को बेहद निचले इतर पर लाया जा सके।
नींबू की खेती से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी

नींबू की खेती से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी

नींबू की खेती अधिकांश किसान मुनाफे के तौर पर करते हैं। नींबू के पौधे एक बार अच्छी तरह विकसित हो जाने के बाद कई सालों तक उत्पादन देते है। यह कम लागत में ज्यादा मुनाफे देने वाली फसलों में से एक है। बतादें, कि नींबू के पौधों को सिर्फ एक बार लगाने के उपरांत 10 साल तक उत्पादन लिया जा सकता है। पौधरोपण के पश्चात सिर्फ इनको देखरेख की जरूरत पड़ती है। इसका उत्पादन भी प्रति वर्ष बढ़ता जाता है। भारत विश्व का सर्वाधिक नींबू उत्पादक देश है। नींबू का सर्वाधिक उपयोग खाने के लिए किया जाता है। खाने के अतिरिक्त इसे अचार बनाने के लिए भी इस्तेमाल में लिया जाता है। आज के समय में नींबू एक बहुत ही उपयोगी फल माना जाता है, जिसे विभिन्न कॉस्मेटिक कंपनियां एवं फार्मासिटिकल कंपनियों द्वारा इस्तेमाल किया जाता है। नींबू का पौधा झाड़ीनुमा आकार का होता है, जिसमें कम मात्रा में शाखाएं विघमान रहती हैं। नींबू की शाखाओ में छोटे-छोटे काँटे भी लगे होते है। नींबू के पौधों में निकलने वाले फूल सफेद रंग के होते हैं, लेकिन अच्छी तरह तैयार होने की स्थिति में इसके फूलों का रंग पीला हो जाता है। नींबू का स्वाद खट्टा होता है, जिसमें विटामिन ए, बी एवं सी की मात्रा ज्यादा पाई जाती है। बाजारों में नींबू की सालभर काफी ज्यादा मांग बनी रहती है। यही वजह है, कि किसान भाई नींबू की खेती से कम लागत में अच्छी आमदनी कर सकते हैं।


 

नींबू की खेती के लिए उपयुक्त मृदा

नींबू की खेती के लिए सबसे अच्छी बलुई दोमट मृदा मानी जाती है। साथ ही, अम्लीय क्षारीय मृदा एवं लेटराइट में भी इसका उत्पादन सहजता से किया जा सकता है। उपोष्ण कटिबंधीय एवं अर्ध शुष्क जलवायु वाले इलाकों में नींबू की पैदावार ज्यादा मात्रा में होती है। भारत के पंजाब, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, मध्य प्रदेश, बिहार और राजस्थान राज्यों के विभिन्न इलाकों में नींबू की खेती काफी बड़े क्षेत्रफल में की जाती है। ऐसे इलाके जहां पर ज्यादा वक्त तक ठंड बनी रहती हैं, ऐसे क्षेत्रों में नींबू का उत्पादन नहीं करनी चाहिए। क्योंकि, सर्दियों के दिनों में गिरने वाले पाले से इसके पौधों को काफी नुकसान होता है। 

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नींबू में रोग एवं उनका नियंत्रण

कागजी नींबू

नींबू की इस किस्म का भारत में अत्यधिक मात्रा में उत्पादन किया जाता है। कागजी नींबू के अंदर 52% प्रतिशत रस की मात्रा विघमान रहती है | कागजी नींबू को व्यापारिक तौर पर नहीं उगाया जाता है।


 

प्रमालिनी

प्रमालिनी किस्म को व्यापारिक तौर पर उगाया जाता है। इस प्रजाति के नींबू गुच्छो में तैयार होते हैं, जिसमें कागजी नींबू के मुकाबले 30% ज्यादा उत्पादन अर्जित होता है। इसके एक नींबू से 57% प्रतिशत तक रस अर्जित हो जाता है।


 

विक्रम किस्म का नींबू

नींबू की इस किस्म को ज्यादा उत्पादन के लिए किया जाता है। विक्रम किस्म के पौधों में निकलने वाले फल गुच्छे के स्वरुप में होते हैं, इसके एक गुच्छे से 7 से 10 नींबू अर्जित हो जाते हैं। इस किस्म के पौधों पर सालभर नींबू देखने को मिल जाते हैं। पंजाब में इसको पंजाबी बारहमासी के नाम से भी मशहूर है। साथ ही, इसके अतिरिक्त नींबू की चक्रधर, पी के एम-1, साई शरबती आदि ऐसी किस्मों को ज्यादा रस और उत्पादन के लिए उगाया जाता है। 

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नींबू के खेत की तैयारी इस तरह करें

नींबू का पौधा पूरी तरह से तैयार हो जाने पर बहुत सालों तक उपज प्रदान करता है। इस वजह से इसके खेत को बेहतर ढंग से तैयार कर लेना चाहिए। इसके लिए सर्वप्रथम खेत की बेहतर ढ़ंग से मृदा पलटने वाले हलो से गहरी जुताई कर देनी चाहिए। क्योंकि, इससे खेत में उपस्थित पुरानी फसल के अवशेष पूरी तरह से नष्ट हो जाते है। इसके पश्चात खेत में पुरानी गोबर की खाद को डालकर उसकी रोटावेटर से जुताई कर मृदा में बेहतर ढ़ंग से मिला देना चाहिए। खाद को मृदा में मिलाने के पश्चात खेत में पाटा लगाकर खेत को एकसार कर देना चाहिए। इसके उपरांत खेत में नींबू का पौधरोपण करने के लिए गड्डों को तैयार कर लिया जाता है।


 

नींबू पोधरोपण का उपयुक्त समय एवं विधि

नींबू का पौधरोपण पौध के तौर पर किया जाता है। इसके लिए नींबू के पौधों को नर्सरी से खरीद लेना चाहिए। ध्यान दने वाली बात यह है, कि गए पौधे एक माह पुराने एवं पूर्णतय स्वस्थ होने चाहिए। पौधों की रोपाई के लिए जून और अगस्त का माह उपयुक्त माना जाता है। बारिश के मौसम में इसके पौधे काफी बेहतर ढ़ंग से विकास करते हैं। पौधरोपण के पश्चात इसके पौधे तीन से चार साल उपरांत उत्पादन देने के लिए तैयार हो जाते हैं। नींबू का पौधरोपण करने के लिए खेत में तैयार किये गए गड्डों के बीच 10 फीट का फासला रखा जाता है, जिसमें गड्डो का आकार 70 से 80 CM चौड़ा एवं 60 CM गहरा होता है। एक हेक्टेयर के खेत में लगभग 600 पौधे लगाए जा सकते हैं। नींबू के पौधों को ज्यादा सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती है। वह इसलिए क्योंकि नींबू का पौधरोपण बारिश के मौसम में किया जाता है। इस वजह से उन्हें इस दौरान ज्यादा सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है। इसके पौधों की सिंचाई नियमित समयांतराल के अनुरूप ही करें। सर्दियों के मौसम में इसके पौधों को 10 से 15 दिन के अंतराल में पानी देता होता है। इससे ज्यादा पानी देने पर खेत में जलभराव की स्थिति उत्पन्न हो सकती है, जो कि पौधों के लिए अत्यंत हानिकारक साबित होती है।


 

नींबू की खेती में लगने वाले कीट

रस चूसक कीट

सिटरस सिल्ला, सुरंग कीट एवं चेपा की भांति के कीट रोग शाखाओं एवं पत्तियों का रस चूसकर उनको पूर्णतय नष्ट कर देते हैं। बतादें, कि इस प्रकार के रोगों से बचाव करने के लिए पौधों पर मोनोक्रोटोफॉस की समुचित मात्रा का छिड़काव किया जाता है। इसके अलावा इन रोगो से प्रभावित पौधों की शाखाओं को काटकर उन्हें अलग कर दें।

काले धब्बे

नींबू की खेती में काले धब्बे का रोग नजर आता है। बतादें, कि काला धब्बा रोग से ग्रसित नींबू के ऊपर काले रंग के धब्बे नजर आने लगते हैं। शुरआत में पानी से धोकर इस रोग को बढ़ने से रोक सकते हैं। अगर इस रोग का असर ज्यादा बढ़ जाता है, तो नींबू पर सलेटी रंग की परत पड़ जाती है। इस रोग से संरक्षण करने हेतु पौधों पर सफेद तेल एवं कॉपर का घोल बनाकर छिड़काव किया जाता है। 

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नींबू में जिंक और आयरन की कमी होने पर क्या करें

नींबू के पौधों में आयरन की कमी होने की स्थिति में पौधों की पत्तियां पीले रंग की पड़ जाती हैं। जिसके कुछ वक्त पश्चात ही पत्तियां सूखकर गिर जाती हैं और पौधा भी आहिस्ते-आहिस्ते सूखने लगती है। नींबू के पौधों को इस किस्म का रोग प्रभावित ना करे। इसके लिए पौधों को देशी खाद ही देनी चाहिए। इसके अलावा 10 लीटर जल में 2 चम्मच जिंक की मात्रा को घोलकर पौधों में देनी होती है।


 

नींबू की कटाई, उत्पादन और आय

नींबू के पौधों पर फूल आने के तीन से चार महीने बाद फल आने शुरू हो जाते हैं। इसके उपरांत पौधों पर लगे हुए नींबू को अलग कर लिया जाता है। नींबू की उपज गुच्छो के रूप में होती है, जिसके चलते इसके फल भिन्न-भिन्न समय पर तुड़ाई हेतु तैयार होते है। तोड़े गए नीबुओं को बेहतरीन ढंग से स्वच्छ कर क्लोरीनेटड की 2.5 GM की मात्रा एक लीटर जल में डालकर घोल बना लें। इसके पश्चात इस घोल से नीबुओं की साफ-सफाई करें। इसके पश्चात नीबुओं को किसी छायादार स्थान पर सुखा लिया जाता है। नींबू का पूरी तरह विकसित पौधा एक साल में लगभग 40 KG की उपज दे देता है। एक हेक्टेयर के खेत में लगभग 600 नींबू के पौधे लगाए जा सकते हैं। इस हिसाब से किसान भाई एक वर्ष की उपज से 3 लाख रुपए तक की आमदनी सुगमता से कर सकते हैं।

किसान गोबर से बने इन उत्पादों का व्यवसाय करके कुछ ही समय में अमीर बन सकते हैं

किसान गोबर से बने इन उत्पादों का व्यवसाय करके कुछ ही समय में अमीर बन सकते हैं

आपकी जानकारी के लिए बतादें कि बाजार में धूपबत्ती की भांति इस वक्त गोबर से बने दिये भी खूब बिक रहे हैं। सबसे खास बात यह है, कि गोबर से निर्मित दिये भारत समेत विदेशों में भी ऑनलाइन माध्यम से विक्रय किए जा रहे हैं। फिलहाल, दुनियाभर में किसान खेती से हटकर विभिन्न प्रकार के व्यापार कर रहे हैं। हालांकि, यह समस्त व्यापार कृषि एवं पशुपालन से ही संबंधित हैं। आज हम आपको गाय भैसों के गोबर से होने वाले ये बिजनेस आइडियाज देंगे, जो आपको कुछ ही समयांतराल में अमीर बना देंगे। सबसे खास बात यह है, कि इन कारोबारों को शुरू करने के लिए आपको काफी अधिक पूंजी की आवश्यकता नहीं है।

गोबर से निर्मित धूपबत्ती

गोबर से तैयार की गई धूपबत्ती इस समय बाजार में आम धूपबत्तियों और अगरबत्तियों से कहीं अधिक बिकती हैं। दरअसल, गाय के गोबर को काफी ज्यादा पवित्र माना जाता है, इसका उपयोग हिंदू धर्म को मानने वाले लोग अपनी पूजा पाठ वाली जगह पर भी करते हैं। यही कारण है, कि गाय के गोबर से निर्मित अगरबत्ती बाजार में बड़ी ही तीव्रता से बिक रही है। सबसे खास बात यह है, कि बिजनेस आप बड़ी सुगमता से घर पर भी चालू कर सकते हैं।

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गोबर से निर्मित दिये

धूपबत्ती की भांति इस समय गोबर से निर्मित दिये भी बाजार में अत्यधिक बिक रहे हैं। सबसे खास बात यह है, कि गोबर से निर्मित दिये भारत के अलावा विदेशों में भी ऑनलाइन माध्यम से बिक रहे हैं। इस व्यवसाय को भी आप सहजता से अपने घर में ही चालू कर सकते हैं। इसके लिए आपको सर्व प्रथम गाय के गोबर को सुखा कर उसका पाउडर बना लेना है, उसके पश्चात उसमें गोंद मिलाकर दिये के शेप में उसे ढाल लेना है। दो चार दिनों तक के लिए उसको धूप में रख कर सुखाने के पश्चात आप सहजता से उत्तम कीमत पर उसकी बाजार में बिक्री कर सकते हैं।

गोबर से निर्मित गमलों का व्यवसाय

जैसा कि हम जानते हैं, कि बारिश का मौसम चल रहा है, ऐसे में गमलों की मांग काफी ज्यादा है। लोग अब हरियाली की तरफ दौड़ रहे हैं। इस गमले की सबसे मुख्य बात यह है, कि इसमें पौधे बड़ी ही तीव्रता से बड़े होते हैं और जब ये गमला गलने लगता है, तो उसे खाद के रूप में भी उपयोग कर लिया जाता है। यही कारण है, कि फिलहाल बाजार में इसकी मांग काफी बढ़ गई है। इस प्रकार के गमले इस समय बाजार में 50 से 100 रुपये के बिक रहे हैं।

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गोकाष्ठ लकड़ी का व्यवसाय

गोकाष्ठ एक ऐसी वस्तु है, जिसका उपयोग दाह संस्कार में किया जाता है। दरअसल, हिंदू धर्म में जब कोई इंसान मरता है, तो उसका दाह संस्कार किया जाता है। मतलब की उसके शरीर को जलाया जाता है। अब ऐसी स्थिति में इस क्रिया के लिए लकड़ियों की काफी जरूरत होती है। इसी कारण से प्रति वर्ष लाखों वृक्ष कट जाते हैं। परंतु, यदि ये क्रिया गोकाष्ठ से होने लगे तो धरती के लाखों वृक्ष प्रति वर्ष बच जाएंगे। सबसे खास बात यह है, कि गोष्ठ बनाने हेतु आप 50000 तक में एक मशीन ला सकते हैं और फिर उससे अपना व्यवसाय शुरू कर सकते हैं।

गोबर से खाद का व्यवसाय

गोबर एक प्रकार का जैविक खाद है। गांवों में आज भी किसान गोबर का उपयोग खाद के तौर पर करते हैं। यदि आप इस चीज का व्यवसाय चालू करते हैं, तो देखते ही देखते कुछ ही दिनों में आप धनी बन सकते हैं। दरअसल, इस समय शहरों के अंदर लोग अपनी बालकनी को गमलों से भर रहे हैं। साथ ही, उन गमलों में लगे पौधों को बड़ा करने हेतु वह जैविक खाद का उपयोग कर रहे हैं। इस वजह से यदि आप इस व्यवसाय में दांव लगाते हैं, तो निश्चित तौर पर आप सफल रहेंगे।
सनई की खेती से संबंधित कुछ अहम जानकारी

सनई की खेती से संबंधित कुछ अहम जानकारी

भारत में सनई की खेती हरी खाद अथवा पीले फूलों के उद्देश्य से की जाती है। परंतु, जैविक खेती के चलन में हरी खाद की बढ़ती मांग के बीच इसकी व्यावसायिक खेती लाभ का सौदा सिद्ध हो सकती है। भारत के किसान भाई मोटा मुनाफा अर्जित करने हेतु फिलहाल दोहरे उद्देश्य वाली फसलों की खेती पर बल दे रहे हैं। मतलब कि फसल एक ही होगी, परंतु उससे दो तरह की पैदावार ले सकते हैं। सनई भी इसी तरह की फसल में शामिल है। इसके फूलों का इस्तेमाल सब्जी के तौर पर, जूट के लिये और फसल के बाकी हिस्सों से हरी खाद तैयार की जाती है। इस तरह सनई की खेती करके मिट्टी की उर्वरक शक्ति बढ़ा सकते हैं। जिससे कि फसलों का ज्यादा उत्पादन ले सकें। दूसरी तरफ सनई के पीले फूलों की भी बाजार में बेहद मांग रहती है, जिन्हें बेचकर अच्छी आमदनी की जा सकती है।

सनई की खेती मुख्य रूप से इन राज्यों में की जाती है

नवीन फसल लगाने से पूर्व खेतों में हरी खाद के उद्देश्य से सनई की खेती करने की सलाह दी जाती है। दरअसल, भारत के हर कोने में सनई की खेती की जा सकती है। परंतु, राजस्थान, महाराष्ट्र, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार के किसान इसे हरी खाद के अतिरिक्त इसे व्यावसायिक फसल के रूप में उगाते हैं।

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सनई की खेती के लिए उपयुक्त मृदा

सनई की खेती के लिए नमी वाली रेतीली मिट्टी अथवा चिकनी मिट्टी को सबसे उपयुक्त मानते हैं। इसकी खेती के लिये खेत में गहरी जुताई निरंतर मिट्टी को भुरभुरा बनाती हैं। उसके बाद पाटा लगाकर खेतों को ढंक दिया जाता है। खरीफ सीजन की फसलों से पूर्व सनई की बिजाई की जाती है। साथ ही, अप्रैल से जुलाई तक बीजों को खेत में छिड़क दिया जाता है। वर्षा आधारित फसल होने की वजह से सनई की खेती में ज्यादा सिंचाई नहीं करनी होती। सिर्फ फूल बनने के दौरान खेत में नमी रखना आवश्यक होता है।

सनई की कटाई

बीज उत्पादन के लिये सनई की खेती करने पर 150 दिन मतलब कि 5 महीने के पश्चात कटाई की जाती है। साथ ही, हरी खाद के उद्देश्य से सनई की खेती करने पर 45 से 60 दिनों के अंदर इसकी कटाई की जाती है। बतादें, कि पूरी फसल को हरी खाद बनाने के लिये खेत में फैला देते हैं।

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इन फूलों का होता है औषधियां बनाने में इस्तेमाल, किसान ऐसे कर सकते हैं मोटी कमाई

सनई से आमदनी

भारत के अधिकांश हिस्सों में इसकी खेती केवल हरी खाद (Sanai Green Manure), पीले फूलों (Sanai Yellow Flower) अथवा जूट (Sanai Jute) के उद्देश्य से की जाती है। परंतु, जैविक खेती (Organic Farming) के दौर में हरी खाद की बढ़ती डिमांड (Green Manure) के मध्य इसकी व्यावसायिक खेती (Commercial Farming of Sanai) फायदे का सौदा साबित हो सकती है। बाजार में सनई के फूल भी 200 रुपये प्रति किलो के भाव पर बेचे जाते हैं। इस तरह मृदा हेतु आवश्यक खनिज और पोषक तत्वों से भरपूर सनई की खेती करके 10 प्रतिशत लागत में 100 प्रतिशत मुनाफा कमा सकते हैं।
छत्तीसगढ़ सरकार गोबर के व्यवसाय को बढ़ाने के लिए प्रोत्साहन दे रही है

छत्तीसगढ़ सरकार गोबर के व्यवसाय को बढ़ाने के लिए प्रोत्साहन दे रही है

आज के दौर में गोबर का व्यवसाय किसानों व आम जनता के लिए काफी ज्यादा किफायती सिद्ध हो रहा है। इस कारोबार से कृषक प्रति माह बेहतरीन आमदनी कर रहे हैं। आज के आधुनिक दौर में लोग नौकरी सहित अपना स्वयं का एक छोटा-सा व्यवसाय कर रहे हैं। जिससे कि वह अपनी आमदनी को अधिक कर सकें। इसके लिए वह विभिन्न प्रकार के कार्यों को करते हैं। सिर्फ इतना ही नहीं व्यवसाय के लिए सरकार की ओर से भी पूरी मदद प्राप्त होती है। यदि आप भी व्यवसाय करने के विषय में सोच रहे हैं, तो आपको एक बार इस लेख को अवश्य पढ़ना चाहिए।

सरकार पशुपालक व किसानों से 10 रुपए प्रति किलो गोबर खरीदती है

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि छत्तीसगढ़ के बहुत सारे लोग गोबर का सही ढ़ंग से उपयोग कर रहे हैं। साथ ही, इससे वह प्रति माह हजारों की आमदनी करते हैं। दरअसल, यहा के अधिकांश किसान भाई
प्राकृतिक खेती (Natural farming) करते हैं। साथ ही, सरकार के द्वारा भी इस खेती को ज्यादा करने पर सबसे ज्यादा जोर दिया जाता है। इसके लिए सरकार ने न्याय योजना की शुरुआत की है। इसमें ग्रामीण लोगों से 2 रुपए प्रति किग्रा की दर से गोबर की खरीद की जाती है। परंतु, वहीं यदि हम छत्तीसगढ़ राज्य की गोबर अर्थव्यवस्था की बात करें, तो सरकार की इस योजना के अंतर्गत किसानों और पशुपालकों से गोबर 10 रुपए प्रति किलोग्राम के हिसाब से खरीदा जाता है। इनसे खरीदा गया गोबर विभिन्न प्रकार के कार्यों में उपयोग किया जाता हैं।

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गोबर का पेंट आजकल काफी चलन में आता जा रहा है

छत्तीसगढ़ में इस वक्त गोबर से पेंट निर्मित करने का व्यवसाय बहुत ही तीव्रता से फैल रहा है। अधिकांश लोग इसे अपना रहे हैं। बतादें, कि सरकार के द्वारा खरीदे गए गोबर से भी पेंट निर्मित करने का कार्य किया जाता है। यदि देखा जाए तो बाजार में इस पेंट की मांग भी काफी ज्यादा हो रही है।

गोबर से पेंट बनाने की योजना को सरकार ने दिया बढ़ावा

छत्तीसगढ़ सरकार राज्य में पर्यावरण को सुरक्षित रखने के लिए एक पहल शुरू की है। दरअसल, राज्य में पशुधन के संरक्षण एवं संवर्धन के लिए स्थापित गौठान में गोबर से पेंट निर्मित करने की योजना को तीव्रता के साथ आगे बढ़ाने पर सरकार आगे बढ़ रही है। बतादें, कि यह पेंट पूर्णतय प्राकृतिक है। इससे किसी भी प्रकार की कोई हानि नहीं देखने को मिलती है।

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किसान गोबर से बने इन उत्पादों का व्यवसाय करके कुछ ही समय में अमीर बन सकते हैं प्राप्त जानकारी के अनुसार, गोबर का पेंट बाजार में मिलने वाले पेंट की तुलना में काफी सस्ता और फायदेमंद है। इस पेंट को अपने घर पर करने से आपका घर गर्मी के मौसम में ठंडा बना रहेगा। साथ ही, यह अच्छी सुगंध भी प्रदान करेगा। इसके अतिरिक्त इस पेंट से आपके घर में कीड़े-मकोडे भी शीघ्रता से नहीं आते हैं। राज्य में अब तक 2 लाख 66 हजार 155 लीटर से भी ज्यादा प्राकृतिक पेंट का उत्पादन किया गया है। इस राज्य के ग्रामीण किसान और आम जनता इस गोबर का कारोबार करते हैं। उन्हें 4.15 करोड़ रुपये की आमदनी भी अर्जित हो चुकी है।

गोबर की बिक्री से कमाऐं हजारों-लाखों

यदि आप चाहें तो स्वयं भी गोबर के कारोबार को चालू कर प्रति माह लाखों की आमदनी अर्जित कर सकते हैं। इसके लिए आपको गोबर से निर्मित अपने समस्त उत्पादों जैसे कि गोबर की खाद, गोबर का पेंट आदि को या तो सरकार को बेचना होगा या फिर बाजार में भी आप इसे बेच सकते हैं, जिसकी आपको काफी अच्छी कीमत भी आसानी से मिल जाएगी।
ज्यादा पैदावार के लिए नहीं पड़ेगी यूरिया की जरूरत, बस इस चीज के लिए करना होगा आवेदन

ज्यादा पैदावार के लिए नहीं पड़ेगी यूरिया की जरूरत, बस इस चीज के लिए करना होगा आवेदन

खेती में किसी तरह के केमिकल का इस्तेमाल ना किया जाए, इसके लिए पूरे देश भर में जोर दिया जा रहा है. हालांकि केमिकल मुक्त खेती को बढ़ावा देने में सरकार भी पीछे नहीं हट रही है. जहां अब किसानों को खेती के लिए अब यूरिया की जरूरत नहीं पड़ेगी. क्योंकि उन्हें सरकार की तरफ से यूरिया से डबल शक्तिशाली हरी खाद ढेंचा की खेती के लिए लगभग 80 फीसद तक सब्सिडी, यानि की आसान शब्दों में समझा जाए तो 720 रुपये प्रति एकड़ के किसाब से अनुदान दिया जा रहा है. आजकल मिट्टी अपनी उपजाऊ क्षमता को खोटी जा रही है, वजह उर्वरकों का अंधाधुन इस्तेमाल करना है. जिसके बाद मिट्टी की खोई हुई उपजाऊ क्षमता को वापस लौटाने के लिए जैविक और नेचुरल खेती की तरफ रुख करने को बढ़ावा दिया जा रहा है. ताकि जमीन को रसायनों से होने वाले गंभीर और खतरनाक नुकसान से बचाया जा सके. इसके अलावा लोगों  को स्वस्थ्य कृषि उत्पाद भी उपलब्ध करवाए जा रहे हैं. जैविक और रासायनिक खेती को बढ़ावा देने के लिए राज्य सरकारें भी अब आगे आ चुकी हैं. और अपने अपने स्तर से किसानों की हर संभव मदद कर रही हैं.

हरियाणा के किसानों के लिए चलाई खास योजना

हरियाणा सरकार राज्य में किसानों को नेचुरल खेती करने के लिए बढ़ावा दे रही है. जिसके लिये कई योजनाओं की भी शुरुआत की गयी है. जिसमें से एक है, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन एंव फसल विविधिकरण योजना. इस योजना के तहत खरी खाद की की खेती के लिए किसानों को 80 फीसद तक सब्सिडी यानि की 720 रुपये प्रति एकड़ के हिसाब से अनुदान दिया जा रहा है. 

हरी खाद की खेती है बेस्ट इको फ्रेंडली ऑप्शन

एक्सपर्ट्स के मुताबिक अगर किसान हरी खास सनई ढेंचा को चुनते हैं, तो उन्हें यूरिया की कोई जरूरत नहीं पड़ेगी. हरी खाद की कई खासियत हैं, जिनमें एक ये है कि यह बेहद शक्तिशाली खाद है, और यह बेस्ट इको फ्रेंडली ऑप्शन है. खेतों में यूरिया का ज्यादा इस्तेमाल मिट्टी की सेहत बुरी तरह से बिगाड़ सकती है, वहीं हरी खाद से खेत को कोई नुकसान नहीं पहुंचेगा. बताया जा रहा है कि हरी खास वातावरण में नाइट्रोजन के स्थिरीकरण में सहायक है, और मिट्टी में जिवांशों की संख्या भी बढ़ाती है. इससे भूजल का लेवल भी काफी अच्छा होता है. जिस वजह से सरकार इसकी खेती पर भारी भरकम सब्सिडी दे रही है. 

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हरियाणा सरकार 10 एकड़ पर दे रही अनुदान

हरियाणा सरकार ने नोटिफिकेशन जारी कर दिया है. जिसके अनुसार राज्य के किसानों को हरी खाद की खेती के लिए प्रति एकड़ 720 रुपये का अनुदान देगी. इसके अलावा किसान भाई अपने 10 एकड़ तक की यानी की 72 सौ रुपये तक अनुदान ले सकते हैं. इतना ही नहीं हरियाणा सरकार ने खेती में लगने वाले लागत को कम करते हुए 80 फीसद खर्च कुछ उठाने का फैसला किया है. यानि की किसानों को सिर्फ 20 फीसद सब्सिडी पर ढेंचा के बीच क्रिदने होंगे.

हरी खाद उगाना क्यों है जरूरी?

एक्सपर्ट्स की मानें तो, ढेंचा और सनई जैसी हरी खाद मिट्टी के लिए काफी अच्छी होती है. क्योंकि यह खुद ब खुद गलकर अपने आप खाद बन जाती है. गर्मियों के मौसम और तपती धूप में हरी खाद खूब पनपती है. किसान इसकी कटाई के बाद उसी खेत में अन्य फसलों की खेती बड़े ही आराम से कर सकते हैं. हरी खाद का काम मिट्टी में उत्पादन की क्षमता को बढ़ाना है. 

इस तरह करें आवेदन, मिलेगा योजना का लाभ

  • हरियाणा के किसान ढेंचा के बीजों को अनुदान पर पा सकते हैं.
  • आपको आवेदन करने के लिए मेरी फसल मेरा ब्यौरा पोर्टल या फिर इसकी आधिकारिक वेबसाइट agruharayana.gov.in पर विजिट करना होगा.
  • इस वेबसाइट पर 4 अप्रैल 2023 ऑनलाइन आवेदन करने की सुविधा आपको मिल जाएगी.
  • ऑनलाइन आवेदन देने के बाद रजिस्ट्रेशन स्लिप, आदार कार्ड, वोटर आईडी कार्ड, किसान क्रेडिट कार्ड जैसे जरूरी दस्तावेजों की कॉपी हरियाणा बीज विकास निगम के बिक्री केंद्र पर जमा करना होगा.
  • यहां पर किसान भाई 20 फीसद राशि का भुगतान करने के बाद अनुदान पर हरी खाद का बीज ले सकते हैं.