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किसानों के लिए जैविक खेती करना बेहद फायदेमंद, जैविक उत्पादों की बढ़ रही मांग

किसानों के लिए जैविक खेती करना बेहद फायदेमंद, जैविक उत्पादों की बढ़ रही मांग

जैविक खेती से कैंसर दिल और दिमाग की खतरनाक बीमारियों से लड़ने में भी सहायता मिलती है। प्रतिदिन कसरत और व्यायाम के साथ प्राकृतिक सब्जी और फलों का आहार आपके जीवन में बहार ला सकता है।

ऑर्गेनिक फार्मिंग मतलब जैविक खेती को पर्यावरण का संरक्षक माना जाता है। कोरोना महामारी के बाद से लोगों में स्वास्थ्य के प्रति काफी ज्यादा जागरुकता पैदा हुई है। बुद्धिजीवी वर्ग खाने पीने में रासायनिक खाद्य से उगाई सब्जी के स्थान पर जैविक खेती से उगाई सब्जियों को प्राथमिकता दे रहा है।

बीते 4 वर्षों में दो गुना से ज्यादा उत्पादन हुआ है

भारत में विगत चार वर्षों से जैविक खेती का क्षेत्रफल यानी रकबा बढ़ रहा है और दोगुने से भी ज्यादा हो गया है। 2019-20 में रकबा 29.41 लाख हेक्टेयर था, 2020-21 में यह बढ़कर 38.19 लाख हेक्टेयर हो गया और पिछले साल 2021-22 में यह 59.12 लाख हेक्टेयर था।

कई गंभीर बीमारियों से लड़ने में बेहद सहायक

प्राकृतिक कीटनाशकों पर आधारित जैविक खेती से कैंसर और दिल दिमाग की खतरनाक बीमारियों से लड़ने में भी मदद मिलती है। प्रतिदिन कसरत और व्यायाम के साथ प्राकृतिक सब्जी और फलों का आहार आपके जीवन में शानदार बहार ला सकता है।

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भारत की धाक संपूर्ण वैश्विक बाजार में है 

जैविक खेती के वैश्विक बाजार में भारत तेजी से अपनी धाक जमा रहा है। इतनी ज्यादा मांग है कि सप्लाई पूरी नहीं हो पाती है। आने वाले वर्षों में जैविक खेती के क्षेत्र में निश्चित तौर पर काफी ज्यादा संभावनाएं हैं। सभी लोग अपने स्वास्थ को लेकर जागरुक हो रहे हैं। 

जैविक खेती इस प्रकार शुरु करें 

सामान्य तौर पर लोग सवाल पूछते हैं, कि जैविक खेती कैसे आरंभ करें ? जैविक खेती के लिए सबसे पहले आप जहां खेती करना चाहते हैं। वहां की मिट्टी को समझें। ऑर्गेनिक खेती शुरू करने से पहले किसान इसका प्रशिक्षण लेकर शुरुआत करें तो चुनौतियों को काफी कम किया जा सकता है। किसान को बाजार की डिमांड को समझते हुए फसल का चयन करना है, कि वह कौन सी फसल उगाए। इसके लिए किसान अपने नजदीकी कृषि विज्ञान केंद्र या कृषि विश्वविद्यालयों के विशेषज्ञों से मशवरा और राय अवश्य ले लें।

जानिए सरसों की कम समय में अधिक उत्पादन देने वाली प्रजातियां

जानिए सरसों की कम समय में अधिक उत्पादन देने वाली प्रजातियां

किसान भाइयों वर्तमान समय में सरसों का तेल काफी महंगा बिक रहा है। उसको देखते हुए सरसों की खेती करना बहुत लाभदायक है। कृषि वैज्ञानिकों ने अनुमान जताया है कि इस बार सरसों की खेती से दोगुना उत्पादन मिल सकता है, यानी इस बार की जलवायु सरसों की खेती के अनुकूल रहने वाली है। तिलहनी फसल की एमएसपी काफी बढ़ गयी है। तथा बाजार में एमएसपी से काफी ऊंचे दामों पर सरसों की डिमांड चल रही है। इन संभावनाओं को देखते हुए किसान भाई अभी से सरसों की अगैती फसल लेने की तैयारी में जुट गये हैं। 

खाली खेतों में अगैती फसल लेने से होगा बहुत फायदा

Mustard ki kheti 

 जो किसान भाई खरीफ की खेती नहीं कर पाये हैं, वो अभी से सरसों की खेती की अगैती फसल लेने की तैयारी में जुट गये हैं। इन किसानों के अलावा अनेक किसान ऐसे भी हैं जो खरीफ की फसल को लेने के बाद सरसों की खेती करने की तैयारी कर रहे हैं। कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि जिन किसानों ने गन्ना,प्याज, लहसुन व अगैती सब्जियों की खेती के लिए खेतों को खाली रखते हैं, वो भी इस बार सरसों के दामों को देखते हुए सरसों की खेती करने की तैयारी कर रहे हैं। कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि जो किसान भाई सरसों की अगैती फसल लेंगे वे अतिरिक्त मुनाफा कमा सकते हैं। इंडियन कौंसिल ऑफ़ एग्रीकल्चर रिसर्च के कृषि विशेषज्ञ डॉ. नवीन सिंह का कहना है कि जो खेत सितम्बर तक खाली हो जाते हैं, उनमें कम समय में तैयार होने वाली सरसों की खेती करके किसान भाई अच्छा खासा मुनाफा कमा सकते हैं। उनका कहना है कि भारतीय सरसों की अनेक किस्में ऐसी हैं जो जल्दी तैयार हो जाती हैं और वो फसलें उत्पादन भी अच्छा दे जाती हैं।

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अच्छी प्रजातियों का करें चयन

mustard ki kheti 

 किसान भाइयों, आइये जानते हैं कि सरसों की कम समय में अधिक उत्पादन देने वाली कौन-कौन सी अच्छी प्रजातियां हैं:- 

1.पूसा अग्रणी:- इस प्रजाति के बीज से सरसों की फसल मात्र 110 दिन में पक कर तैयार हो जाती है। इस बीज से किसान भाइयों को प्रति हेक्टेयर लगभग 14 क्विंटल सरसों का उत्पादन मिल जाता है। 

2. पूसा तारक और पूसा महक:- सरसों की ये दो प्रजातियों के बीजों से भी अगैती फसल ली जा सकती है। इन दोनों किस्मों से की जाने वाली खेती की फसल 110 से 115 दिनों के बीच पक कर तैयार हो जाती है। खाद, पानी, बीज आदि का अच्छा प्रबंधन हो तो इन प्रजातियों से प्रति हेक्टेयर 15-20 क्विंटल की पैदावार मिल जाती है। 

3. पूसा सरसों-25 :- कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार पूसा सरसों-25 ऐसी प्रजाति है जिससे सबसे कम समय में फसल तैयार होती है। उन्होंने बताया कि इस प्रजाति से मात्र 100 दिनों में फसल तैयार हो जाती है। इससे पैदावार प्रति हेक्टेयर लगभग 15 क्विंटल उत्पादन मिल जाता है। 

4. पूसा सरसों-27:- इस प्रजाति के बीज से औसतन 115 दिन में फसल तैयार हो जाती है तथा पैदावार 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर के आसपास रहती है। 

5. पूसा सरसों-28:- इस प्रजाति से खेती करने वालों को थोड़ा विशेष ध्यान रखना होता है। समय पर बुआई के साथ निराई-गुड़ाई एवं खाद-पानी का प्रबंधन अच्छा करके किसान भाई प्रति हेक्टेयर 20 क्विंटल तक की पैदावार ले सकते हैं। 

6. पूसा करिश्मा: इस प्रजाति से सरसों की फसल 148 दिनों के आसपास तैयार हो जाती है तथा इस प्रजाति से प्रति हेक्टेयर 22 क्विंटल तक की पैदावार ली जा सकती है। 

7. पूसा विजय: इस प्रजाति के बीजों से फसल लगभग 145 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है तथा इससे प्रति हेक्टेयर 25 क्विंटल तक फसल ली जा सकती है। 

8.पूसा डबल जीरो सरसों -31:- इस किस्म के बीज से  सरसों की खेती  140 दिनों में तैयार होती है तथा इससे उत्पादन प्रति हेक्टेयर 23 क्विंटल तक लिया जा सकता है। 

9. एनआरसीडीआर-2 :- इस उन्नत किस्म के बीज से सरसों की फसल 131-156 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है। अच्छे प्रबंधन से प्रति हेक्टेयर 20 से 27 क्विंटल तक का उत्पादन लिया जा सकता है। 

10. एनआरसीएचबी-506 हाइब्रिड:- अधिक पैदावार के लिए यह बीज अच्छा माना जाता है। इससे सरसों की फसल 127-145 दिनों में तैयार हो जाती है। जमीन, जलवायु और उचित देखरेख से इस बीज से प्रति हेक्टेयर 16 से 26 क्विंटल तक की पैदावार ली जा सकती है। 

11. एनआरसीएचबी 101:- इस प्रजाति के बीच सेसरसों की फसल 105-135 दिनों में तैयार होती है तथा पैदावार प्रति हेक्टेयकर 15 क्विंटल तक ली जा सकती है। 

12. एनआरसीडीआर 601:- यह प्रजाति भी अधिक पैदावार चाहने वाले किसान भाइयों के लिए सबसे उपयुक्त है। इस बीच से की जाने वाली खेती से फसल 137 से 151 दिनों में तैयार हो जाती है तथा प्रति हेक्टेयर 20 से 27 क्विटल तक पैदावार ली जा सकती है।

कब होती है बुवाई और कब होती है कटाई

mustard ki kheti 

 कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार सरसों की अगैती की फसल की बुआई का सबसे अच्छा समय सितम्बर का पहला सप्ताह माना जाता है। यदि किसी कारण से देर हो जाये तो सितम्बर के दूसरे और तीसरे सप्ताह में अवश्य ही बुआई हो जानी चाहिये। इस अगैती फसल की कटाई जनवरी के शुरू में ही हो जाती है। अधिक पैदावार वाली प्रजातियों में एक से डेढ़ महीने का समय अधिक लगता है। इस तरह की फसलें फरवरी के अंत तक तैयार हो जाती हैं। 

सरसों की अगैती फसल के लाभ

सरसों की कम अवधि में तैयार होने वाली अगैती फसल से अनेक लाभ किसान भाइयों को मिलते हैं। इनमें से कुछ इस प्रकार हैं:-
  1. अगैती फसल लेने से सरसों की पैदावार माहू या चेपा कीट के प्रकोप से बच जाती है। इसके अलावा ये फसलें बीमारी से रहित होतीं हैं।
  2. सरसों की अगैती फसल लेने से खेत जल्दी खाली हो जाते हैं तथा एक साल में तीन फसल ली जा सकती है।

अगैती फसल के लिए किस तरह करें देखभाल

  1. बुवाई के समय उर्वरक प्रबंधन के लिए खेत में प्रति हेक्टेयर एक क्विंटल सिंगल सुपर फास्फेट, 40 किलो यूरिया और 25 से 30 किलो एमओपी डालें।
  2. खरपतवार को रोकने के लिए बुआई से एक सप्ताह बाद पैंडीमेथलीन का 400 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें। एक माह बाद निराई-गुड़ाई की जानी चाहिये।
  3. सिंचाई के लिए खेत की देखभाल करते रहें। बुआई के लगभग 35 से 40 दिन बाद खेत का निरीक्षण करें। आवश्यकता हो तो सिंचाई करें। उसके बाद एक और सिंचाई फली में दाना आते समय करनी चाहिये लेकिन इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि जब फूल आ रहे हों तब सिंचाई नहीं करनी चाहिये।
  4. पहली सिंचाई के बाद पौधों की छंटाई करनी चाहिये। उस समय किसान भाइयों को इस बात का ध्यान रखना होगा कि लाइन से लाइन की दूरी 45 सेंटीमीटर और पौधों से पौधों की दूरी 20 सेंटी मीटर रहे। इसी समय यूरिया का छिड़काव करें।
  5. खेत की निगरानी करते समय माहू या चेपा कीट के संकेत मिलें तो पांच मिली लीटर नीम के तेल को एक लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें।या इमीडाक्लोप्रिड की 100 मिली लीटर मात्रा को 200 लीटर पानी में मिलाकर शाम के समय छिड़काव करें। यदि लाभ न हो तो दस-बारह दिन बाद दुबारा छिड़काव करें।
  6. फलियां बनते समय थायोयूरिया 250 ग्राम को 200 लीटर पानी में मिलाकर खेत में छिड़काव करें। जब 75 प्रतिशत फलियां पीली हो जायें तब कटाई की जाये। पूरी फलियों के पकने का इंतजार न करें वरना दाने चिटक कर गिरने लगते हैं।

ढैंचा की खेती से संबंधित विस्तृत जानकारी

ढैंचा की खेती से संबंधित विस्तृत जानकारी

भारत के विभिन्न राज्यों में किसान यूरिया के अभाव और कमी से जूझते हैं। यहां की विभिन्न राज्य सरकारों को भी यूरिया की आपूर्ति करने के लिए बहुत साड़ी समस्याओं और परेशानियों का सामना करना पड़ता है। 

आज हम आपको इस लेख में एक ऐसी फसल की जानकारी दे रहे हैं, जो यूरिया की कमी को पूर्ण करती है। ढैंचा की खेती किसान भाइयों के लिए बेहद मुनाफेमंद है। क्योंकि यह नाइट्रोजन का एक बेहतरीन स्रोत मानी जाती है। 

भारत में फसलों की पैदावार को अच्छा खासा करने के लिए यूरिया का उपयोग काफी स्तर पर किया जाता है। क्योंकि, इससे फसलों में नाइट्रोजन की आपूर्ति होती है, जो पौधों के विकास के लिए अत्यंत आवश्यक है।

परंतु, यूरिया जैव उर्वरक नहीं है, जिसकी वजह से प्राकृतिक एवं जैविक खेती का उद्देश्य पूर्ण नहीं हो पाता है। हालांकि, वर्तमान में सामाधान के तोर पर किसान ढैंचा की खेती पर अधिक बल दे रहे हैं। 

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क्योंकि, ढैंचा एक हरी खाद वाली फसल है जो नाइट्रोजन का बेशानदार जरिया है। ढैंचा के इस्तेमाल के बाद खेत में किसी भी अतिरिक्त यूरिया की आवश्यकता नहीं पड़ती। साथ ही, खरपतवार जैसी समस्याएं भी जड़ से समाप्त हो जाती हैं।

ढैंचा की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु 

उपयुक्त जलवायु- ढैंचा की शानदार उपज के लिए इसको खरीफ की फसल के साथ उगाते हैं। पौधों पर गर्म एवं ठंडी जलवायु का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता है। 

परंतु, पौधों को सामान्य बारिश की आवश्यकता होती है। ढैंचा के पौधों के लिए सामान्य तापमान ही उपयुक्त माना जाता है। शर्दियों के दौरान अगर अधिक समय तक तापमान 8 डिग्री से कम रहता है, तो उत्पादन पर प्रभाव पड़ सकता है। 

ढैंचा की खेती के लिए मिट्टी का चयन

ढैंचा के पौधों के लिए काली चिकनी मृदा बेहद शानदार मानी जाती है। ढेंचा का उत्पादन हर प्रकार की भूमि पर किया जा सकता हैं। सामान्य पीएच मान और जलभराव वाली जमीन में भी पौधे काफी अच्छे-तरीके से विकास कर लेते हैं।  

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ढैंचा की खेती के लिए खेत की तैयारी 

सर्व प्रथम खेत की जुताई मृदा पलटने वाले उपकरणों से करनी चाहिए। गहरी जुताई के उपरांत खेत को खुला छोड़ दें, फिर प्रति एकड़ के हिसाब से 10 गाड़ी पुरानी सड़ी गोबर की खाद डालें और अच्छे से मृदा में मिला दें। 

अब खेत में पलेव कर दें और जब खेत की जमीन सूख जाए तो रासायनिक खाद का छिड़काव कर रोटावेटर चलवा देना चाहिए, जिसके पश्चात पाटा लगाकर खेत को एकसार कर देते हैं।

ढैंचा की फसल की बुवाई करने का समय  

हरी खाद की फसल लेने के लिए ढैंचा के बीजों को अप्रैल में लगाते हैं। लेकिन उत्पादन के लिए बीजों को खरीफ की फसल के समय बारिश में लगाते हैं। एक एकड़ के खेत में करीब 10 से 15 किलो बीज की आवश्यकता होती है। 

ढैंचा की फसल की रोपाई  

बीजों को समतल खेत में ड्रिल मशीन के माध्यम से लगाया जाता हैं। इन्हें सरसों की भांति ही पंक्तियों में लगाया जाता है। पंक्ति से पंक्ति के मध्य एक फीट की दूरी रखते हैं और बीजों को 10 सेमी की फासले के लगभग लगाते हैं। 

लघु भूमि में ढैंचा के बीजों की रोपाई छिड़काव के तरीके से करना चाहिए। इसके लिए बीजों को एकसार खेत में छिड़कते हैं। फिर कल्टीवेटर से दो हल्की जुताई करते हैं, दोनों ही विधियों में बीजों को 3 से 4 सेमी की गहराई में लगाएं।

घर पर ही यह चारा उगाकर कमाएं दोगुना मुनाफा, पशु और खेत दोनों में आएगा काम

घर पर ही यह चारा उगाकर कमाएं दोगुना मुनाफा, पशु और खेत दोनों में आएगा काम

भारत के किसानों के लिए कृषि के अलावा पशुपालन का भी अपना ही एक अलग महत्व होता है। छोटे से लेकर बड़े भारतीय किसान एवं ग्रामीण महिलाएं, पशुपालन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

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ग्रामीणों की अर्थव्यवस्था को एक ठोस आधार प्रदान करने के अलावा, खेती की मदद से ही पशुओं के लिए चारा एवं फसल अवशेष प्रबंधन (crop residue management) की भी व्यवस्था हो जाती है और बदले में इन पशुओं से मिले हुए ऑर्गेनिक खाद का इस्तेमाल खेत में ही करके उत्पादकता को भी बढ़ाया जा सकता है।

एजोला चारा (Azolla or Mosquito ferns)

अलग-अलग पशुओं को अलग-अलग प्रकार का चारा खिलाया जाता है, इसी श्रेणी में एक विशेष तरह का चारा होता है जिसे 'एजोला चारा' के नाम से जाना जाता है। 

यह एक सस्ता और पौष्टिक पशु आहार होता है, जिसे खिलाने से पशुओं में वसा एवं वसा रहित पदार्थ वाली दूध बढ़ाने में मदद मिलती है। 

अजोला चारा की मदद से पशुओं में बांझपन की समस्या को दूर किया जा सकता है, साथ ही उनके शरीर में होने वाली फास्फोरस की कमी को भी दूर किया जा सकता है।

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इसके अलावा पशुओं में कैल्शियम और आयरन की आवश्यकता की पूर्ति करने से उनका शारीरिक विकास भी बहुत अच्छे से हो पाता है।

समशीतोष्ण जलवायु में पाए जाने वाला यह अजोला एक जलीय फर्न होता है।

अजोला की लोकप्रिय प्रजाति पिन्नाटा भारत से किसानों के द्वारा उगाई जाती है। यदि अजोला की विशेषताओं की बात करें तो यह पानी में बहुत ही तेजी से वृद्धि करते हैं और उनमें अच्छी गुणवत्ता वाले प्रोटीन होने की वजह से जानवर आसानी से पचा भी लेते है। अजोला में 25 से 30% प्रोटीन, 60 से 70 मिलीग्राम तक कैल्शियम और 100 ग्राम तक आयरन की मात्रा पाई जाती है।

कम उत्पादन लागत वाला वाला यह चारा पशुओं के लिए एक जैविक वर्धक का कार्य भी करता है।

एक किसान होने के नाते आप जानते ही होंगे, कि रिजका और नेपियर जैसा चारा भारतीय पशुओं को खिलाया जाता रहा है, लेकिन इनकी तुलना में अजोला पांच गुना तक अच्छी गुणवत्ता का प्रोटीन और दस गुना अधिक उत्पादन दे सकता है।

अजोला चारा उत्पादन के लिए आपको किसी विशेषज्ञ की जरूरत नहीं होगी, बल्कि किसान खुद ही आसानी से घर पर ही इसको ऊगा सकते है।

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इसके लिए आपको क्षेत्र को समतल करना होगा और चारों ओर ईंट खड़ी करके एक दीवार बनाई जाती है।

उसके अंदर क्यारी बनाई जाती है जिससे पानी स्टोर किया जाता है और प्लांट को लगभग 2 मीटर गहरे गड्ढे में बनाकर शुरुआत की जा सकती है। 

इसके लिए किसी छायादार स्थान का चुनाव करना होगा और 100 किलोग्राम छनी हुई मिट्टी की परत बिछा देनी होगी, जोकि अजोला को पोषक तत्व प्रदान करने में सहायक होती है।

इसके बाद लगभग पन्द्रह लीटर पानी में पांच किलो गोबर का घोल बनाकर उस मिट्टी पर फैला देना होगा।

अपने प्लांट में आकार के अनुसार 500 लीटर पानी भर ले और इस क्यारी में तैयार मिश्रण पर, बाजार से खरीद कर 2 किलो ताजा अजोला को फैला देना चाहिए। इसके पश्चात 10 लीटर हल्के पानी को अच्छी तरीके से छिड़क देना होगा।

इसके बाद 15 से 20 दिनों तक क्यारियों में अजोला की वर्द्धि होना शुरू हो जाएगी। इक्कीसवें दिन की शुरुआत से ही इसकी उत्पादकता को और तेज करने के लिए सुपरफ़ास्फेट और गोबर का घोल मिलाकर समय-समय पर क्यारी में डालना होगा। 

यदि आप अपने खेत से तैयार अजोला को अपनी मुर्गियों को खिलाते हैं, तो सिर्फ 30 से 35 ग्राम तक खिलाने से ही उनके शरीर के वजन एवं अंडा उत्पादन क्षमता में 20% तक की वृद्धि हो सकती है, एवं बकरियों को 200 ग्राम ताजा अजोला खिलाने से उनके दुग्ध उत्पादन में 30% की वृद्धि देखी गई है।

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अजोला के उत्पादन के दौरान उसे संक्रमण से मुक्त रहना अनिवार्य हो जाता है, इसके लिए सीधी और पर्याप्त सूरज की रोशनी वाले स्थान को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। हालांकि किसी पेड़ के नीचे भी लगाया जा सकता है लेकिन ध्यान रहे कि वहां पर सूरज की रोशनी भी आनी चाहिए।

साथ ही अजोला उत्पादन के लिए 20 से 35 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान को उचित माना जाता है।

सही मात्रा में गोबर का घोल और उर्वरक डालने पर आपके खेत में उगने वाली अजोला की मात्रा को दोगुना किया जा सकता है। 

यदि आप स्वयं पशुपालन या मुर्गी पालन नहीं करते हैं, तो उत्पादन इकाई का एक सेंटर खोल कर, इस तैयार अजोला को बाजार में भी बेच सकते है। 

उत्तर प्रदेश, बिहार तथा झारखंड जैसे राज्यों में ऐसी उत्पादन इकाइयां काफी मुनाफा कमाती हुई देखी गई है और युवा किसान इकाइयों के स्थापन में अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं। 

किसान भाइयों को जानना होगा कि पशुओं के लिए एक आदर्श आहार के रूप में काम करने के अलावा, अजोला का इस्तेमाल भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाने में हरी खाद के रूप में भी किया जाता है। 

इसे आप 15 से 20 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से अपने खेत में फैला सकते हैं, तो आपके खेत की उत्पादकता आसानी से 20% तक बढ़ सकती है। लेकिन भारतीय किसान इसे खेत में फैलाने की तुलना में बाजार में बेचना ज्यादा पसंद करते हैं, क्योंकि वहां पर इसकी कीमत काफी ज्यादा मिलती है।

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आशा करते हैं, घर में तैयार किया गया अजोला चारा भारतीय किसानों के पशुओं के साथ ही उनके खेत के लिए भी उपयोगी साबित होगा और हमारे द्वारा दी गई यह जानकारी उन्हें पूरी तरीके से पसंद आई होगी।

अच्छी गुणवत्ता वाले दूध के लिए हुई पशुपालन की शुरुआत, आज गन्ने से बनाते हैं चाय और पानीपुरी

अच्छी गुणवत्ता वाले दूध के लिए हुई पशुपालन की शुरुआत, आज गन्ने से बनाते हैं चाय और पानीपुरी

परिवार को अच्छी गुणवत्ता वाला दूध पिलाने के लिए 2018 में की गई शुरुआत, एक किसान परिवार और व्यक्तिगत किसान के लिए आने वाले समय में एक बड़े लक्ष्य की तरफ बढ़ाया गया पहला कदम था। शुरुआत से ही जैविक खेती (Organic farming) और केमिकल मुक्त जीवन यापन में विश्वास रखने वाले अंबाला के निवासी, इंजीनियर विपन सरीन (Vipan Sarin) अब अपने आसपास के क्षेत्रों में, कृषि से प्राप्त होने वाले उत्पादों से दैनिक जीवन में इस्तेमाल होने वाली कई दूसरी चीजों के निर्माण के लिए जाने जाते हैं। लोग उन्हें किसानों के इंजीनियर बाबू कह कर भी संबोधित करते हैं। विपन बताते हैं कि जब उन्होंने अच्छी गुणवत्ता के दूध के लिए एक गाय का पालन अपने घर पर ही किया, तो उनके परिवार को काफी फायदा मिला और उन्हें पशुपालन और कृषि जगत से जुड़े क्षेत्रों में कुछ नया करने का साहस भी मिला। महाराष्ट्र के कई दूसरे स्थानों और मुंबई में मुफ्त में ऑर्गेनिक सब्जियां उपलब्ध करवाकर जैविक खेती के प्रति अपने पैशन को साबित कर चुके विपन ने अपनी पूरी जमीन के 20% हिस्से पर जैविक खेती की शुरुआत की थी और उन्होंने सबसे पहले गन्ने की ही खेती के साथ अपने इन विचारों को आगे बढ़ाने की सोची।

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अपनी खेती में मिली सफलता के बाद उन्होंने अपने आसपास के क्षेत्रों में स्थित किसान भाइयों को भी इसी तरह से खेती करने की सलाह दी। विपन बताते हैं कि जब शुरुआत में उन्होंने किसानों को वैल्यू ऐडेड प्रोडक्ट्स (Value added products) तैयार करने के लिए मनाना शुरू किया, तो कुछ लोगों को तो लगा कि ऐसा करके विपन अपना कोई फायदा ढूंढ रहे हैं और कई किसान भाई उनके इस प्रयास में सहयोग देने के लिए तैयार नहीं हुए, लेकिन जब विपन ने उन्हें समझाया कि गन्ने से तैयार होने वाले गुड़ (Jaggery) और चीनी (sugar) में हमें और हमारे उद्यमी भाइयों को बड़ी मशीनों की आवश्यकता होती है, जो कि भारत में अभी भी हर स्थान पर उपलब्ध नहीं है और किसानों को मजबूरन सहकारी संस्थाओं के द्वारा दी जाने वाली रेट को ही स्वीकार करना पड़ता है। अपने इन्हीं प्रयासों की बदौलत आज विपन गन्ने के जूस से तैयार किए गए कुछ सामान, जैसे कि जलेबी, पानीपुरी और आइसक्रीम जैसी चीजों के अलावा इमली के साथ मिलाकर उसकी चटनी भी तैयार कर पा रहे हैं और नई बाजार स्ट्रेटजी तथा बड़ी मल्टीनेशनल कंपनियों में काम करने वाले कुछ लोगों की मदद से, किसानों के द्वारा तैयार किए गए अपने इन उत्पादों को बाजार में बेचने के लिए एक बेहतर बैकवर्ड-फॉरवर्ड लिंकेज (Backward-forward linkage) के लिए भी लगातार प्रयासरत है। साल 2020 में विपन ने सेलेब्रेटिंग फार्मर एज इंटरनेशनल प्राइवेट लिमिटेड (Celebrating Farmers Edge International Private Limited) नाम की एक कंपनी की शुरुआत भी की है, जो इसी तरह के नए विचार किसानों के समक्ष प्रस्तुत करती है और किसानों को नए विचार खोजने के लिए इनाम भी देती है। विपन बताते हैं कि शुरुआती दिनों में किसानों को मनाना बहुत मुश्किल था इसलिए उन्होंने सोशल मीडिया और सामान्य इस्तेमाल में आने वाले माध्यमों का उपयोग किया। उन्होंने फेसबुक की मदद से पुणे और आसपास के क्षेत्रों से जुड़े किसानों से संपर्क बनाने की कोशिश की और नई स्टार्टअप के साथ सहयोग की भावना से तैयार किए गए उत्पादों की पैकेजिंग, मार्केटिंग और कुछ नए बेहतर इनोवेटिव विचारों के लिए किसानों की समय-समय पर वीडियो कॉल के जरिए बैठक भी आयोजित करवाई।

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इसके अलावा विपन साल 2018 से स्वयं कई बड़ी मल्टीनेशनल कंपनियों से संपर्क कर पुणे और महाराष्ट्र के किसानों के लिए भी कोल्ड स्टोरेज की सुविधा भी उपलब्ध करवा चुके है। विपिन बताते हैं कि इमली की चटनी पहले भी कई किसान बनाया करते थे, लेकिन इसे गन्ने के जूस को कच्चे माल के रूप में इस्तेमाल कर बनाने से आर्थिक और स्वास्थ्य वर्धक दोनों ही फायदों में अच्छी वृद्धि हुई है। वह बताते है कि इमली की चटनी पहले गुड़, इमली और पानी तथा मसालों के मिश्रण से बनाई जाती थी, लेकिन अब गुड़ की जगह पर उस में गन्ने का जूस सीधा ही डाल दिया जाता है और इससे एक किलोग्राम इमली की चटनी तैयार करने में आने वाले खर्च में 50% तक की कमी आ गई है, इसी वजह से किसानों का मुनाफा 50% तो सीधे रूप से यहीं से बढ़ गया है। वह बताते है कि किसान अपने घर पर गुड़ भले ही ना बना पाए, लेकिन गन्ने का जूस आसानी से निकाल सकते है।

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जब विपन से उनके इसी तरह की इनोवेटिव कृषि विचारों के भविष्य के प्लान के बारे में पूछा गया तो पता चला कि वह आने वाले समय में कई लाखों किसानों को ऐसे ही नए विचारों की मदद से समृद्ध बनाने की राह पर ले जाने के लिए प्रयासरत रहेंगे। विनय मानते कि केवल किसान ही एकमात्र ऐसी कौम है जो कम बचत में भी सभी लोगों के पेट भरने का साहस रखती है, इसीलिए समाज के दूसरे सभी पक्षों को मिलकर इनकी मदद करनी चाहिए और देश को कृषि उत्पादों में आत्मनिर्भर बनाने वाले इन किसान भाइयों की खुशहाली में भागीदारी लेनी चाहिए। विपन बताते हैं कि जब शुरुआत में वह पानीपुरी के व्यवसाय करने वाले किसानों और दूसरे छोटे व्यापारियों के पास पहुंचे और उन्हें गन्ने की मदद से गोलगप्पे के साथ इस्तेमाल होने वाले पानी बनाने की सलाह दी तो लोगों ने उनका मजाक भी उड़ाया, लेकिन कुछ दिन बाद ही विपन ने अपने घर पर खुद के द्वारा मेहनत कर तैयार उत्पाद जब उन छोटे व्यापारियों को दिखाया और पानीपुरी में इस्तेमाल होने वाले पानी को गन्ने के रस के मिश्रण से बनाकर उन लोगों को खिलाया तो वह भी विपन के नए विचारों के कायल हो गए। विपिन बताते है कि गन्ना एक आकर्षक पसंद है जो कि अच्छा मुनाफा प्रदान कर सकती है। विपन तो यहां तक कहते है कि किसान भाइयों को ऑर्गेनिक सब्जियों की उपज को छोड़कर कुछ दिनों तक गन्ने की खेती कर देखना चाहिए, इससे उनका मुनाफा अवश्य बढ़ेगा, क्योंकि उनका मानना है कि जैविक सब्जियों का उत्पादन करना रसायनिक उत्पाद से तैयार हुई खेती की तुलना में महंगा पड़ता है और फिर किसानों को अपना मुनाफा बनाए रखने के लिए इन सब्जियों को महंगे दाम पर बेचना भी पड़ता है, लेकिन अभी भी भारत के मध्यमवर्गीय परिवारों में जैविक खेती को लेकर इतनी अधिक जागरूकता नहीं है, इसीलिए इनको खरीदने वाले ग्राहकों की संख्या भी कम है।

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विपन बताते हैं कि इसके लिए किसानों को 80:20 कृषि बिजनेस मॉडल का पालन करना चाहिए और किसान भाई अपने खेत की 80% जमीन में किसी भी दूसरी फसल का उत्पादन कर सकते है लेकिन 20% हिस्से में गन्ने का उत्पादन करके एक बार परीक्षण अवश्य करना चाहिए। विपिन का मानना है कि यदि भारत को कृषि उत्पादन में बढ़ोतरी और बढ़ती हुई जनसंख्या की मांग की पूर्ति करनी है तो अब पारंपरिक रूप से की जा रही कृषि से काम नहीं चलेगा और आत्मनिर्भरता बनाए रखने के लिए ऐसे ही नए प्रगतिशील किसानों की आवश्यकता होगी, हालांकि इसके लिए विपन भारत सरकार और कई राज्य सरकारों के द्वारा किए जा रहे प्रयासों की भी तारीफ करते है।

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आशा करते है कि हमारे किसान भाइयों को कई कृषि विश्वविद्यालयों और उद्यमी शाखाओं से सम्मान प्राप्त कर चुके विपन जैसे प्रगतिशील किसानों की सफलता की यह कहानी पढ़कर कुछ नया सीखने को मिला होगा और भविष्य में ऐसे ही किसान भाई प्रगतिशील किसान बनने की राह पर चलकर भारत को आने वाले समय की खाद्य समस्या से बचाने में सहयोग प्रदान करने के अलावा कई निरक्षर और तकनीक से अनजान किसानों की मदद भी कर पाएंगे।

जानिए किस प्रकार घर पर ही मसूर की दाल से जैविक खाद तैयार करें

जानिए किस प्रकार घर पर ही मसूर की दाल से जैविक खाद तैयार करें

बागवानी में हम जिन खादों का इस्तेमाल करते हैं, उनमें जैविक खादों का अपना अहम महत्व होता है। बहुत सारी खादों को हम घर पर ही तैयार कर सकते हैं। आज हम आपको मसूर की दाल से निर्मित होने वाली खाद के विषय में बताने जा रहे हैं। आपको इस खाद को तैयार करने के लिए सिर्फ दो मुठ्ठी मसूर की दाल की आवश्यकता होती है। दरअसल, आप अपने घर के लगभग सभी गमलों में इसका प्रयोग कर सकते हैं। मसूर की दाल से खाद निर्मित किए जाते हैं। खाद अथवा उर्वरक पोधों के पोषण के लिए तो आवश्यक होने के साथ-साथ उनके विकास में भी मददगार साबित होती है। हम घर में बागवानी करते समय विभिन्न प्रकार की जैविक और अजैविक खादों का इस्तेमाल करते हैं। दरअसल, इस लेख में हम आपको बागवानी में इस्तेमाल होने वाली एक ऐसी खाद के विषय में बताएंगे, जिसे निर्मित करने में आपको किसी भी अतिरिक्त सामग्री की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। साथ ही, घर में मौजूद सामग्रियों के जरिए से आप यह खाद घर पर ही बना सकते हैं। दरअसल, इस खाद को हम मसूर की दाल से निर्मित करते हैं। साथ ही, इसका इस्तेमाल हम घर की बागवानी वाले पौधों के लिए भी कर सकते हैं।

खाद तैयार करने की विधि

मसूर की दाल की बात की जाए तो इसमें वे समस्त पोषक तत्व विघमान होते हैं, जिनके चलते पौधों में विकास और वृद्धि को रफ्तार मिलती है। इसको तैयार करने के लिए आपको सबसे पहले दो मुठ्ठी दाल को तकरीबन आधा लीटर पानी में डाल लें। पानी में इस दाल को 4 से 5 घंटे तक रखें। यदि मौसम सर्दी का है, तो आप इसको रात भर भिगो कर रख सकते हैं।

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पानी का मिश्रण किस अनुपात में किया जाए

पौधों में इस खाद को डालने के लिए सर्व प्रथम पानी और दाल को अलग कर लेना है। आपको दाल के भिन्न किए गए पानी में 1:5 के अनुपात में पानी और मिला लेना है। इस पानी को पौधों में एक स्प्रे बोतल से छिड़काव के साथ में पौधों की मृदा में पानी को डाल देना है। यह पानी बहुत सारे पोषक तत्वों से भरपूर होता है, जिसकी वजह से पौधों में होने वाले विकास में वृद्धि होती है। आपको इस बात का विशेष ख्याल रखना है, कि यह पानी आपको पौधों में एक माह में केवल एक बार ही देना है। पानी से केवल पौधों की मिट्टी की ऊपरी सतह भीगने तक ही सिंचाई करनी चाहिए।

किस प्रकार प्रयोग करें

किसान भाइयों यदि आप इस दाल के पानी से खाद तैयार करना चाहते हैं, तो आपको एक बार के इस्तेमाल के पश्चात उस दाल को फेंकना नहीं है। क्योंकि, एक बार के उपयोग के पश्चात भी इसके पोषक तत्व खत्म नहीं होते हैं। आप इस दाल का इस्तेमाल तीन बार तक कर सकते हैं। पौधों में इस खाद का इस्तेमाल पानी के तौर पर नहीं करना चाहिए। बतादें, कि आप इस दाल को महीन पीस लें। साथ ही, इसे पौधों की मिट्टी की ऊपरी परत पर ही मिला दें। आपको इसे मिलाने से पूर्व एक बात का खास ख्याल रखना होगा कि आप जिन पौधों में इस खाद को मिश्रित करने जा रहे हैं, उस मिट्टी की पहले गुड़ाई कर लें। इसके पश्चात ही इसका उपयोग करें।
सीखें वर्मी कंपोस्ट खाद बनाना

सीखें वर्मी कंपोस्ट खाद बनाना

वर्मी कंपोस्ट खाद उसे कहते हैं जो कि गोबर, फसल अवशेष आदि को केंचुऔं द्वारा अपना आहार बनाकर मल के रूप में छोड़ा जाता है।यह खाद बेहद पोषक होता है। 

इसके अलावा इस खाद में किसी तरह के खरपतवार आदि के बीज भी नहीं रहते। इस खाद में मूल तत्व नाइट्रोजन, फास्फोरस एवं पोटाश के अलावा जरूरी अधिकांश सूक्ष्म पोषक तत्व भी मौजूद रहते हैं। 

इस खाद का प्रयोग फसलों में रासायनिक यूरिया आदि उर्वरकों की तरह बुरकाव में करने से भी फसल इसे तत्काल ग्रहण करती है। इसके इतर यदि गोबर की सादी खाद को बुर्का जाए तो फसल में दुष्प्रभाव नजर आ सकता है। खाद का प्रयोग जमीन में आखरी जुताई के समय मिट्टी में मिला कर ज्यादा अच्छा होता है।

केंचुए की मुख्य किस्में

केंचुए की मुख्य किस्में

भारत में केंचुए की कई किस्में मिलती है। इनमें आईसीनिया फोटिडा, यूट्रिलस यूजीनिया और पेरियोनेक्स एक्जकेटस प्रमुख हैं। इनके अलावा आईवीआरआई बरेली के वैज्ञानिकों द्वारा देसी जय गोपाल किस्म भी खोजी है।

सबसे ज्यादा आईसीनिया फोटिडा किस्म का केचुआ वर्मी कंपोस्ट खाद बनाने के लिए प्रचलित है। विदेशी किस्म का यह केंचुआ भारत की विभिन्न जलवायु परिस्थितियों में सरवाइव कर जाता है और अच्छा कंपोस्ट उत्पादन देता है।

कैसे तैयार होती है खाद

कैसे तैयार होती है खाद 

केंचुआ खाद तैयार करने के लिए छायादार जगह पर 10 फीट लंबा, 3 फीट चौड़ा और 12 इंच गहरा पक्का सीमेंट का ढांचा तैयार किया जाता है। इसे पशुओं की लड़ाई जैसा बनाया जाता है। 

जमीन से थोड़ा उठाकर इसका निर्माण कराना चाहिए। इस ढांचे में गोबर को डालने से पूर्व अभी समतल स्थान पर हल्का पानी डालकर एक-दो दिन कटाई कर ली जाए तो इसमें मौजूद मीथेन गैस उड़ जाती है। 

तदुपरांत इस गोबर को लड़ली लूमा बनाए गए पक के ढांचे में डाल देते हैं। नाचे को गोबर से भर कर उसमें 100 -200 केंचुए छोड़ देते हैं। इसके बाद गोबर को झूठ के पुराने कटों से ढक देते हैं। बेग से ढके गोबर के ढेर पर प्रतिदिन पानी का हल्का छिड़काव करते हैं।

पानी की मात्रा इतनी रखें कि नमी 60% से ज्यादा ना हो। तकरीबन 2 महीने में केंचुए इस गोबर को अपना आहार बनाकर चाय की पत्ती नुमा बना देंगे। इस खाद को 15 से 20 क्विंटल प्रति एकड़ की दर से खेत में डालने से फसल उत्पादन बढ़ता है। 

जमीन की उर्वरा शक्ति बढ़ती है और फसलों में रोगों से लड़ने की ताकत बढ़ती है। वर्मी कंपोस्ट में गोबर की खाद के मुकाबले 5 गुना नाइट्रोजन, 8 गुना फास्फोरस, 11 गुना पोटाश, 3 गुना मैग्नीशियम तथा अनेक सूक्ष्म पोषक तत्व मौजूद रहते हैं।

खाद के साथ कछुए के अंडे भी जमीन में चले जाते हैं और वह जमीन की मिट्टी को खाकर उसमें चित्र बनाते हैं जो जमीन के अंदर हवा और पानी का संचार आसन करते हैं ‌।

Swaraj Tractor: आ गया खेती का भी Code

Swaraj Tractor: आ गया खेती का भी Code

स्वराज(swaraj) मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और इसे में लेकर रहूँगा. ये वाक्य किसने कहा था हमें नीचे कमेंट करके बताएं किसानों से ज्यादा स्वराज(Swaraj) को कोण समझ सकता है जिसके बेटे सीमा पर और वो खुद खेत में रहता है. swaraj tractor आज हम बात करते हैं स्वराज ट्रेक्टर के नए product Code की. जिसको स्वराज ने अपने किसानों के हिट में बनाया है. स्वराज ट्रेक्टर ( Swaraj Tractor )1974 में शुरू हुआ और आज किसानों के बीच में एक जाना पहचाना नाम बन गया है. हमारे किसान भाइयों को छोटे छोटे काम करने के लिए छोटे tractors की आवश्यकता रहती है. जैसे आलू की फसल में दवाओं का छिड़काव करना हो या सब्जी में निराई गुड़ाई करनी हो या और भी बहुत कुछ. ये भी पढ़े: ट्रैक्टर Tractor खरीदने पर मिलेगी 50 फीसदी सब्सिडी(subsidy), ऐसे उठा सकते हैं इस योजना का लाभ हाथ से चलने वाले यन्त्र को tractor  का रूप दे दिया है Code एक स्मार्ट, बहु-उपयोगी उपकरण है जो कि किसानों को उनकी ज़रूरतों को अत्यंत सक्षमता के साथ पूरा करने में मदद करता है। इसका सुडौल आकार और motorcycle जैसे हैंडल इसे फसल देखभाल के कामकाजों (जैसे कि खरपतवार और छिड़काव) के लिए अतिउत्तम बनाता है। यह किसानों की मजदूरों पर निर्भरता को काफी हद तक घटाता है और कामकाज के खर्चों में काफी कमी लाता है। इससे डीजल और समय की बचत होती है तथा किसान की काफी हद तक मजदूरों पर निर्भरता कम होती है.

प्रोडक्ट स्पेसिफिकेशन्स नीचे दी गई हैं.

swaraj tractor

प्रोडक्ट स्पेसिफिकेशन

इंजन पॉवर 8.28 kW (11.1 HP)
डिस्प्लेसमेंट 389 cm3
रेटेड r/min 3600
सिलिंडर्स की संख्या 1
फ्युअल टाइप पेट्रोल (4स्ट्रोक)
स्टार्टिंग सिस्टम सिर्फ़ रिकॉयल स्टार्ट
या
सेल्फ स्टार्ट + रिकॉयल स्टार्ट टाइप
एयर क्लीनर ड्राई
ट्रांस्मिशन और फ्रंट एक्सल गियर बॉक्स टाइप स्लाइडिंग मेश
क्लच टाइप सिंगल क्लच, ड्राई डायाफ्राम टाइप
स्पीड ऑप्शन्स 6F + 3R
फॉरवर्ड स्पीड रेंज 1.9 km/h से 16.76 km/h
फ्युअल टाइप 2.2 km/h से 5.7 km/h
स्टार्टिंग सिस्टम फिक्स्ड
डिफ्रेन्शियल लॉक Yes
स्टियरिंग मैकेनिकल
वेहिकल स्पेसिफिकेशन ग्राउंड क्लियरेन्स (स्टै.) 266 mm
ग्राउंड क्लियरेन्स (हाई कॉन्फिगुरेशन) 554 mm
बाई-डायरेक्शनल 180 degree
चेसीस लैडर फ्रेम टाइप
पीटीओ व हाइड्रॉलिक्स पीटीओ 1000
हाईड्रॉलिक्स टू-वे हाइड्रॉलिक्स
लिफ्टींग क्षमता 220 kg @ hitch
ब्रेक्स ब्रेक तेल में डूबे हुए ब्रेक्स
वेट व डायमेन्शन अगला टायर 101.6 mm x 228.6 mm (4x9)
पिछला टायर 152.4 mm x 355.6 (6x14)
संपूर्ण उंचाई 1180 mm
संपूर्ण चौड़ाई 890 mm
व्हील बेस 1463 mm
मशीन का वजन 455 kg
जैविक खेती क्या है, जैविक खेती के फायदे

जैविक खेती क्या है, जैविक खेती के फायदे

भारत कृषि प्रधान देश है यह तथ्य हर कोई जानता है। इतना ही नहीं यहां के नागरिकों की खेती पर निर्भरता भी 80 फ़ीसदी के आसपास है। हरित क्रांति के शुरुआती दौर यानी 1960 से पूर्व यहां परंपरागत और जैविक खेती ही की जाया करती थी लेकिन बढ़ती आबादी और लोगों का पेट भरने के क्रम में रासायनिक खाद और उन्नत किस्मों के बीजों का चलन शुरू हुआ। हम आत्म निर्भर तो हुए, खाद्यान्न के भंडार भरे गए लेकिन खेती किसानी घाटे का सौदा होने लगा। साठ के दशक में 2 किलोग्राम रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग होता था। वह अब 100 किलो तक पहुंच गया है। लागत कई गुना बढ़ गई है और उत्पादन स्थिर हो गया है। प्रधानमंत्री के 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के वादे को पूरा करने में वैज्ञानिकों के भी हाथ पैर फूल रहे हैं। उन्हें कोई बेहतर रास्ता अभी तक समझ नहीं आया है। और फिर लोग जैविक खेती की तरफ लौटने की सलाह देने लगे हैं। इसके कई कारण हैं। बेकार होती जमीन, प्रभावित होती खाद्यान्न की गुणवत्ता, पशु और मानव में बढ़ते अनेक तरह के रोग इसके मुख्य कारण हैं। पर्यावरणीय संकट इससे भी ज्यादा गंभीर है। स्वास्थ्य को लेकर सजग लोगों के लिहाज से जैविक खेती अच्छी आय का जरिया बन रही है।

जैविक और रासायनिक कृषि में क्या अंतर है

कृषि जैविक एवं रासायनिक नहीं होती यह दोनों श्रेणी खेती की होती हैं। रसायनों में जीवन नहीं होता है जबकि जैविक खेती में इस तरह के खादों का प्रयोग किया जाता है जिनमें जीवन होता है। जैविक खेती में जीवाणु आदि होते हैं जोकि जमीन और पौधे दोनों को स्थाई शक्ति प्रदान करते हैं। रसायनों में जीवन नहीं होता है जबकि जिसमें जीवन होता है वह मरता भी है। जैविक खाद गोबर, कचरा, पौधों के पत्तेआदि की सड़ने की लंबी प्रक्रिया के बाद तैयार होते हैं। इनमें फसलों को पोषण देने वाले जीवाणु होते हैं।

रसायन मुक्त खेती

नशा मुक्त खेती को भी लोगों ने अनेक नाम दे दिए हैं। इनमें जैविक खेती, प्राकृतिक खेती, जीरो बजट खेती, टिकाऊ खेती, आवर्तन सील खेती, वैदिक खेती आदि नाम खासी चर्चा में है। जैविक खेती में रासायनिक खाद एवं कीटनाशकों का प्रयोग नहीं होता ‌। हरी खाद, गोबर की खाद, वर्मी कंपोस्ट, नेपेड कंपोस्ट आदि जैविक खादों का प्रयोग कर इस तरह की खेती की जाती है। जैविक खेती में बाहरी चीजों का प्रयोग बेहद कम किया जाता है। यह किसानों को प्रकृति के करीब लाती है।

जैविक खेती के फायदे

रासायनिक खादों से जहां मृदा, चारा और खाद्यान्न की गुणवत्ता प्रभावित होती है वही जैविक खादों से यह बेतहाशा बढ़ती है। जिन खेतों में जैविक खादों का प्रयोग होता है वहां की जल धारण क्षमता भी बढ़ जाती है और फसलों में पानी भी कम लगाना पड़ता है। जैविक खेती करने से किसानों की लागत 80 फ़ीसदी से और ज्यादा तक कम की जा सकती है।धीरे-धीरे जैविक खेती की ओर आने से फसलों की उत्पादकता और गुणवत्ता दोनों में ही इजाफा होता है। भूमि के जल स्तर में भी यह इजाफा करने का कारण बनती है। निर्यात के लिहाज से भी जैविक उत्पाद जल्दी बेचे जा सकते हैं।

कैसे बनाएं जैविक खाद

जैविक खाद बनाने के लिए पौधों के अवशेष गोबर, जानवरों का बचा हुआ चारा आदि सभी घास फूस को जमीन के नीचे 4 फीट गहरे गड्ढे में डालते रहना चाहिए। इसे जल्दी से लाने के लिए उसे संस्थान दिल्ली एवं जैविक खेती केंद्र गाजियाबाद के डिजाल्वाल्वर साल्यूसन का प्रयोग कर सकते हैं। इसके अलावा बेहद सस्ती कीमत पर सरकारी संस्थानों द्वारा जीवाणु खाद के पैकेट किसानों को दिए जाते हैं। इनमें एजेक्वेक्टर, पीएसबी, राइजोबियम आदि जीवाणु खाद प्रमुख हैं। जीवाणु खादों का प्रयोग होता है कि यह है जमीन में मौजूद नाइट्रोजन फास्फोरस पोटाश आदि तत्वों को अवशोषित कर के पौधों को प्रदान करते हैं। जैविक खेती में किसी तरह के रसायन का प्रयोग नहीं होता। इस तरीके से खेती करने वाले किसान केवल प्राकृतिक चीजों के माध्यम से कीट फफूंद आदि को खत्म करते हैं। इससे फसल पोषण युक्त और शादी युक्त पैदा होती है। किसी भी खेत में जैविकखेती करने के लिए कम से कम 2 से 3 साल का समय लगता है। धीरे-धीरे रसायनों का प्रयोग बंद किया जाता है और कार्बनिक खादों का प्रयोग शुरू किया जाता है। आज भारत में जैविक खाद्य उत्पादों का कारोबार तेजी से गति पकड़ रहा है और इनकी बेहद डिमांड है।
गेहूं की अच्छी फसल तैयार करने के लिए जरूरी खाद के प्रकार

गेहूं की अच्छी फसल तैयार करने के लिए जरूरी खाद के प्रकार

गेहूं की खेती पूरे विश्व में की जाती है। पुरे विश्व की धरती के एक तिहाई हिस्से पर गेहूं की खेती की जाती है। धान की खेती केवल एशिया में की जाती है जबकि गेहूं विश्व के सभी देशों में उगाया जाता है। 

इसलिये गेहूं की खेती का बहुत अधिक महत्व है और किसान भाइयों के लिए गेहूं की खेती कृषि उपज के प्राण के समान है। इसलिये प्रत्येक किसान गेहूं की अच्छी उपज लेना चाहता है। 

वर्तमान समय में वैज्ञानिक तरीके से खेती की जाती है। इसलिये किसान भाइयों को चाहिये कि वह गेहूं की खेती में खाद की मात्रा उन्नत एवं वैज्ञानिक तरीके से करेंगे तो उन्हें अपने खेतों में अच्छी पैदावार मिल सकती है।

क्यों है अच्छी फसल की जरूरत

किसान भाइयों एक बात यह भी सत्य है कि जमीन का दायरा सिकुड़ता जा रहा है और आबादी बढ़ती जा रही है। मानव का मुख्य भोजन गेहूं पर ही आधारित है। इसलिये गेहूं की मांग बढ़ना आवश्यक है। 

इस मांग को पूरा करने के लिए अधिक से अधिक पैदावार करना होगा। जहां लोगों की जरूरतें  पूरी होंगी और वहीं किसान भाइयों की आमदनी भी बढ़ेगी। किसान भाइयों गेहूं की खेती बहुत अधिक मेहनत मांगती है। 

जहां खेत को तैयार करने के लिए अधिक जुताई, पलेवा, निराई गुड़ाई, सिंचाई के साथ गेहूं की खेती में खाद की मात्रा का भी प्रबंधन समय-समय पर करना होता है। 

आइये देखते हैं कि गेहूं की खेती में किन-किन खादों व उर्वरकों का प्रयोग करके अधिक से अधिक पैदावार ली जा सकती है।

अधिक उत्पादन का मूलमंत्र

गेहूं की खेती की खास बात यह होती है कि इसमें बुआई से लेकर आखिरी सिंचाई तक उर्वरकों और पेस्टिसाइट व फर्टिसाइड का इस्तेमाल किया जाता है। तभी आपको अधिक उत्पादन मिल सकता है।

बुआई के समय करें ये उपाय

गेहूं की अच्छी फसल लेने के लिए किसान भाइयों को सबसे पहले तो अपनी भूमि का परीक्षण कराना चाहिये, मृदा परीक्षण या सॉइल टेस्टिंग भी कहा जाता है। 

परीक्षण के उपरांत कृषि विशेषज्ञों से राय लेकर खेत तैयार करने चाहिये और उनके द्वारा बताई गई विधि से ही खेती करेंगे तो आपको अधिक से अधिक पैदावार मिलेगी।  

क्योंकि फसल की पैदावार बहुत कुछ खाद एवं उर्वरक की मात्रा पर निर्भर करती है। गेहूं की खेती में हरी खाद, जैविक खाद एवं रासायनिक खाद के अलावा फर्टिसाइड और पेस्टीसाइड का भी प्रयोग करना होता है।  

कौन सी खाद कब इस्तेमाल की जाती है, आइये जानते हैं:-

  1. गेहूं की फसल के लिए बुआई से पहले खेत को अच्छी तरह से तैयार किया जाता है। इसके लिए सबसे पहले 35 से 40 क्विंटल गोबर की सड़ी हुई खाद प्रति हेक्टेयर खेत में डालना चाहिये। इसके साथ ही 50 किलोग्राम नीम की खली और 50किलो अरंडी की खली को भी मिला लेना चाहिये। पहले इन सभी खादों के मिश्रण को खेत में बिखेर दें और उसके बाद खेत की जमकर जुताई करनी चाहिये।
  2. किसान भाई गेहूं की अच्छी फसल के लिए अगैती फसल में बुआई के समय 150 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस और 40 किलोग्राम पोटाश का इस्तेमाल करना चाहिये। गेहूं की पछैती फसल के लिए बुआई के समय 80 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस, 40 किलोग्राम पोटाश गोबर की खाद, नीम व अरंडी की खली के बाद डालना चाहिये।
  3. इसमें नाइट्रोजन की आधी मात्रा को बचा कर रख लेना चाहिये जो बाद में पहली व दूसरी सिंचाई के समय डालना चाहिये।

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पहली सिंचाई के समय

बुआई के बाद पहली सिंचाई लगभग 20 से 25 दिन पर की जाती है। गेहूं की खेती में खाद की मात्रा की बात करें तो उस समय किसान भाइयों को गेहूं की फसल के लिए 40 से 45 किलोग्राम यूरिया, 33 प्रतिशत वाला जिंक 5 किलो, या 21 प्रतिशत वाला जिंक 10 किलो, सल्फर 3 किलो का मिश्रण डालना चाहिये। इसके अलावा नैनोजिक एक्सट्रूड जैसे जायद का भी प्रयोग करना चाहिये।

दूसरी सिंचाई के समय

गेहूं की खेती में दूसरी सिंचाई बुआई के 40 से 50 दिन बाद की जानी चाहिये। उस समय भी आपको 40 से 45 किलोग्राम यूरिया डालनी होगी ।

इसके साथ थायनाफेनाइट मिथाइल 70 प्रतिशत डब्ल्यूपी 500 ग्राम प्रति एकड़, मारबीन डाजिम 12 प्रतिशत, मैनकोजेब 63 प्रतिशत डब्ल्यूपी 500 ग्राम प्रति एकड़ से मिलाकर डालनी चाहिये।

उर्वरकों का इस्तेमाल का फैसला ऐसे करें

मुख्यत: गेहूं की फसल में दो बार सिंचाई के बाद ही उर्वरकों का मिश्रण डालने का प्रावधान है लेकिन उसके बाद किसान भाइयों को अपने खेत व फसल की निगरानी करनी चाहिये। 

इसके अलावा भूमि परीक्षण के बाद कृषि विशेषज्ञों की राय के अनुसार उर्वरकों का इस्तेमाल करना चाहिये। यदि भूमि परीक्षण नहीं कराया है तो आपको अपने खेत की निगरानी अपने स्तर से करनी चाहिये और स्वयं के अनुभव के आधार पर या अनुभवी किसानों से राय लेकर फसल की जरूरत के हिसाब से उर्वरक, फर्टिसाइड व पेस्टीसाइड का इस्तेमाल करना चाहिये।

हल्की फसल हो तो क्या करें

विशेषज्ञों के अनुसार दूसरी सिंचाई के बाद देखें कि आपकी फसल हल्की हो तो आप अपने खेतों में माइकोर हाइजल दो किलो प्रति एकड़ के हिसाब से डालें। 

जिन किसान भाइयों ने बुआई के समय एनपीके का इस्तेमाल किया हो तो उन्हें अलग से पोटाश डालने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि एनपीके में 12 प्रतिशत नाइट्रोजन और 32 प्रतिशत फास्फोरस होता है और 16प्रतिशत पोटाश होता है।

डीएपी का इस्तेमाल करने वाले  क्या करें

जिन किसान भाइयों ने बुआई के समय डीएपी खाद का इस्तेमाल किया हो तो उन्हें पहली सिंचाई के बाद ही 15 से 20 किलो म्यूरेट आफ पोटाश प्रति एकड़ के हिसाब से डालना चाहिये।

क्योंकि डीएपी  में 18 प्रतिशत नाइट्रोजन होता है और 46 प्रतिशत फास्फोरस होता है और पोटाश बिलकुल नहीं होता है।

प्रत्येक सिंचाई के बाद खेत को परखें

गेहूं की फसल में 5-6 बार सिंचाई करने का प्रावधान है। किसान भाइयों को चाहिये कि वो कुदरती बरसात को देख कर और खेत की नमी की अवस्था को देखकर ही सिंचाई का फैसला करें। 

यदि प्रति सिंचाई के बाद यूरिया की खाद डाली जाये तो आपकी फसल में रिकार्ड पैदावार हो सकती है। यूरिया के साथ फसल की जरूरत के हिसाब से फर्टिसाइड और पेस्टीसाइड का भी इस्तेमाल करना चाहिये। 

पहली दो सिंचाई के बाद तीसरी सिंचाई 60 से 70 दिन बाद की जाती है। चौथी सिंचाई 80 से 90 दिन बाद उस समय की जाती है जब पौधों में फूल आने को होते हैं। पांचवीं सिंचाई 100 से 120 दिन बाद करनी चाहिये। 

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खाद सिंचाई से पहले या बाद में डाली जाए?

  1. किसान भाइयों के समक्ष यह गंभीर समस्या है कि गेहूं की खेती में खाद की मात्रा कितनी डालनी चाहिये? हालांकि खाद डालने का प्रावधान सिंचाई के बाद ही का है लेकिन कुछ किसान भाइयों को यह शिकायत होती है कि सिंचाई के बाद खेत की मिट्टी दलदली हो जाती है, जहां खेत में घुसने में पैर धंसते हैं और उससे पौधों की जड़ों को नुकसान पहुंच सकता है। ऐसी स्थिति में किसान भाइयों को परिस्थिति देखकर स्वयं फैसला लेना होगा।
  2. यदि भूमि अधिक दलदली है और सिंचाई के बाद पैर धंस रहे हैं तो आपको खेत के पानी को सूखने का इंतजार करना चाहिये लेकिन पर्याप्त नमी होनी चाहिये तभी खाद डालें। इसके लिए आप सिंचाई से अधिक से अधिक दो दिन के बाद खाद अवश्य डाल देनी चाहिये। यदि यह भी संभव न हो पाये तो इस तरह की भूमि में सिंचाई से 24 घंटे पहले खाद डालनी चाहिये लेकिन ध्यान रहे कि 24 घंटे में सिंचाई अवश्य ही हो जानी चाहिये। तभी खाद आपको लाभ देगी अन्यथा नहीं।
  3. यदि आपके खेत की भूमि बलुई या रेतीली है, जहां पानी तत्काल सूख जाता है और आप खेत में आसानी से जा सकते हैं तो आपको सिंचाई के तत्काल बाद गेहूं की खेती में खाद की मात्रा डालनी चाहिये। ऐसे खेतों में अधिक से अधिक सिंचाई के 24 घंटे के भीतर खाद डालनी चाहिये।
गेंहू की खेती से संबंधित महत्वपूर्ण बिंदुओं की विस्तृत जानकारी

गेंहू की खेती से संबंधित महत्वपूर्ण बिंदुओं की विस्तृत जानकारी

अक्टूबर माह से गेंहू की बुवाई की शुरूआत हो जाती है। गेंहू की खेती में बुवाई से लगाकर कटाई तक यदि सभी कार्यों को बेहतर ढ़ंग से करते हैं, तो वह अच्छा खासा मुनाफा उठा सकते हैं। 

जैसा कि हम जानते हैं, कि खरीफ सीजन चल रहा है। इस सीजन की फसलों की कटाई के पश्चात किसान भाई रबी सीजन की फसलों की बुवाई शुरू कर देंगे। 

गेहूं की फसल रबी की प्रमुख फसलों से एक है, इसलिए किसान कुछ बातों का ध्यान रखकर अच्छा उत्पादन पा सकते हैं। भारत ने विगत चार दशकों में गेहूं पैदावार में उपलब्धि हासिल की है। 

गेहूं का उत्पादन वर्ष 1964-65 में जहां केवल 12.26 मिलियन टन था, जो बढ़कर के साल 2019-20 में 107.18 मिलियन टन के एक ऐतिहासिक उत्पादन स्तर पर पहुंच गया है। 

भारत की जनसंख्या को खाद्य एवं पोषण सुरक्षा मुहैय्या करने के लिए गेहूँ के उत्पादन और उत्पादकता में लगातार बढ़ोत्तरी की जरूरत है। एक अनुमान के मुताबिक, साल 2025 तक भारत की जनसँख्या तकरीबन 1.4 बिलियन होगी।

इसके लिए वर्ष 2025 तक गेहूं की अनुमानित मांग तकरीबन 117 मिलियन टन होगी। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए नवीन तकनीकियाँ विकसित करनी होंगी। 

नवीन किस्मों की प्रगति तथा उनकी उच्च उर्वरता की स्थिति में परीक्षण से ज्यादा से ज्यादा उत्पादन क्षमता प्राप्त की जा सकती है।

भारत में गेंहू की खेती करने वाले प्रमुख राज्य

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि उत्तरी गंगा-सिंधु के मैदानी क्षेत्र भारत के सबसे उपजाऊ एवं गेहूं के सर्वाधिक उत्पादन वाले इलाके हैं। 

दरअसल, इस इलाके में गेहूं के प्रमुख उत्पादक राज्य जैसे कि दिल्ली, राजस्थान (कोटा व उदयपुर सम्भाग को छोड़कर) पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड के तराई क्षेत्र, जम्मू कश्मीर के जम्मू व कठुआ जनपद व हिमाचल प्रदेश का ऊना जिला व पोंटा घाटी शम्मिलित हैं। 

इस इलाके में तकरीबन 12.33 मिलियन हैक्टेयर क्षेत्रफल पर गेहूं का उत्पादन किया जाता है। तकरीबन 57.83 मिलियन टन गेहूं की पैदावार होती है। इस इलाके में गेहूं की औसत उत्पादकता तकरीबन 44.50 कुंतल/हैक्टेयर है। 

वहीं, किसानों के खेतों पर आयोजित गेहूं के अग्रिम पंक्ति प्रदर्शनों में गेहूं की अनुशंसित प्रौद्योगिकियों को अपनाकर 51.85 कुंतल/हैक्टेयर की पैदावार अर्जित की जा सकती है। 

विगत कुछ सालों से इस इलाके में गेहूं की उन्नत किस्में एचडी 3086 व एचडी 2967 की बुवाई बड़े पैमाने पर की जा रही है। 

परंतु, इन किस्मों के प्रतिस्थापन के लिए उच्च उत्पादन क्षमता एवं रोग प्रतिरोधी किस्में डीबीडब्ल्यू 187, डीबीडब्ल्यू 222 और एचडी 3226 आदि किस्मों को बड़े स्तर पर प्रचारित-प्रसारित किया गया है। 

यह भी पढ़ें: गेहूं की फसल का समय पर अच्छा प्रबंधन करके कैसे किसान अच्छी पैदावार ले सकते हैं।

अत्यधिक पैदावार हेतु करें इन उन्नत किस्मों का चुनाव

गेहूं की खेती में किस्मों का चयन एक महत्वपूर्ण फैसला है, जो यह सुनिश्चित करता है, कि कितना उत्पादन होगा। सदैव नवीन रोगरोधी व उच्च उत्पादन क्षमता वाली किस्मों का चयन करना चाहिए। 

सिंचित व समय से बिजाई के लिए डीबीडब्ल्यू 303, डब्ल्यूएच 1270, पीबीडब्ल्यू 723 और सिंचित व विलंब से बुवाई के लिए डीबीडब्ल्यू 173, डीबीडब्ल्यू 71, पीबीडब्ल्यू 771, डब्ल्यूएच 1124, डीबीडब्ल्यू 90 व एचडी 3059 की बिजाई कर सकते हैं। 

वहीं, ज्यादा फासले से बुवाई के लिए एचडी 3298 किस्म की पहचान की गई है। सीमित सिंचाई और समय से बुवाई के लिए डब्ल्यूएच 1142 किस्म को अपनाया जा सकता है। 

बुवाई का समय बीज दर व उर्वरक की समुचित मात्रा गेहूं की बुवाई करने से 15-20 दिन पूर्व खेत तैयार करने के दौरान 4-6 टन/एकड़ की दर से गोबर की खाद का इस्तेमाल करने से मृदा की उर्वरक शक्ति बढ़ जाती है।

जीरो टिलेज व टर्बो हैप्पी सीडर से बुवाई की जाती है

धान-गेहूं फसल पद्धति में जीरो टिलेज तकनीक से गेहूं की बुवाई एक कारगर एवं फायदेमंद तकनीक है। इस तकनीक के जरिए धान की कटाई के उपरांत भूमि में संरक्षित नमी का इस्तेमाल करते हुए, जीरो टिल ड्रिल मशीन से गेहूं की बुवाई बिना जुताई के ही की जाती है। 

जहां पर धान की कटाई काफी विलंब से होती है। वहां पर यह मशीन बेहद ही ज्यादा कारगर साबित हो रही है। जल भराव वाले इलाकों में भी इस मशीन की काफी उपयोगिता है। 

यह धान के फसल अवशेष प्रबंधन की सबसे प्रभावी एवं कुशल विधि है। इस विधि के माध्यम से गेहूं की बुवाई करने से पारंपरिक बुवाई की तुलना में समान अथवा ज्यादा पैदावार प्राप्त होती है व फसल गिरती नहीं है। 

फसल अवशेषों को सतह पर रखने से पौधों के जड़ इलाके में नमी ज्यादा वक्त तक संरक्षित रहती है, जिसके कारण तापमान में वृद्धि का दुष्प्रभाव पैदावार पर नही पड़ता और खरपतवार भी कम होते हैं। गेहूं की खेती में सिंचाई प्रबंधन है जरूरी।

गेहूं की खेती के लिए सिंचाई प्रबंधन बेहद आवश्यक होता है

बतादें, कि ज्यादा उत्पादन के लिए गेहूं की फसल को पांच-छह सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। पानी की मौजूदगी मिट्टी के प्रकार एवं पौधों की जरूरतों के अनुसार सिंचाई करनी चाहिए। 

गेहूं की फसल के जीवन चक्र में तीन अवस्थाएं जैसे कि चंदेरी जड़े निकलना (21 दिन), पहली गांठ बनना (65 दिन) और दाना बनना (85 दिन) ऐसी हैं, जिन पर सिंचाई करना अत्यंत जरूरी है। 

अगर सिंचाई हेतु जल पर्याप्त मात्रा में मौजूद हो तो प्रथम सिंचाई 21 दिन पर इसके उपरांत 20 दिन के समयांतराल पर बाकी पांच सिंचाई करें। 

नवीन सिंचाई तकनीकों जैसे फव्वारा विधि अथवा टपक विधि भी गेहूं की खेती के लिए काफी बेहतरीन होती है। कम सिंचित क्षेत्रों में इनका इस्तेमाल काफी पहले से होता आ रहा है। 

परंतु, जल की बाहुलता वाले इलाकों में भी इन तकनीकों को अपनाकर जल का संचय किया जा सकता है। साथ ही, बेहतरीन उत्पादन लिया जा सकता है। 

सिंचाई की इन तकनीकों पर केन्द्र व राज्य सरकारों द्वारा अनुदान के तौर पर धनराशि भी प्रदान की जा रही है। कृषक भाईयों को इन योजनाओं का लाभ लेकर सिंचाई जल प्रबंधन के राष्ट्रीय दायित्व का भी निर्वहन करना चाहिए।

बैंगन की खेती की संपूर्ण जानकारी

बैंगन की खेती की संपूर्ण जानकारी

दोस्तों आज हम बात करेंगे बैगन या बैंगन की खेती की, किसानों के लिए बैगन की खेती (Baigan ki kheti - Brinjal farming information in hindi) करना बहुत मुनाफा पहुंचाता है। 

बैगन की खेती से किसानों को बहुत तरह के लाभ पहुंचते हैं। क्योंकि बैगन की खेती करने से किसानों को करीब प्रति हेक्टर के हिसाब से 120 क्विंटल की पैदावार की प्राप्ति होती है। 

इन आंकड़ों के मुताबिक आप किसानों की कमाई का अनुमान लगा सकते हैं। बरसात के सीजन में बैगन की खेती में बहुत ज्यादा उत्पादकता होती है। बैगन की खेती से जुड़ी सभी प्रकार की आवश्यक  बातों को जानने के लिए हमारी इस पोस्ट के अंत तक जरूर बनें रहे।

बैगन की खेती करने का मौसम :

बैगन की बुवाई खरीफ के मौसम में की जाती है। वैसे तो किसान खरीफ के सीजन में विभिन्न प्रकार की फसलों की बुवाई करते हैं। जैसे:  ज्‍वार, मक्का, सोयाबीन इत्यादि। 

परंतु बैगन की खेती करने से बेहद ही मुनाफा पहुंचता है। बैगन की फसल की बुवाई किसान वर्षा कालीन के आरंभ में ही कर देते हैं। क्‍यांरियां थोड़ी थोड़ी दूर पर तैयार की जाती है। 

किसान 1 हेक्टेयर भूमि पर 20 से 25 क्‍यारियां लगाते हैं। भूमि में क्यारियों को लगाने से पहले उच्च प्रकार से खाद का चयन कर लेना फायदेमंद होता है।

बैगन की फसल की रोपाई का सही समय :

कृषि विशेषज्ञों के अनुसार बैंगन के पौधे तैयार होने में लगभग 30 से 40 दिन का समय लेते हैं। पौधों में बैगन की पत्तियां नजर आने तथा पौधों की लंबाई लगभग 14 से 15 सेंटीमीटर हो जाने पर रोपाई का कार्य शुरू कर देना चाहिए। 

किसान बैगन की फसल की रोपाई का सही समय जुलाई का निश्चित करते हैं। ध्यान रखने योग्य बात : बैगन की फसल रोपाई के दौरान आपस में पौधों की दूरी लगभग 1 सेंटीमीटर से 2 सेंटीमीटर रखना उचित होता है। 

किसानों के अनुसार हर एकड़ पर लगभग 7000 से लेकर 8000 पौधों की रोपाई की जा सकती है। किसान बैगन की फसल की उत्पादकता 120 क्विंटल तक प्राप्त करते हैं। 

बैगन की कुछ बहुत ही उपयोगी प्रजातियां हैं, जो इस प्रकार है : पूसा पर्पल, ग्रांउड पूसा, अनमोल आदि प्रजातियां की बुवाई किसान करते हैं।

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बैगन की फसल के लिए उपयुक्त मिट्टी का चयन:

बैगन की फसल की अच्छी पैदावार प्राप्त करने के लिए किसान हमेशा दोमट मिट्टी का ही चयन करते हैं। बलुई और दोमट दोनों प्रकार की मिट्टियां बैगन की फसल के लिए उपयुक्त मानी जाती हैं। 

बैगन की फसल की पैदावार को बढ़ाने के लिए  कार्बनिक पदार्थ से निर्मित मिट्टी का भी चयन किया जाता है। खेत रोपण करते वक्त इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि खेतों में जल निकास की व्यवस्था को सही ढंग से बनाए रखना चाहिए। 

क्योंकि बैगन की फसल बरसात के मौसम में लगाई जाती है, ऐसे में जल एकत्रित हो जाने से फसल खराब होने का भय होता है। कृषि विशेषज्ञों के अनुसार बैगन की फसल के लिए सबसे अच्छा मिट्टी का पीएच करीब 5 से 6 अच्छा होता है।

बैंगन की फसल के लिए खाद और उर्वरक की उपयोगिता:

बैगन की अच्छी पैदावार प्राप्त करने के लिए कुछ चीजों को ध्यान में रखना बहुत ही ज्यादा उपयोगी है। जिससे आप बैंगन की फसल की ज्यादा से ज्यादा उत्पादकता को प्राप्त कर सकेंगे। 

खेतों में आपको लगभग 1 हेक्टेयर में 130 और 150 किलोग्राम नाइट्रोजन का इस्तेमाल करना चाहिए। वहीं दूसरी ओर 65 से 75 किलोग्राम फास्फोरस का इस्तेमाल करें। 

40 से 60 किलोग्राम पोटाश खेतों में छोड़े, वहीं दूसरी ओर डेढ़ सौ से दो सौ क्विंटल गोबर की खाद खेतों में भली प्रकार से डालें।

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बैंगन की फसल की तुड़ाई का सही समय:

बैगन की फसल की तुड़ाई करने से पहले कुछ चीजों का खास ख्याल रखना चाहिए। सबसे पहले आपको तुड़ाई करते समय चिकनाई और उसके आकर्षण को भली प्रकार से जांच कर लेना चाहिए। 

बैगन ज्यादा पके नहीं तभी तोड़ लेनी चाहिए। इससे बैगन में ताजगी बनी रहती है और मार्केट में अच्छी कीमत पर बिकते हैं। बैगन की मांग मार्केट में बहुत ज्यादा होती है। 

बैगन के आकार को जांच परख कर ही तुड़ाई करना चाहिए। बैगन की तुड़ाई करते समय आपको इन चीजो का खास ख्याल रखना चाहिए। 

दोस्तों हम उम्मीद करते हैं आपको हमारा यह आर्टिकल बैगन की खेती पसंद आया होगा। हमारे इस आर्टिकल में बैगन की खेती से जुड़ी सभी प्रकार की आवश्यक और महत्वपूर्ण जानकारियां मौजूद है। 

जो आपके बहुत काम आ सकती है। हमारे इस आर्टिकल से यदि आप संतुष्ट हैं। तो हमारे इस आर्टिकल को ज्यादा से ज्यादा सोशल मीडिया  तथा अन्य प्लेटफार्म पर शेयर करें।