Ad

cultivation

जानिए गर्मियों में पशुओं के चारे की समस्या खत्म करने वाली नेपियर घास के बारे में

जानिए गर्मियों में पशुओं के चारे की समस्या खत्म करने वाली नेपियर घास के बारे में

भारत एक कृषि प्रधान देश है। क्योंकि, यहां की अधिकांश आबादी खेती किसानी पर निर्भर है। कृषि को अर्थव्यवस्था का मुख्य स्तंभ माना जाता है। भारत में खेती के साथ-साथ पशुपालन भी बड़े पैमाने पर किया जाता है। विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में जहां खेती के पश्चात पशुपालन दूसरा सबसे बड़ा व्यवसाय है। किसान गाय-भैंस से लेकर भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में तरह-तरह के पशु पालते हैं। 

दरअसल, महंगाई के साथ-साथ पशुओं का चारा भी फिलहाल काफी महंगा हो गया है। ऐसा माना जाता है, कि चारे के तौर पर पशुओं के लिए हरी घास सबसे अच्छा विकल्प होती है। यदि पशुओं को खुराक में हरी घास खिलाई जाए, तो उनका दुग्ध उत्पादन भी बढ़ जाता है। लेकिन, पशुपालकों के सामने समस्या यही है, कि इतनी सारी मात्रा में वे हरी घास का प्रबंध कहां से करें? अब गर्मियों की दस्तक शुरू होने वाली है। इस मौसम में पशुपालकों के सामने पशु चारा एक बड़ी समस्या बनी रहती है। अब ऐसे में पशुपालकों की ये चुनौती हाथी घास आसानी से दूर कर सकती है।

नेपियर घास पशुपालकों की समस्या का समाधान है 

किसानों और पशुपालकों की इसी समस्या का हल ये हाथी घास जिसको नेपियर घास (Nepiyar Grass) भी कहा जाता है। यह एक तरह का पशु चारा है। यह तीव्रता से उगने वाली घास है और इसकी ऊंचाई काफी अधिक होती है। ऊंचाई में ये इंसानों से भी बड़ी होती है। इस वजह से इसको हाथी घास कहा जाता है। पशुओं के लिए यह एक बेहद पौष्टिक चारा है। कृषि विशेषज्ञों द्वारा दी गई जानकारी के मुताबिक, सबसे पहली नेपियर हाईब्रिड घास अफ्रीका में तैयार की गई थी। अब इसके बाद ये बाकी देशों में फैली और आज विभिन्न देशों में इसे उगाया जा रहा है।

ये भी पढ़ें: अब हरे चारे की खेती करने पर मिलेंगे 10 हजार रुपये प्रति एकड़, ऐसे करें आवेदन

नेपियर घास को तेजी से अपना रहे लोग

भारत में यह घास 1912 के तकरीबन पहुंची थी, जब तमिलनाडु के कोयम्बटूर में नेपियर हाइब्रिड घास पैदा हुई। दिल्ली में इसे 1962 में पहली बार तैयार किया गया। इसकी पहली हाइब्रिड किस्म को पूसा जियंत नेपियर नाम दिया गया। वर्षभर में इस घास को 6 से 8 बार काटा जा सकता है और हरे चारे को अर्जित किया जा सकता है। वहीं, यदि इसकी उपज कम हो तो इसे पुनः खोदकर लगा दिया जाता है। पशु चारे के तौर पर इस घास को काफी तीव्रता से उपयोग किया जा रहा है।

नेपियर घास गर्म मौसम का सबसे उत्तम चारा है 

हाइब्रिड नेपियर घास को गर्म मौसम की फसल कहा जाता है, क्योंकि यह गर्मी में तेजी से बढ़ती है। विशेषकर उस वक्त जब तापमान 31 डिग्री के करीब होता है। इस फसल के लिए सबसे उपयुक्त तापमान 31 डिग्री है। परंतु, 15 डिग्री से कम तापमान पर इसकी उपज कम हो सकती है। नेपियर फसल के लिए गर्मियों में धूप और थोड़ी बारिश काफी अच्छी मानी जाती है। 

ये भी पढ़ें: पशुपालन में इन 5 घास का इस्तेमाल करके जल्द ही हो सकते हैं मालामाल

नेपियर घास की खेती के लिए मृदा व सिंचाई 

नेपियर घास का उत्पादन हर तरह की मृदा में आसानी से किया जा सकता है। हालांकि, दोमट मृदा इसके लिए सबसे उपयुक्त मानी जाती है। खेत की तैयारी के लिए एक क्रॉस जुताई हैरो से और फिर एक क्रॉस जुताई कल्टीवेटर से करनी उचित रहती है। इससे खरपतवार पूर्ण रूप से समाप्त हो जाते हैं। इसे अच्छे से लगाने के लिए समुचित दूरी पर मेड़ बनानी चाहिए। इसको तने की कटिंग और जड़ों द्वारा भी लगाया जा सकता है। हालांकि, वर्तमान में ऑनलाइन भी इसके बीज मिलने लगे हैं। खेत में 20-25 दिन तक हल्की सिंचाई करते रहना चाहिए।

अलसी की खेती से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी

अलसी की खेती से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी

अलसी की फसल बहुउद्देशीय फसल होने की वजह भारत भर में आजकल अलसी की मांग अत्यंत बढ़ी है। अलसी बहुमूल्य तिलहन फसल है, जिसका इस्तेमाल विभिन्न उद्योगों के साथ-साथ औषधियां तैयार करने में भी किया जाता है। अलसी के हर एक हिस्से का प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष तौर पर बहुत सारे रूपों में इस्तेमाल किया जा सकता है। अलसी के बीज से निकलने वाला तेल प्रायः सेवन के तौर पर इस्तेमाल में नही लिया जाता है, बल्कि दवाइयाँ बनाने में होता है। इसके तेल का इस्तेमाल वार्निश, पेंट्स स्नेहक निर्मित करने के साथ पैड इंक और प्रेस प्रिंटिंग हेतु स्याही निर्मित करने में इस्तेमाल किया जाता है। इसका बीज फोड़ों फुन्सी में पुल्टिस बनाकर इस्तेमाल किया जाता है। अलसी के तने के माध्यम से उच्च गुणवत्ता वाला रेशा अर्जित किया जाता है। वहीं, रेशे से लिनेन निर्मित किया जाता है। अलसी की खली दूध देने वाले पशुओं के लिये पशु आहार के तौर पर इस्तेमाल की जाती है। साथ ही, खली में बहुत सारे पौध पौषक तत्वों की समुचित मात्रा होने की वजह इसका इस्तेमाल खाद के तौर पर किया जाता है। अलसी के पौधे का काष्ठीय हिस्सा और छोटे-छोटे रेशों का इस्तेमाल कागज निर्मित करने में किया जाता है।

खाद एवं उर्वरक का इस तरह इस्तेमाल करें 

असिंचित इलाकों के लिए शानदार उत्पादन हांसिल करने हेतु नत्रजन 50 किग्रा. फास्फोरस 40 किग्रा. और 40 किग्रा. पोटाश की दर से और सिंचित क्षेत्रों में 100 किग्रा. नत्रजन, 60 किग्रा. फास्फोरस एवं 40 किग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें। असिंचित दशा में नत्रजन फास्फोरस और पोटाश की संपूर्ण मात्रा तथा सिंचित दशा में नत्रजन की आधी मात्रा फास्फोरस की भरपूर मात्रा बिजाई के समय चोगें द्वारा 2-3 सेमी. नीचे इस्तेमाल करें। वहीं, सिंचित दशा में नत्रजन की शेष आधी मात्रा आप ड्रेसिंग के तौर पर प्रथम सिंचाई के पश्चात उपयोग करें। फास्फोरस के लिए सुपर फास्फेट का इस्तेमाल ज्यादा लाभप्रद है।

ये भी पढ़ें:
अलसी की खेती से संबंधित विस्तृत जानकारी

अलसी की खेती में इस प्रकार सिंचाई करें 

यह फसल मूलतः असिंचित रूप में बोई जाती है। लेकिन, जहाँ सिंचाई का साधन मौजूद है, वहाँ दो सिंचाई पहली फूल आने पर तथा दूसरी दाना बनते वक्त करने से उत्पादन में वृद्धि होती है। 

अलसी में खतपतवार नियंत्रण इस तरह करें 

मुख्य रूप से अलसी में कुष्णनील, हिरनखुरी, चटरी-मटरी, अकरा-अकरी, जंगली गाजर, प्याजी, खरतुआ, सत्यानाशी, बथुआ और सेंजी इत्यादि प्रकार के खरपतवार देखे गए हैं, इन खरपतवारों के नियंत्रण के लिए किसान यह उपाय करें। 

ये भी पढ़ें:
अलसी की खेती से भाग जाएगा आर्थिक आलस

नियंत्रण हेतु इस प्रकार उपचार करें  

प्रबंधन के लिए बिजाई के 20 से 25 दिन पश्चात पहली निदाई-गुड़ाई एवं 40-45 दिन बाद दूसरी निदाई-गुड़ाई करनी चाहिए। अलसी की फसल में रासायनिक विधि से खरपतवार प्रबंधन के लिए पेंडीमेथलीन 30 फीसद .सी. की 3.30 लीटर प्रति हेक्टेयर 800-1000 लीटर पानी में घोलकर फ्लैट फैन नाजिल से बिजाई के 2-3 दिन के समयांतराल में समान रूप से स्प्रे करें। 
गेहूं व जौ की फसल को चेपा (अल) से इस प्रकार बचाऐं

गेहूं व जौ की फसल को चेपा (अल) से इस प्रकार बचाऐं

हरियाणा कृषि विभाग की तरफ से गेहूं और जौ की फसल में लगने वाले चेपा कीट से जुड़ी आवश्यक सूचना जारी की है। इस कीट के बच्चे व प्रौढ़ पत्तों से रस चूसकर पौधों को काफी कमजोर कर देते हैं। साथ ही, उसके विकास को प्रतिबाधित कर देते हैं। भारत के कृषकों के द्वारा गेहूं व जौ की फसल/ Wheat and Barley Crops को सबसे ज्यादा किया जाता है। क्योंकि, यह दोनों ही फसलें विश्वभर में बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होने वाली साबुत अनाज फसलें हैं।

गेहूं व जौ की खेती राजस्थान, मध्यप्रदेश, बिहार, हिमाचल प्रदेश, गुजरात, उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और जम्मू-कश्मीर में विशेष रूप से की जाती है। किसान अपनी फसल से शानदार उत्पादन हांसिल करने के लिए विभिन्न प्रकार के कार्यों को करते हैं। यदि देखा जाए तो गेहूं व जौ की फसल में विभिन्न प्रकार के रोग व कीट लगने की संभावना काफी ज्यादा होती है। वास्तविकता में गेहूं व जौ में चेपा (अल) का आक्रमण ज्यादा देखा गया है। चेपा फसल को पूर्ण रूप से  खत्म कर सकता है।

गेहूं व जौ की फसल को चेपा (अल) से बचाने की प्रक्रिया

गेहूं व जौ की फसलों में चेपा (अल) का आक्रमण होने पर इस कीट के बच्चे व प्रौढ़ पत्तों से रस चूसकर पौधों को कमजोर कर देते हैं. इसके नियंत्रण के लिए 500 मि.ली. मैलाथियान 50 ई. सी. को 200 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ फसल पर छिड़काव करें. किसान चाहे तो इस कीट से अपनी फसल को सुरक्षित रखने के लिए अपने नजदीकी कृषि विभाग के अधिकारियों से भी संपर्क कर सकते हैं।

ये भी पढ़ें: गेहूं की फसल में लगने वाले प्रमुख रतुआ रोग

चेपा (अल) से आप क्या समझते हैं और ये कैसा होता है ?

चेपा एक प्रकार का कीट होता है, जो गेहूं व जौ की फसल पर प्रत्यक्ष तौर पर आक्रमण करता है। यदि यह कीट एक बार पौधे में लग जाता है, तो यह पौधे के रस को आहिस्ते-आहिस्ते चूसकर उसको काफी ज्यादा कमजोर कर देता है। इसकी वजह से पौधे का सही ढ़ंग से विकास नहीं हो पाता है।

अगर देखा जाए तो चेपा कीट फसल में नवंबर से फरवरी माह के मध्य अधिकांश देखने को मिलता है। यह कीट सर्व प्रथम फसल के सबसे नाजुक व कमजोर भागों को अपनी चपेट में लेता है। फिर धीरे-धीरे पूरी फसल के अंदर फैल जाता है। चेपा कीट मच्छर की भाँति नजर आता है, यह दिखने में पीले, भूरे या फिर काले रंग के कीड़े की भाँति ही होता है।

जाने काजू की खेती की सम्पूर्ण जानकारी

जाने काजू की खेती की सम्पूर्ण जानकारी

काजू भारत का एक लोकप्रिय नट है। काजू  लगभग एक इंच मोटा होता ह।  काजू एक प्रकार का पेड़ होता है ,जिसका उपयोग सूखे मेवे के रूप में किया जाता है। काजू दो परतो के साथ एक शेल के अंदर घिरा हुआ होता है ,और यह शेल चिकना और तैलीय होता है। काजू का उत्पादन भारत जैसे देश के कई राज्यों में किया जाता है। जैसे : पश्चिम बंगाल , तमिल नाडू , केरला , उड़ीसा, महाराष्ट्र और गोवा।

कब और कैसे करें काजू की खेती 

काजू की खेती किसानों द्वारा अप्रैल और मई माह में की जाती है। किसानों द्वारा काजू की खेती के लिए सबसे पहले भूमि को तैयार किया जाता है। इसमें भूमि पर होने वाले अनावश्यक पौधे और झाड़ियों को उखाड़ दिया जाता है। इसके बाद खेत में 3 -4  बार जुताई की जाती है , जुताई की जाने के बाद खेत को पाटा लगाकर समतल बनाया जाता है। उसके बाद भूमि को अधिक उपजाऊ बनाने के बाद किसानों द्वारा गोबर खाद का भी प्रयोग किया जाता है। आवश्यकतानुसार , किसानों द्वारा खेत में गोबर की खाद डालकर , खेत की अच्छे से जुताई की जाती है।

कैसे करें बुवाई 

किसानों द्वारा काजू के पौधे की बुवाई के लिए खेत में 15 -20  से मी की दूरी पर खेत में गढ्डे बनाये जाते है। गड्डो को कम से कम 15  -20 दिनों के लिए खाली छोड़ दिया जाता है। उसके बाद गड्डो में डीएपी और गोबर की खाद को ऊपरी मिट्टी में मिलाकर अच्छे से भर दिया जाता है। ध्यान रखे गड्डो के पास की भूमि ऐसी न हो जहाँ  पानी भरने की समस्या उत्पन्न हो , उससे काजू के पौधे पर काफी प्रभाव पड सकता है। 

ये भी पढ़ें: इस ड्राई फ्रूट की खेती से किसान कुछ समय में ही अच्छी आमदनी कर सकते हैं

काजू के पौधो को वैसे वर्षा काल में लगाना ही बेहतर माना जाता है। बुवाई के बाद खेत में होने वाली खरपतवार को रोकने के लिए किसानों द्वारा समय समय नराई और गुड़ाई का काम किया जाता है। 

काजू की उन्नत किस्में

काजू की विभिन्न किस्में इस प्रकार है , जिनका उत्पादन किसानों द्वारा किया जा सकता है। वेगुरला-4 , उल्लाल -2 , उल्लाल -4 , बी पी पी -1 , बी पी पी -2 , टी -40 यह सब काजू की प्रमुख किस्में है, जिनका उत्पादन कर किसान ज्यादा मुनाफा कमा सकता है।  इन किस्मो का ज्यादातर उत्पादन मध्य प्रदेश , केरला , बंगाल , उड़ीसा और कर्नाटकजैसे राज्यों में किया जाता है।

काजू की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु और मृदा 

काजू की खेती के लिए वैसे सभी प्रकार की मिट्टी में की जा सकती है। काजू का ज्यादातर उत्पादन वर्षा वाले क्षेत्रों में किया जाता है , इसीलिए काजू की खेती के लिए समुद्र तटीय ,लाल और लेटराइट मिट्टी को बेहतर माना गया है। काजू का मुख़्यत उत्पादन झारखंड राज्य में किया जाता है ,क्योकि यहां की मृदा और जलवायु को काजू की खेती के लिए उपयुक्त माना जाता है।  काजू को उष्णकटिबंधीय फसल माना जाता है , इसीलिए ,इसके उत्पादन के लिए गर्म और उष्ण जलवायु के आवश्यकता होती है।

काजू की खेती में उपयुक्त खाद एवं उर्वरक 

काजू की खेती के अधिक उत्पादन के लिए किसान गोबर खाद के साथ साथ यूरिया , पोटाश और फास्फेट का  उपयोग कर सकते है। पहले वर्ष में किसानों द्वारा 70  ग्राम फॉस्फेट, 200 ग्राम यूरिया और 300 ग्राम यूरिया का प्रयोग किया जाता है।  कुछ समय बाद , फसल के बढ़वार के साथ इसकी मात्रा दुगनी कर देनी चाहिए।  किसानों द्वारा समय पर कीट और खरपतवार की समस्या को भी खेत में देखते रहना चाहिए।

ये भी पढ़ें: ओडिशा से काजू की पहली खेप बांग्लादेश को APEDA के सहयोग से निर्यात की गई

काजू के अच्छे उत्पादन के लिए किसानों को समय समय पर पेड़ों की काँट-छाँट करते रहना चाहिए। यह सब काजू के पेड़ को अच्छा ढाँचा देने के लिए आवश्यक है। किसानों द्वारा काजू के पेड़ों की जाँच करते रहना चाहिए , और समय समय पर पेड़ में सूखने वाली टहनियों या रोगग्रस्त टहनियों को निकाल दिया जाना चाहिए। काजू की फसल में लगने वाले बहुत से कीट ऐसे होते है , जो काजू के पेड़ में आने वाली नयी कोपलों और पत्तियों  का रस चूसकर पौधे को झुलसा देती है।

काजू की फसल की तुड़ाई कब की जाती है 

काजू की फसल लगभग फेब्रुअरी से अप्रैल माह तक तैयार होती है। काजू की पूरी  फसल की तुड़ाई नहीं की जाती है , केवल गिरे हुए नट को ही इकट्ठा किया जाता है। नट को इकट्ठा करने के बाद , उन्हें धुप में अच्छे से सुखाया जाता है। धुप में अच्छे से सुखाने के बाद किसानो द्वारा उन्हें जूट के बोरों में भर दिया जाता है। इन बोरों को किसी ऊँचे स्थान पर रखा जाता है , ताकि फसल को नमी से दूर रखा जा सके।

काजू का वानस्पातिक नाम अनाकार्डियम ऑक्सिडेंटले एल है।  काजू में पोषक तत्व के साथ बहुत से न्यूट्रिशनल गुण भी पाए जाते है। जो की स्वास्थ्य के लिए बेहद लाभकारी होते है।  काजू का उपयोग दिमाग की कार्यक्षमता को बढ़ाने के लिए भी किया जाता है।  जिन व्यक्तियों को हड्डियों , मधुमेह और हीमोग्लोबिन से जुडी समस्याएं है , उनमे भी काजू लाभकारी सिद्ध  हुआ है।

काजू की अब तक 33 किस्मो की पहचान की गयी है , लेकिन सिर्फ 26  प्रकार की ही किस्मो को बाजार में बेचा जाता है। जिनमे से डब्ल्यू -180 की किस्म को "काजू का राजा "माना जाता है , क्योंकि इसमें बहुत से बायोएक्टिव कम्पाउंड पाए जाते है ,जो हमारे शरीर में होने वाले रक्त की कमी को पूरा करते है , कैंसर जैसी बीमारियों से लड़ने में सहायक रहते है , शरीर में होने वाले दर्द और सूजन में लाभकारी होता है।

अरबी की खेती की सम्पूर्ण जानकारी

अरबी की खेती की सम्पूर्ण जानकारी

अरबी गर्मी की फसल है, इसका उत्पादन गर्मी और वर्षा ऋतू में किया जाता है। अरबी की तासीर ठंडी रहती है। इसे अलग अलग नामों से जाना जाता है जैसे अरुई , घुइया , कच्चु और घुय्या आदि है।

यह फसल बहुत ही प्राचीन काल से उगाई जा रही है। अरबी का वानस्पातिक नाम कोलोकेसिया एस्कुलेंटा है। अरबी प्रसिद्ध और सबसे परिचित वनस्पति है, इसे हर कोई जानता है। सब्जी के अलावा इसका उपयोग औषिधीय में भी किया जाता है।  

अरबी का पौधा सदाबहार साथ ही शाकाहारी भी है। अरबी का पौधा 3 -4 लम्बा होता है , इसकी पत्तियां भी चौड़ी होती है। अरबी सब्जी का पौधा है, जिसकी जड़ें और पत्तियां दोनों ही खाने योग्य रहती है। 

इसके पत्ते हल्के हरे रंग के होते है, उनका आकर दिल के भाँती दिखाई पड़ता है। 

अरबी की खेती के लिए उपयुक्त मिट्टी

अरबी की खेती के लिए जैविक तत्वों से भरपूर मिट्टी की  जरुरत रहती है। इसीलिए इसके लिए रेतीली और दोमट मिट्टी को बेहतर माना जाता है। 

ये भी पढ़ें: अरबी की बुवाई का मौसम : फरवरी-मार्च और जून-जुलाई, सम्पूर्ण जानकारी

इसकी खेती के लिए भूमि का पी एच मान 5 -7 के बीच में होना चाहिए। साथ ही इसकी उपज के लिए बेहतर जल निकासी  वाली भूमि की आवश्यकता पड़ती है। 

अरबी की उन्नत किस्में 

अरबी की कुछ उन्नत किस्में इस प्रकार है, जो किसानों को मुनाफा दिला सकती है। सफ़ेद गौरिया, पंचमुखी, सहस्रमुखी, सी -9, श्री पल्लवी, श्री किरन, श्री रश्मी आदि प्रमुख किस्में है, जिनका उत्पादन कर किसान लाभ उठा सकता है। 

अरबी -1 यह किस्म छत्तीसगढ़ के किसानों के लिए अनुमोदित की गयी है, इसके अलावा नरेंद्र - 1 भी अरबी की अच्छी किस्म है। 

अरबी की खेती का सही समय 

किसान साल भर में अरबी की फसल से दो बार मुनाफा कमा सकते है। यानी साल में दो बार अरबी की फसल उगाई जा सकती है एक तो रबी सीजन में और दूसरी खरीफ के सीजन में। 

रबी के सीजन में अरबी की फसल को अक्टूबर माह में बोया जाता है और यह फसल अप्रैल से मई माह के बीच में पककर तैयार हो जाती है। 

यही खरीफ के सीजन में अरबी की फसल को जुलाई माह में बोया जाता है, जो दिसंबर और जनवरी माह में तैयार हो जाती है। 

उपयुक्त वातावरण और तापमान 

जैसा की आपको बताया गया अरबी गर्मी की फसल है। अरबी की फसल को सर्दी और गर्मी दोनों में उगाया जा सकता है। लेकिन अरबी की फसल के पैदावार के लिए गर्मी और बारिश के मौसम को बेहतर माना जाता है। 

इन्ही मौसम में अरबी की फसल अच्छे से विकास करती है। लेकिन गर्मी में पड़ने वाला अधिक तापमान भी फसल को नष्ट कर सकता है साथ ही सर्दियों के मौसम में पड़ने वाला पाला भी अरबी की फसल के विकास को रोक सकता है। 

अरबी की खेती के लिए कैसे करें खेत को तैयार ?

अरबी की खेती के लिए अच्छे जलनिकास वाली और दोमट मिट्टी की आवश्यकता रहती है। खेत में जुताई करने के 15 -20 दिन पहले खेत में 200 -250 क्विंटल खाद को डाल दे।

ये भी पढ़ें: खरीफ सीजन क्या होता है, इसकी प्रमुख फसलें कौन-कौन सी होती हैं

उसके बाद खेत में 3 -4 बार जुताई करें , ताकि खाद अच्छे से खेत में मिल जाए। अरबी की बुवाई का काम किसानों द्वारा दो तरीको से किया जाता है।  पहला मेढ़ बनाकर और दूसरा क्वारियाँ बनाकर। 

खेत को तैयार करने के बाद किसानों द्वारा खेत में 45 से.मी की दूरी पर मेढ़ बना दी जाती है।  वही क्यारियों में बुवाई करने के लिए पहले खेत को पाटा लगाकर समतल बनाया जाता है। 

उसके बाद 0.5 से.मी की गहरायी पर इसके कंद की बुवाई कर दी जाती है। 

बीज की मात्रा 

अरबी की बुवाई कंद से की जाती है , इसीलिए प्रति हेक्टेयर में कंद की 8 -9 किलोग्राम मात्रा की जरुरत पड़ती है। अरबी की बुवाई से पहले कंद को पहले मैंकोजेब 75 % डब्ल्यू पी 1 ग्राम को पानी में मिलाकर 10 मिनट तक रख कर बीज उपचार करना चाहिए। 

बुवाई के वक्त क्यारियों के बीच की दूरी 45 से.मी और पौधो की दूरी 30 से.मी और कंद की बुवाई 0.5 से.मी की गहराई में की जाती है।  

अरबी की खेती के लिए उपयुक्त खाद एवं उर्वरक 

अरबी की खेती करते वक्त ज्यादातर किसान गोबर खाद का प्रयोग करते है ,जो की फसल की उत्पादकता के लिए बेहद फायदेमंद रहता है।  लेकिन किसानों द्वारा अरबी की फसल के विकास लिए उर्वरको का उपयोग किया जाता है। 

किसान रासायनिक उर्वरक फॉस्फोरस 50 किलोग्राम , नत्रजन 90 -100 किलोग्राम और पोटाश 100 किलोग्राम का उपयोग करें, इसकी आधी मात्रा को खेत की बुवाई करते वक्त और आधी मात्रा को बुवाई के एक माह बाद डाले। 

ये भी पढ़ें: कृषि वैज्ञानिकों की जायद सब्जियों की बुवाई को लेकर सलाह

ऐसा करने से फसल में वृद्धि होगी और उत्पादन भी ज्यादा होगा। 

अरबी की फसल में सिंचाई 

अरबी की फसल यदि गर्मी के मौसम बोई गयी है ,तो उसे ज्यादा पानी आवश्यकता पड़ेगी। गर्मी के मौसम में अरबी की फसल को लगातार 7 -8  दिन लगातार पानी देनी की जरुरत रहती है। 

यदि यही अरबी की फसल बारिश के मौसम में की गयी है ,तो उसे कम पानी की जरुरत पड़ती है। अधिक सिंचाई करने पर फसल के खराब होने की भी संभावनाएं रहती है। 

सर्दियों के मौसम में भी अरबी को कम पानी की जरुरत पड़ती है। इसकी हल्की  सिंचाई  15 -20 के अंतराल पर की जाती है।  

अरबी की फसल की खुदाई 

अरबी की फसल की खुदाई उसकी किस्मों के अनुसार होती है , वैसे अरबी की फसल लगभग 130 -140  दिन में पककर तैयार हो जाती है। जब अरबी की फसल अच्छे से पक जाए उसकी तभी खुदाई करनी चाहिए।

अरबी की बहुत सी किस्में है जो अच्छी उपज होने पर प्रति हेक्टेयर में 150 -180 क्विंटल की पैदावार देती है।  बाजार में अरबी की कीमत अच्छी खासी रहती है। 

अरबी की खेती कर किसान प्रति एकड़ में 1.5 से 2 लाख रुपए की कमाई कर सकता है। 

अरबी की खेती कर किसान अच्छा मुनाफा कमा सकती है।  साथ ही कीट और रोगों से दूर रखने के लिए किसान रासायनिक उर्वरको का भी उपयोग कर सकते है।

साथ ही फसल में खरपतवार जैसी समस्याओ को भी नियंत्रित करने के लिए समय समय पर गुड़ाई और नराई का भी काम करना चाहिए। 

इससे फसल अच्छी और ज्यादा होती है, ज्यादा उत्पादन के लिए किसान फसल चक्र को भी अपना सकता है। 

सरसों के कीट और उनसे फसल सुरक्षा 

सरसों के कीट और उनसे फसल सुरक्षा 

सरसों बेहद कम पानी व लागत में उगाई जाने वाली फसल है। इसकी खेती को बढ़ावा देकर किसान अपनी माली हालत में सुधार कर सकते हैं। इसके अलावा विदेशों से मंगाए जाने वाले खाद्य तेलों के आयात में भी कमी आएगी। राई-सरसों की फसल में 50 से अधिक कीट पाए जाते हैं लेकिन इनमें से एक दर्जन ही ज्यादा नुकसान करते हैं। सरसों का माँहू या चेंपा प्रमुख कीट है एवं अकेला कीट ही 10 से 95 प्रतिशत तक नुकसान पहुॅचा सकता है । अतः किसान भाइयों को सरसों को इन कीटों के नियंत्रण पर विशेष ध्यान देना चाहिए।

 

चितकबरा कीट या पेन्टेड बग

  keet 

 इस अवस्था में नुकसान पहुॅचाने वाला यह प्रमुख कीट है । यह एक सुन्दर सा दिखने वाला काला भूरा कीट है जिस पर कि नारंगी रंग के धब्बे होते हैं। यह करीब 4 मिमी लम्बा होता है । इसके व्यस्क व बच्चे दोनों ही समूह में एकत्रित होकर पोधो से रस चूसते हैं जिससे कि पौधा कमजोर होकर मर जाता है। अंकुरण से एक सप्ताह के भीतर अगर इनका आक्रमण होता है तो पूरी फसल चैपट हो जाती है। यह कीट सितम्बर से नवम्बर तक सक्रिय रहता है । दोबारा यह कीट फरवरी के अन्त में या मार्च के प्रथम सप्ताह में दिखाई देता है और यह पकती फसल की फलियों से रस चूसता है । जिससे काफी नुकसान होता है । इस कीट द्वेारा किया जाने वाला पैदावार में नुकसान 30 प्रतिशत तथा तेल की मात्रा में 3-4 प्रतिशत आंका गया है ।

 

ये भी पढ़े: सरसों की फसल के रोग और उनकी रोकथाम के उपाय


नियंत्रणः जहा  तक सम्भव हो 3-4 सप्ताह की फसल में पानी दे देवें । कम प्रकोप की अवस्था में क्यूनालफास 1.5 प्रतिशत धूल का 20-25 किग्रा प्रति हैक्टेयर की दर से भुरकाव करें ।अधिक प्रकोप की अवस्था में मैलाथियान 50 ई.सी. 500 मि.ली. दवा को 500 ली. पानी में मिलाकर छिड़कें ।फसल को सुनहरी अवस्था मे कटाई करें व जल्दी से जल्दी मड़ाई कर लेवंे।

 

आरा मक्खी

  makhi 

 इस कीट की सॅंूड़ी ही फसल को नुकसान पहुचाती है जिसका कि सिर काला व पीठ पर पतली काली धारिया होती है। यह कीट अक्तूबर में दिखाई देता है व नबम्बर  से दिसम्बर तक काफी नुकसान करता है । यह करीब 32 प्रतिशत तक नुकसान करता है । अधिक नुकसान में खेत ऐसा लगता है कि जानवरों ने खा लिया हो ।


 

ये भी पढ़े: विभिन्न परिस्थितियों के लिए सरसों की उन्नत किस्में


नियंत्रणः खेत में पानी देने से सूंडिंया पानी में डूब कर मर जाती हैं ।अधिक प्रकोप की अवस्था में मैलाथियान 50 ई.सी. 500 मि.ली. दवा को 500 ली. पानी में मिलाकर  छिड़कें ।

 

बिहार हेयरी केटरपिलर

  caterpillar 

 इस कीट की सूंड़िया ही फसल को नुकसान पहुंचाती हैं । छोटी सॅंड़ी समूह में रहकर नुकसान पहुचाती है जबकि बडी सूंडी जो करीब 40-50 मि.मी. बडी हो जाती है तथा उसके ऊपर धने, लम्बे नांरगी से कत्थई रंग के बाल आ जाते हैं। यह खेत में घूम-घूम कर नुकसान करती है|यह पत्तियों को अत्यधिक मात्रा में खाती है । यह एक दिन में अपने शरीर के वजन से अधिक पत्तियां खा सकती है जिससे फसल नष्ट हो जाती है और फसल दोबारा बोनी पड़ सकती है । 

नियंत्रणः छोटी सूंडियों के  समूह को पत्ती सहित तोड़कर 5 प्रतिशत केरोसिन तेल के घोल में डालकर नष्ट कर दें ।अधिक प्रकोप की अवस्था में मैलाथियान 50 ई.सी. 1 लीटर प्रति हैक्टेयर की दर से 500 ली. पानी में  मिलाकर छिड़कें ।


 

फूल निकलने से फसल पकने तक लगने वाले कीट रोग

  sarso fool 

सरसों का चेंपा या मांहूः यह राई-सरसों का सबसे मुख्य कीट है । यह काफी छोटा 1-2 मि.मी.  लम्बा,पीला हरा रंग का चूसक कीड़ा है। यह पौधे की पत्ती, फूल, तना व फलियों से रस चूसता है, जिससे पौधा कमजोर होकर सूख जाता है । इनकी बढ़वार बहुत तेजी से होती है। यह कीट मधु का श्राव करते हैं जिससे पोैधे पर काली फफूॅद पनप जाती है । यह कीट कम तापमान और ज्यादा आर्द्रता होने पर ज्यादा बढता है। इसलिए जनवरी के अंत तथा फरवरी में इस कीट का प्रकोप अधिक रहता है । यह कीट फसल को 10 से 95 प्रतिशत तक नुकसान पहुंचा सकता है । सरसों में तेल की मात्रा में भी 10 प्रतिशत तक की कमी हो सकती है ।


ये भी पढ़े: जानिए सरसों की बुआई के बाद फसल की कैसे करें देखभाल

नियंत्रणः चेंपा खेत के बाहरी पौधों पर पहले आता है। अतः उन पौधों की संक्रमित टहनियों को तोड़कर नष्ट कर देवें। जब कम से कम 10 प्रतिशत पौधों पर 25-26 चेंपा प्रति पौधा दिखाई देवंे तभी मोनोक्रोटोफास 36 एस.एल. या डाइमैथोएट 30 ई.सी. दवा को 1 लीटर प्रति हैक्टेयर की दर से 600-800 ली. पानी में मिलाकर छिड़काव करें । यदि दोबारा कीड़ों की संख्या बढ़ती है तो दोबारा छिड़काव करें। 

मटर का पर्णखनक -इस कीट की सॅंूडी़ छोटी व गंदे मटमेले रंग की होती है । पूरी बड़ी सॅंडी़ 3 मि.मी. लम्बी हल्के हरे रंग की होती हेै । यह पत्ती की दोनों पर्तों के बीच घुसकर खाती है और चमकीली लहरियेदार सुरंग बना देती है जिसे दूर से भी देखा जा सकता है । यह कीट 5-15 प्रतिशत तक नुकसान करता है । 

नियंत्रणः चेंपा के नियंत्रण करने से ही इस कीट का नियंत्रण हो जाता है ।

सरसों की खेती (Mustard Cultivation): कम लागत में अच्छी आय

सरसों की खेती (Mustard Cultivation): कम लागत में अच्छी आय

सरसों की खेती में किसान को कम लागत में अच्छी आय हो जाती है और इसमें ज्यादा लागत भी नहीं आती है सबसे बड़ी बात जहाँ पानी की कमी हो वहां इसका उत्पादन किया जा सकता है। इसके खेत को किसान दूसरी फसलों के लिए भी प्रयोग में ला सकता है. सरसों की फसल को दूसरी फसलों के साथ भी किया जा सकता है.इसको दूसरी फसलों के मेढ़ों पर लगा दिया जाता है इससे भी अच्छी पैदावार मिल सकती है.जैसे चने के खेत की मेंढ़, बरसीम की मेंढ़, गेंहूं की मेंढ़, मटर आदि की मेंढ़ पर भी लगाया जा सकता है। इसको जब किसी दूसरी फसल के साथ किया जाता है तो इसको बोलते हैं की सरसों की आड़ लगा दी है. इससे सरसों के पेड़ों की दूरी की वजह से सरसों की क्वालिटी भी बहुत अच्छी होती है और इनमे तेल भी अच्छा मिलता है।

सरसों की खेती के लिए खेत की तैयारी:

mustard Farming सरसों के खेत की तैयारी करते समय याद रखें की इसकी खेत में घास न होने पाए और हर बारिश के बाद खेत की जुताई कर देनी चाहिए जिससे की सरसों में पानी देने की जरूरत नहीं पड़ती या फिर कम पानी की जरूरत होती है। सरसों के खेत की जुताई गहरी होनी चाहिए तथा इसकी मिटटी भुरभुरी होनी चाहिए। सरसों की जड़ें गहरी जाती हैं इसलिए इसको गहरी जुताई की आवश्यकता होती है। याद रहे की इसकी खेती समतल खेत में ज्यादा सही होती है इसको ज्यादा पानी की आवश्यकता नहीं होती है तो इसके खेत में पानी नहीं भरना चाहिए नहीं तो इसकी फसल के गलने की समस्या हो जाती है।

सरसों की खेती के लिए बुवाई का समय:

mustard ki kheti सरसों की बुवाई दो समय पर की जा सकती है जो अगस्त से लेकर अक्टूबर तक की जाती है. राई सरसों को अगस्त के अंतिम सप्ताह या सितम्बर के पहले सप्ताह में लगा देना चाहिए। पीली सरसों को सितम्बर में लगा देना चाहिए तथा सामान्य सरसों या काली सरसों को 15 अक्टूबर से पहले बो देना चाहिए। ध्यान रहे की खेत में में पर्याप्त नमी होनी चाहिए जिससे की पौधे को पनपने में आसानी हो।

सरसों की खेती के लिए खाद और उर्वरक

mustard ki kheti उर्वरकों का प्रयोग मिट्‌टी परीक्षण के आधार पर किया जाना चाहिए, इसके लिए हमें अपने खेत की मिट्‌टी की जाँच करा लेनी चाहिए जिससे की हमें पता रहता है की हमारी फसल के लिए किन-किन आवश्यक पोषक तत्वों की जरूरत है इससे हमारी लागत में भी कमी आती है और फसल को भी भरपूर मात्रा में पोषक तत्व मिलते हैं। लेकिन फिर भी हम निम्न प्रकार से खाद और पोषक तत्व दे सकते हैं, सिचांई वाले क्षेत्रों मे नाइट्रोजन 120 किलोग्राम, फास्फेट 60 किलोग्राम एवं पोटाश 60 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करने से अच्छी उपज प्राप्त होती है। फास्फोरस का प्रयोग सिंगिल सुपर फास्फेट के रूप में अधिक लाभदायक होता है। क्योकि इससे सल्फर की उपलब्धता भी हो जाती है, यदि सिंगल सुपर फास्फेट का प्रयोग न किया जाए तों गंधक की उपलब्धता की सुनिश्चित करने के लिए 40 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से गंधक का प्रयोग करना चाहियें| साथ में आखरी जुताई के समय 15 से 20 टन गोबर की खाद या कम्पोस्ट का प्रयोग लाभकारी रहता है। असिंचित क्षेत्रों में उपयुक्त उर्वरकों की आधी मात्रा बेसल ड्रेसिग के रूप में प्रयोग की जानी चाहिए| यदि डी ए पी का प्रयोग किया जाता है, तो इसके साथ बुवाई के समय 200 किलोग्राम जिप्सम प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना फसल के लिये लाभदायक होता है तथा अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए 80 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से सड़ी हुई गोबर की खाद का प्रयोग बुवाई से पहले करना चाहियें. सिंचाई वाले क्षेत्रों में नाइट्रोजन की आधी मात्रा व फास्फेट एवं पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई के समय कूंड़ो में बीज के 2 से 3 सेंटीमीटर नीचे नाई या चोगों से दी जानी चाहिए।  नाइट्रोजन की शेष मात्रा पहली सिंचाई (बुवाई के 25 से 30 दिन) के बाद टापड्रेसिंग में डाली जानी चाहिए। ऊपर दी गई जानकारी क्षेत्र एवं मिटटी के अनुसार कम या ज्यादा भी हो सकती है।

सरसों की प्रजातियां:

mustard ki kheti 2018 तक एआईसीआरपी- आरएम की छतरी के तहत, रेपसीड-सरसों की कुल 248 किस्में जारी की गई हैं, इनमें से 185 किस्मों को अधिसूचित किया गया है (भारतीय सरसों-113; टोरिया -25; पीली सरसों -17; गोभी सरसों -11) भूरा सरसों -5; करन राई -5; तारामिरा -8 और काली सरसों -1)। इनमें छह संकर और जैविक (सफेद जंग, अल्टरनेरिया ब्लाइट, पाउडर फफूंदी) और अजैविक तनाव (लवणता, उच्च तापमान) के लिए सहिष्णुता वाले किस्में और विशिष्ट लक्षणों को विशिष्ट बढ़ती परिस्थितियों के लिए अनुशंसित किया गया है।

ICAR-DRMR द्वारा विकसित रेपसीड-मस्टर्ड वैरायटी

पहला सीएमएस आधारित हाइब्रिड (NRCHB 506) और भारतीय सरसों की 05 किस्में (NRCDR 02, NRCDR 601, NRCHB 101, DRMRI 31 और DRMR150-35) और एक किस्म की पीली सरसों (NRCYS 05-02) DRMR द्वारा विकसित की गई है।

NRCDR 2 (भारतीय सरसों)

पहचान का वर्ष: 2006 अधिसूचना का वर्ष: - 2006/2007 अधिसूचना संख्या: 122 (ई) अधिसूचना की तारीख: 06/02/2007 केंद्र / राज्य: केंद्रीय जोन के लिए अनुशंसित: II (दिल्ली, हरियाणा, J & K, पंजाब और राजस्थान) कृषि पारिस्थितिक स्थिति: समय पर सिंचित स्थितियों की बुवाई। पौधे की ऊंचाई: 165- 212 सेमी औसत बीज की उपज: 1951-2626 किग्रा / हे तेल सामग्री: 36.5- 42.5% बीज का आकार: 3.5-5.6 ग्रा परिपक्वता के दिन: 131-156 दिन बोने के समय लवणता और उच्च तापमान के लिए सहिष्णु है। सफेद जंग की कम घटना, अल्टरनेरिया ब्लाइट, स्क्लेरोटिनिया स्टेम रोट, पाउडर फफूंदी और एफिड्स।

NRCHB-506 हाइब्रिड (भारतीय सरसों)

पहचान का वर्ष: 2008 अधिसूचना का वर्ष: - २०० of / २०० ९ अधिसूचना संख्या: 454 (E) अधिसूचना की तारीख: 11/02/2009 केंद्र / राज्य: केंद्रीय जोन के लिए अनुशंसित: III (राजस्थान और उत्तर प्रदेश) कृषि पारिस्थितिक स्थिति: अत्यधिक अनुकूलन पौधे की ऊंचाई: 180- 205 सेमी औसत बीज की उपज: 1550-2542 किग्रा / हे तेल सामग्री: 38.6- 42.5% बीज का आकार: 2.9-6.5 ग्राम परिपक्वता के दिन: 127-148 दिन टिप्पणी: उच्च तेल सामग्री

NRCDR 601 (भारतीय सरसों)

पहचान का वर्ष: 2009 अधिसूचना का वर्ष: - 2009/2010 अधिसूचना संख्या: 733 (ई) अधिसूचना दिनांक: 01/04/2010 केंद्र / राज्य: केंद्रीय जोन के लिए अनुशंसित: II (दिल्ली, हरियाणा, J & K, पंजाब और राजस्थान) कृषि पारिस्थितिक स्थिति: समय पर सिंचित स्थितियों की बुवाई। पौधे की ऊंचाई: 161- 210 सेमी औसत बीज की उपज: 1939-2626 किग्रा / हे तेल सामग्री: 38.7- 41.6% बीज का आकार: 4.2-4.9 ग्राम परिपक्वता के दिन: 137-151 दिन टिप्पणी: बुवाई के समय खारेपन और उच्च तापमान पर सहिष्णु। सफेद जंग की कम घटना, (हरिण सिर), अल्टरनेरिया ब्लाइट और स्क्लेरोटेनिया सड़ांध।

NRCHB 101 (भारतीय सरसों)

पहचान का वर्ष: 2008 अधिसूचना का वर्ष: - २०० of / २०० ९ अधिसूचना संख्या: 454 (E) अधिसूचना की तारीख: 11/02/2009 केंद्र / राज्य: केंद्रीय जोन के लिए अनुशंसित: III (एम.पी., यू.पी., उत्तराखंड और राजस्थान) और वी (बिहार, जेके, डब्ल्यूबी, ओडिशा, असोम, छत्तीसगढ़, मणिपुर)। कृषि पारिस्थितिक स्थिति: जोन III के लिए सिंचित लेट ज़ोन और ज़ोन V स्थितियों के लिए वर्षा आधारित। पौधे की ऊंचाई: 170- 200 सेमी औसत बीज की उपज: 1382-1491 किग्रा / हे तेल सामग्री: 34.6- 42.1% बीज का आकार: 3.6-6.2 ग्राम परिपक्वता के दिन: 105-135 दिन टिप्पणी: देर से बोए गए सिंचित और वर्षा की स्थिति के लिए उपयुक्त है

DRMRIJ-31 (गिरिराज) (भारतीय सरसों)

पहचान का वर्ष: 2013 अधिसूचना का वर्ष: - 2013/2014 अधिसूचना संख्या: 2815 (E) अधिसूचना की तारीख: 19/09/2013 केंद्र / राज्य: केंद्रीय जोन के लिए अनुशंसित: II (दिल्ली, हरियाणा, जम्मू और कश्मीर, पंजाब और राजस्थान के कुछ हिस्से) कृषि पारिस्थितिक स्थिति: समय पर सिंचित स्थितियों की बुवाई पौधे की ऊंचाई: 180- 210 सेमी औसत बीज की उपज: 2225-2750 किग्रा / हे तेल सामग्री: 39- 42.6% बीज का आकार: 5.6 ग्राम परिपक्वता के दिन: 137-153 दिन टिप्पणी: बोल्ड बीज, उच्च तेल सामग्री और उच्च उपज किस्म।

DRMR 150-35 (भारतीय सरसों)

पहचान का वर्ष: 2015 अधिसूचना का वर्ष: - अधिसूचना संख्या: - अधिसूचना दिनांक: - केंद्र / राज्य: केंद्रीय जोन के लिए अनुशंसित: वी (बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, असोम, छत्तीसगढ़ और मणिपुर) एग्रो इकोलॉजिकल कंडीशन: अर्ली बोई गई रेनफेड कंडीशन पौधे की ऊँचाई: जल्दी बोई गई बारिश की स्थिति औसत बीज की उपज: 1828 किग्रा / हे तेल सामग्री: 39.8% बीज का आकार: 4.66 ग्राम परिपक्वता का दिन: 114 दिन (86- 140 दिन) टिप्पणी: प्रारंभिक परिपक्वता, पाउडर फफूंदी और ए ब्लाइट के प्रति सहिष्णु

DRMR 1165-40 (भारतीय सरसों)

पहचान का वर्ष: 2018 अधिसूचना का वर्ष: - अधिसूचना संख्या: - अधिसूचना दिनांक: - केंद्र / राज्य: केंद्रीय जोन के लिए अनुशंसित: II (राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब और जम्मू और कश्मीर) कृषि पारिस्थितिक स्थिति: समय पर बुवाई की गई स्थिति पौधे की ऊंचाई: 177-196 सेमी औसत बीज उपज: 2200-2600 किग्रा / हे तेल सामग्री: 40-42.5% बीज का आकार: 3.2-6.6 ग्राम परिपक्वता के दिन: 133- 151 दिन टिप्पणी: अंकुरित अवस्था में गर्मी सहनशील और नमी सहनशील होती है

NRCYS-05-02 (येलो सरसन)

पहचान का वर्ष: 2008 अधिसूचना का वर्ष: - २०० of / २०० ९ अधिसूचना संख्या: 454 (E) अधिसूचना की तारीख: 11/02/2009 केंद्र / राज्य: केंद्रीय अनुशंसित क्षेत्र / क्षेत्र: देश के पीले सरसों के बढ़ते क्षेत्र। कृषि पारिस्थितिक स्थिति: प्रारंभिक परिपक्वता पौधे की ऊंचाई: 110- 120 सेमी औसत बीज उपज: 1239-1715 किग्रा / हे तेल सामग्री: 38.2- 46.5% बीज का आकार: 2.2-6.6 ग्राम परिपक्वता के दिन: 94-181 दिन

खरपतवार नियंत्रण:

सरसों में खरपतवार नियंत्रण के लिए ज्यादा दवाओं का प्रयोग न करें जब सरसों में पहला पानी लगता है तो खरपतवार निकलने लगता है उसके लिए आप दवा या कीटनाशक की जगह खुरपी से निराई करा दें तो ज्यादा मुफीद रहेगा.अगर पानी से पहले सरसों के साथ अनेक प्रकार के खरपतवार उग आते है। इनके नियंत्रण के लिए निराई गुड़ाई बुवाई के तीसरे सप्ताह के बाद से नियमित अन्तराल पर 2 से 3 निराई करनी आवश्यक होती हैं। रासयानिक नियंत्रण के लिए अंकुरण पूर्व बुवाई के तुरंत बाद खरपतवारनाशी पेंडीमेथालीन 30 ई सी रसायन की 3.3 लीटर मात्रा को प्रति हैक्टर की दर से 800 से 1000 लीटर पानी में घोल कर छिडकाव करना चाहिए।
जानिए सरसों की कम समय में अधिक उत्पादन देने वाली प्रजातियां

जानिए सरसों की कम समय में अधिक उत्पादन देने वाली प्रजातियां

किसान भाइयों वर्तमान समय में सरसों का तेल काफी महंगा बिक रहा है। उसको देखते हुए सरसों की खेती करना बहुत लाभदायक है। कृषि वैज्ञानिकों ने अनुमान जताया है कि इस बार सरसों की खेती से दोगुना उत्पादन मिल सकता है, यानी इस बार की जलवायु सरसों की खेती के अनुकूल रहने वाली है। तिलहनी फसल की एमएसपी काफी बढ़ गयी है। तथा बाजार में एमएसपी से काफी ऊंचे दामों पर सरसों की डिमांड चल रही है। इन संभावनाओं को देखते हुए किसान भाई अभी से सरसों की अगैती फसल लेने की तैयारी में जुट गये हैं। 

खाली खेतों में अगैती फसल लेने से होगा बहुत फायदा

Mustard ki kheti 

 जो किसान भाई खरीफ की खेती नहीं कर पाये हैं, वो अभी से सरसों की खेती की अगैती फसल लेने की तैयारी में जुट गये हैं। इन किसानों के अलावा अनेक किसान ऐसे भी हैं जो खरीफ की फसल को लेने के बाद सरसों की खेती करने की तैयारी कर रहे हैं। कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि जिन किसानों ने गन्ना,प्याज, लहसुन व अगैती सब्जियों की खेती के लिए खेतों को खाली रखते हैं, वो भी इस बार सरसों के दामों को देखते हुए सरसों की खेती करने की तैयारी कर रहे हैं। कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि जो किसान भाई सरसों की अगैती फसल लेंगे वे अतिरिक्त मुनाफा कमा सकते हैं। इंडियन कौंसिल ऑफ़ एग्रीकल्चर रिसर्च के कृषि विशेषज्ञ डॉ. नवीन सिंह का कहना है कि जो खेत सितम्बर तक खाली हो जाते हैं, उनमें कम समय में तैयार होने वाली सरसों की खेती करके किसान भाई अच्छा खासा मुनाफा कमा सकते हैं। उनका कहना है कि भारतीय सरसों की अनेक किस्में ऐसी हैं जो जल्दी तैयार हो जाती हैं और वो फसलें उत्पादन भी अच्छा दे जाती हैं।

ये भी पढ़ें: 
सरसों के कीट और उनसे फसल सुरक्षा 

अच्छी प्रजातियों का करें चयन

mustard ki kheti 

 किसान भाइयों, आइये जानते हैं कि सरसों की कम समय में अधिक उत्पादन देने वाली कौन-कौन सी अच्छी प्रजातियां हैं:- 

1.पूसा अग्रणी:- इस प्रजाति के बीज से सरसों की फसल मात्र 110 दिन में पक कर तैयार हो जाती है। इस बीज से किसान भाइयों को प्रति हेक्टेयर लगभग 14 क्विंटल सरसों का उत्पादन मिल जाता है। 

2. पूसा तारक और पूसा महक:- सरसों की ये दो प्रजातियों के बीजों से भी अगैती फसल ली जा सकती है। इन दोनों किस्मों से की जाने वाली खेती की फसल 110 से 115 दिनों के बीच पक कर तैयार हो जाती है। खाद, पानी, बीज आदि का अच्छा प्रबंधन हो तो इन प्रजातियों से प्रति हेक्टेयर 15-20 क्विंटल की पैदावार मिल जाती है। 

3. पूसा सरसों-25 :- कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार पूसा सरसों-25 ऐसी प्रजाति है जिससे सबसे कम समय में फसल तैयार होती है। उन्होंने बताया कि इस प्रजाति से मात्र 100 दिनों में फसल तैयार हो जाती है। इससे पैदावार प्रति हेक्टेयर लगभग 15 क्विंटल उत्पादन मिल जाता है। 

4. पूसा सरसों-27:- इस प्रजाति के बीज से औसतन 115 दिन में फसल तैयार हो जाती है तथा पैदावार 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर के आसपास रहती है। 

5. पूसा सरसों-28:- इस प्रजाति से खेती करने वालों को थोड़ा विशेष ध्यान रखना होता है। समय पर बुआई के साथ निराई-गुड़ाई एवं खाद-पानी का प्रबंधन अच्छा करके किसान भाई प्रति हेक्टेयर 20 क्विंटल तक की पैदावार ले सकते हैं। 

6. पूसा करिश्मा: इस प्रजाति से सरसों की फसल 148 दिनों के आसपास तैयार हो जाती है तथा इस प्रजाति से प्रति हेक्टेयर 22 क्विंटल तक की पैदावार ली जा सकती है। 

7. पूसा विजय: इस प्रजाति के बीजों से फसल लगभग 145 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है तथा इससे प्रति हेक्टेयर 25 क्विंटल तक फसल ली जा सकती है। 

8.पूसा डबल जीरो सरसों -31:- इस किस्म के बीज से  सरसों की खेती  140 दिनों में तैयार होती है तथा इससे उत्पादन प्रति हेक्टेयर 23 क्विंटल तक लिया जा सकता है। 

9. एनआरसीडीआर-2 :- इस उन्नत किस्म के बीज से सरसों की फसल 131-156 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है। अच्छे प्रबंधन से प्रति हेक्टेयर 20 से 27 क्विंटल तक का उत्पादन लिया जा सकता है। 

10. एनआरसीएचबी-506 हाइब्रिड:- अधिक पैदावार के लिए यह बीज अच्छा माना जाता है। इससे सरसों की फसल 127-145 दिनों में तैयार हो जाती है। जमीन, जलवायु और उचित देखरेख से इस बीज से प्रति हेक्टेयर 16 से 26 क्विंटल तक की पैदावार ली जा सकती है। 

11. एनआरसीएचबी 101:- इस प्रजाति के बीच सेसरसों की फसल 105-135 दिनों में तैयार होती है तथा पैदावार प्रति हेक्टेयकर 15 क्विंटल तक ली जा सकती है। 

12. एनआरसीडीआर 601:- यह प्रजाति भी अधिक पैदावार चाहने वाले किसान भाइयों के लिए सबसे उपयुक्त है। इस बीच से की जाने वाली खेती से फसल 137 से 151 दिनों में तैयार हो जाती है तथा प्रति हेक्टेयर 20 से 27 क्विटल तक पैदावार ली जा सकती है।

कब होती है बुवाई और कब होती है कटाई

mustard ki kheti 

 कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार सरसों की अगैती की फसल की बुआई का सबसे अच्छा समय सितम्बर का पहला सप्ताह माना जाता है। यदि किसी कारण से देर हो जाये तो सितम्बर के दूसरे और तीसरे सप्ताह में अवश्य ही बुआई हो जानी चाहिये। इस अगैती फसल की कटाई जनवरी के शुरू में ही हो जाती है। अधिक पैदावार वाली प्रजातियों में एक से डेढ़ महीने का समय अधिक लगता है। इस तरह की फसलें फरवरी के अंत तक तैयार हो जाती हैं। 

सरसों की अगैती फसल के लाभ

सरसों की कम अवधि में तैयार होने वाली अगैती फसल से अनेक लाभ किसान भाइयों को मिलते हैं। इनमें से कुछ इस प्रकार हैं:-
  1. अगैती फसल लेने से सरसों की पैदावार माहू या चेपा कीट के प्रकोप से बच जाती है। इसके अलावा ये फसलें बीमारी से रहित होतीं हैं।
  2. सरसों की अगैती फसल लेने से खेत जल्दी खाली हो जाते हैं तथा एक साल में तीन फसल ली जा सकती है।

अगैती फसल के लिए किस तरह करें देखभाल

  1. बुवाई के समय उर्वरक प्रबंधन के लिए खेत में प्रति हेक्टेयर एक क्विंटल सिंगल सुपर फास्फेट, 40 किलो यूरिया और 25 से 30 किलो एमओपी डालें।
  2. खरपतवार को रोकने के लिए बुआई से एक सप्ताह बाद पैंडीमेथलीन का 400 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें। एक माह बाद निराई-गुड़ाई की जानी चाहिये।
  3. सिंचाई के लिए खेत की देखभाल करते रहें। बुआई के लगभग 35 से 40 दिन बाद खेत का निरीक्षण करें। आवश्यकता हो तो सिंचाई करें। उसके बाद एक और सिंचाई फली में दाना आते समय करनी चाहिये लेकिन इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि जब फूल आ रहे हों तब सिंचाई नहीं करनी चाहिये।
  4. पहली सिंचाई के बाद पौधों की छंटाई करनी चाहिये। उस समय किसान भाइयों को इस बात का ध्यान रखना होगा कि लाइन से लाइन की दूरी 45 सेंटीमीटर और पौधों से पौधों की दूरी 20 सेंटी मीटर रहे। इसी समय यूरिया का छिड़काव करें।
  5. खेत की निगरानी करते समय माहू या चेपा कीट के संकेत मिलें तो पांच मिली लीटर नीम के तेल को एक लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें।या इमीडाक्लोप्रिड की 100 मिली लीटर मात्रा को 200 लीटर पानी में मिलाकर शाम के समय छिड़काव करें। यदि लाभ न हो तो दस-बारह दिन बाद दुबारा छिड़काव करें।
  6. फलियां बनते समय थायोयूरिया 250 ग्राम को 200 लीटर पानी में मिलाकर खेत में छिड़काव करें। जब 75 प्रतिशत फलियां पीली हो जायें तब कटाई की जाये। पूरी फलियों के पकने का इंतजार न करें वरना दाने चिटक कर गिरने लगते हैं।

सरसों के फूल को लाही कीड़े और पाले से बचाने के उपाय

सरसों के फूल को लाही कीड़े और पाले से बचाने के उपाय

सरसों की फसल को आम तौर पर बहुत ही आसान, कम खर्चीली व कम देखरेख वाली फसल बताया जाता है लेकिन कोई भी फसल बिना देखरेख वाली नहीं होती है। देखरेख में जरा सी लापरवाही से फसल को भारी नुकसान हो जाता है। किसान भाइयों आपके द्वारा की गयी मेहनत पर पानी भी फिर सकता है, उस वक्त आपके पास पछताने के अलावा कुछ नहीं रह जाता है। इसलिए हमें सरसों की फसल करते समय लापरवाही नहीं बरतना चाहिये यदि हमें सरसों की अच्छी फसल लेनी है तो बुआई से कटाई तक हमें हर समय फसल की हर जरूरत का ध्यान रखना होगा।

सरसों के फूलों को झड़ने से बचाने के उपाय करें

किसान भाइयों, मौजूदा समय में सरसों की फसल में फूलों के आने का समय है। इसके तत्काल बाद इस फसल में फलियों के आने का समय है। जिन किसान भाइयों ने सरसों की अगैती फसल की होगी तो इस समय फूलों के साथ फलियां भी आने लगीं होंगी। इस समय हमें फूलों को सुरक्षित रखने व उनसे अच्छी फलियां बनने के उपाय करने होंगे।

closeup of mustard flower

सरसों के खेती पर की गयी सारी मेहनत पर फिर सकता है पानी

वर्तमान समय में सरसों की फसल में कीट आक्रमण या सिंचाई प्रबंधन की कमी या खाद प्रबंधन की कमी से फूलों का झड़ना शुरू हो जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि फूलों के झड़ने से आपकी फसल कमजोर होने वाली है। दूसरे शब्दों में कहं तो किसान भाइयों आपकी बुआई से लेकर अब तक की गयी मेहनत पर पानी फिरने वाला है और इस समय जरा सी लापरवाही हुई तो आपका उत्पादन गिरने वाला है। इसलिये हमें इस समय कौन-कौन से उपाय करने चाहिये उपन ध्यान देना होगा। आइये हम इन्हीं बातों का जिक्र करते हैं।

सरसों की सिंचाई का करें सही प्रबंधन

किसान भाइयों, सरसों की फसल में सिंचाई जमीन की किस्म के आधार पर की जाती है। यदि आपकी खेत की मिट्टी भारी है तो सरसों की फसल में आपको दो बार सिचांई करने की आवश्यकता होती है। यदि आपके खेत की मिट्टी हल्की है तो आपको सरसों की फसल में तीन बार सिंचाई करनी होती है। इसके अलावा आप सिंचाई प्रबंधन सर्दियों में होने वाले बरसात को भी देखकर आवश्यकतानुसार कर सकते हैं। भारी व हल्की मिट्टी में दूसरी सिंचाई आपको फूलों के आने से पहले या जब खेत में फूल 50 से 60 प्रतिशत आ गये हों तब करना चहिये। इससे आपके खेत में सरसों की फसल के फूल झड़ने से बच जायेंगे और जब फलियां बनेंगी तब खेत में पर्याप्त नमी रहेगी।

गरम पानी से करें सरसों की सिंचाई

सिंचाई करते समय किसान भाइयों को एक बात का ध्यान रखना चाहिये। यदि आप अपने फसल की सिंचाई नहर से कर रहे हों तो कोशिश करें कि आप अपने खेत की सिंचाई दिन में करें। दिन में करने से धूप से पानी गरम रहेगा तो पौधे पर सर्दी से होने वाला तनाव नहीं पड़ेगा। इसके अलावा यदि आपके पास नहर व ट्यूबवेल दोनों से ही सिंचाई की सुविधा है तो आपको अपने खेत की सिंचाई नहर की जगह ट्यूबवेल से करनी चाहिये ताकि पौधों को सर्दी में गरम पानी मिल सके। इससे आपके पौधों को काफी फायदा होगा।

जरूरत पड़ने पर करें सरसों का उर्वरक प्रबंधन

यदि आपने फूल आने से पहले खाद प्रबंधन के दौरान 20 किलो यूरिया और 3 किलो सल्फर प्रति एकड़ के हिसाब से डाला है तो फूल आने बाद आपको कुछ भी नहीं डालना है। खाद के अलावा आपको इस समय किसी तरह के कीट प्रबंधन के पदार्थो का भी प्रयोग नहीं करना है।

स्वस्थ सरसों के फूलों के लिए करें ये उपाय

सरसों के फूलों को मजबूती देने के लिए और स्वस्थ फलियों और उनमें मोटे दाने के लिए आप इस समय फसल में एनपीके 05234 तथा बोरोन का छिड़काव करना चाहिये। किसान भाइयों आप अपनी सरसों की फसल में फूल को अच्छी तरह से विकसित करने के लिए एनपीके 05234 प्रति एकड़ एक किलो और बोरोन 100 ग्राम को 100 से 150 लीटर पानी में डालकर छिड़काव करें तो फूलों के गिरने से बचाव हो सकता है। क्योंकि एनपीके 05234 में 34 प्रतिशत पोटाश होता है जो फूलों को गिरने से बचाने में सहायक होता है। बोरोना में फूल सेटिंग व सीट सेटिंग की अच्छी क्षमता होती है। इससे सरसों की फसल को काफी लाभ होता है।

पोटाश से होता है सरसों के फूलों का बचाव

पोटाश ट्रांसपोर्र्टर का काम करता है यानी यह पौधों के तनों, पत्तों, फूलों को आवश्यकतानुसार क्लोरोफिल, प्रोटीन, फाइबर हाइडेट वर्गरह पहुंचाता है। जो पौधे का मुख्य भोजन होता है। अच्छा भोजन मिलने से जब पौधा स्वस्थ होगा तो उसमें लगने वाले फूल भी स्वस्थ रहेंगे और जल्दी से नहीं गिरेंगे। जब फूल सुरक्षित रहेंगे तो उनसे अच्छी फलियां भी बनेंगी और फलियों में जब अच्छे दाने बनेंगे तो फसल अपने आप ही अच्छी होगी और उत्पादन बढेगा। कहने का मतलब किसान भाइयों को लाभ ही लाभ होगा।

Mustard crop, Sarso



ये भी पढ़ें: सरसों की फसल के रोग और उनकी रोकथाम के उपाय

सरसों की फसल में कीट लगने पर करें ये काम

सरसों की फसल में फूल आने के वक्त एक खास प्रकार के कीट का हमला होता है, जिसे क्षेत्रीय भाषा में अलग अलग नाम से पुकारा जाता है, कोई लहि के नाम से जानता है तो कोई मोइला के नाम से जानता है। इस कीट के लगने से सरसों के फूल कमजोर हो जाते हें और उनका तेजी से झड़ना शुरू हो जाता है। किसान भाइयों को चाहिये कि वह इस कीट का हमला देखते ही सतर्क हो जायें और इसके प्रबंधन का उपाय करने लगें। इस कीट को समाप्त करने के लिए इमिडा क्लोग्रीड का इस्तेमाल करें काफी फायदा होगा। यह इमिडा मार्केट में अनेक कंपनियों की बनायी हुइ आसानी से मिल जाती है। आप अपने क्षेत्र के हिसाब से इसका चयन कर सकते हैं।

कम ओस या सर्दी में किये जाने वाला उपाय

जहां पर्याप्त ओस व ठण्ड न पड्ने से पौधे कमजोर हो जाते हें और उनमें फूल नहीं आता या कम आता है और यदि आता भी है तो झड़ जाता है। तो उसके लिए सिंचाई प्रबंधन व खाद प्रबंधन करना चाहिये। दूसरी सिंचाई के समय यूनिया व सल्फर डालना चाहिये। लेकिन इस बात का ध्यान रहे कि जब खेत में 10 से 15 प्रतिशत फूल आये हों तब सिंचाई खाद नहीं डालनी चाहिये बल्कि जब खेत में 50 से 60 प्रतिशत फूल आ गये हों तभी सिंचाई करके उर्वरक डालने चाहिये।

अधिक ठंड व पाला से बचाव इस प्रकार करें

यदि मौसम का मिजाज बिगड़ जाये तो किसान भाइयों तब भी सरसों की फसल प्रभावित हो जाती है। उसके फूल कम विकसित होते हैं और यदि फूल का विकास हो भी जाता है तो फलियों का विकास सही तरीके से नहीं हो पाता है। फलियां पतली रह जातीं है, उनमें दाने कम बनते हैं और पतले भी बनते हैं। इससे उत्पादन पूरी तरह से प्रभावित होता है। किसान भाइयों को चाहिये कि अंधिक ठंड और पाला से भी सरसों की फसल को बचाना चाहिये। उसके लिए हमें डस्ट वाले सल्फर का प्रयोग करना चाहिये या इसकी जगह आप गुड़ का भी इस्तेमाल कर सकते हैं। सबसे अच्छा सफेद पाउडर वाले थायो यूरिया का प्रयोग करना चाहिये। किसान भाइयों सल्फर में पाला से बचाने की क्षमता होती है साथ ही साथ 15 प्रतिशत तक फसल पैदावार बढ़ाने की क्षमता होती है। गुड़ गरम होता है तो उसके प्रयोग से पाला से पूरी तरह से बचाव हो जाता है और फसल अच्छी हो जाती है। सर्दी और पाले से बचाव के लिए सबसे अच्छा थायो यूरिया को माना जाता है। सफेद पाउडर के रूप में मिलने वाले थायो यूरिया को 100 ग्राम प्रति एकड़ में 150 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करने से पाला भी बचता है और फसल की पैदावार भी बढ़ती है।  

ये भी पढ़ें: 
जानिए सरसों की कम समय में अधिक उत्पादन देने वाली प्रजातियां
                पीली सरसों की खेतीImportant Natural Enemies of Mustard/Rapeseed Insect PestsLaunch of Low (<2%) Erucic Acid Indian Mustard Edible Oil – First of its kind in the World

देश की सभी मंडियों में एमएसपी से ऊपर बिक रही सरसों

देश की सभी मंडियों में एमएसपी से ऊपर बिक रही सरसों

दशकों से खाद्य तेलों के मामलों में हम आत्मनिर्भर नहीं हो पाए हैं। हमें जरूरत के लिए खाद्य तेल विदेशों से मंगाने पढ़ते रहे हैं। इस बार सरसों का क्षेत्रफल बढ़नी से उम्मीद जगी थी कि हम विदेशों पर खाद्य तेल के मामले में काफी हद तक कम निर्भर रहेंगे लेकिन मौसम की प्रतिकूलता ने सरसों की फसल को काफी इलाकों में नुकसान पहुंचाया है। इसका असर मंडियों में सरसों की आवक शुरू होने के साथ ही दिख रहा है। समूचे देश की मंडियों में सरसों न्यूनतम समर्थन मूल्य से ऊपर ही बिक रही है। सरसों सभी मंडियों में 6000 के पार ही चल रही है।

ये भी पढ़े: गेहूं के साथ सरसों की खेती, फायदे व नुकसान

सरसों को रोकें या बेचें

Sarson

घटती कृषि जोतों के चलते ज्यादातर किसान लघु या सीमांत ही हैं। कम जमीन पर की गई खेती से उनकी जरूरत है कभी पूरी नहीं होती। इसके चलते वह मजबूर होते हैं फसल तैयार होने के साथ ही उसे मंडी में बेचकर अगली फसल की तैयारी की जाए और घरेलू जरूरतों की पूर्ति की जाए लेकिन कुछ बड़ी किसान अपनी फसल को रोकते हैं। किसके लिए वह तेजी मंदी का आकलन भी करते हैं। बाजार की स्थिति सरकार की नीतियों पर निर्भर करती है। यदि सरकार ने विदेशों से खाद्य तेलों का निर्यात तेज किया तो स्थानीय बाजार में कीमतें गिर जाएंगे। रूस यूक्रेन युद्ध यदि लंबा खींचता है तो भी बाजार प्रभावित रहेगा। पांच राज्यों के चुनाव में खाद्य तेल की कीमतों का मुद्दा भारतीय जनता पार्टी के लिए दिक्कत जदा रहा। सरकार किसी भी कीमत पर खाद्य तेलों की कीमतों को नीचे लाना चाहेगी। इससे सरसों की कीमतें गिरना तय है। मंडियों में आवक तेज होने के साथ ही कारोबारी भी बाजार की चाल के अनुरूप कीमतों को गिराते उठाते रहेंगे।

ये भी पढ़े: सरसों के फूल को लाही कीड़े और पाले से बचाने के उपाय

प्रतिकूल मौसम ने प्रभावित की फसल

Sarson ki fasal

यह बात अलग है कि देश में इस बार सरसों की बुवाई बंपर स्तर पर की गई लेकिन इसे मौसम में भरपूर झकझोर दिया। बुबाई के सीजन में ही बरसात पढ़ने से राजस्थान सहित कई जगहों पर किसानों को दोबारा फसल बोनी पड़ी। इसके चलते फसल लेट भी हो गई। पछेती फसल में फफूंदी जनित तना गलन जैसे कई रोग प्रभावी हो गए। इसका व्यापक असर उत्पादन और उत्पाद की गुणवत्ता पर पड़ा है। हालिया तौर पर फसल की कटाई के समय पर हरियाणा सहित कई जगहों पर ओलावृष्टि ने फसल को नुकसान पहुंचाया है।

ये भी पढ़े: जानिए, पीली सरसों (Mustard farming) की खेती कैसे करें?

रूस यूक्रेन युद्ध का क्या होगा असर

रूस यूक्रेन युद्ध का असर समूचे विश्व पर किसी न किसी रूप में पड़ना तय है। परोक्ष अपरोक्ष रूप से हर देश को इस युद्ध का खामियाजा भुगतना ही पड़ेगा। युद्ध अधिक लंबा खिंचेगा तो विश्व समुदाय के समर्थन में हर देश को सहभागिता दिखानी ही पड़ेगी। इसके चलते गुटनिरपेक्षता की बात बेईमनी होगी और विश्व व्यापार प्रभावित होगा। कोरोना काल के दौरान बिगड़ी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के उद्यम को एक और बड़ा झटका लगेगा। विदेशों पर निर्भरता वाली वस्तुओं की कीमतों में इजाफा होना तय है।

सरकारी समर्थन मूल्य से ऊपर बिक रही सरसों

sarson ke layi

सरसों की फसल की मंडियों में आना शुरू हुई है जिसके चलते अभी वो एमएसपी से ऊपर बिक रही है। मंडी में आवक बढ़ने के बाद स्थिति स्पष्ट होगी कि खरीददार सरसो को कितना गिराएंगे। उत्तर प्रदेश की मंडियों में सरसों 6200 से 7000 तक बिक रही है वहीं कई जगह वह 7000 के पार भी बिक रही है। गुजरे 3 दिनों में सरसों की कीमतें में 200 से 400 ₹500 तक की गिरावट एवं कई जगह कुछ बढत साफ देखी गई। 15 मार्च तक सरसों की आवक और उत्पादन के अनुमानों के आधार पर बाजार में कीमतों की स्थिरता का पता चल पाएगा। अभी खरीदार दैनिक मांग के अनुरूप सरसों की पेराई का फल एवं तेल की सप्लाई दे रहे हैं। कारोबारी एवं किसानों के स्तर पर स्टॉक की पोजीशन 15 मार्च के बाद ही क्लियर होगी।

रबी सीजन में सरसों की खेती के लिए ये पांच उन्नत किस्में काफी शानदार हैं

रबी सीजन में सरसों की खेती के लिए ये पांच उन्नत किस्में काफी शानदार हैं

सरसों रबी की प्रमुख फसलों में से एक है। बतादें, कि सरसों की खेती भारत के बहुत से राज्यों में प्रमुखता से की जाती है। यदि सरसों की उन्नत किस्मों की बात की जाए तो उनमें राज विजय सरसों-2, पूसा मस्टर्ड 21, पूसा सरसों आरएच 30, पूसा बोल्ड और पूसा सरसों 28 हैं। दरअसल, भारत के तकरीबन समस्त राज्यों में फसलों की बिजाई से लेकर कटाई तक सबकुछ मौसम पर आश्रित रहता है। जैसा की आप जानते हैं, कि खरीफ की फसलों की कटाई का समय चल रहा है। साथ ही, किसान रबी फसलों की बिजाई की तैयारी कर रहे हैं। वहीं, रबी फसल में बोई जाने वाली प्रमुख फसलों में आलू, मटर, सरसों, गेंहू आदि हैं। आज हम आपको सरसों की बेहतरीन किस्मों के संबंध में आपको जानकारी देंगे। सरसों की इन उन्नत किस्मों के नाम पूसा बोल्ड, पूसा सरसों 28, राज विजय सरसों-2, पूसा मस्टर्ड 21 और पूसा सरसों आरएच 30 हैं। यह सभी भारत में तिलहन के उत्पादन में सर्वाधिक पसंद की जाने वाली सरसों की किस्में हैं। ये किस्में किसानों प्रति हेक्टेयर कम लागत में ज्यादा मुनाफा देती हैं। इनका उत्पादन भी बाकी किस्मों की तुलना में ज्यादा होता है। तो चलिए सरसों की इन किस्मों के संबंध में विस्तार से जानते हैं।

सरसों की खेती के लिए 5 उन्नत किस्में

सरसों पूसा बोल्ड

सरसों पूसा बोल्ड की कटाई हेतु पकने की समयावधि 100 से 140 दिन होती है। इसकी बुवाई करने के लिए राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र एवं दिल्ली का क्षेत्र उपयुक्त माना जाता है। अगर हम इसकी प्रति हेक्टेयर पैदावार की बात करें तो यह 20 से 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर पैदावार प्रदान करती है। इसके अंदर तेल की मात्रा तकरीबन 40 प्रतिशत तक होती है।

ये भी पढ़ें:
किसान सरसों की इस किस्म की खेती कर बेहतरीन मुनाफा उठा सकते हैं

पूसा सरसों 28

फसल पकने व कटाई की समयावधि 105 से 110 दिन होती है। इसकी बुआई हरियाणा, राजस्थान, पंजाब, दिल्ली और जम्मू-कश्मीर जैसे राज्यों में की जाती है। किसान भाई इससे प्रति हेक्टेयर 18 से 20 क्विंटल उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं। तेल की मात्रा की बात की जाए तो तकरीबन 21 प्रतिशत तक है।

राज विजय सरसों-2

फसल पकने की समयावधि 120 से 130 दिन तक की होती है। मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश के क्षेत्रों में इसका उत्पादन किया जाता है। वहीं, इससे औसत पैदावार 20 से 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक होती है। तेल की मात्रा तकरीबन 37 से 40 प्रतिशत तक होती है।

ये भी पढ़ें:
सरसों की खेती से जुड़े सभी जरूरी कार्यों की जानकारी

पूसा सरसों आर एच 30

सरसों की इस किस्म की फसल को पकने में लगभग 130 से 135 दिनों का समय लगता है। इस किस्म की बुआई का इलाका हरियाणा, पंजाब एवं पश्चिमी राजस्थान होता है। वहीं, अगर हम प्रति हेक्टेयर की बात करें तो वह 16 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक होता है। अगर हम इसके अंदर तेल की मात्रा की बात करें तो वह लगभग 39 प्रतिशत तक होती है।

पूसा मस्टर्ड 21

इस किस्म की फसल के पकने की समयवधि 137 से 152 दिनों के लगभग होती है। बतादें, कि पंजाब, राजस्थान और दिल्ली में प्रमुख तौर पर इसका उत्पादन किया जा सकता है। आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि इससे प्रति हेक्टेयर 18 से 21 क्विंटल उत्पादन लिया जा सकता है। इस किस्म की सरसों से तेल की मात्रा की बात करें तो वह करीब 37 से 40 प्रतिशत तक होती है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के अनुवांशिकी संस्थान के मुताबिक इन इलाकों के किसान यदि ज्यादा उत्पादन चाहते हैं, तो सरसों की ये किस्में कृषकों के लिए मुनाफे का सौदा साबित हो सकती हैं। ये समस्त किस्में प्रति हेक्टेयर अधिक उत्पादन के साथ में अधिक प्रतिशत तेल की मात्रा पैदा करती हैं।
GM Mustard: आखिर जीएम सरसों क्या है और इसके क्या फायदे हैं ?

GM Mustard: आखिर जीएम सरसों क्या है और इसके क्या फायदे हैं ?

भारत में तेल का आयात काफी बड़ी मात्रा में किया जाता है। भारत सरकार की तरफ से जीएम सरसों की व्यवसायिक की खेती को मंजूरी दिए जानें के बाद इस पर विवाद जारी है। भारत में आजकल जीएम सरसों (जेनेटिकली मॉडिफाइड सरसों) की व्यवसायिक खेती पर काफी बहस छिड़ी हुई है। केंद्र सरकार द्वारा इसकी व्यवसायिक खेती को स्वीकृति दिए जानें के उपरांत इस पर विवाद जारी है। बीते दिनों सुप्रीम कोर्ट में इस पर बहस भी हुई। परंतु, यहां जानने वाली बात यह है, कि अंततः जीएम सरसों पर विवाद क्यों छिड़ा है।

आखिर जीएम सरसों क्या है और इसके क्या फायदें हैं ? दरअसल, ये विवाद तब आरंभ हुआ था जब विगत वर्ष केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय के बायोटेक नियामक जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रेजल कमेटी ने जीएम सरसों की व्यवसायिक खेती को स्वीकृति दी थी। समिति के इस निर्णय के बाद बहुत सारे किसान समूहों, एजीओ और पर्यावरण से संबंधित संगठनों ने इसका काफी विरोध किया था। इसके बाद ये मामला कोर्ट जा पहुंचा था।

इसके खिलाफ मोर्चा में खड़े संगठनों का क्या कहना है ?

अब जहां एक तरफ इसके विरुद्ध खड़े संगठनों का कहना है, कि भारत में जीएम सरसों के इस्तेमाल के चलते खेती को काफी हानि पहुंचेगी। साथ ही, विशेषज्ञों के मुताबिक, इससे उत्पादकता में बढ़ोतरी होगी और कृषकों को इससे काफी लाभ होगा। विशेषज्ञों का ये भी कहना है, कि बहुत सारे देशों में इसकी खेती सफल ढ़ंग से की जा रही है। ऐसी स्थिति में यदि भारत भी इसे अपनाता है, तो आगामी समय में इसके बहुत सारे लाभ होंगे। परंतु, इससे कृषकों का क्या लाभ होगा ?

ये भी पढ़ें: 13 फसलों के जीएम बीज तैयार करने के लिए रिसर्च हुई शुरू

जीएम सरसों के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी 

जेनेटिकली मॉडिफाइड सरसों (जीएम सरसों), सरसों की एक प्रजाति है, जिसको पौधों की दो भिन्न-भिन्न किस्मों को मिलाकर निर्मित किया गया है। इसका मतलब यह है, कि यह एक हाइब्रिड प्रजाति है, जिसे लैब में निर्मित किया गया है। इसमें रोग लगने की संभावना काफी कम होते हैं। साथ ही, इसका उत्पादन भी अधिक रहता है। अब ऐसी क्रॉसिंग से मिलने वाली फर्स्ट जेनरेशन हाइब्रिड प्रजाति की उपज मूल किस्मों से अधिक होने की संभावना रहती है। हालांकि, सरसों के साथ ऐसा करना सहज नहीं था। इसकी वजह यह है, कि इसके फूलों में नर और मादा, दोनों रीप्रोडक्टिव ऑर्गन होते हैं। मतलब कि सरसों का पौधा काफी हद तक स्वयं ही पोलिनेशन कर लेता है। किसी दूसरे पौधे से परागण की आवश्यकता नहीं होती है। ऐसे में मक्का, टमाटर अथवा कपास की भांति सरसों की हाइब्रिड किस्म निर्मित करने का अवसर काफी कम हो जाता है।

जीएम सरसों का उत्पादन करने के विभिन्न लाभ 

उत्पादकता में वृद्धि: समर्थकों का यह तर्क है, कि जीएम सरसों, विशेष रूप से धारा सरसों हाइब्रिड (डीएमएच-11) में सरसों की फसल की उत्पादकता में उल्लेखनीय विकास करने की क्षमता है। इस वजह से वर्तमान में भारत के अंदर सरसों की खेती देखने को सामने आ रही है। कम उत्पादकता की समस्या से निपटने में सहायता मिल सकती है।

ये भी पढ़ें: सरसों की खेती (Mustard Cultivation): कम लागत में अच्छी आय

आयात निर्भरता में कमी: भारत बड़ी मात्रा में खाद्य तेलों का आयात करता है और जीएम सरसों घरेलू सरसों तेल उत्पादन को बढ़ाकर इस निर्भरता को कम कर सकती है। इससे संभावित रूप से विदेशी मुद्रा की बचत हो सकती है और खाद्य तेल उत्पादन में आत्मनिर्भरता को बढ़ावा मिल सकता है। 

फसल सुरक्षा: आनुवांशिक संशोधन कीटों एवं बीमारियों के प्रति प्रतिरोध अदा कर सकता है, जिससे रासायनिक कीटनाशकों की जरूरतें कम हो जाती हैं। इससे पर्यावरण के अनुकूल एवं टिकाऊ कृषि पद्धतियों को प्रोत्साहन मिल सकता है।