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तिल

भारत की मंडियों में तिलहन फसल सरसों की कीमतों में आई भारी गिरावट

भारत की मंडियों में तिलहन फसल सरसों की कीमतों में आई भारी गिरावट

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि वर्तमान में तिलहन फसलों में सर्वाधिक सरसों की कीमत प्रभावित हो रही है। विगत वर्ष के समापन में सरसों की कीमतों में काफी तीव्रता देखने को मिली थी। परंतु, अब सरसों की कीमतें एक दम नीचे गिरने लगी हैं। भारत भर की मंडियों में सरसों को क्या भाव मिल रहा है ? तिलहन फसलों का भाव निरंतर तीव्रता के पश्चात अब गिरावट की कवायद शुरू हो गई है। अधिकांश तिलहन फसलों की कीमतें अभी ज्यों की त्यों बनी हुई हैं।

कुछ एक फसलों में कमी दर्ज की जा रही है। तिलहन फसलोंकी बात करें तो सर्वाधिक सरसों के भाव प्रभावित हो रहे हैं। विगत वर्ष के अंत में सरसों की कीमतों में शानदार तीव्रता देखने को मिली थी। एक वक्त तो भाव 9000 रुपये प्रति क्विंटल तक पहुंच गया था। परंतु, अब भाव में एक दम से कमी आई है। आलम यह है, कि सरसों का भाव न्यूनतम समर्थन मूल्य से भी नीचे चला गया है, जिस कारण से कृषक भी काफी परेशान दिखाई दे रहे हैं। 

भारत भर की मंडियों में सरसों की कीमत क्या है

केंद्र सरकार ने सरसों पर 5650 रुपये का न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित किया गया है। परंतु, भारत की अधिकतर मंडियों में किसानों को MSP तक की कीमत नहीं मिल रही है। सरसों की फसल को औसतन 5500 रुपये/क्विंटल की कीमत मिल रही है। केंद्रीय कृष‍ि व क‍िसान कल्याण मंत्रालय के एगमार्कनेट पोर्टल के मुताबिक, शनिवार (6 जनवरी) को भारत की एक दो मंडी को छोड़ दें, तो तकरीबन समस्त मंडियों में मूल्य MSP से नीचे ही रहा है। शनिवार को सरसों को सबसे शानदार भाव कर्नाटक की शिमोगा मंडी में हांसिल हुआ। जहां, सरसों 8800 रुपये/क्विंटल के भाव पर बिकी है।


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इसी प्रकार, गुजरात की अमरेली मंडी में भाव 6075 रुपये/क्विंटल तक रहा है। इन दो मंडियों को छोड़ दें, तो बाकी समस्त मंडियो में सरसों 5500 रुपये/क्विंटल के नीचे ही बेची जा रही है, जो MSP से काफी कम है। वहीं, भारत की कुछ मंडियों में तो भाव 4500 रुपये/क्विंटल तक पहुंच गया। विशेषज्ञों का कहना है, की कम मांग के चलते कीमतों में काफी गिरावट आई है। यदि मांग नहीं बढ़ी, तो कीमतें और कम हो सकती हैं, जो कि कृषकों के लिए काफी चिंता का विषय है।


यहां पर आप बाकी फसलों की सूची भी देख सकते हैं 

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि किसी भी फसल का भाव उसकी गुणवत्ता पर भी निर्भर रहता है। ऐसी स्थिति में व्यापारी क्वालिटी के हिसाब से ही भाव निर्धारित करते हैं। फसल जितनी शानदार गुणवत्ता की होगी, उसकी उतनी ही अच्छी कीमत मिलेंगे। यदि आप भी अपने राज्य की मंडियों में भिन्न-भिन्न फसलों का भाव देखना चाहते हैं, तो आधिकारिक वेबसाइट https://agmarknet.gov.in/ पर जाकर पूरी सूची की जाँच कर सकते हैं।

इस वैज्ञानिक विधि से करोगे खेती, तो यह तिलहन फसल बदल सकती है किस्मत

इस वैज्ञानिक विधि से करोगे खेती, तो यह तिलहन फसल बदल सकती है किस्मत

पिछले कुछ समय से टेक्नोलॉजी में काफी सुधार की वजह से कृषि की तरफ रुझान देखने को मिला है और बड़ी-बड़ी मल्टीनेशनल कंपनियों को छोड़कर आने वाले युवा भी, अब धीरे-धीरे नई वैज्ञानिक तकनीकों के माध्यम से भारतीय कृषि को एक बदलाव की तरफ ले जाते हुए दिखाई दे रहे हैं।

जो खेत काफी समय से बिना बुवाई के परती पड़े हुए थे, अब उन्हीं खेतों में अच्छी तकनीक के इस्तेमाल और सही समय पर अच्छा मैनेजमेंट करने की वजह से आज बहुत ही उत्तम श्रेणी की फसल लहलहा रही है। 

इन्हीं तकनीकों से कुछ युवाओं ने पिछले 1 से 2 वर्ष में तिलहन फसलों के क्षेत्र में आये हुए नए विकास के पीछे अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। तिलहन फसलों में मूंगफली को बहुत ही कम समय में अच्छी कमाई वाली फसल माना जाता है।

पिछले कुछ समय से बाजार में आई हुई हाइब्रिड मूंगफली का अच्छा दाम तो मिलता ही है, साथ ही इसे उगाने में होने वाले खर्चे भी काफी कम हो गए हैं। केवल दस बीस हजार रुपये की लागत में तैयार हुई इस हाइब्रिड मूंगफली को बेचकर अस्सी हजार रुपये से एक लाख रुपए तक कमाए जा सकते हैं।

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इस कमाई के पीछे की वैज्ञानिक विधि को चक्रीय खेती या चक्रीय-कृषि के नाम से जाना जाता है, जिसमें अगेती फसलों को उगाया जाता है। 

अगेती फसल मुख्यतया उस फसल को बोला जाता है जो हमारे खेतों में उगाई जाने वाली प्रमुख खाद्यान्न फसल जैसे कि गेहूं और चावल के कुछ समय पहले ही बोई जाती है, और जब तक अगली खाद्यान्न फसल की बुवाई का समय होता है तब तक इसकी कटाई भी पूरी की जा सकती है। 

इस विधि के तहत आप एक हेक्टर में ही करीब 500 क्विंटल मूंगफली का उत्पादन कर सकते हैं और यह केवल 60 से 70 दिन में तैयार की जा सकती है।

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मूंगफली को मंडी में बेचने के अलावा इसके तेल की भी अच्छी कीमत मिलती है और हाल ही में हाइब्रिड बीज आ जाने के बाद तो मूंगफली के दाने बहुत ही बड़े आकार के बनने लगे हैं और उनका आकार बड़ा होने की वजह से उनसे तेल भी अधिक मिलता है। 

चक्रीय खेती के तहत बहुत ही कम समय में एक तिलहन फसल को उगाया जाता है और उसके तुरंत बाद खाद्यान्न की किसी फसल को उगाया जाता है। जैसे कि हम अपने खेतों में समय-समय पर खाद्यान्न की फसलें उगाते हैं, लेकिन एक फसल की कटाई हो जाने के बाद में बीच में बचे हुए समय में खेत को परती ही छोड़ दिया जाता है, लेकिन यदि इसी बचे हुए समय का इस्तेमाल करते हुए हम तिलहन फसलों का उत्पादन करें, जिनमें मूंगफली सबसे प्रमुख फसल मानी जाती है।

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भारत में मानसून मौसम की शुरुआत होने से ठीक पहले मार्च में मूंगफली की खेती शुरू की जाती है। अगेती फसलों का सबसे बड़ा फायदा यह होता है कि इन्हें तैयार होने में बहुत ही कम समय लगता है, साथ ही इनकी अधिक मांग होने की वजह से मूल्य भी अच्छा खासा मिलता है। 

इससे हमारा उत्पादन तो बढ़ेगा ही पर साथ ही हमारे खेत की मिट्टी की उर्वरता में भी काफी सुधार होता है। इसके पीछे का कारण यह है, कि भारत की मिट्टि में आमतौर पर नाइट्रोजन की काफी कमी देखी जाती है और मूंगफली जैसी फसलों की जड़ें नाइट्रोजन यौगिकीकरण या आम भाषा में नाइट्रोजन फिक्सेशन (Nitrogen Fixation), यानी कि नाइट्रोजन केंद्रीकरण का काम करती है और मिट्टी को अन्य खाद्यान्न फसलों के लिए भी उपजाऊ बनाती है। 

इसके लिए आप समय-समय पर कृषि विभाग से सॉइल हेल्थ कार्ड के जरिए अपनी मिट्टी में उपलब्ध उर्वरकों की जांच भी करवा सकते हैं।

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मूंगफली के द्वारा किए गए नाइट्रोजन के केंद्रीकरण की वजह से हमें यूरिया का छिड़काव भी काफी सीमित मात्रा में करना पड़ता है, जिससे कि फर्टिलाइजर में होने वाले खर्चे भी काफी कम हो सकते हैं। 

इसी बचे हुए पैसे का इस्तेमाल हम अपने खेत की यील्ड को बढ़ाने में भी कर सकते हैं। यदि आपके पास इस प्रकार की हाइब्रिड मूंगफली के अच्छे बीज उपलब्ध नहीं है तो उद्यान विभाग और दिल्ली में स्थित पूसा इंस्टीट्यूट के कृषि वैज्ञानिकों के द्वारा समय-समय पर एडवाइजरी जारी की जाती है जिसमें बताया जाता है कि आपको किस कम्पनी की हाइब्रिड मूंगफली का इस्तेमाल करना चाहिए। 

समय-समय पर होने वाले किसान चौपाल और ट्रेनिंग सेंटरों के साथ ही दूरदर्शन के द्वारा संचालित डीडी किसान चैनल का इस्तेमाल कर, युवा लोग मूंगफली उत्पादन के साथ ही अपनी स्वयं की आर्थिक स्थिति तो सुधार ही रहें हैं, पर इसके अलावा भारत के कृषि क्षेत्र को उन्नत बनाने में अपना भरपूर सहयोग दे रहे हैं। 

आशा करते हैं कि मूंगफली की इस चक्रीय खेती विधि की बारे में Merikheti.com कि यह जानकारी आपको पसंद आई होगी और आप भी भारत में तिलहन फसलों के उत्पादन को बढ़ाने के अलावा अपनी आर्थिक स्थिति में भी सुधार करने में सफल होंगे।

इस फसल को बंजर खेत में बोएं: मुनाफा उगाएं - काला तिल (Black Sesame)

इस फसल को बंजर खेत में बोएं: मुनाफा उगाएं - काला तिल (Black Sesame)

तिल की खेती बहुत कम खर्च में ज्यादा मुनाफा देती है। तिल एक नकदी फसल है और अरसे से भारत में इसकी खेती की जाती रही है। आज भी भारत में इसकी खेती होती है।

गलत अवधारणा

तिल की खेती को लेकर कई प्रकार की गलत अवधारणाएं भी किसानों के मन में चलती रहती हैं। पहली तो गलत अवधारणा यह है कि अगर ऊपजाऊ भूमि पर तिल की खेती की जाएगी तो जमीन बंजर हो जाएगी। यह निहायत ही गलत अवधारणा है। ऐसा हो ही नहीं सकता। तिल की खेती सिर्फ और सिर्फ बंजर या गैर उपजाऊ भूमि पर ही होती है। जो जमीन आपकी नजरों में उसर है, बंजर है, अनुपयोगी है, वहां तिल की फसल लहलहा सकती है। फिर वह जमीन बंजर कैसे हो सकती है, यह समझना पड़ेगा। आखिर बंजर भूमि दोबारा बंजर कैसे होगी? ये सब भ्रांतियां हैं। इन भ्रांतियों को महाराष्ट्र में बहुत हद तक किसानों को शिक्षित करके दूर किया गया है पर देश भर के किसानों में आज भी यह भ्रांति गहरे तक बैठी है जिस पर काम करना बेहद जरूरी है। ये भी पढ़े: तिलहनी फसलों से होगी अच्छी आय

कैसी जमीन चाहिए

किसानों को यह समझना होगा कि काले तिल की खेती के लिए उन्हें जो जमीन चाहिए, वह रेतीली होनी चाहिए। यानी ऐसी जमीन, जहां पानी का ज्यादा ठहराव न हो। ध्यान रखें, तिल की पानी से जंग चलती रहती है। तिल की फसल को उतना ही पानी चाहिए, जितने में फसल की जड़ में जल पहुंच जाए। बस। तो, अगर आपके पास बेकार किस्म की, उबड़-खाबड़, रेतीली जमीन है तो आप उसे बेकार न समझें। वहां आप थोड़ा सा श्रम करके, थोड़ा उसे लेबल में लाकर तिल की खेती कर सकते हैं। भ्रांतियों के साये में रहेंगे तो कुछ नहीं होगा।

तिल के प्रकार

kale til ke prakar

तिल के तीन प्रकार होते हैं। पहला-उजला तिल, दूसरा-काला तिल और तीसरा-लाल तिल। ये तीनों किस्म के तिल अलग-अलग बीजों से होते हैं पर उनकी खेती का तरीका हरगिज अलग नहीं होता। जो खेती का तरीका लाल तिल का होता है, वही काले तिल का और वही सफेद तिल का। यह तो किसानों को सोचना है कि उन्हें लाल, काला और सफेद में से कौन सा तिल उपजाना है क्योंकि बाजार में तीनों किस्म के तिल के रेट अलग-अलग हैं। तो, यहां पर भी आप किसी भ्रम में न रहें कि इन तीनों किस्म के तिल की खेती के लिए आपको अलग-अलग व्यवस्था बनानी होगी। व्यवस्था एक ही होगी। जमीन से लेकर खेती का तौर-तरीका एक ही रहेगा। इसमें किसी किस्म का कोई कन्फ्यूजन नहीं होना चाहिए।

तैयारी

अगर आप कहीं काले तिल की खेती करना चाहते हैं तो बस एक काम कर लें। मिट्टी को भुरभुरी कर लें। मिट्टी को भुरभुरी करने के दो रास्ते हैं-एक ये कि आप हल या ट्रैक्टर से पूरी जमीन को एक बार जोत लें और फिर उस पर पाड़ा चला लें। पाड़ा चलाने से मिट्टी स्वतः भुरभुरी हो जाती है। अगर उसमें भी कोई कसर रह गई हो तो दोबारा पाड़ा चला लें। अगर आपकी मिट्टी भुरभुरी हो गई हो तो आप फसल बो सकते हैं। ध्यान रहे, काला तिल या किसी किस्म भी किस्म का तिल तब बोएं, जब माहौल शुष्क हो। इसके लिए गर्मी का मौसम सबसे उपयुक्त है। माना जाता है कि मई-जून के माह में तिल की बुआई सबसे बेहतर होती है। ये भी पढ़े: भिंडी की खेती की सम्पूर्ण जानकारी

तिल के बीज

kale til ke bij

तिल के बीज कई प्रकार के होते हैं। बाजार में जो तिल उपलब्ध हैं, उनमें पी 12, चौमुखी, छह मुखी और आठ मुखी बीज पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होते हैं। आप जिस बीज को लेना चाहें, ले सकते हैं। लेकिन अगर आपको बीज की समुचित जानकारी नहीं है तो आप अपने ब्लाक के कृषि अधिकारी या सलाहकार से मिल सकते हैं और उनसे पूछ सकते हैं कि किस बीज से प्रति एकड़ कितनी पैदावार मिलेगी। उस आधार पर भी आप बीज का चयन कर सकते हैं। यह काम बहुत आराम से करना चाहिए।

बंपर पैदावार

मोटे तौर पर माना जाता है कि एक एकड़ में डेढ़ किलोग्राम बीज का छिड़काव अथवा रोपण करना चाहिए। एक एकड़ में अगर आप डेढ़ किलो बीज का इस्तेमाल करते हैं, सही तरीके से फसल की देखभाल करते हैं तो मान कर चलें कि आपकी उपज 5 क्विंटल या उससे भी ज्यादा हो सकती है। ये भी पढ़े: Fasal ki katai kaise karen: हाथ का इस्तेमाल सबसे बेहतर है फसल की कटाई में

बीज शोधन

एक दवा है। उसका नाम है ट्राइकोडर्मा। इस दवा को तिल के बीज के साथ मिलाया जाता है। बढ़िया से मिलाने के बाद उसे छांव में कई दिनों तक रख कर सुखाया जाता है। जब तक बीज पूरी तरह न सूख जाएं, उसका रोपण ठीक नहीं। जब दवा मिश्रित बीज सूख जाएं तो उसे खेत में रोपना ज्यादा फायदेमंद माना जाता है। कई किसान जानकारी के अभाव में बिना दवा के ही बीज रोप देते हैं। यह एकदम गलत कार्य है। बीजारोपण तभी करें जब उसमें ट्राइकोडर्मा नामक दवा बहुत कायदे से मिला दी गई हो। इसका इंपैक्ट सीधे-सीधे फसल पर पड़ता है। दवा देने से पौधे में कीट नहीं लगते। बिना दवा के कीट लगने की आशंका 100 फीसद होती है। फसल भी कम होती है।

कैसे करें बुआई

kale til ki Buwai

बेहतर यह हो कि जून-जुलाई में जैसे ही थोड़ी सी बारिश हो, आप खेत की जुताई कर डालें। जब जुताई हो जाए, मिट्टी भुरभुरी हो जाए तो उसे एक दिन सूखने दें। जब मिट्टी थोड़ी सूख जाए तब तिल के मेडिकेटेड बीज को आप छिड़क दें।

खर-पतवार को रोकें

आपने बीज का छिड़काव कर दिया। चंद दिनों के बाद उसमें से कोंपलें बाहर निकलेंगी। उन कोपलों के साथ ही आपको खर-पतवार पर नियंत्रण करना होगा। तिल के पौधे के चारों तरफ खर-पतवार बहुत तेजी से निकलते हैं। उन्हें उतनी ही तेजी से हटाना भी होगा अन्यथा आपकी फसल का विकास रूक जाएगा। तो, कोंपल निकलते ही आप खर-पतवार को दूर करने में लग जाएं। आप चाहें तो लासों नामक केमिकल का भी छिड़काव कर सकते हैं। ये खर-पतवार को जला डालते हैं। समय रहते आप निराई-गुड़ाई करते रहेंगे तो भी खर-पतवार नहीं उगेंगे। ये भी पढ़े: गेहूं की अच्छी फसल तैयार करने के लिए जरूरी खाद के प्रकार

फसल की सुरक्षा

तिल के पौधों में एक महक होती है जो जंगली पशुओं को अपनी तरफ आकर्षित करती हैं। अब यह आपकी जिम्मेदारी है कि आप फसल की सुरक्षा जानवरों से कैसे करते हैं। आवार पशु तिल के फसल को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं। इनमें छुट्टा गाय-बैल तो होते ही हैं, जंगली सूअर, नीलगाय भी होते हैं। ये एक ही रात में पूरी खेत चट कर जाने की हैसियत रखते हैं। तो आपको फसल की सुरक्षा के लिए खुद ही तैयार रहना होगा। पहरेदारी करनी होगी, अलाव जलाना होगा ताकि जानवर केत न चर जाएं।

4 माह में तैयार होती है फसल

मोटे तौर पर माना जाता है कि काला तिल 120 दिनों में तैयार हो जाता है। लेकिन, ये 120 दिन किसानों के बड़े सिरदर्दी वाले होते हैं। खास कर आवारा पशुओं से फसल की रक्षा करना बहुत मुश्किल काम होता है।

कटाई

kale til ki katai

120 दिनों के बाद जब आपकी फसल तैयार हो गई तो अब बारी आती है उसकी कटाई की। कटाई कैसे करें, यह बड़ा मसला होता है। अब हालांकि स्पेशियली तिल काटने के लिए कटर आ गया है पर हमारी राय है कि आप फसल को अपने हाथों से ही काटें। इसके लिए हंसुली या तेज धार वाले हंसिया-चाकू का इस्तेमाल सबसे बढ़िया होता है। फसल काटने के बाद उसे खेत में कम से कम 8 दिनों के लिए छोड़ देना चाहिए। इन 8 दिनों में फसल सूखती है। जब फस सूख जाए तो उसका तिल झाड़ लें। इस प्रक्रिया को कम से कम 4 बार करें। इससे जो भी फसल होगी, उसका पूरा तिल आप झाड़ लेंगे। मोटे तौर पर अगर फसल को जानवरों ने नहीं चरा, कीट नहीं लगे, तो मान कर चलें कि एक एकड़ में पांच क्विंटल से ज्यादा तिल आपको मिल जाएगा। अब आप देखें कि तिल को रखेंगे, बेचेंगे या कुछ और करेंगे।

काला तिल है गुणकारी

काला तिल बेहद फायदेमंद है। आप इसे भून कर खा सकते हैं। पूजा में भी इसका इस्तेमाल होता है। तावीज-गंडे में भी लोग इसका इस्तेमाल करते हैं। नए शोधों में यह पता चला है कि काला तिल उच्च रक्तचाप को नियंत्रित करने में बहुत मददगार होता है।

महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा पैदावार

देश में महाराष्ट्र में काला, उजला और लाल, तीनों किस्म के तिल की सबसे ज्यादा पैदावार होती है। कारण है, वहां की शीतोष्ण जलवायु। महाराष्ट्र के कई जिले ऐसे हैं, जहां कभी बारिश होती है या फिर नहीं। ऐसे इलाकों में तिल की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है। उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड इलाके में भी तिल की खेती जबरदस्त होती है तो मध्य प्रदेश और गुजरात भी इसमें पीछे नहीं।

तिल की खेती से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी

तिल की खेती से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी

भारत के अंदर तिल की खेती मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु,महाराष्ट्र, कर्नाटक और राजस्थान में की जाती हैI भारत के कुल उत्पादन का 20 फीसद उत्पादन केवल गुजरात से होता है I उत्तर प्रदेश में तिल की खेती विशेषकर बुंदेलखंड के राकर जमीन में और फतेहपुर, आगरा, मैनपुरी, मिर्जापुर, सोनभद्र, कानपुर और इलाहाबाद में शुद्ध और मिश्रित तौर पर की जाती है I तिल की पैदावार काफी हद तक कम है, सघन पद्धतियाँ अपनाकर उपज को बढाया जा सकता है I तकनीकी तरीको से तिल की खेती करने पर तिल की उपज 7 से 8 कुन्तल प्रति हेक्टेयर तक होती है I

तिल की खेती के लिए कैसी जलवायु एवं मृदा उपयुक्त है

तिल की खेती से अच्छी उपज लेने के लिए शीतोषण जलवायु उपयुक्त मानी जाती है। विशेषकर बरसात अथवा खरीफ में इसकी खेती की जाती है। दरअसल, अत्यधिक वर्षा अथवा सूखा पड़ने पर फसल बेहतर नहीं होती है I इसके लिए हल्की जमीन और दोमट भूमि अच्छी होती है I यह फसल पी एच 5.5 से 8.2 तक की भूमि में उगाई जा सकती है I फिर भी यह फसल बलुई दोमट से काली मृदा में भी उत्पादित की जाती है I तिल की विभिन्न प्रजातियाँ पाई जाती हैं, जैसे कि बी.63, टाईप 4, टाईप12, टाईप13, टाईप 78, शेखर, प्रगति, तरुण और कृष्णा प्रजातियाँ हैं।

तिल की खेती के लिए जमीन की तैयारी और बिजाई कैसे करें

खेत की तैयारी करने के लिए प्रथम जुताई मृदा पलटने वाले हल से एवं दो-तीन जुताई कल्टीवेटर या फिर देशी हल से करके खेत में पाटा लगा भुरभुरा बना लेना चाहिए I इसके पश्चात ही बुवाई करनी चाहिए I 80 से 100 कुंतल सड़ी गोबर की खाद को अंतिम जुताई में मिश्रित कर देना चाहिए। यह भी पढ़ें: तिल की खेती से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारी तिल की बिजाई करने हेतु जून के अंतिम सप्ताह से जुलाई का दूसरा पखवारा माना जाता है I तिल की बिजाई हल के पीछे कतार से कतार 30 से 45 सेंटीमीटर की दूरी पर बीज को कम गहरे रोपे जाते हैं I तिल की बिजाई हेतु एक हेक्टेयर भूमि के लिए तीन से चार किलोग्राम बीज उपयुक्त होता है I बीज जनित रोगों से संरक्षण के लिए 2.5 ग्राम थीरम या कैप्टान प्रति किलोग्राम बीज की दर से शोधन करना चाहिए I तिल की बुवाई का उचित समय जून के अंतिम सप्ताह से जुलाई का दूसरा पखवारा माना जाता हैI तिल की बुवाई हल के पीछे लाइन से लाइन 30 से 45 सेंटीमीटर की दूरी पर बीज को कम गहराई पर करते हैI

पोषण प्रबंधन कब करें

उर्वरकों का इस्तेमाल भूमि परीक्षण के आधार पर होना चाहिए I 80 से 100 कुंतल सड़ी गोबर की खाद खेत तैयारी करने के दौरान अंतिम जुताई में मिला देनी चाहिए। इसके साथ-साथ 30 किलोग्राम नत्रजन, 15 किलोग्राम फास्फोरस और 25 किलोग्राम गंधक प्रति हेक्टेयर इस्तेमाल करना चाहिए I रकार और भूड भूमि में 15 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर इस्तेमाल करना चाहिए I नत्रजन की आधी मात्रा और फास्फोरस,पोटाश व गंधक की भरपूर मात्रा बिजाई के दौरान बेसल ड्रेसिंग में और नत्रजन की आधी मात्रा पहली ही निराई-गुडाई के समय खड़ी फसल में देनी चाहिए।

तिल की खेती के लिए सिंचाई प्रबंधन कैसे किया जाए

सिंचाई प्रबंधन तिल की फसल में कब होना चाहिए किस प्रकार होना चाहिए इस बारे में बताईये? वर्षा ऋतू की फसल होने के कारण सिंचाई की कम आवश्यकता पड़ती हैI यदि पानी न बरसे तो आवश्यकतानुसार सिंचाई करनी चाहिएI फसल में 50 से 60 प्रतिशत फलत होने पर एक सिंचाई करना आवश्यक हैI यदि पानी न बरसे तो सिंचाई करना आवश्यक होता हैI यह भी पढ़ें: सिंचाई समस्या पर राज्य सरकार का प्रहार, इस योजना के तहत 80% प्रतिशत अनुदान देगी सरकार

तिल की खेती में निराई-गुडाई

किसान भाईयो प्रथम निराई-गुडाई बुवाई के 15 से 20 दिन बाद दूसरी 30 से 35 दिन बाद करनी चाहिएI निराई-गुडाई करते समय थिनिंग या विरलीकरण करके पौधों के आपस की दूरी 10 से 12 सेंटीमीटर कर देनी चाहिएI खरपतवार नियंत्रण हेतु एलाक्लोर50 ई.सी. 1.25 लीटर प्रति हेक्टेयर बुवाई के बाद दो-तीन दिन के अन्दर प्रयोग करना चाहिएI

तिल की खेती के लिए रोग नियंत्रण

इसमें तिल की फिलोड़ी और फाईटोप्थोरा झुलसा रोग लगते हैं। फिलोड़ी की रोकथाम के लिए बुवाई के दौरान कूंड में 10जी. 15 किलोग्राम अथवा मिथायल-ओ-डिमेटान 25 ई.सी 1 लीटर की दर से इस्तेमाल करना चाहिए। फाईटोप्थोरा झुलसा की रोकथाम करने के लिए 3 किलोग्राम कापर आक्सीक्लोराइड अथवा मैन्कोजेब 2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से जरूरत के अनुसार दो-तीन बार छिड़काव करना चाहिए I यह भी पढ़ें: इस फसल को बंजर खेत में बोएं: मुनाफा उगाएं – काला तिल (Black Sesame)

तिल की खेती में कीट प्रबंधन

तिल में पत्ती लपेटक और फली बेधक कीट लग जाते हैं I इन कीटों की रोकथाम करने के लिए क्यूनालफास 25 ई.सी. 1.25 लीटर या मिथाइल पैराथियान 2 प्रतिशत चूर्ण 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए I

तिल की कटाई एवं मड़ाई

तिल की पत्तियां जब पीली होकर झड़ने लगें एवं पत्तियां हरा रंग लिए हुए पीली हो जाएं तब समझ जाना चाहिए कि फसल पककर तैयार हो चुकी है I इसके पश्चात कटाई नीचे से पेड़ सहित करनी चाहिए I कटाई के पश्चात बण्डल बनाके खेत में ही भिन्न-भिन्न स्थानों पर छोटे-छोटे ढेर में खड़े कर देना चाहिए I जब बेहतर ढ़ंग से पौधे सूख जाएं तब डंडे छड़ आदि की मदद से पौधों को पीटकर अथवा हल्का झाड़कर बीज निकाल लेना चाहिए I
सोयाबीन, कपास, अरहर और मूंग की बुवाई में भारी गिरावट के आसार, प्रभावित होगा उत्पादन

सोयाबीन, कपास, अरहर और मूंग की बुवाई में भारी गिरावट के आसार, प्रभावित होगा उत्पादन

किसान भाई खेत में उचित नमी देखकर ही तिलहन और दलहन की फसलों की बुवाई शुरू करें

नई दिल्ली। बारिश में देरी के चलते और प्रतिकूल मौसम के कारण तिलहन और दलहन की फसलों की बुवाई में भारी गिरावट के आसार बताए जा रहे हैं। माना जा रहा है कि सोयाबीन, अरहर और मूंग की फसल की बुवाई में रिकॉर्ड गिरावट आ सकती है। 

खरीफ सीजन की फसलों की बुवाई इस साल काफी पिछड़ रही है। तिलहन की फसलों में मुख्यतः सोयाबीन की बुवाई में पिछले साल के मुकाबले राष्ट्रीय स्तर पर 77.74 फीसदी कमी आ सकती है। 

वहीं अरहर की बुवाई में 54.87 फीसदी और मूंग की फसल बुवाई में 34.08 फीसदी की कमी आने की संभावना है। उधर बुवाई पिछड़ने के कारण कपास की फसल की बुवाई में भी 47.72 फीसदी की कमी आ सकती है। हालांकि अभी भी किसान बारिश के बाद अच्छे माहौल का इंतजार कर रहे हैं।

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तिलहन के फसलों के लिए संजीवनी है बारिश

- इन दिनों तिलहन की फसलों के लिए बारिश संजीवनी के समान है। जून के अंत तक 80 मिमी बारिश वाले क्षेत्र में सोयाबीन और कपास की बुवाई शुरू हो सकती है। जबकि दलहन की बुवाई में अभी एक सप्ताह का समय शेष है।

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दलहनी फसलों के लिए पर्याप्त नमी की जरूरत

- कृषि वैज्ञानिकों का मानना है कि दलहनी फसलों की बुवाई से पहले खेत में पर्याप्त नमी का ध्यान रखना आवश्यक है। नमी कम पड़ने पर किसानों को दुबारा बुवाई करनी पड़ सकती है। दुबारा बुवाई वाली फसलों से ज्यादा बेहतर उत्पादन की उम्मीद नहीं की जा सकती है। इसीलिए किसान भाई पर्याप्त नमी देखकर की बुवाई करें। ----- लोकेन्द्र नरवार

दिवाली से पूर्व केंद्र सरकार गेहूं सहित 23 फसलों की एमएसपी में इजाफा कर सकती है

दिवाली से पूर्व केंद्र सरकार गेहूं सहित 23 फसलों की एमएसपी में इजाफा कर सकती है

लोकसभा चुनाव से पूर्व ही केंद्र सरकार किसानों को काफी बड़ा तोहफा दे सकती है। ऐसा कहा जा रहा है, कि सरकार शीघ्र ही गेहूं समेत विभिन्न कई फसलों की एमएसपी बढ़ाने की स्वीकृति दे सकती है। वह गेहूं की एसएमसपी में 10 प्रतिशत तक भी इजाफा कर सकती है। लोकसभा चुनाव से पूर्व केंद्र सरकार द्वारा किसानों को बहुत बड़ा गिफ्ट दिए जाने की संभावना है। ऐसा कहा जा रहा है, कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार रबी फसलों के मिनिमम सपोर्ट प्राइस में वृद्धि कर सकती है। इससे देश के करोड़ों किसानों को काफी फायदा होगा। सूत्रों के अनुसार, केंद्र सरकार गेहूं की एमएसपी में 150 से 175 रुपये प्रति क्विंटल की दर से इजाफा कर सकती है। इससे विशेष रूप से राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, बिहार और पंजाब के किसान सबसे ज्यादा लाभांवित होंगे। इन्हीं सब राज्यों में सबसे ज्यादा गेहूं की खेती होती है।

केंद्र सरकार गेंहू की अगले साल एमएसपी में 3 से 10 प्रतिशत वृद्धि करेगी

मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, केंद्र सरकार आगामी वर्ष के लिए गेहूं की एमएसपी में 3 प्रतिशत से 10 प्रतिशत के मध्य इजाफा कर सकती है। अगर केंद्र सरकार ऐसा करती है, तो गेहूं का मिनिमम सपोर्ट प्राइस 2300 रुपए प्रति क्विंटल तक पहुंच सकता है। हालांकि, वर्तमान में गेहूं की एमएसपी 2125 रुपए प्रति क्विंटल है। इसके अतिरिक्त सरकार मसूर दाल की एमएसपी में भी 10 प्रतिशत तक का इजाफा कर सकती है।

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यह निर्णय मार्केटिंग सीजन 2024- 25 के लिए लिया जाएगा

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि सरसों और सूरजमुखी (Sunflower) की एमएसपी में 5 से 7 प्रतिशत की बढ़ोतरी की जा सकती है। दरअसल, ऐसी आशा है कि आने वाले एक हफ्ते में केंद्र सरकार रबी, दलहन एवं तिलहन फसलों की एमएसपी बढ़ाने के लिए स्वीकृति दे सकती है। मुख्य बात यह है, कि एमएसपी में वृद्धि करने का निर्णय मार्केटिंग सीजन 2024-25 के लिए लिया जाएगा।

एमएसपी में समकुल 23 फसलों को शम्मिलित किया गया है

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि कृषि लागत एवं मूल्य आयोग की सिफारिश पर केंद्र मिनिमम सपोर्ट प्राइस निर्धारित करती है। एमएसपी में 23 फसलों को शम्मिलित किया गया है। 7 अनाज, 5 दलहन, 7 तिलहन और चार नकदी फसलें भी शम्मिलित हैं। आम तौर पर रबी फसल की बुवाई अक्टूबर से दिसंबर महीने के मध्य की जाती है। साथ ही, फरवरी से मार्च एवं अप्रैल महीने के मध्य इसकी कटाई की जाती है।

जानें एमएसपी में कितनी फसलें शामिल हैं

  • अनाज- गेहूं, धान, बाजरा, मक्का, ज्वार, रागी और जो
  • दलहन- चना, मूंग, मसूर, अरहर, उड़द,
  • तिलहन- सरसों, सोयाबीन, सीसम, कुसुम, मूंगफली, सूरजमुखी, निगर्सिड
  • नकदी- गन्ना, कपास, खोपरा और कच्चा जूट
सूरजमुखी की इन प्रमुख किस्मों की खेती से मिलेगी शानदार उपज और मोटा मुनाफा

सूरजमुखी की इन प्रमुख किस्मों की खेती से मिलेगी शानदार उपज और मोटा मुनाफा

सूरजमुखी एक सदाबहार फसल है, इसकी खेती रबी, जायद और खरीफ के तीनों सीजन में की जा सकती है। बतादें, कि सूरजमुखी की खेती के लिए सबसे अच्छा समय मार्च के माह को माना जाता है। इस फसल को कृषकों के बीच नकदी फसल के रूप में भी पहचाना जाता है। 

सूरजमुखी की खेती से किसान कम लागत में ज्यादा मुनाफा अर्जित कर सकते हैं। इसके बीजों से 90-100 दिनों के समयांतराल में 45 से 50% तक तेल हांसिल किया जा सकता है। 

सूरजमुखी की फसल को शानदार विकास देने के लिए 3 से 4 बार सिंचाई की जाती है, ताकि इसके पौधे सही तरीके से पनप सकें। अगर हम इसकी टॉप 5 उन्नत किस्मों की बात करें, तो इसमें एमएसएफएस 8, केवीएसएच 1, एसएच 3322, ज्वालामुखी और एमएसएफएच 4 आती हैं।

1. सूरजमुखी की एमएसएफएस-8 (MSFS-8) किस्म 

सूरजमुखी की उन्नत किस्मों में एमएसएफएस-8 भी शम्मिलित है। इस किस्म के सूरजमुखी के पौधे की ऊंचाई तकरीबन 170 से 200 सेमी तक रहती है। एमएसएफएस-8 सूरजमुखी के बीज में 42 से 44% तक तेल की मात्रा पाई जाती है।

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किसान को सूरजमुखी की इस फसल को तैयार करने में 90 से 100 दिनों का वक्त लगता है। MSFS-8 किस्म की सूरजमुखी फसल की यदि एकड़ भूमि पर खेती की जाती है, जो इससे लगभग 6 से 7.2 क्विंटल तक उपज मिलती है। 

2. सूरजमुखी की केवीएसएच-1 (KVSH-1) किस्म 

केवीएसएच-1 सूरजमुखी की उन्नत किस्मों में शम्मिलित है, जो कि शानदार उत्पादन देती है। सूरजमुखी के इस किस्म वाले पौधे की ऊंचाई तकरीबन 150 से 180 सेमी तक होती है। 

केवीएसएच-1 सूरजमुखी के बीज से लगभग 43 से 45% तक तेल प्राप्त होता है। किसान को सूरजमुखी की इस उन्नत किस्म को विकसित करने में 90 से 95 दिनों की समयावधि लगती है। अगर केवीएसएच-1 सूरजमुखी की फसल को एकड़ भूमि पर लगाया जाए, तो इससे तकरीबन 12 से 14 क्विंटल तक उत्पादन हो सकता है। 

3. सूरजमुखी की एसएच-3322 (SH-3322) किस्म 

सूरजमुखी की शानदार उपज देने वाली किस्मों में एसएच-3322 भी शुमार है। इस सूरजमुखी की उन्नत किस्म के पौधों की ऊंचाई तकरीबन 137 से 175 सेमी तक पाई जाती है। एसएच-3322 सूरजमुखी के बीज से लगभग 40-42% फीसद तक तेल की मात्रा हांसिल होती है। 

किसान को एसएच-3322 किस्म की सूरजमुखी फसल को विकसित करने में 90 से 95 दिनों का वक्त लग जाता है। सूरजमुखी की एसएच-3322 किस्म को अगर एक एकड़ जमीन पर उगाया जाए, तो इससे तकरीबन 11.2 से 12 क्विंटल तक की उपज हांसिल हो सकती है। 

4. सूरजमुखी की ज्वालामुखी (Jwalamukhi) किस्म 

सूरजमुखी की ज्वालामुखी किस्म के बीजों में 42 से 44% प्रतिशत तक तेल पाया जाता है। किसान को इसकी फसल तैयार करने में 85 से 90 दिनों का वक्त लगता है। 

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ज्वालामुखी पौधे की ऊंचाई तकरीबन 170 सेमी तक रहती है। सूरजमुखी की इस किस्म को एक एकड़ भूमि पर लगाने से लगभग 12 से 14 क्विंटल तक पैदावार हो जाती है। 

5. सूरजमुखी की एमएसएफएच-4 (MSFH-4) किस्म

सूरजमुखी की इस एमएसएफएच-4 किस्म की खेती रबी और जायद के सीजन में की जाती है। इस फसल के पौधे की ऊंचाई तकरीबन 150 सेमी तक पाई जाती है। 

एमएसएफएच-4 सूरजमुखी के बीजों में तकरीबन 42 से 44% तक तेल की मात्रा विघमान रहती है। इस किस्म की फसल को तैयार करने में किसान को 90 से 95 दिनों का वक्त लग जाता है। 

अगर किसान इस किस्म की फसल को एक एकड़ खेत में लगाते हैं, तो इससे करीब 8 से 12 क्विंटल तक की उपज बड़ी आसानी से प्राप्त हो जाती है।

मत्स्य पालन की पूरी जानकारी (Fish Farming information in Hindi)

मत्स्य पालन की पूरी जानकारी (Fish Farming information in Hindi)

परंपरागत तरीके से किया गया मछली पालन भी आपकी कमाई को समय के साथ इतना बढ़ा सकता है, जो कि कई गाय और भैंस पालने से होने वाली बचत से कई गुना ज्यादा हो सकती है "  - चार्ल्स क्लोवर (लोकप्रिय कृषि वैज्ञानिक)

क्या है मछली पालन और कैसे हुई इसकी शुरुआत

मछली पालन में पानी की मदद से घर पर ही एक छोटा तालाब या पूल बनाकर मछलियां को बड़ा किया जाता है और उन्हें भोजन के रूप में बेचा जाता है या फिर खुद भी इस्तेमाल किया जाता है। एनिमल फूड प्रोडक्शन में मछली पालन सबसे तेजी से वृद्धि करने वाली खेती में गिना जाता है, जिसके तहत अलग-अलग प्रजातियों की मछलियों की कृत्रिम रूप से ब्रीडिंग करवाई जाती है। मुख्यतः मछली पालन की शुरुआत रोमन एम्पायर से जुड़े हुए देशों में हुई थी ,परंतु जिस विधि से वर्तमान मछली पालन किया जाता है, उसकी शुरुआत चीन में हुई मानी जाती है। मछली के अंडे की मदद से आधुनिक तरीके के फार्म हाउस बनाकर 1733 में जर्मनी के कुछ किसानों ने भी आधुनिक मत्स्य पालन की नींव रखी थी और भारत में भी कुछ क्षेत्रों में वर्तमान समय में इसी प्रकार का मत्स्य पालन किया जाता है।

कैसे करें मछली पालन की शुरुआत :

वर्तमान में भारत में मछली पालन की कई अलग-अलग विधियां अपनायी जाती है।

  • मछली फार्म/फिश टैंक :

मछली पालन की शुरुआत के लिए सबसे पहले आपको एक मछली फार्म/फिश टैंक बनाना होगा। उसी जगह पर मछलियों को लंबे समय तक रखा जाता है। मछली फार्म एक बड़ा तालाब या पूल होता है, जिसमें पानी भर कर रखा जाता है और इसे पूरी तरीके से साफ पानी से ही भरा जाता है।

किसान भाइयों को ध्यान रखना होगा कि इस प्रकार के तालाबों में अलग-अलग तरह के उपकरण इस्तेमाल करने के लिए बीच में जगह का होना भी अनिवार्य है, साथ ही उस तालाब में पानी भरे जाने और निकालने के लिए ड्रेनेज की भी उत्तम व्यवस्था होनी चाहिए, नहीं तो पानी के प्रदूषित होने की वजह से आपके तालाब में पनप रही मछलीयां पूरी तरीके से खत्म हो सकती है।

साथ ही पानी के प्रदूषण को रोकने के लिए आपको तालाब की ऊपरी सतह को बारिश के समय एक कवर से ढक कर रखना होगा, नहीं तो कई बार अम्लीय वर्षा होने की वजह से तालाब के पानी की अम्लता काफी बढ़ जाती है और इससे मछलियों की ग्रोथ पूरी तरीके से रुक सकती है।

  • मछली की प्रजाति का निर्धारण करना :

सबसे पहले किसान भाइयों को अपने आस पास के मार्केट में मांग के अनुसार मछली की प्रजाति का चयन करना होगा। वर्तमान में भारत में रावस (Rawas or Indian Salmon) तथा कतला (katla) के साथ ही तिलापिया (Tilapia) और कैटफिश (Catfish) जैसी प्रजातियां बहुत ही तेजी से वृद्धि करके बचत देने वाली प्रजातियों में गिनी जाती है। यदि आप अपने घर के ही किसी एरिया में मछली फार्म बनाकर उत्पादन करना चाहते हैं तो कतला और तिलपिया मछली को सबसे अच्छा माना जाता है।

पिछले एक दशक से भारत का बाजार विश्व में पानी से उत्पादित होने वाले एनिमल फूड में सर्वश्रेष्ठ माना जाता रहा है और अभी भी विश्व निर्यात में भारत पहले स्थान पर आता है।

  • फिश फार्मिंग करने की लोकप्रिय विधियां :

वर्तमान में भारत में एकल प्रजाति मछली पालन और क्लासिकल तरीके से मछली की खेती की जाती है।

एकल प्रजाति विधि :

एकल प्रजाति विधि में फिश फार्म में लंबे समय तक केवल एक ही प्रजाति की मछलियों को रखना होगा, यदि आप एक नए किसान भाई है तो इस विधि को ही अपनाना चाहिए क्योंकि इसमें अलग-अलग प्रजाति की मछलियां ना होने की वजह से आपको कम ध्यान देने की जरूरत होगी, जिससे कि व्यापार में नुकसान होने की संभावना कम रहेगी।

क्लासिकल तरीके से मछली की खेती :

दूसरी विधि के तहत पांच से दस प्रकार की अलग-अलग प्रजातियों को एक ही जगह पर बड़ा किया जाता है।

इस विधि में किसान भाइयों को ध्यान रखना होगा कि अलग-अलग मछलियों की भोजन और दूसरी आवश्यकता भी अलग-अलग होती है, इसलिए अपने फिश फार्म निरंतर निगरानी करते रहना होगा।

वर्तमान में मछलियों के अंडे को बड़ा करके भी कई युवा किसान भाई मछली पालन कर रहे हैं, परंतु इसके लिए आपको कई प्रकार की वैज्ञानिक विधियों की आवश्यकता होगी जो कि एक नए किसान के लिए काफी कठिन हो सकती है।

  • मछली पालन के लिए कैसे प्राप्त करे लाइसेंस :

मछली पालन के लिए भारत के कुछ राज्यों में सरकारी लाइसेंस की आवश्यकता होती है। इसके बिना उत्पादन करने पर आपको भारी दंड भी भरना पड़ सकता है। आंध्र प्रदेश,तमिलनाडु और केरल राज्य सरकार ने इस प्रकार के प्रावधान बनाए है।

इस लाइसेंस की जानकारी आप अपने राज्य सरकार के कृषि मंत्रालय के मछली विभाग की वेबसाइट पर जाकर ले सकते है।

अलग-अलग राज्यों ने मछली उत्पादन के दौरान होने वाले पर्यावरणीय प्रभाव और नियंत्रण के लिए कई प्रकार के कानून भी बना रखे है, क्योंकि मछली पालन के दौरान काफी ज्यादा वेस्ट उत्पादित होता है, जिसे मुर्गी पालन के दौरान उत्पादित होने वाले वेस्ट के जैसे खाद के रूप में इस्तेमाल करने की संभावना कम होती है।

  • मछली पालन के लिए कैसे करें सही जगह का चुनाव :

यदि आप बड़े स्तर पर मछली पालन करना चाहते हैं, तो आपको एक खुली और समतल जगह का चुनाव करना होगा और वहां पर ही मछली फार्म के लिए छोटे छोटे तालाब बनाने होंगे।

इस प्रकार के तालाब दोमट मिट्टी वाली समतल जमीन में बनाए जाएं, तो उनकी उत्पादकता सबसे प्रभावी रूप से सामने आती है।

अलग-अलग प्रजाति के लिए तालाब के आकार और डिजाइन में भी अंतर रखा जाता है, जैसे कि कैटफिश प्रजाति ज्यादातर तालाब के नीचे के हिस्से में ही रहती है इसीलिए इस प्रकार की प्रजाति के उत्पादन के लिए तालाब को ऊपर की तुलना में नीचे की तरफ ज्यादा बड़ा और चौड़ा रखा जाता है।

  • मत्स्य पालन में कौन-कौन से उपकरणों की होगी आवश्यकता :

यह बात तो किसान भाई जानते ही हैं, कि किसी भी प्रकार की खेती के लिए अलग-अलग उपकरण और सामग्री की आवश्यकता होती है, वैसे ही मछली पालन के लिए भी कुछ उपकरण जरूरी होंगे।

जिनमें सबसे पहले एक पंप (pump) को शामिल किया जा सकता है, क्योंकि कई बार पानी पूरी तरीके से साफ ना होने पर उस में घुली हुई ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है, जिससे कि मछलियों को अपने गलफड़ों से सांस लेने में तकलीफ होने लगती है, इसके लिए आपको पम्प की मदद से ऊपर की वातावरणीय हवा को पानी में भेजना होगा, ऐसा करने से मछलियों की वृद्धि काफी तेजी से होगी और उनके द्वारा खाया गया खाना भी पूरी तरीके से उनकी वृद्धि में ही काम आ पाएगा।

दूसरे उपकरण के रूप में एक पानी शुद्धिकरण (Water Purification) सिस्टम का इस्तेमाल किया जाना चाहिए, इसके लिए कुछ किसान पानी को समय-समय पर तालाब से बाहर निकाल कर उसे फिर से भर देते है वहीं कुछ बड़े स्तर पर मछली पालन करने वाले किसान वैज्ञानिक उपकरणों की मदद से अल्ट्रावायलेट किरणों का इस्तेमाल कर पानी में पैदा होने वाले हानिकारक जीवाणुओं को नष्ट कर देते हैं।

यदि आप घर से बाहर बने किसी प्राकृतिक तालाब में मछली पालन करना चाहते हैं, तो वहां से मछलियों को बाहर निकलने से रोकने के लिए बड़े जाली से बने हुए नेट का इस्तेमाल किया जाता है, जिसके अंदर मछलियों को फंसा कर बाहर निकालकर बाजार में बेचा जा सकता है।

वर्तमान में तांबे की धातु से बने हुए नेट काफी चर्चा में है, क्योंकि इस प्रकार के नेट को समय-समय पर तालाब में घुमाते रहने से वहां पर पैदा होने वाले कई हानिकारक जीवाणुओं के साथ ही शैवाल का उत्पादन भी पूरी तरीके से नष्ट हो सकता है और पानी में डाला गया भोजन पूरी तरह से मछलियों की द्वारा ही काम में लिया जाता है।

  • कैसे डालें मछलियों को खाना :

मछली उत्पादन की तेज वृद्धि के लिए आपको लगभग एक पाउंड वजन की मछलियों को 2 पाउंड वजन का खाना खिलाना होता है। यह खाना बाजार में ही कई कंपनी के द्वारा बेचा जाता है, इस खाने में डेफनिया (Defnia) , टुबीफेक्स (Tubifex) और ब्लडवॉर्म (Bloodworm) का इस्तेमाल किया जाता है।

इस खाने की वजह से मछलियों में कैल्शियम,फास्फोरस और कई प्रकार के ग्रोथ हार्मोन की कमी की पूर्ति की जा सकती है। यह खाना मछलियों के शरीर में कार्बोहाइड्रेट की कमी को पूरा करने के अलावा प्रोटीन के स्तर को भी बढ़ाते है, जिससे उनका वजन बढ़ने के अलावा अच्छी क्वालिटी मिलने की वजह से बाजार में मांग भी तेजी से बढ़ती है और किसानों को होने वाला मुनाफा भी अधिक हो सकता है।

किसान भाई ध्यान रखें कि मछली फार्म में मछलियों को दिन में 2 बार ही खाना खिलाना होता है, इससे कम या ज्यादा बार खिलाने की वजह से उनकी मस्क्युलर (Muscular) ग्रोथ पूरी तरीके से रुक सकती है।

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मछली पालन में कितनी हो सकती है लागत ?

मछली पालन के दौरान होने वाली लागत का निर्धारण अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग स्तर पर किया जाता है, क्योंकि कई जगह पर तालाब में डालने के लिए काम में आने वाली छोटी मछलियों की कीमत काफी कम होती है, उसी हिसाब से वहां पर आने वाली लागत भी कम हो जाती है। भारत के पशुपालन मंत्रालय और मछली विभाग (मत्स्यपालन विभाग - DEPARTMENT OF FISHERIES) की तरफ से जारी की गई एक एडवाइजरी के अनुसार, एक बीघा क्षेत्र में मछली फार्म स्थापित करके पूरी तरीके से मछली उत्पादन करने के दौरान, लगभग दस लाख रुपए तक का खर्चा आ सकता है। अलग-अलग राज्यों में इस्तेमाल में होने वाले अलग उपकरणों और लेबर के खर्चे को मिलाकर यह लागत सात लाख रुपए से लेकर बारह लाख रुपए तक हो सकती है।

मछलियों में होने वाली बीमारियां और इनका इलाज

अलग-अलग प्रजाति की मछलियों को बड़ा होने के लिए अलग प्रकार के पर्यावरणीय कारकों की आवश्यकता होती है कई बार दिन ही पर्यावरणीय कारकों की कमी से और संक्रमण तथा दूसरी समस्याओं की वजह से मछलियों में कई तरह की बीमारियां देखने को मिलती है जिनमें कुछ बीमारियां और उनके इलाज की जानकारी निम्न प्रकार है :-

  • लाल घाव रोग (Epizootic ulcerative disease syndrome) :

इस रोग से संक्रमित मछली के शरीर के आंतरिक हिस्सों में जगह-जगह पर घाव हो जाते हैं और एक बार यदि एक मछली इस रोग से संक्रमित हो जाए तो इसका संक्रमण सभी मछलियों में फैल सकता है, यहां तक कि अलग प्रजातियां भी इस रोग की चपेट में आ जाती है।

लाल घाव बीमारी के पीछे कई प्रकार के कारक जैसे कि जीवाणु, फंगस और विषाणु को जिम्मेदार माना जाता है। संक्रमण फैलने के 1 से 2 दिन के बाद ही मछलियों की मृत्यु होना शुरू हो जाती है।

इस रोग का इलाज करने के लिए आपको अपने तालाब में चूने का मिश्रण बनाकर एक सप्ताह के अंतराल के साथ छिड़काव करना होगा।

हालांकि अभी इसके उपचार के लिए भारतीय कृषि वैज्ञानिकों ने एक औषधि भी तैयार की है, जिसे 'सीफैक्स' ब्रांड नाम से बाजार में भी बेचा जा रहा है। इस औषधि का इस्तेमाल प्रति हेक्टेयर क्षेत्र के आधार पर एक लीटर की दर से किया जा सकता है।

यदि औषधि के छिड़काव के 5 से 6 दिन बाद भी मछलियों की मृत्यु जारी रहे,तो तुरंत किसी पशु चिकित्सक से सलाह लेना ना भूलें।

  • ड्राप्सी रोग(Dropsy Disease) :

यह रोग मुख्यतया कैटफ़िश प्रजाति की मछलियों में देखा जाता है, इस रोग से ग्रसित होने के बाद मछली के शरीर का आकार पूरी तरह असंतुलित हो जाता है और उसके सिर की तुलना में धड़ का आकार बहुत ही छोटा और पतला रह जाता है, जिससे मछली की आगे की ग्रोथ भी पूरी तरह प्रभावित हो जाती है।

ड्रॉप्सी रोग की वजह से शरीर की अंदरूनी गुहा में पानी का जमाव होने लगता है, जोकि एक बिना संक्रमित मछली में गलफड़ों के जरिए बाहर निकल जाना चाहिए था।

इस रोग के इलाज के लिए किसान भाइयों को अपने तालाब में पानी की साफ सफाई का पूरा ध्यान रखना होगा और मछलियों को पर्याप्त मात्रा में भोजन देना होगा।

ऊपर बताई गई चूने की विधि का इस्तेमाल इस रोग के इलाज के लिए भी किया जा सकता है, बस छिड़काव के बीच का अंतराल 15 दिन से अधिक रखें।

  • मछलियों के शरीर में ऑक्सीजन की कमी (Hypoxia) :

मछलियां अपने गलफड़ों की मदद से पानी में घुली हुई ऑक्सीजन का इस्तेमाल करती है परन्तु यदि किन्हीं भी कारणों से जल प्रदूषण बढ़ता है तो उस में घुली हुई ऑक्सीजन की मात्रा काफी कम हो जाती है, जिससे मछलियों के लिए काम में आने वाली ऑक्सीजन भी स्वतः ही कम हो जाती है।

मुख्यतया ऐसी समस्या मानसून काल और गर्मियों के दिनों में नजर आती है परंतु कभी-कभी सर्दियों के मौसम में भी प्रातः काल के समय मछलियों के लिए ऐसी दिक्कत हो सकती है।

इसके इलाज के लिए मछलियों को दिए जाने वाले भोजन को थोड़ा कम करना होगा और पंप की सहायता से बाहर की पर्यावरणीय वायु को अंदर प्रसारित करना होगा, जिससे कि जल में घुली हुई ऑक्सीजन की मात्रा को एक अच्छे स्तर पर पुनः पहुंचाया जा सके।

  • अमोनिया पॉइजनिंग :

जब भी किसी फिश टैंक को शुरुआत में स्थापित किया जाता है और उसमें एकसाथ ही सही अधिक मात्रा में मछलियां लाकर डाल दी जाती है तो उस पूरे टैंक में अमोनिया की मात्रा काफी बढ़ सकती है।

ऐसी समस्या होने पर मछलियों के गलफड़े लाल आकार के हो जाते है और उन्हें सांस लेने में बहुत ही तकलीफ होने लगती है।

इससे बचाव के लिए समय-समय पर पानी को बदलते रहना होगा और यदि आप एक साथ इतने पानी की व्यवस्था नहीं कर सकते हैं तो कम से कम उस टैंक में भरे हुए 50% पानी को तो बदलना ही होगा।

इसके अलावा अमोनिया स्तर को और अधिक बढ़ने से रोकने के लिए मछलियों को सीमित मात्रा में खाना खिलाना चाहिए और अपने टैंक में मछलियों की संख्या धीरे-धीरे ही बढ़ानी चाहिए।साथ ही बिना खाए हुए खाने को तुरंत बाहर निकाल देना होगा, इसके अलावा पानी की गुणवत्ता की भी समय-समय पर जांच करवानी होगी।

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मछली पालन की मार्केटिंग स्ट्रेटेजी :

अपने ग्राहकों तक सही समय और सही मात्रा में मछलियां पहुंचाने के अलावा अच्छे मुनाफे के लिए आपको एक बेहतर मार्केटिंग स्ट्रेटजी की आवश्यकता होगी। इसके लिए, संयुक्त राष्ट्र की खाद्य एवं कृषि संस्थान (Food and Agriculture Organisation of United Nations) ने एक एडवाइजरी जारी की है, इस एडवाइजरी के अनुसार एक बेहतर मार्केट पकड़ बनाने के लिए आपको कुछ बातों का ध्यान रखना होगा, जैसे कि:

  • प्राइमरी मार्केट में केवल उसी विक्रेता को अपनी मछलियां बेचें, जो सही कीमत और तैयार की गई मछलियों की निरंतर खरीदारी करता हो।
  • किसान भाइयों को ध्यान रखना होगा कि अपने द्वारा तैयार की गई मछलियों की अंतिम बाजार कीमत की तुलना में लगभग 65% तक मुनाफा मिल रहा हो।

जैसे कि यदि एक किलो मछली की वर्तमान बाजार कीमत 400 रुपए है, तो आपको लगभग 330 रुपए प्रति किलोग्राम से कम कीमत पर अपनी मछली नहीं बेचनी चाहिए।

  • यदि बाजार में मांग अधिक ना हो और आपके टैंक की मछलियां पूरी तरीके से बिकने के लिए तैयार है तो उन्हें एक कोल्ड स्टोरेज हाउस में ही संरक्षित करना चाहिए।

इसके लिए भारत सरकार के उपभोक्ता (Consumer) मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले वेयरहाउस डिपॉजिटरी (Warehouse Depository) संस्थान या फिर फ़ूड कारपोरेशन ऑफ इंडिया (Food Corporation of India - FCI) के साथ जुड़े हुए कुछ कोल्ड स्टोरेज (Cold Storage) हाउस में भी संरक्षित कर सकते है।

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इसके लिए कंजूमर मंत्रालय की वेबसाइट पर जाकर अपने आसपास में स्थित किसी ऐसे ही कोल्ड स्टोरेज हाउस की जानकारी लेनी होगी।

  • संयुक्त राष्ट्र की FAO संस्थान के द्वारा ही किए गए एक सर्वे में पाया गया कि भारतीय मत्स्य किसानों को लगभग 56% मुनाफा ही देय किया जाता है और 44% मुनाफा बिचौलिये अपने पास रख लेते हैं।

अपने मुनाफे को बढ़ाने के लिए आप अलग-अलग बिचौलियों से संपर्क कर सकते है या फिर सरकार के राष्ट्रीय कृषि बाजार E-NAM (National Agriculture Market - eNAM) प्रोजेक्ट के तहत सीधे ही खरीदार से संपर्क कर, अपनी मछलियों को भारत के किसी भी हिस्से में बेच सकते हैं।

  • मछलियों के टैंक में बड़ा होते समय उनके खानपान का पूरा ध्यान रखना चाहिए, जिससे कि वजन भी अच्छा बढ़ेगा साथ ही प्रोटीन की मांग रखने वाले युवा लोगों के मध्य आप के फार्म हाउस की लोकप्रियता भी बढ़ेगी।
  • अपने लोकल मार्केट में मछलियों को बेचने के लिए आप एक वेबसाइट का निर्माण करवा सकते हैं, जिसमें ऑनलाइन पेमेंट की सुविधा उपलब्ध करवाकर डायरेक्ट डिलीवरी भी कर सकते हैं।

यदि आपके क्षेत्र में दूसरा प्रतिस्पर्धी नहीं है तो आसानी से आपकी सभी मछलियों को अपने इलाके में ही बेचा जा सकता है।

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मछली पालन में योगदान के लिए कुछ सरकारी स्कीम और उनके तहत मिलने वाली सब्सिडी :

भारत में मत्स्य पालन करने वाले किसानों की आय को बढ़ाने के लिए अपने संकल्प के तौर पर साल 2019 में ही, भारत सरकार ने मत्स्य पालन के लिए अलग से एक विभाग की स्थापना भी की है और इसी के तहत कुछ नई सरकारी स्कीमों की भी शुरुआत की है, जो कि निम्न प्रकार है :

 मछली उत्पादन के लिए लाई गई नील क्रांति के पहले फेज में अच्छी सफलता मिलने के बाद अब इसी का अगला फेस शुरू किया गया है। इस स्कीम के तहत यदि आप सामान्य कैटेगरी में आते हैं तो आपको अपने प्रोजेक्ट में लगने वाली कुल आय का लगभग 40% सब्सिडी के तौर पर दिया जाएगा, वहीं अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और महिलाओं के लिए सब्सिडी को 60% रखा गया है।

इस स्कीम का उद्देश्य मछली उत्पादन के अलग-अलग क्षेत्र में काम कर रहे अलग-अलग प्रकार के किसानों को सब्सिडी प्रदान करना है। इस स्कीम के तहत यदि आप एक नया फिश टैंक बनाते है और उस पर तीन लाख रुपए तक की लागत आने तक 20% सब्सिडी दी जाती है, वहीं अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए 25% सब्सिडी रखी गई है। यदि आप अपने पुराने टैंक को पुनर्निर्मित कर उसे मत्स्य पालन में इस्तेमाल करने योग्य बनाना चाहते हैं तो भी आपको यह सब्सिडी मिल सकती है।

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कुछ समय पहले ही भारत सरकार ने कृषि से जुड़े किसानों को मिलने वाले किसान क्रेडिट कार्ड की पहुंच को अब मत्स्य पालन के लिए भी बढ़ा दिया है और इसी क्रेडिट कार्ड की मदद से अब मछली पालन करने वाले किसान भी आसानी से कम ब्याज दर पर लोन दिया जा सकेगा। यदि आप दो लाख रुपए तक का लोन लेना चाहते हैं तो आपको 7% की ब्याज दर चुकानी होगी, जिसमें समय-समय पर सरकार के द्वारा रियायत भी दी जाती है। किसान भाइयों को ध्यान रखना होगा, कि एक बार यह क्रेडिट कार्ड मिल जाने पर आपको किसी भी प्रकार के संसाधन को गिरवी रखने की जरूरत नहीं होती है और बिना अपनी पूंजी दिखाए आसानी से 3 लाख रुपए का लोन ले पाएंगे।

पिछले 2 से 3 वर्षों में भारत के मछली उत्पादक किसानों ने 2020 में लांच हुई प्रधान मंत्री मत्स्य संपदा योजना के तहत मिलने वाली सब्सिडी का काफी अच्छा फायदा उठाया है। इस स्कीम के तहत अनुसूचित जाति और महिलाओं को मत्स्य पालन करने के लिए बनाए गए पूरे सेटअप पर आने वाले खर्चे का लगभग 60% सब्सिडी के तौर पर दिया जाता है, वहीं सामान्य केटेगरी से आने वाले किसानों को 40% सब्सिडी मिलेगी। इस स्कीम से जुड़ने के लिए आपको अपना आधार कार्ड और मूल निवास प्रमाण पत्र के साथ ही बैंक पासबुक की एक प्रति और जाति प्रमाण पत्र के साथ भारत सरकार के ही अंत्योदय सरल पोर्टल पर जाकर रजिस्ट्रेशन करवाना होगा या फिर आप अपने आसपास ही स्थित मछली विभाग के स्थानीय ऑफिस में जाकर भी इस योजना का लाभ उठा सकते हैं। आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत लांच की गई इस स्कीम के अंतर्गत किसानों की आय को दोगुना करने के अलावा मछली उत्पादन के बाद उसे बाजार तक पहुंचाने में आने वाली लागत को भी 30% तक कम करने का लक्ष्य रखा गया है।

और अधिक जानकारी के लिए, भारत सरकार की आधिकारिक वेबसाइट को देखें :भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के मात्स्यिकी विभागमत्स्य पालन विभाग (Department of Fisheries) - PMMSY


आशा करते है कि Merikheti.com के द्वारा दी गई जानकारी के साथ ही सरकार के द्वारा चलाई जा रही योजनाओं की मदद से आप भी मत्स्य पालन कर अच्छा मुनाफा कमा पाएंगे और मछली उत्पादन में भारत को विश्व में श्रेष्ठ स्थान दिलाने में भी कामयाब हो पाएंगे।

तिल की खेती की सम्पूर्ण जानकारी

तिल की खेती की सम्पूर्ण जानकारी

तिल की खेती कम पानी वाले इलाकों में की जाती है। कम लागत मैं अच्छी आए देने वाली तिल की फसल लोगों में कम प्रचलित है लेकिन हालिया तौर पर खाद्य तेलों की कमी के चलते आसमान छू रहे खाद्य तेलों के दाम किसानों को तेल और सोयाबीन जैसी फसलों की तरफ आकर्षित कर रहे हैं। तिल की शुद्ध एवं मिश्रित खेती की जाती है। मैदानी इलाकों में तिल की फसल को ज्वार बाजरा अरहर जैसी फसलों के साथ मिश्रित रूप से करते हैं। राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार सहित कई राज्यों में तिल की खेती की जाती है। वर्तमान दौर में तिल की खेती आर्थिक दृष्टि से बेहद लाभकारी हो सकती है।

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श्रेष्ठ उत्पादन तकनीक

अच्छी पैदावार के लिए बढ़िया जल निकासी वाली जमीन होनी चाहिए। खेत की तैयारी गहरी मिट्टी पलटने वाले कल्टीवेटर एवं हैरों आदि से करनी चाहिए। अच्छी उपज के लिए 5 टन सड़ी हुई गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर के हिसाब से जरूर डालनी चाहिए। खाद आदि डालने से पहले खेत को कंप्यूटर मांझे से समतल करा लेना चाहिए ताकि बरसाती सीजन में खेत के किसी हिस्से में पानी रुके नहीं और फसल गलने से बच सके।

उन्नत किस्में

अच्छी पैदावार के लिए अच्छे बीज का होना आवश्यक है। हर राज्य की जलवायु के अनुरूप अलग-अलग किसमें होती हैं किसान भाइयों को अपने राज्य और जिले के कृषि विभाग, कृषि विज्ञान केंद्र एवं कृषि विश्वविद्यालय में संपर्क करके अपने क्षेत्र के लिए अच्छी किस्म का चयन करें। अच्छी किस्म का पता आजू बाजू में खेती करने वाले किसान से भी मिल सकता है। सरकारी संस्थानों में बीज की कमी और किसानों की पहुंच ना होने के कारण विश्वसनीय प्राइवेट दुकानदारों से भी अच्छा बीज लिया जा सकता है। टी- 4,12,13,78, आरटी-351,शेखर, प्रगति, तरुण आदि किस्में विभिन्न क्षेत्रों एवं पर्यावरणीय परिस्थितियों के लिए अनुमोदित हैं। सभी किस्में 80 से अधिकतम 100 दिन में पक जाती हैं। तेल प्रतिशत 40 से 50 रहता है। उत्पादन 7 से 8 कुंतल प्रति हेक्टेयर मिलता है।

तिल की खेती के लिए बीज दर

एक हेक्टेयर में तिल की खेती करने के लिए 3 से 4 किलोग्राम बीज की आवश्यकता होती है। बीज को उपचारित करके बोना चाहिए। उपचारित करने के लिए 2 ग्राम जीरा या 1 ग्राम कार्बेंडाजिम दवा में से कोई एक दवा लेकर प्रति किलोग्राम बीज में बुवाई से पूर्व में लनी चाहिए। इससे बीज जनित रोगों से बचाव हो सकता है।

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तिल की बिजाई का समय

तिल की बिजाई के लिए जून के अंतिम सप्ताह से जुलाई के दूसरे पखवाड़े तक की जा सकती है। बिजाई हमेशा लाइनों में करनी चाहिए। यदि मशीन से बिजाई की जाए तो ज्यादा अच्छा रहता है। लाइन से लाइन की दूरी 30 से 45 सेंटीमीटर रखनी चाहिए। बीज को ज्यादा गहरा नहीं बोना चाहिए।

तिल की खेती के लिए जरूरी उर्वरक

तिल की खेती के लिए 30 किलोग्राम नत्रजन 20 किलोग्राम फास्फोरस एवं 20 किलोग्राम गंधक का प्रयोग करना चाहिए। फसल बिजाई से पूर्व नत्रजन की आधी मात्रा ही गंधक एवं फास्फोरस के साथ मिलाकर डालनी चाहिए। उर्वरक प्रबंधन मिट्टी परीक्षण के आधार पर करें तो ज्यादा लाभ हो सकता है। फसल में फूल बनते समय 2% यूरिया के घोल का छिड़काव बेहद कारगर रहा है। थायो यूरिया का प्रयोग भी इस अवस्था में श्रेष्ठ रहेगा। तिल की खेती के लिए पहली निराई गुड़ाई 20 दिन के बाद एवं दूसरी निराई गुड़ाई 30 से 35 दिन के बाद कर देनी चाहिए। इस दौरान जहां पौधे ज्यादा नजदीक हो उन्हें हटा देना चाहिए पौधे से पौधे की दूरी 10 से 12 सेंटीमीटर रखनी चाहिए। इसके अलावा खरपतवार नियंत्रण के एलाक्लोर 50 इसी सवा लीटर मात्रा बुवाई के 3 दिन के अंदर खेत में छिड़क देनी चाहिए। जब पौधों में 50 से 60% फली लग जाएं तब खेत में नमी बनाए रखना आवश्यक है। नमी कम हो तो पानी लगाना चाहिए। पकी फसल की फलियां ऊपर की तरफ रखनी चाहिए। फलिया सूख जाएं तो उन्हें उलट कर ततिल निकालना चाहिए। तिल को सदैव प्लास्टिक के त्रिपाल पर ही झाड़ना चाहिए। कच्चे स्थान पर झाड़ने से तिल की गुणवत्ता खराब हो जाती है। तिल की फसल को कीट एवं रोगों से बचाने के लिए डाईमेथोएट ३० इसी एवं क्यूनालफास 25 ईसी की सवा लीटर मात्रा प्रति हेक्टेयर के हिसाब से फसल पर छिड़कनी चाहिए। इन रसायनों से ज्यादातर रोग नियंत्रित हो जाते हैं।
किसानों को मिलेगा चार हजार रुपए प्रति एकड़ का अनुदान, लगायें ये फसल

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दलहन व तिलहन फसल लगाने पर अनुदान

देश में
दलहन एवं तिलहन फसलों का उत्पादन कम एवं माँग अधिक है. यही कारण है कि किसानों को इन फसलों के अच्छे मूल्य मिल जाते हैं. वहीँ दलहन या तिलहन की खेती में धान की अपेक्षा पानी भी कम लगता है। यही कारण है कि अलग-अलग राज्य सरकारें किसानों को धान की फसल छोड़ दलहन एवं तिलहन फसल लगाने के लिए प्रोत्साहित कर रही है। केंद्र सरकार भी किसानों को दलहन और तिलहन की खेती करने के लिय प्रोत्साहित करती है। इसका एक बड़ा कारण यह भी है की भारत खाद्य पदार्थों जैसे, धान, गेहूं आदि में तो आत्मनिर्भर है, पर दलहन और तिलहन में आत्मनिर्भर नहीं हो सका है। आज भी देश में बाहर से दलहन का आयात करना पड़ता है। स्वाभाविक है की राज्य सरकारें दलहन और तिलहन की खेती के लिए किसानों को प्रोत्साहित करती है। इसी नीति के तहत हरियाणा सरकार ने दलहन और तिलहन फसलों पर अनुदान देने का निर्णय लिया है.

ये भी पढ़ें: दलहन की फसलों की लेट वैरायटी की है जरूरत दलहन फसलों जैसे मूँग एवं अरहर और तिलहन फसलों जैसे अरंडी व मूँगफली की फसल लगाने पर किसानों को प्रोत्साहित करने के लिये अनुदान का प्रावधान किया है. हरियाणा सरकार के अनुदान के फैसले के पीछे बड़ा उद्देश्य यह भी है की इससे किसानों की आमदनी बढ़ाई जा सके. इस योजना का दोहरा लाभ किसानों को होगा. क्योकि एक तो दलहन और तिलहन फसलों की कीमत भी किसानों को अधिक प्राप्त होगा और साथ ही साथ अनुदान की राशि भी सहायक हो सकेगा. सरकार ने इन फसलों को उगाने वाले किसानों को अनुदान के रूप में प्रति एकड़ चार हजार रुपए देने का निर्णय लिया है।

सात ज़िले के किसानों को मिलेगा योजना का लाभ :

हरियाणा सरकार की ओर से झज्जर सहित दक्षिण हरियाणा के सात जिलों का चयन इस अनुदान योजना के लिये किया गया है. इन सात जिलों में झज्जर भिवानी, चरखी दादरी, महेंद्रगढ़, रेवाड़ी, हिसार व नूंह शामिल है. हरियाणा सरकार नें इन सात जिलों के दलहन और तिलहन की खेती करने वाले किसानों के लिए विशेष योजना की शुरुआत की है। इस योजना को अपनाने वाले किसानों को चार हजार रुपए प्रति एकड़ के हिसाब से वित्तीय सहायता दी जाएगी।

कितना अनुदान मिलेगा किसानों को ?

हरियाणा सरकार द्वारा फसल विविधीकरण के अंतर्गत दलहन व तिलहन की फसलों को बढ़ावा देने के लिए इस नई योजना की शुरुआत की गयी है। योजना के तहत दलहन व तिलहन की फसल उगाने वाले किसानों को 4,000 रुपये प्रति एकड़ वित्तीय सहायता प्रदान की जायेगी. यह योजना दक्षिण हरियाणा के 7 जिलों: झज्जर, भिवानी, चरखी दादरी, महेन्द्रगढ, रेवाड़ी, हिसार तथा नूंह में खरीफ मौसम 2022 के लिये लागू की जायेगी.

ये भी पढ़ें: तिलहनी फसलों से होगी अच्छी आय हरियाणा सरकार नें प्रदेश में खरीफ मौसम 2022 के दौरान एक लाख एकड़ में दलहनी व तिलहनी फसलों को बढ़ावा देने का लक्ष्य तय किया है. सरकार नें इस योजना के तहत दलहनी फसलें मूँग व अरहर को 70,000 एकड़ क्षेत्र में और तिलहन फसल अरण्ड व मूँगफली को 30,000 एकड़ में बढ़ावा देने का लक्ष्य रखा है.

किसान यहाँ करें आवेदन

चयनित सातों ज़िलों के किसानों को योजना का लाभ लेने के लिए ऑनलाइन आवेदन करना होगा. इसके लिए किसानों को मेरी फसल मेरा ब्यौरा पोर्टल जाकर सबसे पहले पंजीकरण कराना होगा. वित्तीय सहायता फसल के सत्यापन के उपरान्त किसानों के खातों में स्थानान्तरण की जाएगी.  
आजादी के अमृत महोत्सव में डबल हुई किसानों की आय, 75000 किसानों का ब्यौरा तैयार - केंद्र

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भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने पिछले साल तय अपने निर्धारित लक्ष्य को पूरा किया है। परिषद ने पिछले साल आजादी के अमृत महोत्सव में किसानों की सफलता का दस्तावेजीकरण करने का टारगेट तय किया था। इस वर्ग में ऐसे कृषक मित्र शामिल हैं जिनकी आय दोगुनी हुई है या फिर इससे ज्यादा बढ़ी है। परिषद के अनुसार ऐसे 75 हजार किसानों से चर्चा कर उनकी सफलता का दस्तावेजीकरण कर किसानों का ब्यौरा जारी किया गया है। आजादी के अमृत महोत्सव के उपलक्ष्य में आय बढ़ने वाले लाखों किसानों में से 75 हजार किसानों के संकलन का एक ई-प्रकाशन तैयार कर उसे जारी किया गया। [embed]https://youtu.be/zEkVlSwkq1g[/embed]

भाकृअनुप ने अपना 94वां स्थापना दिवस और पुरस्कार समारोह – 2022 का किया आयोजन

प्रेस रिलीज़ :

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के 94वें स्थापना दिवस पर कृषि मंत्री की अध्यक्षता में समारोह, पुरस्कार दिए

केंद्रीय मंत्री तोमर ने किया विमोचन

केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने समारोह में कहा कि, देश में कृषि क्षेत्र एवं कृषक मित्रों का तेजी से विकास हो रहा है। केंद्र एवं राज्य सरकारों, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर), भारत के कृषि विज्ञान केंद्रों के समन्वित प्रयास के साथ ही जागरूक किसान भाईयों के सहयोग से किसान की आय में वृद्धि हुई है। परिषद ने 'डबलिंग फार्मर्स इनकम' पर राज्य आधारित संक्षिप्त प्रकाशन भी तैयार किया है। कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने विमोचन अवसर पर ई-बुक को जारी किया।

पुरस्कार से नवाजा

कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के 94वें स्थापना दिवस पर मंत्री तोमर ने उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए वैज्ञानिकों व किसानों को पुरस्कृत भी किया। पूसा परिसर, दिल्ली में आयोजित समारोह में तोमर ने कहा कि, आज का दिन ऐतिहासिक है, क्योंकि आईसीएआर ने पिछले साल, आजादी के अमृत महोत्सव में ऐसे 75 हजार किसानों से चर्चा कर उनकी सफलता का दस्तावेजीकरण करने का लक्ष्य निर्धारित किया था, जिनकी आय दोगुनी या इससे ज्यादा दर से बढ़ी है। उन्होंने कहा कि सफल किसानों का यह संकलन भारत के इतिहास में मील का पत्थर साबित होगा। केंद्रीय मंत्री तोमर ने आईसीएआर के समारोह में अन्य प्रकाशनों का भी विमोचन किया। उन्होंने आईसीएआर के स्थापना दिवस को संकल्प दिवस के रूप में मनाने की बात इस दौरान कही।

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कृषि क्षेत्र में निर्मित किए जा रहे रोजगार अवसर

कृषि मंत्री तोमर ने कहा कि, कृषि प्रधान भारत देश में निरंतर कार्य की जरूरत है। इस क्षेत्र में आने वाली सामाजिक, भौगोलिक, पर्यावरणीय चुनौतियों के नित समाधान की जरूरत भी इस दौरान बताई। उन्होंने पारंपरिक खेती को बढ़ावा देने के मामले में तकनीक के समन्वित इस्तेमाल का जिक्र अपने संबोधन में किया। उन्होंने कहा, प्रधानमंत्री की कोशिश है कि गांव और गरीब-किसानों के जीवन में बदलाव आए। मंत्री तोमर ने ग्रामीण क्षेत्र में एग्री इंफ्रास्ट्रक्चर विकसित कर, कृषि का मुनाफा बढ़ाने के लिए किए जा रहे केंद्र सरकार के कार्यों पर इस दौरान प्रकाश डाला।

एग्री इंफ्रास्ट्रक्चर से की जा रही फंडिंग

केंद्रीय मंत्री ने बताया कि नव रोजगार सृजन के लिए हितग्राही योजनाएं लागू कर उचित फंडिंग की जा रही है। ग्रामीण नागरिकों को रोजगार से जोड़ा जा रहा है। खास तौर पर कृषि में रोजगार के ज्यादा अवसर निर्मित करने का सरकार का लक्ष्य है।

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जलवायु परिवर्तन चिंतनीय

केंद्रीय कृषि मंत्री ने आईसीएआर की स्थापना के 93 साल पूर्ण होने के साथ ही वर्ष 1929 में इसकी स्थापना से लेकर वर्तमान तक संस्थान द्वारा जारी की गईं लगभग 5,800 बीज-किस्मों पर गर्व जाहिर किया। वहीं इनमें से वर्ष 2014 से अभी तक 8 सालों में जारी की गईं लगभग दो हजार किस्मों को उन्होंने अति महत्वपूर्ण उपलब्धि बताया। उन्होंने जलवायु परिवर्तन की स्थिति को चिंतनीय कारक बताकर कृषि वैज्ञानिकों, साथियों से इसके सुधार की दिशा में रोडमैप बनाकर आगे बढ़ने का आह्वान किया।

नई शिक्षा नीति का उदय -

मंत्री तोमर ने प्रधानमंत्री की विजन आधारित नई शिक्षा नीति का उदय होने की बात कही। उन्होंने स्कूली शिक्षा में कृषि पाठ्यक्रम के समावेश में कृषि शिक्षा संस्थान द्वारा प्रदान किए जा रहे सहयोग पर प्रसन्नता व्यक्त की। मंत्री तोमर ने दलहन, तिलहन, कपास उत्पादन में प्रगति के लिए आईसीएआर (ICAR) और केवीके ( कृषि विज्ञान केंद्र (KVK)) को अपने प्रयास बढ़ाने प्रेरित किया। समारोह के पूर्व देश के विभिन्न हिस्सों के किसानों से कृषि मंत्री ने ऑनलाइन तरीके से विचार साझा किए। हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश और गुजरात के किसानों से हुई चर्चा में सरकारी योजनाओं, संस्थागत सहयोग से किसानों की आय में किस तरह वृद्धि हुई इस बात की जानकारी मिली।
बारिश के चलते बुंदेलखंड में एक महीने लेट हो गई खरीफ की फसलों की बुवाई

बारिश के चलते बुंदेलखंड में एक महीने लेट हो गई खरीफ की फसलों की बुवाई

झांसी। बुंदेलखंड के किसानों की समस्या कम होने की बजाय लगातार बढ़ती जा रहीं हैं। पहले कम बारिश के कारण बुवाई नहीं हो सकी, अब बारिश बंद न होने के चलते बुवाई लेट हो रहीं हैं। इस तरह बुंदेलखंड के किसानों के सामने बड़ी परेशानी खड़ी हो गई है। मौसम खुलने के 5-6 दिन बाद ही मूंग, अरहर, तिल, बाजरा और ज्वर जैसी फसलों की बुवाई शुरू होगी। लेकिन बुंदेलखंड में इन दिनों रोजाना बारिश हो रही है, जिससे बुवाई काफी पिछड़ रही है।

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बारिश से किसानों पर पड़ रही है दोहरी मार

- 15 जुलाई को क्षेत्र के कई हिस्सों में करीब 100 एमएम बारिश हुई, जिससे किसानों ने थोड़ी राहत की सांस ली और किसान खेतों में बुवाई की तैयारियों में जुट गए। लेकिन रोजाना बारिश होने के चलते खेतों में अत्यधिक नमी बन गई है, जिसके कारण खेतों को बुवाई के लिए तैयार होने में वक्त लगेगा। वहीं शुरुआत में कम बारिश के कारण बुवाई शुरू नहीं हुई थी। इस तरह किसानों को इस बार दोहरी मार झेलनी पड़ रही है।

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नमी कम होने पर ही खेत मे डालें बीज

- खेत में फसल बोने के लिए जमीन में कुछ हल्का ताव जरूरी है। लेकिन यहां रोजाना हो रही बारिश से खेतों में लगातार नमी बढ़ रही है। नमी युक्त खेत में बीज डालने पर वह बीज अंकुरित नहीं होगा, बल्कि खेत में ही सड़ जाएगा। इसमें अंकुरित होने की क्षमता कम होगी। बारिश रुकने के बाद खेत में नमी कम होने पर ही किसान बुवाई कर पाएंगे।

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रबी की फसल में हो सकती है देरी

- खरीफ की फसलों की बुवाई लेट होने का असर रबी की फसलों पर भी पड़ता दिखाई दे रहा है। जब खरीफ की फसलें लेट होंगी, तो जाहिर सी बात है कि आगामी रबी की फसल में भी देरी हो सकती है।