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महाराष्ट्र

नांदेड स्थित कपास अनुसंधान केंद्र ने विकसित की कपास की तीन नवीन किस्में

नांदेड स्थित कपास अनुसंधान केंद्र ने विकसित की कपास की तीन नवीन किस्में

किसान भाइयों की जानकारी के लिए बतादें, कि नांदेड़ मौजूद कपास अनुसंधान केंद्र ने विगत छह साल के शोध के उपरांत कपास की तीन बीटी किस्में विकसित की हैं। 

इन किस्मों को हाल ही में नई दिल्ली में आयोजित केंद्रीय किस्म चयन समिति की बैठक में स्वीकृत दी गई है। दावा यह भी किया गया है, क‍ि इनके बीजों का तीन वर्ष तक इस्तेमाल किया जा सकता है। 

वसंतराव नाइक मराठवाड़ा कृषि विश्वविद्यालय, परभणी के नांदेड़ मौजूद कपास अनुसंधान केंद्र ने कपास की तीन नवीन किस्में इजात की हैं। अब इन किस्मों से किसानों को अधिक फायदा होगा। 

किसानों के लिए बीज की लागत को कम करने में सहायता मिलेगी। बतादें, कि पैदावार भी काफी अच्छी होगी। इन क‍िस्मों को शुष्क जमीन वाले इलाकों में भी उगाया जा सकता है। 

यह बीटी क‍िस्म है, बीटी कॉटन के बीज के ल‍िए किसानों को निजी कंपनियों पर आश्रित रहना पड़ता था, ज‍िससे उन्हें बीज पर अधिक धनराशि खर्च करनी पड़ती थी। वर्तमान में नवीन क‍िस्में किसानों को एक विकल्प मुहैय्या कराएगी। यूनिवर्सिटी की तरफ से यह दावा किया गया है।

कपास की तीन नई किस्में इजात की गई

नांदेड़ मौजूद कपास अनुसंधान केंद्र ने विगत छह साल के शोध के पश्चात कपास की तीन बीटी किस्में इजात की हैं। इनमें एनएच 1901 बीटी, एनएच 1902 बीटी एवं एनएच 1904 बीटी शम्मिलित हैं। 

इन किस्मों को वर्तमान में नई दिल्ली में आयोजित केंद्रीय किस्म चयन समिति की बैठक में स्वीकृति दी गई है। इनकी बिजाई लागत संकर किस्मों की तुलना में कम होने का दावा क‍िया गया है। दावा यह भी किया गया है, क‍ि इनके बीजों का तीन वर्ष तक इस्तेमाल किया जा सकता है। 

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ये किस्में क‍िन राज्यों के ल‍िए विकसित की गई हैं

बतादें, कि इन किस्मों में खादों का उपयोग भी कम होगा। हालांकि, किसानों की तरफ से कपास की ऐसी किस्मों की मांग है। परंतु, किस्मों की अनुपलब्धता की वजह राज्य में सबसे ज्यादा संकर कपास की खेती की गई है। 

इस जरूरत को ध्यान में रखते हुए ही नवीन क‍िस्में तैयार की गई हैं। महाराष्ट्र प्रमुख कपास उत्पादक राज्य है। यहां बड़े पैमाने पर क‍िसान कॉटन की खेती पर न‍िर्भर हैं। ये तीन नवीन क‍िस्में महाराष्ट्र, गुजरात एवं मध्य प्रदेश के ल‍िए उपयुक्त हैं।

दक्ष‍िण भारत के ल‍िए विकसित की गई अलग क‍िस्म

यह दावा किया गया है, क‍ि परभणी कृषि विश्वविद्यालय कपास की सीधी किस्मों को बीटी तकनीक में परिवर्तित करने वाला राज्य का पहला कृषि विश्वविद्यालय बन चुका है। 

इससे पूर्व यह प्रयोग नागपुर के केंद्रीय कपास अनुसंधान केंद्र ने किया था। यह किस्म अब किसानों को आगामी वर्ष में खेती के लिए उपलब्ध होगी।

साथ ही, परभणी के मेहबूब बाग कपास अनुसंधान केंद्र ने स्वदेशी कपास की एक सीधी किस्म 'पीए 833' विकसित की है, जो दक्षिण भारत के लिए अनुकूल है। 

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विकसित की गई इन तीन नवीन क‍िस्मों की विशेषता

कपास की इन तीन नवीन क‍िस्मों में संकर किस्म के मुकाबले में कम रासायनिक उर्वरकों की जरूरत होती है। इस किस्म में रस चूसने वाले कीट, जीवाणु झुलसा रोग और पत्ती धब्बा रोग नहीं लगता है। 

यह इन रोगों के प्रत‍ि बेहद सहनशील है। इस किस्म की कपास का उत्पादन 35 से 37 प्रतिशत है। धागों की लंबाई मध्यम है। मजबूती और टिकाऊपन भी काफी अच्छा है। यूनिवर्सिटी का दावा है, कि यह किस्म सघन खेती के लिए भी अच्छी है।

महाराष्ट्र में ड्रैगन फ्रूट की खेती ने बदली लोगों की किस्मत, अब गन्ना-अंगूर छोड़कर यही उगा रहे हैं किसान

महाराष्ट्र में ड्रैगन फ्रूट की खेती ने बदली लोगों की किस्मत, अब गन्ना-अंगूर छोड़कर यही उगा रहे हैं किसान

इन दिनों कई राज्यों में मौसम का दुष्प्रभाव देखने को मिल रहा है। ऐसे कई राज्य हैं जहां पर अब बरसात कम होने लगी है, इससे सीधे तौर पर किसान प्रभावित होते हैं। कम बरसात के कारण मिट्टी में नमी की कमी हो जाती हैं जिससे फसलों कि बुवाई कम होती है और किसानों का मुनाफा भी कम हो जाता है। इन समस्याओं को देखते हुए अब  किसान वैकल्पिक खेती की तरफ ध्यान देने लगे हैं, जो किसानों के लिए अनुकूल हो और जिसमें किसानों को अच्छी खासी आमदनी भी हो।

ऐसी ही एक खेती है जिसे हम ड्रैगन फ्रूट (Dragon Fruit; पिताया फल; pitaya or pitahaya ) की खेती के नाम से जानते हैं। इस खेती में महाराष्ट्र के सांगली जिले के किसानों की रुचि दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। महाराष्ट्र का सांगली जिला देश में सूखा प्रभावित इलाकों में से एक है। यहां पर बेहद कम मात्र में बरसात होती है जो किसानों के लिए मुसीबत का सबब है। यहां के किसान पानी की कम उपलब्धता के बावजूद परंपरागत गन्ना-अंगूर की खेती कर रहे हैं। अब कुछ दिनों से यहां के किसानों ने ड्रैगन फ्रूट की खेती को अपनाया है। इस खेती में पानी कम जरूरत होती है, इसके साथ ही अन्य फसलों की तरह इसमें देखभाल की भी उतनी जरूरत नहीं होती। सांगली में पिछले कई सालों से कुछ किसान कम संसाधनों के साथ ड्रैगन फ्रूट की खेती करके अच्छा खास लाभ काम रहे हैं।

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सांगली जिले के किसानों ने बताया कि ड्रैगन फ्रूट की खेती में पहली बार में अन्य फसलों की अपेक्षा ज्यादा निवेश होता है। लेकिन उस हिसाब से इसमें उत्पादन भी ज्यादा होता है, जिससे लागत बहुत जल्दी वसूल हो जाती हैं। इसके अलावा ड्रैगन फ्रूट के भाव भी अन्य फसलों की अपेक्षा ज्यादा होते हैं। पहली बार के बाद इसमें उतने ज्यादा निवेश की जरूरत नहीं होती। सांगली जिले में ड्रैगन फ्रूट की खेती करने वाले कई किसानों ने बताया कि ड्रैगन फ्रूट की खेती में गन्ने की खेती की अपेक्षा मुनाफा ज्यादा होता है। अगर किसान गन्ने की खेती करके 1 लाख रुपये कमा पाते थे तो वहीं अब वो ड्रैगन फ्रूट की खेती करके 8 से 9 लाख रुपये तक कमा लेते हैं। इसके साथ ही पानी की कम जरूरत के साथ ही खेती की लागत में कमी के कारण ड्रैगन फ्रूट की खेती में दिमागी टेंशन भी कम होती है। इसके साथ ही इस फसल में ओलावृष्टि बारिश या सूखा से कुछ खास फर्क नहीं पड़ता। यह फल ज्यादातर विदेशों में निर्यात किया जाता है। वहां पर इस फल की उचित कीमत मिलती है। सांगली जिले के कई किसानों ने बताया की वो पिछले कुछ सालों से अपने उत्पादन का एक बहुत बड़ा हिस्सा दुबई को निर्यात करते हैं। विदेशों के साथ ही भारत में भी ड्रैगन फ्रूट का चलन काफी बढ़ गया है, जिससे भारत के बड़े शहरों जैसे दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद, बेंगलुरु, चेन्नई, कोलकाता, सूरत, जयपुर और गुवाहाटी में यह फल लोगों द्वारा काफी पसंद किया जाता है और इस फल की काफी डिमांड रहती है।

किसान ने स्विट्जरलैंड की नौकरी छोड़ शुरू की केले की खेती, आज 100 करोड़ का है टर्नओवर

किसान ने स्विट्जरलैंड की नौकरी छोड़ शुरू की केले की खेती, आज 100 करोड़ का है टर्नओवर

वर्तमान में आलोक अग्रवाल ट्राइडेंटएग्रो के फाउंडर और CEO भी हैं। इस कंपनी के संपूर्ण महाराष्ट्र में केले के बहुत सारे बागान हैं। साथ ही, केले की खेती करने वाले लगभग 20 हजार किसान भाई भी ट्राइडेंटएग्रो के साथ जुड़े हुए हैं। यह कंपनी प्रति माह 2500 टन केले का निर्यात करती है, जिसमें भारत के साथ-साथ मिडिल ईस्ट के बहुत सारे देश शम्मिलित हैं। केले का सेवन करना लगभग हर किसी को अच्छा लगता है। केले में विटामिन C, डाइटरी फाइबर, विटामिन B6 और मैग्नीज समेत विभिन्न प्रकार के पोषक तत्व विघमान होते हैं। केले की खेती लगभग भारत के सभी हिस्सों में होती है। भारत में बहुत सारे ऐसे किसान हैं, जो केले की खेती से करोड़पति बन गए हैं। परंतु, आज हम एक ऐसी शख्सियत के विषय में चर्चा करेंगे। इस शक्श ने विदेश की अच्छी-खासी नौकरी छोड़ भारत में आकर केले की खेती चालू कर दी। देखते ही देखते करोड़ों रुपये का साम्राज्य खड़ा कर दिया है। फिलहाल, यह विदेशों में भी केले की आपूर्ति करते हैं।

आलोक अग्रवाल केले के निर्यात से बने मालामाल

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि इस किसान का नाम आलोक अग्रवाल है। यह मुंबई के मूल निवासी हैं। पूर्व में आलोक स्विट्जरलैंड में केले एक्सपोर्ट में लॉजिस्टिक्स का कार्य करते थे। यहां पर किसान आलोक अग्रवाल को केले के एक्सपोर्ट- इंपोर्ट को लेकर पूरी जानकारी हो गई। इसके पश्चात उन्होंने नौकरी छोड़ दी और भारत में आकर केले का व्यवसाय चालू कर दिया। बतादें कि वर्ष 2015 में उन्होंने ट्राइडेंटएग्रो नाम से एक कंपनी चालू की है। उसके बाद उन्होंने इस कंपनी के जरिए से भारत में केले का निर्यात चालू कर दिया। यह भी पढ़ें: केले की खेती की सम्पूर्ण जानकारी

कंपनी केले की खेती कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के जरिए से भी करती है

विशेष बात यह है, कि यह कंपनी कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के जरिए केले की खेती भी करती है। आलोक अग्रवाल केले का निर्यात करने के अतिरिक्त चिप्स और स्नैक्स भी तैयार करते हैं। साथ ही, वे केले के दूसरे प्रोडक्ड्स भी निर्मित करते हैं। वर्तमान में इनकी कंपनी के पास वार्षिक 100 करोड़ रुपये का टर्न ओवर है।

आलोक अग्रवाल ने एक अरब की कंपनी खड़ी की

मुख्य बात यह है, कि कंपनी चालू करने के उपरांत आलोक अग्रवाल ने पुणे जनपद के किसानों को केले की खेती करने के लिए प्रशिक्षण देना शुरू दिया, जिससे केले का उत्पादन काफी ज्यादा बढ़ गया। साथ ही, उन्होंने किसानों को यह भी बताया, कि अच्छी गुणवत्ता के केले किस तरह उगाए जाते हैं। साथ ही, इनका भंडारण किस प्रकार किया जाता है, ताकि वह दीर्घकाल तक सुरक्षित रहें। उन्होंने किसानों को पहली बार फ्रूट केयर के महत्व के विषय में बताया। यह वजह है, कि अलोक ने किसानों के परिश्रम और अपनी इच्छाशक्ति के चलते 100 करोड़ रुपये की कंपनी खड़ी कर दी।
निरंजन सरकुंडे का महज डेढ़ बीघे में बैंगन की खेती से बदला नसीब

निरंजन सरकुंडे का महज डेढ़ बीघे में बैंगन की खेती से बदला नसीब

किसान निरंजन सरकुंडे ने बताया है, कि उनके पास 5 एकड़ खेती करने लायक भूमि है। पहले सरकुंडे अपने खेत में पारंपरिक फसलों की खेती किया करते थे। जिससे उनको उतनी आमदनी नहीं हो पाती थी। उत्तर प्रदेश, राजस्थान, झारखंड, बिहार और हरियाणा में ही किसान केवल बागवानी की ओर रुख नहीं कर रहे। इनके साथ-साथ दूसरे राज्यों में भी किसान पारंपरिक फसलों की जगह फल और सब्जियों की खेती में अधिक रुची ले रहे हैं। मुख्य बात यह है, कि सब्जियों की खेती करने से किसानों की आय में भी काफी इजाफा होगा। इससे उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार देखने को मिलेगा। हालांकि, पहले पारंपरिक फसलों की खेती करने पर किसानों को खर्चे की तुलना में उतना ज्यादा मुनाफा नहीं होता था। साथ ही, परिश्रम भी काफी ज्यादा करना पड़ता था। बहुत बार तो अत्यधिक बारिश अथवा सूखा पड़ने से फसल भी बर्बाद हो जाती थी। परंतु, वर्तमान में बागवानी करने से किसानों को प्रतिदिन आमदनी हो रही है। 

महाराष्ट्र के नांदेड़ निवासी किसान का चमका नसीब

वर्तमान में हम महाराष्ट्र के नांदेड़ के निवासी एक ऐसे ही किसान के संबंध में बात करेंगे, जिनकी
सब्जी की खेती से किस्मत बदल गई। इस किसान का नाम निरंजन सरकुंडे है। वह नांदेड जिला स्थित जांभाला गांव के मूल निवासी हैं। निरंजन सरकुंडे एक छोटे किसान हैं। उनके समीप काफी कम भूमि है। उन्होंने डेढ़ बीघे भूमि पर बैंगन की खेती की है। विशेष बात यह है, कि विगत तीन वर्षों से वह इस खेत में बैंगन की पैदावार कर रहे हैं, जिससे उन्हें अभी तक चार लाख रुपये की आमदनी हुई है।

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बैंगन विक्रय कर कमा चुके 3 लाख रुपये का मुनाफा

निरंजन सरकुंडे का कहना है, कि उनके समीप 5 एकड़ खेती करने लायक भूमि है। निरंजन सरकुंडे इससे पहले अपने खेत में पारंपरिक फसलों की खेती किया करते थे। परंतु, उससे उनको उतनी ज्यादा कमाई नहीं हो पाती थी। अब ऐसी स्थिति में उन्होंने सब्जी का उत्पादन करने का निर्णय लिया। उन्होंने डेढ़ बीघे भूमि में बैंगन की बिजाई कर डाली, जिससे कि उनकी अच्छी-खासी आमदनी हो रही है। वर्तमान में वह बैंगन बेचकर 3 लाख रुपये का मुनाफा कमा चुके हैं। हालांकि, वह बैंगन के साथ-साथ पांरपरिक फसलों का भी उत्पादन कर रहे हैं। 

निरंजन सरकुंडे के बैगन की बिक्री स्थानीय बाजार में ही हो जाती है

वर्तमान में निरंजन सरकुंडे पूरे गांव के लिए मिसाल बन गए हैं। वर्तमान में पड़ोसी गांव ठाकरवाड़ी के किसानों ने भी उनको देखकर सब्जी की खेती चालू कर दी है। निरंजन सरकुंडे ने बताया है, कि इस डेढ़ बीघे भूमि में बैंगन की खेती से वह तकरीबन 3 लाख रुपये का शुद्ध मुनाफा अर्जित कर चुके हैं। हालांकि, डेढ़ बीघे भूमि में बैंगन की खेती करने पर उनको 30 हजार रुपये का खर्चा करना पड़ता है। छोटी जोत के किसान निरंजन द्वारा पैदा किए गए बैंगन की स्थानीय बाजार में अच्छी-खासी बिक्री है। सरकुंडे ने बताया है, कि ह वह अपने खेत की सब्जियों को बाहर सप्लाई नहीं करते हैं। उनके बैगन की स्थानीय बाजार में ही काफी अच्छी बिक्री हो जाती है।

किसान निरंजन सरकुंडे ने ड्रिप सिंचाई के माध्यम से बैगन की खेती कर कमाए लाखों

किसान निरंजन सरकुंडे ने ड्रिप सिंचाई के माध्यम से बैगन की खेती कर कमाए लाखों

जैसा कि हम सब जानते हैं कि बैंगन एक ऐसी सब्जी है जिसकी हमेशा मांग बनी रहती है। इसका भाव सदैव 40 से 50 रुपये किलो के समीप रहता है। एक बीघे भूमि में बैंगन का उत्पादन करने पर 20 हजार रुपये के आसपास लागत आएगी। दरअसल, लोगों का मानना है कि नकदी फसलों की खेती में उतना ज्यादा मुनाफा नहीं है। विशेष रूप से हरी सब्जियों के ऊपर मौसम की मार सबसे ज्यादा पड़ती है। वह इसलिए कि हरी सब्जियां सामान्य से अधिक बारिश, गर्मी एवं ठंड सहन नहीं कर पाती हैं। इस वजह से ज्यादा लू बहने, पाला पड़ने एवं अत्यधिक बारिश होने पर बागवानी फसलों को सबसे ज्यादा क्षति पहुंचती है। हालाँकि, बेहतर योजना और आधुनिक ढ़ंग से सब्जियां उगाई जाए, तो इससे ज्यादा मुनाफा किसी दूसरी फसल की खेती के अंदर नहीं हैं। यही कारण है, कि अब महाराष्ट्र में किसान पारंपरिक फसलों के स्थान पर सब्जियों की खेती में अधिक परिश्रम कर रहे हैं।

किसान निरंजन को कितने लाख की आय अर्जित हुई है

आज हम आपको एक ऐसे किसान के विषय में जानकारी देंगे, जिन्होंने सफलता की नवीन कहानी रची है। बतादें, कि इस किसान का नाम निरंजन सरकुंडे है और यह महाराष्ट्र के नांदेड जनपद के मूल निवासी हैं। सरकुंडे हदगांव तालुका मौजूद निज गांव जांभाला में पहले पारंपरिक फसलों की खेती किया करते थे। परंतु, वर्तमान में वह बैंगन की खेती कर रहे हैं, जिससे उनको काफी अच्छी आमदनी हो रही है। मुख्य बात यह है, कि निरंजन सरकुंडे ने केवल डेढ़ बीघा भूमि में ही बैंगन लगाया है। इससे उन्हें चार लाख रुपये की आय अर्जित हुई है।

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निरंजन को देख अन्य पड़ोसी गांव के किसान भी खेती करने लगे

निरंजन का कहना है, कि उनके समीप 5 एकड़ जमीन है, जिस पर वह पूर्व में पारंपरिक फसलों की खेती किया करते थे। परंतु, इससे उनके घर का खर्चा नहीं चल रहा था। ऐसे में उन्होंने डेढ़ बीघे खेत में बैंगन की खेती चालू कर दी। इसके पश्चात उनकी तकदीर बदल गई। वह प्रतिदिन बैंगन बेचकर मोटी आमदनी करने लगे। उनको देख प्रेरित होकर उनके पड़ोसी गांव ठाकरवाड़ी के किसानों ने भी सब्जी का उत्पादन कर दिया। वर्तमान मे सभी किसान सब्जी की पैदावार कर बेहतरीन आमदनी कर रहे हैं।

निरंजन सरकुंडे ड्रिप इरिगेशन विधि से फसलों की सिंचाई करते हैं

सरकुंड के गांव में सिंचाई हेतु पानी की काफी किल्लत है। इस वजह से वह ड्रिप इरिगेशन विधि से फसलों की सिंचाई करते हैं। उन्होंने बताया है, कि रोपाई करने के दो माह के उपरांत बैंगन की पैदावार हो जाती है। वह उमरखेड़ एवं भोकर के समीपवर्ती बाजारों में बैंगन को बेचा करते हैं। इस डेढ़ बीघे भूमि में बैंगन की खेती से निरंजन सरकुंडे को तकरीबन 3 लाख रुपये का शुद्ध लाभ प्राप्त हुआ है। वहीं, डेढ़ बीघे भूमि में बैंगन की खेती करने पर 30 हजार रुपये की लागत आई थी। उनकी मानें तो फिलहाल वह धीरे- धीरे बैंगन का रकबा बढ़ाएंगे। पारंपरिक खेती की बजाए आधुनिक ढ़ंग से बागवानी फसलों का उत्पादन करना काफी फायदेमंद है।
रबी सीजन में प्याज उत्पादन करने वाले किसानों के लिए महत्वपूर्ण जानकारी

रबी सीजन में प्याज उत्पादन करने वाले किसानों के लिए महत्वपूर्ण जानकारी

महाराष्ट्र भारत में प्याज उत्पादन के मामले में विशिष्ट राज्य है,क्योंकि महाराष्ट्र में प्याज का उत्पादन काफी किया जाता है। बतादें कि वर्ष में तीन बार प्याज की फसल उगाई जाती है। प्रदेश के सोलापुर, नासिक, पुणे, धुले व अहमदनगर जनपद में सर्वाधिक प्याज का उत्पादन होता है। प्रदेश में फिलहाल रबी सीजन के प्याज की पैदावार की तैयारी चालू है। महाराष्ट्र में किसान अधिकतर प्याज की खेती करते हैं। साथ ही, महाराष्ट्र राज्य में देश ही नहीं बल्कि एशिया की सबसे बड़ी प्याज मंडी नासिक जनपद के लासलगांव में स्थित है। सामान्य रूप से अधिकतर प्रदेशों द्वारा वर्ष में एक ही बार प्याज का उत्पादन किया जाता है। परंतु महाराष्ट्र में ऐसा नहीं है, प्रदेश में एक वर्ष के दौरान रबी सीजन, खरीफ, खरीफ के बाद इस तरह प्याज का तीन बार उत्पादन है।


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महाराष्ट्र राज्य के किसान अधिकतर प्याज का उत्पादन करते हैं और इस पर ही आश्रित रहते हैं हालाँकि सर्वाधिक प्याज उत्पादन रबी सीजन में ही प्राप्त होता है। प्याज के द्वितीय सीजन की बुआई अक्टूबर-नवंबर माह के मध्य में होती है। इसकी फसल जनवरी से मार्च के मध्य तैयार हो जाती है। प्याज का फसल का तीसरा समय रबी सीजन में होता है। रबी सीजन की बुवाई दिसंबर से जनवरी के मध्य होती है, और इसकी फसल की पैदावार मार्च से मई के मध्य ली जाती है। महाराष्ट्र में प्याज की कुल पैदावार का ६० प्रतिशत उत्पादन रबी सीजन के दौरान होता है।

ज्यादातर प्याज की खेती कौन से जिलों में होती है

महाराष्ट्र राज्य के नासिक, पुणे, सोलापुर, जलगाँव, धुले, अहमदनगर, सतारा जनपद में ज्यादा खेती होती है। बतादें कि मराठवाड़ा के कुछ जनपदों में भी प्याज उत्पादन किया जाता है। इसमें भी प्याज उत्पादन के मामले में नासिक जनपद अपनी अलग पहचान रखता है, इसकी मुख्य वजह देश के कुल प्याज उत्पादन का ३७ % महाराष्ट्र राज्य करता है जबकि १० % उत्पादन केवल नासिक जनपद में किया जाता है।


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प्याज उत्पादन के लिए कैसी मिट्टी व भूमि सही होती है

कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार प्याज के उत्पादन हेतु कई प्रकार की मिट्टी का उपयोग हो सकता है। प्याज की अच्छी पैदावार लेने के लिए चिकनी, गार, रेतीली, भूरी एवं दोमट मिट्टी का प्रयोग होना चाहिए। प्याज की खेती से बेहतरीन उत्पादन लेने के लिए भूमि के जल निकासी हेतु अच्छा प्रबंधन होना चाहिए। प्याज उत्पादन से पूर्व जमीन तैयार करने हेतु सर्वप्रथम तीन से चार बार जुताई हो एवं रुड़ी खाद के इस्तेमाल से जैविक तत्वों की मात्रा में बढ़ोत्तरी करें। इसके बाद खेत को छोटे-छोटे भाग में बाँट दें। भूमि की सतह से १५ सेमी उंचाई पर 1.2 मीटर चौड़ी पट्टी पर बुवाई होनी चाहिये। [embed]https://www.youtube.com/watch?v=JeQ8zGkrOCI&t=34s[/embed]
जानें टमाटर की कीमतों में क्यों और कितनी बढ़ोत्तरी हुई है

जानें टमाटर की कीमतों में क्यों और कितनी बढ़ोत्तरी हुई है

टमाटर के भाव में अच्छा-खासा इजाफा हुआ है। टमाटर के एक थोक विक्रेता ने बताया है, कि बारिश एवं ओलावृष्टि की वजह से टमाटर की लगभग 50% प्रतिशत फसल चौपट हो गई। इससे आकस्मिक तौर पर बाजार में टमाटर की अवक में गिरावट आ गई, जिससे कीमतों में इजाफा होने लगा है। महाराष्ट्र राज्य में टमाटर की कीमतों में काफी बढ़ोत्तरी हुई है। विगत एक सप्ताह के भीतर कीमत में 100% फीसद का इजाफा हुआ है। इससे आम जनता की रसोई का बजट प्रभावित हो गया है। परंतु, टमाटर की खेती करने वाले उत्पादकों के चेहरे पर मुस्कराहट आई है। कृषकों को यह आशा है, कि यदि इसी प्रकार से टमाटर के भावों में इजाफा होता रहा, तो वह थोड़ी-बहुत हानि की भरपाई कर सकते हैं। विगत माह महाराष्ट्र के टमाटर उत्पादक भाव में कमी आने के चलते लागत तक भी नहीं निकाल पा रहे थे। मंडियों के व्यापारी उनसे 2 से 3 रुपये किलो टमाटर खरीद रहे थे। परंतु, फिलहाल उनको टमाटर का अच्छा-खासा भाव अर्जित हो रहा है।

टमाटर की कीमत 30 से 60 रूपए प्रतिकिलो हो चुकी है

मीडिया एजेंसियों के अनुसार, महाराष्ट्र में टमाटर का खुदरा भाव 30 रुपये से बढ़ कर 50 से 60 रुपये प्रति किलो हो चुका है। अंधेरी, नवी मुंबई, मंबुई एवं ठाणे समेत विभिन्न शहरों में रिटेल बाजार में टमाटर 50 से 60 रुपये प्रति किलो के हिसाब से विक्रय किए जा रहे हैं। साथ ही, एपीएमसी वाशी के निदेशक संजय पिंगले ने बताया है, कि टमाटर की आवक में गिरावट आने के चलते भाव में इजाफा हुआ है।  कुछ महीने पहले मांग के मुकाबले टमाटर का उत्पादन काफी अधिक था। इस वजह से टमाटर का भाव धड़ाम से गिर गया था। तब खुदरा बाजार में टमाटर 20 से 30 रुपये प्रति किलो के हिसाब से बेचे जा रहे थे। संजय पिंगले के अनुसार, जब टमाटर की आवक बढ़ेगी तब ही कीमतों में सुधार हो सकता है। हालांकि, अभी कुछ दिनों तक टमाटर की कीमत यथावत ही रहेगी। यह भी पढ़ें: भारत में लाल टमाटर के साथ-साथ काले टमाटर की भी खेती शुरू हो चुकी है

थोक व्यापारी इतने रुपए किलो टमाटर खरीद रहे हैं

वाशी के थोक व्यापारी मंगल गुप्ता ने बताया है, कि वर्षा और ओलावृष्टि की वजह से टमाटर की लगभग 50 प्रतिशत फसल चौपट हो चुकी है। इसकी वजह से अचानक बाजार में टमाटर की आवक में गिरावट आई है। नतीजतन भाव बढ़ने लगा। फिलहाल, थोक व्यापारी 16 से 22 रुपए किलो टमाटर खरीद रहे हैं। यही वजह है, जो इसका खुदरा भाव 60 रुपए किलो पर पहुँच गया है। मंगल गुप्ता के मुताबिक, मौसम अगर ठीक रहा तो कुछ ही हफ्तों के अंदर कीमत में गिरावट आ सकती है।

इन जगहों पर टमाटर की कीमतें हुई महंगी

साथ ही, पुणे के एक व्यवसायी ने बताया है, कि पहले रिटेल बाजार में टमाटर का भाव 10 से 20 रुपये प्रति किलो था। परंतु, दो माह के अंदर ही टमाटर कई गुना महंगा हो गया। बतादें, कि टमाटर की कीमतें राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली व महाराष्ट्र के साथ-साथ गाजियाबाद एवं नोएडा में भी बढ़ी हैं। जो टमाटर यहां पर एक सप्ताह पूर्व 15 से 20 रुपये प्रति किलो बिक रहा था। वर्तमान में उसकी कीमत 30 रुपये प्रति किलो पर पहुँच गई है।
भारत में पाई जाने वाली इस नस्ल की गाय का दुग्ध उत्पादन में पहला स्थान

भारत में पाई जाने वाली इस नस्ल की गाय का दुग्ध उत्पादन में पहला स्थान

भारत के अंदर विभिन्न प्रकार की गायों की नस्लें पाई जाती हैं। कृषि के साथ-साथ पशुपालन किसानों की आय बढ़ाने में काफी सहयोगी भूमिका अदा करता है। 

पशुपालकों के लिए गाय पालन उनकी आय को बढ़ाने के लिए सबसे अच्छा स्त्रोत माना जाता है। अब ऐसे में पशुपालन करने वाले किसानों को गाय की अच्छी नस्ल का चयन करना महत्वपूर्ण होता है। 

इसलिए आज के इस लेख में हम आपको गाय की ऐसी नस्ल की जानकारी देंगे जो कि सबसे ज्यादा दूध देती है। दरअसल, हम आज आपको बताऐंगे गाय साहीवाल नस्ल (Sahiwal Breed Cow) के बारे में। 

वैज्ञानिक ब्रीडिंग के माध्यम से देसी गायों की नस्ल में सुधार कर उन्हें साहीवाल नस्ल में परिवर्तित किया जा रहा है। हरियाणा राज्य के अंदर बड़ी संख्या में इस नस्ल की गाय होती हैं। वहीं, पंजाब और राजस्थान में भी साहीवाल पशुओं के लिए कुछ गौशालाएं तैयार की गई हैं।

साहीवाल नस्ल की किस प्रकार जान-पहचान की जाती है

दुधारू गाय की साहीवाल नस्ल की गायों का सिर चौड़ा, सींग छोटे और मोटे साथ ही शरीर मध्यम आकार का होता है। गर्दन के नीचे लटकती हुई भारी चमड़ी और भारी लेवा होता है। 

साहीवाल गायों का रंग अधिकतर लाल और गहरे भूरे रंग का होता है। इस नस्ल की कुछ गायों के शरीर पर सफेद चमकदार धब्बे भी पाए जाते हैं। 

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इस नस्ल के वयस्क बैल का औसतन भार 450 से 500 किलो और मादा गाय का वजन 300-400 किलोग्राम तक हो सकता है। बैल की पीठ पर बड़ा कूबड़ जिसकी ऊंचाई 136 सेमी तथा मादा की पीठ पर बने कूबड़ की ऊंचाई 120 सेमी के आसपास होती है।

पशुपालक यहां से शुद्ध नस्ल के पशु या गाय प्राप्त कर सकते हैं  

साहीवाल गाय अधिकतम उत्तरी भारत में पाई जाने वाली महत्वपूर्ण नस्ल है। बतादें, कि इसका उदगम स्थल पाकिस्तान पंजाब के मोंटगोमरी जिले और रावी नदी के आसपास का है। 

सबसे ज्यादा दूध देने वाली यह नस्ल पंजाब के फिरोजपुर और अमृतसर जैसे जनपदों में पाई जाती है। वहीं, राजस्थान के श्री गंगानगर जिले में इस नस्ल की गाय हैं। 

वहीं, पंजाब में फिरोजपुर जिले के फाजिल्का और अबोहर कस्बों में शुद्ध साहीवाल गायों के झुंड के झुंड देखने को मिल जाएंगे।

साहीवाल गाय की विशेषताएं या खूबियां क्या-क्या हैं ?

साहीवाल (Sahiwal) नस्ल की गाय एक बार ब्याने पर 10 महीने तक दूध देती है। वहीं, दूध काल के दौरान ये गायें औसतन 2270 लीटर दूध देती हैं। यह प्रतिदिन 10 से 16 लीटर दूध देने की क्षमता रखती हैं। 

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साहीवाल गाय अन्य देशी गायों की अपेक्षा अधिक दूध देती हैं। इनके दूध में बाकी गायों के तुलनात्मक अधिक प्रोटीन और वसा मौजूद है।

साहीवाल गाय की प्रजनन प्रक्रिया क्या है ? 

गाय के पहले प्रजनन की अवस्था जन्म के 32-36 महीने में आती है। इसकी प्रजनन समयावधि में 15 महीने का समयांतराल होता है। 

गाय की देशी नस्ल होने की वजह से इसके रखरखाव और आहार पर भी अधिक खर्च करना नहीं पड़ता। यह नस्ल ज्यादा गर्म इलाकों में भी आसानी से रह सकती है। 

इनका शरीर बाहरी परजीवी के प्रति प्रतिरोधी होता है, जिससे इसे पालने में अधिक मशक्कत नहीं करनी पड़ती है। 

साहीवाल गाय की कीमत कितनी होती है ?

साहीवाल गाय की कीमत (Sahiwal Cow Price) इसके दूध उत्पादन की क्षमता, उम्र, स्वास्थ्य इत्यादि पर निर्भर करती है। यदि अनुमानित तोर पर बात करें तो साहीवाल गाय तकरीबन 40 हजार से 60 हजार रुपए की कीमत के आसपास खरीदी जा सकती है।

कपास की खेती की सम्पूर्ण जानकारी

कपास की खेती की सम्पूर्ण जानकारी

कपास की खेती को नगदी फसल के रूप में जाना जाता है. एक प्रश्न ये भी उठता है कि कपास की खेती कहाँ होती है? इसको भारत के लगभग सभी राज्यों में उगाया जाता है. 

मुख्य रूप से इसे गुजरात में सबसे ज्यादा उगाया जाता है. वैसे तो इसको उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटका आदि राज्यों में भी उगाया जाता है. कपास को सफेद सोना भी बोला जाता है. 

इसको सफेद सोना इस लिए बोला जाता है क्योंकि इसके उत्पादन से किसानों को अच्छी आय होती है तथा इससे उनके जीवन स्तर में सुधार आता है. 

आजकल कपास की भी कई उन्नत और नई प्रजातियां आ गई है इसलिए इसे किसी भी तरह की मिटटी में उगाया जा सकता है. लम्बे रेशे वाली कपास को सर्वोत्तम माना जाता है. इसकी पैदावार भी ज्यादा होती है.

कपास की खेती के लिए उपयुक्त मिटटी:

कपास की खेती के लिए मिटटी या कपास की खेती के लिए सबसे अच्छी मिटटी कौन सी होती है. इस पर हम चर्चा करेंगें. वैसे तो कपास के लिए दोमट, काली और बलुई मिटटी सर्वोत्तम होती है. 

इस मिटटी में इसकी फसल ज्यादा उपजाऊ होती है लेकिन आजकल इतनी प्रजातियां आ चुकी हैं की अपने खेत की मिटटी के हिसाब से आप प्रजाति का चुनाव कर सकते हैं और कपास की अच्छी पैदावार ले सकते हैं.

कपास की खेती कैसे होती है:

कपास की खेती के लिए ज्यादा पानी की आवश्यकता नहीं होती है कम पानी में भी इसकी अच्छी खेती की जा सकती है. इसकी फूल आने के समय बारिश से फसल ख़राब हो जाती है.

ध्यान रखें की बुवाई में इतना समय हो की फूल आने के समय बारिश न हो नहीं तो इसका फूल ख़राब हो जाता है. इसके खेत को तैयार करने के बाद बोने से पहले एक रात का समय दिया जाना चाहिए और इसकी बुवाई शाम के समय में करनी चाहिए. 

कपास की खेती को तेज धूप की जरूरत होती है. इसके फूल जब अच्छे से खिल जाए तभी इनको तोडा जाए अन्यथा की स्थिति में इसके कच्चे फूल पूरे पके फूलों को भी ख़राब कर सकते हैं.

खेत की तैयारी:

खेत की तैयारी करते समय हमें पहली जोत गहरी लगानी चाहिए जिससे की नीचे की मिटटी ऊपर आ जाए और खेत की उपजाऊ मिटटी ऊपर आ जाए. इससे आपकी फसल को पोषक तत्व मिलेंगें. 

इसके बाद इसमें गोबर की सड़ी हुई खाद लगभग 40 से 60 क्विंटल पर एकड़ के हिसाब से मिलाना चाहिए. इसके बाद इसकी पलेवा करके जब मिटटी भुरभुरी होने लायक हो जाए तो कल्टीवेटर से जुताई कर के उस पर पाटा लगा देना चाहिए. 

जिससे की खेत समतल हो जाये. उसके बाद एक रात का समय देकर अगले दिन शाम को खेत की बुवाई कर देनी चाहिए.

कपास की खेती का इतिहास / कपास कितने प्रकार के होते हैं:

कपास सामान्यतः 3 प्रकार के होते हैं.

  1. लम्बे रेशे वाली कपास.
  2. मध्य रेशे वाली कपास.
  3. छटे रेशे वाली कपास.
1 - लम्बे रेशे वाली कपास: लम्बे रेशे वाली कपास को सबसे उत्तम कपास माना जाता है. इसके रेशों की लम्बाई लगभग 5 सेंटीमीटर से ज्यादा होती है. इस श्रेणी की कपास का इस्तेमाल उच्च कोटि या महगे कपड़ों को बनाने में किया जाता है. भारत में इस श्रेणी की किस्मों को दूसरे नंबर पर उगाया जाता है. कुल उत्पादन में इसका 40% हिस्सा होता है. इसकी खेती मुख्य रूप से गुजरात के तटीय हिस्सों में की जाती है. इस कारण इसे समुद्र द्वीपीय कपास भी कहा जाता है. 

2 - मध्य रेशे वाली कपास: इस श्रेणी के कपास के रेशों की लम्बाई 3.5 से 5 सेंटीमीटर तक पाई जाती है. इसे मिश्रित श्रेणी की कपास भी कहा जाता है. इस श्रेणी की किस्मों को भारत के लगभग सभी राज्यों में उगाया जाता है. कुल उत्पादन में इसका सबसे ज्यादा 45% हिस्सा होता है. 

3 - छोटे रेशे वाली कपास: इस श्रेणी की कपास के रेशों की लम्बाई 3.5 सेंटीमीटर से कम होती है. कपास की इन किस्मों को उत्तर भारत में ज्यादा उगाया जाता है. जिनमें असम, हरियाणा, राजस्थान, त्रिपुरा, मणिपुर, आन्ध्र प्रदेश, पंजाब, उत्तर प्रदेश और मेघालय शामिल हैं. उत्पादन की दृष्टि से इस श्रेणी की कपास का उत्पादन कुल उत्पादन का 15% होता है.

कपास के बीज को क्या कहते हैं:

कपास की खेती

सामान्यतः कपास के बीज को बिनोला कहा जाता है. इसके बीज को रुई से अलग करके दुधारू पशुओं को खिलाया जाता है जिससे की उनका दूध गाढ़ा और ताकतवर होता है. 

बिनोला खाने वाले पशु के दूध में घी की मात्रा बढ़ जाती है. कपास को ओषधि के रूप में भी प्रयोग में लाया जाता है. कपास स्वभाव वश प्रकृति से मधुर, थोड़ी गर्म तासीर की होती है। 

इसके अलावा यह पित्त को बढ़ाने वाली, वातकफ दूर करने वाली, रुचिकारक; प्यास, जलन, थकान, बेहोशी, कान में दर्द, कान से पीब निकलना, व्रण या घाव, कटने-छिलने जैसे शारीरिक समस्याओं के लिए औषधि के रुप में काम करती है।

इसके बीज  (बिनोला ) मधुर, गर्म, स्निग्ध, वात दूर करने वाले,स्तन का आकार बढ़ाने वाले तथा वात कफ को बढ़ाने वाले होते हैं। कपास का अर्क या काढ़ा सिर और कान दर्द को कम करने के साथ-साथ शंखक रोग नाशक होता है। 

कपास के फल कड़वे, मधुर, गर्म, रुचिकारक तथा वातकफ कम करने वाले होते हैं। बीज रोपाई करने का तरीका: बीज रोपाई का तरीका आप पवेर ( बीज छिड़कना ) कर भी बोया जा सकता है. 

जो किसान भाई कई सालों से खेती करते आ रहे हैं तो वो अपने आप ही ऐसे पवेर करते हैं की हर बीज एक निश्चित दूरी पर गिरता है. 

अगर आपको पवेर करना नहीं आता है तो आप ट्रेक्टर द्वारा मशीन से भी इसकी बुबाई कर सकते हैं. इसमें पौधे से पौधे की दूरी करीब 50 सेंटी मीटर रखनी चाहिए जिससे की पौधे को फूलने का पर्याप्त जगह मिलें.

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फसल की तुड़ाई:

कपास की फसल की तुड़ाई

जब इसका फूल पूरी तरह से खिल जाये और थोड़ा बहार की तरफ निकलने लगे तो समझो की इसको अब अलग कर लेना चाहिए. ध्यान रहे कि कच्चे या अधपके फूल को नहीं निकलना चाहिए. 

ये दूसरे फूलों को भी पीलापन दे देता है. इसको तोड़ते समय ध्यान रखने योग्य बातें है कि इसकी सुखी हुई पत्तियां कपास में नहीं मिलनी चाहिए. 

इसको तोड़ कर धूप में पूरी तरह से सूखा लेना चाहिए. इससे इसको रूई में पीलापन नहीं आता है. इसकी तुड़ाई ओस सूखने के बाद ही करनी चाहिए.

कपास की पैदावार से आमदनी:

किसानों को कपास की खेती से अच्छी आमदनी होती है. इसकी अलग-अलग किस्मों से अलग-अलग पैदावार मिलती हैं. जहां देसी किस्मों की खेती होती है, 

वहां लगभग 20 से 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर और जहां अमेरिकन संकर किस्मों की खेती होती है, वहां लगभग 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक पैदावार हो सकती है. 

बाजार में इसका भाव 5 हज़ार प्रति क्विंटल के हिसाब से होता है, इसलिए किसान एक हेक्टेयर से एक बार में लगभग 3 लाख से ज्यादा पैसा कमा कर सकते हैं.

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कपास में लगने वाले रोग:

सामान्यतः कपास में रोग काम ही आता है. लेकिन कभी कभी मौसम ख़राब या ज्यादा बारिश भी कपास में रोगों को बढाती है. 

  1. हरा मच्छर: ये पौधों की पत्तियों पर निचे की तरफ चिपक के उनका रास चूसता रहता है तथा पत्ती को सुखा देता है. 
  2. सफेद मक्खी: सफेद मक्खी भी इसी तरह निचे वाली सतह पर चिपक कर पत्ती का रास चूसती रहती है. 
  3. चितकबरी सुंडी: इसका प्रकोप जब पेड़ पर फूल और टिंडे बनने के समय दिखाई देता है. इसके प्रकोप से टिंडे के अंदर ही फूल नष्ट हो जाता है. 
  4. तेला: फसल पर तेला रोग भी कीटों की वजह से लगता हैं. इसके कीट का रंग काला होता है तथा ये तेल जैसा पदार्थ छोड़ता रहता है इस लिए इसको तेल भी बोला जाता है. जो आकर में छोटा दिखाई देता हैं. यह कीट नई आने वाली पत्तियों को ज्यादा नुकसान पहुंचता है. 
  5. तम्बाकू लट: पौधे को ये कीट सबसे ज्यादा नुक्सान पहुँचाता है. यह कीट एक लम्बे कीड़े के रूप में होता है. जो पत्तियों को खाकर उन्हें जालीनुमा बना देता हैं. इससे पत्तियां सूख जाती हैं तथा धीरे धीरे पेड़ ही नष्ट हो जाता है. 
  6. झुलसा रोग: पौधों पर लगने वाला झुलसा रोग सबसे खरनाक रोग हैं. इसके लगने पर टिंडों पर काले रंग के चित्ते बनने लगते हैं. और टिंडे समय से पहले ही खिलने लग जाते हैं. जिनकी गुणबत्ता अच्छी नहीं होती तथा ये दूसरे फूलों को भी ख़राब कर देते हैं. 
  7. पौध अंगमारी रोग: इस रोग के लगने पर कपास के टिंडों के पास वाले पत्तों पर लाल कलर दिखाई देने लगता है. इसके लगने पर खेत में नमी के होने पर भी पौधा मुरझाने लगता हैं. 
  8. अल्टरनेरिया पत्ती धब्बा रोग: अल्टरनेरिया पत्ती धब्बा रोग बीज जनित रोग होता है. इसके लगने पर शुरुआत में पौधों की पत्तियों पर भूरें रंग के छोटे धब्बे बनने लगते हैं 
  9. जड़ गलन रोग: जड़ गलन की समस्या पौधों में ज्यादा पानी की वजह से होता है. इसकी रोकथाम का सबसे अच्छा उपचार खेत में पानी जमा ना होने दें. जड़ गलन का रोग मुख्य रूप से बारिश के मौसम में देखने को मिलता है.

हापुस आम की पूरी जानकारी (अल्फांसो - Alphonso Mango information in Hindi)

हापुस आम की पूरी जानकारी (अल्फांसो - Alphonso Mango information in Hindi)

दोस्तों आज हम बात करेंगे हापुस आम की, वैसे तो भारत देश में विभिन्न विभिन्न प्रकार की आमों की किस्मे उगाई जाती है। लेकिन हापुस आम सबसे प्रसिद्ध है। हापुस आम की विभिन्न विशेषताएं जानने के लिए हमारी इस पोस्ट के अंत तक जरूर बने रहे:

हापुस आम की जानकारी

हापुस आम को अलफांसो के नाम से भी जाना जाता है। हापुस आम की मिठास बहुत ही ज्यादा समृद्ध होती है और यह खाने में बहुत ही ज्यादा स्वादिष्ट लगता है। अपने स्वादिष्ट  स्वाद के चलते हापुस आम अंतरराष्ट्रीय बाजारों और मार्केट तथा दुकानों में अपनी अलग जगह बनाए हुए हैं। हापुस आम भारत में सबसे महंगा तथा अच्छे दाम पर बिकने वाली आम की पहली किस्म है। हापुस आम दिखने में केसरिया रंग का होता है। हापुस आम की किस्मों का उत्पादन महाराष्ट्र जिले के रत्नागिरी, सिंधुदुर्ग एवं देवगढ़ और रायगढ़ जैसे जिलों में हापुस आम की फसल उगाई जाती है।हापुस आम की फसल से किसान आय निर्यात का अच्छा साधन स्थापित कर लेते हैं। हापुस आम की फसल किसानों के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण होती है।

हापुस आम का वजन

बात करे यदि हापुस आम के वजन की तो इनका वजन करीब 150 ग्राम से शुरू होकर 300 ग्राम तक का होता है। या फिर उससे अधिक भी हो सकता है हापुस आम वजन में काफी अच्छे होते हैं। हापुस आम अपनी मिठास , स्वादिष्ट स्वाद, बेहतरीन खुशबू के लिए तो प्रसिद्ध ही हैं। परंतु हापुस आम में एक और बड़ी खूबी यह भी है। कि पूरी तरह से पक जाने के एक हफ्ते बाद तक रखने पर या खराब नहीं होते हैं।हापुस आम अपने इस बेहतरीन और खास गुण के चलते मार्केट में महंगे दाम पर बिकता है। हापुस आम दर्जन और किलोग्राम दोनों ही तरह से मार्केट में भारी कीमत पर बिकते हैं। प्राप्त की गई जानकारियों के अनुसार हापुस आम की कीमत 2021 में लगभग थोक बाजारों में ₹700 दर्जन के हिसाब से थी। हापुस आम अपने भारी वजन के चलते दाम में बढ़कर मिलते हैं।

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विदेश में हापुस आम की बढ़ती मांग

हापुस आम को ना सिर्फ भारत में अन्यथा विदेश में भी खूब पसंद किया जाता है और इसकी खूबी और पसंद के चलते करीब हर साल यह पांच 50000 टन के हिसाब से विदेशों में खाए जाते हैं।आंकड़ों के मुताबिक यह कहना उचित होगा। कि हापुस आम ना सिर्फ भारत अन्यथा विदेश देशों में भी अपनी लोकप्रियता को बढ़ा रहा है। हापुस आम अप्रैल से लेकर मई के महीने तक पककर पूरी तरह से तैयार हो जाते हैं और यह करीब जून-जुलाई के बीच बाजार में आना शुरू हो जाते हैं। किसानों से प्राप्त की गई जानकारी के अनुसार हापुस आम महाराष्ट्र के कोंकण इलाके में सिंधुगण जिले के देवगढ़ तहसील के कम से कम 70 गांवों में 45000 एकड़ की भूमि पर हापुस आम को उगाने का कार्य किया जाता है। यह मार्ग लगभग देवगढ़ समुद्र तट से लगभग 200 किलोमीटर अंदर जाकर पड़ता है। इन जिलों में पैदा होने वाले हापुस आम सबसे बेहतरीन किस्म के होते हैं जिनका कोई और तोड़ नहीं होता है।

हापुस आम की पैदावार करने वाले प्रदेश

हापुस आम की पैदावार महाराष्ट्र  प्रदेश के गुजरात के वलसाड़ तथा नवसारी में, रत्नागिरी में हापुस आम की भारी मात्रा में पैदावार होती है। आय की दृष्टि से देखें तो हर साल लगभग 200 करोड़ रुपए का हापुस आम से निर्यात होता है। कुछ ऐसे प्रदेश है जहां से हापुस आम का निर्यात होता है जैसे; दुबई सिंगापुर मध्य एशिया इन देशों से भी हापुस आम के ज़रिए अच्छा निर्यात किया जाता है। विदेशों से लगभग हापुस आम की खपत साल के हिसाब से लगभग 50000 टन से भी ज्यादा अधिक होती है। हापुस आम का जाना माना और मुख्य कारोबार का क्षेत्र नई मुंबई का वाशी स्थित कृषि उत्पादन बाजार है। हापुस आम का उत्पादन कृषि उत्पादन बाजार समिति द्वारा होता है।

हापुस आम की पहचान

हापुस आम की पहचान, हापुस आम की सुगंध से की जाती है। यह सुगंध में बहुत ही अच्छे होते हैं। जिसके चलते हैं आप हापुस आम की पहचान कर सकते हैं। हापुस आम की पहचान इसके पल्प केसरी रंग और बिना रेशेदार होने से भी की जा सकती है। यह कुछ विशेषताएं थी जिसके चलते आप हापुस आम आपकी पहचान कर सकते हैं।

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जीआई टैग क्या है

जीआई टैग या फिर भौगोलिक संकेत क्या होता है? जीआई टैग या फिर भौगोलिक संकेत एक ऐसी क्रिया है जिसके द्वारा उत्पादन के क्षेत्र से संबंधित जानकारी दी जाती है। यह टैग या फिर विशेष जानकारी किसी ऐसे क्षेत्र से संबंधित उत्पाद को दी जाती है। इसके अंतर्गत उस विशेष उत्पाद गुणवत्ता या फिर प्रतिष्ठा या और भी किसी विशेषताओं को आम तौर पर कहे तो उत्पादन की भौगोलिक या फिर अन्य उत्पत्ति के लिए कसूरवार ठहराया जाएं।

जीआई टैग वाले हापुस आम

प्राप्त की गई जानकारियों के मुताबिक जीआईटैग वाले कुछ केंद्र भी स्थापित किए जा सकते हैं। इस केंद्र के जरिए किसान अपना आम अच्छे दाम पर बेच सकते हैं। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि क्यूआर कोट को भी स्थापित किया जाएगा। जिसका इस्तेमाल कर पता लगाया जा सकता है कि यह सच में जीआई टैग वाले आम की है या फिर नहीं। हापुस आम कि यह जीआईटैग वाली क्यूआर कोट सर्विस इसकी उपयोगिता को और भी बढ़ाती है। क्यूआर कोट के जरिए  ग्राहक स्कैन कर सीधा  पता कर सकते हैं। कि यह हापुस आम की किस्म किस खेत और इसका सही मालिक कौन है।

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हापुस आम की विशेषताएं

हापुस आम ना सिर्फ खाने में स्वादिष्ट, बल्कि इसमें विभिन्न प्रकार के औषधि गुण मौजूद होते हैं जो स्वास्थ्य के लिए बहुत ही ज्यादा लाभदायक होते हैं। हापुस आम में पूर्ण रूप से आयरन मौजूद होता है। यदि गर्भवती महिला इसे सेवन करती है तो उसके स्वास्थ्य के लिए यह बहुत लाभदायक होते हैं। हापुस आम में उच्च मात्रा में फेनोलिक यौगिक पाया जाता है जो  एंटी-ऑक्सीडेंट होते हैं। जो कैंसर जैसी भयानक बीमारियों से लड़ने में सहायता करते हैं। दोस्तों हम उम्मीद करते हैं कि आपको हमारा हापुस आम वाला आर्टिकल पसंद आया होगा। इसमें हापुस आम से जुड़ी सभी प्रकार की जानकारियां मौजूद है। हमारी दी गई जानकारियों से यदि आप संतुष्ट है तो हमारी इस पोस्ट को ज्यादा से ज्यादा सोशल मीडिया पर और अपने दोस्तों के साथ शेयर करते रहें।
महाराष्ट्र में फसलों पर कीटों का प्रकोप, खरीफ की फसल हो रही बर्बाद

महाराष्ट्र में फसलों पर कीटों का प्रकोप, खरीफ की फसल हो रही बर्बाद

महाराष्ट्र में किसान अक्सर बारिश से परेशान रहते हैं लेकिन इस बार परेशानी उससे भी ज्यादा गंभीर है। दरअसल, उनकी खरीफ की फसल पर कीटों ने हमला बोल दिया है, जिसकी वजह से खड़ी फसल में भारी नुकसान हो रहा है। इस साल फसल सीजन की शुरुआत ही महाराष्ट्र के किसानों के लिए किसी बुरे सपने की तरह हुई। पहले काफी दिन तक बारिश नहीं हुई, लेकिन जब बारिश हुई तो मूसलाधार हुई और फसलें पानी में डूब गईं। अब अगस्त के महीने में जाकर बारिश हल्की हो रही है जिसके चलते कृषि कार्यों में तेजी तो आई है, लेकिन फसल बेहतर कैसे तैयार हो, इसको लेकर किसान जूझ रहे हैं।


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बारिश के बाद से पर्यावरण में तेजी से बदलाव देखने को मिला है, जिसकी वजह से फसलों पर तरह-तरह के कीट लग रहे हैं और उन्हें जमकर नुकसान हो रहा है। इस तरह का कीट का मामला सामने आया है जो फसलों का रस चूस लेता है और उन्हें सुखा देता है। ऐसे में भले ही अब बारिश का खतरा टल गया हो, लेकिन कीट लगने की वजह से उत्पादन पर असर पड़ने की आशंकाएं बढ़ गई हैं। पिछले साल कपास का रेट किसानों को अच्छा मिला था इसलिए महाराष्ट्र के कई इलाकों में कपास की जमकर बुवाई की गई है। ऐसे में किसान सोच रहे थे कि उत्पादन बढ़िया होगा तो उनके हालात सुधर जाएंगे, लेकिन कीटों के हमले के चलते ऐसा होता दिखाई नहीं दे रहा है। किसानों का कहना है कि जब फसलें छोटी थीं जब कीटों ने हमला नहीं किया, बल्कि जैसे-जैसे फसलें बढ़ती गईं कीटों ने हमला करना शुरू कर दिया।


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राज्य में जून के महीने में बिल्कुल बारिश नहीं हुई थी। इसके बाद जुलाई के महीने से लेकर 15 अगस्त तक मूसलाधार बारिश हुई। आलम यह है कि इस बारिश के चलते कई खेतों में जलभराव हो गया। अब जहां जलभराव हुआ है वहां फफूंद या कवक रोग फैल रहे हैं, जिसके चलते फसलें बढ़ नहीं रही हैं। पहले बारिश का असर फसलों पर हुआ था, लेकिन अब बदलते पर्यावरण का असर साफ दिख रहा है। जिन क्षेत्रों में पानी भरा हुआ है वहां रस चूसने वाले कीड़े फसलों पर कहर बरपा रहे हैं। ये कीड़े रस चूस रहे हैं जिसके चलते कपास की पत्तियां लाल होकर गिर जाती हैं। इस कपास की बुवाई मई में की गई थी, जो अब अपने शबाब पर थी, लेकिन संक्रमण इतना खतरनाक है कि फूल मर रहे हैं। अब किसानों ने भी इन कीड़ों से निपटने के लिए कमर कस ली है और उनके द्वारा कैमिकल और उर्वरकों का उपयोग किया जा रहा है, ताकि इन कीड़ों को खत्म किया जा सके। लेकिन कामयाबी पूरी तरह इसमें भी अब तक नहीं मिल पाई है। किसानों को कीटों से कैसे लड़ा जाए इसके लेकर बहुत थोड़ी जानकारी होती है। ऐसे में अगर कृषि विभाग अपनी तरफ से कोई पहल करे तो राज्य के किसानों का भला हो जाएगा और वे अपनी फसलों को बचा पाएंगे।
महाराष्ट्र में भारी बरसात की वजह से फसलें हुईं नष्ट, किसानों की बढ़ी परेशानी

महाराष्ट्र में भारी बरसात की वजह से फसलें हुईं नष्ट, किसानों की बढ़ी परेशानी

इस साल महाराष्ट्र में बहुत ज्यादा बरसात हुई है, जिससे राज्य के किसानों को बहुत सारी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। लगातार बरस रहे पानी की वजह से इन दिनों नदी नाले उफान पर हैं, जिससे किसान अपने खेतों में समय से नहीं पहुंच पा रहे हैं और फसलों में समय पर खाद देने का काम नहीं हो पा रहा। इसके साथ ही फसलों की निराई गुड़ाई में भी लगातार हो रही वर्षा की वजह से देरी हो रही है, जिससे खेतों खरपतवार की समस्या बढ़ती जा रही है। खेतों में पानी जमा होने के कारण फसलों के सड़ने का ख़तरा बढ़ गया है। इस समस्या से निजात पाने के लिए राज्य के राज्य के कृषक लगातार मेहनत कर रहे हैं ताकि अपनी खेती को इस आपदा से बचा पाएं। लेकिन इसके बावजूद कृषकों की चिंता कम होने का नाम नहीं ले रही है। राज्य के धुले जिले में हुई बेहिसाब वर्षा के कारण कई फसलें अब भी पानी में डूबी हुई हैं, जिससे जिले के किसानों को फसलों के सड़ने की चिंता सता रही है। साथ ही बहुत सारे किसानों की कपास, मक्का, बजरी, मूंग, उड़द और मिर्च की फसलें पूरी तरह से नष्ट भी हो गईं हैं। निश्चित तौर पर इसका असर उत्पादन पर पडेगा। अगर इस तरह से चलता रहा तो इस साल खरीफ के उत्पादन में भारी कमी आ सकती है। ये भी पढ़े: किसानों के लिए खुशी की खबर, अब अरहर, मूंग व उड़द के बीजों पर 50 प्रतिशत तक की सब्सिडी मिलेगी फसल सड़ने के अलावा खेती करने वाले लोग एक अन्य समस्या से जूझ रहे हैं। दरअसल खेत में जल जमाव के कारण फसल में पीलापन आ जाता है, जिससे उत्पादन प्रभावित हो रहा है। ज्यादा वर्षा के कारण धुले जिले में मिर्च की फसल पूरी तरह से सड़ चुकी है। एक के बाद एक फसल के सड़ने के बाद खेती करने वालों के लिए एक मुसीबत ख़ड़ी हो गई है, क्योंकि फसल सड़ने के बाद किसानों को लम्बा घाटा झेलना पड़ता है। कई बार उनके द्वारा खेत में डाला गया बीज भी वापस नहीं हो पाता। जुताई, बुवाई, खाद और मजदूरी का पैसा अतिरिक्त है, जो फसल सड़ने के कारण किसान को बिना किसी फायदे के वहन करना होता है। राज्य में अगर बरसात की बात करें तो कुछ फसलों को इससे फायदा भी हो रहा है, तो वहीं दूसरी ओर बहुत सारी फसलों को इससे घाटा हो रहा है। जिन फसलों में पानी की ज्यादा जरुरत होती है वो फसलें इस बरसात का जमकर लाभ उठा रही हैं और ऐसी फसलें अब भी खेतों में लहलहा रही हैं। ऐसी फसलों में बढ़िया उत्पादन होने की संभावना है, जिससे खेती करने वाले लोगों का घाटा कुछ हद तक बैलेंस हो सकता है। वहीं दूसरी ओर जिन कृषकों ने पानी वाली फ़सलों की बुवाई नहीं की है, उनके लिए इस तरह की बारिश एक बड़ा घाटा देकर जाएगी, जिससे किसान बेहद चिंतित हैं। ये भी पढ़े: हल्के मानसून ने खरीफ की फसलों का खेल बिगाड़ा, बुवाई में पिछड़ गईं फसलें राज्य में फिर से तेज बारिश का अंदेशा जताया जा रहा है। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि इस माह भी महाराष्ट्र में जमकर बरसात होने की संभावना है, जिससे किसानों की बची खुची फसल भी चौपट हो सकती है। लगातार हो रही बरसात के कारण खेती करने वाले लोग संकट महसूस कर रहे हैं। इसलिए किसानों ने सरकार से भीषण वर्षा के कारण फसलों को हुए नुकसान की भरपाई करने की मांग की है। इसको लेकर कई किसान समूह सरकार के सामने अपनी मांग रख रहे हैं ताकि कृषकों की खराब हुई फसल का मुआवजा मिल सके। फिलहाल राज्य में मुंबई के साथ ठाणे, पुणे, नासिक जिले में भारी बरसात हो रही है, जिससे चारों तरफ पानी ही पानी नज़र आ रहा है। इसके अतिरिक्त पालघर, नासिक, रायगढ़, रत्नागिरी जिलों में भी जमकर बरसात हुई है। भारी बरसात की संभावना को देखते हुए किसानों से सतर्क रहने की अपील की गई है। राज्य के किसान पानी से होने वाले नुकसान से बचने के लिए अपने खेतों में पानी को जमा होने से रोकें। इसके लिए वो खेत की मेड़ काटकर नाली बना सकते हैं, जिससे वर्षा का पानी खेत निकल जाए। इससे कड़ी फसल को सड़ने से रोका जा सकता है।