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GM Mustard: आखिर जीएम सरसों क्या है और इसके क्या फायदे हैं ?

GM Mustard: आखिर जीएम सरसों क्या है और इसके क्या फायदे हैं ?

भारत में तेल का आयात काफी बड़ी मात्रा में किया जाता है। भारत सरकार की तरफ से जीएम सरसों की व्यवसायिक की खेती को मंजूरी दिए जानें के बाद इस पर विवाद जारी है। भारत में आजकल जीएम सरसों (जेनेटिकली मॉडिफाइड सरसों) की व्यवसायिक खेती पर काफी बहस छिड़ी हुई है। केंद्र सरकार द्वारा इसकी व्यवसायिक खेती को स्वीकृति दिए जानें के उपरांत इस पर विवाद जारी है। बीते दिनों सुप्रीम कोर्ट में इस पर बहस भी हुई। परंतु, यहां जानने वाली बात यह है, कि अंततः जीएम सरसों पर विवाद क्यों छिड़ा है।

आखिर जीएम सरसों क्या है और इसके क्या फायदें हैं ? दरअसल, ये विवाद तब आरंभ हुआ था जब विगत वर्ष केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय के बायोटेक नियामक जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रेजल कमेटी ने जीएम सरसों की व्यवसायिक खेती को स्वीकृति दी थी। समिति के इस निर्णय के बाद बहुत सारे किसान समूहों, एजीओ और पर्यावरण से संबंधित संगठनों ने इसका काफी विरोध किया था। इसके बाद ये मामला कोर्ट जा पहुंचा था।

इसके खिलाफ मोर्चा में खड़े संगठनों का क्या कहना है ?

अब जहां एक तरफ इसके विरुद्ध खड़े संगठनों का कहना है, कि भारत में जीएम सरसों के इस्तेमाल के चलते खेती को काफी हानि पहुंचेगी। साथ ही, विशेषज्ञों के मुताबिक, इससे उत्पादकता में बढ़ोतरी होगी और कृषकों को इससे काफी लाभ होगा। विशेषज्ञों का ये भी कहना है, कि बहुत सारे देशों में इसकी खेती सफल ढ़ंग से की जा रही है। ऐसी स्थिति में यदि भारत भी इसे अपनाता है, तो आगामी समय में इसके बहुत सारे लाभ होंगे। परंतु, इससे कृषकों का क्या लाभ होगा ?

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जीएम सरसों के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी 

जेनेटिकली मॉडिफाइड सरसों (जीएम सरसों), सरसों की एक प्रजाति है, जिसको पौधों की दो भिन्न-भिन्न किस्मों को मिलाकर निर्मित किया गया है। इसका मतलब यह है, कि यह एक हाइब्रिड प्रजाति है, जिसे लैब में निर्मित किया गया है। इसमें रोग लगने की संभावना काफी कम होते हैं। साथ ही, इसका उत्पादन भी अधिक रहता है। अब ऐसी क्रॉसिंग से मिलने वाली फर्स्ट जेनरेशन हाइब्रिड प्रजाति की उपज मूल किस्मों से अधिक होने की संभावना रहती है। हालांकि, सरसों के साथ ऐसा करना सहज नहीं था। इसकी वजह यह है, कि इसके फूलों में नर और मादा, दोनों रीप्रोडक्टिव ऑर्गन होते हैं। मतलब कि सरसों का पौधा काफी हद तक स्वयं ही पोलिनेशन कर लेता है। किसी दूसरे पौधे से परागण की आवश्यकता नहीं होती है। ऐसे में मक्का, टमाटर अथवा कपास की भांति सरसों की हाइब्रिड किस्म निर्मित करने का अवसर काफी कम हो जाता है।

जीएम सरसों का उत्पादन करने के विभिन्न लाभ 

उत्पादकता में वृद्धि: समर्थकों का यह तर्क है, कि जीएम सरसों, विशेष रूप से धारा सरसों हाइब्रिड (डीएमएच-11) में सरसों की फसल की उत्पादकता में उल्लेखनीय विकास करने की क्षमता है। इस वजह से वर्तमान में भारत के अंदर सरसों की खेती देखने को सामने आ रही है। कम उत्पादकता की समस्या से निपटने में सहायता मिल सकती है।

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आयात निर्भरता में कमी: भारत बड़ी मात्रा में खाद्य तेलों का आयात करता है और जीएम सरसों घरेलू सरसों तेल उत्पादन को बढ़ाकर इस निर्भरता को कम कर सकती है। इससे संभावित रूप से विदेशी मुद्रा की बचत हो सकती है और खाद्य तेल उत्पादन में आत्मनिर्भरता को बढ़ावा मिल सकता है। 

फसल सुरक्षा: आनुवांशिक संशोधन कीटों एवं बीमारियों के प्रति प्रतिरोध अदा कर सकता है, जिससे रासायनिक कीटनाशकों की जरूरतें कम हो जाती हैं। इससे पर्यावरण के अनुकूल एवं टिकाऊ कृषि पद्धतियों को प्रोत्साहन मिल सकता है।

IYoM: मिलेट्स (MILLETS) यानी बाजरा को अब गरीब का भोजन नहीं, सुपर फूड कहिये

IYoM: मिलेट्स (MILLETS) यानी बाजरा को अब गरीब का भोजन नहीं, सुपर फूड कहिये

दुनिया को समझ आया बाजरा की वज्र शक्ति का माजरा, 2023 क्यों है IYoM

पोषक अनाज को भोजन में फिर सम्मान मिले - तोमर भारत की अगुवाई में मनेगा IYoM-2023 पाक महोत्सव में मध्य प्रदेश ने मारी बाजी वो कहते हैं न कि, जब तक योग विदेश जाकर योगा की पहचान न हासिल कर ले, भारत इंडिया के तौर पर न पुकारा जाने लगे, तब तक देश में बेशकीमती चीजों की कद्र नहीं होती। कमोबेश कुछ ऐसी ही कहानी है देसी अनाज बाजरा की।

IYoM 2023

गरीब का भोजन बताकर भारतीयों द्वारा लगभग त्याज्य दिये गए इस पोषक अनाज की महत्ता विश्व स्तर पर साबित होने के बाद अब इस अनाज
बाजरा (Pearl Millet) के सम्मान में वर्ष 2023 को इंटरनेशनल ईयर ऑफ मिलेट्स (आईवायओएम/IYoM) के रूप में राष्ट्रों ने समर्पित किया है।
इंटरनेशनल ईयर ऑफ मिलेट्स (IYoM) 2023 योजना का सरकारी दस्तावेज पढ़ने या पीडीऍफ़ डाउनलोड के लिए, यहां क्लिक करें
मिलेट्स (MILLETS) मतलब बाजरा के मामले में भारत की स्थिति, लौट के बुद्धू घर को आए वाली कही जा सकती है। संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2023 को अंतरराष्ट्रीय पोषक-अनाज वर्ष घोषित किया है। पीआईबी (PIB) की जानकारी के अनुसार केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय द्वारा जुलाई मासांत में आयोजित किया गया पाक महोत्सव भारत की अगुवाई में अंतरराष्ट्रीय पोषक-अनाज वर्ष (IYoM)- 2023 लक्ष्य की दिशा में सकारात्मक कदम है। पोषक-अनाज पाक महोत्सव में कुकरी शो के जरिए मिलेट्स (MILLETS) यानी बाजरा, अथवा मोटे अनाज पर आधारित एवं मिश्रित व्यंजनों की विविधता एवं उनकी खासियत से लोग परिचित हुए। आपको बता दें, मिलेट (MILLET) शब्द का ज्वार, बाजरा आदि मोटे अनाज संबंधी कुछ संदर्भों में भी उपयोग किया जाता है। ऐसे में मिलेट के तहत बाजरा, जुवार, कोदू, कुटकी जैसी फसलें भी शामिल हो जाती हैं। पीआईबी द्वारा जारी की गई सूचना के अनुसार महोत्सव में शामिल केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने मिलेट्स (MILLETS) की उपयोगिता पर प्रकाश डाला।

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अपने संबोधन में मंत्री तोमर ने कहा है कि, “पोषक-अनाज को हमारे भोजन की थाली में फिर से सम्मानजनक स्थान मिलना चाहिए।” उन्होंने जानकारी में बताया कि, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2023 को अंतरराष्ट्रीय पोषक-अनाज वर्ष घोषित किया है। यह आयोजन भारत की अगु़वाई में होगा। इस गौरवशाली जिम्मेदारी के तहत पोषक अनाज को बढ़ावा देने के लिए पीएम ने मंत्रियों के समूह को जिम्मा सौंपा है। केंद्रीय कृषि मंत्री तोमर ने दिल्ली हाट में पोषक-अनाज पाक महोत्सव में (IYoM)- 2023 की भूमिका एवं उद्देश्यों पर प्रकाश डाला। उन्होंने बताया कि, अंतरराष्ट्रीय बाजरा वर्ष (IYoM)- 2023 के तहत केंद्र सरकार द्वारा स्थानीय, राज्य, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अनेक कार्यक्रमों के आयोजन की विस्तृत रूपरेखा तैयार की गई है।

बाजरा (मिलेट्स/MILLETS) की वज्र शक्ति का राज

ऐसा क्या खास है मिलेट्स (MILLETS) यानी बाजरा या मोटे अनाज में कि, इसके सम्मान में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पूरा एक साल समर्पित कर दिया गया। तो इसका जवाब है मिलेट्स की वज्र शक्ति। यह वह शक्ति है जो इस अनाज के जमीन पर फलने फूलने से लेकर मानव एवं प्राकृतिक स्वास्थ्य की रक्षा शक्ति तक में निहित है। जी हां, कम से कम पानी की खपत, कम कार्बन फुटप्रिंट वाली बाजरा (मिलेट्स/MILLETS) की उपज सूखे की स्थिति में भी संभव है। मूल तौर पर यह जलवायु अनुकूल फसलें हैं।

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शाकाहार की ओर उन्मुख पीढ़ी के बीच शाकाहारी खाद्य पदार्थों की मांग में उल्लेखनीय रूप से वृद्धि हो रही है। ऐसे में मिलेट पॉवरफुल सुपर फूड की हैसियत अख्तियार करता जा रहा है। खास बात यह है कि, मिलेट्स (MILLETS) संतुलित आहार के साथ-साथ पर्यावरण की सुरक्षा में भी असीम योगदान देता है। मिलेट (MILLET) या फिर बाजरा या मोटा अनाज बी-कॉम्प्लेक्स विटामिन और खनिजों जैसे सूक्ष्म पोषक तत्वों का भंडार है।

त्याज्य नहीं महत्वपूर्ण हैं मिलेट्स - तोमर

आईसीएआर-आईआईएमआर, आईएचएम (पूसा) और आईएफसीए के सहयोग से आयोजित मिलेट पाक महोत्सव के मुख्य अतिथि केंद्रीय कृषि मंत्री तोमर थे। अपने संबोधन में उन्होंने कहा कि, “मिलेट गरीबों का भोजन है, यह कहकर इसे त्याज्य नहीं करना चाहिए, बल्कि इसे भारत द्वारा पूरे विश्व में विस्तृत किए गए योग और आयुर्वेद के महत्व की तरह प्रचारित एवं प्रसारित किया जाना चाहिए।” “भारत मिलेट की फसलों और उनके उत्पादों का अग्रणी उत्पादक और उपभोक्ता राष्ट्र है। मिलेट के सेवन और इससे होने वाले स्वास्थ्य लाभों के बारे में जागरूकता प्रसार के लिए मैं इस प्रकार के अन्य अनेक आयोजनों की अपेक्षा करता हूं।”

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मिलेट और खाद्य सुरक्षा जागरूकता

मिलेट और खाद्य सुरक्षा संबंधी जागरूकता के लिए होटल प्रबंधन केटरिंग तथा पोषाहार संस्थान, पूसा के विद्यार्थियों ने नुक्कड़ नाटक प्रस्तुत किया। मुख्य अतिथि तोमर ने मिलेट्स आधारित विभिन्न व्यंजनों का स्टालों पर निरीक्षण कर टीम से चर्चा की। महोत्सव में बतौर प्रतिभागी शामिल टीमों को कार्यक्रम में पुरस्कार प्रदान कर प्रोत्साहित किया गया।

मध्य प्रदेश ने मारी बाजी

मिलेट से बने सर्वश्रेष्ठ पाक व्यंजन की प्रतियोगिता में 26 टीमों में से पांच टीमों को श्रेष्ठ प्रदर्शन के आधार पर चुना गया था। इनमें से आईएचएम इंदौर, चितकारा विश्वविद्यालय और आईसीआई नोएडा ने प्रथम तीन क्रम पर स्थान बनाया जबकि आईएचएम भोपाल और आईएचएम मुंबई की टीम ने भी अंतिम दौर में सहभागिता की।

इनकी रही उपस्थिति

कार्यक्रम में केंद्रीय राज्यमंत्री कैलाश चौधरी, कृषि सचिव मनोज आहूजा, अतिरिक्त सचिव लिखी, ICAR के महानिदेशक डॉ. त्रिलोचन महापात्र और IIMR, हैदराबाद की निदेशक रत्नावती सहित अन्य अधिकारी एवं सदस्य उपस्थित रहे। इस दौरान उपस्थित गणमान्य नागरिकों की सुपर फूड से जुड़ी जिज्ञासाओं का भी समाधान किया गया। महोत्सव के माध्यम से मिलेट से बनने वाले भोजन के स्वास्थ्य एवं औषधीय महत्व संबंधी गुणों के बारे में लोगों को जागरूक कर इनके उपयोग के लिए प्रेरित किया गया। दिल्ली हाट में इस महोत्सव के दौरान पोषण के बारे में महत्वपूर्ण जानकारियां प्रदान की गईं। इस विशिष्ट कार्यक्रम में अनेक स्टार्टअप ने भी अपनी प्रस्तुतियां दीं। 'छोटे पैमाने के उद्योगों व उद्यमियों के लिए व्यावसायिक संभावनाएं' विषय पर आधारित चर्चा से भी मिलेट संबंधी जानकारी का प्रसार हुआ। अंतर राष्ट्रीय बाजरा वर्ष (IYoM)- 2023 के तहत नुक्कड़ नाटक तथा प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिताओं जैसे कार्यक्रमों के तहत कृषि मंत्रालय ने मिलेट के गुणों का प्रसार करने की व्यापक रूपरेखा बनाई है। वसुधैव कुटुंबकम जैसे ध्येय वाक्य के धनी भारत में विदेशी अंधानुकरण के कारण शिक्षा, संस्कृति, कृषि कार्यों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। अंतरराष्ट्रीय पोषक-अनाज वर्ष (IYoM)- 2023 जैसी पहल भारत की पारंपरिक किसानी के मूल से जुड़ने की अच्छी कोशिश कही जा सकती है।
ICAR ने बताए सोयाबीन कीट एवं रोग नियंत्रण के उपाय

ICAR ने बताए सोयाबीन कीट एवं रोग नियंत्रण के उपाय

मानसून की लेटलतीफी के कारण भारत के राज्यों में सोयाबीन की खेती की तैयारी में भी इस साल देरी हुई। अवर्षा और अतिवर्षा की मार के बाद किसी तरह खेत में बोई गई सोयाबीन की फसल पर अब कीट पतिंगों का खतरा मंडरा रहा है। इस खतरे के समाधान के लिए भारत के कृषि विज्ञानियों ने अनुभव एवं शोध के आधार पर उपयोगी तरीके सुझाए हैं।

सोयाबीन कृषकों के लिए ICAR की उपयोगी सलाह

भाकृ.अनु.प. के भारतीय सोयाबीन अनुसन्धान सस्थान (ICAR-Indian Institute of Soybean Research) इन्दौर, ने सोयाबीन फसल की रक्षा के लिए उपयोगी एडवायजरी (Advisory) जारी की है। आपको बता दें, इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च (Indian Council of Agricultural Research/ICAR) यानी भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (भाकृअनुप) कृषि कल्याण हित में काम करने वाली संस्था है। भाकृअनुप (ICAR) भारत सरकार के कृषि मंत्रालय में कृषि अनुसंधान एवं शिक्षा विभाग के अधीन एक स्वायत्तशासी संस्था के तौर पर कृषि जगत के कल्याण संबंधी सेवाएं प्रदान करती है।

सोयाबीन पर मौजूदा खतरा

सोयाबीन की खेती आधारित भारत के प्रमुख राज्यों मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र एवं राजस्थान पर विविध रोगों का प्रभाव देखा जा रहा है। इन राज्यों के कई जिलों में सोयाबीन की फसल पर तना मक्खी, चक्र भृंग एवं पत्ती खाने वाली इल्ली तथा रायजोक्टोजनिया एरिअल ब्लाइट, पीला मोजेक वायरस रोग के संक्रमण की स्थिति देखी जा रही है। भाकृअनुप (ICAR) की इस संबंध में कृषकों को सलाह है कि, वे अपनी फसल की सतत निगरानी करें एवं किसी भी कीट या रोग के प्रारंभिक लक्षण दिखते ही, नियंत्रण के उपाय अपनाएं।

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तम्बाखू की इल्ली

सोयाबीन की फसल में तम्बाखू की इल्ली एवं चने की इल्ली के प्रबंधन के लिए बाजार में उपलब्ध कीट-विशेष फिरोमोन ट्रैप्स का उपयोग करने की आईसीएआर (ICAR) ने सलाह दी है। इन फेरोमोन ट्रैप में 5-10 पतंगे दिखने का संकेत यह दर्शाता है कि इन कीड़ों का प्रादुर्भाव आप की फसल पर हो गया है। इसका संकेत यह भी है कि, यह प्रादुर्भाव अभी प्रारंभिक अवस्था में है। अतः शीघ्र अतिशीघ्र इनके नियंत्रण के लिए उपाय अपनाने चाहिए। खेत के विभिन्न स्थानों पर निगरानी करते हुए यदि आपको कोई ऐसा पौधा मिले जिस पर झुंड में अंडे या इल्लियां हों, तो ऐसे पौधों को खेत से उखाड़कर अलग कर दें।

तना मक्खी

तना मक्खी के नियंत्रण के लिए पूर्व मिश्रित कीटनाशक थायोमिथोक्सम (Thiamethoxam) 12.60%+लैम्ब्डा साह्यलोथ्रिन (Lambda-cyhalothrin) 09.50% जेडसी (ZC) (125 ml/ha) का छिड़काव करने की सलाह भाकृअनुप (ICAR) के वैज्ञानिकों ने दी है। चक्र भृंग-(गर्डल बीटल) के नियंत्रण हेतु प्रारंभिक अवस्था में ही टेट्रानिलिप्रोल 18.18 एस.सी. (250- 300 मिली/हे) या थायक्लोप्रिड 21.7 एस.सी. (750मिली/हे) या प्रोफेनोफॉस 50 ई.सी.(1 ली/हे.) या इमामेक्टीन बेन्जोएट (425 मिली/हे.) का छिड़काव करने की कृषकों को सलाह दी गई है। इसके अलावा रोग के फैलाव की रोकथाम हेतु प्रारंभिक अवस्था में ही पौधे के ग्रसित भाग को तोड़कर नष्ट करने की भी सलाह दी गई है।

इल्लियों का नियंत्रण

चक्र भृंग तथा पत्ती खाने वाली इल्लियों के एक साथ नियंत्रण हेतु पूर्वमिश्रित कीटनाशक क्लोरएन्ट्रानिलिप्रोल 09.30 % + लैम्ब्डा साह्यलोथ्रिन 04.60 % ZC (200 मिली/हे) या बीटासायफ्लुथ्रिन + इमिडाक्लोप्रिड (350 जमली/है) या पूर्वमिश्रित थायमिथोक्सम़ + लैम्बडा साह्यलोथ्रिन (125 मिली/है) का जिड़काव करने की सलाह दी गई है। इनके छिड़काव से तना मक्खी का भी नियत्रंण किया जा सकता है। पत्ती खाने वाली इल्लियां (सेमीलूपर, तम्बाकू की इल्ली एवं चने की इल्ली) होने पर इनके नियंत्रण के लिए किनालफॉस 25 ई.सी. (1 ली/हे), या ब्रोफ्लानिलिड़े 300 एस.सी. (42-62 ग्राम/है) आदि में से किसी एक का प्रयोग करने की सलाह कृषकों को दी गई है।

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पौधों को उखाड़ दें

पीला मोजेक रोग के नियंत्रण हेतु सलाह है कि तत्काल रोगग्रस्त पौधों को खेत से उखाड़कर अलग कर दें। इन रोगों को फैलाने वाले वाहक सफेद मक्खी की रोकथाम हेतु पूर्वमिश्रित कीटनाशक थायोमिथोक्सम + लैम्ब्डा साह्यलोथ्रिन (125 मिली/है) रसायन का छिड़काव करने की सलाह दी गई है। इसके छिड़काव से तना मक्खी का भी नियंत्रण किया जा सकता है। सफेद मक्खी के नियंत्रण हेतु कृषकगण, अपने खेत में विभिन्न स्थानों पर पीला स्टिकी ट्रैप लगाकर सोयाबीन की फसल की रक्षा कर सकते हैं। कुछ क्षेेत्रों में रायजोक्टोनिया एरिअल ब्लाइट का प्रकोप होने की सूचना प्राप्त होने की आईसीएआर (ICAR) ने जानकारी दी है। इसके उपचार के लिए वैज्ञानिकों ने हेक्साकोनाझोल %5ईसी (1 मिली/ली पानी) का छिड़काव करने का सुझाव दिया गया है।

जैविक सोयाबीन उत्पादन

जैविक सोयाबीन उत्पादन में रुची रखने वाले कृषक, पत्ती खाने वाली इल्लियों (सेमीलूपर, तम्बाखू की इल्ली) की छोटी अवस्था में रोकथाम हतु बेसिलस थुरिन्जिएन्सिस आदि का निर्धारित मात्रा में प्रयोग कर सकते हैं। प्रकाश प्रपंच का उपयोग करने की भी सलाह दी गई है।

कीट एवं रोग प्रबंधन के अन्य उपाय

सोयाबीन पर लगने वाले कीट एवं रोग के प्रबंधन के रासायनिक छिड़काव के अलावा अन्य प्रकृति आधारित उपाय भी हैं।

बर्ड पर्चेस

सोयाबीन की फसल में पक्षियों के बैठने के लिए ”T“ आकार के बर्ड पर्चेस लगाने की भी वैज्ञानिकों ने कृषि मित्रों को सलाह दी है। इससे कीट-भक्षी पक्षियों द्वारा भी इल्लियों की संख्या कम करने में प्राकृतिक तरीके से सहायता मिलती है।

सावधानियां

  • कीट एवं रोग नियंत्रण के लिए केवल उन्ही रसायनों का प्रयोग करें जो सोयाबीन की फसल में अनुशंसित हों।
  • कीटनाशक या फफूंद नाशक के छिड़काव के लिए सदैव पानी की अनुशंसित मात्रा का ही उपयोग करें।
  • किसी भी प्रकार का कृषि-आदान क्रय करते समय दुकानदार से हमेशा पक्का बिल लें जिस पर बैच नंबर एवं एक्सपायरी दिनांक आदि का स्पष्ट उल्लेख हो।



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सोयाबीन कीट एवं रोग नियंत्रण प्रबंधन पर आधारित यह लेख भारतीय कृषक अनुसंधान परिषद, भारतीय सोयाबीन अनुसन्धान संस्थान, इन्दौर द्वारा जारी कृषि आधारित सलाह पर आधारित है। लेख में वर्णित रसायन एवं उनकी मात्रा का उपयोग करने के पहले कृषि सलाहकारों, केवीके के वैज्ञानिकों, दवा विक्रेता से उचित परामर्श अवश्य प्राप्त करें। इस बारे में आईसीएआर (ICAR) की विस्तृत जानकारी के लिए लिंकhttps://www.icar.org.in/weather-based-crop-advisory पर क्लिक करें। यहां वेदर बेस्ड क्रॉप एडवाइज़री (Weather based Crop Advisory) विकल्प में आपको सोयाबीन की सलाह संबंधी पीडीएफ फाइल डाउनलोड करने मिल जाएगी।

सोयाबीन की तीन नई किस्मों को मध्य प्रदेश शासन ने दी मंजूरी

सोयाबीन की तीन नई किस्मों को मध्य प्रदेश शासन ने दी मंजूरी

भारत में सोयाबीन (soyabean) का सबसे ज्यादा उत्पादन मध्य प्रदेश में होता है इसलिए इस राज्य को सोया राज्य कहा जाता है, चूंकि मध्य प्रदेश के किसान हर साल बड़ी मात्रा में सोयाबीन की खेती करते हैं। इसलिए केंद्र सरकार और मध्य प्रदेश शासन मिलकर इसके रिसर्च और अनुसंधान पर भी पूरा ध्यान देते हैं, ताकि समय-समय पर किसानों को नए बीज उपलब्ध करवाए जा सकें, जिससे उत्पादन में बढ़ोत्तरी हो तथा किसानों को भी फायदा हो। भारत में खाद्य तेलों की बढ़ती हुई मांग को देखते हुए, ICAR - भारतीय सोयाबीन अनुसंधान संस्थान (IISR), इंदौर पिछले कई सालों से सोयाबीन की नई किस्मों को विकसित करने के लिए अनुसंधान कर रहा है। इस संस्थान के कृषि वैज्ञानिकों के सतत प्रयासों के बाद भारतीय सोयाबीन अनुसंधान संस्थान (IISR), इंदौर ने सोयाबीन की 3 नई किस्मों को विकसित करने में सफलता पाई है। इन किस्मों को कृषि वैज्ञानिकों द्वारा एनआरसी 157, एनआरसी 131 और एनआरसी 136 नाम दिया गया है।

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कृषि वैज्ञानिकों के काम से खुश होकर मध्य प्रदेश शासन ने इन तीनों किस्मों को तुरंत ही मंजूरी दे दी है, ताकि ये किस्में जल्द से जल्द बाजार में किसानों के लिए उपलब्ध हो सकें, जिससे किसान ज्यादा से ज्यादा नई किस्मों के द्वारा लाभान्वित हो सकें। संस्थान के हेड साइंटिस्ट और ब्रीडर डॉ संजय गुप्ता ने सोयाबीन की नई किस्मों के बारे में जानकारी देते हुए बताया कि एनआरसी 157 एक मध्यम अवधि की फसल है, जो बुवाई करने के बाद मात्र 94 दिनों में तैयार हो जाती है। इस किस्म की उपज भी शानदार है। यह किस्म प्रति हेक्टेयर 16.5 क्विंटल फसल का उत्पादन दे सकती है। एनआरसी 157 नाम की यह किस्म अल्टरनेरिया लीफ स्पॉट, बैक्टीरियल पस्ट्यूल और टारगेट लीफ स्पॉट जैसी बीमारियों से मध्यम प्रतिरोधी क्षमता रखती है। इसकी खेती करने वाले किसानों को ज्यादा हानि होने की संभावना नहीं है। इसके साथ ही यदि इस किस्म की बुवाई 20 जुलाई तक भी की जाती है, तो भी यह इस किस्म के लिए उपयुक्त मानी जाएगी।

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दूसरी किस्म एनआरसी 131 भी एक मध्यम अवधि की फसल है, जो बुवाई करने के बाद 93 दिनों में तैयार हो जाती है। यह औसत रूप से एक हेक्टेयर में 15 क्विंटल फसल का उत्पादन दे सकती है। यह किस्म भी चारकोल रॉट और टार्गेट लीफ स्पॉट जैसी बीमारियों के लिए मध्यम रूप से प्रतिरोधी है।

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इन दो किस्मों के साथ तीसरी किस्म एनआरसी 136 है। जिसे मध्य प्रदेश शासन ने अभी मंजूरी दी है। हालाँकि यह किस्म देश में पहले से ही उपयोग की जा रही है। इसका उपयोग ज्यादातर पूर्वोत्तर भारत के राज्यों में किया जाता है। इसके बारे में जानकारी देते हुए संस्थान के एक प्रधान कृषि वैज्ञानिक ने बताया कि, यह किस्म बुवाई के बाद 105 दिन की अवधि में तैयार होती है। साथ ही, यह सोयाबीन की ऐसी पहली किस्म है, जिसके ऊपर सूखे का कोई ख़ास प्रभाव देखने को नहीं मिलता, इस किस्म का उत्पादन एक हेक्टेयर में 17 क्विंटल तक हो सकता है। यह किस्म मूंग बीन येलो मोज़ेक वायरस के लिए मध्यम रूप से प्रतिरोधी है।
फसलों पर गर्मी नहीं बरपा पाएगी सितम, गेहूं की नई किस्मों से निकाला हल

फसलों पर गर्मी नहीं बरपा पाएगी सितम, गेहूं की नई किस्मों से निकाला हल

फरवरी के महीने में ही बढ़ते तापमान ने किसानों की टेंशन बढ़ा दी है. अब ऐसे में फसलों के बर्बाद होने के अनुमान के बीच एक राहत भरी खबर किसानों के माथे से चिंता की लकीर हटा देगी. बदलते मौसम और बढ़ते तापमान से ना सिर्फ किसान बल्कि सरकार की भी चिंता का ग्राफ ऊपर है. इस साल की भयानक गर्मी की वजह से कहीं पिछले साल की तरह भी गेंहूं की फसल खराब ना हो जाए, इस बात का डर किसानों बुरी तरह से सता रहा है. ऐसे में सरकार को भी यही लग रहा है कि, अगर तापमान की वजह से गेहूं की क्वालिटी में फर्क पड़ा, तो इससे उत्पादन भी प्रभावित हो जाएगा. जिस वजह से आटे की कीमत जहां कम हो वाली थी, उसकी जगह और भी बढ़ जाएगी. जिससे महंगाई का बेलगाम होना भी लाजमी है. आपको बता दें कि, लगातार बढ़ते तापमान पर नजर रखने के लिए केंद्र सरकार ने एक कमेटी का गठन किया था. इन सब के बीच अब सरकार के साथ साथ किसानों को चिंता करने की जरूरत नहीं पड़ेगी. भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने वो कर दिखाया है, जो किसी ने भी सोचा भी नहीं था. दरअसल आईसीएआर ने गेहूं की तीन ऐसी किस्म को बनाया है, जो गर्मियों का सीजन आने से पहले ही पककर तैयार हो जाएंगी. यानि के सर्दी का सीजन खत्म होने तक फसल तैयार हो जाएगी. जिसे होली आने से पहले ही काट लिया जाएगा. इतना ही नहीं आईसीएआर के साइंटिस्टो का कहना है कि, गेहूं की ये सभी किस्में विकसित करने का मुख्य कारण बीट-द हीट समाधान के तहत आगे बढ़ाना है.

पांच से छह महीनों में तैयार होती है फसलें

देखा जाए तो आमतौर पर फसलों के तैयार होने में करीब पांच से छह महीने यानि की 140 से 150 दिनों के बीच का समय लगता है. नवंबर के महीने में सबसे ज्यादा गेहूं की बुवाई उत्तर प्रदेश में की जाती है, इसके अलावा नवंबर के महीने के बीच में धान, कपास और सोयाबीन की कटाई मुख्य रूप से पंजाब, हरियाणा, एमपी और राजस्थान में होती है. इन फसलों की कटाई के बाद किसान गेहूं की बुवाई करते हैं. ठीक इसी तरह युपू में दूसरी छमाही और बिहार में धान और गन्ना की फसल की कटाई के बाद ही गेहूं की बुवाई शुरू की जाती है.

महीने के आखिर तक हो सकती है कटाई

साइंटिस्टो के मुताबिक गेहूं की नई तीन किस्मों की बुवाई अगर किसानों ने 20 अक्टूबर से शुरू की तो, गर्मी आने से पहले ही गेहूं की फसल पककर काटने लायक तैयार हो जाएगी. इसका मतलब अगर नई किस्में फसलों को झुलसा देने वाली गर्मी के कांटेक्ट में नहीं आ पाएंगी, जानकारी के मुताबिक मार्च महीने के आखिरी हफ्ते तक इन किस्मों में गेहूं में दाने भरने का काम पूरा कर लिया जाता है. इनकी कटाई की बात करें तो महीने के अंत तक इनकी कटाई आसानी से की जा सकेगी. ये भी पढ़ें: गेहूं पर गर्मी पड़ सकती है भारी, उत्पादन पर पड़ेगा असर

जानिए कितनी मिलती है पैदावार

आईएआरआई के साइंटिस्ट ने ये ख़ास गेहूं की तीन किस्में विकसित की हैं. इन किस्मों में ऐसे सभी जीन शामिल हैं, जो फसल को समय से पहले फूल आने और जल्दी बढ़ने में मदद करेंगे. इसकी पहली किस्म का नाम एचडीसीएसडब्लू-18 रखा गया है. इस किस्म को सबसे पहले साल 2016  में ऑफिशियली तौर पर अधिसूचित किया गया था. एचडी-2967 और एचडी-3086 की किस्म के मुकाबले यह ज्यादा उपज देने में सक्षम है. एचडीसीएसडब्लू-18 की मदद से किसान प्रति हेक्टेयर के हिसाब से सात टन से ज्यादा गेहूं की उपज पा सकते हैं. वहीं पहले से मौजूद एचडी-2967 और एचडी-3086 किस्म से प्रति हेक्टेयर 6 से 6.5 टन तक पैदावार मिलती है.

नई किस्मों को मिला लाइसेंस

सामान्य तौर पर अच्छी उपज वाले गेंहू की किस्मों की ऊंचाई लगभग 90 से 95 सेंटीमीटर होती है. इस वजह से लंबी होने के कारण उनकी बालियों में अच्छे से अनाज भर जाता है. जिस करण उनके झुकने का खतरा बना रहता है. वहीं एचडी-3410 जिसे साल 2022 में जारी किया गया था, उसकी ऊंचाई करीब 100 से 105 सेंटीमीटर होती है. इस किस्म से प्रति हेल्तेय्र के हिसाब से 7.5 टन की उपज मिलती है. लेकिन बात तीसरी किस्म यानि कि एचडी-3385 की हो तो, इस किस्म से काफी ज्यादा उपज मिलने की उम्मीद जताई जा रही है. वहीं एआरआई ने एचडी-3385 जो किसानों और पौधों की किस्मों के पीपीवीएफआरए के संरक्षण के साथ रजिस्ट्रेशन किया है. साथ ही इसने डीसी एम श्रीरा का किस्म का लाइसेंस भी जारी किया है. ये भी पढ़ें: गेहूं की उन्नत किस्में, जानिए बुआई का समय, पैदावार क्षमता एवं अन्य विवरण

कम किये जा सकते हैं आटे के रेट

एक्सपर्ट्स की मानें तो अगर किसानों ने गेहूं की इन नई किस्मों का इस्तेमाल खेती करने में किया तो, गर्मी और लू लगने का डर इन फसलों को नहीं होगा. साथी ही ना तो इसकी गुणवत्ता बिगड़ेगी और ना ही उपज खराब होगी. जिस वजह से गेहूं और आटे दोनों के बढ़ते हुए दामों को कंट्रोल किया जा सकता है.
खीरा की यह किस्म जिससे किसान सालों तक कम लागत में भी उपजा पाएंगे खीरा

खीरा की यह किस्म जिससे किसान सालों तक कम लागत में भी उपजा पाएंगे खीरा

हम लोग सलाद में सबसे महत्वपूर्ण खीरा (cucumber ; kheera) को मानते हैं, इसके अलावा भी आजकल खीरा का उपयोग बहुत बढ़ गया है। देश ही नहीं विदेश में भी खीरा की मांग बढ़ती जा रही है, जिसके लिए खीरा निर्यात के मामलों पर भी काफी ऊपर है। अब देखा जा रहा है, कुछ दिनों से किसान बिना सीजन में खीरा को उगाने के लिए परेशान हैं। लेकिन अब जो हम आपको बताने जा रहे हैं, उसको जानकर आप काफी आश्चर्यचकित हो जाएंगे, क्योंकि किसान को अब खीरा उगाने के लिए बहुत सारी समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ेगा। आईसीएआर (ICAR) के वैज्ञानिकों ने अब ऐेसे खीरे की किस्म को विकसित किया है, जिसमें ना ही किसी मौसम की बाधा आती है, नहीं बीज की टेंशन। आईसीएआर के वैज्ञानिकों के अनुसार यह बीज रहित खीरा (seedless cucumber) जिसका नाम डीपी-6 (DP-6) है, वह साल में 4 बार उग सकता है। इस खीरे की किस्म डीपी-6 बुवाई के 45 दिन बाद फलों का प्रोडक्शन करने लगता है। इतना ही नहीं जब एक बार फलना शुरू करता है, तो 3 से 4 महीने तक लगातार बीज रहित खीरा का फलन होते रहता है। आपको बता दें कि यह किस्म आईसीएआर आईएआरआई, पूसा इंस्टीट्यूट के सफल प्रयास से किसानों को मिला है।


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वैज्ञानिकों के कई सालों का सफल प्रयास

मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार बीज रहित खीरा की किस्म कई सालों के मेहनत का परिणाम है। वैज्ञानिकों के अनुसार इसका छिलका भी काफी पतला होता है, जिससे इसका उपयोग करने वाले बिना छीले भी इस डीपी 6 नामक खीरा को खा सकते हैं। आपको यह भी जान कर काफी आश्चर्य होगा कि इस डीपी 6 नामक खीरे के नस्ल में कड़वाहट बिल्कुल भी नहीं है। यह किस्म बिना परागण के ही बहुत अच्छा पैदावार दें सकती है। लेकिन इस बेमौसमी किस्म के खीरे को लेकर एक ये भी अनुमान लगाया जा रहा है की इसको खुले में लगाने से कीट-रोग लगने की संभावना काफी ज्यादा है। किसानों के मन में यह भी प्रश्न है की इसको या तो पॉलीहाउस या संरक्षित ढांचे में ही उगाया जायेगा।

क्या है खासियत

आपको बता दें कि किसी भी खीरे के बेल की हर गांठ पे मादा पुष्प निकलते हैं, लेकिन यह जान कर आपको काफी खुशी होंगी की इस डीपी-6 किस्म के बेल पर जितने ही मादा पुष्प निकलेंगे उतना ही फल का उत्पादन होगा। आपको ये बता दें कि 100 वर्गमीटर खेत में डीपी-6 किस्म के खीरे की तकरीबन 400 पौधे लगाए जा सकते हैं, जिसके हर एक पौधों से लगभग 4 किलो तक खीरे का उत्पादन हो सकता है।


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कितना है लागत व कैसे करें खेती

वैज्ञानिकों के मुताबिक यह डीपी -6 किस्म के खीरे का उत्पादन कमर्शियल जगहों जैसे होटल या फिर घर में आसानी से किया जा सकता। आपको बता दें कि इस डीपी-6 किस्म का खीरे जिसे आईसीएआर-आईएआरआई पूसा इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों के द्वारा किया गया है, वह समान खीरे के किस्म के बीज से लगभग 15 रुपए अधिक कीमत में मिलेगा। वैज्ञानिकों के अनुसार किसान भी इस किस्म के खीरे की खेती कर अच्छा मुनाफा कमाना चाहते हैं, तो वो भी इस बीज को लगा सकते हैं। लेकिन इस अच्छे बीज के लिए किसानों को दिल्ली स्थित पूसा इंस्टीट्यूट के सब्जी विज्ञान केंद्र से जाकर लाना होगा। आपको यह भी बता दें की किसानों को इस डीपी-6 किस्म के खीरे की संरक्षित खेती के लिए, केंद्र सरकार के संरक्षित खेती योजना का लाभ लेकर, अच्छा उत्पादन कर बढ़िया मुनाफा कमा सकते हैं। इस किस्म के खीरे की खेती में किसान को कम लागत में भी अच्छा मुनाफा मिलेगा, आपको यह जान कर भी हैरानी होगी की किसान के इस डीपी-6 किस्म के खीरे के खेती के लिए एक एकड़ में तकरीबन 20 हजार रुपए लगाने पड़ेगा।
आलू बीज उत्पादन से होगा मुनाफा

आलू बीज उत्पादन से होगा मुनाफा

आलू को सब्ज़ियों का राजा माना जाता है। राजा इसलिए क्योंकि इसका अधिकांश सब्जियों में प्रयोग होता है।आलू उत्पादक प्रदेशों की बात करें तो उत्तर प्रदेश इसमें प्रमुख है। यहां के अलावा पश्चिम बंगाल, बिहार, गुजरात, पंजाब आसाम एवं मध्य प्रदेश में आलू की खेती होती है। आलू उत्पादन में यूपी का तकरीबन 40 प्रतिशत योगदान रहता है। यहां के किसान आलू की उन्नत खेती के लिए जाने जाते हैं लेकिन बीज उत्पादन के क्षेत्र में जो स्थान पंजाब के किसानों ने हासिल किया है वह यहां के किसान नहीं कर पाए हैं । अब जरूरत आलू के उत्पादन के साथ बीज उत्पादन के क्षेत्र में आगे बढ़ने की है। आलू की खेती मोटी लागत चाहती है। इसे सामान्य किसान नहीं कर सकते। बाजारू गिरावट की स्थिति में कई किसानों को मोटा नुकसान भी उठाना पड़ता है। नुकसान के झटके को कई किसान झेल भी नहीं पाते। यूंतो सामान्य तरीके से किसान बीज तैयार करते हैं इसे प्रमाणित कराकर बेचने की बात ही कुछ और है। बीज उत्पादन और आलू उत्पादन में मूलतः ज्यादा फर्क नहीं होता। इस लिए आलू उत्पादन के साथ किसान बीज उत्पादन को समझें और खुद के लिए बीज तैयार करना शुरू करें।   

   aloo 

 आलू की अभी तक करीब तीन दर्जन किस्में विकसित हो चुकी हैं। इनमें कई कम समय में तैयार होने वाली हाइब्रिड किस्में भी किसानों में खूब भा रही हैं। आलू भी दो तरह का होता है। सब्जी वाला और प्रसंस्करण के लिए उपयोग में आने वाला। 

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 सब्जी वाली किस्मों में कुफरी चंद्रमुखी किस्म 70 से 80 दिन में तैयार हो जाती है। इससे 200 से 250 कुंतल प्रति हैक्टेयर उत्पादन प्राप्त होता है। इसमें पछेती अंगमारी रोग आता है। कुफरी बहार जिसे 3797 नंबर दिया गया है, करीब 100 दिन में तैयार होती है और उपज 250 से 300 कुंतल मिलती है। इसे पक्का आलू माना जाता है। कुफरी अशोका अगेती किस्म है। यह संपूर्ण सिन्धु एवं गंगा क्षेत्र के लिए उपयुक्त है। अधिकतत 80 दिन में तैयार होकर 300 कुंतल तक उपज देती है। कुफरी बादशाह पकने में लम्बा समय लेती है। यह पछेती अंगमारी रोग रोधी है। जल्दी खुदाई करने पर भी अच्छा उत्पादन रहता है। अधिकतम 120 दिन में तैयार होकर 400 कुंतल तक उपज देती है। कुफरी लालिमा जल्दी तैयार होने वाली किस्म है। छिलका गुलाबी होता है। यह अगेती झुलसा रोग के लिए मध्यम अवरोधी है। 100 दिन में 300 कुंतल, कुफरी पुखराज 100 दिन में 400 कुंतल, कुफरी सिंदूरी 120 से 140 दिन में पकती है। यह मैदानी क्षेत्रों के लिए उपयुक्त किस्म है। 400 कुंतल, कुफरी सतलुज 110 दिन में पकती है। सिंधु, गंगा मैदानी तथा पठारी क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है। उपज 300 कुंतल, कुुफरी आनंद 120 दिन में 400 कुंतल तक उपज देती है। आलू का उपयोग प्रसंस्करण इकाईयों में बहुत हो रहा है। चाहे आलू भुजिया हो, चिप्स या फिर पापड़ आदि। इसके लिए हिमाचल स्थित कुफरी संस्थान ने अन्य किस्में विकसित की हैं। इनमें प्रमुख रूप से कुफरी चिपसोना-1, 110 दिन में तैयार होकर 400 कुंतल तक उपज देती है। कुफरी चिपसोना-2 किस्म 110 दिन में तैयार होकर 350 कुंतल तक उपज देती है। 

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 कुफरी चिप्सोना-3, कुफरी सदाबहार, कुफरी चिप्सोना-4, कुफरी पुष्कर के पकने की अवधि 90 से 110 दिन है। कुफरी मोहन नई किस्म है। इनका उत्पादन भी 300 कुंतल से ज्यादा ही आता है। किस्मों की कमी नहीं और आलू की खेती जागरूक किसान ही ज्यादा करते हैं। उन्हें अपने इलाके के लिए उपयुक्त किस्मों की जानकारी रहती है। यह इस लिए भी आसान होता है क्योंकि किसान समूह में ही बीज खरीदकर लाते हैं और बेचने का काम भी समूह में होता है। 

आलू के बीज उत्पादन के लिए हर जनपद स्तर पर हर साल आधारीय बीज आता है। इस बीज के कट्टों पर सफेद रंगा का टैग लगा होता है। आधारीय बीज भी दो तरह का होता है आधारीय प्रथम एवं आधारीय द्वितीय। यदि किसानों को दो साल तक खुद के बीज को प्रयोग करना है तो आधारीय प्रथम बीज खरीदें। इससे पहले साल आधारीय द्वितीय बीज तैयार होता। अगले साल उस बीज से प्रमाणित बीज बनेगा। बीज तैयार करने के लिए फसल में 15 दिन पूर्व सिंचाई बंद कर देनी चाहिए। इसके अलावा माहू कीट फसल पर दिखने लगे तभी पाल को काटकर छोड़ देना चाहिए। बीज के लिए लगने वाले आलू की बिजाई समय से करनी चाहिए। पाल की कटाई थोड़ा जल्दी इस लिए की जाती ताकि कंद का आकार बड़ा नहो। बीज के आलू का आकार छोटा ही रखा जाता है। कई किसान पूरे समय में ही आलू को निकालते हैं। उसमें से सीड और खाने के लिए आलू को साइज के हिसाब से अलग-अलग छांट लेते हैं।

बीज की बेहद कमी

  aloo seed 

 देष में आलू के बीज की बेहद कमी है। बीज कोई भी हो उत्पादन आम फसल की तरह ही होता है लेकिन कीमतों में बहुुत अंतद होता है। गेहूं यदि फसल के समय 1500 रुपए कुंतल होता है तो छह माह बाद ही वह 3000 रुपए प्रति कुंतल बिकता है। यह बात आम बीजों की है। हाईब्रिड बीजों की कीमत तो लाखों लाख रुपए प्रति किलोग्राम तक होती है और इनका उत्पान सामान्य आदमी के बसका भी नहीं लेकिन आम किस्मों का बीज कोई भी तैयार कर सकता है। पंजीकरण जरूरी हर राज्य में बीज प्रमाणीकरण संस्था होती है। बीज उत्पादन के लिए कट्टों पर लगे टैग, बीज खरीद वाली संस्था की रषीद के आधार पर पंजीकरण कराया जा सकता है।

गेहूं चना और आलू की खेती करने वाले किसान कैसे बचा सकते हैं अपनी फसल

गेहूं चना और आलू की खेती करने वाले किसान कैसे बचा सकते हैं अपनी फसल

मौसम की अनिश्चितताओं के बीच भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान ने मौसम के बदलते मिज़ाज को देखते हुए खेती से जुड़ी एक एडवायजरी जारी की है। ताकि इस बार सही समय पर सही कदम उठाते हुए फसलों को होने वाले नुकसान को कम किया जा सके। विभाग द्वारा किसानों को सलाह दी गई है, कि अगर उनके इलाके में ज्यादा बारिश हुई है तो अपनी खड़ी फसल में अब वे सिंचाई ना करें।

कैसे कर सकते हैं किसान गेहूं की फसल की निगरानी

इस मौसम में गेहूं की फसलों में रतुआ रोग काफी ज्यादा देखने को मिलता है। माना जा रहा है, कि अगर इस रोग पर पहले से ध्यान दिया जाए तो फसल को इससे होने वाले नुकसान से बचाया जा सकता है। अगर गेहूं की फसल में पत्तियों पर आपको काले, पीले या भूरे रंग के धब्बे दिखाई दे रहे हैं। तो तुरंत डाइथेन एम-45 की 2.5 ग्राम मात्रा एक लीटर पानी में मिलाकर पूरी फसल पर छिडकाव करें। ऐसा करने से फसल को इस रोग से होने वाले नुकसान से बचाया जा सकता है।
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पीला रतुआ रोग गेहूं में 10-20°C तापमान के बीच होता है। अगर तापमान 25 डिग्री से ऊपर चला जाए तो रोग गेहूं को प्रभावित नहीं करता है। इसी तरह से भूरा रतुआ रोग 15-25 डिग्री सेल्सियस तापमान पर होता है। साथ ही, भूमि में नमी हो तो ये और फैल जाता है।

चने की फसल में कैसे करें कीट से बचाव

चने की फसल को छेदक कीट लगने का खतरा बन रहता है। अगर फसल में फुल आ गए हैं तो 3 से 4 फैरोमेन ट्रैप प्रति एकड़ के हिसाब से लगाने पर इससे बचा जा सकता है।

आलू की फसल का बचाव कैसे करें

अगर आपने आलू की खेती की है तो इसमें झुलसा रोग होने की संभावना रहती है। एक बार इस रोग के लक्षण देखते ही 2 ग्राम कैप्टान एक लीटर पानी में मिलाकर पूरी फसल पर छिडकाव करें।
अजब मिर्ची का गजब कमाल, अब खाने के साथ-साथ लिपस्टिक बनाने में भी होगा इस्तेमाल

अजब मिर्ची का गजब कमाल, अब खाने के साथ-साथ लिपस्टिक बनाने में भी होगा इस्तेमाल

वाराणसी स्थित आईसीएआर-भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान (ICAR-IIVR) वैज्ञानिकों के द्वारा एक अनोखी किस्म की मिर्च तैयार की गई है। इस मिर्च की खासियत यह है, कि यह खाने के साथ-साथ लिपस्टिक बनाने के लिए भी सौंदर्य प्रसाधन के रूप में इस्तेमाल किया जाएगा। अभी तक किसानों के द्वारा जो मिर्च उत्पादन किया जाता था, उसको सिर्फ खाने में प्रयोग किया जाता था। लेकिन अब वैज्ञानिकों के द्वारा जिस तरह से इस नई किस्म की मिर्च को तैयार किया गया है, उससे अब सुर्ख लाल रंग का लिपस्टिक भी बनाया जा सकेगा। इस किस्म का नाम वीपीबीसी-535 (VPBC-535) रखा गया है।

अब जानते हैं इस वीपीबीसी-535 मिर्च के बारे में :

इस मिर्च की किस्म में 15 प्रतिशत ओलेरोसिन पाया जाता है। इसकी खास बात यह है, कि इस मिर्च का उत्पादन सामान्य मिर्चों की अपेक्षा अधिक होती है, क्योंकि इसमें अधिक
उर्वरकों का भी इस्तेमाल होता है। किसानों के लिए मिर्च के इस किस्म की खेती करके बेहतर मुनाफा अर्जित किया जा सकता है, इसकी खेती करने के लिए प्रति हेक्टेयर 400 से 500 ग्राम बीज की आवश्यकता निर्धारित की गई है। विशेषज्ञों का मानना है कि अगर सभी मानकों का ध्यान रखा जाए तो किसान प्रति हेक्टेयर 150 क्विंटल तक इस मिर्च की किस्म की उपज कर सकते हैं। दूसरे खास बात यह है कि इसकी खेती किसान रवि और खरीफ दोनों सीजन में कर सकते हैं।

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प्रति हेक्टेयर डेढ़ सौ क्विंटल तक का उपज होने से किसानों की आय में बेहतर वृद्धि होगी

यह मिर्च पूरी तरह से पककर तैयार होने के बाद सुर्ख लाल रंग की हो जाती है। इसमें ओलियोरेजिन नाम का औषधीय गुण भी मौजूद है, जिसे सौंदर्य प्रसाधन में लिपस्टिक बनाने में किया जाएगा। औषधीय गुणों के मौजूद होने के कारण सौंदर्य प्रसाधन के लिए बनने वाले लिपस्टिक में सिंथेटिक रंग का प्रयोग नही करना पड़ेगा, जिससे आमजन को होने वाले हानिकारक प्रभावों से बचाया जा सकेगा।

इस तरह से करें खेत की तैयारी तभी हो पाएगी बेहतर उपज

अगर आप मिर्च की इस किस्म की खेती करना चाहते हैं तो आपको सबसे पहले अपने खेत को तैयार करना होगा। खेत की तैयारी करते समय प्रति हेक्टेयर 20 से 30 टन कंपोस्ट अथवा गोबर खाद का प्रयोग करके अपने खेत को इस मिर्च की किस्म को उपजाने के लायक बनाना होगा। इसके बाद ही आप मिर्च के बीज को बो पाएंगे, बीज की बुवाई के 30 दिनों के बाद जो पौधे उगेंगे उन्हें लगभग 45 सेंटीमीटर की दूरी पर रोपना होगा, ताकि पौधों के बीच में दूरी बनी रहे। प्रत्येक पंक्ति के बीच लगभग 60 सेंटीमीटर की दूरी रखनी होगी। वैसे भी मिर्च की खेती के लिए सामान्यतः अधिक उर्वरकों का प्रयोग किया जाता है। मिर्च की खेती करने के लिए लगभग प्रति हेक्टेयर 120 किलोग्राम नाइट्रोजन, 80 किलोग्राम फास्फोरस और 80 किलोग्राम पोटाश की जरुरत होती है। इस तरह की किस्म के पौधे काफी फैले हुए होते हैं। बुवाई के 95-100 दिन में मिर्च पौधे में फल पकने लगते हैं। इसकी औसत उपज 140 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है। इस मिर्च को बाजार में बेचने पर ऊंचे दाम मिलते हैं। सामान्य मिर्च जहां ₹30 प्रति किलोग्राम तक बिकती है, वहीं इस मिर्च की किस्म को आप ₹90 प्रति किलोग्राम तक बेच सकते हैं।

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अगर आप इस मिर्च की खेती करते हैं, तो आपको आसानी से लगभग 3 गुना फायदा प्राप्त हो जायेगा। यह मिर्च लिपस्टिक बनाने से लेकर खाने में भी शानदार और स्वादिष्ट है। आने वाले समय में इस मिर्च की उपज होने के कारण हर्बल कॉस्मेटिक इंडस्ट्री में भी इसकी मांग बढ़ेगी और किसानों को इसके लिए अच्छे दाम भी मिलेंगे। गौरतलब यह है कि इस किस्म की मिर्च की खेती कर आप मालामाल हो सकते हैं। जो किसान इस मिर्च की किस्म को उपजाना चाहते हैं, वह अपने नजदीकी कृषि भवन में संपर्क करके और जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
दुनिया को दिशा देने वाली हो भारतीय कृषि – तोमर कृषि मंत्री

दुनिया को दिशा देने वाली हो भारतीय कृषि – तोमर कृषि मंत्री

कृषि क्षेत्र में तकनीकों का उपयोग बढ़ाते हुए गांवों में ढांचागत विकास की दिशा में सरकार सतत संलग्नत है। सरकार खेती में रोजगार के अवसर बढाते हुए शिक्षत युवाओं को आकर्षित करना चाहती है ताकि युवाओं का ग्रामीण अंचल से पलायन रोका जा सके। खेती में रोजगार के अवसर बढ़ेंगे और पढ़े-लिखे युवा गांवों में ही रहकर कृषि की ओर आकर्षित होंगे। टेक्नालाजी व इंफ्रास्ट्रक्चर का लाभ किसानों को होगा, साथ ही कृषि के क्षेत्र को और सुधारने में कामयाबी मिलेगी। यह विचार कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर (Union Minister of State for Agriculture and Farmer Welfare Narendra Singh Tomar) ने बीते दिनों व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि “जब देश की आजादी के 100 वर्ष पूरे होंगे, यानी आजादी के अमृत काल तक भारतीय कृषि सारी दुनिया को दिशा देने वाली होनी चाहिए। अमृत काल में हिंदुस्तान की कृषि की विश्व प्रशंसा करे, लोग यहां ज्ञान लेने आएं, ऐसा हमारा गौरव हों, विश्व कल्याण की भूमिका निर्वहन करने में भारत समर्थ हो,” ।

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केंद्रीय मंत्री श्री तोमर ने यह बात भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर - ICAR) द्वारा आयोजित व्याख्यान श्रंखला की समापन कड़ी में कही। “प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से उद्बोधन में भी कृषि क्षेत्र को पुनः महत्व दिया है, जो इस क्षेत्र में तब्दीली लाने की उनकी मंशा प्रदर्शित करता है। पीएम ने आह्वान किया था कि किसानों की आय दोगुनी होनी चाहिए, कृषि में टेक्नालाजी का उपयोग व छोटे किसानों की ताकत बढ़नी चाहिए, हमारी खेती आत्मनिर्भर कृषि में तब्दील होनी चाहिए, पर्याप्त इंफ्रास्ट्रक्चर होना चाहिए, कृषि की योजनाओं के क्रियान्वयन में पारदर्शिता होनी चाहिए, अनुसंधान बढ़ना चाहिए, किसानों को महंगी फसलों की ओर जाना चाहिए, उत्पादन व उत्पादकता बढ़ने के साथ ही किसानों को उनकी उपज के वाजिब दाम मिलना चाहिए।

पीएम के इस आह्वान पर राज्य सरकारें, किसान भाई-बहन, वैज्ञानिक पूरी ताकत के साथ जुटे हैं और इसमें आईसीएआर (ICAR - Indian Council of Agricultural Research) की भी प्रमुख भूमिका हो रही है। पिछले दिनों में किसानों में एक अलग प्रकार की प्रतिस्पर्धा रही है कि आमदनी कैसे बढ़ाई जाएं, साथ ही पीएम श्री मोदी के आह्वान के बाद कार्पोरेट क्षेत्र को भी लगा कि कृषि में उनका योगदान बढ़ना चाहिए,” उन्होंने कहा। एग्रीकल्चर इंफ्रास्ट्रक्चर फंड योजना के दिशानिर्देशों का पूरा सरकारी दस्तावेज पढ़ने या पीडीऍफ़ डाउनलोड के लिए, यहां क्लिक करें श्री तोमर ने कहा कि “खाद्यान्न की अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ-साथ अन्य देशों को भी उपलब्ध करा रहे हैं। यह यात्रा और बढ़े, इसके लिए भारत सरकार प्रयत्नशील है। खेती व किसानों को आत्मनिर्भरता की दिशा में आगे बढ़ाना है। 

आईसीएआर व कृषि वैज्ञानिकों ने कृषि के विकास में बहुत अच्छा काम किया है। उनकी कोशिश रही है कि नए बीजों का आविष्कार करें, उन्हें खेतों तक पहुंचाएं, उत्पादकता बढ़े, नई तकनीक विकसित की जाएं और उन्हें किसानों तक पहुंचाया जाएं। जलवायु अनुकूल बीजों की किस्में, फोर्टिफाइड किस्में जारी करना इसमें शामिल हैं। सभी क्षेत्रों में वैज्ञानिकों ने कम समय में अच्छा काम किया, जिसका लाभ देश को मिल रहा है। आईसीएआर बहुत ही महत्वपूर्ण संस्थान हैं, जिसकी भुजाएं देशभर में फैली हुई हैं। कृषि की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए संस्थान लगा हुआ है।


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किसानों की माली हालत सुधारना हमारे लिए महत्वपूर्ण है। इसके लिए 6,865 करोड़ रुपये के खर्च से दस हजार नए कृषक उत्पादक संगठन (एफपीओ) बनाना शुरू किया गया है। इनमें से लगभग तीन हजार एफपीओ बन भी चुके हैं। इनके माध्यम से छोटे-छोटे किसान एकजुट होंगे, जिससे खेती का रकबा बढ़ेगा और वे मिलकर तकनीक का उपयोग कर सकेंगे, अच्छे बीज थोक में कम दाम पर खरीदकर इनका उपयोग कर सकेंगे, वे आधुनिक खेती की ओर अग्रसर होंगे, जिससे उनकी ताकत बढ़ेगी और छोटे किसान आत्मनिर्भर बन सकेंगे। 

श्री तोमर ने कहा कि कृषि क्षेत्र में निजी निवेश के लिए सरकार ने एक लाख करोड़ रुपये के इंफ्रास्ट्रक्चर फंड का प्रावधान किया है। साथ ही अन्य संबद्ध क्षेत्रों को मिलाकर डेढ़ लाख करोड़ रुपये से ज्यादा का फंड तय किया गया है। एग्री इंफ्रा फंड (Agri Infra Fund) के अंतर्गत 14 हजार करोड़ रु. के प्रोजेक्ट आ चुके हैं, जिनमें से 10 हजार करोड़ रु. के स्वीकृत भी हो गए हैं। सिंचाई के साधनों में भी बढ़ोत्तरी हो रही है, जल सीमित है इसलिए सूक्ष्म सिंचाई पर फोकस है। प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना का लाभ आम किसानों तक पहुंचाने के लिए सूक्ष्म सिंचाई कोष 5 हजार करोड़ रु. से बढ़ाकर 10 हजार करोड़ रु. किया गया है। प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि छोटे किसानों के लिए वरदान साबित हुई है। इस स्कीम में अभी तक लगभग साढ़े 11 करोड़ किसानों के बैंक खातों में 2 लाख करोड़ रु. से ज्यादा राशि जमा कराई जा चुकी हैं। 

Source : PIB (Press Information Bureau) Government of India आजादी का अमृत महोत्सव में केंद्रीय कृषि मंत्री के उद्बोधन के साथ संपन्न हुई आईसीएआर की 75 व्याख्यानों की श्रंखला का पूरा सरकारी दस्तावेज पढ़ने के लिए, यहां क्लिक करें प्रारंभ में आईसीएआर के महानिदेशक डा. हिमांशु पाठक ने स्वागत भाषण दिया। संचालन उप महानिदेशक डा. आर.सी. अग्रवाल ने किया।

बकरी पालन व्यवसाय में है पैसा ही पैसा

बकरी पालन व्यवसाय में है पैसा ही पैसा

बकरी पालन के आधुनिक तरीके को अपना कर आप मोटा मुनाफा कमा सकते हैं। जरूरत सिर्फ इतनी है, कि आप चीजों को बारीकी से समझें और एक रणनीति बना कर ही काम करें। पेशेंस हर बिजनेस की जरूरत है, अतः उसे न खोएं, बकरी पालन एक बिजनेस है और आप इससे बढ़िया मुनाफा कमा सकते हैं।

गरीबों की गाय

पहले बकरी को गरीब किसानों की गाय कहा जाता था। जानते हैं क्यों क्योंकि बकरी कम चारा खाकर भी बढ़िया दूध देती थी, जिसे किसान और उसका परिवार पीता था। गाय जैसे बड़े जानवर को पालने की कूवत हर किसान में नहीं होती थी। खास कर वैसे किसान, जो किसी और की खेती करते थे। 

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आधुनिक बकरी पालन

अब दौर बदल गया है, अब बकरियों की फार्मिंग होने लगी है। नस्ल के आधार पर क्लोनिंग विधि से बकरियां पैदा की जाती हैं। देसी और फार्मिंग की बकरी, दोनों में फर्क होता है। यहां हम देसी की नहीं, फार्मिंग गोट्स की बात कर रहे हैं। 

जरूरी क्या है

बकरी पालन के लिए कुछ चीजें जरूरी हैं, पहला है, नस्ल का चुनाव, दूसरा है शेड का निर्माण, तीसरा है चारे की व्यवस्था, चौथा है बाजार की व्यवस्था और पांचवां या सबसे जरूरी चीज है, फंड का ऐरेन्जमेंट। ये पांच फंडे क्लीयर हैं, तो बकरी पालन में कोई दिक्कत नहीं जाएगी। 

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नस्ल या ब्रीड का चयन

अगर आप बकरी पालने का मूड बना ही चुके हैं, तो कुछ ब्रीडों के बारे में जान लें, जो आने वाले दिनों में आपके लिए फायदे का सौदा होगा। आप अगर पश्चिम बंगाल और असम में बकरी पालन करना चाहते हैं, तो आपके लिए ब्लैक बेंगार ब्रीड ठीक रहेगा। लेकिन, अगर आप यूपी, बिहार और राजस्थान में बकरी पालन करना चाहते हैं, तो बरबरी बेस्ट ब्रीड है। ऐसे ही देश के अलग-अलग हिस्सों में आप बीटल, सिरोही जैसे ब्रीड को ले सकते हैं। इन बकरियों का ब्रीड बेहतरीन है। ये दूध भी बढ़िया देती हैं, इनका दूध गाढ़ा होता है और बच्चों से लेकर बड़ों तक के लिए आदर्श माना जाता है। 

ट्रेनिंग कहां लें

आप बकरी पालन करना तो चाहते हैं, लेकिन आपको उसकी एबीसी भी पता नहीं है। तो चिंता न करें, एक फोन घुमाएं नंबर है 0565-2763320 यह नंबर केंद्रीय बकरी अनुसंधान संस्थान, मथुरा, यूपी का है। यह संस्थान आपको हर चीज की जानकारी दे देगा। अगर आप जाकर ट्रेनिंग लेना चाहते हैं, तो उसकी भी व्यवस्था है। 

शेड का निर्माण

इसका शेड आप अपनी जरूरत के हिसाब से बना सकते हैं, जैसे, शुरुआत में आपको अगर 20 बकरियां पालनी हैं, तो आप 20 गुणे 20 फुट का इलाका भी चूज कर सकते हैं। उस पर एसबेस्डस शीट लगा कर छवा दें, बकरियां सीधी होती हैं। उनको आप जहां भी रखेंगे, वो वहीं रह जाएंगी, उन्हें किसी ए सी की जरूरत नहीं होती। 

भोजन

बकरियों को हरा चारा चाहिए, आप उन्हें जंगल में चरने के लिए छोड़ सकते हैं, आपको अलग से चारे की व्यवस्था नहीं करनी होगी। लेकिन, आप अगर जंगल से दूर हैं, तो आपको उनके लिए हरे चारे की व्यवस्था करनी होगी। हरे चारे के इतर बकरियां शाकाहारी इंसानों वाले हर भोजन को बड़े प्यार से खा लेती हैं, उसके लिए आपको टेंशन नहीं लेने का। 

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कितने दिनों में तैयार होती हैं बकरियां

एक बकरी का नन्हा बच्चा/बच्ची 10 माह में तैयार हो जाता है, आपको जो मेहनत करनी है, वह 10 माह में ही करनी है। इन 10 माह में वह इस लायक हो जाएगा कि परिवार बढ़ा ले, दूध देना शुरू कर दे। 

बाजार

आपकी बकरी का नस्ल ही आपके पास ग्राहक लेकर आएगा, आपको किसी मार्केटिंग की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। इसलिए नस्ल का चयन ठीक से करें। 

फंड की व्यवस्था

आपके पास किसान क्रेडिट कार्ड है, तो उससे लोन ले सकते हैं। बकरी पालन को उसमें ऐड किया जा चुका है। केसीसी (किसान क्रेडिट कार्ड) नहीं है तो आप किसी भी बैंक से लोन ले सकते हैं। 

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कोई बीमारी नहीं

अमूमन बकरियों में कोई बीमारी नहीं होती, ये खुद को साफ रखती हैं। हां, अब कोरोना टाइप की ही कोई बीमारी आ जाए तो क्या कहा जा सकता है , इसके लिए आपको राय दी जाती है, कि आप हर बकरी का बीमा करवा लें। खराब हालात में बीमा आपकी बेहद मदद करेगा।

पालड़ी राणावतन की मॉडल नर्सरी से मरु प्रदेश में बढ़ी किसानों की आय, रुका भूमि क्षरण

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वर्तमान में पंजीकृत कृषि विकास नर्सरी की सुविधाओं को देश के हर इलाके में विस्तार देने के मकसद को नई दिशा मिली है।

पालड़ी राणावतन की मॉडल नर्सरी

भाकृअनुप - केन्द्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान, (ICAR - Central Arid Zone Research Institute) जोधपुर, राजस्थान ने इस दिशा में अनुकरणीय पहल की है। संस्थान की ओर से भोपालगढ़ तहसील के ग्राम पालड़ी में 0.02 हेक्टेयर क्षेत्र में एक मॉडल नर्सरी विकसित की गयी है, इससे न केवल रोजगार के साधन विकसित हुए हैं, बल्कि भूमि का क्षरण (भू-क्षरण) रोकने में भी मदद मिली है।

क्यों पड़ी जरूरत

भाकृअनुप-केंद्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान, जोधपुर, राजस्थान स्रोत से ज्ञात जानकारी के अनुसार, निवर्तमान रजिस्टर्ड नर्सरी के मान से किसान मित्रों को गुणवत्तापूर्ण रोपण सामग्री प्रदान करने संबंधी महज 1/3 मांग पूरी की जा रही है। असंगठित क्षेत्र के मुकाबले संगठित क्षेत्र में इस कमी की पूर्ति के लिए जरूरी, अधिक नर्सरी की स्थापना के लिए यह मॉडल नर्सरी विकसित की गई है।

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मॉडल नर्सरी का यह है मॉडल

भाकृअनुप-केंद्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान, जोधपुर, राजस्थान ने इस मॉडल तंत्र में 10 कृषि महिला-पुरुषों को मिलाकर एक मॉडल ग्रुप का गठन किया। इस गठित समूह को संस्थान की ओर से कार्यक्रम के जरिये वाणिज्यिक नर्सरी प्रबंधन पर कौशल प्रशिक्षण देकर दक्षता में संवर्धन किया गया।

दी गई यह जानकारी

समूह के चयनित सदस्यों समेत अन्य किसानों को कार्यक्रम में रूटस्टॉक और स्कोन का विकास करने का प्रशिक्षण प्रदान किया गया। इसके अलावा नर्सरी में जरूरी कटिंग, बडिंग और ग्राफ्टिंग तकनीक, कीट और रोग प्रबंधन के बारे में भी गूढ़ जानकारियां कृषि वैज्ञानिकों ने प्रदान कीं।

ये भी पढ़ें: कैसे डालें धान की नर्सरी रिकॉर्ड कीपिंग के साथ ही आवश्यक बुनियादी ढांचे, जैसे, बाड़ लगाने, छाया घर, मदर प्लांट, पानी की सुविधा और अन्य इनपुट जैसे नर्सरी उपकरण, बीज, नर्सरी मीडिया, उर्वरक, पॉली बैग भी समूह को प्रदान किए गए।

नर्सरी के माध्यम से हुआ सुधार

प्राप्त आंकड़़ों के मान से राजस्थान में कुल परिचालन भूमि जोत का पैमाना 7.7 मिलियन है। गौरतलब है कि पिछले तीन दशकों के दौरान कृषि संबंधी जानकारियां किसानों तक पहुंचाने के कारण शुद्ध सिंचित क्षेत्र में 140 प्रतिशत की बढ़त हासिल हुई है। इसमें खास बात यह है कि, सिंचाई सुविधाओं में वृद्धि इसमें कारगर साबित हुई है। इससे नई कृषि वानिकी और बागवानी प्रणालियों को राज्य में विकसित करने में मदद मिली है।

इस मामले में सफलता

कृषि वानिकी एवं बागवानी प्रणालियों के विस्तार में सब्जियों के साथ पेड़ों की खेती का विस्तार हुआ है। जागरूकता कार्यक्रमों के माध्यम से किसानों के बीच क्वालिटी प्लांटिंग मटेरियल (क्यूपीएम/QPM) यानी गुणवत्ता रोपण सामग्री को प्रदान कर उन्हें इस्तेमाल में लाया गया। आपको बता दें, क्यूपीएम यानी गुणवत्ता रोपण सामग्री, कृषि और वानिकी में राजस्व में वृद्धि, प्रतिकूल पर्यावरणीय परिस्थितियों संबंधी अनुकूलन क्षमता में सुधार के साथ ही बाजार में गुणवत्ता पूर्ण कच्चा माल संबंधी जरूरतों की पूर्ति के लिए एक प्राथमिक एवं अनिवार्य इकाई है। किचन गार्डन में कई सब्जियों जबकि बाग के कुछ पेड़ों संबंधी सिद्ध तरीकों के लिए गुणवत्तापूर्ण रोपण सामग्री की मांग देखी गई है। यह भी देखा गया है कि, स्थानीय स्तर पर किसानों या पर्यावरण प्रेमियों को वास्तविक और रोग मुक्त रोपण सामग्री न मिलने के कारण इसे हासिल करने के लिए लंबी दूरी पाटनी पड़ती थी।

नर्सरी में हुआ यह कार्य

नर्सरी में मांग आधारित फल, सब्जी और कृषि-वानिकी प्रजाति आधारित बीजों को विकसित करना शुरू किया।

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दो साल में दोगुनी से अधिक हुई आय

विकसित बीजों एवं उनके विकास के बारे में व्यापक जानकारी प्रदान करने का परिणाम यह हुआ कि मात्र 2 साल के अंदर ही समूह सदस्यों की कमाई डबल से भी ज्यादा हो गई। दी गई जानकारी के अनुसार समूह सदस्यों के पास कुल मिलाकर, 870 मानव दिवस का रोजगार था। इसका आधार यह था कि, इसके लिए उन्होंने 77 हजार से अधिक संवर्धित बीज पैदा किए और 2.98 के बी:सी (B:C) अनुपात के साथ कई रोपों को बेचकर 6, 83,750 रुपये अर्जित किए। बताया गया कि समूह में शामिल होने के पहले तक एक महिला सदस्य की वार्षिक आय 20 हजार रुपये तक थी। नर्सरी में शामिल होने के बाद हर साल 120 दिन काम करने से उसे 40 हजार रुपये कमाने में मदद मिली है। इस समय व्यक्तिगत समूह के सदस्य 30 से 40 हजार रुपये कमा रहे हैं। जिनके पास हर साल 100 से 150 दिनों का रोजगार है।

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दुर्बल खेती

नर्सरी की गतिविधियाँ जनवरी से जून तक दुर्बल खेती के मौसम से मेल खाती हैं। इससे रोजगार सृजन का एक अतिरिक्त लाभ भी सदस्यों को मिला है। अब इससे प्रेरित होकर अन्य साथी किसान, पर्यावरण मित्र एवं घरेलू बागवानी के शौकीन लोग भी इससे जुड़ रहे हैं। इसका कारण यह है कि इसके सदस्यों को आस-पास के ग्रामीण अंचलों के साथ ही शहरों के साथ ही पड़ोसी जिलों तक अपना अंकुर पहुंचाने के लिए प्रशिक्षित करने से भी लाभ हुआ है।

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