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गेहूं व जौ की फसल को चेपा (अल) से इस प्रकार बचाऐं

गेहूं व जौ की फसल को चेपा (अल) से इस प्रकार बचाऐं

हरियाणा कृषि विभाग की तरफ से गेहूं और जौ की फसल में लगने वाले चेपा कीट से जुड़ी आवश्यक सूचना जारी की है। इस कीट के बच्चे व प्रौढ़ पत्तों से रस चूसकर पौधों को काफी कमजोर कर देते हैं। साथ ही, उसके विकास को प्रतिबाधित कर देते हैं। भारत के कृषकों के द्वारा गेहूं व जौ की फसल/ Wheat and Barley Crops को सबसे ज्यादा किया जाता है। क्योंकि, यह दोनों ही फसलें विश्वभर में बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होने वाली साबुत अनाज फसलें हैं।

गेहूं व जौ की खेती राजस्थान, मध्यप्रदेश, बिहार, हिमाचल प्रदेश, गुजरात, उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और जम्मू-कश्मीर में विशेष रूप से की जाती है। किसान अपनी फसल से शानदार उत्पादन हांसिल करने के लिए विभिन्न प्रकार के कार्यों को करते हैं। यदि देखा जाए तो गेहूं व जौ की फसल में विभिन्न प्रकार के रोग व कीट लगने की संभावना काफी ज्यादा होती है। वास्तविकता में गेहूं व जौ में चेपा (अल) का आक्रमण ज्यादा देखा गया है। चेपा फसल को पूर्ण रूप से  खत्म कर सकता है।

गेहूं व जौ की फसल को चेपा (अल) से बचाने की प्रक्रिया

गेहूं व जौ की फसलों में चेपा (अल) का आक्रमण होने पर इस कीट के बच्चे व प्रौढ़ पत्तों से रस चूसकर पौधों को कमजोर कर देते हैं. इसके नियंत्रण के लिए 500 मि.ली. मैलाथियान 50 ई. सी. को 200 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ फसल पर छिड़काव करें. किसान चाहे तो इस कीट से अपनी फसल को सुरक्षित रखने के लिए अपने नजदीकी कृषि विभाग के अधिकारियों से भी संपर्क कर सकते हैं।

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चेपा (अल) से आप क्या समझते हैं और ये कैसा होता है ?

चेपा एक प्रकार का कीट होता है, जो गेहूं व जौ की फसल पर प्रत्यक्ष तौर पर आक्रमण करता है। यदि यह कीट एक बार पौधे में लग जाता है, तो यह पौधे के रस को आहिस्ते-आहिस्ते चूसकर उसको काफी ज्यादा कमजोर कर देता है। इसकी वजह से पौधे का सही ढ़ंग से विकास नहीं हो पाता है।

अगर देखा जाए तो चेपा कीट फसल में नवंबर से फरवरी माह के मध्य अधिकांश देखने को मिलता है। यह कीट सर्व प्रथम फसल के सबसे नाजुक व कमजोर भागों को अपनी चपेट में लेता है। फिर धीरे-धीरे पूरी फसल के अंदर फैल जाता है। चेपा कीट मच्छर की भाँति नजर आता है, यह दिखने में पीले, भूरे या फिर काले रंग के कीड़े की भाँति ही होता है।

अरबी की खेती की सम्पूर्ण जानकारी

अरबी की खेती की सम्पूर्ण जानकारी

अरबी गर्मी की फसल है, इसका उत्पादन गर्मी और वर्षा ऋतू में किया जाता है। अरबी की तासीर ठंडी रहती है। इसे अलग अलग नामों से जाना जाता है जैसे अरुई , घुइया , कच्चु और घुय्या आदि है।

यह फसल बहुत ही प्राचीन काल से उगाई जा रही है। अरबी का वानस्पातिक नाम कोलोकेसिया एस्कुलेंटा है। अरबी प्रसिद्ध और सबसे परिचित वनस्पति है, इसे हर कोई जानता है। सब्जी के अलावा इसका उपयोग औषिधीय में भी किया जाता है।  

अरबी का पौधा सदाबहार साथ ही शाकाहारी भी है। अरबी का पौधा 3 -4 लम्बा होता है , इसकी पत्तियां भी चौड़ी होती है। अरबी सब्जी का पौधा है, जिसकी जड़ें और पत्तियां दोनों ही खाने योग्य रहती है। 

इसके पत्ते हल्के हरे रंग के होते है, उनका आकर दिल के भाँती दिखाई पड़ता है। 

अरबी की खेती के लिए उपयुक्त मिट्टी

अरबी की खेती के लिए जैविक तत्वों से भरपूर मिट्टी की  जरुरत रहती है। इसीलिए इसके लिए रेतीली और दोमट मिट्टी को बेहतर माना जाता है। 

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इसकी खेती के लिए भूमि का पी एच मान 5 -7 के बीच में होना चाहिए। साथ ही इसकी उपज के लिए बेहतर जल निकासी  वाली भूमि की आवश्यकता पड़ती है। 

अरबी की उन्नत किस्में 

अरबी की कुछ उन्नत किस्में इस प्रकार है, जो किसानों को मुनाफा दिला सकती है। सफ़ेद गौरिया, पंचमुखी, सहस्रमुखी, सी -9, श्री पल्लवी, श्री किरन, श्री रश्मी आदि प्रमुख किस्में है, जिनका उत्पादन कर किसान लाभ उठा सकता है। 

अरबी -1 यह किस्म छत्तीसगढ़ के किसानों के लिए अनुमोदित की गयी है, इसके अलावा नरेंद्र - 1 भी अरबी की अच्छी किस्म है। 

अरबी की खेती का सही समय 

किसान साल भर में अरबी की फसल से दो बार मुनाफा कमा सकते है। यानी साल में दो बार अरबी की फसल उगाई जा सकती है एक तो रबी सीजन में और दूसरी खरीफ के सीजन में। 

रबी के सीजन में अरबी की फसल को अक्टूबर माह में बोया जाता है और यह फसल अप्रैल से मई माह के बीच में पककर तैयार हो जाती है। 

यही खरीफ के सीजन में अरबी की फसल को जुलाई माह में बोया जाता है, जो दिसंबर और जनवरी माह में तैयार हो जाती है। 

उपयुक्त वातावरण और तापमान 

जैसा की आपको बताया गया अरबी गर्मी की फसल है। अरबी की फसल को सर्दी और गर्मी दोनों में उगाया जा सकता है। लेकिन अरबी की फसल के पैदावार के लिए गर्मी और बारिश के मौसम को बेहतर माना जाता है। 

इन्ही मौसम में अरबी की फसल अच्छे से विकास करती है। लेकिन गर्मी में पड़ने वाला अधिक तापमान भी फसल को नष्ट कर सकता है साथ ही सर्दियों के मौसम में पड़ने वाला पाला भी अरबी की फसल के विकास को रोक सकता है। 

अरबी की खेती के लिए कैसे करें खेत को तैयार ?

अरबी की खेती के लिए अच्छे जलनिकास वाली और दोमट मिट्टी की आवश्यकता रहती है। खेत में जुताई करने के 15 -20 दिन पहले खेत में 200 -250 क्विंटल खाद को डाल दे।

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उसके बाद खेत में 3 -4 बार जुताई करें , ताकि खाद अच्छे से खेत में मिल जाए। अरबी की बुवाई का काम किसानों द्वारा दो तरीको से किया जाता है।  पहला मेढ़ बनाकर और दूसरा क्वारियाँ बनाकर। 

खेत को तैयार करने के बाद किसानों द्वारा खेत में 45 से.मी की दूरी पर मेढ़ बना दी जाती है।  वही क्यारियों में बुवाई करने के लिए पहले खेत को पाटा लगाकर समतल बनाया जाता है। 

उसके बाद 0.5 से.मी की गहरायी पर इसके कंद की बुवाई कर दी जाती है। 

बीज की मात्रा 

अरबी की बुवाई कंद से की जाती है , इसीलिए प्रति हेक्टेयर में कंद की 8 -9 किलोग्राम मात्रा की जरुरत पड़ती है। अरबी की बुवाई से पहले कंद को पहले मैंकोजेब 75 % डब्ल्यू पी 1 ग्राम को पानी में मिलाकर 10 मिनट तक रख कर बीज उपचार करना चाहिए। 

बुवाई के वक्त क्यारियों के बीच की दूरी 45 से.मी और पौधो की दूरी 30 से.मी और कंद की बुवाई 0.5 से.मी की गहराई में की जाती है।  

अरबी की खेती के लिए उपयुक्त खाद एवं उर्वरक 

अरबी की खेती करते वक्त ज्यादातर किसान गोबर खाद का प्रयोग करते है ,जो की फसल की उत्पादकता के लिए बेहद फायदेमंद रहता है।  लेकिन किसानों द्वारा अरबी की फसल के विकास लिए उर्वरको का उपयोग किया जाता है। 

किसान रासायनिक उर्वरक फॉस्फोरस 50 किलोग्राम , नत्रजन 90 -100 किलोग्राम और पोटाश 100 किलोग्राम का उपयोग करें, इसकी आधी मात्रा को खेत की बुवाई करते वक्त और आधी मात्रा को बुवाई के एक माह बाद डाले। 

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ऐसा करने से फसल में वृद्धि होगी और उत्पादन भी ज्यादा होगा। 

अरबी की फसल में सिंचाई 

अरबी की फसल यदि गर्मी के मौसम बोई गयी है ,तो उसे ज्यादा पानी आवश्यकता पड़ेगी। गर्मी के मौसम में अरबी की फसल को लगातार 7 -8  दिन लगातार पानी देनी की जरुरत रहती है। 

यदि यही अरबी की फसल बारिश के मौसम में की गयी है ,तो उसे कम पानी की जरुरत पड़ती है। अधिक सिंचाई करने पर फसल के खराब होने की भी संभावनाएं रहती है। 

सर्दियों के मौसम में भी अरबी को कम पानी की जरुरत पड़ती है। इसकी हल्की  सिंचाई  15 -20 के अंतराल पर की जाती है।  

अरबी की फसल की खुदाई 

अरबी की फसल की खुदाई उसकी किस्मों के अनुसार होती है , वैसे अरबी की फसल लगभग 130 -140  दिन में पककर तैयार हो जाती है। जब अरबी की फसल अच्छे से पक जाए उसकी तभी खुदाई करनी चाहिए।

अरबी की बहुत सी किस्में है जो अच्छी उपज होने पर प्रति हेक्टेयर में 150 -180 क्विंटल की पैदावार देती है।  बाजार में अरबी की कीमत अच्छी खासी रहती है। 

अरबी की खेती कर किसान प्रति एकड़ में 1.5 से 2 लाख रुपए की कमाई कर सकता है। 

अरबी की खेती कर किसान अच्छा मुनाफा कमा सकती है।  साथ ही कीट और रोगों से दूर रखने के लिए किसान रासायनिक उर्वरको का भी उपयोग कर सकते है।

साथ ही फसल में खरपतवार जैसी समस्याओ को भी नियंत्रित करने के लिए समय समय पर गुड़ाई और नराई का भी काम करना चाहिए। 

इससे फसल अच्छी और ज्यादा होती है, ज्यादा उत्पादन के लिए किसान फसल चक्र को भी अपना सकता है। 

सरसों की फसल में सफेद रतवे का प्रबंधन

सरसों की फसल में सफेद रतवे का प्रबंधन

सरसों की फसल कई रोगों से प्रभावित होती है। जिससे की किसानो को कम पैदावार प्राप्त होती है। सफेद रतवे (White Rust) रोग से फसल को अधिक नुकसान होता है। आज इस लेख में हम आपको सफेद रतवे (White Rust) की रोकथाम के बारे में जानकारी देंगे जिससे की आप समय से फसल में इस बीमारी का नियंत्रण कर सके। 

सरसों की फसल में सफेद रतवे (White Rust) से बचाव के लिए कुछ महत्वपूर्ण निर्देश निम्नलिखित हैं:

सही बीज बुवाई :

 सबसे पहले आपको ध्यान देना है कि फसल की बुवाई के लिए स्वस्थ बीजों का चयन करें जो रोगों से मुक्त हों। स्वस्थ बीजों का चयन करने से फसल में ये रोग नहीं आएगा।   

फसल की समय पर बोना:

 समय पर सरसों की बुवाई की जानी चाहिए ताकि फसल में बीमारी का प्रसार कम हो। देरी से बुवाई की गयी फसल में अधिक रोग का खतरा होता है। कई बार रोग अधिक लग जाता है जिससे आधी पैदावार कम हो जाती है। 

समुचित जल सिंचाई:

जल सिंचाई को समुचित रूप से प्रबंधित करें ताकि पौधों पर पानी जमा नहीं हो, जिससे सफेद रतवे का प्रसार कम हो। फसल में अधिक नमी होने के कारण भी रोग अधिक लगता है। 

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उचित फफूंदनाशकों का प्रयोग:

सरसों की सफेद रतवे के खिलाफ उचित फफूंदनाशकों का प्रयोग करें। कृषि विज्ञानी से सलाह लें और सुरक्षित रोगनाशकों का चयन करें। सफेद रतवा के नियंत्रण के लिए खड़ी फसल में मैंकोजेब(एम 45) फफुंदनाशक 400 से 500ग्राम को 200/250 लीटर पानी में घोलकर प्रति एकड़ के हिसाब से 15 दिन के अंतर पर कम से कम 2 छिड़काव अवश्य करें जिससे सफेद रतवा का नियंत्रण संभव हो सकता है।

फसल की देखभाल:

 फसल की देखभाल के लिए समय समय पर पौधों की सुरक्षा और मूल से देखभाल करें।

प्रभावित पौधों का हटाएं:

यदि किसी पौधे पर सफेद रतवे के प्रमुख संकेत हैं, तो उन्हें तुरंत उखाड़ कर मिट्टी में दबा दें ताकि बीमारी और फैलने से बचा जा सके।उचित तकनीकी तरीके का प्रयोग करें, जैसे कि स्थानीय परिस्थितियों, जलवायु और मौसम की विशेषताओं के आधार पर सिंचाई और पोषण का प्रबंधन करें।इन उपायों का अनुसरण करके, सरसों की फसल में सफेद रतवे से बचाव किया जा सकता है। ध्यान रहे कि स्थानीय कृषि विभाग या कृषि विज्ञानी से सलाह लेना हमेशा उत्तम होता है ताकि आपको विशेष रूप से अपने क्षेत्र के लिए सबसे उपयुक्त नियंत्रण उपायों की जानकारी मिले।

ढैंचा की खेती से संबंधित विस्तृत जानकारी

ढैंचा की खेती से संबंधित विस्तृत जानकारी

भारत के विभिन्न राज्यों में किसान यूरिया के अभाव और कमी से जूझते हैं। यहां की विभिन्न राज्य सरकारों को भी यूरिया की आपूर्ति करने के लिए बहुत साड़ी समस्याओं और परेशानियों का सामना करना पड़ता है। 

आज हम आपको इस लेख में एक ऐसी फसल की जानकारी दे रहे हैं, जो यूरिया की कमी को पूर्ण करती है। ढैंचा की खेती किसान भाइयों के लिए बेहद मुनाफेमंद है। क्योंकि यह नाइट्रोजन का एक बेहतरीन स्रोत मानी जाती है। 

भारत में फसलों की पैदावार को अच्छा खासा करने के लिए यूरिया का उपयोग काफी स्तर पर किया जाता है। क्योंकि, इससे फसलों में नाइट्रोजन की आपूर्ति होती है, जो पौधों के विकास के लिए अत्यंत आवश्यक है।

परंतु, यूरिया जैव उर्वरक नहीं है, जिसकी वजह से प्राकृतिक एवं जैविक खेती का उद्देश्य पूर्ण नहीं हो पाता है। हालांकि, वर्तमान में सामाधान के तोर पर किसान ढैंचा की खेती पर अधिक बल दे रहे हैं। 

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क्योंकि, ढैंचा एक हरी खाद वाली फसल है जो नाइट्रोजन का बेशानदार जरिया है। ढैंचा के इस्तेमाल के बाद खेत में किसी भी अतिरिक्त यूरिया की आवश्यकता नहीं पड़ती। साथ ही, खरपतवार जैसी समस्याएं भी जड़ से समाप्त हो जाती हैं।

ढैंचा की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु 

उपयुक्त जलवायु- ढैंचा की शानदार उपज के लिए इसको खरीफ की फसल के साथ उगाते हैं। पौधों पर गर्म एवं ठंडी जलवायु का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता है। 

परंतु, पौधों को सामान्य बारिश की आवश्यकता होती है। ढैंचा के पौधों के लिए सामान्य तापमान ही उपयुक्त माना जाता है। शर्दियों के दौरान अगर अधिक समय तक तापमान 8 डिग्री से कम रहता है, तो उत्पादन पर प्रभाव पड़ सकता है। 

ढैंचा की खेती के लिए मिट्टी का चयन

ढैंचा के पौधों के लिए काली चिकनी मृदा बेहद शानदार मानी जाती है। ढेंचा का उत्पादन हर प्रकार की भूमि पर किया जा सकता हैं। सामान्य पीएच मान और जलभराव वाली जमीन में भी पौधे काफी अच्छे-तरीके से विकास कर लेते हैं।  

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ढैंचा की खेती के लिए खेत की तैयारी 

सर्व प्रथम खेत की जुताई मृदा पलटने वाले उपकरणों से करनी चाहिए। गहरी जुताई के उपरांत खेत को खुला छोड़ दें, फिर प्रति एकड़ के हिसाब से 10 गाड़ी पुरानी सड़ी गोबर की खाद डालें और अच्छे से मृदा में मिला दें। 

अब खेत में पलेव कर दें और जब खेत की जमीन सूख जाए तो रासायनिक खाद का छिड़काव कर रोटावेटर चलवा देना चाहिए, जिसके पश्चात पाटा लगाकर खेत को एकसार कर देते हैं।

ढैंचा की फसल की बुवाई करने का समय  

हरी खाद की फसल लेने के लिए ढैंचा के बीजों को अप्रैल में लगाते हैं। लेकिन उत्पादन के लिए बीजों को खरीफ की फसल के समय बारिश में लगाते हैं। एक एकड़ के खेत में करीब 10 से 15 किलो बीज की आवश्यकता होती है। 

ढैंचा की फसल की रोपाई  

बीजों को समतल खेत में ड्रिल मशीन के माध्यम से लगाया जाता हैं। इन्हें सरसों की भांति ही पंक्तियों में लगाया जाता है। पंक्ति से पंक्ति के मध्य एक फीट की दूरी रखते हैं और बीजों को 10 सेमी की फासले के लगभग लगाते हैं। 

लघु भूमि में ढैंचा के बीजों की रोपाई छिड़काव के तरीके से करना चाहिए। इसके लिए बीजों को एकसार खेत में छिड़कते हैं। फिर कल्टीवेटर से दो हल्की जुताई करते हैं, दोनों ही विधियों में बीजों को 3 से 4 सेमी की गहराई में लगाएं।

गर्मियों में हरे चारे के अभाव में दुधारू पशुओं के लिए चारा

गर्मियों में हरे चारे के अभाव में दुधारू पशुओं के लिए चारा

आज हम बात करेंगे कि गर्मियों में हरे चारे के अभाव में दुधारू पशुओं के लिए चारा किस प्रकार का देना चाहिए, जिसके आधार पर वो ज्यादा से ज्यादा दूध का उत्पादन कर सकें, जैसे, गेंहू/मक्के की दलिया और भी किसी दलहनी फसल की दलिया पका कर दिया जाता है, ताकि चारा सुपाच्य रहे और दूध भी ज्यादा दे।

गर्मियों में हरे चारे के अभाव में दुधारू पशुओं के लिए चारा (Fodder for milch animals in the absence of green fodder in summer)

गर्मियों के मौसम में पशुओं द्वारा दूध बड़ी कठिनाई से प्राप्त होता है। दुधारू पशुओं में दूध का उत्पादन देने की क्षमता गर्मियों के तापमान की वजह से काफी कम हो जाती है। सेंटीग्रेड मापन के अनुसार तापमान गर्मियों में लगभग 30 से 45 डिग्री हो जाता है कभी-कभी तापमान इससे भी ज्यादा बढ़ जाता है।जिसकी वजह से पशुओं में दुधारू की क्षमता काफी कम हो जाती है। यदि पशुओं को गर्मियों में हरा चारा दिया जाए, तो या भारी नुकसान होने से किसान भाई बच सकते हैं। पशुओं को हरा चारा देने से दूध उत्पादन में काफी वृद्धि होती है।गर्मियों के मौसम में पशुओं के आहार व्यवस्था पर विशेष रूप से ध्यान देना चाहिए।

दूध के लिए जरूरी उन्नत चारा :

unnat chara ke fayde दुधारू पशुओं को साल भर हरा चारा खिलाने से दूध कारोबारियों में वृद्धि होती है। इसीलिए दुधारू पशुओं को हरा चारा देना चाहिए। हरा चारा ना सिर्फ पशुओं के लिए दूध वृद्धि  बल्कि कई प्रकार के विटामिंस की भी पूर्ति करता है। हरे चारे की एक नई लगभग विभिन्न प्रकार की किस्में होती है लेकिन जो किस्में किसान अपने पशुओं के लिए उपयोगी समझता है , वह ज्वार और बरसीम है जो पूर्ण रूप से फसलों पर ही निर्भर होती है। ये भी पढ़े: साइलेज बनाकर करें हरे चारे की कमी को पूरा

गर्मियों में हरे चारे के अभाव में दुधारू पशुओं के लिए उत्थान अनाज का चारा

गर्मियों के मौसम में पशुओं द्वारा दूध उत्पादन प्राप्त करने के लिए निम्न बातों का ध्यान रखना जरूरी है:
  • गर्मियों के मौसम में पशुओं के तापमान को संतुलित बनाए रखने के लिए ऊर्जा की जरूरत पड़ती हैं। ऊर्जा के लिए पशुओं को जौ , मक्का आदि की आवश्यकता होती है। जिससे कि पशुओं को पूर्ण रूप से ऊर्जा की प्राप्ति हो सके।
  • ध्यान रखने योग्य बातें पशुओं को हो सके, तो आप ज्यादा चारा नहीं दें। क्योंकि चारों की वजह से शरीर में गर्मी बढ़ जाती है।जो कि गर्मियों के मौसम में पशुओं के लिए लाभदायक नहीं होती है। ऐसे में आप चारे की कम मात्रा पशुओं को दें।
  • पशुओं का आहार संतुलित बनाए रखने के लिए पशुओं को आहार के रूप में प्रोटीन ,खनिज विटामिन, ऊर्जा आदि को देना आवश्यक है।

पशुओं से ज्यादा दूध प्राप्त करने के लिए उनको गेंहू/मक्के के चारे देना:

हरे चारे के अभाव में दुधारू पशुओं के लिए चारा - gehu makka ka chara गर्मियों के मौसम में पशुओं से ज्यादा दूध प्राप्त करने के लिए उनको मक्का, जौ, गेंहू, बाजरा आदि के चारे देना बहुत ही लाभदायक होता है। क्योंकि गेहूं और मक्का बाजरा आदि में लगभग 35% पोषक तत्व मौजूद होते हैं जिसे खाकर गाय, भैंस भरपूर दूध की मात्रा का उत्पादन करती है।अगर आप मक्का ,बाजरा, जौ इन तीनों में से किसी एक को भी भोजन के रूप में देना चाहते हैं तो कम से कम आपको 35%भाग देना होगा। जिसे खाकर गाय, भैंस पूर्ण रूप से दुधारू का निर्यात कर सकें। ये भी पढ़े: पशुओं का दूध उत्पादन बढ़ाने के लिए करे ये उपाय, होगा दोगुना फायदा

गाय, भैंस को दलिया खिलाने के फायदे:

मनुष्य हो या फिर पशु दोनों को भोजन पचाने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है। गायों और भैंस को दलिया खिलाने से पूर्ण रूप से ऊर्जा प्राप्त होती है। पशुओं को अपने भोजन को पचाने के लिए ऊर्जा की काफी जरूरत होती है इसीलिए दलिया पकाकर खिलाने से पशुओं को ऊर्जा मिलती हैं। प्रसूति से पहले और बाद में इन दोनों ही अवस्थाओं में पशुओं को दलिया खिलाना बहुत ही लाभदायक होता है। दलिया को बचाने में काफी कम उर्जा लगती हैं।

गाय को मक्का खिलाने के फायदे:

गर्मियों में हरा चारा के अभाव में पशुओं के लिए चारा, सूखा चारा खाता गाय का बछड़ा दुधारु पशुओं में दूध की मात्रा को बढ़ाने के लिए मक्का की खली बहुत ही लाभदायक है क्योंकि मक्का में मौजूद पोषक तत्व आसानी से पच जाते हैं। मक्के की खली भिगोने के बाद काफी फूल जाती है जिससे इसका वजन भी काफी बढ़ जाता है। मक्के की खली को भोजन के रूप में देने से दुधारू पशुओं में दूध उत्पादन की मात्रा में बहुत बढ़ोतरी होता है। इस तरह से हम हरे चारे के अभाव में दुधारू पशुओं के लिए चारा का इंतज़ाम कर सकते हैं।

दुधारू पशुओं के लिए साल भर हरे चारे का इंतजाम करना:

किसानों के लिए अपने दुधारू पशुओं का पालन करने के लिए साल भर हरे चारे दे पाना बहुत ही मुश्किल होता है। वहीं दूसरी ओर दुधारू पशुओं को चारे के साथ-साथ पौष्टिक दानों की भरपूर मात्रा वह हरे चारे की बहुत ही ज्यादा आवश्यकता होती है,पशुओं को भोजन के रूप में देने के लिए। हरा चारा न केवल दूध उत्पादन बल्कि विभिन्न प्रकार के रोगों से भी सुरक्षा प्रदान करता है। पशु इसे खाकर विभिन्न प्रकार के रोग से खुद का बचाव करते हैं तथा निरोग रहते हैं। किसान अपने पशुओं को जई, मक्का ,बाजरा लोबिया, बरसीम, नैपियर घास ,मूंग उड़द आदि को हरे चारे के रूप में पशुओं को देते हैं। परंतु यह सभी चारे गर्मियों के मौसम में नहीं मिल पाते और पशु पालन करने वाले निराश होकर अपने पशुओं को सूखा चारा व दाना खिलाने पर पूरी तरह से मजबूर हो जाते हैं। इन सभी स्थिति के कारण पशुओं में दूध देने की क्षमता काफी कम हो जाती है जो किसान भाइयों के व्यापार के लिए काफी नुकसानदायक साबित होती है।

पशुओं के लिए हरा चारा बनाना:

hara chara साइलेज द्वारा हरे चारे का इस्तेमाल किया जाता है। साइलेज बनाने के लिए हरे चारे और पोषक तत्वों से भरपूर खाद्यानन को अच्छी तरह से मिस किया जाता है। साइलेज की सहायता से पशुओं में दूध देने की क्षमता तेजी से बढ़ती है। इसकी सहायता से हरे चारे काफी लंबे टाइम तक सुरक्षित रखने में मदद मिलती है।साइलेज की सहायता से हरे चारों में मौजूद पौष्टिक तत्व नष्ट नहीं हो पाते तथा और भी पोषक तत्व की बढ़ोतरी होती रहती है। किसान भाई हरे चारे की प्राप्ति के लिए अपनी फसल की कटाई के दौरान हरे चारे को धूप में सुखाकर अच्छे से रख लेते हैं। ताकि सालभर हरा चारा ना मिलने पर वह अपने पशुओं को सूखे हुए हरे चारों का इस्तेमाल कर पशुओं से दूध की प्राप्त कर सकें। इस तरह से हम हरे चारे के अभाव में दुधारू पशुओं के लिए चारा का इंतज़ाम कर सकते हैं। हम उम्मीद करते हैं कि आपको हमारी इस पोस्ट के द्वारा गर्मियों में हरे चारे की उपयोगिता और या किस तरह से पशुओं में दूध की वृद्धि को बढ़ाते हैं आदि की पूर्ण जानकारी हमारी इस पोस्ट में मौजूद है। यदि आप हमारी दी हुई जानकारियों से संतुष्ट है। तो आप हमारी इस पोस्ट को ज्यादा से ज्यादा अपने सोशल मीडिया और दोस्तों के साथ शेयर करें। धन्यवाद।
IYoM: भारत की पहल पर सुपर फूड बनकर खेत-बाजार-थाली में लौटा बाजरा-ज्वार

IYoM: भारत की पहल पर सुपर फूड बनकर खेत-बाजार-थाली में लौटा बाजरा-ज्वार

भारत की पहल से यूएन में हुआ पारित

दो साल में 146% बढ़ी बाजरा की मांग

कुकीज, चिप्स का बढ़ रहा बाजार

“अयं बन्धुरयं नेति गणना लघुचेतसाम् । उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥” महा उपनिषद सहित कई ग्रन्थों में लिपिबद्ध महा कल्याण की भावना से परिपूर्ण यह महावाक्य भारतीय संसद भवन में भी सुषोभित है। इसका अर्थ है कि, यह अपना बन्धु है और यह अपना नहीं है, इस तरह का हिसाब छोटे चित्त वाले करते हैं। उदार हृदय वालों के लिए तो (सम्पूर्ण) धरती ही कुटुंब है। ”धरती ही परिवार है।” सनातन धर्म के मूल संस्कार एवं इस महान विचारधारा के प्रसार के तहत भारत ने अंतर राष्ट्रीय स्तर पर अन्न के प्रति भारतीय मनीषियों द्वारा प्रदत्त सम्मान के प्रति भी दुनिया का ध्यान आकृष्ट किया है। धरती मेरा कुटुंब है, प्राकृतिक कृषि से उदर पोषण कृषक का दायित्व है।, इन विचारों से भले ही दुनिया पहली बार परिचित हो रही हो, लेकिन भारत में यह पंक्तियां, महज विचार न होकर सनातनी परंपरा का अनिवार्य अंग हैं। भारत में कृषि का चलन बहुत पुराना है। हालांकि अंग्रेजी नाम वाली पैक्ड फूड डाइट (Packed Food Diet) के बढ़ते चलने के कारण युवा वर्ग अब इन यूनिवर्सल थॉट्स (सार्वभौमिक विचार) से दूर भी होता जा रहा है। कोदू, कुटकी, जौ, ज्वार, बाजरा जैसे पारंपरिक अनाज की पहचान को आज की पीढ़ी, हिंदी के अंकों, अक्षरों की तरह भुलाती जा रही है। संभव है, कुछ दिन में कॉर्न, सीड्स जैसे नामों के आगे मक्का, बीज जैसे नाम भी विस्मृत हो जाएं!

भारत सरकार की पहल

प्रकृति प्रदत्त अनाज की किस्मों में निहित जीवन मूल्यों की ओर ध्यान आकृष्ट कराने, भारत सरकार ने साल 2018 को ईयर ऑफ मिलेट्स के रूप में मनाने का निर्णय लेकर, देसी अनाज की किस्मों की ओर दुनिया का ध्यान आकृष्ट कराया। ईयर ऑफ मिलेट्स के तहत सरकारी स्तर पर मोटे अनाज की किस्मों की खेती के लिए किसानों को प्रोत्साहित करने तमाम प्रोत्साहन योजनाएं संचालित की गईं।

अब IYoM

इसके बाद
संयुक्त राष्ट्र (United Nations) को, अनाज की बिसरा दी गईं किस्मों की ओर लौटकर, प्राकृतिक खेती से दोबारा जुड़ने का भारत का यह तरीका पसंद आया, तो वर्ष 2023 को अंतर राष्ट्रीय स्तर पर इंटरनेशनल ईयर ऑफ मिलेट्स - आईवायओएम (International Year of Millets - IYoM) अर्थात अंतरराष्ट्रीय पोषक-अनाज वर्ष के रूप में मनाने का निर्णय लिया गया।
इंटरनेशनल ईयर ऑफ मिलेट्स (IYoM) 2023 योजना का सरकारी दस्तावेज पढ़ने या पीडीऍफ़ डाउनलोड के लिए, यहां क्लिक करें
नैचुरल फार्मिंग (Natural Farming) या प्राकृतिक खेती के दौर में ज्वार, बाजरा, कोदू, कुटकी जैसे मोटे अनाज अब मिलेट्स (MILLET) के रूप में सुपर फूड बनकर धीरे-धीरे फिर से चलन में लौट रहे हैं। क्या आप इक्षु, उर्वास के बारे में जानते हैं। इक्षु अर्थात गन्ना एवं उर्वास यानी ककड़ी, वे नाम हैं जो मिलेट्स (बाजरा, ज्वार) की तरह समय के साथ नाम के रूप में अपनी पहचान बदल चुके हैं।

इस बदलाव की वजह क्या है ?

आखिर क्या वजह है कि दुनिया को अब मोटा अनाज पसंद आने लगा है, करते हैं इस बात की पड़ताल। मोटे अनाज (मिलेट्स/MILLETS) के धरती, प्रकृति और मानव स्वास्थ्य से जुड़े फायदों पर अनुसंधान करने वाले भारत के कृषि विज्ञान विश्वविद्यालय एवं कृषि केंद्रों के शोध अंतर राष्ट्रीय स्तर पर विचार का विषय हैं। इंटरनेशनल क्रॉप्स रिसर्च इंस्टीट्यूट्स (International Crops Research Institute for the Semi-Arid Tropics) भी मिलेट्स की उपयोगिता पर रिसर्च करने में व्यस्त हैं। भारत की ही तरह विश्व के तमाम कृषि अनुसंधान केंद्रों का भी यही मानना है कि, बाजरा, ज्वार, पसई का चावल जैसे मोटे अनाज अब वक्त की जरूरत बन चुके हैं। इनके मुताबिक अनाज की इन किस्मों को खाद्य उपयोग के चलन में लाने के लिए अंतर राष्ट्रीय स्तर पर IYoM जैसे साझा सहयोग की जरूरत है। मतलब मोटे अनाज की किस्मों की न केवल व्यापक स्तर पर खेती की जरूरत है, बल्कि उपजे अनाज के लिए विस्तृत बाजार नेटवर्क भी अपरिहार्य है। कृषि प्रधान देश भारत के नेतृत्व में आयोजित यूएन के IYoM 2023 मिशन के तहत लोगों को मोटे अनाज के लाभों के बारे में जागरूक किया जाएगा। इस तारतम्य के तहत हाल ही में भारत में मिलेट्स पाक उत्सव आयोजित किया गया। इसमें मोटे अनाज से बनने वाले व्यंजनों एवं उसके स्वास्थ्य लाभों के बारे में लोगों को जागरूक कर उनकी जिज्ञासाओं का समाधान किया गया।


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मिलेट्स फूड मेले में लोगों की मौजूदगी ने साबित किया कि, लोग मोटे अनाज के आहार के प्रति आकर्षित हो रहे हैं। इससे पता चलता है कि, मिलेट्स फिर चलन में लौट रहे हैं। मोटे अनाज की फसलों के लिए इसे एक सार्थक संकेत कहा जा सकता है।

मोटे अनाज की कृषि उपयोगिता

मोटा अनाज या बाजरा (मिलेट्स/MILLETS) आम तौर पर किसी भी किस्म की गुणवत्ता वाली मिट्टी में पनप सकता है। इसके लिए किसी खास किस्म की खाद, या रसायन आदि की भी जरूरत नहीं होती। तुलनात्मक रूप से इन फसलों को कीटनाशक की भी आवश्यकता नहीं है।

इसलिए स्मार्ट फूड

मोटा अनाज तेजी से चलन में लौट रहा है। इसमें खेत, जमीन, पर्यावरण के साथ ही मानव स्वास्थ्य से जुड़े लाभ ही लाभ समाहित हैं। ये अनाज धरती, किसान और इंसान के लिए लाभकारी होने के कारण इन्हें सुपर फूड कहा जा रहा है। और अधिक खासियतों की यदि बात करें, तो मोटे अनाज को उपजाने के लिए किसान को ज्यादा पानी की जरूरत नहीं पड़ती। यह अन्न किस्में तेज तापमान में भी अपना वजूद कायम रखने में सक्षम हैं। मिलेट्स फार्मिंग किसानों के लिए इसलिए भी अच्छी है, क्योंकि दूसरी फसलों के मुकाबले इनकी खेती आसान है। इसके अलवा कीट पतंगों का भी मोटे अनाज की फसल पर कम असर होता है। कीट जनित रोगों से भी ये बचे रहते हैं। मोटे अनाज (मिलेट्स/MILLETS) मानव के स्वास्थ्य के लिए काफी सेहतकारी हैं। मिलेट्स में पौष्टिक तत्व प्रचुर मात्रा में मौजूद रहता है। अनुसंधान के मुताबिक, बाजरे से मधुमेह यानी शुगर को नियंत्रित किया जा सकता है। कोलेस्ट्रॉल (cholesterol) लेवल में भी इससे सुधार होता है। कैल्शियम, जिंक और आयरन की कमी को भी बाजरा दूर करता है।


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स्वास्थ्य विशेषज्ञ भी मोटे अनाज को आहार में शामिल करने की सलाह लोगों को दे रहे हैं। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार भारत में डायबिटीज के लगभग 8 करोड़ मरीज हैं। देश में 33 लाख से अधिक बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। इनमें से आधे से अधिक गंभीर रूप से कुपोषित श्रेणी में आते हैँ। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Prime Minister Narendra Modi) कुपोषण से मुक्ति के लिए मिलेट्स रिवोल्यूशन (Millets Revolution) की दरकार जता चुके हैं। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के अनुसार पौष्टिक आहार और अच्छे स्वास्थ्य को सुनिश्चित करने के लिए भारत को बाजरा क्रांति (Millets Revolution) पर काम करने की आवश्यकता है। विशेषज्ञों की मानें तो भारत के लिए मिलेट्स रिवोल्यूशन इसलिए कठिन नहीं है, क्योंकि मक्के की रोटी, बाजरे के टिक्कड़, खीर आदि के रूप में मोटा अनाज पीढ़ियों से भारतीय थाली का अनिवार्य हिस्सा रहा है। एक तरह से जौ और बाजरा को मानव जाति के इतिहास में खाद्योपयोग में आने वाला प्राथमिक अन्न कहा जा सकता है। सिंधु घाटी की सभ्यता संबंधी अनुसंधानों में बाजरा की खेती के प्रमाण प्राप्त हुए हैं। भारत के 21 राज्यों में मोटे अनाज की खेती की जाती है। ये मोटे अनाज राज्यों में प्रचलित मान्यताओं के अनुसार अपना स्थान रखते हैं। राज्यों में मोटे अनाजों (मिलेट्स/MILLETS) को उनकी उपयोगिता एवं जरूरत के हिसाब से उपजाया जाता है। गौरतलब है कि मोटे अनाज प्रकारों से जुड़ी अपनी-अपनी मान्यताएं भी हैं।

भारत में बाजरा पैदावार

भारत प्रतिवर्ष 1.4 करोड़ टन बाजरे की पैदावार करता है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा बाजरा उत्पादक देश माना जाता है। हालांकि बीते 50 सालों में इससे जुड़ी कृषि उत्पादक भूमि घटकर कम होती गई है। यह भूमि 3.8 करोड़ हेक्टेयर से घटकर मात्र 1.3 करोड़ हेक्टेयर के आसपास रह गई है। 1960 के दशक में उत्पन्न बाजरा की तुलना में आज बाजरा की पैदावार कम हो गई है। तब भारत खाद्य सहायता पर निर्भर था। भारत को उस समय देशवासियों के पोषण के लिए अनाज का आयात करना पड़ता था।


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क्यों पिछड़ा सुपर फूड

खाद्य मामलों में आत्मनिर्भरता हासिल करने एवं कुपोषण पर लगाम कसने के लिए भारत में हरित क्रांति हुई। इसके परिणाम स्वरूप 60 के दशक के उपरांत भारत में गेहूं एवं चावल की अधिक पैदावार वाली किस्मों को खेत में अधिक स्थान मिलता गया। भारत में 1960 और 2015 के बीच गेहूं का उत्पादन तीन गुना से भी अधिक हुआ। चावल के उत्पादन में इस दौरान 8 सौ फीसद वृद्धि हुई। गेहूं, चावल का दायरा जहां इस कालखंड में बढ़ता गया वहीं बाजरा, ज्वार जैसे मोटे अनाज की पैदावार का क्षेत्रफल सिमटता गया। गेहूं अनाज को प्रोत्साहन देने के चक्कर में बाजरा और उसके जैसे दूसरे पारंपरिक ताकतवर मोटे अनाज की अन्य किस्मों की उपेक्षा हुई। नतीजतन मिलेट्स की पैदावार कम होती गई। दरअसल बाजरा और मोटे अनाज को पकाना सभी को नहीं आता एवं उसको खाद्य उपयोगी बनाने के लिए भी काफी समय लगता है। इस कारण दशकों से इनका बेहद कम उपयोग किया जा रहा है। बाजार ने भी मोटे अनाज की उपेक्षा की है।

समझ आई उपयोगिता

प्राकृतिक अनाज आहार के प्रति जागरूक होती आज की पीढ़ी को अब समय के साथ-साथ मोटे अनाज की उपयोगिता समझ आ रही है। भुलाई गई अनाज की इन किस्मों को चलन में वापस लाने के लिए चावल और गेहूं की फसलों की ही तरह सरकारों को खास ध्यान देना होगा। भारतीय कृषि वैज्ञानिक ज्वार, बाजरा जैसे मोटे अनाजों की किस्मों पर व्यापक शोध कर रहे हैं। इनके द्वारा दिए गए सुझावों से किसानों को लाभ भी मिल रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले दो सालों के दौरान बाजरा की मांग में उल्लेखनीय रूप से 146 प्रतिशत तक की वृद्धि हुई है।

बाजरा में बाजरा

बाजार में अब बाजरा जैसे मोटे अनाज से बने तमाम प्रोडक्ट्स उपलब्ध हैं। मिलेट का आटा, कुकीज, चिप्स आदि पैक्ड आइटम्स की खुदरा बाजार, सुपर मार्केट एवं ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर खासी डिमांड है।


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पीडीएस प्रोसेस

भारत में पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम - पीडीएस (Public Distribution Service - PDS) यानी सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से हितग्राहियों को 1 रुपया प्रति किलो की दर से बाजरा प्रदान किया जा रहा है। कुछ राज्यों में मोटे अनाज से बने व्यजनों को दोपहर आहार (मिड डे मील - Mid Day Meal Scheme) योजना के तहत परोसा जा रहा है। मतलब सरकार और बाजार को बाजरे की मार्केट वैल्यू पता लगने पर इसकी हैसियत लगातार बढ़ती जा रही है। गरीब का भोजन बताकर किनारे कर दिया गया बाजरा जैसा ताकतवर अनाज, सुपर फूड मिलेट्स (MILLETS) के रूप में फिर नई पहचान बना रहा है।
जौ की खेती से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी

जौ की खेती से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि जौ कई उत्पाद निर्मित करने में काम आता है, जैसे दाने, पशु आहार, चारा और अनेक औद्यौगिक उपयोग (शराब, बेकरी, पेपर, फाइबर पेपर, फाइबर बोर्ड जैसे उत्पाद) बनाने के काम आता है। जौ रबी मौसम में बोई जाने वाली प्रमुख फसलों में से एक है, विगत कुछ वर्षों में बाजार में जौ की मांग बढ़ने से किसानों को इसकी खेती से मुनाफा भी हो रहा है। भारत में बिहार, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, गुजरात, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश और जम्मू व कश्मीर में जौ की खेती की जाती है। भारत में आठ लाख हेक्टेयर भूमि में प्रति वर्ष तकरीबन 16 लाख टन जौ का उत्पादन होता है।

जौ का इस्तेमाल कई प्रकार के उत्पादों को बनाने में किया जाता है

जैसा कि हम सब जानते हैं, कि जौ कई उत्पादों में काम आता है। जैसे कि दाने,
पशु आहार, चारा और अनेक औद्यौगिक उपयोग (शराब, बेकरी, पेपर, फाइबर पेपर, फाइबर बोर्ड जैसे उत्पाद) निर्माण के काम आता है। जौ की खेती ज्यादातर कम उर्वरा शक्ति वाली भूमियों में क्षारीय एवं लवणीय भूमियों में और पछेती बुवाई की परिस्थितियों में की जाती है। परंतु, उन्नत विधियों द्वारा जौ की खेती करने से औसत उत्पादन ज्यादा प्राप्त किया जा सकता है। ज्यादा पैदावार पाने के लिए अपने क्षेत्र के हिसाब से विकसित किस्मों का चुनाव करें। जौ की प्रजातियों में उत्तरी मैदानी क्षेत्रों के लिए ज्योति, आजाद, के-15, हरीतिमा, प्रीति, जागृति, लखन, मंजुला, नरेंद्र जौ-1,2 और 3, के-603, एनडीबी-1173 जौ की प्रमुख प्रजातियां हैं। यह भी पढ़ें: खरीफ सीजन क्या होता है, इसकी प्रमुख फसलें कौन-कौन सी होती हैं

जौ की बुवाई का उपयुक्त समय

जौ के लिए वक्त पर बुवाई करने से 100 किग्रा. बीज प्रति हैक्टेयर की आवश्यकता होती है। अगर बुवाई विलंभ से की गई है तो बीज की मात्रा में 25 प्रतिशत का इजाफा कर देना चाहिये। जौ की बुवाई का वक्त नवम्बर के पहले सप्ताह से आखिरी सप्ताह तक होता है। लेकिन, विलंभ होने पर बुवाई मध्य दिसम्बर तक की जा सकती है। बुवाई पलेवा करके ही करनी चाहिये और पंक्ति से पंक्ति का फासला 22.5 सेमी. और देरी से बुवाई की स्थिति में पंक्ति से पंक्ति की दूरी 25 सेमी. रखनी चाहिये।

बीजोपचार और बेहतरीन गुणवत्ता वाले बीज की पैदावार में भूमिका

बीजोपचार ज्यादा पैदावार प्राप्त करने के लिए अच्छी गुणवत्ता वाले बीज की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। बहुत से कीट एवं बीमारियों के प्रकोप को रोकने के लिए बीज का उपचारित होना बेहद जरूरी है। कंडुआ व स्मट रोग पर लगाम लगाने के लिए बीज को वीटावैक्स या मैन्कोजैब 2 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करना चाहिये। दीमक पर नियंत्रण के लिए 100 किग्रा. बीज को क्लोरोपाइरीफोस (20 ईसी) की 150 मिलीलीटर या फोरमेंथियोन (25 ईसी) की 250 मिलीलीटर द्वारा बीज को उपचारित करके बिजाई करनी चाहिये। भूमि और उसकी तैयारी जौ की खेती अनेक प्रकार की भूमियों जैसे बलुई, बलुई दोमट या दोमट जमीन में की जा सकती है। परंतु, दोमट भूमि जौ की खेती के लिए सबसे अच्छी होती है। क्षारीय व लवणीय भूमियों में सहनशील किस्मों की बुवाई करनी चाहिये। खेत में जल निकासी की बेहतर व्यवस्था होनी चाहिये। यह भी पढ़ें: जौ की खेती में फायदा ही फायदा

जौ की खेती हेतु भूमि व उसकी तैयारी

जौ की अत्यधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए भूमि को बेहतर ढ़ंग से तैयार करना चाहिये। खेत में खरपतवार नहीं रहना चाहिये और अच्छी प्रकार से जुताई करके मृदा भुरभुरी बना देनी चाहिये। खेत में पाटा लगाकर खेत समतल एवं ढेलों रहित कर देनी चाहिये। खरीफ फसल की कटाई के उपरांत डिस्क हैरो से जुताई करनी चाहिये। इसके उपरांत दो क्रोस जुताई हैरो से करके पाटा लगा देना चाहिये। आखिरी जुताई से पूर्व खेत में 25 किलो. एन्डोसल्फॅान (4 प्रतिशत) या क्यूनालफॉस (1.5 प्रतिशत) या मिथाइल पैराथियोन (2 प्रतिशत) चूर्ण को समान रूप से छिड़कना चाहिये। सिंचाई जौ की बेहतरीन पैदावार प्राप्त करने के लिए चार-पांच सिंचाई पर्याप्त होती है। पहली सिंचाई बुवाई के 25-30 दिन पश्चात करनी चाहिये। इस वक्त पौधों की जड़ों की उन्नति होती है। दूसरी सिंचाई 40-45 दिन उपरांत देने से बालियां अच्छी लगती हैं। इसके उपरांत तीसरी सिंचाई फूल आने पर और चौथी सिंचाई दाना दूधिया अवस्था में आने की स्थिति पर करनी चाहिये।
जौ की फसल का शानदार उत्पादन पाने के लिए इन बातों की जानकारी बेहद आवश्यक

जौ की फसल का शानदार उत्पादन पाने के लिए इन बातों की जानकारी बेहद आवश्यक

जौ की खेती रेतीली से लगाकर मध्यम दोमट मृदा तक में की जा सकती है। परन्तु, इसकी शानदार उपज प्राप्त करने के लिए समुचित जल निकासी एवं अच्छी उर्वरकता वाली दोमट मृदा उपयुक्त मानी जाती है। जौ की खेती बाकी तरह की भूमि जैसे-लवणीय, क्षारीय अथवा हल्की मृदा में भी की जा सकती है।

बुआई का समय

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि इसकी बिजाई के लिए जो बीज इस्तेमाल में लाया जाए, वह रोगमुक्त, प्रमाणित क्षेत्र के अनुसार उन्नत किस्म का होना चाहिए। बीजों में किसी अन्य किस्म के बीज उपलब्ध नहीं होने चाहिए। बोने से पूर्व बीज के अंकुरण का परीक्षण अवश्य कर लेना चाहिए। जौ रबी मौसम की फसल है, जिसे सर्दी के मौसम में उत्पादित किया जाता है। सामान्य तौर पर इसकी बिजाई अक्टूबर से लेकर दिसंबर तक की जाती है।

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सिंचाई 

असिंचित क्षेत्राें में 20 अक्टूबर से 10 नवंबर तक जौ की बिजाई करनी चाहिए। वहीं, सिंचित क्षेत्राें में 25 नवंबर तक बिजाई कर देनी चाहिए। पछेती जौ की बिजाई 15 दिसंबर तक कर देनी चाहिए।

बीज एवं बीजाेपचार

जौ के लिए 80-100 कि.ग्रा. बीज प्रति हैक्टयर बिजाई के लिए उपयुक्त है। जौ की बिजाई हल के पीछे कूंड़ों में अथवा सीडड्रिल से 20-25 सें.मी. पंक्ति से पंक्ति की दूरी पर 5-6 सें.मी. गहराई पर करें। असिंचित दशा में 6-8 सें.मी. गहराई में बिजाई करें। बीज से उत्पन्न होने वाले रोगों पर नियंत्रण के लिए बीज उपचार जरूरी है। खुली कंगियारी से संरक्षण के लिए 2 ग्राम बाविस्टन अथवा वीटावैक्स से प्रति कि.ग्रा. बीज उपचारित करें। बंद कंगियारी पर काबू करने हेतु थीरम तथा बाविस्टीन/ वीटावैक्स को 1:1 के अनुपात में मिलाकर 2.5 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज के लिए उपयोग करें।

असिंचित एवं सिंचित क्षेत्राें के लिए प्रजातियां 

जौ की छिलका वाली उन्नत प्रजातियां जैसे कि - अंबर, ज्योति, आजाद, के 141, आरडी 2035, आर.डी. 2052, आरडी 2503, आरडी 2508, आरडी 2552, आरडी 2559, आरडी 2624, आरडी 2660, आर.डी. 2668, आरडी 2660, हरितमा, प्रीती, जागृति, लखन, मंजुला, आरएस 6, नरेंद्र जाै1, नरेंद्र जाै 2, नरेंद्र जाै 3, के 603, एनडीबी 1173, एसओ 12 हैं। बिना छिलके वाली उन्नत प्रजातियां गीतांजलि (के-1149), डीलमा, नरेंद्र जौ 4 (एनडीबी 943)

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ऊसरीली भूमि के लिए कुछ बेहतर किस्में  

आजाद, के-141, जे.बी. 58, आर.डी. 2715, आर.डी. 2786, पी.एल. 751, एच.बीएल. 316, एच.बी.एल. 276, बी.एलबी. 85, बी.एल.बी. 56 लवणीय एवं क्षारीय भूमि के लिए एन.डी.बी. 1173, आर.डी. 2552, आर.डी 2794, नरेन्द्र जौ-1, नरेन्द्र जौ-3 हैं।

माल्ट बीयर के लिए उन्नत शानदार किस्में 

प्रगति, तंभरा, डीएल 88 (6 धारीय), आरडी 2715, डीडब्ल्यूआर 28 रेखा (2 धारीय) एवं डी.डब्ब्लूू आर. 28 तथा अन्य प्रजातियां जैसे-डी.डब्ल्यूआर.बी.91, डी.डब्ल्यू.आर.यू.बी. 52, बी.एच. 393, पी.एल. 419, पी.एल. 426, के. 560, के.-409, एन..आरजौ-5 आदि हैं। 

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जौ की फसल में उर्वरकाें का उपयोग इस प्रकार करें  

उर्वरकों का इस्तेमाल मृदा परीक्षण के आधार पर ही करना बेहतर रहता है। असिंचित दशा के लिए एक हैक्टेयर में 40 कि.ग्रा. नाइट्रोजन, 20 कि.ग्रा. फॉस्फोरस और 20 कि.ग्रा. पोटाश का इस्तेमाल करें। सिंचित तथा समय से बुआई के लिए प्रति हैक्टर 60 कि.ग्रा. नाइट्राेजन, 30 कि.ग्रा. फास्फाेरस तथा 20 कि.ग्रा. पोटाश और माल्ट प्रजातियाें के लिए 80 कि.ग्रा. नाइट्राेजन, 40 कि.ग्रा. फॉस्फोरस और 20 कि.ग्रा पोटाश इस्तेमाल करें। ऊसर और विलंब से बिजाई की दशा में नाइट्रोजन 30 कि.ग्रा., फॉस्फेट 20 कि.ग्रा. और जिंक सल्फेट 20-25 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर उपयोग करें।
ज्वार की खेती में बीजोपचार और इसमें लगने वाले कीट व रोगों की रोकथाम से जुड़ी जानकारी

ज्वार की खेती में बीजोपचार और इसमें लगने वाले कीट व रोगों की रोकथाम से जुड़ी जानकारी

रबी की फसलों की कटाई प्रबंधन का कार्य कर किसान भाई अब गर्मियों में अपने पशुओं के चारे के लिए ज्वार की बुवाई की तैयारी में हैं। 

अब ऐसे में आपकी जानकारी के लिए बतादें कि बेहतर फसल उत्पादन के लिए सही बीज मात्रा के साथ सही दूरी पर बुआई करना बहुत जरूरी होता है। 

बीज की मात्रा उसके आकार, अंकुरण प्रतिशत, बुवाई का तरीका और समय, बुआई के समय जमीन पर मौजूद नमी की मात्रा पर निर्भर करती है। 

बतादें, कि एक हेक्टेयर भूमि पर ज्वार की बुवाई के लिए 12 से 15 किलोग्राम बीज की आवश्यकता पड़ती है। लेकिन, हरे चारे के रूप में बुवाई के लिए 20 से 30 किलोग्राम बीजों की आवश्यकता पड़ती है। 

ज्वार के बीजों की बुवाई से पूर्व बीजों को उपचारित करके बोना चाहिए। बीजोपचार के लिए कार्बण्डाजिम (बॉविस्टीन) 2 ग्राम और एप्रोन 35 एस डी 6 ग्राम कवकनाशक दवाई प्रति किलो ग्राम बीज की दर से बीजोपचार करने से फसल पर लगने वाले रोगों को काफी हद तक कम किया जा सकता है। 

इसके अलावा बीज को जैविक खाद एजोस्पाइरीलम व पी एस बी से भी उपचारित करने से 15 से 20 फीसद अधिक उपज प्राप्त की जा सकती है।

इस प्रकार ज्वार के बीजों की बुवाई करने से मिलेगी अच्छी उपज ?

ज्वार के बीजों की बुवाई ड्रिल और छिड़काव दोनों तरीकों से की जाती है। बुआई के लिए कतार के कतार का फासला 45 सेंटीमीटर रखें और बीज को 4 से 5 सेंटीमीटर तक गहरा बोयें। 

अगर बीज ज्यादा गहराई पर बोया गया हो, तो बीज का जमाव सही तरीके से नहीं होता है। क्योंकि, जमीन की उपरी परत सूखने पर काफी सख्त हो जाती है। कतार में बुआई देशी हल के पीछे कुडो में या सीडड्रिल के जरिए की जा सकती है।

सीडड्रिल (Seed drill) के माध्यम से बुवाई करना सबसे अच्छा रहता है, क्योंकि इससे बीज समान दूरी पर एवं समान गहराई पर पड़ता है। ज्वार का बीज बुआई के 5 से 6 दिन उपरांत अंकुरित हो जाता है। 

छिड़काव विधि से रोपाई के समय पहले से एकसार तैयार खेत में इसके बीजों को छिड़क कर रोटावेटर की मदद से खेत की हल्की जुताई कर लें। जुताई हलों के पीछे हल्का पाटा लगाकर करें। इससे ज्वार के बीज मृदा में अन्दर ही दब जाते हैं। जिससे बीजों का अंकुरण भी काफी अच्छे से होता है।  

ज्वार की फसल में खरपतवार नियंत्रण कैसे करें ?

यदि ज्वार की खेती हरे चारे के तोर पर की गई है, तो इसके पौधों को खरपतवार नियंत्रण की आवश्यकता नहीं पड़ती। हालाँकि, अच्छी उपज पाने के लिए इसके पौधों में खरपतवार नियंत्रण करना चाहिए। 

ज्वार की खेती में खरपतवार नियंत्रण प्राकृतिक और रासायनिक दोनों ही ढ़ंग से किया जाता है। रासायनिक तरीके से खरपतवार नियंत्रण के लिए इसके बीजों की रोपाई के तुरंत बाद एट्राजिन की उचित मात्रा का स्प्रे कर देना चाहिए। 

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वहीं, प्राकृतिक ढ़ंग से खरपतवार नियंत्रण के लिए इसके बीजों की रोपाई के 20 से 25 दिन पश्चात एक बार पौधों की गुड़ाई कर देनी चाहिए। 

ज्वार की कटाई कब की जाती है ?

ज्वार की फसल बुवाई के पश्चात 90 से 120 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। कटाई के उपरांत फसल से इसके पके हुए भुट्टे को काटकर दाने के लिए अलग निकाल लिया जाता है। ज्वार की खेती से औसत उत्पादन आठ से 10 क्विंटल प्रति एकड़ हो जाता है। 

ज्वार की उन्नत किस्में और वैज्ञानिक विधि से उन्नत खेती से अच्छी फसल में 15 से 20 क्विंटल प्रति एकड़ दाने की उपज हो सकती है। बतादें, कि दाना निकाल लेने के उपरांत करीब 100 से 150 क्विंटल प्रति एकड़ सूखा पौैष्टिक चारा भी उत्पादित होता है। 

ज्वार के दानों का बाजार भाव ढाई हजार रूपए प्रति क्विंटल तक होता है। इससे किसान भाई को ज्वार की फसल से 60 हजार रूपये तक की आमदनी प्रति एकड़ खेत से हो सकती है। साथ ही, पशुओं के लिए चारे की बेहतरीन व्यवस्था भी हो जाती है। 

ज्वार की फसल को प्रभावित करने वाले प्रमुख रोग और कीट व रोकथाम 

ज्वार की फसल में कई तरह के कीट और रोग होने की संभावना रहती है। समय रहते अगर ध्यान नहीं दिया गया तो इनके प्रकोप से फसलों की पैदावार औसत से कम हो सकती है। ज्वार की फसल में होने वाले प्रमुख रोग निम्नलिखित हैं।

तना छेदक मक्खी : इन मक्खियों का आकार घरेलू मक्खियों की अपेक्षा में काफी बड़ा होता है। यह पत्तियों के नीचे अंडा देती हैं। इन अंडों में से निकलने वाली इल्लियां तनों में छेद करके उसे अंदर से खाकर खोखला बना देती हैं। 

इससे पौधे सूखने लगते हैं। इससे बचने के लिए बुवाई से पूर्व प्रति एकड़ भूमि में 4 से 6 किलोग्राम फोरेट 10% प्रतिशत कीट नाशक का उपयोग करें।

ज्वार का भूरा फफूंद : इसे ग्रे मोल्ड भी कहा जाता है। यह रोग ज्वार की संकर किस्मों और शीघ्र पकने वाली किस्मों में ज्यादा पाया जाता है। इस रोग के प्रारम्भ में बालियों पर सफेद रंग की फफूंद नजर आने लगती है। इससे बचाव के लिए प्रति एकड़ भूमि में 800 ग्राम मैन्कोजेब का छिड़काव करें।

सूत्रकृमि : इससे ग्रसित पौधों की पत्तियां पीली पड़ने लगती हैं। इसके साथ ही जड़ में गांठें बनने लगती हैं और पौधों का विकास बाधित हो जाता है। 

रोग बढ़ने पर पौधे सूखने लगते हैं। इस रोग से बचाव के लिए गर्मी के मौसम में गहरी जुताई करें। प्रति किलोग्राम बीज को 120 ग्राम कार्बोसल्फान 25% प्रतिशत से उपचारित करें।

ज्वार का माइट : यह पत्तियों की निचली सतह पर जाल बनाते हैं और पत्तियों का रस चूस कर पौधों को नुकसान पहुंचाते हैं। इससे ग्रसित पत्तियां लाल रंग की हो कर सूखने लगती हैं। इससे बचने के लिए प्रति एकड़ जमीन में 400 मिलीग्राम डाइमेथोएट 30 ई.सी. का स्प्रे करें।

लुटेरों के आतंक से परेशान किसान, डर के मारे छोड़ी चना और मसूर की खेती

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मध्य प्रदेश के सागर में किसान लुटेरों के आतंक से इस कदर परेशान हैं, कि कई किसान चना और मसूर की खेती करना छोड़ चुके हैं. इतना ही नहीं फसलों के लुटेरों की वजह से गेहूं की खेती करना भी किसानों के लिए मुश्किल भरा हो सकता है. किसानों ने जिला प्रशासन से लेकर सीएम हेल्पलाइन तक में शिकायत कर चुके हैं, लेकिन उनकी समस्या का समाधान अब तक नहीं हो सका है. आपको बता दें जिले के जो भी गांव जंगल से जुड़े हुए हैं, उस इलाके के किसान खासा जानवरों से सबसे ज्यादा परेशान हैं. फसलों के लुटेरे यानि की जंगली जानवरों से किसान इस कदर परेशान हैं कि वो अब अपनी खेती तक को छोड़ने पर मजबूर हो गये हैं. फसलों पर हमेशा बन्दर, हिरण, नीलगाय और सूअर जैसे जंगली जनवरों का ही राज रहता है. इतना ही नहीं अगर किसान कुछ देर के लिए खेतों से बाहर निकट है, वैसे ही ये फसलों के लुटेरे अपना काम शुरू कर देते हैं. इतना ही नहीं सागर के कुछ ऐसे गांव भी हैं, जहां बंदरों का आतंक लगातार बढ़ रहा है. इनसे परेशान होकर किसानों ने चने की खेती करना ही छोड़ दिया है. किसानों की मानें तो, उनकी परेशानी कम होने का नाम नहीं ले रही है. किसानों के सामने पहले फसलों से जुड़ी समस्याएं हुआ करती थीं, लेकिन अब जंगली जानवरों से अपनी फसलों को बचाने की भी चुनौती सिर पर खड़ी हो चुकी है. उन्हें अपने बच्चे खेतों में अकेले भेजने पर भी डर लगता है. खेती किसानी के साथ साथ किसानों को अपना अलग से समय खेतों की रखवाली करने के लिए निकालना पड़ता है.

आपसी सहमती से बंद कर दी चने की खेती

किसानों की मानें तो, जब भी वो चने की खेती करते थे, तब बंदरों का आतंक इस कदर बढ़ जाता था, कि कुछ ही देर में चने की फसलों को चट कर जाते थे. इसलिए किसानों ने आपसी सहमती से यह बड़ा कदम उठाया और चने की खेती करना ही बंद कर दिया. लेकिन समस्या का हल तब भी नहीं हुआ. जब किसानों ने गेहूं की खेती करना शुरू की तो बन्दर गेहूं की फसलें भी तबाह कर रहे हैं. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक इलाके में पानी की काफी कमी है. जिस वजह से किसान चना, मसूर, सरसों की खेती करते थे, जिससे उनके खेत में कुछ ना कुछ फसलें रह सकें. ताकि उन्हें अपना गुजर बसर करने में आराम रहे. लेकिन कभी मौसम की मार तो कभी सूखे का कहर, किसान हर तरफ से पेशान है. किसानों की इस परेशानी को और भी बढ़ाने के लिए जंगली जानवरों ने कोई कसर नहीं छोड़ी है.

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कहीं से नहीं मिल रही मदद

जिले के कुछ गांव ऐसे भी हैं, जहां किसानों को पानी की कोई समस्या नहीं, और वो खेती तो कर रहे हैं, लेकिन जानवरों के आतंक से पूरी फसलें बर्बाद हो जाती हैं. इस कारण जब फसलें बिछ जाती हैं, और फिर उन्हें सम्भालना मुश्किल हो जाता है. किसानों ने मामले की शिकायत सीएम हेल्पलाइन से लेकर कई जगहों पर कर चुके हैं. लेकिन उनकी समस्या का कोपी समाधान नहीं हो सका है. जिसके बाद हारे किसानों ने सारी उम्मीदों को छोड़ दिया है. जिसके बाद वो शिकायत करने के साथ साथ चने की खेती करना भी छोड़ चुके हैं.
अप्रैल माह में करें मूंग की खेती बेहतर उपज के साथ होगा खूब मुनाफा

अप्रैल माह में करें मूंग की खेती बेहतर उपज के साथ होगा खूब मुनाफा

रबी फसलों की कटाई अब लगभग पूरी हो चुकी है। इसके साथ ही किसान अब अगली फसलों की तैयारी में जुट गए हैं। इन दिनों देश के कई हिस्सों में किसान मूंग की खेती करने की तैयारी कर रहे हैं। 

हालांकि, कई बार किसानों को ये शिकायत रहती है की उन्हें मनचाही पैदावार नहीं मिली। जिस वजह से उन्हें अच्छा मुनाफा नहीं हो पाता है। 

आज की इस खबर में हम आपको कृषि सलाहकारों द्वारा बताए गए कुछ खास तरीके बताएंगे, जिससे आपको अच्छी पैदावार मिल सकती है। 

खेत को तैयार करना बेहद जरूरी

किसी भी चीज की खेती करने से पहले खेत को तैयार करना बेहद जरूरी है। कृषि सलाहकारों की मानें तो मूंग की बेहतर पैदावार लेने के लिए सबसे पहले खेतों की गहरी जुताई कर मिट्टी को पलट देना चाहिए। 

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फिर दो बार कल्टीवेटर से खेत की मिट्टी को ढीला करें। फसलों को दीमक से बचाने के लिए अंतिम जुताई से पहले 1.5% क्विनाफॉस पाउडर 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में फैलाएं, फिर जुताई करके मिट्टी में मिला दें। 

मूंग के सही बीज का चयन करना बेहद जरूरी 

मूंग की खेती में सही बीजों का चुनाव काफी महत्वपूर्ण है। कृषि सलाहकारों की मानें तो किसानों को गर्मी के महीनों के दौरान संकर बीजों का चयन करना चाहिए। 

उत्पादकता के अलावा, संकर बीजों में उच्च तापमान सहनशीलता भी होती है। अगर आप सही बीजों का चयन करते हैं तो आपकी पैदावार भी अच्छी होगी, जिससे आप अच्छा मुनाफा कमा पाएंगे। 

किसान भाई उचित बीजों का उपचार करें 

ग्रीष्मकालीन मूंग की बुवाई में 20-25 किलोग्राम प्रति एकड़ मूंग लेना चाहिए, जिसे 3 ग्राम थायरम फफूंदनाशक दवा से प्रति किलो बीज के हिसाब से उपचारित करने से बीज और भूमि जन्य बीमारियों से फसल सुरक्षित रहती है। 

इसके अलावा आप इफको की सागरिका, नैनो डीएपी से भी बीज उपचारित करा सकते हैं। इसके अलावा 600 ग्राम राइज़ोबियम कल्चर को किसी पात्र में लेकर 1 लीटर पानी में डाल दें। साथ ही 250 ग्राम गुड़ के साथ मिश्रित कर गर्म कर लें, जिसके ठंडा होने पर बीज को उपचारित कर छांव में सुखा लें और बुवाई कर दें। 

किसान भाई सही उर्वरकों का प्रयोग करें 

अगर संभव हो तो पहले मिट्टी का परीक्षण करें, ताकि आप आवश्यक उर्वरक और खाद डाल सकें। वैसे तो रबी के मौसम में मिट्टी में डाला गया उर्वरक कुछ हद तक मूंग की फसल के लिए कारगर होता है। 

लेकिन, इसके बावजूद खेतों में कम से कम 5 से 10 टन गोबर या कम्पोस्ट जरूर डालें। इससे भविष्य की फसलों को भी फायदा होगा। 

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इसके अलावा, मूंग की खेती के दौरान 20 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40 किलोग्राम फास्फोरस, 20 किलोग्राम पोटेशियम, 25 किलोग्राम सल्फर और 5 किलोग्राम जस्ता का भी इस्तेमाल करें। 

मूंग की सिंचाई का सही समय

दरअसल, ग्रीष्मकालीन मूंग को ज्यादा पानी की जरूरत नहीं होती है। मूंग की फसल 25 से 40 डिग्री तक तापमान तक सहन कर सकती है। 

हालांकि, यदि फूल आने की अवधि के दौरान सूखे की स्थिति में इसकी सिंचाई की जाए, तो उपज में काफी वृद्धि होगी। 

किसान इस रबी सीजन में मटर की इन उन्नत किस्मों से बेहतरीन उत्पादन उठा सकते हैं

किसान इस रबी सीजन में मटर की इन उन्नत किस्मों से बेहतरीन उत्पादन उठा सकते हैं

किसानों के द्वारा रबी के सीजन में मटर की बिजाई अक्टूबर माह से की जाने लगती है। आज हम आपको इसकी कुछ प्रमुख उन्नत किस्मों के विषय में जानकारी देने जा रहे हैं। किसान कम समयावधि में तैयार होने वाली मटर की किस्मों की बुवाई सितंबर माह के अंतिम सप्ताह से लेकर अक्टूबर के बीच तक कर सकते हैं। इसकी खेती से किसान अपनी आमदनी को दोगुना तक कर सकते हैं। बतादें, कि इसमें काशी नंदिनी, काशी मुक्ति, काशी उदय और काशी अगेती प्रमुख फसलें हैं। इनकी विशेष बात है, कि यह 50 से 60 दिन के दौरान पककर तैयार हो जाती हैं। इससे खेत शीघ्रता से खाली हो जाता है। इसके पश्चात किसान सुगमता से दूसरी फसलों की बिजाई कर सकते हैं। किसान भाई कम समयावधि में तैयार होने वाली मटर की प्रजातियों की बुवाई सितंबर के अंतिम सप्ताह से लेकर अक्टूबर के बीच तक कर दी जाती है।

मटर की उन्नत किस्म

मटर की उन्नत किस्म काशी नंदिनी

इस किस्म को साल 2005 में विकसित किया गया था। इसकी खेती जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल, उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल और पंजाब में की जाती है। इससे प्रति हेक्टेयर औसतन 110 से 120 क्विंटल तक पैदावार हांसिल की जा सकती है।

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मटर की उन्नत किस्म काशी मुक्ति

यह किस्म मुख्य तौर पर झारखंड, उत्तर प्रदेश, पंजाब और बिहार के लिए अनुकूल मानी जाती है। आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि इससे प्रति हेक्टेयर 115 क्विंटल तक उत्पादन हांसिल हो सकता है। इसकी फलियां और दाने काफी बड़े होते हैं। मुख्य बात यह है, कि इसकी विदेशों में भी काफी मांग रहती है।

मटर की उन्नत किस्म काशी अगेती

यह किस्म 50 दिन की समयावधि में पककर तैयार हो जाती है। बतादें, कि इसकी फलियां सीधी और गहरी होती हैं। इसके पौधों की लंबाई 58 से 61 सेंटीमीटर तक होती है। इसके 1 पौधे में 9 से 10 फलियां लग सकती हैं। इससे प्रति हेक्टेयर 95 से 100 क्विंटल तक का पैदावार प्राप्त हो सकता है।

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मटर की उन्नत किस्म काशी उदय

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि इस प्रजाति को साल 2005 में तैयार किया गया था। इसकी खासियत यह है, कि इसकी फली की लंबाई 9 से 10 सेंटीमीटर तक होती है। इसकी खेती प्रमुख रूप से उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड में की जाती है। इससे प्रति हेक्टेयर 105 क्विंटल तक की पैदावार मिल सकती है। आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि इसकी खेती से किसान अपनी आमदनी को दोगुना तक कर सकते हैं। इसमें काशी मुक्ति, काशी उदय, काशी अगेती और काशी नंदिनी प्रमुख हैं। इनकी विशेष बात है, कि यह 50 से 60 दिन के अंदर तैयार हो जाती हैं। इससे खेत जल्दी खाली हो जाता है। इसके उपरांत किसान आसानी से दूसरी फसलों की बुवाई कर सकते हैं।