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मूंगफली फसल में कीट और रोग नियंत्रण

मूंगफली फसल में कीट और रोग नियंत्रण

मूंगफली में उपज हानि करने वाले प्रमुख कीट एफिड्स, जैसिड, थ्रिप्स, सफेद मक्खी, लीफ माइनर, व्हाइट ग्रब, आर्मी वार्म और हेलियोथिस आदि है। 

एफिड्स, जैसिड्स, थ्रिप्स और व्हाइट फ्लाई जैसे प्रमुख रस चूसने वाले कीटों को नियंत्रण करने के लिए  फॉस्फैमिडोन 0.03% या डाइमेथोएट 0.03% या मिथाइल-ओ डेमेटॉन 0.025% का 10 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करे। 

लाइट ट्रैप लीफ माइनर के पतंगों को आकर्षित करता है, जिन्हें इकट्ठा किया जाता है और फिर नष्ट कर दिया जाता है।

डाइक्लोरवोस 0.05% या मोनोक्रोटोफॉस 0.04% के छिड़काव से भी इन कीड़ों को नियंत्रित किया जा सकता है या क्विनालफॉस 0.05% या एंडोसल्फान 0.07% या कार्बेरिल 0.2% Dust 15 दिन के अंतराल पर डालने से कीटों की अच्छी रोकथाम की जा सकती है|  

स्पोडोप्टेरा और हेलियोथिस आदत में नैक्टरल हैं और इसलिए नियंत्रण के उपाय होने चाहिए या तो सुबह के समय या देर शाम के समय या अधिमानतः रात के दौरान लिया जाता है। 

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इन कीटों को नियंत्रित करने के लिए क्लोरपाइरीफॉस 0.05% या एंडोसल्फान 0.07% या मोनोक्रोटोफॉस 0.05% या क्विनालफॉस 0.05% का छिड़काव करें। प्रारंभिक लार्वा चरण में इन कीटनाशकों को प्रयोग करके कीटों को  प्रभावी ढंग से नियंत्रित किया जाता है। 

जिन क्षेत्रों में सफेद सूंडी की समस्या बहुत गंभीर है, वहां की मिट्टी में की गर्मी  में गहरी जुताई करनी की आवश्यकता है। फसल की बुवाई  से पहले लगभग 10 सेंटीमीटर गहरे कूंड़ों में फोरेट 10% दाने 10 से 15 किग्रा/एकड़ की दर से डालें।

मूंगफली की फसल में रोग नियंत्रण 

मूंगफली पर लगने वाले महत्वपूर्ण रोग टिक्का, तना सड़न, जंग, पत्ती के धब्बे हैं।  कार्बेन्डाजिम 0.05% + मैंकोजेब 0.2% का छिड़काव करके टिक्का और जंग को नियंत्रित किया जा सकता है। 

बड नेक्रोसिस एक वायरस के कारण होता है लेकिन कोई नियंत्रण उपाय नहीं सुझाया जाता है, हालांकि, थ्रिप्स वायरस को प्रसारित करने के लिए जिम्मेदार हैं, इसको प्रणालीगत कीटनाशक छिड़काव करके नियंत्रित किया जाना चाहिए |

ज्वार की खेती में बीजोपचार और इसमें लगने वाले कीट व रोगों की रोकथाम से जुड़ी जानकारी

ज्वार की खेती में बीजोपचार और इसमें लगने वाले कीट व रोगों की रोकथाम से जुड़ी जानकारी

रबी की फसलों की कटाई प्रबंधन का कार्य कर किसान भाई अब गर्मियों में अपने पशुओं के चारे के लिए ज्वार की बुवाई की तैयारी में हैं। 

अब ऐसे में आपकी जानकारी के लिए बतादें कि बेहतर फसल उत्पादन के लिए सही बीज मात्रा के साथ सही दूरी पर बुआई करना बहुत जरूरी होता है। 

बीज की मात्रा उसके आकार, अंकुरण प्रतिशत, बुवाई का तरीका और समय, बुआई के समय जमीन पर मौजूद नमी की मात्रा पर निर्भर करती है। 

बतादें, कि एक हेक्टेयर भूमि पर ज्वार की बुवाई के लिए 12 से 15 किलोग्राम बीज की आवश्यकता पड़ती है। लेकिन, हरे चारे के रूप में बुवाई के लिए 20 से 30 किलोग्राम बीजों की आवश्यकता पड़ती है। 

ज्वार के बीजों की बुवाई से पूर्व बीजों को उपचारित करके बोना चाहिए। बीजोपचार के लिए कार्बण्डाजिम (बॉविस्टीन) 2 ग्राम और एप्रोन 35 एस डी 6 ग्राम कवकनाशक दवाई प्रति किलो ग्राम बीज की दर से बीजोपचार करने से फसल पर लगने वाले रोगों को काफी हद तक कम किया जा सकता है। 

इसके अलावा बीज को जैविक खाद एजोस्पाइरीलम व पी एस बी से भी उपचारित करने से 15 से 20 फीसद अधिक उपज प्राप्त की जा सकती है।

इस प्रकार ज्वार के बीजों की बुवाई करने से मिलेगी अच्छी उपज ?

ज्वार के बीजों की बुवाई ड्रिल और छिड़काव दोनों तरीकों से की जाती है। बुआई के लिए कतार के कतार का फासला 45 सेंटीमीटर रखें और बीज को 4 से 5 सेंटीमीटर तक गहरा बोयें। 

अगर बीज ज्यादा गहराई पर बोया गया हो, तो बीज का जमाव सही तरीके से नहीं होता है। क्योंकि, जमीन की उपरी परत सूखने पर काफी सख्त हो जाती है। कतार में बुआई देशी हल के पीछे कुडो में या सीडड्रिल के जरिए की जा सकती है।

सीडड्रिल (Seed drill) के माध्यम से बुवाई करना सबसे अच्छा रहता है, क्योंकि इससे बीज समान दूरी पर एवं समान गहराई पर पड़ता है। ज्वार का बीज बुआई के 5 से 6 दिन उपरांत अंकुरित हो जाता है। 

छिड़काव विधि से रोपाई के समय पहले से एकसार तैयार खेत में इसके बीजों को छिड़क कर रोटावेटर की मदद से खेत की हल्की जुताई कर लें। जुताई हलों के पीछे हल्का पाटा लगाकर करें। इससे ज्वार के बीज मृदा में अन्दर ही दब जाते हैं। जिससे बीजों का अंकुरण भी काफी अच्छे से होता है।  

ज्वार की फसल में खरपतवार नियंत्रण कैसे करें ?

यदि ज्वार की खेती हरे चारे के तोर पर की गई है, तो इसके पौधों को खरपतवार नियंत्रण की आवश्यकता नहीं पड़ती। हालाँकि, अच्छी उपज पाने के लिए इसके पौधों में खरपतवार नियंत्रण करना चाहिए। 

ज्वार की खेती में खरपतवार नियंत्रण प्राकृतिक और रासायनिक दोनों ही ढ़ंग से किया जाता है। रासायनिक तरीके से खरपतवार नियंत्रण के लिए इसके बीजों की रोपाई के तुरंत बाद एट्राजिन की उचित मात्रा का स्प्रे कर देना चाहिए। 

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वहीं, प्राकृतिक ढ़ंग से खरपतवार नियंत्रण के लिए इसके बीजों की रोपाई के 20 से 25 दिन पश्चात एक बार पौधों की गुड़ाई कर देनी चाहिए। 

ज्वार की कटाई कब की जाती है ?

ज्वार की फसल बुवाई के पश्चात 90 से 120 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। कटाई के उपरांत फसल से इसके पके हुए भुट्टे को काटकर दाने के लिए अलग निकाल लिया जाता है। ज्वार की खेती से औसत उत्पादन आठ से 10 क्विंटल प्रति एकड़ हो जाता है। 

ज्वार की उन्नत किस्में और वैज्ञानिक विधि से उन्नत खेती से अच्छी फसल में 15 से 20 क्विंटल प्रति एकड़ दाने की उपज हो सकती है। बतादें, कि दाना निकाल लेने के उपरांत करीब 100 से 150 क्विंटल प्रति एकड़ सूखा पौैष्टिक चारा भी उत्पादित होता है। 

ज्वार के दानों का बाजार भाव ढाई हजार रूपए प्रति क्विंटल तक होता है। इससे किसान भाई को ज्वार की फसल से 60 हजार रूपये तक की आमदनी प्रति एकड़ खेत से हो सकती है। साथ ही, पशुओं के लिए चारे की बेहतरीन व्यवस्था भी हो जाती है। 

ज्वार की फसल को प्रभावित करने वाले प्रमुख रोग और कीट व रोकथाम 

ज्वार की फसल में कई तरह के कीट और रोग होने की संभावना रहती है। समय रहते अगर ध्यान नहीं दिया गया तो इनके प्रकोप से फसलों की पैदावार औसत से कम हो सकती है। ज्वार की फसल में होने वाले प्रमुख रोग निम्नलिखित हैं।

तना छेदक मक्खी : इन मक्खियों का आकार घरेलू मक्खियों की अपेक्षा में काफी बड़ा होता है। यह पत्तियों के नीचे अंडा देती हैं। इन अंडों में से निकलने वाली इल्लियां तनों में छेद करके उसे अंदर से खाकर खोखला बना देती हैं। 

इससे पौधे सूखने लगते हैं। इससे बचने के लिए बुवाई से पूर्व प्रति एकड़ भूमि में 4 से 6 किलोग्राम फोरेट 10% प्रतिशत कीट नाशक का उपयोग करें।

ज्वार का भूरा फफूंद : इसे ग्रे मोल्ड भी कहा जाता है। यह रोग ज्वार की संकर किस्मों और शीघ्र पकने वाली किस्मों में ज्यादा पाया जाता है। इस रोग के प्रारम्भ में बालियों पर सफेद रंग की फफूंद नजर आने लगती है। इससे बचाव के लिए प्रति एकड़ भूमि में 800 ग्राम मैन्कोजेब का छिड़काव करें।

सूत्रकृमि : इससे ग्रसित पौधों की पत्तियां पीली पड़ने लगती हैं। इसके साथ ही जड़ में गांठें बनने लगती हैं और पौधों का विकास बाधित हो जाता है। 

रोग बढ़ने पर पौधे सूखने लगते हैं। इस रोग से बचाव के लिए गर्मी के मौसम में गहरी जुताई करें। प्रति किलोग्राम बीज को 120 ग्राम कार्बोसल्फान 25% प्रतिशत से उपचारित करें।

ज्वार का माइट : यह पत्तियों की निचली सतह पर जाल बनाते हैं और पत्तियों का रस चूस कर पौधों को नुकसान पहुंचाते हैं। इससे ग्रसित पत्तियां लाल रंग की हो कर सूखने लगती हैं। इससे बचने के लिए प्रति एकड़ जमीन में 400 मिलीग्राम डाइमेथोएट 30 ई.सी. का स्प्रे करें।

मूंगफली (Peanut) के कीट एवं रोग (pests and diseases)

मूंगफली (Peanut) के कीट एवं रोग (pests and diseases)

मूंगफली में रोग बहुत लगते हैं। इनमें प्रमुख रूप से बीज से पैदा होेने वाले रोगों की संख्या ज्यादा है। फसल को रोग मुक्त रखने के लिए कुछ चीजों का ध्यान रखना आवश्यक है। 

मई—जून की गर्मी में खेत की दो तीन गहरी जुताई करेंं। हर जुताई के मध्य एक हफ्ते का अंतर रहे। फसल लगाने से पूर्व खेत में 50 किलोग्राम सड़ी गोबर की खाद में एक किलोग्राम ट्राईकोडर्मा मिलाकर एक हफ्ते छांव में रखें। 

बाद में इसे जुताई से पूर्व खेत में बुरक दें। बीज का उपचार किसी भी प्रभावी फफूंदनाशक कार्बन्डाजिम, बाबस्टीन आदि की उचित मात्रा से करें। 

खेत में सिंचाई का पानी कहीं जमा न हो इस तरह का समतलीकरण करें। इन उपायों से रोग की 70 प्रतिशत संभावना नहीं रहती। 

बीज का सड़न रोग (seed rot disease)

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कुछ रोग उत्पन्न करने वाले कवक बीज उगने लगता है उस समय इस पर आक्रमण करते हैं। इससे बीज पत्रों, बीज पत्राधरों एवं तनों पर गोल हल्के भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं। 

बाद में ये धब्बे मुलायम हो जाते हैं तथा पौधे सड़ने लगते हैं और फिर सड़कर गिर जाते हैं। बचाव हेतु प्रमाणित एवं  2.5 ग्राम थाइरम प्रति किलोग्राम बीज में मिलाकर उपचार करके बोएं। 

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रोजेट रोग

रोजेट (गुच्छरोग)

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विषाणुजनित यह रोग पौधों में बोनापन लाता है। उनकी बढ़वार रुक जाती है। रोग को फैलने से रोकने के लिए संक्रमित पौधों को जैसे ही खेत में दिखाई दें, उखाड़कर फेंक देना चाहिए। इस रोग को फैलने से रोकने के लिए इमिडाक्लोरपिड 1 मि.ली. को 3 लीटर पानी में घोल कर छिड़केंं। 

टिक्का रोग

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यह गंभीर रोग है। आरम्भ में पौधे के नीचे वाली पत्तियों के ऊपरी सतह पर गहरे भूरे रंग के छोटे-छोटे गोलाकार धब्बे दिखाई पड़ते हैं इसके प्रभाव से खेत में केवल तने ही शेष रह जाते हैं।  

रोकथाम के लिए डाइथेन एम-45 को 2 किलोग्राम एक हजार लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टर की दर से दस दिनों के अन्तर पर दो-तीन छिड़काव करने चाहिए। 

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कीट नियंत्रण

रोमिन इल्ली पत्तियों को खाकर पौधों को अंगविहीन करती है। पूर्ण विकसित इल्लियों पर घने भूरे बाल होते हैं। इसकी रोकथाम के लिए क्विनलफास 1 लीटर कीटनाशी दवा को 700-800 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें। 

मूंगफली का माहू कीट सामान्य रूप से छोटा एवं भूरे रंग का होता है। यह बहुत बड़ी संख्या में एकत्र होकर पौधों का रस चूसते हैं। साथ ही वाइरस जनित रोग के फैलाने में सहायक भी होती है। 

इसके नियंत्रण के लिए इस रोग को फैलने से रोकने के लिए इमिडाक्लोरपिड 1 मि.ली. को 1 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव कर देना चाहिए। 

लीफ माइनर moongfuli

लीफ माइनर के प्रकोप होने पर पत्तियों पर पीले रंग के धब्बे दिखाई पड़ने लगते हैं। इसके गिडार पत्तियों में अन्दर ही अन्दर हरे भाग को खाते रहते हैं और पत्तियों पर सफेद धारियॉं सी बन जाती हैं। इसकी रोकथाम के लिए इमिडाक्लोरपिड 1 मि.ली. को 1 लीटर पानी में घोल छिड़काव करें।

सफेद लट

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मूंगफली को बहुत ही क्षति पहुँचाने वाला बहुभोजी कीट है। मादा कीट मई-जून के महीनें में जमीन के अन्दर अण्डे देती है। इनमें से 8-10 दिनों के बाद लट निकल आते हैं।  

क्लोरोपायरिफास से बीजोपचार प्रारंभिक अवस्था में पौधों को सफेद लट से बचाता है। अधिक प्रकोप होने पर खेत में क्लोरोपायरिफास का प्रयोग करें । 

इसकी रोकथाम फोरेट की 25 किलोग्राम मात्रा को प्रति हैक्टर खेत में बुवाई से पहले भुरक कर की जा सकती है। सिंचित क्षेत्रों में औसत उपज 20-25 क्विण्टल प्रति हैक्टेयर होती है। 

लागत 30 हजार प्रति हैक्टेयर खर्चने पर लाभा 40 हजार तक का होता है। यह रेट 30 रुपए प्रति किलोग्राम रहने पर प्राप्त होता है।

मूंगफली की फसल को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले कीट व रोगों की इस प्रकार रोकथाम करें

मूंगफली की फसल को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले कीट व रोगों की इस प्रकार रोकथाम करें

मूंगफली भारत की प्रमुख तिलहनी फसलों में से एक है। इसकी सबसे ज्यादा खेती तमिलनाडु, कर्नाटक, गुजरात और आंध्र प्रदेश में की जाती है। बतादें, कि मूंगफली की फसल में विभिन्न प्रकार के कीट और रोग लगते हैं। 

इन रोगों एवं कीटों पर काबू करना काफी आवश्यक होता है। मूंगफली भारत की मुख्य तिलहनी फसलों में से एक है। इसकी सबसे ज्यादा खेती तमिलनाडु, कर्नाटक, गुजरात और आंध्र प्रदेश में होती है। 

इनके आलावा अन्य राज्यों जैसे- राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और पंजाब में भी इसकी खेती होती है। बतादें, कि मूंगफली की बुवाई प्रायः मॉनसून शुरू होने के साथ ही हो जाती है। 

उत्तर भारत में यह वक्त सामान्य रूप से 15 जून से 15 जुलाई के बीच का होता है। मूंगफली की खेती के लिए समुचित जल निकास वाली भुरभुरी दोमट और बलुई दोमट मिट्टी उत्तम होती है। 

साथ ही, मूंगफली की फसल में खरपतवार पर रोक लगाने के अलावा कीटों और रोगों पर नियंत्रण पाना भी अत्यंत आवश्यक होता है। क्योंकि, फसल में खरपतवार, कीट और रोगों का अधिक प्रभाव होने से फसल पर काफी दुष्प्रभाव पड़ता है।

मूंगफली की फसल को प्रभावित करने वाले कीट

मूंगफली की फसल में सामान्यतः सफेद लट, बिहार रोमिल इल्ली, मूंगफली का माहू व दीमक लगते हैं। मध्य प्रदेश कृषि विभाग के मुताबिक, सफेद लट की समस्या वाले क्षेत्रों में बुवाई से पहले फोरेट 10जी या कार्बोफ्यूरान 3जी 20-25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में डालें। 

इसके अतिरिक्त दीमक के प्रकोप को रोकने के लिए क्लोरोपायरीफॉस दवा की 3 लीटर मात्रा को प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें।

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साथ ही, रस चूसक कीटों (माहू, थ्रिप्स व सफेद मक्खी) के नियंत्रण के लिए इमिडाक्लोप्रिड 0.5 मि.ली. प्रति लीटर अथवा डायमिथोएट 30 ई.सी. का 2 मि.ली. प्रति लीटर के मान से 500 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रयोग करें। 

इसी प्रकार पत्ती सुरंगक कीट के नियंत्रण के लिए क्यूनॉलफॉस 25 ई.सी. का एक लीटर प्रति हेक्टेयर का 500 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।

मूंगफली की फसल को प्रभावित करने वाल रोग व नियंत्रण

मूंगफली की फसल में प्रमुख रूप से टिक्का, कॉलर एवं तना गलन व रोजेट रोग का प्रकोप होता है। टिक्का के लक्षण दिखते ही इसकी रोकथाम के लिए डायथेन एम-45 का 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।

साथ ही, छिड़काव 10-12 दिन के अंतर पर पुनः करें। वहीं रोजेट वायरस जनित रोग हैं, इसके विस्तार को रोकने के लिए फसल पर इमिडाक्लोप्रिड 0.5 मि.ली. प्रति लीटर पानी के मान से घोल बनाकर स्प्रे करना चाहिए।

मूंगफली की अच्छी पैदावार के लिए सफेद लट कीट की रोकथाम बेहद जरूरी है

मूंगफली की अच्छी पैदावार के लिए सफेद लट कीट की रोकथाम बेहद जरूरी है

मूंगफली की खेती से किसान भाई सिर्फ तभी पैदावार हांसिल कर सकते हैं। जब वह मूंगफली की फसल में सफेद लट के रोग से निजात पा सकें। सफेद लट मृदा में पाए जाने वाले बहुभक्षी कीट हैं। इनको जड़ लट के तौर पर भी जाना जाता है। बतादें, कि सफेद लट कीट अपना भोजन मृदा में मौजूद ऑर्गेनिक पदार्थ और पौधों की जड़ों से अर्जित करते हैं। मूंगफली के अतिरिक्त सफेद लट आलू, अखरोट, तम्बाकू एवं विभिन्न अन्य तिलहन, दालें और सब्जी की फसलें अमरूद, गन्ना, नारियल, सुपारी की जड़ों पर आक्रमण कर अपना भोजन अर्जित करते हैं। सफेद लट मूंगफली की फसल को 20-80 प्रतिशत तक हानि पहुँचा सकती हैं।

सफेद लट का प्रकोप किस समय ज्यादा होता है

सामान्य तौर पर सफेद लट साल भर मौजूद रहते हैं। परंतु, इनकी सक्रियता बरसात के मौसम के समय अधिक नजर आती है। मानसून की प्रथम बारिश मई के मध्य अथवा जून माह में वयस्क लट संभोग के लिए बड़ी तादात में बाहर आते हैं। खेत में व उसके आसपास मौजूद रहने वाली मादाएं प्रातः काल जल्दी मिट्टी में वापिस आती हैं। साथ ही, अंडे देना चालू कर देती हैं। पुनः अपने बचे हुए जीवन चक्र के लिए मिट्टी में लौट जाते हैं। आगामी मानसूनी बारिश तक तकरीबन एक मीटर की गहराई पर मृदा निष्क्रिय स्थिति में रहती है। 

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मूंगफली के खेत में सफेद लट संक्रमण के लक्षण

यह कीट भूमिगत है, इसलिए इस कीट से होने वाली हानि को सामान्य तौर पर दरकिनार कर दिया जाता है। संक्रमित पौधा पीला पड़ता दिखाई देने के साथ-साथ मुरझाया हुआ दिखाई पड़ता है। ऐसे में आखिर में पौधा सूख जाता है, जिसको बड़ी सहजता से जमीन से निकाला जा सकता है। भारी संक्रमण में पौधे मर जाते हैं। साथ ही, मरे हुए पौधे खेतों के भीतर पेचो में दिखाई देते हैं। सफेद लट पौधों की जड़ों को भी खाकर समाप्त कर देते हैं। लटों की वजह से मूंगफली की पैदावार में भारी हानि होती है। वयस्क लट रात में सर्व प्रथम पत्तियों में छेद करते हैं। उसके उपरांत सिर्फ मध्य पत्ती की मध्य शिरा को छोड़कर पूरी पत्ती को चट कर जाते हैं।

मूंगफली के खेत में सफेद लट कीट प्रबंधन

बतादें, कि यदि किसी इलाके में सफेद लटों का आक्रमण है, तो वहां इसका प्रबंधन एक अकेले किसान की कोशिशों से संभव नहीं है। इसके लिए समुदायिक रूप से सभी किसान भाइयों को रोकथाम के उपाय करने पड़ेंगे। सफेद लट का प्रबंधन सामुदायिक दृष्टिकोण के जरिए से करना ही संभव होता है। 

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सफेद लट का वयस्क प्रबंधन

  • प्रथम बारिश होने के उपरांत एक लाइट ट्रैप/हेक्टेयर की दर से लगाएं।
  • लट संभावित इलाकों में खेतों के आस-पास के वृक्षों की कटाई कर दें। साथ ही, जो झाड़ियां खेत के पास है उन्हें काट के खत्म कर दें।
  • सूर्यास्त के दौरान वृक्षों और झाड़ियों पर कीटनाशकों जैसे कि इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल @ 1.5 मिली/लीटर अथवा मोनोक्रोटोफॉस 36 एसएल @ 1.6 मिली/लीटर का छिड़काव करें।
  • पेड़ों के पास गिरे हुए लटों को एकत्रित करके उनको समाप्त कर दें।

सफेद लट कीट प्रबंधन

  • यदि जल की उपलब्धता है, तो अगेती बुवाई करें।
  • किसान भाई बेहतर तरीके से विघटित जैविक खाद का इस्तेमाल करें।
  • किसान भाई प्यूपा को प्रचंड धूप के संपर्क में लाने हेतु गर्मियों में गहरी जुताई करें।
  • छोटे पक्षियों को संरक्षित करने पर अधिक ध्यान दें, क्योंकि यह इन सफेद लट का शिकार करते हैं।
  • बुवाई से पूर्व मृदा में कार्बोफ्यूरान 3 सीजी @ 33.0 किग्रा/हेक्टेयर अथवा फोरेट 10 सीजी @ 25.0 किग्रा/हेक्टेयर मिलाएं।
  • सफेद लट संक्रमित खेतों में बुवाई वाली रेखाओं में कीटनाशकों जैसे कि थियामेथोक्सम 25 डब्ल्यूएस @ 1.9 लीटर/हेक्टेयर अथवा फिप्रोनिल 5 एफएस का @ 2.0 लीटर/हे. का उपयोग करें।
  • संभावित इलाकों में बीज उपचार के लिए बिजाई से पूर्व क्लोरपायरीफॉस 20EC @ 6.5-12.0 मिली/किग्रा अथवा इमिडाक्लोप्रिड 17.8 SL @ 2.0 मिली/किग्रा से बीज का उपचार करें।
  • खेतों में वयस्क सफेद लट नजर आने पर फसलों की जड़ों में क्लोरपायरीफॉस 20 ईसी@ 4.0 लीटर/हेक्टेयर अथवा क्विनालफॉस 25 ईसी @ 3.2 से लीटर/हेक्टेयर छिड़काव करें।

कहीं आप की गेहूं की फसल भी इस रोग से प्रभावित तो नहीं हो रही, लक्षणों पर जरूर दें ध्यान

कहीं आप की गेहूं की फसल भी इस रोग से प्रभावित तो नहीं हो रही, लक्षणों पर जरूर दें ध्यान

उत्तर भारत में पिछले कुछ दिनों से बारिश हो रही है। इस बार इसको गेहूं की फसल के लिए अच्छा माना जाता है। लेकिन अगर बारिश ज्यादा होती है, तो यह कभी-कभी गेहूं की फसल में रतुआ रोग का कारण भी बन जाती है। इस बीमारी से फसल की पत्तियां पीली पड़ जाती हैं और कभी-कभी पूरी फसल बर्बाद हो जाती है।

रतुआ रोग का सबसे बड़ा कारण है नमी

गेहूं की फसल में यह बीमारी ज्यादातर इसी मौसम में देखने को मिलती हैं।
रतुआ रोग में पत्तियां पीली, भूरी या फिर काले रंग के धब्बों से भर जाती हैं। पत्तों पर छोटे-छोटे धब्बे बन जाते हैं। जिसमें आपको पीला चूर्ण देखने को मिलता है। हाथ लगाते ही पता पूरी तरह से पीला होकर जुड़ जाता है।

पत्तियां पीली पड़ने का कारण केवल रतुआ रोग नहीं

कृषि वैज्ञानिकों का कहना है, कि रतुआ रोग गेहूं की फसल को प्रभावित करता है और उसकी पत्तियां पीली कर देता है। लेकिन जरूरी नहीं कि हमेशा पत्तियां पीली होने का कारण यही रोग हो। बहुत बार किसानों को लगता है, कि उनकी फसल में किसी ना किसी तरह का रोग हो गया है। इसलिए फसल की पत्तियों पर असर हो रहा है। बहुत बार गेहूं की फसल की पत्तियां पोषण की कमी के कारण भी रंग बदलने लगती हैं।
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आप इस बात का पता इस तरह से लगा सकते हैं, कि अगर आपकी गेहूं की फसल में रतुआ रोग है और आप उसकी पत्तियों को हाथ लगाते हैं। तो आपके हाथों पर एक चिपचिपा पदार्थ लग जाता है। जबकि पोषण की कमी के कारण पत्तियों में हुए बदलाव में ऐसा कुछ नहीं देखने को मिलता है।

मार्च आने तक सभी लक्षणों पर ध्यान दें और करें बचाव

कृषि विशेषज्ञों का मानना है, कि अगर आपकी गेहूं की फसल में पोषण की कमी है या फिर उसमें रतुआ रोग है। तो दिसंबर से मार्च के बीच में आपको यह लक्षण दिखाई देने लगते हैं। इन महीनों में उत्तर भारत में तापमान 10 डिग्री से 15 डिग्री सेल्सियस के बीच रहता है। जो इस रोग के लिए एकदम सही माना गया है। हरियाणा की बात की जाए तो यहां पर अंबाला और यमुनानगर दोनों ही जिलों में इस रोग के काफी ज्यादा मामले सामने आए हैं।
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आप कुछ तरीके अपनाकर इन दोनों ही चीजों से अपनी फसल का बचाव कर सकते हैं। बचाव के लिए प्रोपकोनाजोल 200 मिलीलीटर को 200 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें। अगर आपको लग रहा है, कि आप की फसल में बीमारी ज्यादा है तो आप एक बार फिर से छिड़काव कर सकते हैं। इसके अलावा किसानों को यह सलामी दी जा रही है, कि वह फसल को उगाने के लिए उत्तम क्वालिटी के बीज इस्तेमाल करें। ताकि फसल रोग से प्रभावित ना हो।
किसानों को 81 क्विंटल तक उपज देने की क्षमता रखती हैं गेंहू की ये 5 उन्नत किस्में

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भारतीय कृषि वैज्ञानिकों द्वारा विकसित की गई गेहूं की टॉप पांच उन्नत किस्में श्रीराम 303 गेहूं की किस्म, GW 322 किस्म, पूसा तेजस 8759 किस्म, श्री राम सुपर 111 गेहूं और HI 8498 किस्म प्रति हेक्टेयर 81 क्विंटल तक उत्पादन देने में सक्षम हैं। साथ ही, यह समस्त किस्में 100 से 120 दिन में पककर तैयार हो जाती हैं। गेहूं की खेती से ज्यादा मुनाफा पाने के लिए कृषकों को गेहूं की उन्नत किस्मों का चुनाव करना चाहिए। जिससे कि किसान कम वक्त में ही ज्यादा से ज्यादा उपज हाँसिल कर उसे बाजार में बेच सकें। साथ ही, कृषि वैज्ञानिकों के द्वारा भी समयानुसार फसलों की नवीन-नवीन किस्मों को तैयार किया जाता है। इसी कड़ी में आज हम देश के कृषकों के लिए भारतीय कृषि वैज्ञानिकों के द्वारा विकसित की गई गेहूं की टॉप पांच उन्नत किस्मों की जानकारी लेकर आए हैं। जो 100 से 120 दिन में पक जाती हैं। साथ ही, ये किस्में 81 क्विंटल प्रति हेक्टेयर पैदावार देती हैं। गेहूं की जिन टॉप पांच उन्नत किस्मों के बारे में हम चर्चा कर रहे हैं। वह श्रीराम 303 गेहूं की किस्म, GW 322 किस्म, पूसा तेजस 8759 किस्म, श्रीराम सुपर 111 गेहूं और HI 8498 किस्म हैं।

गेहूं की टॉप पांच उन्नत किस्में इस प्रकार हैं

HI 8498 किस्म

गेहूं की HI 8498 किस्म को जबलपुर कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों के द्वारा विकसित की गई है। इससे किसान प्रति हेक्टेयर 77 क्विंटल तक उत्पादन हांसिल कर सकते हैं। साथ ही, यह प्रजाति 125-130 दिन में पूर्णतय पककर तैयार हो जाती है।

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श्रीराम 303 गेहूं की किस्म

गेहूं की यह किस्म खेत में 156 दिनों के समयांतराल में पककर तैयार हो जाती है। इसका औसतन पैदावार तकरीबन 81.2 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक किसानों को मिलती है। गेहूं की यह श्रीराम 303 गेहूं की किस्म पीला, भूरा और काला रतुआ रोधी किस्म है।


 

GW 322 किस्म

गेहूं की यह किस्म 3-4 बार सिंचाई के अंतर्गत ही पक जाती है। गेहूं की GW 322 किस्म से भारत के किसान लगभग 60-65 क्विंटल उपज हांसिल कर सकते हैं। इस किस्म की संपूर्ण फसल लगभग 115-125 दिन की समयावधि में बेहतर ढ़ंग से पककर तैयार हो जाती है।

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पूसा तेजस 8759 किस्म

गेहूं की पूसा तेजस किस्म 110 से 115 दिनों के समयांतराल में पककर तैयार हो जाती है। बतादें, कि गेहूं की यह किस्म जबलपुर के कृषि विश्वविद्यालय में विकसित की गई गई है। इसे किसान प्रति हेक्टेयर तकरीबन 70 क्विंटल तक पैदावार प्राप्त कर सकते हैं।


 

श्री राम सुपर 111 गेहूं

गेहूं की यह उन्नत किस्म किसानों के लिए अत्यंत फायदेमंद है। क्योंकि यह किस्म बंजर भूमि पर भी सुगमता से उत्पादित की जा सकती है। गेहूं की श्रीराम सुपर 111 गेहूं से किसान प्रति हेक्टेयर लगभग 80 क्विंटल तक उपज हांसिल कर सकते हैं। साथ ही, इस प्रजाति से किसान बंजर भूमि पर तकरीबन 30 क्विंटल/हेक्टेयर तक उपज हांसिल कर सकते हैं। गेहूं की यह प्रजाति 105 दिनों के अंदर पक कर तैयार हो जाती है।

केले की खेती के लिए सबसे महत्वपूर्ण पोषक तत्व पोटाश की कमी के लक्षण और उसे प्रबंधित करने की तकनीक

केले की खेती के लिए सबसे महत्वपूर्ण पोषक तत्व पोटाश की कमी के लक्षण और उसे प्रबंधित करने की तकनीक

पोटाश, जिसे पोटेशियम (K) के रूप में भी जाना जाता है, केला सहित सभी पौधों के स्वस्थ विकास के लिए आवश्यक आवश्यक मैक्रोन्यूट्रिएंट्स में से एक है। पोटेशियम पौधों के भीतर विभिन्न शारीरिक प्रक्रियाओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जैसे प्रकाश संश्लेषण, एंजाइम सक्रियण, ऑस्मोरग्यूलेशन और पोषक तत्व ग्रहण। केले के पौधों में पोटाश की कमी से उनकी वृद्धि, फल विकास और समग्र उत्पादकता पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। आइए जानते है केले के पौधों में पोटाश की कमी के प्रमुख लक्षणों के बारे में एवं उसे प्रबंधित करने के विभिन्न रणनीतियों के बारे में....

केले के पौधों में पोटाश की कमी के लक्षण

केले के पौधों में पोटेशियम की कमी कई प्रकार के लक्षणों के माध्यम से प्रकट होती है जो पौधे के विभिन्न भागों को प्रभावित करते हैं। समय पर निदान और प्रभावी प्रबंधन के लिए इन लक्षणों को समझना महत्वपूर्ण है। केले के पौधों में पोटाश की कमी के कुछ सामान्य लक्षण इस प्रकार हैं:

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पत्ती पर पोटाश के कमी के लक्षण

पत्ती के किनारों का भूरा होना: पुरानी पत्तियों के किनारे भूरे हो जाते हैं और सूख जाते हैं, इस स्थिति को पत्ती झुलसना कहा जाता है। पत्तियों का मुड़ना: पत्तियाँ ऊपर या नीचे की ओर मुड़ जाती हैं, जिससे उनका स्वरूप विकृत हो जाता है। शिराओं के बीच पीलापन: शिराओं के बीच पत्ती के ऊतकों का पीला पड़ना, जिसे इंटरवेनल क्लोरोसिस कहा जाता है, एक सामान्य लक्षण है। पत्ती परिगलन: गंभीर मामलों में, पत्तियों पर नेक्रोटिक (मृत) धब्बे दिखाई दे सकते हैं, जिससे प्रकाश संश्लेषक गतिविधि कम हो जाती है।

फल पर पोटाश के कमी के लक्षण

फलों का आकार कम होना: पोटाश की कमी से फलों का आकार छोटा हो जाता है, जिससे केले के बाजार मूल्य पर असर पड़ता है। असमान पकना: फल समान रूप से नहीं पकते हैं, जिससे व्यावसायिक उत्पादकों के लिए यह चुनौतीपूर्ण हो जाता है।

तना और गुच्छा पर पोटाश के कमी के लक्षण

रुका हुआ विकास: केले के पौधे की समग्र वृद्धि रुक ​​सकती है, जिसके परिणामस्वरूप उपज कम हो जाती है। छोटे गुच्छे: पोटाश की कमी से फलों के गुच्छे छोटे और पतले हो जाते हैं।

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जड़ पर पोटाश की कमी के लक्षण

कमजोर कोशिका भित्ति के कारण जड़ें कम सशक्त होती हैं और रोगों के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाती हैं।

केले के पौधों में पोटाश की कमी का प्रबंधन

केले के पौधों में पोटाश की कमी के प्रबंधन में पोटेशियम के अवशोषण और उपयोग में सुधार के लिए मिट्टी और पत्तियों पर पोटेशियम के प्रयोग के साथ-साथ अन्य कृषि कार्य का संयोजन शामिल है। पोटाश की कमी को प्रभावी ढंग से प्रबंधित करने के लिए यहां कुछ उपाय सुझाए जा रहे हैं, जैसे:

मृदा परीक्षण

मिट्टी में पोटेशियम के स्तर का आकलन करने के लिए मिट्टी परीक्षण करके शुरुआत करें। इससे कमी की गंभीरता को निर्धारित करने और उचित पोटेशियम उर्वरक प्रयोग करने के संबंध में सही मार्गदर्शन मिलेगा।

उर्वरक अनुप्रयोग

मिट्टी परीक्षण की सिफारिशों के आधार पर पोटेशियम युक्त उर्वरक, जैसे पोटेशियम सल्फेट (K2SO4) या पोटेशियम क्लोराइड (KCl) का प्रयोग करें। रोपण के दौरान या केला के विकास के दौरान साइड-ड्रेसिंग के माध्यम से मिट्टी में पोटेशियम उर्वरकों को शामिल करें। मिट्टी के पीएच की निगरानी करें, क्योंकि अत्यधिक अम्लीय या क्षारीय मिट्टी पोटेशियम की मात्रा को कम कर सकती है। यदि आवश्यक हो तो पीएच स्तर समायोजित करें।

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पत्तियों पर छिड़काव करें

गंभीर कमी के मामलों में, पत्तों पर पोटेशियम का छिड़काव त्वरित उपाय है। पत्तियों को जलने से बचाने के लिए पोटेशियम नाइट्रेट या पोटेशियम सल्फेट को पानी में घोलकर सुबह या दोपहर के समय लगाएं। मिट्टी की नमी को संरक्षित करने और मिट्टी के तापमान को लगातार बनाए रखने के लिए केले के पौधों के चारों ओर जैविक गीली घास लगाएं। इससे जड़ों द्वारा पोटेशियम अवशोषण में सुधार होता है।

संतुलित पोषण

सुनिश्चित करें कि पोषक तत्वों के असंतुलन को रोकने के लिए अन्य आवश्यक पोषक तत्व, जैसे नाइट्रोजन (एन) और फास्फोरस (पी), भी पर्याप्त मात्रा में मौजूद हो।आम तौर पर (प्रजाति एवं मिट्टी के अनुसार भिन्न भिन्न भी हो सकती है ), केले को मिट्टी और किस्म के आधार पर 150-200 ग्राम नत्रजन ( एन), 40-60 ग्राम फास्फोरस ( पी2ओ5) और 200-300 ग्राम पोटाश (के2ओ) प्रति पौधे प्रति फसल की आवश्यकता होती है। फूल आने के समय (प्रजनन चरण) में एक-चौथाई नत्रजन(N) और एक-तिहाई पोटाश (K2O) का प्रयोग लाभकारी पाया गया है। फूल आने के समय में नत्रजन का प्रयोग पत्तियों की उम्र बढ़ने में देरी करता है और गुच्छों के वजन में सुधार लाता है और एक तिहाई पोटाश का प्रयोग करने से फिंगर फिलिंग बेहतर होती है। ऊत्तक संवर्धन द्वारा तैयार केले के पौधे से खेती करने में नाइट्रोजन एवं पोटैशियम की कुल मात्रा को पांच भागों में विभाजित करके प्रयोग करने से अधिकतम लाभ मिलता है जैसे प्रथम रोपण के समय,दूसरा रोपण के 45 दिन बाद , तृतीय-90 दिन बाद, चौथा-135 दिन बाद; 5वीं-180 दिन बाद। फास्फोरस उर्वरक की पूरी मात्रा आखिरी जुताई के समय या गड्ढे भरते समय डालनी चाहिए।

जल प्रबंधन

पानी के तनाव से बचने के लिए उचित सिंचाई करें, क्योंकि सूखे की स्थिति पोटेशियम की कमी को बढ़ा सकती है।

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फसल चक्र

मिट्टी में पोषक तत्वों की कमी के जोखिम को कम करने के लिए केले की फसल को अन्य पौधों के साथ बदलें।

रोग एवं कीट नियंत्रण

किसी भी बीमारी या कीट संक्रमण का तुरंत समाधान करें, क्योंकि वे पौधे पर दबाव डाल सकते हैं और पोषक तत्व ग्रहण करने में बाधा उत्पन्न करते हैं।

कटाई छंटाई और मृत पत्तियों को हटाना

स्वस्थ, पोटेशियम-कुशल पर्णसमूह के विकास को बढ़ावा देने के लिए नियमित रूप से क्षतिग्रस्त या मृत पत्तियों की छंटाई करें।

निगरानी और समायोजन

पोटेशियम उपचारों के प्रति पौधे की प्रतिक्रिया की लगातार निगरानी करें और तदनुसार उर्वरक प्रयोगों को समायोजित करें। अंत में कह सकते है की केले के पौधों में पोटेशियम की कमी से विकास, फल की गुणवत्ता और उपज पर महत्वपूर्ण नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इस कमी को दूर करने और स्वस्थ और उत्पादक केले की फसल सुनिश्चित करने के लिए मिट्टी परीक्षण, उर्वरक प्रयोग और कृषि कार्यों सहित समय पर निदान और उचित प्रबंधन आवश्यक हैं। इन रणनीतियों को लागू करके, केला उत्पादक पोटेशियम पोषण को अनुकूलित करते हैं और बेहतर समग्र पौध स्वास्थ्य और फल उत्पादन प्राप्त करते हैं।

Chiku Farming: चीकू की फसल में लगने वाले प्रमुख रोग व उनसे बचाव कैसे करें

Chiku Farming: चीकू की फसल में लगने वाले प्रमुख रोग व उनसे बचाव कैसे करें

भारत के अंदर चीकू की खेती काफी बड़े पैमाने पर की जाती है। चीकू के चाहने वाले लोग दुनिया के हर हिस्से में पाए जाते हैं। इस लेख में आज हम आपको इसमें लगने वाले रोगों से संरक्षण के विषय में बताने जा रहे हैं। चीकू की खेती भारत के बहुत सारे हिस्सों में की जाती है। चीकू काफी लोकप्रिय फल है। यदि आप इसकी खेती करते हैं, तो बाजार में आपको काफी अच्छा मुनाफा प्राप्त हो सकता है। चीकू का फल खाने में स्वादिष्ट होने के अतिरिक्त यह विटामिन-बी, सी, कैल्शियम, मैग्नीशियम, मैंगनीज एवं मिनरल से भरपूर होता है। चीकू की खेती के दौरान इसमें बहुत सारे हानिकारक कीट और रोग लग जाते हैं।

चीकू की फसल में लगने वाले प्रमुख रोग

धब्बा रोग

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि धब्बा रोग चीकू की पत्तियों पर लगता है। साथ ही, यह गहरे जामुनी भूरे रंग का होता है और बीच से सफेद रंग का होता हैं। यह पौधे की पत्तियों के अतिरिक्त तने एवं पंखुड़ियों पर भी लगता है। इससे बचाव के लिए पत्तों पर कॉपर ऑक्सीक्लोराइड की 500 ग्राम मात्रा का छिड़काव करना चाहिए। यह भी पढ़ें:
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तने का गलना रोग

यह एक फंगस की वजह से होने वाली बीमारी है। इसकी वजह से पौधे के तने और शाखाओं में सड़न आने लग जाती है। इससे संरक्षण के लिए कार्बेन्डाजिम और Z-78 की मात्रा को 200 लीटर पानी में मिश्रित कर इसकी जड़ों पर छिड़काव करना चाहिए।

एंथ्राक्नोस रोग

एंथ्राक्नोस रोग पौधे के तने एवं शाखाओं पर गहरे रंग के धंसे हुए धब्बे के रुप में नजर आता है। इसके लगने से पौधे की पत्तियां झरने लगती हैं। साथ ही, धीरे-धीरे पूरी शाखा नीचे गिर जाती है। इससे संरक्षण के लिए कॉपर ऑक्सीक्लोराइड और एम-45 को पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिए। यह भी पढ़ें: किसान श्रवण सिंह बागवानी फसलों का उत्पादन कर बने मालामाल

पत्ते का जाला रोग

इस रोग से चीकू के पेड़ के पत्तों पर जाला लग जाता है। फिर यह गहरे भूरे रंग का हो जाता है। इससे पत्ते काफी सूख जाते हैं और टहनियां भी गिरने लगती हैं। इससे संरक्षण के लिए कार्बरील और क्लोरपाइरीफॉस को मिलाकर 10 से 15 दिनों के समयांतराल पर पौधों पर छिड़काव करना चाहिए।
पशुओं से होने वाले रोग

पशुओं से होने वाले रोग

कई रोग ऐसे हैं जो पशुओं से मनुष्यों में फैलते हैं। इनमें से कई तो इतने घातक हैं कि जिनका निदान भी संभव नहीं है। पशुपालन करने वाले सीधे साधे किसान और विशेषकर महिला किसान इनके विषय में नहीं जानते। इन रोगों से खुद को बचाने के लिए किसानों को इनके लक्षण पता होने चाहिए और संक्रमण से बचने के लिए जरूरी सावधानी बरतनी चाहिए। मनुष्यों में ये रोग एक गम्भीर समस्या हैं। हमारे देश में जहाँ 72 प्रतिशत से भी अधिक जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है तथा पशु-पक्षियों की देखभाल करते समय किसान व पशुपालक भाई बहनें तथा उनके बच्चे स्वयं भी जाने अनजाने में इन रोगों से ग्रसित हो जाते हैं वहां इन रोगों का महत्व अत्यधिक बढ़ जाता है। अभी तक लगभग 300 से अधिक इस श्रेणी के रोग पहचाने जा चुके हैं। विशेषतः उनके चारे-पानी व दाने की व्यवस्था करते समय, पशुओं को नहलाने तथा बाड़े की साफ-सफाई करते समय गर्भावस्था में मादा पशुओं व जन्म के समय [नवजात पशुओं की देखभाल करते समय] कृषि व पशुपालन से संबंधित कार्यो में उनका उपयोग करते समय तथा उनके साथ एक ही छत के नीचे रहने व सोते समय।

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  • रेबीज या अर्लक रोग (पागल कुत्ते (मुख्यतः बिल्ली] बन्दर] नेवला] सियार व लोमडी की लार में पाया जाने वाला विषाणु है।
  • बर्ड फ्लू (ऐवियन इनफ्लूएंजा एच 5 एन 1 नामक विषाणु से होने वाले मुर्गियों की अत्यन्त संक्रामक महामारी है।
  • जेपेनीज बी मस्तिष्क शोथ या जापानी मस्तिष्क ज्वर (संक्रमित मच्छर के काटने से फैलने वाला रोग है। एन्थ्रेक्स या गिल्टी रोग ( रोगी पशु के स्रावों द्वारा दूषित चारे व पानी द्वारा होने वाला घातक संक्रामक रोग है। ब्रूसेल्ला संक्रमण द्वारा पषुओं में गर्भपात व अन्य प्रजनन रोग होते हैं।
  • टीबी तपेदिक या यक्ष्मा रोग (रोगी पशु की सांस से संक्रमित वायु द्वारा पशुओं के फेफड़ों व अन्य अंगों का घातक संक्रमण।
  • प्लेग (चूहों के पिस्सुओं द्वारा काटने से होने वाला अत्यन्त घातक गिल्टी या फेफड़ों का रोग
  • लेप्टोस्पाइरोसिस (रोगी पशुओं व चूहों के मूत्र द्वारा अथवा बरसात या सीवर लाइनों के गंदे पानी द्वारा दूषित जल को पीने अथवा इस जल में रहकर खेतों में देर तक नंगे पैर कृषि कार्य करने से त्वचा द्वारा फैलने वाला आंतों, यकृत तथा वृक्कों (गुर्दों का घातक संक्रमण टाक्सोप्लाज्मोसिस या टाक्सोप्लाज्मा संक्रमण (पालतू बिल्लियों के मल से दूषित भोज्य पदार्थों व जल द्वारा होने वाला गर्भपात व अन्य रोग)
  • दाद या रिंगवर्म संक्रमण (पशुओं व मनुष्यों की त्वचा, बालों या नाखूनों को प्रभावित करने वाली गोल सिक्के के रूप में फैलने वाली खुजलीे ।

रोकथाम के कुछ सामान्य उपाय

बचाव उपचार की अपेक्षा अच्छा है - ये छूत के रोग संक्रामक एवं बहुत भयानक होते हैं। जिसमें करोड़ों की संख्या में पशु प्रतिवर्ष मृत्यु के घाट उतरते हैं। आर्दश प्रबन्धन- पशु स्वस्थ रखे जाएं। उनके आहार, प्रजनन व रोग परीक्षण, निदान तथा उपचार का समुचित प्रबन्ध किया जाए। समय-समय पर रोगों के टीके लगाये जाएं।

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बीमार पशुओं को स्वस्थ पशुओं से अलग कर देना चाहिए। मेले अथवा हाट से नये खरीदे गये पशुओं को स्वस्थ पशुओं से एक माह के अन्तराल तक अलग रखने के पश्चात ही पशुबाडे के अन्य स्वस्थ पशुओं से मिलाना चाहिये। रोगी पशुओं के दूध या मांस का उपयोग बिल्कुल न किया जाए। दूध मांस अण्डे व इनके अन्य उत्पादों को यदि मनुष्यों के उपयोग में लाया भी जाये तो यह अति आवश्यक है कि इन पदार्थों को उबालकर] पास्चुरीकरण द्वारा अथवा डिब्बाबंद करने की विधि (केनिंग) द्वारा विसंक्रमित किया जाये। थनैला से ग्रस्त रोगी पशुओं के दूध का सेवन रोग काल में तथा थनों में दवा चढाने के 72 घंटों बाद तक कदापि नहीं करना चाहिये। 

रोगी पशुओं अथवा उनके अन्य उत्पादों (दुग्ध मांस) अण्डे के सम्पर्क में आये बर्तनों व हाथों को कार्बोलिक साबुन या क्लोरीन स्रोत जैसे डौमेक्स या ब्लीचिंग पाउडर के घोल से धोकर अवश्य विसंक्रमित किया जाना चाहिये। दूषित चरागाह पर चूना छिड़काव कर अथवा हल चलवा कर उसे 5- 6 माह की अवधि के लिये खाली छोड देना चाहिए। उक्त रोगों से ग्रस्त होकर मरे पशु के शव और बिछावन आदि का उचित प्रबन्ध - रोगी पशुओं के पालन क्षेत्रों तथा मृत्यु स्थल को फार्मलीन] कार्बोलिक अम्ल] फिनायल] लाइसौल अथवा डिटौल आदि के घोल से विसंक्रमित किया जाना चाहिये।

दलहनी फसलों में लगने वाले रोग—निदान

दलहनी फसलों में लगने वाले रोग—निदान

दलहनी फसलें बड़ी नाजुक होती हैं। इनमें जरा सा रोग संक्रमण फसल को नुकसान पहुंचाता है। इसका दूसरा कारण यह भी है क्योंकि दलहनी फसलों में खर्चा कम आता है इस लिहाज से किसान अन्य फसलों की तरह चौकन्ना रह कर नियंत्रण नहीं करते। 

मसलन धान जैसी फसलों में हर समय निगरानी करनी होती है जबकि दलहन में ऐसा नहीं होता। इस तरह की छोटी छोटी चीजें ही फसल को नुकसान पहुंचा देती हैं।

अरहर की फसल को उकठा, अंगमारी झुलसा एवं अल्टरनेरिया झुलसा प्रभावित करते हैं। बचाव के लिए रोग रोधी किस्मों का चयन करें।

उकठा रोग रोधी किस्मों में बीडीएन 2, एनपीडब्ल्यू, शारदा, सी 11, आर 15, बीएसएमआर 726, 736, 853, टीटी 7, आशा, मारुति, आईपीए 203,206, पीटी 012, नरेन्द्र अरहर 1, अमर, आजाद,  मालवीय अरहर प्रमुख हैं। 

अंगमारी या बांझ रोग रोधी किस्मों में बीएसएमआर 726, 736, 853,आशा, बहार, एचवाई 3 सी, शरद, पूसा 9, अमर, आजाद, मालवीय। 

आल्टरनेरिया ब्लाइट रोग रोधी किस्में में शरद एवं पूसा 9 आदि किस्में हैं। 

चना में उकठा रोग देश के काफी बड़े हिस्से में लगता है। यह फ्यूजेरियम आक्सीस्पोरम के कारण लगता है। इसके अलावा जड़ गलन, धूसर रोग, तना गलन एवं एस्कोकाइटा झुलसा रोग प्रमुख रूप से लगते हैं। 

बचाव:— कई फफूंद जनित रोगों का कारण बीज को उपचारित करके न बोना होता है। बीज को किसी भी प्रचलित फफूंद नाशक दवा की दो से ढ़ाई ग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीज की दर से आवश्यक रूप से उपचारित करना चा​हिए। 

रोग रोधी किस्में:— ​ज्यादातर रोगों के नियंत्रण के लिए जरूरत इस बात की होती है कि वैज्ञानिकों द्वारा तैयार रोग रोधी किस्में ही सरकारी संस्थानों से लें। यदि प्राईवेट कंपनी का बीज ले रहे हैं तो वहां बीज के विषय में इस तरह की जानकारी नहीं मिलती कि बीज रोग रोधी है या नहीं। यदि इस श्रेणी का बीज बाजार में मिलता है तो पक्के बिल के साथ भरोसेमंद दुकान से लेंं। 

चने की डीसीपी 92—3, जीएनजी 1581, पूसा 362, पूसा 372, पूसा चमत्कार, राजस, एच 82—2, आरएसजी 963, 888, जीएनजी 469, 663, के डब्ल्यूआर 108, जेजी 74, केजीडी 1168, पूसा 372, 1003, विशाल, बीजीडी, जेजी 11, श्वेता,  जीसीपी 105 आदि अनेक किस्में उकठा रोग प्रतिरोधी हैं। किसानों को अपने क्षेत्र के लिए उपयुक्त किसी किस्म का चयन करना चाहिए। 

मूंग एवं उड़द में पर्ण बुंदकी, चूर्णिल असिता, पीला चितेरी रोग प्रमुख रूप से लगते हैं। इन्हें रोकने के भी तरीके बीज उपचार, भूमि उपचार, प्रतिरोधी किस्मों के बीजों का खेती में उपयोग करके इन समस्याओं से काफी हद तक निजात मिल सकती है। 

निदान:— मूंग के पीला चिरेती रोग की रोकथाम के लिए रोग रोधी किस्म एमयूएम 2, नरेन्द्र मूंग 1,पूसा विशाल ग्रीष्मकालीन, पंत मूंग 6, एचयूएम 1, पंत मूंग 6, केएम 2241, श्वेता, पूसा 105, एचयूएम 12 की बिजाई करेंं। इसके अलावा भी कई नई किस्में सरकारी संस्थानों ने विकसित की हैं। पूरी जानकारी करके ही रोग रोधी किस्मों का अपने क्षेत्र के लिए चयन करें।

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की केयू 300, केयूजी 479, नरेन्द्र उड़द 1, पंत यू 19, केयू 92—1 बसन्तकालीन, टीयू 40 रबी, वीबीजी 8, पंत यू 30 प्रमुख किस्में हैं। पाउड्री मिल्ड्यू रोग रोधी मूंग की पूसा 105, एडीटी 3, बीएम 4, टार्म 2, 18, पूसा 9072 आदि। उक्त रोग रोधी उड़द की एलबीजी  17, 20, एडीटी 4, एकेयू 4, आईपीयू 2, टीयू 40 आदि किस्मों को चुनें। 

मटर में चूर्णिल असिता एवं रतुआ रोग का प्रभाव होता है। बचाव के​ लिए अच्छी रोग रोधी किस्मों का चयन करेंं। चूर्णिल असिता रोग रोधी मटर की लम्बी किस्मों में पंत 5, शिखा, अलंकार,  पंत पी 42, मालवीय मटर 2, वीएल 42, गोमती आदि कई किस्में हैं। 

बौनी किस्मों में अपर्णा, एचएफपी 29, 9907, पूसा पन्ना, पंत पी 74, उत्तरा, पूसा प्रभात, मालवीय मटर 15, सपना आदि कस्में लगाएं। रतुआ रोग रोधी मालवीय मटर 15, आईपीएफडी 1—10 किस्म लगाएं। मसूर में रतुआ, उकठा, तना गलन, मूल विगलन जैसे रोग लगते हैं। 

रतुआ रोग से बचाव के लिए पंत एल 4, डीपीएल 62, 15, आईपीएल 406, केएलएस 218, लेंस 4036 किस्म लगाएं।

मसूर की उकठा रोग रोधी पंत एल 4, डीपीएल 15, पतं एल 406, नरेन्द्र मसूर 1, जेएल 3, आईपीएल 81 आदि किस्में सरकारी सं​स्थान से लेकर लगाएं।

किसान कर लें ये काम, वरना पपीते की खेती हो जाएगी बर्बाद

किसान कर लें ये काम, वरना पपीते की खेती हो जाएगी बर्बाद

फरवरी का महिना पपीते की खेती करने वाले किसनों के लिए बेहद जरूरी हो सकता है. जिस वजह से इस समय पपीते पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत होती है. अगर ध्यान नहीं दिया तो दूसरी खतरनाक बीमारियां फलों के लगने से पहले ही बर्बाद कर देंगी. एक्सपर्ट्स के मुताबिक पपीते कुछ खास विधि से करेंगे तो इससे अच्छी पैदावार मिल सकती है. जो किसान अक्टूबर में पपीते की खेती करते हैं, उनके पौधा का विकास सर्दियों की वजह से धीमा हो जाता है. जिस वजह से निराई और गुड़ाई की ज्यादा जरूरत होती है. जिसके बाद प्रति पौधे में लगभग 100 ग्राम यूरिया, 100 ग्राम सिंगल सुपर फास्टेट, 50 ग्राम म्यूरेट ऑफ पोटाश का इस्तेमाल पौधे के तने से करीब एक से डेढ़ फीट की रूडी पर गोला बना क्र करना चाहिए. इसके बाद जरूरत के हिसाब से हल्की हल्की सिंचाई करते रहें. पपीते के पौधे के पास बनाया गया पपीता रिंग में नीम का का तेल 2 फीसद करीब आधे लीटर स्टीकर में मिलाकर एक एक महीने के अंतराल में करीब 8 महीनों तक स्प्रे करते रहें.

ऐसे करें इलाज, नहीं होगा नुकसान

एक्सपर्ट्स कहते हैं कि, हाई क्वालिटी के फल और पपीतों के पौधों में रोगों से लड़ने के गुण होने जरूरी हैं. इन गुणों को बढ़ाने के लिए दस ग्राम यूरिया के साथ पांच ग्राम जिंक सल्फेट और पांच ग्राम बोरान को प्रति लीटर पानी के हिसाब से अच्छे से घोलकर एक एक महीने के गैप में स्प्रे करें. ऐसा आपको अगले आठ महीने तक करना होगा. इस बात का ध्यान रखें कि, जिंक सल्फेट और बोरोन एक साथ ना घोलें. इन्हें अलग-अलग ही घोलें. क्योंकि ये जमने लगते हैं. ये भी देखें: पपीते की खेती कर किसान हो रहे हैं मालामाल, आगे चलकर और भी मुनाफा मिलने की है उम्मीद

फरवरी का महीना सबसे जरूरी

जड़ गलन अब तक की पपीते में लगने वाली सबसे भयानक बीमारियों में से एक है. इससे निपटने के लिए जरूरी है कि, हेक्साकोनाजोल की लगभग दो मिली दवा को प्रति लीटर पानी के हिसाब से घोलकर एक एक महीने के गैप में मिट्टी में खूब अच्छी तरह से डालें. ताकि मिट्टी अच्छी तरह से भींग जाए. आपका ऐसा आठ महीनों तक करते रहना है. इसका मतलब इस घोल से मिट्टी को लगातार भिगोते रहना है. अगर आपके पपीते का पौधा बड़ा है तो उसके लिए लगभग पांच से छह लीटर दवा के घोल को डालने की जरूरत होती है. पपीते लगाने का सबसे अच्छा समय मार्च से लेकर अप्रैल तक का होता है. इसलिए फरवरी के महीने में पपीते की नर्सरी लगाने की सलाह दी जाती है.