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चारे की कमी को दूर करने के लिए लोबिया की खेती की महत्वपूर्ण जानकारी

चारे की कमी को दूर करने के लिए लोबिया की खेती की महत्वपूर्ण जानकारी

खरीफ फसलों की बुवाई का समय चल रहा है। अब ऐसे में लोबिया की खेती लघु कृषकों के लिए एक वरदान सिद्ध हो सकती है। 

भारत में लघु और सीमांत कृषकों की संख्या काफी ज्यादा है, जिनके पास काफी कम भूमि है। ऐसे कृषकों के लिए लोबिया की खेती काफी फायदेमंद साबित हो सकती है। 

लोबिया एक दलहनी फसल की श्रेणी में आने वाली एक फसल है। इसकी खेती खरीफ और जायद दोनों ही सीजन में की जा सकती है। 

इसकी खेती करने से कृषकों को दो तरह के फायदे हो सकते हैं। एक तो किसान इसे सब्जी के तोर पर प्रयोग कर सकते हैं और दूसरा इसे पशुओं के चारे में इस्तेमाल किया जा सकता है।

लोबिया से आप क्या समझते हैं ?

लोबिया एक ऐसी फली होती है, जो कि तिलहन की श्रेणी के अंतर्गत आती है। इसको बोड़ा, चौला या चौरा के नाम से भी जाना जाता है और इसका पौधा सफेद रंग का और काफी बड़ा होता है। 

लोबिया की फलियां पतली और लंबी होती हैं। साथ ही, इसका उपयोग सब्जी निर्मित करने और पशुओं के चारे के लिए किया जाता है। 

लोबिया की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु           

लोबिया की खेती करने के लिए गर्म व आर्द्र जलवायु की आवश्यकता होती है। बतादें, कि इसकी खेती करने लिए 24-27 डिग्री के बीच के तापमान की जरुरत होती है। 

अत्यधिक कम तापमान होने पर इसकी फसल पूर्णतय नष्ट हो सकती है। इसलिए लोबिया की फसल को अधिक ठंड से बचाना चाहिए। 

लोबिया की खेती के लिए उपयुक्त मिट्टी

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि लोबिया की खेती हर प्रकार की मिट्टी में आसानी से की जा सकती है। मगर एक बात का खास ध्यान रखें कि इसके लिए छारीय मृदा नहीं होनी चाहिए।

लोबिया की उन्नत किस्में इस प्रकार हैं 

दरअसल, लोबिया की कई उन्नत किस्में हैं, जो कि बहुत अच्छा उत्पादन देती हैं। जैसे - सी- 152, पूसा फाल्गुनी, अम्बा (वी- 16), स्वर्णा (वी- 38), जी सी- 3, पूसा सम्पदा (वी- 585) और श्रेष्ठा (वी- 37) आदि प्रमुख किस्में हैं। 

लोबिया की बुवाई के लिए उपयुक्त समय

अगर हम लोबिया की बुवाई के विषय में बात करें, तो बरसात के मौसम में जून महीने के अंत तक इसकी बुवाई की जाती है। वहीं, इसकी फरवरी से लेकर मार्च माह तक बुवाई की जाती है।

लोबिया की बुवाई करने के लिए बीज की मात्रा

लोबिया की बुवाई करते समय यह ध्यान रखना विशेष जरूरी है, कि उसकी मात्रा ज्यादा न हो। इसकी बुवाई के लिए सामान्यत: 12-20 कि.ग्रा. बीज/हेक्टेयर की दर से पर्याप्त माना जाता है। 

इसकी बेल वाली किस्मों के लिए बीज की मात्रा थोड़ी कम लगती है। साथ ही, मौसम के हिसाब से बीज की मात्रा का निर्धारण किया जाना चाहिए।

लोबिया की बुवाई करने का उत्तम तरीका क्या है ?

लोबिया की बुवाई करने के दौरान इस बात का ध्यान रखना विशेष आवश्यक है, कि इसके बीज के बीच समुचित दूरी होनी जरूरी है। जिससे कि जब इसका पौधा उगे, तो वह ठीक ढ़ंग से विकास कर सके। 

ये भी पढ़ें: लोबिया की खेती: किसानों के साथ साथ दुधारू पशुओं के लिए भी वरदान

दरअसल, लोबिया की बुवाई करते वक्त उसकी किस्म के अनुरूप फासला रखा जाता है। जैसे- झाड़ीदार किस्मों के बीज के लिए एक कतार से दूसरी कतार की दूरी 45-60 सेमी होनी चाहिए। 

बीज से बीज का फासला 10 सेमी तक होना चाहिए। वहीं, इसकी बेलदार किस्मों के लिए लाइन से लाइन का फासला 80-90 सेमी रखना सही होता है। 

लोबिया में खाद की मात्रा की जानकारी  

लोबिया की खेती करने के लिए खाद की बड़ी महत्ता होती है। ऐसे ही लोबिया की खेती करने के लिए खाद अत्यंत आवश्यक है। लोबिया की फसल उगने से कुछ इस तरह से खाद डालनी चाहिए। 

एक महीने पहले खेत में 20-25 टनगोबर या कम्पोस्ट डालें, 20 किग्रा नाइट्रोजन, फास्फोरस 60 कि.ग्रा. तथा पोटाश 50 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर के हिसाब से खेत में जुलाई के अंत में ही डाल दें। साथ ही, नाइट्रोजन की 20 कि.ग्रा. की मात्रा फसल में फूल आने के दौरान देनी चाहिए।

लोबिया की खेती में सिंचाई प्रबंधन 

लोबिया की फसल को खरीफ के सीजन में सिंचाई की ज्यादा आवश्यकता नहीं पड़ती है। इसलिए खरीफ के सीजन में उतना ही पानी देना चाहिए, जिससे कि मृदा में नमी बरकरार बनी रहे। 

वहीं, गर्मी की फसल की बात करें तो सामान्यतः किसी भी फसल में पानी की अधिक आवश्यकता होती है। यदि लोबिया की बात करें, तो इसमें 5 से 6 पानी की आवश्यकता पड़ती है। 

बाजरा के प्रमुख उत्पादक राजस्थान के लिए FICCI और कोर्टेवा एग्रीसाइंस ने मिलेट रोडमैप कार्यक्रम का आयोजन किया

बाजरा के प्रमुख उत्पादक राजस्थान के लिए FICCI और कोर्टेवा एग्रीसाइंस ने मिलेट रोडमैप कार्यक्रम का आयोजन किया

हाल ही में राजस्थान के जयपुर में FICCI और कॉर्टेवा एग्रीसाइंस द्वारा राजस्थान सरकार के लिए मिलेट रोडमैप कार्यक्रम आयोजित किया। जिसका प्रमुख उद्देश्य बाजरा की पैदावार में राजस्थान की शक्ति का भारतभर में प्रदर्शन करना है। फिक्की द्वारा कोर्टेवा एग्रीसाइंस के साथ साझेदारी में 19 मई 2023, शुक्रवार के दिन जयपुर में मिलेट कॉन्क्लेव - 'लीवरेजिंग राजस्थान मिलेट हेरिटेज' का आयोजन हुआ। दरअसल, इस कार्यक्रम का प्रमुख उद्देश्य बाजरा की पैदावार में राजस्थान की शक्ति को प्रदर्शित करना है। विभिन्न हितधारकों के मध्य एक सार्थक संवाद को प्रोत्साहन देना है। जिससे कि राजस्थान को बाजरा हेतु एक प्रमुख केंद्र के तौर पर स्थापित करने के लिए एक भविष्य का रोडमैप तैयार किया जा सके। इसी संबंध में टास्क फोर्स के अध्यक्ष के तौर पर कॉर्टेवा एग्रीसाइंस बाजरा क्षेत्र की उन्नति व प्रगति में तेजी लाने हेतु राजस्थान सरकार द्वारा बाजरा रोडमैप कवायद का नेतृत्व किया जाएगा।

इन संस्थानों एवं समूहों ने कार्यक्रम में हिस्सा लिया

कॉन्क्लेव में कृषि व्यवसाय आतिथ्य एवं पर्यटन, नीति निर्माताओं, प्रसिद्ध शोध संस्थानों के प्रगतिशील किसानों, प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों एवं शिक्षाविदों का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। पैनलिस्टों ने बाजरा मूल्य श्रृंखला में महत्वपूर्ण समस्याओं का निराकरण करने एवं एक प्रभावशाली हिस्सेदारी को उत्प्रेरित करने के लिए एक समग्र और बहुआयामी दृष्टिकोण अपनाने पर विचार-विमर्श किया। चर्चा में उन फायदों और संभावनाओं की व्यापक समझ उत्पन्न करने पर भी चर्चा की गई। जो कि बाजरा टिकाऊ पर्यटन और स्थानीय समुदायों की आजीविका दोनों को प्रदान कर सकता है। ये भी देखें: IYoM: भारत की पहल पर सुपर फूड बनकर खेत-बाजार-थाली में लौटा बाजरा-ज्वार

श्रेया गुहा ने मिलेट्स के सन्दर्भ में अपने विचार व्यक्त किए

श्रेया गुहा, प्रधान सचिव, राजस्थान सरकार का कहना है, कि राजस्थान को प्रत्येक क्षेत्र में बाजरे की अपनी विविध रेंज के साथ, एक पाक गंतव्य के तौर पर प्रचारित किया जाना चाहिए। पर्यटन उद्योग में बाजरा का फायदा उठाने का बेहतरीन अवसर है। इस दौरान आगे उन्होंने कहा, "स्टार्टअप और उद्यमियों के लिए बाजरा का उपयोग करके विशेष रूप से बच्चों, गर्भवती महिलाओं और स्तनपान कराने वाली महिलाओं को लक्षित करके नवीन व्यंजनों और उत्पादों को विकसित करने की अपार संभावनाएं हैं। बाजरा दीर्घकाल से राजस्थान के पारंपरिक आहार का एक अभिन्न भाग रहा है। सिर्फ इतना ही नहीं राजस्थान 'बाजरा' का प्रमुख उत्पादक राज्य है। बाजरा को पानी और जमीन सहित कम संसाधनों की जरूरत पड़ती है। जिससे वह भारत के लिए आर्थिक रूप से फायदेमंद उत्पाद बन जाता है। जितेंद्र जोशी, चेयरमैन, फिक्की टास्क फोर्स ऑन मिलेट्स एंड डायरेक्टर सीड्स, कोर्टेवा एग्रीसाइंस - साउथ एशिया द्वारा इस आयोजन पर टिप्पणी करते हुए कहा गया है, कि "राजस्थान, भारत के बाजरा उत्पादन में सबसे बड़ा योगदानकर्ता के रूप में, अंतरराष्ट्रीय वर्ष में बाजरा की पहल की सफलता की चाबी रखता है। आज के मिलेट कॉन्क्लेव ने राजस्थान की बाजरा मूल्य श्रृंखला को आगे बढ़ाने के रोडमैप पर बातचीत करने के लिए विभिन्न हितधारकों के लिए एक मंच के तौर पर कार्य किया है। यह व्यापक दृष्टिकोण राज्य के बाजरा उद्योग हेतु न सिर्फ स्थानीय बल्कि भारतभर में बड़े अच्छे अवसर उत्पन्न करेगा। इसके लिए बाजरा सबसे अच्छा माना गया है।

वर्षा पर निर्भर इलाकों के लिए कैसी जलवायु होनी चाहिए

दरअसल, लचीली फसल, किसानों की आमदनी में बढ़ोत्तरी और संपूर्ण भारत के लिए पौष्टिक भोजन उपलब्ध कराते हुए टिकाऊ कृषि का समर्थन करना। इसके अतिरिक्त बाजरा कृषि व्यवसायों हेतु नवीन आर्थिक संभावनाओं के दरवाजे खोलता है। कोर्टेवा इस वजह हेतु गहराई से प्रतिबद्ध है और हमारे व्यापक शोध के जरिए से राजस्थान में जमीनी कोशिशों के साथ, हम किसानों के लिए मूल्य जोड़ना सुचारू रखते हैं। उनकी सफलता के लिए अपने समर्पण पर अड़िग रहेंगे। ये भी देखें: भारत सरकार ने मोटे अनाजों को बढ़ावा देने के लिए स्थापित किये तीन नए उत्कृष्टता केंद्र बाजरा मूल्य श्रृंखला में कॉर्टेवा की कोशिशों में संकर बाजरा बीजों की पेशकश शम्मिलित है, जो उनके वर्तमानित तनाव प्रतिरोध को बढ़ाते हैं। साथ ही, 15-20% अधिक पैदावार प्रदान करते हैं। साथ ही, रोग प्रतिरोधक क्षमता भी प्रदान करते हैं एवं अंततः किसान उत्पादकता और लाभप्रदता बढ़ाते हैं। जयपुर में कोर्टेवा का इंडिया रिसर्च सेंटर बरसाती बाजरा, ग्रीष्म बाजरा और सरसों के प्रजनन कार्यक्रम आयोजित करता है। "प्रवक्ता" जैसे भागीदार कार्यक्रम के साथ कोर्टेवा का उद्देश्य किसानों को सभी फसल प्रबंधन रणनीतियों, नए संकरों में प्रशिक्षित और शिक्षित करने के लिए प्रेरित करना है। उनको एक सुनहरे भविष्य के लिए मार्ग प्रशस्त करने वाले बाकी किसान भाइयों को प्रशिक्षित करने में सहयोग करने हेतु राजदूत के रूप में शक्तिशाली बनाना है। इसके अतिरिक्त राज्य भर में आयोजित होने वाले अंतरराष्ट्रीय बाजरा महोत्सव का उद्देश्य उत्पादकों और उपभोक्ताओं को बाजरा के पारिस्थितिक फायदे एवं पोषण मूल्य पर बल देना है। कंपनी बाजरा किसानों को प्रौद्योगिकी-संचालित निराकरणों के इस्तेमाल के विषय में शिक्षित करने पर ध्यान केंद्रित करना बरकरार रखे हुए हैं, जो उन्हें पैदावार, उत्पादकता और टिकाऊ कृषि पद्धतियों को बढ़ाने में सशक्त बनाता है।

कॉर्टेवा एग्रीसाइंस कृषि क्षेत्र में क्या भूमिका अदा करती है

कॉर्टेवा एग्रीसाइंस (NYSE: CTVA) एक सार्वजनिक तौर पर व्यवसाय करने वाली, वैश्विक प्योर-प्ले कृषि कंपनी है, जो विश्व की सर्वाधिक कृषि चुनौतियों के लिए फायदेमंद तौर पर समाधान प्रदान करने हेतु उद्योग-अग्रणी नवाचार, उच्च-स्पर्श ग्राहक जुड़ाव एवं परिचालन निष्पादन को जोड़ती है। Corteva अपने संतुलित और विश्व स्तर पर बीज, फसल संरक्षण, डिजिटल उत्पादों और सेवाओं के विविध मिश्रण समेत अपनी अद्वितीय वितरण रणनीति के जरिए से लाभप्रद बाजार वरीयता पैदा करता है। कृषि जगत में कुछ सर्वाधिक मान्यता प्राप्त ब्रांडों एवं विकास को गति देने के लिए बेहतर ढ़ंग से स्थापित एक प्रौद्योगिकी पाइपलाइन सहित कंपनी पूरे खाद्य प्रणाली में हितधारकों के साथ कार्य करते हुए किसानों के लिए उत्पादकता को ज्यादा से ज्यादा करने के लिए प्रतिबद्ध है। क्योंकि, यह उत्पादन करने वालों के जीवन को बेहतर करने के अपने वादे को पूर्ण करती है। साथ ही, जो उपभोग करते हैं, आने वाली पीढ़ियों के लिए उन्नति एवं विकास सुनिश्चित करते हैं। इससे संबंधित ज्यादा जानकारी के लिए आप www.corteva.com पर भी विजिट कर सकते हैं।
खुशखबरी : केंद्र सरकार ने गन्ना की कीमतों में किया इजाफा

खुशखबरी : केंद्र सरकार ने गन्ना की कीमतों में किया इजाफा

जानकारी के लिए बतादें कि उत्तर प्रदेश गन्ना की पैदावार के मामले में अव्वल नंबर का राज्य है। उत्तर प्रदेश के लाखों किसान गन्ने की खेती से जुड़े हुए हैं। फसल सीजन 2022- 23 में यहां पर 28.53 लाख हेक्टेयर में गन्ने की खेती की गई। गन्ने की खेती करने वाले कृषकों के लिए अच्छी खबर है। केंद्र सरकार ने द कमीशन फॉर एग्रीकल्चर कास्ट्स एंड प्राइज की सिफारिश पर गन्ने की एफआरपी बढ़ाने के लिए मंजूरी दे दी है। इससे गन्ना उत्पादक किसानों में खुशी की लहर दौड़ गई है। कहा जा रहा है, कि केंद्र सरकार के इस निर्णय से लाखों किसानों को लाभ पहुंचेगा। विशेष कर उत्तर प्रदेश एवं महाराष्ट्र के किसान सबसे अधिक फायदा होगा। 

केंद्र सरकार ने गन्ने की कीमत में 10 रुपए प्रति क्विंटल की वृद्धि की

केंद्रीय कैबिनेट की बैठक के पश्चात केंद्र सरकार ने गन्ने की एफआरपी में इजाफा करने का फैसला किया है। सरकार द्वारा एफआरपी में 10 रुपये की वृद्धि की है। फिलहाल, गन्ने की एफआरपी 305 रुपये से इजाफा होकर 315 रुपये प्रति क्विंटल हो गई है। विशेष बात यह है, कि अक्टूबर से नवीन शक्कर वर्ष आरंभ हो रहा है। ऐसी स्थिति में सरकार का यह निर्णय किसानों के लिए काफी ज्यादा फायदेमंद साबित होगा। साथ ही, कुछ लोग केंद्र सरकार के इस निर्णय को राजनीति से भी जोड़कर देखा जा रहा है। लोगों का मानना है, कि अगले वर्ष लोकसभा चुनाव होने वाले हैं। ऐसे एफआरपी वृद्धि से उत्तर प्रदेश के साथ-साथ विभिन्न राज्यों के किसानों को प्रत्यक्ष तौर पर फायदा होगा। 

यह भी पढ़ें: उत्तर प्रदेश में गन्ना किसानों के लिए सरकार की तरफ से आई है बहुत बड़ी खुशखबरी

महाराष्ट्र में किसानों ने कितने लाख हेक्टेयर भूमि पर गन्ने की बिजाई की

जैसा कि हम जानते हैं, कि उत्तर प्रदेश गन्ना उत्पादन के मामले में पहले नंबर का राज्य है। यहां पर लाखों किसान गन्ने की खेती से जुड़े हुए हैं। फसल सीजन 2022- 23 के दौरान UP में 28.53 लाख हेक्टेयर भूमि में गन्ने की खेती की गई। साथ ही, महाराष्ट्र में कृषकों ने 14.9 लाख हेक्टेयर में गन्ने की बिजाई की थी। वहीं, सम्पूर्ण भारत में गन्ने का क्षेत्रफल 62 लाख हेक्टेयर है। अब ऐसी स्थिति में यह कहा जा सकता है, कि भारत में गन्ने के कुल रकबे में उत्तर प्रदेश की भागीदारी 46 प्रतिशत है। 

चीनी का उत्पादन कितना घट गया है

उत्तर प्रदेश में चीनी मिलों की संख्या 119 है और 50 लाख से ज्यादा किसान गन्ने की खेती करते हैं। इस साल उत्तर प्रदेश में 1102.49 लाख टन गन्ने का उत्पादन हुआ था। चीनी मिलों में 1,099.49 लाख टन गन्ने की पेराई की गई। इससे मिलों ने 105 लाख टन चीनी का उत्पादन किया। बतादें, कि उत्तर प्रदेश के शामली जिले में सबसे अधिक गन्ने की उपज होती है। इस जिले में औसत 962.12 क्विंटल प्रति हेक्टेयर गन्ने का उत्पादन होता है। इस वर्ष संपूर्ण भारत में चीनी का उत्पादन 35.76 मिलियन टन से कम होकर 32.8 मिलियन पर पहुंच चुका है।

गेहूं और चावल की पैदावार में बेहतरीन इजाफा, आठ वर्ष में सब्जियों का इतना उत्पादन बढ़ा है

गेहूं और चावल की पैदावार में बेहतरीन इजाफा, आठ वर्ष में सब्जियों का इतना उत्पादन बढ़ा है

मिनिस्ट्री ऑफ स्टैटिक्स एंड प्रोग्राम इंप्लीमेंटेशन के आंकड़ों के अनुरूप, भारत में चावल एवं गेहूं की पैदावार में बंपर इजाफा दर्ज किया गया है। 2014-15 के 4.2% के तुलनात्मक चावल और गेहूं की पैदावार 2021-22 में बढ़कर 5.8% पर पहुंच चुकी है। भारत में आम जनता के लिए सुखद समाचार है। किसान भाइयों के परिश्रम की बदौलत भारत ने खाद्य पैदावार में बढ़ोतरी दर्ज की है। पिछले 8 वर्ष के आकड़ों पर गौर फरमाएं तो गेहूं एवं चावल की पैदावार में बंपर बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है, जो कि किसान के साथ- साथ सरकार के लिए भी एक अच्छा संकेत और हर्ष की बात है। विशेष बात यह है, कि सरकार द्वारा बाकी फसलों की खेती पर ध्यान केंद्रित किए जाने के उपरांत चावल और गेहूं की पैदावार में वृद्धि दर्ज की गई है।

आजादी के 75 सालों बाद भी तिलहन व दलहन पर आत्मनिर्भर नहीं भारत

व्यावसायिक मानकीकृत के अनुसार, भारत गेंहू और चावल का निर्यात करता है। विशेष रूप से भारत बासमती चावल का सर्वाधिक निर्यातक देश है। ऐसी स्थिति में सरकार चावल एवं गेंहू को लेकर बेधड़क रहती है। हालाँकि, स्वतंत्रता के 75 वर्षों के उपरांत भी भारत तिलहन एवं दाल के संबंध में आत्मनिर्भर नहीं हो पाया है। मांग की आपूर्ति करने के लिए सरकार को विदेशों से दाल एवं तिलहन का आयात करने पर मजबूर रहती है। इसी वजह से दाल एवं खाद्य तेलों का भाव सदैव अधिक रहता है। इसकी वजह से सरकार पर भी हमेशा दबाव बना रहता है।

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केंद्र द्वारा टूटे चावल को लेकर बड़ा फैसला
ऐसी स्थिति में केंद्र सरकार वक्त - वक्त पर किसानों को गेंहू - चावल से ज्यादा तिलहन एवं दलहन की पैदावार हेतु प्रोत्साहित करती रहती है। जिसके परिणामस्वरूप भारत को चावल और गेंहू की भांति तिलहन एवं दलहन के उत्पादन के मामले में भी आत्मनिर्भर किया जा सके।

बागवानी के उत्पादन में भी 1.5 फीसद का इजाफा

मिनिस्ट्री ऑफ स्टैटिक्स एंड प्रोग्राम इंप्लीमेंटेशन के आंकड़ों के अनुसार, भारत में गेहूं एवं चावल की पैदावार में बंपर इजाफा दर्ज किया गया है। साल 2014-15 के 4.2% के तुलनात्मक चावल और गेहूं की पैदावार 2021-22 में बढ़कर 5.8% पर पहुंच चुकी है। इसी प्रकार फलों और सब्जियों की पैदावार में भी 1.5 फीसद की वृद्धि दर्ज की गई है। फिलहाल, भारत में कुल खाद्य उत्पादन में फल एवं सब्जियों की भागीदारी बढ़कर 28.1% पर पहुंच चुकी है।

एक माह के अंतर्गत 11 रुपये अरहर दाल की कीमत बढ़ी

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि वर्तमान में दाल की कीमतें बिल्कुल बेलाम हो गई हैं। विगत एक माह के अंतर्गत कीमतों में 5 प्रतिशत तक की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। दिल्ली राज्य में अरहर दाल 126 रुपये किलो हो गया है। जबकि, एक माह पूर्व इसकी कीमत 120 रुपये थी। सबसे अधिक अरहर दाल जयपुर में महंगा हुआ है। यहां पर आमजन को एक किलो दाल खरीदने के लिए 130 रुपये खर्च करने पड़ रहे हैं। साथ ही, एक माह पूर्व यह दाल 119 रुपये किलो बेची जा रही थी। मतलब कि एक माह के अंतर्गत अरहर दाल 11 रुपये महंगी हो चुकी है।
एथेनॉल को अतिरिक्‍त चीनी दिए जाने से गन्‍ना किसानों की आय बढ़ेगी

एथेनॉल को अतिरिक्‍त चीनी दिए जाने से गन्‍ना किसानों की आय बढ़ेगी

पिछले दो वर्षों में 70 एथेनॉल परियोजनाओं के लिए लगभग 3600 करोड़ रुपये के ऋण को मंजूरी। क्षमता बढ़ाने के लिए 185 और चीनी मिलों/डिस्टि‍लरी द्वारा 12,500 करोड़ रुपये की ऋण राशि के उपयोग को सिद्धांत रूप में मंजूरी। सामान्‍य चीनी सीजन में 320 एलएमटी चीनी का उत्‍पादन होता है जबकि घरेलू खपत 260 एलएमटी है। इस तरह 60 एलएमटी चीनी बची रह जाती है और इसकी बिक्री नहीं हो पाती। इससे 19,000 करोड़ रुपये की राशि प्रत्‍येक वर्ष चीनी मिलों के लिए रूकी पड़ी रह जाती है। परिणाम यह होता है कि चीनी मिलों की तरलता स्थिति पर प्रभाव पड़ता है और किसानों के गन्‍ने की बकाया राशि एकत्रित होती जाती है। जरूरत से अधिक चीनी भंडार से निपटने के लिए सरकार द्वारा चीनी मिलों को निर्यात के लिए प्रोत्‍साहित किया जा रहा है। इसके लिए सरकार वित्तीय सहायता दे रही है। लेकिन भारत विकासशील देश होने के नाते चीनी के निर्यात विपणन और परिवहन के लिए डब्‍ल्‍यूटीओ व्‍यवस्‍थाओं के अनुसार केवल 2023 तक ही वित्तीय सहायता दे सकता है। इसलिए चीनी की अधिकता से निपटने और चीनी उद्योगों की स्थिति में सुधार तथा गन्‍ना किसानों को समय पर बकाये का भुगतान करने के लिए सरकार जरूरत से अधिक गन्‍ना और चीनी एथेनॉल को देने के लिए प्रोत्‍साहित कर रही है ताकि पेट्रोल के साथ मिलाने के लिए तेल विपणन कंपनियों को सप्‍लाई की जा सके। इससे न केवल कच्‍चे तेल की आयात निर्भरता कम होती है बल्कि ईंधन के रूप में एथेनॉल को प्रोत्‍साहन मिलता है। यह स्‍वदेशी है और प्रदूषणकारी नहीं है। इससे गन्‍ना किसानों की आय में भी वृद्धि होगी। गन्ने इससे पहले सरकार ने 2022 तक ईंधन ग्रेड के एथेनॉल को 10 प्रतिशत पेट्रोल में मिलाने का लक्ष्‍य तय किया था। 2030 तक 20 प्रतिशत ईंधन ग्रेड एथेनॉल को पेट्रोल में मिलाने का लक्ष्‍य तय किया गया था। लेकिन अब सरकार 20 प्रतिशत के मिश्रण लक्ष्‍य समय से पहले प्राप्‍त करने की योजना तैयार कर रही है। लेकिन देश में वर्तमान एथेनॉल डिस्‍टि‍ल क्षमता एथेनॉल उत्‍पादन के लिए पर्याप्‍त नहीं है। इससे मिश्रण लक्ष्‍य हासिल नहीं होता सरकार चीनी मिलों/डिस्‍टि‍लरियों को नई डिस्टि‍लरी स्‍थापित करने और वर्तमान डिस्‍टि‍लिंग क्षमता बढ़ाने के लिए प्रोत्‍साहित कर रही है। सरकार चीनी मिलों और डिस्‍टि‍लरियों द्वारा बैंक से ऋण लेने के मामले में अधिकतम 6 प्रतिशत की ब्याज दर पर पांच वर्षों के लिए ऋण सहायता दे रही है, ताकि चीनी मिलें और डिस्टि‍लरी अपनी परियोजनाएं स्‍थापित कर सकें। पिछले दो वर्षों में 70 ऐसी एथेनॉल परियोजनाओं (शीरा आधारित डिस्टि‍लरी) के लिए 3600 करोड़ रुपये के ऋण को मंजूरी दी गई है। इसका उद्देश्‍य क्षमता बढ़ाकर 195 करोड़ लीटर करना है। इन 70 परियोजनाओं में से 31 परियोजनाएं पूरी हो गई हैं और इससे अभी तक 102 करोड़ लीटर की क्षमता जुड़ गई है। सरकारी द्वारा किए जा रहे प्रयासों से शीरा आधारित डिस्टि‍लरियों की वर्तमान स्‍थापित क्षमता 426 करोड़ लीटर तक पहुंच गई है। शीरा आधारित डिस्टि‍लरियों के लिए एथेनॉल ब्‍याज सहायता योजना के अंतर्गत सरकार ने सितम्‍बर, 2020 में चीनी मिलों और डिस्टि‍लरियों से आवेदन आमंत्रित करने के लिए 30 दिन का समय दिया। डीएफपीडी द्वारा इन आवेदनों की जांच की गई और लगभग 185 आवेदकों (85 चीनी मिलें तथा 100 शीरा आधारित एकल डिस्‍टि‍लरियों) को प्रतिवर्ष 468 करोड़ लीटर की क्षमता जोड़ने के लिए सिद्धांत रूप में 12,500 करोड़ रुपये की ऋण राशि प्राप्‍त करने के लिए सैद्धांतिक मंजूरी दी जा रही है। आशा है कि यह परियोजनाएं 3-4 वर्षों में पूरी हो जाएंगी और इससे मिश्रण का वांछित लक्ष्‍य पूरा होगा। गन्ने गन्‍ना/चीनी को एथेनॉल के लिए दिए जाने से ही मिश्रण लक्ष्‍य हासिल नहीं किया जा सकता, इसलिए सरकार अनाज भंडारों से एथेनॉल उत्‍पादन के लिए डिस्टि‍लरियों को प्रोत्‍साहित कर रही है। इसके लिए वर्तमान डिस्टि‍लरी क्षमता पर्याप्‍त नहीं है। सरकार गन्‍ना, शीरा, अनाज, चुकंदर, मीठे ज्‍वार आदि से 720 करोड़ लीटर एथेनॉल बनाने के लिए एथेनॉल डिस्‍टि‍लेशन क्षमता बढ़ाने का प्रयास कर रही है। देश में जरूरत से अधिक चावल की उपलब्‍धता को देखते हुए सरकार अतिरिक्‍त चावल से एथेनॉल उत्‍पादन के लिए प्रयास कर रही है। इस एथेनॉल की सप्‍लाई एफसीआई द्वारा एथेनॉल सप्‍लाई वर्ष 2020-21 (दिसम्‍बर–नवम्‍बर) में तेल विपणन कंपनियों को पेट्रोल के साथ मिलाने के लिए की जाएगी। जिन राज्‍यों में मक्‍का उत्‍पादन पर्याप्‍त है उनमें राज्‍यों में मक्‍का से एथेनॉल बनाने के प्रयास किए जा रहे हैं। चालू एथेनॉल सप्‍लाई वर्ष 2019-20 में केवल 168 करोड़ लीटर एथेनॉल तेल विपणन कंपनियों को पेट्रोल के साथ मिलाने के लिए सप्‍लाई की जा सकी। इस तरह 4.8 प्रतिशत मिश्रण स्‍तर हासिल किया गया। लेकिन आगामी एथेनॉल सप्‍लाई वर्ष 2020-21 में पेट्रोल के साथ मिलाने के लिए तेल विपणन कंपनियों को 325 करोड़ लीटर एथेनॉल सप्‍लाई करने के प्रयास किए जा रहे हैं। इससे मिश्रण का 8.5 प्रतिशत लक्ष्‍य हासिल होगा। नवम्‍बर, 2022 में समाप्‍त होने वाले एथेनॉल सप्‍लाई वर्ष 2020-21 में 10 प्रतिशत मिश्रण लक्ष्‍य प्राप्‍त करना है। सरकार के प्रयासों को देखते हुए यह संभव है। वर्ष 2020-21 के लिए तेल विपणन कंपनियों द्वारा आमंत्रित पहली निविदा में 322 करोड़ लीटर (शीरा से 289 करोड़ लीटर और अनाज से 34 करोड़ लीटर) की बोली प्राप्‍त की गई है। उसके आगे की बोलियों में शीरा तथा अनाज आधारित डिस्टि‍लरियों से और अधिक मात्रा आएगी। इस तरह सरकार 325 करोड़ लीटर और 8.5 प्रतिशत मिश्रण लक्ष्‍य को प्राप्‍त करने में सफल होगी। अगले कुछ वर्षों में पेट्रोल के साथ 20 प्रतिशत एथेनॉल मिश्रण से सरकार कच्‍चे तेल का आयात कम करने में सक्षम होगी। यह पेट्रोलियम क्षेत्र में आत्‍मनिर्भर बनने की दिशा में कदम होगा और इससे किसानों की आय बढ़ेगी तथा डिस्टि‍लरियों में अतिरिक्‍त रोजगार सजृन होगा।
कमल की नवीन किस्म नमो 108 का हुआ अनावरण, हर समय खिलेंगे फूल

कमल की नवीन किस्म नमो 108 का हुआ अनावरण, हर समय खिलेंगे फूल

एनबीआरआई परिसर में कमल की नवीन वैरायटी नमो-108 का अनावरण किया। साथ ही, इस समारोह में लोटस मिशन का भी लॉन्च किया गया। केंद्रीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) एवं साथ ही पीएमओ, कार्मिक, लोक शिकायत, पेंशन, परमाणु ऊर्जा और अंतरिक्ष राज्य मंत्री डॉ. जितेंद्र सिंह ने शनिवार के दिन 108 पंखुड़ियों वाले कमल के फूल की एक उल्लेखनीय नवीन किस्म का अनावरण किया। ऐसा कहा जा रहा है, कि यह किस्म वनस्पति अनुसंधान के क्षेत्र में बेहद महत्वपूर्ण विकास है।

'नमो 108' कमल पोषक तत्व सामग्री से युक्त है

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि यह अनावरण समारोह एनबीआरआई परिसर में हुआ, जहां डॉ. जितेंद्र सिंह ने कमल के फूल एवं संख्या 108 दोनों के धार्मिक और प्रतीकात्मक महत्व पर बल दिया। इस दौरान उन्होंने बताया कि दोनों तत्वों के इस संलयन ने नई किस्म को एक विशिष्ट एवं महत्वपूर्ण पहचान अदा की है। 'नमो 108' कमल की किस्म मार्च से दिसंबर तक की समयांतराल तक फूलने की अवधि का दावा करती है। साथ ही, यह पोषक तत्व सामग्री की खासियत से युक्त है।

कमल के क्या-क्या उत्पाद हैं

बतादें, कि इस अवसर पर 'नमो-108' कमल किस्म से प्राप्त उत्पादों की एक श्रृंखला भी जारी की गई। इन उत्पादों में कमल के रेशे से निर्मित परिधान एवं 'फ्रोटस' नामक इत्र आदि शम्मिलित हैं, जो कमल के फूलों से निकाला जाता है। इन उत्पादों का विकास एफएफडीसी, कन्नौज की सहायता से आयोजित लोटस रिसर्च प्रोग्राम का हिस्सा था। ये भी देखें: अब कमल सिर्फ तालाब या कीचड़ में ही नहीं खेत में भी उगेगा, जानें कैसे दरअसल, इस विशिष्ट कमल किस्म को 'नमो- 108' नाम देने के लिए सीएसआईआर-एनबीआरआई की तारीफ करते हुए, डॉ. जितेंद्र सिंह ने इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्थायी समर्पण एवं सहज सुंदरता के रूप में देखा। बतादें, कि यह अनावरण प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल के दसवें वर्ष के साथ हुआ, जिससे इस अवसर पर स्मरणोत्सव की भी भावना जुड़ गई।

लोटस मिशन के अनावरण को चिह्नित किया गया है

कार्यक्रम के दौरान ‘लोटस मिशन’ के अनावरण को चिह्नित किया, जो कि लोटस-आधारित उत्पादों एवं अनुप्रयोगों के क्षेत्र में अनुसंधान और नवाचार को आगे बढ़ाने के मकसद से एक व्यापक कोशिश है। डॉ. जितेंद्र सिंह ने विभिन्न क्षेत्रों में विकास को प्रोत्साहन देने के लिए सरकार की प्रतिबद्धता पर रौशनी डालते हुए इस मिशन की तुलना बाकी प्राथमिकता वाली योजनाओं से की है। उन्होंने इस बात पर विशेष बल दिया कि, प्रधानमंत्री मोदी के मार्गदर्शन में लोटस मिशन जैसी अहम कवायद की प्रभावशीलता एवं प्रभाव सुनिश्चित करने के लिए सावधानीपूर्वक योजना तैयार की गई थी। अनावरणों में डॉ. जितेंद्र सिंह ने मंदिरों में चढ़ाए गए फूलों से निकाले गए हर्बल रंगों को प्रस्तुत किया। इन सब हर्बल रंगों के विविध अनुप्रयोग हैं, जिनमें रेशम एवं सूती कपड़ों की रंगाई भी शम्मिलित है। इसके अतिरिक्त 'एनबीआरआई-निहार' ('NBRI-NIHAR') नामक एलोवेरा की एक नवीन प्रजाति पेश की गई, जिसमें नियमित एलोवेरा उपभेदों के मुकाबले काफी ज्यादा जेल पैदा होती है। इस किस्म ने बैक्टीरिया फंगल रोगों के विरुद्ध भी लचीलापन प्रदर्शित किया है।
आम में फूल आने के लिए अनुकूल पर्यावरण परिस्थितियां एवं बाग प्रबंधन

आम में फूल आने के लिए अनुकूल पर्यावरण परिस्थितियां एवं बाग प्रबंधन

इस वर्ष भी शीत ऋतु का आगमन देर से होने एवं जनवरी के अंतिम सप्ताह में न्यूनतम तापमान 10 डिग्री सेल्सियस  से कम एक सप्ताह से ज्यादा समय से चल रहा है ,इन परिस्थितियों में किसान यह जानना चाह रहा है की क्या इस साल आम में मंजर समय से आएगा की देर से आएगा । वर्तमान पर्यावरण की परिस्थितियां इस तरफ इशारा कर रही है की मंजर आने में विलम्ब हो सकता है। इष्टतम फल उत्पादन सुनिश्चित करने के लिए आम के पेड़ों में फूल आने के लिए अनुकूल वातावरण बनाना महत्वपूर्ण है। सफल पुष्पन प्रक्रिया में कई कारक योगदान करते हैं, जिनमें जलवायु परिस्थितियों और मिट्टी की गुणवत्ता से लेकर उचित पेड़ की देखभाल और बाग प्रबंधन की विभिन्न विधा पर निर्भर करता  हैं।

जलवायु और तापमान

आम के पेड़ में अच्छे मंजर आने के लिए आवश्यक है की ढाई से तीन महीने तक शुष्क एवं ठंडा मौसम  उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय जलवायु में आवश्यक हैं। फूल आने के लिए आदर्श तापमान 77°F से 95°F (25°C से 35°C) के बीच होता है। ठंडा तापमान फूल आने में बाधा उत्पन्न करता है, इसलिए ठंढ से बचना आवश्यक है। इसके अतिरिक्त, सर्दियों की ठंड की अवधि, जिसमें तापमान लगभग 50°F (10°C) तक गिर जाता है तब फूलों के आगमन को बढ़ा देता है।कहने का तात्पर्य है की उस साल मंजर देर से आता है।

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प्रकाश आवश्यकताएँ

आम के पेड़ को आम तौर पर सूर्य की किरणे प्रिय होते हैं। मंजर के निकलने एवं उनके स्वस्थ को प्रोत्साहित करने के लिए दिन में कम से कम 6 से 8 घंटे तक पूर्ण सूर्य के प्रकाश की आवश्यकता होती है।  पर्याप्त धूप उचित प्रकाश संश्लेषण सुनिश्चित करती है, जो फूल आने और फलों के विकास के लिए आवश्यक ऊर्जा के लिए महत्वपूर्ण है।

मिट्टी की गुणवत्ता

थोड़ी अम्लीय से तटस्थ पीएच (6.0 से 7.5) वाली अच्छी जल निकासी वाली, दोमट मिट्टी आम के पेड़ों के लिए आदर्श होती है।  अच्छी मिट्टी की संरचना उचित वातन और जड़ विकास की अनुमति देती है।  नियमित मिट्टी परीक्षण और कार्बनिक पदार्थों के साथ संशोधन से पोषक तत्वों के स्तर को बनाए रखने और फूल आने के लिए अनुकूलतम स्थिति सुनिश्चित करने में मदद मिलती है।

जल प्रबंधन

आम के पेड़ों को लगातार और पर्याप्त पानी की आवश्यकता होती है, खासकर फूल आने के दौरान।  हालाँकि, जलभराव की स्थिति से बचना चाहिए क्योंकि इससे जड़ सड़न हो सकती है।  एक अच्छी तरह से विनियमित सिंचाई प्रणाली, जल जमाव के बिना नमी प्रदान करती है, फूल आने और उसके बाद फल लगने में सहायता करती है।किसान यह जानना चाहता है की मंजर आने से ठीक पहले या फूल खिलते समय सिंचाई कर सकते है की नही ,इसका सही जबाब है की सिंचाई नही करना चाहिए ,क्योंकि यदि इस समय सिंचाई किया गया तो मंजर के झड़ने की समस्या बढ़ सकती है जिससे किसान को नुकसान होता है।

पोषक तत्व प्रबंधन

आम के फूल आने के लिए उचित पोषक तत्व का स्तर महत्वपूर्ण है।  विशिष्ट विकास चरणों के दौरान नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटेशियम से भरपूर संतुलित उर्वरक का प्रयोग किया जाना चाहिए।  जिंक जैसे सूक्ष्म पोषक तत्व भी फूलों की शुरुआत और विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।  नियमित मृदा परीक्षण पोषक तत्वों के सटीक अनुप्रयोग का मार्गदर्शन करता है।

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छंटाई और प्रशिक्षण

छंटाई पेड़ को आकार देने, मृत या रोगग्रस्त शाखाओं को हटाने और सूर्य के प्रकाश के प्रवेश को प्रोत्साहित करने में मदद करती है।  खुली छतरियाँ बेहतर वायु संचार की अनुमति देती हैं, जिससे फूलों को प्रभावित करने वाली बीमारियों का खतरा कम हो जाता है।  शाखाओं का उचित प्रशिक्षण सीधी वृद्धि की आदत को बढ़ावा देता है, जिससे सूर्य के प्रकाश के बेहतर संपर्क में मदद मिलती है।

कीट और रोग प्रबंधन

कीट और रोग फूलों पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकते हैं।  नियमित निगरानी और उचित कीटनाशकों का समय पर प्रयोग संक्रमण को रोकने में मदद करता है।  उचित स्वच्छता, जैसे गिरी हुई पत्तियों और मलबे को हटाने से एन्थ्रेक्नोज जैसी बीमारियों का खतरा कम हो जाता है, जो फूलों को प्रभावित करता है।

परागण

आम के पेड़ मुख्य रूप से पर-परागण करते हैं, और मधुमक्खियाँ जैसे कीट परागणकर्ता महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।  आम के बागों के आसपास विविध पारिस्थितिकी तंत्र बनाए रखने से प्राकृतिक परागण को बढ़ावा मिलता है।  ऐसे मामलों में जहां प्राकृतिक परागण अपर्याप्त है, फलों के सेट को बढ़ाने के लिए मैन्युअल परागण विधियों को नियोजित किया जा सकता है।

शीतलन की आवश्यकता

आम के पेड़ों को फूल आने के लिए आमतौर पर शीतलन अवधि की आवश्यकता होती है। उन क्षेत्रों में जहां सर्दियों का तापमान स्वाभाविक रूप से कम नहीं होता है, फूलों की कलियों के निर्माण को प्रोत्साहित करने के लिए विकास नियामकों को लागू करने या कृत्रिम शीतलन विधियों को प्रदान करने जैसी रणनीतियों को नियोजित किया जाता है।

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रोग प्रतिरोध

रोग प्रतिरोधी आम की किस्मों को रोपने से पेड़ स्वस्थ होता है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि रोग फूल आने की प्रक्रिया में बाधा न बनें। आम के फलते-फूलते बाग के लिए ख़स्ता फफूंदी या जीवाणु संक्रमण जैसी बीमारियों के खिलाफ नियमित निगरानी और त्वरित कार्रवाई आवश्यक है।

अंत में, आम में फूल आने के लिए अनुकूल वातावरण बनाने में एक समग्र दृष्टिकोण शामिल होता है जिसमें जलवायु संबंधी विचार, मिट्टी की गुणवत्ता, जल प्रबंधन, पोषक तत्व संतुलन, छंटाई, कीट और रोग नियंत्रण, परागण रणनीतियाँ और विशिष्ट शीतलन आवश्यकताओं पर ध्यान शामिल होता है।  इन कारकों को संबोधित करके, उत्पादक फूलों को बढ़ा सकते हैं, जिससे फलों के उत्पादन में सुधार होगा और समग्र रूप से बगीचे में सफलता मिलेगी।


Dr AK Singh

डॉ एसके सिंह
प्रोफेसर (प्लांट पैथोलॉजी) एवं विभागाध्यक्ष,

पोस्ट ग्रेजुएट डिपार्टमेंट ऑफ प्लांट पैथोलॉजी, 

प्रधान अन्वेषक, 
अखिल भारतीय फल अनुसंधान परियोजना,डॉ राजेंद्र प्रसाद सेंट्रल एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी, पूसा-848 125, 
समस्तीपुर,बिहार 
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आम के बागों से अत्यधिक लाभ लेने के लिए फूल (मंजर ) प्रबंधन अत्यावश्यक, जाने क्या करना है एवं क्या नही करना है ?

आम के बागों से अत्यधिक लाभ लेने के लिए फूल (मंजर ) प्रबंधन अत्यावश्यक, जाने क्या करना है एवं क्या नही करना है ?

उत्तर भारत खासकर बिहार एवम् उत्तर प्रदेश में आम में मंजर, फरवरी के द्वितीय सप्ताह में आना प्रारम्भ कर देता है, यह आम की विभिन्न प्रजातियों तथा उस समय के तापक्रम द्वारा निर्धारित होता है। आम (मैंगीफेरा इंडिका) भारत में सबसे महत्वपूर्ण उष्णकटिबंधीय फल है। भारतवर्ष में आम उत्तर प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश एवं बिहार में प्रमुखता से इसकी खेती होती है। भारत सरकार के कृषि मंत्रालय के वर्ष 2020-21 के संख्यिकी के अनुसार भारतवर्ष में 2316.81 हजार हेक्टेयर में आम की खेती होती है, जिससे 20385.99 हजार टन उत्पादन प्राप्त होता है। आम की राष्ट्रीय उत्पादकता 8.80 टन प्रति हेक्टेयर है। बिहार में 160.24 हजार हेक्टेयर क्षेत्रफल में इसकी खेती होती है जिससे 1549.97 हजार टन उत्पादन प्राप्त होता है। बिहार में आम की उत्पादकता 9.67 टन प्रति हे. है जो राष्ट्रीय उत्पादकता से थोड़ी ज्यादा है।

आम की उत्पादकता को बढ़ाने के लिए आवश्यक है कि मंजर ने टिकोला लगने के बाद बाग का वैज्ञानिक ढंग से प्रबंधन कैसे किया जाय जानना आवश्यक है ? आम में फूल आना एक महत्वपूर्ण चरण है,क्योंकि यह सीधे फल की पैदावार को प्रभावित करता है । आम में फूल आना विविधता और पर्यावरणीय परिस्थितियों पर अत्यधिक निर्भर है। इस प्रकार, आम के फूल आने की अवस्था के दौरान अपनाई गई उचित प्रबंधन रणनीतियाँ फल उत्पादन को सीधे प्रभावित करती हैं।

आम के फूल का आना

आम के पेड़ आमतौर पर 5-8 वर्षों के विकास के बाद परिपक्व होने पर फूलना शुरू करते हैं , इसके पहले आए फूलों को तोड़ देना चाहिए । उत्तर भारत में आम पर फूल आने का मौसम आम तौर पर मध्य फरवरी से शुरू होता है। आम के फूल की शुरुआत के लिए तेज धूप के साथ दिन के समय 20-25 डिग्री सेल्सियस और रात के दौरान 10-15 डिग्री सेल्सियस की आवश्यकता होती है। हालाँकि, फूल लगने के समय के आधार पर, फल का विकास मई- जून तक शुरू होता है। फूल आने की अवधि के दौरान उच्च आर्द्रता, पाला या बारिश फूलों के निर्माण को प्रभावित करती है। फूल आने के दौरान बादल वाला मौसम आम के हॉपर और पाउडरी मिल्डीव एवं एंथरेक्नोज बीमारियों के फैलने में सहायक होता है, जिससे आम की वृद्धि और फूल आने में बाधा आती है।

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आम में फूल आने से फल उत्पादन पर क्या प्रभाव पड़ता है?

आम के फूल छोटे, पीले या गुलाबी लाल रंग के आम की प्रजातियों के अनुसार , गुच्छों में गुच्छित होते हैं, जो शाखाओं से नीचे लटकते हैं। वे उभयलिंगी फूल होते हैं लेकिन परागणकों द्वारा क्रॉस-परागण अधिकतम फल सेट में योगदान देता है। आम परागणकों में मधुमक्खियाँ, ततैया, पतंगे, तितलियाँ, मक्खियाँ, भृंग और चींटियाँ शामिल हैं। उत्पादित फूलों की संख्या और फूल आने की अवस्था की अवधि सीधे फलों की उपज को प्रभावित करती है। हालाँकि, फूल आना कई कारकों से प्रभावित होता है जैसे तापमान, आर्द्रता, सूरज की रोशनी, कीट और बीमारी का प्रकोप और पानी और पोषक तत्वों की उपलब्धता। ये कारक फूल आने के समय और तीव्रता को प्रभावित करते हैं। यदि फूल आने की अवस्था के दौरान उपरोक्त कारक इष्टतम नहीं हैं, तो इसके परिणामस्वरूप कम या छोटे फल लगेंगे। उत्पादित सभी फूलों पर फल नहीं लगेंगे। फल के पूरी तरह से सेट होने और विकसित होने के लिए उचित परागण आवश्यक है। पर्याप्त परागण के बाद भी, मौसम की स्थिति और कीट संक्रमण जैसे कई कारकों के कारण फूलों और फलों के बड़े पैमाने पर गिरने के कारण केवल कुछ अनुपात में ही फूल बनते हैं। इससे अंततः फलों की उपज और गुणवत्ता प्रभावित होती है। फूल आने का समय, अवधि और तीव्रता आम के पेड़ों में फल उत्पादन को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित करती है।

आम के फूलों का प्रबंधन

1. कर्षण क्रियाएं

फल की तुड़ाई के बाद आम के पेड़ों की ठीक से कटाई - छंटाई करने से अच्छे एवं स्वस्थ फूल आते हैं। कटाई - छंटाई की कमी से आम की छतरी (Canopy) घनी हो जाती है, जिससे प्रकाश पेड़ के आंतरिक भागों में प्रवेश नहीं कर पाता है और इस प्रकार फूल और उपज कम हो जाती है। टहनियों के शीर्षों की छंटाई करने से फूल आने शुरू होते हैं। छंटाई का सबसे अच्छा समय फल तुडाई के बाद होता है, आमतौर पर जून से अगस्त के दौरान। टिप प्रूनिंग, जो अंतिम इंटरनोड से 10 सेमी ऊपर की जाती है, फूल आने में सुधार करती है। गर्डलिंग आम में फलों की कलियों के निर्माण को प्रेरित करने के लिए उपयोग की जाने वाली एक विधि है। इसमें आम के पेड़ के तने से छाल की पट्टी को हटाना शामिल है। यह फ्लोएम के माध्यम से मेटाबोलाइट्स के नीचे की ओर स्थानांतरण को अवरुद्ध करके करधनी के ऊपर के हिस्सों में पत्तेदार कार्बोहाइड्रेट और पौधों के हार्मोन को बढ़ाकर फूल, फल सेट और फल के आकार को बढ़ाता है। पुष्पक्रम निकलने के समय घेरा बनाने से फलों का जमाव बढ़ जाता है। गर्डलिंग की गहराई का ध्यान रखना चाहिए। अत्यधिक घेरेबंदी की गहराई पेड़ को नुकसान पहुंचा सकती है। यह कार्य विशेषज्ञ की देखरेख या ट्रेनिंग के बाद ही करना चाहिए।

2. पादप वृद्धि नियामक (पीजीआर)

पादप वृद्धि नियामक (पीजीआर) का उपयोग पौधों की वृद्धि और विकास को नियंत्रित करने वाली शारीरिक प्रक्रियाओं को प्रभावित करके फूलों को नियंत्रित करने और पैदावार बढ़ाने के लिए किया जाता है।एनएए फूल आने, कलियों के झड़ने और फलों को पकने से रोकने में भी मदद करते हैं। वे फलों का आकार बढ़ाने, फलों की गुणवत्ता और उपज बढ़ाने और सुधारने में मदद करते हैं। प्लेनोफिक्स @ 1 मी.ली. दवा प्रति 3 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव फूल के निकलने से ठीक पूर्व एवं दूसरा छिड़काव फल के मटर के बराबर होने पर करना चाहिए ,यह छिड़काव टिकोलो (आम के छोटे फल) को गिरने से रोकने के लिए आवश्यक है।लेकिन यहा यह बता देना आवश्यक है की आम के पेड़ के ऊपर शुरुआत मे जीतने फल लगते है उसका मात्र 5 प्रतिशत से कम फल ही अंततः पेड़ पर रहता है , यह पेड़ की आंतरिक शक्ति द्वारा निर्धारित होता है । कहने का तात्पर्य यह है की फलों का झड़ना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है इसे लेकर बहुत घबराने की आवश्यकता नहीं है । पौधों की वृद्धि और विकास पर नकारात्मक प्रभावों से बचने के लिए पीजीआर का सावधानीपूर्वक प्रबंधन किया जाना चाहिए, जैसे अत्यधिक शाखाएं, फलों का आकार कम होना, या फूल आने में देरी। उपयोग से पहले खुराक और आवेदन के समय की जांच करें।

3. पोषक तत्व प्रबंधन

आम के पेड़ों में फूल आने के लिए पोषक तत्व प्रबंधन महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। नाइट्रोजन पौधों की वृद्धि और विकास के लिए आवश्यक है। हालाँकि, अत्यधिक नाइट्रोजन फूल आने के बजाय वानस्पतिक विकास को बढ़ावा देकर आम के फूल आने में देरी करती है। इससे फास्फोरस(पी) और पोटाश (के) जैसे अन्य पोषक तत्वों में भी असंतुलन हो सकता है जो फूल आने के लिए महत्वपूर्ण हैं। नाइट्रोजन के अधिक उपयोग से वानस्पतिक वृद्धि के कारण कीट संक्रमण की संभावना बढ़ जाती है। फूलों के प्रबंधन के लिए नत्रजन (एन) की इष्टतम मात्रा का उपयोग किया जाना चाहिए। फास्फोरस आम के पेड़ों में फूल लगने और फल लगने के लिए आवश्यक है। फूल आने को बढ़ावा देने के लिए फूल आने से पहले की अवस्था में फॉस्फोरस उर्वरक का प्रयोग करें। पर्याप्त पोटेशियम का स्तर आम के पेड़ों में फूलों को बढ़ा सकता है और फूलों और फलों की संख्या में वृद्धि करता है। पोटेशियम फल तक पोषक तत्वों और पानी के परिवहन में मदद करता है, जो इसके विकास और आकार के लिए आवश्यक है। यह पौधों में नमी के तनाव, गर्मी, पाले और बीमारी के प्रति प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में भी मदद करता है। सूक्ष्म पोषक तत्वों के प्रयोग से फूल आने, फलों की गुणवत्ता में सुधार और फलों का गिरना नियंत्रित करके बेहतर परिणाम मिलते हैं।

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4. कीट एवं रोग प्रबंधन

फूल और फल बनने के दौरान, कीट और बीमारी के संक्रमण की संभावना अधिक होती है, जिससे फूल और समय से पहले फल झड़ने का खतरा होता है। मैंगो हॉपर, फ्लावर गॉल मिज, मीली बग और लीफ वेबर आम के फूलों पर हमला करने वाले प्रमुख कीट हैं। मैंगो पाउडरी मिल्ड्यू, मैंगो मैलफॉर्मेशन और एन्थ्रेक्नोज ऐसे रोग हैं जो आम के फूलों को प्रभावित करते हैं जिससे फलों का विकास कम हो जाता है। फलों की पैदावार बढ़ाने के लिए आम के फूलों में कीटों और बीमारियों के लक्षण और प्रबंधन की जाँच करें - आम के फूलों में रोग और कीट प्रबंधन करना चाहिए।

विगत 4 – 5 वर्ष से बिहार में मीली बग (गुजिया) की समस्या साल दर साल बढ़ते जा रही है। इस कीट के प्रबंधन के लिए आवश्यक है कि दिसम्बर- जनवरी में बाग के आस पास सफाई करके मिट्टी में क्लोरपायरीफास 1.5 डी. धूल @ 250 ग्राम प्रति पेड का बुरकाव कर देना चाहिए तथा मीली बग (गुजिया)  कीट पेड़ पर न चढ सकें इसके लिए एल्काथीन की 45 सेमी की पट्टी आम के मुख्य तने के चारों तरफ सुतली से बांध देना चाहिए। ऐसा करने से यह कीट पेड़ पर नही चढ़ सकेगा । यदि आप ने पूर्व में ऐसा नही किया है एवं गुजिया कीट पेड पर चढ गया हो तो ऐसी अवस्था में डाएमेथोएट 30 ई.सी. या क्विनाल्फोस 25 ई.सी.@ 1.5 मीली दवा प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए। जिन आम के बागों का प्रबंधन ठीक से नही होता है वहां पर हापर या भुनगा कीट बहुत सख्या में हो जाते है अतः आवश्यक है कि सूर्य का प्रकाश बाग में जमीन तक पहुचे जहां पर बाग घना होता है वहां भी इन कीटों की सख्या ज्यादा होती है।

पेड़ पर जब मंजर आते है तो ये मंजर इन कीटों के लिए बहुत ही अच्छे खाद्य पदार्थ होते है,जिनकी वजह से इन कीटों की संख्या में भारी वृद्धि हो जाती है।इन कीटों की उपस्थिति का दूसरी पहचान यह है कि जब हम बाग के पास जाते है तो झुंड के झुंड  कीड़े पास आते है। यदि इन कीटों को प्रबंन्धित न किया जाय तो ये मंजर से रस चूस लेते है तथा मंजर झड़ जाता है । जब प्रति बौर 10-12 भुनगा दिखाई दे तब हमें इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस.एल.@1मीली दवा प्रति 2 लीटर पानी में घोल कर छिडकाव करना चाहिए । यह छिड़काव फूल खिलने से पूर्व करना चाहिए अन्यथा बाग में आने वाले मधुमक्खी के किड़े प्रभावित होते है जिससे परागण कम होता है तथा उपज प्रभावित होती है ।

पाउडरी मिल्डयू/ खर्रा रोग के प्रबंधन के लिए आवश्यक है कि मंजर आने के पूर्व घुलनशील गंधक @ 2 ग्राम / लीटर पानी मे घोलकर छिड़काव करना चाहिए। जब पूरी तरह से फल लग जाय तब इस रोग के प्रबंधन के लिए हेक्साकोनाजोल @ 1 मिली लीटर प्रति लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करना चाहिए। जब तापक्रम 35 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा हो जाता है तब इस रोग की उग्रता में कमी अपने आप आने लगती है।

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गुम्मा व्याधि से ग्रस्त बौर को काट कर हटा देना चाहिए। बाग में यदि तना छेदक कीट या पत्ती काटने वाले धुन की समस्या हो तो क्विनालफोस 25 ई.सी. @ 2 मीली दवा / लीटर पानी मे घोलकर छिड़काव करना चाहिए। लेकिन ध्यान देने योग्य बात यह है की फूल खिलने के ठीक पहले से लेकर जब फूल खिले हो उस अवस्था मे कभी भी किसी भी रसायन, खासकर कीटनाशकों का छिडकाव नहीं करना चाहिए, अन्यथा परागण बुरी तरह प्रभावित होता है एवं फूल के कोमल हिस्से घावग्रस्त होने की संभावना रहती है । 

5. परागण

आम के फूल में एक ही फूल में नर और मादा दोनों प्रजनन अंग होते हैं। हालाँकि, आम के फूल अपेक्षाकृत छोटे होते हैं और बड़ी मात्रा में पराग का उत्पादन नहीं करते हैं। इसलिए, फूलों के बीच पराग स्थानांतरित करने के लिए वे मक्खियों, ततैया और अन्य कीड़ों जैसे परागणकों पर बहुत अधिक निर्भर होते हैं। परागण के बिना, आम के फूल फल नहीं दे सकते हैं, या फल छोटा या बेडौल हो सकता है। पर-परागण से आम की पैदावार बढ़ती है। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि पूर्ण ब्लूम(पूर्ण रूप से जब फूल खिले होते है) चरण के दौरान कीटनाशकों और कवकनाशी का छिड़काव नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि इस समय कीटों द्वारा परागण प्रभावित होगा जिससे उपज कम हो जाएगी। आम के बाग से अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए आम के बाग में मधुमक्खी की कालोनी बक्से रखना अच्छा रहेगा,इससे परागण अच्छा होता है तथा फल अधिक मात्रा में लगता है।

6. मौसम की स्थिति

फूल आने के दौरान अनुकूलतम मौसम की स्थिति से सफल फल लगने की दर और पैदावार में वृद्धि होती है। उदाहरण के लिए, अत्यधिक हवा की गति के कारण फूल और फल बड़े पैमाने पर गिर जाते हैं। इस प्रकार, विंडब्रेक या शेल्टरबेल्ट लगाकर आम के बागों को हवा से सुरक्षा प्रदान करना आवश्यक है।

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7. जल प्रबंधन

आम के पेड़ों को विशेष रूप से बढ़ते मौसम के दौरान पर्याप्त मात्रा में पानी की आवश्यकता होती है। अपर्याप्त या अत्यधिक पानी देने से फल की उपज और गुणवत्ता कम हो सकती है। उचित जल प्रबंधन बीमारियों और कीटों को रोकने में भी मदद करता है, जो नम वातावरण में पनपते हैं। गर्म और शुष्क जलवायु में, सिंचाई आर्द्रता के स्तर को बढ़ाने और तापमान में उतार-चढ़ाव को कम करने में मदद कर सकती है, जिससे आम की वृद्धि के लिए अधिक अनुकूल वातावरण मिलता है। अत्यधिक सिंचाई से मिट्टी का तापमान कम हो सकता है, जिसके परिणामस्वरूप पौधों की वृद्धि और विकास कम हो जाता है। दूसरी ओर, अपर्याप्त पानी देने से मिट्टी का तापमान बढ़ सकता है, पौधों की जड़ों को नुकसान पहुँच सकता है और पैदावार कम हो सकती है। इस प्रकार, स्वस्थ पौधों की वृद्धि और फल उत्पादन सुनिश्चित करने के लिए प्रभावी जल प्रबंधन आवश्यक है। फूल निकलने के 2 से 3 महीने पहले से लेकर फल के मटर के बराबर होने के मध्य सिंचाई नही करना चाहिए ।कुछ बागवान आम में फूल लगने एवं खिलने के समय सिंचाई करते है इससे फूल झड़ जाते है । इसलिए सलाह दी जाती है सिंचाई तब तक न करें जब तक फल मटर के बराबर न हो जाय।

सारांश

अधिक पैदावार के लिए आम के फूलों के प्रबंधन में पौधों की वृद्धि को अनुकूलित करने, कीटों और बीमारियों का प्रबंधन करने और फूलों के विकास और परागण के लिए इष्टतम पर्यावरणीय परिस्थितियों को सुनिश्चित करने के उद्देश्य से रणनीतियों का संयोजन शामिल है। इन प्रबंधन प्रथाओं का पालन करने से फूलों और फलों के उत्पादन में वृद्धि हो सकती है, जिससे उच्च पैदावार और फलों की गुणवत्ता में सुधार होगा।


Dr AK Singh
डॉ एसके सिंह प्रोफेसर (प्लांट पैथोलॉजी) एवं विभागाध्यक्ष,
पोस्ट ग्रेजुएट डिपार्टमेंट ऑफ प्लांट पैथोलॉजी,
प्रधान अन्वेषक, अखिल भारतीय फल अनुसंधान परियोजना,डॉ राजेंद्र प्रसाद सेंट्रल एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी, पूसा-848 125, समस्तीपुर,बिहार
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आम के बगीचे में फलों में लगने वाले रोगों से बचाव की महत्वपूर्ण सलाह

आम के बगीचे में फलों में लगने वाले रोगों से बचाव की महत्वपूर्ण सलाह

भा.कृ,अनु.प, केन्द्रीय उपोष्ण बागवानी संस्थान (ICAR, Central Institute of Subtropical Horticulture) के द्वारा किसानों के लिए मार्च महीने में आम के बगीचे से जुड़ी 5 महत्वपूर्ण सलाह जारी की है। 

ताकि किसान वक्त रहते आम के बगीचे की देखरेख (Mango orchard maintenance) करके शानदार उपज हांसिल कर सकें।

गर्मी के मौसम में बाजार के अंदर सबसे ज्यादा आम की मांग रहती है। इस दौरान किसान आम की खेती से ज्यादा आमदनी प्राप्त कर सकते हैं। परंतु, सामान्यतः देखा गया है, कि आम की फसल में कई बार कीट व रोग लगने से किसानों को बड़े नुकसान का सामना करना पड़ता है। 

अब ऐसी स्थिति में भारतीय मौसम विज्ञान विभाग ने कृषकों के लिए मार्च माह में आम के बगीचों से जुड़ी जरूरी सलाह जारी की है। जिससे किसान वक्त रहते आम के बगीचे से अच्छा मुनाफा प्राप्त कर सकें।

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आम के बगीचे से शानदार फायदा पाने के लिए किसानों को मार्च माह में केवल 5 बातों का ध्यान रखना है, जोकि भा.कृ,अनु.प, केन्द्रीय उपोष्ण बागवानी संस्थान रहमानखेड़ा, पो.काकोरी, लखनऊ के द्वारा जारी की गई है। ऐसे में आइए इन 5 महत्वपूर्ण सलाहों के बारे में विस्तार से जानते हैं।

खर्रा रोग की रोकथाम हेतु सलाह

विभाग के द्वारा जारी की गई जानकारी के मुताबिक, इस सप्ताह उत्तर प्रदेश में खर्रा रोग से क्षति की संभावना जताई गई है. 

अगर फसल में 10 प्रतिशत से अधिक पुष्पगुच्छों पर खर्रा की उपस्थिति देखी जाती है, तो टेबुकोनाजोल+ट्राइफ्लॉक्सीस्ट्रोबिन (0.05 प्रतिशत) या हेक्साकोनाजोल (0.1 प्रतिशत) या सल्फर (0.2 प्रतिशत) का छिड़काव किया जा सकता है.

आम के भुनगा कीट की रोकथाम के लिए सलाह 

आम का भुनगा (फुदका या लस्सी) एक बेहद हानिकारक कीट है, जो आम की फसल को बड़ी गंभीर हानि पहुँचा सकता है। यह बौर, कलियों तथा मुलायम पत्तियों पर एक-एक करके अंडे देते हैं और शिशु अंडे से एक सप्ताह में बाहर आ जाते हैं। 

बाहर आने के पश्चात शिशु एवं वयस्क पुष्पगुच्छ (बौर), पत्तियों तथा फलों के मुलायम हिस्सों से रस को चूस लेते हैं। इससे वृक्ष पर बौर खत्म हो जाता है। इसकी वजह से फल बिना पके ही गिर जाते हैं। 

भारी मात्रा में भेदन तथा सतत रस चूसने की वजह से पत्तियां मुड़ जाती हैं और प्रभावित ऊतक सूख जाते हैं। यह एक मीठा चिपचिपा द्रव भी निकालते हैं, जिस पर सूटी मोल्ड (काली फफूंद) का वर्धन होता है। 

सूटी मोल्ड एक तरह की फफूंद होती है, जो पत्तियों में होने वाली प्रकाश संश्लेषण की क्रिया को कम करती है। अगर समय पर हस्तक्षेप नहीं किया गया, तो गुणवत्ता वाले फल की पैदावार प्रभावित होगी। 

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अब ऐसी स्थिति में किसानों को सलाह दी जाती है, कि यदि पुष्पगुच्छ पर भुनगे की मौजूदगी देखी जा रही है, तो तत्काल इमिडाक्लोप्रिड (0.3 मि.ली./ली. पानी) तथा साथ में स्टिकर (1 मि.ली./ली. पानी) छिड़काव करना चाहिए। 

पुष्प गुच्छ मिज की रोकथाम हेतु सलाह

आम के पुष्प एवं पुष्प गुच्छ मिज अत्यंत हानिकारक कीट हैं, जो आम की फसल को काफी प्रभावित करते हैं। मिज कीट का आक्रमण वैसे तो जनवरी महीने के आखिर से जुलाई माह तक कोमल प्ररोह तने एवं पत्तियों पर होता है। 

परंतु, सर्वाधिक नुकसान बौर एवं नन्हें फलों पर इसके द्वारा ही किया जाता है। इस कीट के लक्षण बोर के डंठल, पत्तियों की शिराओं अथवा तने पर कत्थई या काले धब्बे के रूप में दिखाई देते हैं। धब्बे के बीच भाग में छोटा सा छेद होता है।

प्रभावित बौर व पत्तियों की आकृति टेढ़ी-मेढ़ी हो जाती है। प्रभावित इलाकों से आगे का बौर सूख भी सकता है। किसान भाइयों को सलाह दी जाती है, कि इस कीट की रोकथाम हेतु जरूरत के अनुसार डायमेथोएट (30 प्रतिशत सक्रिय तत्व) 2.0 मि.ली. प्रति लीटर पानी की दर से स्टिकर (1.मि.ली/ली.पानी) के साथ छिड़काव करें।

आम के बगीचे में थ्रिप्स की रोकथाम हेतु सलाह

दरअसल, आने वाले कुछ दिनों के दौरान आम के बौर पर थ्रिप्स का संक्रमण दर्ज किया जा सकता है। अगर आम के बगीचों में इसका संक्रमण देखा जाता है, तो थायामेथोक्साम (0.33 ग्राम/लीटर) के छिड़काव द्वारा तुरंत इसको प्रबंधित करें।

आम के गुजिया कीट की रोकथाम हेतु सलाह

आम के बागों में गुजिया कीट की गतिविधि जनवरी महीने के पहले सप्ताह से शुरू हो जाती है। यदि बचाव के उपाय असफल होते हुए कीट बौर और पत्तियों तक पहुंच गया है, 

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तो किसानों से अनुरोध है कि इसके प्रबंधन हेतु आवश्यक कार्यवाही शीघ्र करें। अगर कीट बौर और पत्तियों तक पहुंच गया हो तो कार्बोसल्फान 25 ई.सी का 2 मिली./ली.पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।

पशुओं को साइलेज चारा खिलाने से दूध देने की क्षमता बढ़ेगी

पशुओं को साइलेज चारा खिलाने से दूध देने की क्षमता बढ़ेगी

गाय-भैंस का दूध उत्पादन बढ़ाने के लिए आप साइलेज चारे को एक बार अवश्य खिलाएं। परंतु, इसके लिए आपको नीचे लेख में प्रदान की गई जानकारियों का ध्यान रखना होगा। पशुओं से हर दिन समुचित मात्रा में दूध पाने के लिए उन्हें सही ढ़ंग से चारा खिलाना बेहद आवश्यक होता है। इसके लिए किसान भाई बाजार में विभिन्न प्रकार के उत्पादों को खरीदकर लाते हैं एवं अपने पशुओं को खिलाते हैं। यदि देखा जाए तो इस कार्य के लिए उन्हें ज्यादा धन खर्च करना होता है। इतना कुछ करने के पश्चात किसानों को पशुओं से ज्यादा मात्रा में दूध का उत्पादन नहीं मिल पाता है।

 यदि आप भी अपने पशुओं के कम दूध देने से निराश हो गए हैं, तो घबराने की कोई जरूरत नहीं है। आज हम आपके लिए ऐसा चारा लेकर आए हैं, जिसको समुचित मात्रा में खिलाने से पशुओं की दूध देने की क्षमता प्रति दिन बढ़ेगी। दरअसल, हम साइलेज चारे की बात कर रहे हैं। जानकारी के लिए बतादें, कि यह चारा मवेशियों के अंदर पोषक तत्वों की कमी को दूर करने के साथ ही दूध देने की क्षमता को भी बढ़ाता है। 

कौन से मवेशी को कितना चारा खिलाना चाहिए

ऐसे में आपके दिमाग में आ रहा होगा कि क्या पशुओं को यह साइलेज चारा भरपूर मात्रा में खिलाएंगे तो अच्छी पैदावार मिलेगी। आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि ऐसा करना सही नहीं है। इससे आपके मवेशियों के स्वास्थ्य पर गलत प्रभाव पड़ सकता है। इसलिए ध्यान रहे कि जिस किसी भी दुधारू पशु का औसतन वजन 550 किलोग्राम तक हो। उस पशु को साइलेज चारा केवल 25 किलोग्राम की मात्रा तक ही खिलाना चाहिए। वैसे तो यह चारा हर एक तरह के पशुओं को खिलाया जा सकता है। परंतु, छोटे और कमजोर मवेशियों के इस चारे के एक हिस्से में सूखा चारा मिलाकर देना चाहिए। 

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साइलेज चारे में कितने प्रतिशत पोषण की मात्रा होती है

जानकारी के अनुसार, साइलेज चारे में 85 से लेकर 90 प्रतिशत तक हरे चारे के पोषक तत्व विघमान होते हैं। इसके अतिरिक्त इसमें विभिन्न प्रकार के पोषण पाए जाते हैं, जो पशुओं के लिए काफी फायदेमंद होते हैं। 

साइलेज तैयार करने के लिए इन उत्पादों का उपयोग

अगर आप अपने घर में इस चारे को बनाना चाहते हैं, तो इसके लिए आपको दाने वाली फसलें जैसे कि ज्वार, जौ, बाजरा, मक्का आदि की आवश्यकता पड़ेगी। इसमें पशुओं की सेहत के लिए कार्बोहाइड्रेट अच्छी मात्रा में होते हैं। इसे तैयार करने के लिए आपको साफ स्थान का चयन करना पड़ेगा। साथ ही, साइलेज बनाने के लिए गड्ढे ऊंचे स्थान पर बनाएं, जिससे बारिश का पानी बेहतर ढ़ंग से निकल सके। 

गाय-भैंस कितना दूध प्रदान करती हैं

अगर आप नियमित मात्रा में अपने पशु को साइलेज चारे का सेवन करने के लिए देते हैं, तो आप अपने पशु मतलब कि गाय-भैंस से प्रति दिन बाल्टी भरकर दूध की मात्रा प्राप्त कर सकते हैं। अथवा फिर इससे भी कहीं ज्यादा दूध प्राप्त किया जा सकता है।

बकरियों पर पड़ रहे लंपी वायरस के प्रभाव को इस तरह रोकें

बकरियों पर पड़ रहे लंपी वायरस के प्रभाव को इस तरह रोकें

लंपी वायरस एक संक्रामक रोग है। यह पशुओं के लार के माध्यम से फैलता है। लंपी वायरस गाय बकरी आदि जैसे दूध देने वाले पशुओं पर प्रकोप ड़ालता है। इस वायरस के प्रकोप से बकरियों के शरीर पर गहरी गांठें हो जाती हैं। साथ ही, यह बड़ी होकर घाव के स्वरूप में परिवर्तित हो जाती हैं। इसको सामान्य भाषा में गांठदार त्वचा रोग के नाम से भी जाना जाता है। बकरियों के अंदर यह बीमारी होने से उनका वजन काफी घटने लगता है। सिर्फ यही नहीं बकरियों के दूध देने की क्षमता भी कम होनी शुरू हो जाती है। 

लंपी वायरस के क्या-क्या लक्षण होते हैं

इस रोग की वजह से बकरियों को बुखार आना शुरू हो जाता है। आंखों से पानी निकलना, लार बहना, शरीर पर गांठें आना, पशु का वजन कम होना, भूख न लगना एवं शरीर पर घाव बनना इत्यादि जैसे लक्षण होते हैं। आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि लंपी रोग केवल जानवरों में होता है। यह लंपी वायरस गोटपॉक्स एवं शिपपॉक्स फैमिली का होता है। इन कीड़ों में खून चूसने की क्षमता काफी अधिक होती है।

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लंपी वायरस से बकरियों के शरीर पर क्या प्रभाव पड़ेगा

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि इस वायरस की चपेट में आने के पश्चात बकरियों में इसका संक्रमण 14 दिन के अंदर दिखने लगता है। जानवर को तीव्र बुखार, शरीर पर गहरे धब्बे एवं खून में थक्के पड़ने लगते हैं। इस वजह से बकरियों का वजन कम होने लग जाता है। साथ ही, इनकी दूध देने की क्षमता भी काफी कम होने लगती है। दरअसल, इसके साथ-साथ पशु के मुंह से लार आनी शुरू हो जाती है। गर्भवती बकरियों का गर्भपात होने का भी खतरा बढ़ जाता है। 

लंपी वायरस की शुरुआत किस देश से हुई है

विश्व में पहली बार लंपी वायरस को अफ्रीका महाद्वीप के जाम्बिया देश के अंदर पाया गया था। हाल ही में यह पहली बार 2019 में चीन में सामने आया था। भारत में भी यह 2019 में ही आया था। भारत में पिछले दो सालों से इसके काफी सारे मामले सामने आ रहे हैं। 

बकरियों का दूध पीयें या नहीं

लंपी वायरस मच्छर, मक्खी, दूषित भोजन एवं संक्रमित पाशुओं के लार के माध्यम से ही फैलता है। इस वायरस को लेकर लोगों के भीतर यह भय व्याप्त हो गया है, कि क्या इस वायरस से पीड़ित पशुओं के दूध का सेवन करना चाहिए अथवा नहीं करना चाहिए। आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि पशुओं के दूध का उपयोग किया जा सकता है। परंतु, आपको दूध को काफी अच्छी तरह से उबाल लेना चाहिए। इससे दूध में विघमान वायरस पूर्णतय समाप्त हो जाए।

मुर्गी पालन की आधुनिक तकनीक (Poultry Farming information in Hindi)

मुर्गी पालन की आधुनिक तकनीक (Poultry Farming information in Hindi)

हालांकि मुर्गी पालन की शुरुआत करना एक बहुत ही आसान काम है, परंतु इसे एक बड़े व्यवसाय के स्तर पर ले जाने के लिए आपको वैज्ञानिक विधि के तहत मुर्गी पालन की शुरुआत करनी चाहिए, जिससे आपकी उत्पादकता अधिकतम हो सके।

मुर्गी पालन (Poultry Farming)

किसानों के द्वारा स्थानीय स्तर पर मुर्गी पालन (पोल्ट्री फार्मिंग, Poultry farming)या कुक्कुट पालन(kukkut paalan) का व्यवसाय पिछले एक दशक में काफी तेजी से बढ़ा है। 

इसके पीछे का मुख्य कारण यह है कि पिछले कुछ सालों में प्रोटीन की मांग को पूरा करने के लिए मीट और मुर्गी के अंडों की डिमांड मार्केट में काफी तेजी से बढ़ी है।

क्या है मुर्गी पालन ?

सामान्यतया मुर्गी के छोटे बच्चों को स्थानीय स्तर पर ही एक फार्म हाउस बनाकर पालन किया जाता है और बड़े होने पर मांग के अनुसार उनके अंडे या फिर मीट को बेचा जाता है। 

हालांकि भारत में अभी भी मीट की डिमांड इतनी अधिक नहीं है, परंतु पश्चिमी सभ्यताओं के देशों में पिछली पांच सालों से भारतीय मुर्गी के मीट की डिमांड काफी ज्यादा बढ़ी है।

कब और कहां हुई थी मुर्गी पालन की शुरुआत ?

आधुनिक जिनोमिक रिपोर्ट्स की जानकारी से पता चलता है कि मुर्गी पालन दक्षिणी पूर्वी एशिया में सबसे पहले शुरू हुआ था और इसकी शुरुआत आज से लगभग 8000 साल पहले हुई थी। 

भारत में मुर्गी पालन की शुरुआत वर्तमान समय से लगभग 2000 साल पहले शुरू हुई मानी जाती है, परंतु आज जिस बड़े स्तर पर इसे एक व्यवसाय के रूप में स्थापित किया गया है, इसकी मुख्य शुरुआत भारत की आजादी के बाद ही मानी जाती है। 

हालांकि भारत में पोल्ट्री फार्मिंग के अंतर्गत मुर्गी पालन को सबसे ज्यादा प्राथमिकता दी जाती है, परंतु मुर्गी के अलावा भी मेक्सिको और कई दूसरे देशों में बतख तथा कबूतर को भी इसी तरीके से पाल कर बेचा जाता है। 

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कैसे करें मुर्गी पालन की शुरुआत ?

हालांकि मुर्गी पालन की शुरुआत करना एक बहुत ही आसान काम है, परंतु इसे एक बड़े व्यवसाय के स्तर पर ले जाने के लिए आपको वैज्ञानिक विधि के तहत मुर्गी पालन की शुरुआत करनी चाहिए, जिससे आपकी उत्पादकता अधिकतम हो सके।

  • बनाएं एक बिजनेस प्लान :

मुर्गी पालन को भी आपको एक बड़े व्यवसाय की तरह ही सोच कर चलना होगा और इसके लिए आपको एक बिजनेस प्लान भी बनाना होगा, इस बिजनेस प्लान में आप कुछ चीजों को ध्यान रख सकते हैं जैसे कि- मुर्गी फार्म हाउस बनाने के लिए सही जगह का चुनाव, अलग-अलग प्रजातियों का सही चुनाव, मुर्गियों में बड़े होने के दौरान होने वाली बीमारियों की जानकारी और मार्केटिंग तथा विज्ञापन के लिए एक सही स्ट्रेटजी।

  • करें सही जगह का चुनाव :

मुर्गी पालन के लिए कई किसान छोटे फार्म हाउस से शुरुआत करते है और इसके लिए लगभग 15000 से लेकर 30000 स्क्वायर फीट तक की जगह को चुना जा सकता है, जबकि बड़े स्तर पर शुरुआत करने के लिए आपको लगभग 50000 स्क्वायर फीट जगह की जरूरत होगी।

किसान भाइयों को इस जगह को चुनते समय ध्यान रखना होगा कि यह शहर से थोड़ी दूरी पर हो और शांत वातावरण होने के अलावा प्रदूषण भी काफी कम होना चाहिए। इसके अलावा बाजार से फार्म की दूरी भी ज्यादा नहीं होनी चाहिए।

यदि आपका घर गांव के इलाके में है, तो वहां पर भी मुर्गी पालन की अच्छी शुरुआत की जा सकती है।

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  • कैसे बनाएं एक अच्छा मुर्गी-फार्म ?

किसी भी प्रकार के मुर्गी फार्म को बनाने से पहले किसान भाइयों को अपने आसपास में ही सुचारू रूप से संचालित हो रहे दूसरे मुर्गी-फार्म की जानकारी जरूर लेनी चाहिए। इसके अलावा भी, एक मुर्गी फार्म बनाते समय आपको कुछ बातों का ध्यान रखना होगा जैसे कि :-

    • अपने मुर्गी फार्म को पूरी तरीके से हवादार रखें, साथ ही उसे ऊपर से अच्छी तरीके से ढका जाना चाहिए,जिससे कि बारिश और सूरज की गर्मी से होने वाली मुर्गियों की मौत को काफी कम किया जा सकता है।
    • इसके अलावा कई जानवर जैसे कि कुत्ते,बिल्ली और सांप इत्यादि से बचाने के लिए सुरक्षा की भी उचित व्यवस्था की जानी चाहिए।
    • मुर्गियों को दाना डालने के लिए कई प्रकार के डिजाइनर बीकर बाजार में उपलब्ध है, परंतु आपको एक साधारण जार को ज्यादा प्राथमिकता देनी चाहिए, डिजाइनर बीकर देखने में तो अच्छे लगते हैं, लेकिन उनमें चूजों के द्वारा अच्छे से खाना नहीं खाया जाता है।
    • मुर्गियों को नीचे बैठने के दौरान एक अच्छा धरातल उपलब्ध करवाना होगा, जिसे समय-समय पर साफ करते रहने होगा।
    • यदि आप अंडे देने वाली मुर्गीयों का पालन करते हैं तो उनके लिए बाजार से ही तैयार अलग-अलग प्रकार के घोसले इस्तेमाल में ले सकते हैं।
    • रात के समय मुर्गियों को दाना डालने के दौरान इलेक्ट्रिसिटी की पर्याप्त व्यवस्था करनी होगी।
    • आधुनिक मुर्गी-फार्म में इस्तेमाल में होने वाले हीटिंग सिस्टम का भी पूरा ख्याल रखना चाहिए,क्योंकि सर्दियों के दौरान ब्रायलर मुर्गों में सांस लेने की तकलीफ होने की वजह से उनकी मौत भी हो सकती है।
    • अलग-अलग उम्र के चूजों को अलग-अलग क्षेत्र में बांटकर दाना डालना चाहिए, नहीं तो बड़े चूजों के साथ रहने के दौरान छोटे चूजों को सही से पोषण नहीं मिल पाता है।
  • कैसे चुनें मुर्गी की सही वैरायटी ?

वैसे तो विश्व स्तर पर मुर्गी की लगभग 400 से ज्यादा वैरायटी को पालन के तहत काम में लिया जाता है, जिनमें से 100 से अधिक प्रजातियां भारत में भी इस्तेमाल होती है, हालांकि इन्हें तीन बड़ी केटेगरी में बांटा जाता है, जो कि निम्न है :-

इस प्रजाति की वृद्धि दर बहुत अधिक होती है और यह लगभग 7 से 8 सप्ताह में ही पूरी तरीके से बेचने के लिए तैयार हो जाती है।

इसके अलावा इनका वजन भी अधिक होता है, जिससे कि इनसे अधिक मीट प्राप्त किया जा सकता है।

कम समय में अधिक वजन बढ़ने की वजह से किसान भाइयों को कम खर्चा और अधिक मुनाफा प्राप्त हो पाता है।

    • रोस्टर मुर्गे (Rooster Chickens) :-

यह भारत में दूसरे नम्बर पर इस्तेमाल की जाने वाली सबसे महत्वपूर्ण प्रजाति है।इस प्रजाति के मुर्गे मुख्यतः मेल(Male) होते है।

हालांकि इनको बड़ा होने में काफी समय लगता है, परन्तु इस प्रजाति के दूसरे कई फायदे है इसीलिए भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में इस प्रकार के मुर्गों को ज्यादा पाला जाता है।

यह चिकन प्रजाति किसी भी प्रकार की जलवायु में आसानी से ढल सकती है और इसी वजह से इन्हें एक जगह से दूसरी जगह पर बड़ी ही आसानी से स्थानांतरित भी किया जा सकता है।

    • अंडे देने वाली मुर्गी प्रजाति (Layer Chicken ) :-

इस प्रजाति का इस्तेमाल अंडे उत्पादन करने के लिए किया जाता है।यह प्रजाति लगभग 18 से 20 सप्ताह के बाद अंडे देना शुरु कर देती है और यह प्रक्रिया 75 सप्ताह तक लगातार चलती रहती है।

यदि इस प्रजाति के एक मुर्गी की बात करें तो वह एक साल में लगभग 240 से 250 अंडे दे सकती है।

हालांकि इस प्रजाति का इस्तेमाल बड़ी-बड़ी कंपनियां अंडे व्यवसाय के लिए करती है क्योंकि छोटे स्तर पर इनको पालना काफी महंगा पड़ता है।

  • कैसे प्राप्त करें लाइसेंस ?

मुर्गी पालन के लिए अलग-अलग राज्यों में कई प्रकार के लाइसेंस की आवश्यकता होती है, हालांकि पिछले कुछ समय से मुर्गी पालन की बढ़ती मांग के मद्देनजर भारतीय सरकार मुर्गी पालन के लिए आवश्यक लाइसेंस की संख्या को धीरे धीरे कम कर रही है।

वर्तमान में आपको दो प्रकार के लाइसेंस की आवश्यकता होगी।

किसान भाइयों को प्रदूषण बोर्ड के द्वारा दिया जाने वाला 'नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट' (No Objection Certificate) लेना होगा, साथ ही भूजल विभाग (Groundwater Department) के द्वारा पानी के सीमित इस्तेमाल के लिए भी एक लाइसेंस लेना होगा।

इन दोनों लाइसेंस को प्राप्त करना बहुत ही आसान है, इसके लिए ऊपर बताए गए दोनों विभागों की वेबसाइट पर अपने व्यवसाय के बारे में जानकारी डालकर बहुत ही कम फीस में प्राप्त किया जा सकता है।

  • कैसे चुनें मुर्गियों के लिए सही दाना ?

एक जानकारी के अनुसार मुर्गी पालन में होने वाले कुल खर्चे में लगभग 40% खर्चा मुर्गियों के पोषण पर ही किया जाता है और दाने की गुणवत्ता अच्छी होने की वजह से मुर्गियों का वजन तेजी से बढ़ता है, जिससे कि उनकी अंडे देने की क्षमता और बाजार में बिकने के दौरान होने वाला मुनाफा भी बढ़ता है।

वर्तमान में भारत में कई कंपनीयों के द्वारा मुर्गियों में कार्बोहाइड्रेट और प्रोटीन की पूर्ति के लिए दाना बनाकर बेचा जाता है, जिन्हें 25 और 50 किलोग्राम की पैकिंग में 25 रुपए प्रति किलो से 40 रुपए प्रति किलो की दर में बेचा जाता है।

कई कम्पनियों के दाने बड़े और मोटे आकार के होते है, जबकि कई कंपनियां एक पिसे हुए चूरे के रूप में दाना बेचती है।

भारतीय मुर्गी पालकों के द्वारा 'गोदरेज' और 'सुगुना' कंपनी के दानों को अधिक पसंद किया जाता है।

मुर्गी पालन की आधुनिक तकनीक :

पोल्ट्री सेक्टर से जुड़े वैज्ञानिकों के द्वारा मुर्गी पालन में किए गए नए अनुसंधानों की वजह से अब मुर्गी पालन में भी कई प्रकार की आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल किया जाने लगा है।

अमेरिका और कनाडा जैसे देशों में तो रोबोट के द्वारा भी मुर्गी पालन किया जा रहा है। ऐसी ही कुछ नई तकनीक भारत में भी कुछ बड़े मुर्गीपालकों के द्वारा इस्तेमाल में ली जा रही है, जैसे कि :

  • ऑटोमेटिक मशीन की मदद से मुर्गियों के अंडे को बिना छुए ही सीधे गाड़ी में लोड करना और उनकी ऑटोमैटिक काउंटिंग करना। इस विधि में खराब अंडो को उसी समय अलग कर लिया जाता है।
  • कई प्रकार के ऑटोमेटिक ड्रोन (Drone)की मदद से मुर्गियों के द्वारा किए गए कचरे को एकत्रित कर, उसे एक जगह पर डाला जा रहा है और फिर बड़े किसानों से सम्पर्क कर उसे बेचा जाता है, जिसे एक अच्छे प्राकृतिक उर्वरक के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।
  • हाल ही में सन-डाउन (Sundown) नाम की एक कंपनी ने मुर्गीफार्म में बने धरातल पर बिछाने के लिए एक कारपेट का निर्माण किया है जोकि इस धरातल को बिल्कुल भी गीला नहीं होने देती और मुर्गियों के यूरिन को पूरी तरह सोख लेती है। जैसे-जैसे उसे यूरिन के रूप में और नमी मिलती है वैसे ही वह और ज्यादा मुलायम होता जाता है। इस कारपेट के इस्तेमाल के बाद नमी वाले धरातल पर संपर्क में आने पर मुर्गियों में होने वाली बीमारियों से बचाव किया जा सकता है।

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कैसे अपनाएं सही मार्केटिंग स्ट्रेटजी ?

किसी भी प्रकार के व्यवसाय के दौरान आपको एक सही दिशा में काम करने वाली मार्केटिंग स्ट्रेटजी को अपनाना अनिवार्य होता है, ऐसे ही मुर्गी पालन के दौरान भी आप कुछ बातों का ध्यान रख सकते हैं, जैसे कि :

  • अपने आसपास के क्षेत्र में सही दाम वाली कंपनी से सीधे संपर्क कर उन्हें आपके फार्म से ही अंडे और मुर्गियां बेची जा सकती है।मुर्गीपालकों को ध्यान रखना होगा कि आपको बिचौलियों को पूरी तरीके से हटाना होगा, क्योंकि कई बार मुर्गी पालकों को मिलने वाली कमाई में से 50% हिस्सा तो बिचौलिए ही ले लेते है।
  • यदि आप इंटरनेट की थोड़ी समझ रखते है तो एक वेबसाइट के जरिए भी आसपास के क्षेत्र में अंडे और मीट डिलीवरी करवा सकते है। बड़े स्तर पर इस प्रकार की डिलीवरी के लिए आप किसी मल्टी मार्केट कंपनी से भी जुड़ सकते है।
  • यदि आपके आसपास कोई बड़ा रेस्टोरेंट या फिर होटल संचालित होती है तो उनसे संपर्क करें, अपने फार्म से निरन्तर आय प्राप्त कर सकते हैं।
  • यदि आपका कोई साथी भी मुर्गी पालन करता है तो ऐसे ही कुछ लोग मिलकर एक कोऑपरेटिव सोसाइटी का निर्माण कर सकते हैं, जोकि बड़ी कंपनियों को आसानी से उचित दाम पर अपने उत्पाद बेच सकते हैं।

मुर्गी पालन के दौरान मुर्गियों में होने वाली बीमारियां तथा बचाव एवं उपचार :

मुर्गी पालन के दौरान किसान भाइयों को को मुर्गी में होने वाली बीमारियों से पूरी तरीके से बचाव करना होगा अन्यथा कई बार टाइफाइड जैसी बीमारी होने पर आपके मुर्गी फार्म में उपलब्ध सभी मुर्गियों की मौत हो सकती है। 

पशुधन मंत्रालय के द्वारा ऐसे ही कुछ बीमारियों के लक्षण और बचाव तथा उपचार के लिए किसान भाइयों के लिए एडवाइजरी जारी की गई है।

  • एवियन इनफ्लुएंजा (avian Influenza) :-

एक वायरस की वजह से होने वाली इस बीमारी से मुर्गियों में सांस लेने में तकलीफ होने लगती है और यदि इसका सही समय पर इलाज नहीं किया जाए तो एक सप्ताह के भीतर ही मुर्गियों की मौत भी हो सकती है।

प्रदूषित पानी के इस्तेमाल तथा बाहर से कई दूसरे पक्षियों से संपर्क में आने की वजह से मुर्गियों में इस तरह की बीमारी फैलती है।

इसके इलाज के लिए मुर्गियों को डिहाइड्रेट किया जाता है और उन्हें कुछ समय तक सूरज की धूप में रखा जाता है।

एवियन इनफ्लुएंजा के दौरान मुर्गियों की खाना खाने की इच्छा पूरी तरीके से खत्म हो जाती है और उनके शरीर में उर्जा भी बहुत कम हो जाती है।

  • रानीखेत रोग (Newcastle Disease) :-

यह रोग आसानी से एक मुर्गी से दूसरी में फैल सकता है।भारत के मुर्गीफ़ार्मों में होने वाली सबसे भयानक बीमारी के रूप में जाने जाने वाला यह रोग मुर्गियों के पाचन तंत्र को पूरी तरह से बिगाड़ देता है और उनकी अंडा उत्पादन करने की क्षमता पूरी तरीके से खत्म हो जाती है।हालांकि वर्तमान में इस बीमारी के खिलाफ वैक्सीन उपलब्ध है।

यदि किसान भाइयों को मुर्गियों में छींक और खांसी जैसे लक्षण नजर आए तो उनके संपर्क करने से बचें, क्योंकि यह मुर्गियों से इंसानों में भी फैल सकती है।

  • टाइफाइड रोग (Pullorum-Typhoid Disease) :-

यह एक बैक्टीरिया से होने वाली बीमारी है जिसमें चूज़े के शरीर के अंदर की तरफ घाव हो जाते है।

इस बीमारी का पता लगाने के लिए एक टेस्ट किया जाता है,जिसे सिरम टेस्ट बोला जाता है।यह एक मुर्गी से पैदा हुए चूजे में फैलता है।

इस बीमारी के दौरान चूजों के पैरों में सूजन आ जाती है और वह एक जगह से हिल भी नहीं पाते है, जिससे कि नमी से होने वाली बीमारियां भी बढ़ जाती है।

एक बार मुर्गी फार्म में इस बीमारी के फैल जाने पर इसे रोकना बहुत मुश्किल होता है, इसलिए समय-समय पर सीरम टेस्ट करवा कर इसे फैलने से पहले ही रोकना अनिवार्य होता है।

इनके अलावा भी कई बीमारियां मुर्गी पालकों के सामने चुनौती बनकर आ सकती है, लेकिन सही वैज्ञानिक विधि से उन रोगों को आसानी से दूर किया जा सकता है।

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मुर्गी पालकों के लिए संचालित सरकारी स्कीम एवं सब्सिडी :

पिछले 6 सालों से भारतीय निर्यात में मुर्गी पालन का योगदान काफी तेजी से बढ़ा है और इसी को मध्य नजर रखते हुए भारत सरकार और कई सरकारी बैंक मुर्गी पलकों के लिए अलग-अलग स्कीम संचालित कर रहे हैं। जिनमें कुछ प्रमुख स्कीम जैसे कि :

  • ब्रायलर प्लस स्कीम (Broiler Plus scheme) :-

यह स्कीम स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के द्वारा संचालित की जाती है और इसमें मुख्यतया मुर्गे की ब्रायलर प्रजाति पर ही ज्यादा फोकस किया जाता है।

इस स्कीम के तहत किसानों को मुर्गी पालन के लिए जगह खरीदने और दूसरे प्रकार के कई सामानों को खरीदने के लिए कम ब्याज पर लोन दिया जाता है।

'आत्मनिर्भर भारत स्कीम' के तहत सरकार के द्वारा इस लोन पर 3% की ब्याज रियायत भी दी जाएगी।

इस स्कीम के तहत पशुधन विभाग के द्वारा किसानों के बड़े ग्रुप को मुर्गी पालन से जुड़ी नई तकनीकों की जानकारी दी जाती है और पशु चिकित्सकों की मदद से मुर्गी पालन के दौरान होने वाली बीमारियों की रोकथाम के लिए मुफ्त में दवाई वितरण भी किया जाता है।

  • महिलाओं के लिए मुर्गी पालन स्कीम :-

हाल ही में तमिलनाडु सरकार ने महिलाओं के लिए एक स्कीम लॉन्च की है जिसके तहत मुर्गी पालन के दौरान होने वाले कुल खर्चे पर गरीब परिवार की महिलाओं को 50% सब्सिडी दी जाएगी वहीं सामान्य श्रेणी की महिलाओं को 25% तक सब्सिडी उपलब्ध करवाई जाएगी।

  • राष्ट्रीय पशुधन विकास योजना :-

2014 में लॉन्च हुई इस स्कीम के तहत ग्रामीण क्षेत्र के किसानों को फसल उत्पादन के लिए नई तकनीकी सिखाई जाने के साथ ही मुर्गियों की बेहतर ब्रीडिंग के लिए आवश्यक सामग्री भी उपलब्ध करवाई जाएगी। इसके अलावा ऐसे मुर्गीपलकों को अपने व्यवसाय को बड़ा करने के लिए मार्केटिंग स्ट्रेटजी के लिए भी ट्रेनिंग दी जाएगी।

वर्तमान में केरल और गुजरात के किसानों के द्वारा इस स्कीम के तहत काफी लाभ कमाया जा रहा है।

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ऊपर बताई गई जानकारी का सम्मिलित रूप से इस्तेमाल कर कई मुर्गी पालन अच्छा मुनाफा कमा रहे हैं और यदि आप भी मुर्गी पालन को एक बड़े व्यवसाय के रूप में परिवर्तित करना चाहते हैं, तो कुछ बातों का ध्यान जरूर रखें,जैसे कि :

  • किसी थर्ड पार्टी कंपनी की मदद से अपने मुर्गी फार्म के बाहर ही एक मीट पैकिंग ब्रांच शुरु करवा सकते है, इस पैक किए हुए मीट को आसानी से बड़ी सुपरमार्केट कम्पनियों को बिना बिचौलिये के सीधे ही बेचा जा सकता है।
  • अपने व्यवसाय को बड़े पैमाने पर ले जाने के लिए आप किसी सेल्स रिप्रेजेंटेटिव को भी काम पर रख सकते है, जोकि नई मार्केटिंग स्ट्रेटजी की मदद से बिक्री को काफी बढ़ा सकता है।
  • मुर्गी पालन के दौरान आने वाले खर्चों में दाने के खर्चे को कम करने के लिए स्वयं भी मुर्गियों के लिए दाना तैयार कर सकते है,बस आपको ध्यान रखना होगा कि इससे चूजों के शरीर में कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन और फैट की कमी की पूर्ति आसानी से की जा सके।

आशा करते है कि सभी किसान भाइयों और मुर्गी पालकों को Merikheti.com के द्वारा दी गई जानकारी पसंद आई होगी और भविष्य में बढ़ती मांग की तरफ अग्रसर होने वाले मुर्गी-पालन व्यवसाय से आप भी अच्छा मुनाफा कमा पाएंगे।