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जायद में मूंग की इन किस्मों का उत्पादन कर किसान कमा सकते है अच्छा मुनाफा

जायद में मूंग की इन किस्मों का उत्पादन कर किसान कमा सकते है अच्छा मुनाफा

मूंग की खेती अन्य दलहनी फसलों की तुलना में काफी सरल है। मूंग की खेती में कम खाद और उर्वरकों के उपयोग से अच्छा मुनाफा कमाया जा सकता है। मूंग की खेती में बहुत कम लागत आती है, किसान मूंग की उन्नत किस्मों का उत्पादन कर ज्यादा मुनाफा कमा सकते है। इस दाल में बहुत से पोषक तत्व होते है जो स्वास्थ के लिए बेहद लाभकारी होते है। 

मूंग की फसल की कीमत बाजार में अच्छी खासी है, जिससे की किसानों को अच्छा मुनाफा होगा। इस लेख में हम आपको मूंग की कुछ ऐसी उन्नत किस्मों के बारे में जानकारी देंगे जिनकी खेती करके आप अच्छा मुनाफा कमा सकते है। 

मूंग की अधिक उपज देने वाली उन्नत किस्में 

पूसा विशाल किस्म 

मूंग की यह किस्म बसंत ऋतू में 60 -75 दिन में और गर्मियों के माह में यह फसल 60 -65 दिन में पककर तैयार हो जाती है। मूंग की यह किस्म IARI द्वारा विकसित की गई है। यह मूंग पीला मोजक वायरस के प्रति प्रतिरोध है। यह मूंग गहरे रंग की होती है, जो की चमकदार भी होती है। यह मूंग ज्यादातर हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान और पंजाब में ज्यादा मात्रा में उत्पादित की जाती है। पकने के बाद यह मूंग प्रति हेक्टेयर में 12 -13 क्विंटल बैठती है। 

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पूसा रत्न किस्म 

पूसा रत्न किस्म की मूंग 65 -70 दिन में पककर तैयार हो जाती है। मूंग की यह किस्म IARI द्वारा विकसित की गई है। पूसा रत्न मूंग की खेती में लगने वाले पीले मोजक के प्रति सहनशील होती है। मूंग की इस किस्म पंजाब और अन्य दिल्ली एनसीआर में आने वाले क्षेत्रो में सुगम और सरल तरीके से उगाई जा सकती है। 

पूसा 9531 

मूंग की यह किस्म मैदानी और पहाड़ी दोनों क्षेत्रों में उगाई जा सकती है। इस किस्म के पौधे लगभग 60 -65 दिन के अंदर कटाई के लिए तैयार हो जाते है। इसकी फलिया पकने के बाद हल्के भूरे रंग की दिखाई पड़ती है। साथ ही इस किस्म में पीली चित्ती वाला रोग भी बहुत कम देखने को मिलता है। यह किस्म प्रति हेक्टेयर में 12 -15 प्रति क्विंटल होती है। 

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मूंग की यह किस्म बनारस हिन्दू विश्वविधालय द्वारा तैयार की गई है, इस किस्म के पौधे पर बहुत ही कम मात्रा में फलिया पाई जाती है। मूंग की यह किस्म लगभग 65 -70 दिन के अंदर पक कर तैयार हो जाती है। साथ ही मूंग की फसल में लगने वाले पीले मोजक रोग का भी इस पर कम प्रभाव पड़ता है। 

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मूंग की यह किस्म जायद के मौसम में अच्छे से उगाई जा सकती है। इस किस्म की खेती खरीफ के मौसम में भी अच्छे से की जा सकती है। यह किस्म लगभग 70 -75 दिन के अंदर पककर तैयार हो जाती है। साथ ही यह किस्म प्रति हेक्टेयर में 8 -10 क्विंटल होती है। 

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सोना 12 /333 

मूंग की इस किस्म को जायद के मौसम के लिए तैयार किया गया है। इस किस्म के पौधे बुवाई के दो महीने बाद पककर तैयार हो जाते है। यह किस्म प्रति हेक्टेयर में 10 क्विंटल के आस पास हो जाती है। 

पन्त मूँग -1 

मूंग की इस किस्म को जायद और खरीफ दोनों मौसमों में उगाया जा सकता है। मूंग की इस किस्म पर बहुत ही कम मात्रा में जीवाणु जनित रोगों का प्रभाव देखने को मिलता है। यह किस्म लगभग 70 -75 दिन के अंदर पककर तैयार हो जाती है। पन्त मूंग -1 का औसतन उत्पादन 10 -12 क्विंटल देखने को मिलता है। 

भारत सरकार ने केंद्रीय बीज समिति के परामर्श के बाद गन्ने की 10 नई किस्में जारी की हैं

भारत सरकार ने केंद्रीय बीज समिति के परामर्श के बाद गन्ने की 10 नई किस्में जारी की हैं

गन्ना किसानों के लिए 10 उन्नत किस्में बाजार में उपलब्ध की गई हैं। बतादें, कि गन्ने की इन उन्नत किस्मों की खेती आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, गुजरात, महाराष्ट्र, यूपी, हरियाणा, मध्य प्रदेश और पंजाब के किसान बड़ी सुगमता से कर सकते हैं। चलिए आज हम आपको इस लेख में गन्ने की इन 10 उन्नत किस्मों के संबंध में विस्तार से जानकारी प्रदान करेंगे। भारत में गन्ना एक नकदी फसल है। गन्ने की खेती किसान वाणिज्यिक उद्देश्य से भी किया करते हैं। बतादें, कि किसान इससे चीनी, गुड़, शराब एवं इथेनॉल जैसे उत्पाद भी तैयार किए जाते हैं। साथ ही, गन्ने की फसल से तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, हरियाणा, उत्तर-प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र और गुजरात जैसे राज्यों के किसानों को बेहतरीन कमाई भी होती है। किसानों द्वारा गन्ने की बुवाई अक्टूबर से नवंबर माह के आखिर तक और बसंत कालीन गन्ने की बुवाई फरवरी से मार्च माह में की जाती है। इसके अतिरिक्त, वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गन्ना फसल को एक सुरक्षित फसल माना गया है। इसकी वजह यह है, कि गन्ने की फसल पर जलवायु परिवर्तन का कोई विशेष असर नहीं पड़ता है।

भारत सरकार ने जारी की गन्ने की 10 नवीन उन्नत किस्में

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार ने केंद्रीय बीज समिति के परामर्श के पश्चात गन्ने की 10 नवीन किस्में जारी की हैं। इन किस्मों को जारी करने का प्रमुख लक्ष्य गन्ने की खेती करने के लिए गन्ने की उन्नत किस्मों को प्रोत्साहन देना है। इसके साथ ही गन्ना किसान ज्यादा उत्पादन के साथ बंपर आमदनी अर्जित कर सकें।

जानिए गन्ने की 10 उन्नत किस्मों के बारे में

गन्ने की ये समस्त उन्नत किस्में ओपन पोलिनेटेड मतलब कि देसी किस्में हैं। इन किस्मों के बीजों की उपलब्धता या पैदावार इन्हीं के जरिए से हो जाती है। इसके लिए सबसे बेहतर पौधे का चुनाव करके इन बीजों का उत्पादन किया जाता है। इसके अतिरिक्त इन किस्मों के बीजों का एक फायदा यह भी है, कि इन सभी किस्मों का स्वाद इनके हाइब्रिड किस्मों से काफी अच्छा होता है। आइए अब जानते हैं गन्ने की इन 10 उन्नत किस्मों के बारे में।

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इक्षु -15 (सीओएलके 16466)

इक्षु -15 (सीओएलके 16466) किस्म से बेहतरीन उत्पादन हांसिल होगा। यह किस्म उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और असम राज्य के लिए अनुमोदित की गई है।

राजेंद्र गन्ना-5 (सीओपी 11438)

गन्ने की यह किस्म उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और असम के लिए अनुमोदित की गई है।

गन्ना कंपनी 18009

यह किस्म केवल तमिलनाडु राज्य के लिए अनुमोदित की गई है।

सीओए 17321

गन्ना की यह उन्नत किस्म आंध्र प्रदेश राज्य के लिए अनुमोदित की गई है।

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सीओ 11015 (अतुल्य)

यह किस्म बाकी किस्मों की तुलना में ज्यादा उत्पादन देती है। क्योंकि इसमें कल्लों की संख्या ज्यादा निकलती है। गन्ने की यह उन्नत किस्म आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, गुजरात, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश की जलवायु के अनुकूल है।

सीओ 14005 (अरुणिमा)

गन्ने की उन्नत किस्म Co 14005 (Arunima) की खेती तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, गुजरात, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में बड़ी सहजता से की जा सकती है।

फुले गन्ना 13007 (एमएस 14082)

गन्ने की उन्नत किस्म Phule Sugarcane 13007 (MS 14082) की खेती तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, गुजरात और कर्नाटक में बड़ी सहजता से की जा सकती है।

इक्षु -10 (सीओएलके 14201)

गन्ने की Ikshu-10 (CoLK 14201) किस्म को आईसीएआर के द्वारा विकसित किया गया है। बतादें, कि किस्म के अंदर भी लाल सड़न रोग प्रतिरोध की क्षमता है। यह किस्म राजस्थान, उत्तर प्रदेश (पश्चिमी और मध्य), उत्तराखंड (उत्तर पश्चिम क्षेत्र), पंजाब, हरियाणा की जलवायु के अनुरूप है।

इक्षु -14 (सीओएलके 15206) (एलजी 07584)

गन्ने की Ikshu-14 (CoLK 15206) (LG 07584) किस्म की खेती पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश (पश्चिमी और मध्य) और उत्तराखंड (उत्तर पश्चिम क्षेत्र) के किसान खेती कर सकते हैं।

सीओ 16030 (करन 16)

गन्ने की किस्म Co-16030, जिसको Karan-16 के नाम से भी जाना जाता है। इस किस्म को गन्ना प्रजनन संस्थान, करनाल के वैज्ञानिकों की ओर से विकसित किया गया है। यह किस्म उच्च उत्पादन और लाल सड़न रोग प्रतिरोध का एक बेहतरीन संयोजन है। इस किस्म का उत्पादन उत्तराखंड, मध्य और पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब और राजस्थान में बड़ी आसानी से किया जा सकता है।
ज्वार की खेती में बीजोपचार और इसमें लगने वाले कीट व रोगों की रोकथाम से जुड़ी जानकारी

ज्वार की खेती में बीजोपचार और इसमें लगने वाले कीट व रोगों की रोकथाम से जुड़ी जानकारी

रबी की फसलों की कटाई प्रबंधन का कार्य कर किसान भाई अब गर्मियों में अपने पशुओं के चारे के लिए ज्वार की बुवाई की तैयारी में हैं। 

अब ऐसे में आपकी जानकारी के लिए बतादें कि बेहतर फसल उत्पादन के लिए सही बीज मात्रा के साथ सही दूरी पर बुआई करना बहुत जरूरी होता है। 

बीज की मात्रा उसके आकार, अंकुरण प्रतिशत, बुवाई का तरीका और समय, बुआई के समय जमीन पर मौजूद नमी की मात्रा पर निर्भर करती है। 

बतादें, कि एक हेक्टेयर भूमि पर ज्वार की बुवाई के लिए 12 से 15 किलोग्राम बीज की आवश्यकता पड़ती है। लेकिन, हरे चारे के रूप में बुवाई के लिए 20 से 30 किलोग्राम बीजों की आवश्यकता पड़ती है। 

ज्वार के बीजों की बुवाई से पूर्व बीजों को उपचारित करके बोना चाहिए। बीजोपचार के लिए कार्बण्डाजिम (बॉविस्टीन) 2 ग्राम और एप्रोन 35 एस डी 6 ग्राम कवकनाशक दवाई प्रति किलो ग्राम बीज की दर से बीजोपचार करने से फसल पर लगने वाले रोगों को काफी हद तक कम किया जा सकता है। 

इसके अलावा बीज को जैविक खाद एजोस्पाइरीलम व पी एस बी से भी उपचारित करने से 15 से 20 फीसद अधिक उपज प्राप्त की जा सकती है।

इस प्रकार ज्वार के बीजों की बुवाई करने से मिलेगी अच्छी उपज ?

ज्वार के बीजों की बुवाई ड्रिल और छिड़काव दोनों तरीकों से की जाती है। बुआई के लिए कतार के कतार का फासला 45 सेंटीमीटर रखें और बीज को 4 से 5 सेंटीमीटर तक गहरा बोयें। 

अगर बीज ज्यादा गहराई पर बोया गया हो, तो बीज का जमाव सही तरीके से नहीं होता है। क्योंकि, जमीन की उपरी परत सूखने पर काफी सख्त हो जाती है। कतार में बुआई देशी हल के पीछे कुडो में या सीडड्रिल के जरिए की जा सकती है।

सीडड्रिल (Seed drill) के माध्यम से बुवाई करना सबसे अच्छा रहता है, क्योंकि इससे बीज समान दूरी पर एवं समान गहराई पर पड़ता है। ज्वार का बीज बुआई के 5 से 6 दिन उपरांत अंकुरित हो जाता है। 

छिड़काव विधि से रोपाई के समय पहले से एकसार तैयार खेत में इसके बीजों को छिड़क कर रोटावेटर की मदद से खेत की हल्की जुताई कर लें। जुताई हलों के पीछे हल्का पाटा लगाकर करें। इससे ज्वार के बीज मृदा में अन्दर ही दब जाते हैं। जिससे बीजों का अंकुरण भी काफी अच्छे से होता है।  

ज्वार की फसल में खरपतवार नियंत्रण कैसे करें ?

यदि ज्वार की खेती हरे चारे के तोर पर की गई है, तो इसके पौधों को खरपतवार नियंत्रण की आवश्यकता नहीं पड़ती। हालाँकि, अच्छी उपज पाने के लिए इसके पौधों में खरपतवार नियंत्रण करना चाहिए। 

ज्वार की खेती में खरपतवार नियंत्रण प्राकृतिक और रासायनिक दोनों ही ढ़ंग से किया जाता है। रासायनिक तरीके से खरपतवार नियंत्रण के लिए इसके बीजों की रोपाई के तुरंत बाद एट्राजिन की उचित मात्रा का स्प्रे कर देना चाहिए। 

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वहीं, प्राकृतिक ढ़ंग से खरपतवार नियंत्रण के लिए इसके बीजों की रोपाई के 20 से 25 दिन पश्चात एक बार पौधों की गुड़ाई कर देनी चाहिए। 

ज्वार की कटाई कब की जाती है ?

ज्वार की फसल बुवाई के पश्चात 90 से 120 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। कटाई के उपरांत फसल से इसके पके हुए भुट्टे को काटकर दाने के लिए अलग निकाल लिया जाता है। ज्वार की खेती से औसत उत्पादन आठ से 10 क्विंटल प्रति एकड़ हो जाता है। 

ज्वार की उन्नत किस्में और वैज्ञानिक विधि से उन्नत खेती से अच्छी फसल में 15 से 20 क्विंटल प्रति एकड़ दाने की उपज हो सकती है। बतादें, कि दाना निकाल लेने के उपरांत करीब 100 से 150 क्विंटल प्रति एकड़ सूखा पौैष्टिक चारा भी उत्पादित होता है। 

ज्वार के दानों का बाजार भाव ढाई हजार रूपए प्रति क्विंटल तक होता है। इससे किसान भाई को ज्वार की फसल से 60 हजार रूपये तक की आमदनी प्रति एकड़ खेत से हो सकती है। साथ ही, पशुओं के लिए चारे की बेहतरीन व्यवस्था भी हो जाती है। 

ज्वार की फसल को प्रभावित करने वाले प्रमुख रोग और कीट व रोकथाम 

ज्वार की फसल में कई तरह के कीट और रोग होने की संभावना रहती है। समय रहते अगर ध्यान नहीं दिया गया तो इनके प्रकोप से फसलों की पैदावार औसत से कम हो सकती है। ज्वार की फसल में होने वाले प्रमुख रोग निम्नलिखित हैं।

तना छेदक मक्खी : इन मक्खियों का आकार घरेलू मक्खियों की अपेक्षा में काफी बड़ा होता है। यह पत्तियों के नीचे अंडा देती हैं। इन अंडों में से निकलने वाली इल्लियां तनों में छेद करके उसे अंदर से खाकर खोखला बना देती हैं। 

इससे पौधे सूखने लगते हैं। इससे बचने के लिए बुवाई से पूर्व प्रति एकड़ भूमि में 4 से 6 किलोग्राम फोरेट 10% प्रतिशत कीट नाशक का उपयोग करें।

ज्वार का भूरा फफूंद : इसे ग्रे मोल्ड भी कहा जाता है। यह रोग ज्वार की संकर किस्मों और शीघ्र पकने वाली किस्मों में ज्यादा पाया जाता है। इस रोग के प्रारम्भ में बालियों पर सफेद रंग की फफूंद नजर आने लगती है। इससे बचाव के लिए प्रति एकड़ भूमि में 800 ग्राम मैन्कोजेब का छिड़काव करें।

सूत्रकृमि : इससे ग्रसित पौधों की पत्तियां पीली पड़ने लगती हैं। इसके साथ ही जड़ में गांठें बनने लगती हैं और पौधों का विकास बाधित हो जाता है। 

रोग बढ़ने पर पौधे सूखने लगते हैं। इस रोग से बचाव के लिए गर्मी के मौसम में गहरी जुताई करें। प्रति किलोग्राम बीज को 120 ग्राम कार्बोसल्फान 25% प्रतिशत से उपचारित करें।

ज्वार का माइट : यह पत्तियों की निचली सतह पर जाल बनाते हैं और पत्तियों का रस चूस कर पौधों को नुकसान पहुंचाते हैं। इससे ग्रसित पत्तियां लाल रंग की हो कर सूखने लगती हैं। इससे बचने के लिए प्रति एकड़ जमीन में 400 मिलीग्राम डाइमेथोएट 30 ई.सी. का स्प्रे करें।

लोबिया की इन पांच किस्मों से किसानों को मिलेगा बेहतरीन मुनाफा

लोबिया की इन पांच किस्मों से किसानों को मिलेगा बेहतरीन मुनाफा

लोबिया की उन्नत किस्मों को खेत में उगाने से किसान 50 दिनों के अंतर्गत तकरीबन 100 से 125 क्विंटल तक शानदार उत्पादन हांसिल कर सकते हैं। बाजार में ऐसी विभिन्न तरह की लोबिया की किस्में उपलब्ध हैं। 

परंतु, बेहतरीन उत्पादन अर्जित करने के लिए पंत लोबिया, लोबिया 263, अर्का गरिमा, पूसा बारसाती एवं पूसा ऋतुराज किस्मों का चुनाव करें। 

किसान भाई लोबिया की फसल से शानदार मुनाफा उठाने के लिए किसान को अपने खेत में शानदार और उम्दा किस्मों को लगाना चाहिए। 

लोबिया एक दलहनी फसल की श्रेणी के अंतर्गत आने वाली फसल है, जिसकी खेती भारत के छोटे और सीमांत किसानों के द्वारा सबसे ज्यादा की जाती है। क्योंकि यह फसल कम भूमि में भी अच्छी उत्पादन देती है। 

लोबिया की खेती खरीफ एवं जायद दोनों ही सीजन में की जाती है। परंतु, इसकी उन्नत किस्मों से किसान हर एक सीजन में लोबिया की बढ़िया पैदावार अर्जित कर सकते हैं। 

इसी क्रम में आज हम आपके लिए लोबिया की पांच उन्नत किस्मों की जानकारी लेकर आए हैं, जिसे लगाने के पश्चात आप प्रति एकड़ 100 से 125 क्विंटल उपज हांसिल कर सकते हैं। साथ ही यह किस्में 50 दिनों के सामान्यतः पककर पूरी तरह से तैयार हो जाती है।

लोबिया की पांच शानदार उन्नत किस्में

पंत लोबिया किस्म

लोबिया की इस प्रजाति के पौधे तकरीबन डेढ़ फीट तक ऊंचे होते हैं। पंत लोबिया को खेत में बोने के 60 से 65 दिन पककर तैयार होने में लग जाते हैं। लोबिया की यह किस्म प्रति हेक्टेयर 15 से 20 क्विंटल तक उपज प्रदान करती है।

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लोबिया 263 किस्म

लोबिया की यह किस्म अगेती फसल है, जो खेत में 40 से 45 दिनों के समयांतराल में पक जाती है। लोबिया 263 किस्म से किसान प्रति हेक्टेयर लगभग 125 क्विटंल तक उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं।

अर्का गरिमा किस्म

लोबिया की अर्का गरिमा किस्म बारिश व बसंत ऋतु के दौरान शानदार उत्पादन देती है। अर्का गरिमा किस्म 40-45 दिनों के समयांतराल में पक जाती है। बतादें, कि प्रति हेक्टेयर तकरीबन 80 क्विंटल तक पैदावार देती है।

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पूसा बरसाती किस्म

लोबिया की इस किस्म के नाम से ही ज्ञात हो जाता है, कि किसान इसे अपने खेत में बारिश के समय लगाएं, तो उन्हें बेहतरीन पैदावार मिलेगी। लोबिया की पूसा बरसाती किस्म की फलियां हल्के हरे रंग की होती है। 

यह किस्म लगभग-लगभग 26 से 28 सेमी लंबी होती है। साथ ही, यह खेत में 45-50 दिन के भीतर पक जाती है। यह किस्म प्रति हेक्टेयर 85-100 क्विंटल तक उत्पादन देती है।

पूसा ऋतुराज किस्म

इस किस्म की लोबिया खाने में बेहद ही ज्यादा अच्छी मानी जाती है। इसकी किस्म की फलियां हरे रंग की होती हैं। साथ ही, यह प्रति हेक्टेयर लगभग 75 से 80 क्विंटल तक उपज प्राप्त होती है।

सोयाबीन की खेती कैसे होती है

सोयाबीन की खेती कैसे होती है

सोयाबीन की खेती

सोयाबीन विश्व की प्रमुख तिलहनी फसल है। यह विश्व खाद्य तेल उत्पादन में करीब 30 फ़ीसदी का योगदान देती है। इसमें 20% तेल 40% प्रोटीन होता है। सोयाबीन का स्थान भारत की मुख्य फसलों में से एक है। 

विश्व में क्षेत्रफल एवं उत्पादन की दृष्टि से भारत उसमें प्रमुख स्थान रखता है।भारत में सोयाबीन की औसत उत्पादकता 11 से 12 कुंतल प्रति हेक्टेयर है। भारत में सोयाबीन खरीफ में उगाई जाने वाली एक प्रमुख  फसल है। 

हमारे देश में सोयाबीन उत्पादन प्रमुख रूप से मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक में होती है। सोयाबीन के कुल क्षेत्र एवं उत्पादन में मध्यप्रदेश एवं महाराष्ट्र का विशेष योगदान है। 

देश में सोयाबीन उत्पादन में प्रथम स्थान पर है। सोयाबीन से तेल प्राप्त होने के अलावा दूध दही पनीर आदि खाद्य पदार्थ भी तैयार किए जाते हैं।

मिट्टी

सोयाबीन की अच्छी पैदावार के लिए समतल एवं जल निकासी वाली दोमट भूमि अच्छी रहती है।इसकी खेती क्षारीय तथा अम्लीय भूमियां छोड़कर हर तरह की जमीन में की जा सकती है। 

काली मिट्टी में भी सोयाबीन की खेती अच्छी होती है। वैज्ञानिक भाषा में जिस मिट्टी का पीएच मान 6:30 से 7:30 के बीच हो वह इसकी खेती के लिए अच्छी होती है।

बीज

खरीफ में लगाई जानी फसल के लिए 70 से 75 किलोग्राम बीज पर्याप्त होता है जबकि ग्रीष्म एवं वसंत ऋतु के लिए 100 से 125  किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज चाहिए।

अच्छी पैदावार के लिए प्रमाणित या आधारित बीज लेना चाहिए और बुवाई से पूर्व थीरम या कार्जाबन्कडाजिम नामक दवा से ढाई ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीज उपचार करना चाहिए। 

इसके अलावा सोयाबीन में नाइट्रोजन स्थिरीकरण बाजार ग्रंथियों के शीघ्र विकास के लिए 20 को राइजोबियम कल्चर से उपचारित करना चाहिए । 

पौधों के अच्छे विकास के लिए बीज को पीएसबी कल्चर से भी उपचारित करना चाहिए। इससे जमीन में मौजूद तत्वों को व्यक्ति दिया पौधे की जड़ों तक पहुंचाने में सुगमता लाता है। 

उक्त कल्चरों से बीज को उपचारित करने के लिए एक बर्तन में पानी लेकर 100 ग्राम गुड़ या शक्कर घोलकर उसमें इन कल्चर को मिलाया जाता है और उनका लेप बीज पर कर दिया जाता है।

बुवाई का समय

अच्छे उत्पादन के लिए बुवाई के समय का प्रमुख स्थान होता है। खरीफ सीजन में 25 जून से 15 जुलाई के मध्य का समय इसकी खेती के लिए उपयुक्त माना गया है। 

कम समय में पकने वाली किस्मों का चयन करें ताकि मौसमी दुष्प्रभाव से नुकसान को बचाया जा सके। मध्य भारत के कुछ क्षेत्रों व दक्षिण भारत में सोयाबीन बसंत यानी कि जायद ऋतु में बोई जाती है । 

उसकी बुबाई का उपयुक्त समय 15 फरवरी से 15 मार्च के बीच रहता है। इसकी बिजाई में पंक्ति से पंक्ति की दूरी  45 सेंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 3 से 5 सेंटीमीटर रखनी चाहिए। इसके अलावा 20 30 से 4 सेंटीमीटर से ज्यादा गहरा नहीं डालना चाहिए।

उर्वरक प्रबंधन

अच्छे उत्पादन के लिए 10 टन सड़ी हुई गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर डालनी चाहिए।इसके अलावा नाइट्रोजन 25 किलोग्राम, फास्फोरस 80, किलोग्राम एवं पोटाश 50 किलोग्राम की दर से डालाना चाहिए। 

इसके अतिरिक्त 25 किलोग्राम सल्फर का प्रयोग करने से कई तरह की बीमारियां नहीं आती हैं। फास्फोरस की पूर्ति के लिए यदि डीएपी डाला जा रहा है तो सल्फर अलग से नहीं देनी चाहिए।

जल प्रबंधन

चुकी सोयाबीन की खेती बरसात के सीजन में की जाती है इसलिए पानी की ज्यादा जरूरत नहीं होती लेकिन यदि बरसात कम हो तो क्रांतिक अवस्थाओं, शाखाओं के विकास के समय फूल बनते समय एवं फलियां बनते समय और दाने के विकसित होते समय पानी लगाना चाहिए। वसंत ऋतु में 12 से 15 दिन के अंतराल पर 45 से चाहिए करनी होती हैं।

खरपतवार नियंत्रण

सोयाबीन की खरीफ ऋतु की फसल में खरपतवारओं का अधिक प्रयोग होता है जैसे उपज पर 40 से 50% तक नकारात्मक प्रभाव दिखता है। 

इसके नियंत्रण के लिए बुवाई के 20 से 25 दिन बाद हैंड हो द्वारा कतारों को मध्य में होगे खरपतवार को नष्ट कर देना चाहिए। 

इसके बाद 30 से 40 दिन बाद निराई गुड़ाई करके और है साथ में किया जाना चाहिए। रसायनिक नियंत्रण के लिए भी बाजार में कई तरह की दवाई मौजूद हैं।

बीमारी नियंत्रण, रोग

  1. भूरा धब्बा रोग फसल में फूल के समय पर आता है। इस रोग के धब्बे टेढ़े मेढ़े, लाल भूरे व किनारों से हल्के हरे होते हैं। अधिक प्रकोप होने पर पत्तियां गिर जाती हैं। इससे बचाव के लिए स्वस्थ बीज का प्रयोग करें। मध्यम रोग प्रतिरोधी पालम सोया, हरित सोया, ली और ब्रैग जैसी किस्में लगाएं।
  2. बैक्टीरियल पश्चुयुल रोग के कारण पत्तियों के दोनों सदनों पर पीले उभरे हुए धब्बे प्रकट होते हैं जो बाद में लाल बुरे हो जाते हैं। छोटे-छोटे ऐसे ही धब्बे फलियों पर भी प्रकट होते हैं। इससे बचाव के लिए पंजाब नंबर 1 किस ना लगाएं रोग प्रतिरोधक किस्में ही लगाएं।
  3. पीला म्यूजिक विषाणु जनित रोग है। यह रोग सफेद मक्खी के माध्यम से फैलता है। इसके कारण पत्तों पर झुर्रियां पड़ जाती हैं और पत्ते और पौधे छोटे रह जाते हैं फलियां कम लगती हैं । मौसम में नमी अधिक होने पर तथा तापमान 22 से 25 डिग्री सेंटीग्रेड के बीच होने पर रोग तेजी से फैलता है। बचाव के लिए विषाणु रहित बीज का प्रयोग करें और एक ही पौधे को तुरंत खेत से निकाल दें। गर्म क्षेत्र में ब्रैग किस्म न लगाएं। निचले क्षेत्रों में शिवालिक किस्म लगाने से बचें।

कीट नियंत्रण

  1. कूबड़ कीट की सुन्डियां पत्तों को क्षति पहुंचाती हैं। इससे पौधे की बढ़वार नहीं हो पाती है। बचाव के लिए फसल पर 50 मिलीलीटर मेलाथियान या 25 मिलीलीटर डाईक्लोरोवास 50 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें। सुंडी को इकट्ठा करके नष्ट कर देना चाहिए। यह दवाएं अगर प्रतिबंधित की गई हैं तो इनके विकल्प के रूप में जो दवाएं बाजार में मौजूद हैं वह डालें।
  2. बीन बाग कीट युवा और प्रौढ़ अवस्था में पत्तों का रस चूसते हैं। इससे पत्तों की ऊपर की सतह पर छोटे-छोटे सफेद या पीले धब्बे पड़ जाते हैं। बाद में यह पत्ते सूख कर गिर जाते हैं। बचाव के लिए 50 मिलीलीटर मोनोक्रोटोफॉस या 50 मिलीलीटर साइपरमैथरीन 50 लीटर पानी में घोलकर प्रति बीघा छिड़काव करना चाहिए।
  3. लपेटक बीटल भृंग फसल को शुरुआती दौर में 15 से 20 दिन तक तना, शाखा और पत्तियों को बहुत नुकसान पहुंचाता है। इसके बाद यह कीट तने में सुरंग बना देता है। इससे पौधे के ऊपर हिस्से मुरझा जाते हैं। बचाव के लिए फसल को खरपतवारओं से मुक्त रखें प्रकोप शुरू होने पर 50 मिलीलीटर मोनोक्रोटोफॉस 50 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।

सोयाबीन में रासायनिक खरपतवार नियंत्रण

  1. घास समुदाय वाले खरपतवार के नियंत्रण के लिए पेंडीमिथालिन स्टांप की ढाई लीटर मात्रा डुबाई के दो दिन बाद पर्याप्त पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें।
  2. घास कुल वाले खरपतवार एवं चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार को नियंत्रित करने के लिए फ्लूक्लोरालीन बाशालिन की 2 लीटर मात्रा बोने से पूर्व छिड़काव करें तथा अच्छी तरह से मिट्टी में मिला दें।
  3. केवल चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार ओं को मारने के लिए मेटसल्फ्यूरान 4 से 6 ग्राम प्रति हेक्टेयर मोबाइल के 20 से 25 दिन बाद छिड़काव करें।

आलू के बाद अब गेहूं का समुचित मूल्य ना मिलने पर किसानों में आक्रोश

आलू के बाद अब गेहूं का समुचित मूल्य ना मिलने पर किसानों में आक्रोश

उत्तर प्रदेश में आलू का बेहद कम दाम मिलने की वजह से किसानों में काफी आक्रोश है। ऐसी हालत में फिलहाल गेहूं के दाम समर्थन मूल्य से काफी कम प्राप्त होने पर शाजापुर मंडी के किसान काफी भड़के हुए हैं, उन्होंने सरकार को चेतावनी देते हुए परेशानियों पर ध्यान देने की बात कही गई है। आलू के उपरांत फिलहाल यूपी के किसान गेहूं के दाम कम मिलने से परेशान हैं। प्रदेश के किसान गेहूं का कम भाव प्राप्त होने पर राज्य की भारतीय जनता पार्टी की सरकार से गुस्सा हैं। प्रदेश की शाजापुर कृषि उत्पादन मंडी में उपस्थित किसानों ने सरकार के विरुद्ध प्रदर्शन व नारेबाजी की है। किसानों ने बताया है, कि कम भाव मिलने के कारण उनको हानि हो रही है एवं यदि गेहूं के भाव बढ़ाए नहीं गए तो आगे भी इसी तरह धरना-प्रदर्शन चलता रहेगा। कृषि उपज मंडी में जब एक किसान भाई अपना गेहूं बेचने गया, जो 1981 रुपये क्विंटल में बिका। किसान भाई का कहना था, कि केंद्र सरकार द्वारा गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य 2125 रुपये क्विंटल निर्धारित किया गया है। इसके बावजूद भी यहां की मंडी में समर्थन मूल्य की अपेक्षा में काफी कम भाव पर खरीद की जा रही है। उन्होंने चेतावनी देते हुए बताया है, कि सरकार को अपनी आंखें खोलनी होंगी एवं मंडियों पर कार्रवाई करनी चाहिए। उन्होंने बताया है, कि सरकार किसानों की दिक्कत परेशानियों को समझें। ये भी देखें: केंद्र सरकार का गेहूं खरीद पर बड़ा फैसला, सस्ता हो सकता है आटा आक्रोशित एवं क्रोधित किसानों का नेतृत्व किसानों के संगठन भारतीय किसान संघ के जरिए किया जा रहा है। संगठन का मानना है कि, सरकार को किसानों की मांगों की ओर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। खून-पसीना एवं कड़े परिश्रम के उपरांत भी किसानों को उनकी फसल का समुचित भाव नहीं मिल पा रहा है।

आलू किसानों की परिस्थितियाँ काफी खराब हो गई हैं

उत्तर प्रदेश में आलू उत्पादक किसान भाइयो की स्थिति काफी दयनीय है। आलू के दाम में गिरावट आने की वजह से किसान ना कुछ दामों में अपनी फसल बेचने पर मजबूर है। बहुत से आक्रोशित किसान भाइयों ने तो अपनी आलू की फसल को सड़कों पर फेंक कर अपना गुस्सा व्यक्त किया है। ऐसी परिस्थितियों में विरोध का सामना कर रही उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा 650 रुपये प्रति क्विंटल के मुताबिक आलू खरीदने का एलान किया है। परंतु, किसान इसके उपरांत भी काफी गुस्सा हैं। कुछ किसानों द्वारा आलू को कोल्ड स्टोर में रखना चालू कर दिया है। दामों में सुधार होने पर वो बेचेंगे, परंतु अब कोल्ड स्टोर में भी स्थान की कमी देखी जा रही है। ऐसी स्थितियों के मध्य किसान हताश और निराश हैं।
ठंडी और आर्द्र जलवायु में रंगीन फूल गोभी की उपज कर कमायें अच्छा मुनाफा, जानें उत्पादन की पूरी प्रक्रिया

ठंडी और आर्द्र जलवायु में रंगीन फूल गोभी की उपज कर कमायें अच्छा मुनाफा, जानें उत्पादन की पूरी प्रक्रिया

छोटे बच्चे से लेकर बुजुर्ग व्यक्ति के जीवन में रंगो का महत्वपूर्ण स्थान होता है। विभिन्न प्रकार के रंग लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करते हैं।लेकिन क्या आपको पता है कि अब ऐसी ही रंगीन प्रकार की फूल गोभी (phool gobhee; cauliflower) का उत्पादन कर, सेहत को सुधारने के अलावा आमदनी को बढ़ाने में भी किया जा सकता है। फूलगोभी के उत्पादन में उत्तरी भारत के राज्य शीर्ष पर हैं, लेकिन वर्तमान में बेहतर वैज्ञानिक तकनीकों की मदद से दक्षिण भारत के तटीय क्षेत्रों में भी फूलगोभी का उत्पादन किया जा रहा है।

फूलगोभी में मिलने वाले पोषक तत्व :

स्वास्थ्य के लिए गुणकारी फूलगोभी में पोटेशियम और एंटीऑक्सीडेंट तथा विटामिन के अलावा कई जरूरी प्रकार के मिनरल भी पाए जाते हैं। शरीर में बढ़े रक्तचाप और कोलेस्ट्रॉल के नियंत्रण में भी फूल गोभी का महत्वपूर्ण योगदान है। किसी भी प्रकार की रंगीन फूल गोभी के उत्पादन के लिए ठंडी और आर्द्र जलवायु अनिवार्य होती है। उत्तरी भारत के राज्यों में सितंबर महीने के आखिरी सप्ताह और अक्टूबर के शुरुआती दिनों से लेकर नवम्बर के पहले सप्ताह में 20 से 25 डिग्री का तापमान रहता है, वहीं दक्षिण भारत के राज्यों में यह तापमान वर्ष भर रहता है, इसलिए वहां पर उत्पादन किसी भी समय किया जा सकता है।


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रंगीन फूलगोभी की लोकप्रिय और प्रमुख किस्में :

वर्तमान में पीले रंग और बैंगनी रंग की फूलगोभी बाजार में काफी लोकप्रिय है और किसान भाई भी इन्हीं दो किस्मों के उत्पादन पर खासा ध्यान दे रहे हैं। [caption id="attachment_11024" align="alignnone" width="357"]पीली फूल गोभी (Yellow Cauliflower) पीली फूल गोभी[/caption] [caption id="attachment_11023" align="alignnone" width="357"]बैंगनी फूल गोभी (Purple Cauliflower) बैंगनी फूल गोभी[/caption] पीले रंग वाली फूलगोभी को केरोटिना (Karotina) और बैंगनी रंग की संकर किस्म को बेलिटीना (Belitina) नाम से जाना जाता है।

कैसे निर्धारित करें रंगीन फूलगोभी के बीज की मात्रा और रोपण का श्रेष्ठ तरीका ?

सितंबर और अक्टूबर महीने में उगाई जाने वाली रंगीन फूलगोभी के बेहतर उत्पादन के लिए पहले नर्सरी तैयार करनी चाहिए। एक हेक्टेयर क्षेत्र के खेत में नर्सरी तैयार करने में लगभग 250 से 300 ग्राम बीज की आवश्यकता होती है।

कैसे करें नर्सरी में तैयार हुई पौध का रोपण ?

तैयार हुई पौध को 5 से 6 सप्ताह तक बड़ी हो जाने के बाद उन्हें खेत में कम से कम 60 सेंटीमीटर की दूरी पर लगाना चाहिए। रंगीन फूलगोभी की बुवाई के बाद में सीमित पानी से सिंचाई की आवश्यकता होती है, अधिक पानी देने पर पौधे की वृद्धि कम होने की संभावना होती है।

कैसे करें खाद और उर्वरक का बेहतर प्रबंधन ?

जैविक खाद का इस्तेमाल किसी भी फसल के बेहतर उत्पादन के लिए सर्वश्रेष्ठ होता है, इसीलिए गोबर की खाद इस्तेमाल की जा सकती है।सीमित मात्रा में रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग उत्पादकता को बढ़ाने में सहायता प्रदान कर सकता है। समय रहते मृदा की जांच करवाकर पोषक तत्वों की जानकारी प्राप्त करने से उर्वरकों में होने वाले आर्थिक नुकसान को कम किया जा सकता है। यदि मृदा की जांच नहीं करवाई है तो प्रति हेक्टेयर क्षेत्र में 120 किलोग्राम नाइट्रोजन और 60 किलोग्राम फास्फोरस के अलावा 30 किलोग्राम पोटाश का इस्तेमाल किया जा सकता है। गोबर की खाद को पौध की बुवाई से पहले ही जमीन में मिलाकर अच्छी तरह सुखा देना चाहिए। निरन्तर समय पर मिट्टी में निराई-गुड़ाई कर अमोनियम और बोरोन जैसे रासायनिक खाद का इस्तेमाल भी कर सकते हैं।


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कैसे करें खरपतवार का सफलतापूर्वक नियंत्रण ?

एक बार पौध का सफलतापूर्वक रोपण हो जाने के बाद निरंतर समय पर निराई-गुड़ाई कर खरपतवार को खुरपी मदद से हटाया जाना चाहिए। खरपतवार को हटाने के बाद उस स्थान पर हल्की मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए, जिससे दुबारा खरपतवार के प्रसार को रोकने में मदद मिल सके।

रंगीन फूलगोभी में होने वाले प्रमुख रोग एवं उनका इलाज :

कई दूसरे प्रकार के फलों और सब्जियों की तरह ही रंगीन फूलगोभी भी रोगों से ग्रसित हो सकती है, कुछ रोग और उनका इलाज निम्न प्रकार है :-
  • सरसों की मक्खी :

यह एक प्रकार कीट होते हैं, जो पौधे के बड़े होने के समय फूल गोभी के पत्तों में अंडे देते हैं और बाद में पत्तियों को खाकर सब्जी की उत्पादकता को कम करते हैं।

इस रोग के इलाज के लिए बेसिलस थुरिंगिएनसिस (Bacillus thuringiensis) के घोल का छिड़काव करना चाहिए।

इसके अलावा बाजार में उपलब्ध फेरोमोन ट्रैप (pheromone trap) का इस्तेमाल कर बड़े कीटों को पकड़ा जाना चाहिए।

यह रोग छोटे हल्के रंग के कीटों के द्वारा फैलाया जाता है। यह छोटे कीट, पौधे की पत्तियों और कोमल भागों का रस को निकाल कर अपने भोजन के रूप में इस्तेमाल कर लेते हैं, जिसकी वजह से गोभी के फूल का विकास अच्छे से नहीं हो पाता है।

[caption id="attachment_11030" align="alignnone" width="800"]एफिड रोग (cauliflower aphid) एफिड रोग[/caption]

इस रोग के निदान के लिए डाईमेथोएट (Dimethoate) नामक रासायनिक उर्वरक का छिड़काव करना चाहिए।

  • काला विगलन रोग :

फूल गोभी और पत्ता गोभी प्रकार की सब्जियों में यह एक प्रमुख रोग होता है, जो कि एक जीवाणु के द्वारा फैलाया जाता है। इस रोग की वजह से पौधे की पत्तियों में हल्के पीले रंग के धब्बे होने लगते हैं और जड़ का अंदरूनी हिस्सा काला दिखाई देता है। सही समय पर इस रोग का इलाज नहीं दिया जाए तो इससे तना कमजोर होकर टूट जाता है और पूरे पौधे का ही नुकसान हो जाता है।

इस रोग के इलाज के लिए कॉपर ऑक्सिक्लोराइड (copper oxychloride) और स्ट्रैप्टो-साइक्लीन (Streptocycline)  का पानी के साथ मिलाकर एक घोल तैयार किया जाना चाहिए, जिसका समय-समय पर फसल पर छिड़काव करना चाहिए।

यदि इसके बावजूद भी इस रोग का प्रसार नहीं रुकता है तो, रोग से ग्रसित पौधों को उखाड़कर इकट्ठा करके उन्हें जलाकर नष्ट कर देना चाहिए।

इसके अलावा रंगीन फूलगोभी में आर्द्रगलन और डायमंड बैकमॉथ (Diamondback Moth) जैसे रोग भी होते हैं, इन रोगों का इलाज भी बेहतर बीज उपचार और वैज्ञानिक विधि की मदद से आसानी से किया जा सकता है। आशा करते हैं Merikheti.com के द्वारा हमारे किसान भाइयों को हाल ही में बाजार में लोकप्रिय हुई नई फसल 'रंगीन फूलगोभी' के उत्पादन के बारे में संपूर्ण जानकारी मिल गई होगी और भविष्य में आप भी बेहतर लागत-उत्पादन अनुपात को अपनाकर अच्छी फसल ऊगा पाएंगे और समुचित विकास की राह पर चल रही भारतीय कृषि को सुद्रढ़ बनाने में अपना योगदान देने के अलावा स्वंय की आर्थिक स्थिति को भी मजबूत बना पाएंगे।
इस राज्य में किसानों को 50 प्रतिशत छूट पर गन्ने के बीज मुहैय्या कराए जाऐंगे

इस राज्य में किसानों को 50 प्रतिशत छूट पर गन्ने के बीज मुहैय्या कराए जाऐंगे

भारत के उत्तर प्रदेश में बड़े पैमाने पर गन्ने का उत्पादन किया जाता है। किसानों को सहूलियत प्रदान करते हुए उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा गन्ने की दो प्रसिद्ध प्रजातियों के बीजों के भाव में 25 से 50 प्रतिशत तक गिरावट दर्ज की गई है। केंद्र और राज्य सरकारें अपने अपने स्तर से किसानों के हित में निरंतर योजनाएं जारी करती आ रही हैं। समस्त सरकारों का यही उद्देश्य होता है, कि किस तरह किसानों को अधिक आमदनी हो सके। किसान भाइयों को अनुदान पर यंत्र मुहैय्या कराए जा रहे हैं। वर्तमान में बिहार में कोल्ड स्टोरेज स्थापित करने के लिए किसानों को अच्छा खासा अनुदान मुहैय्या कराया जा रहा है। साथ ही, सस्ते बीज भी किसानों को प्रदान किए जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा किसानों के हित में एक और बड़ी पहल कर रही है। बीज महंगा होने की वजह से गन्ने की बुवाई जहां महंगी हो रही थी। साथ ही, बीज सस्ता करते हुए राज्य सरकार द्वारा उसी महंगाई में सहूलियत प्रदान की जा रही है। उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा किसानों को गन्ना से जुड़े मामलों में काफी सहूलियत प्रदान की गई है। बतादें, गन्ना की प्रजाति को. शा. 13235 एवं को. शा. 15023 के बीजों की दरों में 25 से 50 प्रतिशत तक कटौती की जा चुकी है। किसान इन दोनों किस्मों के बीजों को निर्धारित केंद्रों से ले सकेंगे।

गन्ने की कीमत कितनी निर्धारित की गई है

प्रदेश सरकार के अधिकारियों का कहना है, कि गन्ने की नई प्रजाति को. शा. 13235 के अभिजनक बीज की अब तक जो कीमत थी, वह 1.20 रुपये प्रति बड़ की दर से बढ़कर 1275 रुपये प्रति क्विंटल रही है। राज्य सरकार द्वारा इसको घटाकर 850 रुपये प्रति क्विंटल कर दिया है। गन्ना की दूसरी नई किस्म को. शा. 15023 है। इसके बीज की वर्तमान में कीमत 1.70 रुपये प्रति बड की दर से 1700 रुपये प्रति क्विंटल थी। नई दरों में इस प्रजाति की कीमत 850 रुपये प्रति क्विंटल की जा चुकी है। यह भी पढ़ें: उत्तर प्रदेश में गन्ना किसानों के लिए सरकार की तरफ से आई है बहुत बड़ी खुशखबरी

यहां से गन्ना खरीद सकते हैं किसान

अधिकारियों ने बताया है, कि किसानों को गन्ना खरीदने के लिए इधर-उधर चक्कर नहीं काटने पड़ेंगे। दोनों प्रजातियों के बीज शाहजहांपुर में मौजूद यूपी गन्ना शोध परिषद से अटैच बीज केंद्रों एवं चीनी मिल फार्मों से 850 रुपये प्रति क्विंटल की कीमत पर किसानों को मुहैय्या कराया जाएगा। समस्त परिषदों को निर्देश जारी किए गए हैं, कि गन्ने की दोनों किस्मों की जो संसोधित कीमतें हैं। उन्हीं दरों पर गन्ना किसानों को मुहैय्या कराई जाऐं।
कैसे करें चुकंदर की खेती; जाने फसल के बारे में संपूर्ण जानकारी

कैसे करें चुकंदर की खेती; जाने फसल के बारे में संपूर्ण जानकारी

चुकंदर एक ऐसी कंद वर्गीय फसल  है जिसका सेवन  अलग-अलग तरीकों से किया जा सकता है। इसे आप कल की तरह कच्चा खा सकते हैं या फिर सब्जी की तरह पका कर भी इसे खाया जा सकता है। 

इसके अलावा चुकंदर को बहुत से पेय पदार्थ में भी इस्तेमाल किया जाता है जो आपके स्वास्थ्य के लिए तो लाभदायक होता ही है साथ ही त्वचा की हेल्थ के लिए भी काफी अच्छा माना जाता है। 

 चुकंदर से बनाई जाने वाली सब्जी को बहुत से लोग मीठी सब्जी कहते हैं क्योंकि इसका स्वाद हल्का सा मीठा होता है। चुकंदर जमीन के नीचे उगता है और इसकी सबसे खास बात यह है कि चुकंदर के पत्तों की अलग से सब्जी बनाई जा सकती है।  

इस में पाए जाने वाले पोषक तत्व के बारे में सभी लोग जानते हैं और साथ ही हम सब को यह जानकारी जरूर है कि  यह हमारे स्वास्थ्य के लिए काफी लाभदायक है। 

खून की कमी,अपच, ह्रदय रोग और कैंसर जैसी बड़ी बड़ी बीमारियों के लिए भी डॉक्टर के द्वारा बहुत बार चुकंदर के सेवन करने की सलाह दी जाती है। 

मार्केट में चुकंदर की मांग लगभग 12 महीने बनी रहती है और ऐसे में किसान फसल का उत्पादन करते हुए अच्छी खासी कमाई कर सकते हैं। 

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ठंडे क्षेत्रों को चुकंदर की खेती के लिए एकदम सही माना जाता है और इसीलिए भारत में चुकंदर की खेती ज्यादातर उत्तराखंड,  कश्मीर,  हिमाचल प्रदेश और राजस्थान और पंजाब के ठंडे इलाकों में ज्यादातर रबी के सीजन में की जाती हैं।  

इस आर्टिकल के माध्यम से हम आपको चुकंदर के बारे में संपूर्ण जानकारी देने वाले हैं जिसको पढ़ते हुए आप इस फसल का उत्पादन करके मुनाफा कमा सकते हैं।

कैसे करें चुकंदर की खेती

चुकंदर की खेती (chukandar ki kheti) के लिए अगर सही तरह की मिट्टी और जलवायु की बात की जाए तो इस फसल के उत्पादन के लिए बलुई दोमट मिट्टी को सबसे ज्यादा सही माना जाता है। 

इसकी खेती करने के लिए भूमि का P.H. मान 6 से 7 के बीच होना आवश्यक है। इसके अलावा चुकंदर की खेती करते हुए आपको इस बात का खास ख्याल रखने की जरूरत है कि आप की जमीन में जल निकासी की उचित व्यवस्था होनी चाहिए क्योंकि अगर जमीन में कभी भी जलभराव की स्थिति उत्पन्न होती है तो यह पौधे इसके कारण सड़ने लगते हैं। 

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अगर किसान भाई चाहते हैं कि वह मैग्नीशियम, कैल्शियम, आयोडीन, पोटेशियम, आयरन, विटामिन-सी, और विटामिन-B से भरपूर चुकंदर की खेती  करें तो उसके लिए आदर्श तापमान 18 से 21 डिग्री सेल्सियस तक माना गया है।

भारत में चुकंदर की खेती (Beetroot cultivation in India) के लिए सबसे अच्छा मौसम

अगर भारत की बात की जाए तो यहां पर चुकंदर की खेती करने के लिए अक्टूबर के पहले हफ्ते से लेकर जनवरी तक इसकी खेती की जा सकती हैं।  

सर्दियों के मौसम में चुकंदर के पौधे का विकास बहुत तेजी से होता है और इस पर आपको ज्यादा मेहनत करने की जरूरत भी नहीं पड़ती है।  इसके अलावा एक बात का ध्यान हमेशा रखें कि गर्मियों के मौसम में कभी भी चुकंदर की खेती ना करें। 

साथ ही आपको यह भी ध्यान में रखना है कि बहुत ज्यादा ठंड के मौसम में या फिर जब पाला पड़ने की स्थिति होती है तब भी चुकंदर की खेती करने से बचें क्योंकि यह फसल ऐसे मौसम में प्रभावित हो सकती हैं।

क्या है चुकंदर की खेती के लिए कुछ बढ़िया किस्में

बाजार में आपको चुकंदर की बहुत सी किसमें देखने को मिल जाती हैं लेकिन इसकी कुछ बेहद अच्छी किस्मों के नाम इस प्रकार से हैं;

  • पुष्पा
  • डार्क एज
  • एक्सीडेंटल
  • क्यू टी
  • अल्बर्टीना
  • काली लाल
  • बुले दी
  • गोल्डन
  • चियोगिया
  • बादामी

कैसे करें खेत की तैयारी?

चुकंदर की खेती करने से पहले आपको खेत की गहरी जुताई करना बेहद अनिवार्य है। इसके लिए किसान कल्टीवेटर और रोटावेटर का इस्तेमाल कर सकते हैं। 

एक बार गहरी जुताई करने के बाद आप दो-तीन बार खेत की हल्की जुताई कर ले और उसके बाद ही खेत में बीज डाले इसके अलावा अगर आप चाहते हैं कि आप की पैदावार अच्छी हो तो उसके लिए कोशिश करें कि अपने खेत में प्रति एकड़ के हिसाब से 4 टन गोबर खाद डाल दें।

चुकंदर की फसल की बुवाई की विधि

चुकंदर की फसल की बुवाई के लिए दो विधि अपनाई जा सकती हैं जिसमें से एक है छिड़काव विधि और दूसरी है दूसरी मेड़ विधि है. 

छिटकवा विधि – छिड़काव विधि में खेत में अलग-अलग क्यारियां बनाकर उसमें बीजों को फेंककर बुवाई की जाती है।  इस विधि में अगर लागत की बात की जाए तो प्रति एकड़ लगभग 4 किलो बीज लग जाता है। 

मेड़ विधि – इस विधि में लगभग 10-10 इंच की दूरी पर मेड बनाई जाती है और उस पर बीजों की बुवाई की जाती है।  इसमें हर एक पौधे के बीच में लगभग 3 इंच की दूरी रखी जाती है।  इसके अलावा कुछ चीजें जो आपको इसकी खेती करते समय ध्यान में रखने की जरूरत है वह है;

खेत को उत्तम तरीके से जोता जाना चाहिए और खेत की मिट्टी को उन्नत बनाने के लिए उर्वरक डालना चाहिए।

  • फसल के लिए उत्तम बीज चुनें और बीजों को बुवाई के लिए नियमित अंतराल पर फसल की आवश्यकताओं के अनुसार खेत में बोएं।
  • बीज को बोते समय गहराई लगभग 2 सेमी तक होनी चाहिए।
  • फसल के बाद सिंचाई जरूरी होती है, इसलिए फसल के बाद समय-समय पर सिंचाई की जानी चाहिए।
  • फसल को उगने के दौरान खेत में खरपतवार, कीटाणु और बीमारियों से निपटने के लिए उचित देखभाल दी जानी चाहिए।
  • फसल की उन्नति के लिए उत्तम उर्वरक, खाद और पेस्टिसाइड का इस्तेमाल किया जाना चाहिए।
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चुकंदर की खेती (chukandar ki kheti) में कैसे रखें सिंचाई और उर्वरक का ध्यान?

चुकंदर की फसल ऐसी होती है जिसमें बहुत ज्यादा सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती हैं लेकिन फिर भी समय-समय पर हल्की सिंचाई करते रहना चाहिए।  

पहली सिंचाई आप फसल बोने के 15 दिनों बाद कर सकते हैं और उसके लगभग पांच-छह दिन बाद दूसरी सिंचाई की जा सकती हैं।  इसके अलावा अगर आप का क्षेत्र ऐसा है जहां पर बरसात नहीं हो रही है तो लगभग हर एक आठ से 10 दिन के बीच में सिंचाई करते रहना चाहिए। 

उर्वरक की बात की जाए तो चुकंदर की खेती करते समय यूरिया, डी.ए.पी यानि डाई-एमोनियम फॉस्फेट और पोटाश का इस्तेमाल किया जा सकता है और इन सब का प्रयोग आप अपने खेत में प्रति एकड़ के हिसाब से करें।  

साथ ही माना जाता है कि अगर चुकंदर की खेती करते समय आप जैविक या ऑर्गेनिक खाद डालते हैं तो उत्पादन बेहतर रहता है। 

चुकंदर की खेती करने से पहले अपने खेत में वरुण की मात्रा का प्रशिक्षण जरूर करवा लें क्योंकि अगर आप के खेत में वरुण की कमी है तो चुकंदर के पौधों की जड़ें कमजोर हो जाती हैं और समय के साथ टूटने लगती हैं। 

अगर खेत में और उनकी कमी है तो आप बोरिक एसिड या बोरॉक्स  जमीन में डाल सकते हैं।

चुकंदर की फसल में लगने वाले रोग

हालांकि चुकंदर एक ऐसी फसल है जिसमें बहुत ज्यादा रोग नहीं लगते हैं लेकिन फिर भी अगर अच्छी तरह से इसकी देखभाल न की जाए तो फसल को रोक लगने की संभावना रहती है। 

चुकंदर की फसल में विभिन्न प्रकार के रोग हो सकते हैं, जैसे कि दाग पत्तियों वाला रोग, पत्तों की खारीद, धुंधली जड़ें, प्याज की तरह अर्ध-परिपक्वता, फसल के नीचे सफेद कीट, विभिन्न प्रकार की फंगल संक्रमण, आदि।

रोग एवं कीट प्रबंधन कैसे करें

चुकंदर की फसल में खरपतवार और रोगों का नियंत्रण करने के लिए हर एक 25 से 30 दिन के बीच बीच में साफ सफाई करते रहना चाहिए।  

इसके अलावा अगर किसी कारण से आपके चुकंदर की फसल में रोग लग जाता है तो सही मात्रा में केमिकल का छिड़काव करते हुए फसल को इस रोग से बचाया जा सकता है।

रेड स्पाइडर, एफिड्स, फ्ली बीटल और लीफ खाने कीड़ों से बचाव के लिए, 1 लीटर पानी में 2 मिली मैलाथियान 50 ईसी मिलाकर छिड़काव करें। कीटों को नियंत्रित करने से पहले, कृषि वैज्ञानिकों से सलाह लें। 

इसके अलावा जब भी आप बीज रोपण करते हैं तो सही तरह के बीच का इस्तेमाल करें इससे आप के उत्पादन में आपको बेहतर परिणाम मिलेंगे और फसल में रोग लगने की क्षमता भी कम हो जाती है। 

इस तरह से इन सब चीजों का ध्यान रखते हुए किसान चुकंदर की फसल उगा सकते हैं और इससे अच्छा खासा मुनाफा भी ले सकते हैं।

चुकंदर का मूल्य

चुकंदर का मूल्य उसकी गुणवत्ता, उपलब्धता, और बाजार के क्षेत्र के अनुसार भिन्न-भिन्न होता है। इसलिए, चुकंदर का मूल्य विभिन्न शहरों और बाजारों में भिन्न हो सकता है। 

चुकंदर एक ऐसी फसल है जिसके उत्पादन में ज्यादा समय नहीं लगता है जिसकी वजह से यह बेहद कम समय में किसानों को अच्छा खासा मुनाफा दे सकती है।  

यह फसल एक बार बीज बोने के बाद लगभग 3 महीने में बनकर तैयार हो जाती है और 300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक इसका उत्पादन हो जाता है।  

आम तौर पर अगर चुकंदर के मूल्य की बात की जाए तो यह 50 से ₹60 प्रति किलो तक भी रहता है।  इस फसल की एक और खासियत यह है कि इसे बहुत जगह पशु चारे के रूप में भी इस्तेमाल किया जा सकता है।

कैसे करें शलजम की खेती से कमाई; जाने फसल के बारे में संपूर्ण जानकारी

कैसे करें शलजम की खेती से कमाई; जाने फसल के बारे में संपूर्ण जानकारी

शलजम वैसे तो 1000 वाली सब्जी होती है लेकिन इसे फल के तौर पर भी इस्तेमाल किया जाता है. इसके अलावा सब्जी और सलाद दोनों की तरह इसे खाया जाता है. 

सहजन की खेती ज्यादातर मैदानी इलाकों में की जाती है और यह सर्दी के मौसम में उगाई जाने वाली फसल है. शलजम में पोषक तत्व काफी ज्यादा होते हैं और इसकी जानकारी सभी को होती है. 

शलजम विटामिन और खनिज का तो अच्छा स्त्रोत है ही साथ ही इसमें एंटी ऑक्सीडेंट, फाइबर और कैल्शियम भी मिलता है. कैंसर, हृदय रोग, सूजन और ब्लड प्रेशर के मरीजों को डॉक्टर से खाने की सलाह देते हैं. 

इसमें पाया जाने वाला विटामिन सी हमारी इम्यून सिस्टम को अच्छा रखने में मदद करता है. शलजम की फसल में इसके जड़ और पत्ते दोनों का ही इस्तेमाल किया जाता है क्योंकि जोड़ों में विटामिन सी होता है और इसके पत्ते कैल्शियम और विटामिन से भरपूर होते हैं. 

लेकिन एक बात ध्यान में रखने की जरूरत है कि इसके पत्ते स्वाद में कड़वे होते हैं इसलिए एक बार बोलने के बाद ही उन्हें खाना चाहिए. 

इस के अलावा इस फसल की एक और खासियत यह है कि इसके पत्तों का इस्तेमाल पशुओं के चारे के रूप में भी किया जाता है और यह पशुओं के लिए भी काफी पोस्टिक आहार माना गया है.. 

इस आर्टिकल के माध्यम से शलजम की खेती करने के बारे में पूरी जानकारी दी जाएगी. शलजम की फसल कैसे उगाएं और  इसकी खेती के क्या फायदे हैं आप इस आर्टिकल के माध्यम से जान सकते हैं.

कैसे करें  शलजम के लिए मिट्टी का चुनाव

शलजम के लिए भूमि का चुनाव करते हुए हमें इस बात को ध्यान में रखने की जरूरत है कि इसकी खेती के लिए बलुई दोमट या फिर रेतीली मिट्टी की आवश्यकता होती है.  

एकदम कड़क और चिकनी मिट्टी में यह फसल कभी भी नहीं उठती हैं क्योंकि फलों की जड़ें भूमि के अंदर होती हैं इसलिए हमेशा ही नरम होने की आवश्यकता रहती हैं. इस फसल का उत्पादन ठंडी जलवायु में किया जाता है इसलिए तापमान 20 डिग्री सेल्सियस होना अनिवार्य है.

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शलजम की फसल के लिए खेत की तैयारी का तरीका

शलजम की फसल उगाते समय मिट्टी का भुरभुरा होना जरूरी है इसलिए इसके उत्पादन से पहले जमीन की गहरी जुताई की जाती है.   ऐसा करने से जमीन में अगर पुराने फसल के कोई अब शेष बचे हैं तो वह पूरी तरह से खत्म हो जाते हैं. 

एक बार जुताई करने के बाद खेत को थूक लगाने के लिए छोड़ दिया जाता है और इसके बाद उसमें पुराने सड़ी हुई गोबर की खाद या फिर वर्मी कंपोस्ट डाली जाती हैं.  

इसके बाद थोड़े समय के लिए खेत को खुला छोड़ देने की जरूरत है और बाद में आप फिर से एक बार खेत की जुताई कर के खाद और मिट्टी को अच्छी तरह से मिला सकते हैं. 

एक बार जब खाद और मिट्टी अच्छी तरह से मिल जाए तो इसमें पानी डाला जाता है और उसके बाद मिट्टी के सूख जाने पर इस की जुताई रोटावेटर से करते हुए मिट्टी को भी भुरभुरा कर दिया जाता है. 

इसके बाद आप कांटा लगा कर जमीन को समतल करने के बाद इसमें 50 KG फास्फोरस, 100 KG नाइट्रोजन और 50 KG पोटाश डालकर जमीन की आखरी जुताई कर सकते हैं.

शलजम की कुछ उन्नत किस्में

लाल 4  :- शलजम की है कि हम लगभग 60 से 70 दिन के समय में बनकर तैयार हो जाती है और इसकी जड़ों का आकार एकदम सामान्य और गोल होता है. इस किस्म को केवल सर्दियों में ही उगाया जा सकता है. 

सफेद 4 :- सफेद चार शलजम की एक ऐसी किस्म है जिसे बारिश के मौसम में भी लगाया जा सकता है और यह 50 से 55 दिन के बीच में बनकर तैयार हो जाती है. अगर ऊपर की मात्रा की बात की जाए तो प्रति हेक्टेयर के हिसाब से लगभग 200 क्विंटल तक शलजम का उत्पादन इस किस्म से किया जा सकता है. 

परपल टोप :- इस किस्म की शलजम में जड़े सामान्य से थोड़े बड़े आकार की होती हैं और ऊपर से बैंगनी और सफेद रंग की दिखाई देती है. इसे बनने में लगभग 2 महीने का समय लगता है और उत्पादन की मात्रा प्रति व्यक्ति के हिसाब से 150 से 180 क्विंटल तक की जा सकती है.

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पूसा-स्वर्णिमा :- आकार में गोल और पीले रंग की जड़ों वाली यह स्वयं पकने में 60 से 65 दिन का समय लेती है. इससे उगने वाला फल एकदम चिकना नजर आता है. 

पूसा-चन्द्रिमा :- शलजम की कसम में उत्पादन काफी अच्छा होता है और जमीन में प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 200 से 250 क्विंटल तक शलजम का उत्पादन हो जाता है.  इस फसल को बनकर तैयार होने में भी केवल 50 से 55 दिन का समय ही लगता है. 

पूसा-कंचन :- इस क़िस्म को रेड एसीयाटिक किस्म तथा गोल्डन-वाल के माध्यम से तैयार किया गया है | इसमें शलजम का ऊपरी भाग लाल और गुदा पीले रंग का होता है | 

पूसा-स्वेती :- यह किसने उत्पादन काफी जल्दी दे देती है और साथ ही इसकी बुआई भी अगस्त से सितंबर के महीने में की जा सकती हैं. एकदम चमकदार और सफेद दिखने वाली शलजम की यह फसल 40 से 50 दिन में बनकर तैयार हो जाती है. 

स्नोवाल :- इसकी खासियत है कि इससे बनकर तैयार होने वाला शलजम का फल एकदम सफेद और गोल आकार होता है और साथ ही यह स्वाद में मीठा भी होता है.  इसकी जड़े 50 से 55 दिन के बाद खुदाई के लिए तैयार हो जाती हैं.

क्या है  शलजम के बीजों की रोपाई का तरीका

मैदानी इलाकों में चल झूम की खेती सितंबर से अक्टूबर के महीनों में की जा सकती है वहीं पर अगर आप पहाड़ी इलाकों में फसल उगाना चाहते हैं तो जुलाई से अक्टूबर का महीना एकदम सही माना गया है. 

इस फसल के बीजों को लगाने के लिए पंक्ति तैयार की जाती है और इनके बीच में लगभग 30 से 40 सेंटीमीटर की दूरी  रखी जाती है. 

इसके अलावा बीजों के बीच में 10 से 15 सेंटीमीटर की दूरी रखी जाती है और इसकी गहराई 2 से 3 सेंटीमीटर तक रखना सही होता है. अगर प्रति हेक्टेयर की बात की जाए तो एक हेक्टेयर के क्षेत्र में  शलजम लगाते समय 3:00 से 4 किलो तक  बीज लग जाते हैं.

शलजम की फसल में सिंचाई और खरपतवार नियंत्रण का तरीका

इस फसल में सबसे पहली सिंचाई एक बीज लगा देने के 8 से 10 दिन के बाद की जाती है और उसके बाद जरूरत पड़ने पर हर बार 10 से 15 दिन के अंतर पर फसल में पानी दिया जा सकता है. 

शलजम के पौधों की पहली सिंचाई बीज बुवाई के 8 से 10 दिन पश्चात् की जाती है, तथा जरूरत पड़ने पर बाद पौधों को 10 से 15 दिन के अंतराल में पानी देना चाहिए | 

बाकी सभी फसल की तरह ही इसमें भी खरपतवार के नियंत्रण के लिए पौधों की निराई – गुड़ाई की जाती है | शलजम की फसल 2 से 3 गुड़ाई में तैयार हो जाती है | 

निराई - गुड़ाई के अलावा पेंडीमेथलिन 3 लीटर की मात्रा को 800 से 900 लीटर पानी में मिलाकर बीज रोपाई के दो दिन पश्चात प्रति हेक्टेयर के खेत में छिड़काव करे |

शलजम की फसल में लगने वाले कीट और उनके रोकथाम का तरीका

रोग से बचाव के लिए:- शलजम की फसल में अंगमारी, पीला रोग जैसे फफूंद रोग लग जाते है, जिससे बचाव के लिए जरूरी है कि आप ऐसे ही किस्म के बीज लगाएं जो इन लोगों से प्रतिरोधी हो साथ ही अगर किसी भी पौधे में रोग लग जाता है तो उसे जड़ से उखाड़ कर हटा दें. 

इसके अलावा इसमें खरपतवार के नियंत्रण के लिए प्रति हेक्टेयर के खेत में M 45 या Z 78 की 0.2 प्रतिशत की मात्रा का घोल बनाकर छिड़काव करे | 

कीट से बचाव के लिए:- शलजम की फसल पर कीट रोग मुंगी, माहू, सुंडी, बालदार कीड़ा और मक्खी के रूप में आक्रमण करते है| 

इस कीट रोग के आक्रमण को रोकने के लिए 700 से 800 लीटर पानी में 1 लीटर मैलाथियान को डालकर उसका छिड़काव खेत में करे | इसके अलावा 1.5 लीटर एंडोसल्फान की मात्रा को उतने ही पानी मिलाकर उसका छिड़काव प्रति हेक्टेयर के खेत में करे

शलजम की  फसल से होने वाली पैदावार और कमाई

सुरजन की फसल में पत्ते और जड़े दोनों ही कारगर होती हैं और एक बार बुआई करने के बाद भी से 25 दिन के बाद आप इसके पत्ते तोड़ना शुरू कर सकते हैं. 

इसके बाद आप जड़ों के पकने का इंतजार करें जो सामान्यतः 50 से 70 दिन में बनकर तैयार हो जाती हैं. आप सामान्य तौर पर खुरपी  की मदद से भी इसकी खुदाई कर सकते हैं. 

एक बार फसल तोड़ लेने के बाद उसे अच्छी तरह से धोकर इकट्ठा कर ले और अगर उत्पादन की बात की जाए तो लगभग 1 हेक्टेयर की जमीन में 200 से ढाई क्विंटल तक ही शलजम का उत्पादन किया जा सकता है और किसान इस फसल का उत्पादन करते हुए अच्छी खासी कमाई कर सकते हैं.

मक्का ने मंडी को बनाया धनवान, जानिए कितने क्विंटल हुई आवक

मक्का ने मंडी को बनाया धनवान, जानिए कितने क्विंटल हुई आवक

गुना कृषि उपज मंडी में मक्का की शानदार आवक ने विगत समस्त रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं। मक्का ने इस बार किसान, व्यापारी सहित मंडी प्रशासन को भी अमीर बना दिया। यह स्थिति उस वक्त देखने को मिली जब अक्टूबर के महीने में सरकार ने मंडी टैक्स में 0.50 फीसद की कमी कर दी थी। एक अक्टूबर से दस नवंबर के मध्य 70 दिनों में मंडी को तकरीबन 4 करोड़ रुपये मंडी टैक्स प्राप्त हुआ है।

मक्का की वजह से मंडी हुआ धनवान 

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि पूर्व में टैक्स की दर 1.50 प्रतिशत थी। वह घटकर एक फीसद ही रह गई है। इसके बावजूद अक्टूबर माह में 2.44 करोड़ मंडी कर वसूला गया। विगत वर्ष 2022 के मुकाबले में 38% अधिक टैक्स वसूला गया है। नवंबर के पूर्व 10 दिनों में 1.40 करोड़ रुपये मंडी कर मिला।

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महज डेढ़ माह में करोड़ो का कर 

अगर विगत दस दिनों की बात की जाए तो मंडी में 41000 क्विंटल पैदावार की डाक हुई, जिसमें से एकमात्र मक्का की आवक 33000 क्विंटल तक रही।अक्टूबर से नवंबर के महीने में अब 14 लाख क्विंटल की आवक दर्ज हुई। इसमें से सिर्फ मक्का की बात करें तो यह 9 लाख क्विंटल मतलब कि 65% प्रतिशत भागीदारी रही। खरीफ सीजन में आज तक मक्का की इतनी आवक कभी दर्ज नहीं हो पाई थी। इस बार सोयाबीन की फसल पर मक्का काफी हावी रहा है।
खरपतवार गन्ने की फसल को काफी प्रभावित कर सकता है

खरपतवार गन्ने की फसल को काफी प्रभावित कर सकता है

गन्ने की बिजाई से पूर्व खरपतवार नियंत्रण को अवश्य ध्यान में रखें। गन्ने की फसल में यदि समय से खरपतवार नियंत्रण किया जाए तो उत्पादन में कमी देखने को मिलती है। उत्पादन 10 से 30 फीसद तक घट सकता है। ऐसे में जानते हैं की खरपतवार पर नियंत्रण कैसे रखें।  भारत में इन दिनों शरदकालीन गन्ने की बिजाई चल रही है। ऐसे वक्त में खरपतवार नियंत्रण भी बेहद महत्वपूर्ण है। क्योंकि, खरपतवार की वजह से गन्ने की फसल को काफी हानि हो सकती है, जो उपज में भी गिरावट ला सकता है। अब ऐसी स्थिति में बिजाई से पूर्व वक्त रहते इस पर काबू कर लेना चाहिए। कृषि वैज्ञानिकों ने बताया है, कि किसानों को नियमित तौर पर खरपतवार नियंत्रण करना चाहिए। जिससे कि उनकी फसल का पूर्ण विकास संभव हो सके। उत्तर प्रदेश गन्ना शोध परिषद के प्रसार अधिकारी डॉक्टर संजीव पाठक का कहना है, कि देश के विभिन्न राज्यों में इन दिनों गन्ने की बिजाई चल रही है। किसान भाई बिजाई से पूर्व खरपतवार नियंत्रण को अवश्य ध्यान में रखें। उन्होंने कहा है, कि गन्ने में चौड़ी एवं सकरी पत्ती के लगभग 45 तरीके के खरपतवार पाए जाते हैं।

इस तरह गन्ने की उपज काफी घटती है 

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि जिन खेतों में ट्रेंच विधि से गन्ने की बिजाई की जाती है। वहां बीच में काफी जगह होने के चलते खरपतवार तीव्रता से बढ़ती है। गन्ने की फसल में यदि वक्त से खरपतवार नियंत्रण किया जाए, तो गन्ने की पैदावार में कमी देखने को मिल सकती है। बतादें, कि उत्पादन 10 से 30 फीसद तक घट सकता है। क्योंकि खरपतवार गन्ने की फसल के साथ-साथ बढ़ते हैं। इस वजह से समय रहते खरपतवार पर काबू करें, जिससे कि आपकी फसल को हानि ना पहुंचे। 

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खरपतवार पर इस तरह काबू करें

डॉ. संजीव पाठक ने कहा है, कि गन्ने की बिजाई के प्रारंभिक तीन माह में खरपतवार नियंत्रण बेहद जरूरी है। खरपतवार नियंत्रण के लिए दो विधियों का उपयोग किया जा सकता है। प्रथम विधि जिसमें रासायनिक तरीके से खरपतवार नाशक दवाओं का छिड़काव कर खरपतवारों को खत्म किया जा सकता है। वहीं, दूसरी विधि यांत्रिक विधि है, जिसमें निराई गुड़ाई करके खरपतवार समाप्त किये जा सकते हैं। निराई-गुड़ाई करने से मृदा में वायु का प्रवाह होता है, जिससे गन्ने की जड़ों का शानदार विकास होता है। बतादें, कि जब जड़ें पूर्ण रूप से विकसित होगी तो मिट्टी में उपस्थित पोषक तत्वों, किसानों द्वारा दिए गए उर्वरक एवं सिंचाई के जल को पौधे शानदार तरीके से ग्रहण करेंगे, जिससे बढ़वार एवं विकास भी अच्छा होगा। अब ऐसे में किसानों को काफी अच्छी उपज मिलेगी। साथ ही, फसल में उगे हुए खरपतवार भी समाप्त हो जाएंगे।

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किसान भाई दवा का छिड़काव इस तरह से करें 

यदि किसी विशेष परिस्थितियों में रासायनिक विधि का उपयोग करना पड़े तो चौड़ी पत्ती एवं सकरी पत्ती वाले खरपतवार की रोकथाम करने के लिए एक साथ 500 ग्राम मेट्रिब्यूजीन 70 प्रतिशत (Metribuzin 70% WP) और 2 4 डी 58 प्रतिशत ढाई लीटर प्रति हेक्टेयर के अनुरूप 1000 लीटर पानी में घोल बनाकर उसका छिड़काव कर दें। इस दौरान सावधानी रखें, कि दवा का छिड़काव गन्ने की दो लाइनों के मध्य की जगह पर खरपतवार पर ही करें। यह प्रयास करें, कि गन्ने के पौधों पर दवा ना गिर पाए। गन्ने के पौधों पर दवा का छिड़काव होने से पौधों की बढ़वार काफी प्रभावित हो सकती है।