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खेती-किसानी

ऑफ सीजन में गाजर बोयें, अधिक मुनाफा पाएं (sow carrots in off season to reap more profit in hindi)

ऑफ सीजन में गाजर बोयें, अधिक मुनाफा पाएं (sow carrots in off season to reap more profit in hindi)

गाजर जो दिखने में बेहद ही खूबसूरत होती है और इसका स्वाद भी काफी अच्छा होता है स्वाद के साथ ही साथ विभिन्न प्रकार से हमारे शरीर को लाभ पहुंचाती है। गाजर से जुड़ी पूरी जानकारी प्राप्त करने के लिए हमारे इस पोस्ट के अंत तक जरूर बने रहें । जानें कैसे ऑफ सीजन में गाजर बोयें और अधिक मुनाफा पाएं। 

ऑफ सीजन में गाजर की खेती दें अधिक मुनाफा

सलाद के लिए गाजर का उपयोग काफी भारी मात्रा में होता है शादियों में फेस्टिवल्स विभिन्न विभिन्न कार्यक्रमों में गाजर के सलाद का इस्तेमाल किया जाता है। इसीलिए लोगों में इसकी मांग काफी बढ़ जाती है, बढ़ती मांग को देखते हुए इनको ऑफ सीजन भी उगाया जाता है विभिन्न रासायनिक तरीकों से और बीज रोपड़ कर। 

गाजर की खेती

गाजर जिसको इंग्लिश में Carrot के नाम से भी जाना जाता है। खाने में मीठे होते हैं तथा दिखने में खूबसूरत लाल और काले रंग के होते हैं। लोग गाजर की विभिन्न  विभिन्न प्रकार की डिशेस बनाते हैं जैसे; गाजर का हलवा सर्दियों में काफी शौक और चाव से खाया जाता है। ग्रहणी गाजर की मिठाइयां आदि भी बनाती है। स्वाद के साथ गाजन में विभिन्न प्रकार के विटामिन पाए जाते हैं जैसे विटामिनए (Vitamin A) तथा कैरोटीन (Carotene) की मात्रा गाजर में भरपूर होती है। अच्छे स्वास्थ्य के लिए कच्ची गाजर लोग ज्यादातर खाते हैं इसीलिए गाजर की खेती किसानों के हित के लिए काफी महत्वपूर्ण होती है। 

गाजर की खेती करने के लिए जलवायु

जैसा कि हम सब जानते हैं कि गाजर के लिए सबसे अच्छी जलवायु ठंडी होती है क्योंकि गाजर एक ठंडी फसल है जो सर्दियों के मौसम में काफी अच्छी तरह से उगती है। गाजर की फसल की खेती के लिए लगभग 8 से 28 डिग्री सेल्सियस का तापमान बहुत ही उपयोगी होता है। गर्मी वाले इलाके में गाजर की फसल उगाना उपयोगी नहीं होता। 

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ऑफ सीजन में गाजर की खेती के लिए मिट्टी का उपयोग

किसान गाजर की अच्छी फसल की गुणवत्ता प्राप्त करने के लिए तथा अच्छी उत्पादन के लिए दोमट मिट्टी का ही चयन करते हैं क्योंकि यह सबसे बेहतर तथा श्रेष्ठ मानी जाती है। फसल के लिए मिट्टी को भली प्रकार से भुरभुरा कर लेना आवश्यक होता है। बीज रोपण करने से पहले जल निकास की व्यवस्था को बना लेना चाहिए, ताकि किसी भी प्रकार की जलभराव की स्थिति ना उत्पन्न हो। क्योंकि जलभराव के कारण फसलें सड़ सकती हैं , खराब हो सकती है, जड़ों में गलन की समस्या भी उत्पन्न हो सकती है तथा फसल खराब होने का खतरा बना रहता है। 

गाजर की खेती का सही टाइम

किसानों और विशेषज्ञों के अनुसार गाजर की बुवाई का सबसे अच्छा और बेहतर महीना अगस्त से लेकर अक्टूबर तक के बीच का होता है। गाजर की कुछ अन्य किस्में  ऐसी भी हैं जिनको बोने का महीना अक्टूबर से लेकर नवंबर तक का चुना जाता है और यह महीना सबसे श्रेष्ठ महीना माना जाता है। गाजर की बुवाई यदि आप रबी के मौसम में करेंगे , तो ज्यादा उपयोगी होगा गाजर उत्पादन के लिए तथा आप अच्छी फसल को प्राप्त कर सकते हैं।

ऑफ सीजन में गाजर की फसल के लिए खेत को तैयार करे

किसान खेत को भुरभुरी मिट्टी द्वारा तैयार कर लेते हैं खेत तैयार करने के बाद करीब दो से तीन बार हल से जुताई करते हैं। करीब तीन से 5 दिन के भीतर अपने पारंपरिक हल से जुताई करना शुरू कर देते हैं और सबसे आखरी जुताई के लिए पाटा फेरने की क्रिया को अपनाते हैं।  खेत को इस प्रकार से फसल के लिए तैयार करना उपयुक्त माना जाता है।

गाजर की उन्नत किस्में

गाजर की बढ़ती मांग को देखते हुए किसान इनकी विभिन्न विभिन्न प्रकार की  किस्मों का उत्पादन करते हैं। जो ऑफ सीजन भी उगाए जाते हैं। गाजर की निम्न प्रकार की किस्में होती है जैसे:

  • पूसा मेघाली

पूसा मेघाली की बुआई लगभग अगस्त से सितंबर के महीने में होती है। गाजर की इस किस्म मे भरपूर मात्रा में कैरोटीन होता है जो स्वास्थ्य के लिए बहुत ही लाभदायक है। यह फसल उगने में 100 से लेकर 110 दिनों का समय लेते हैं और पूरी तरह से तैयार हो जाती हैं।

  • पूसा केसर

गाजर कि या किस्म भी बहुत ही अच्छी होती है या 110  दिनों में तैयार हो जाती हैं। पूसा केसर की बुआई का समय अगस्त से लेकर सितंबर का महीना उपयुक्त होता है।

  • हिसार रसीली

हिसार रसीली सबसे अच्छी किस्म होती है क्योंकि इसमें विटामिन ए पाया जाता है तथा इसमें कैरोटीन भी होता है। इसलिए बाकी किस्मों से यह सबसे बेहतर किसमें होती है। यह फसल तैयार होने में लगभग 90 से 100 दिनों का टाइम लेती है।

  • गाजर 29

गाजर की या किस्म स्वाद में बहुत मीठी होती है इस फसल को तैयार होने में लगभग 85 से 90 दिनों का टाइम लगता है।

  • चैंटनी

चैंटनी किस्म की गाजर दिखने में मोटी होती है और इसका रंग लाल तथा नारंगी होता है इस फसल को तैयार होने में लगभग 80 से 90 दिन का टाइम लगता है।

  • नैनटिस

नैनटिस इसका स्वाद खाने में बहुत स्वादिष्ट तथा मीठे होते हैं या फसल उगने में 100 से 120 दिनों का टाइम लेती है। 

 दोस्तों हम उम्मीद करते हैं आपको हमारा यह आर्टिकल Gajar (agar sinchai ki vyavastha ho to), Taki off-season mein salad ke liye demand puri ho aur munafa badhe काफी पसंद आया होगा और हमारा यह आर्टिकल आपके लिए बहुत ही लाभदायक साबित होगा। हमारे इस आर्टिकल से यदि आप संतुष्ट है तो ज्यादा से ज्यादा इसे शेयर करें।

इस राज्य में स्ट्रॉबेरी (Strawberry) की फसल उगाकर चिकित्सक का बेटा धन के साथ यश भी कमा रहा है

इस राज्य में स्ट्रॉबेरी (Strawberry) की फसल उगाकर चिकित्सक का बेटा धन के साथ यश भी कमा रहा है

कृषि क्षेत्र में युवाओं की काफी चिलचस्पी देखने को मिल रही है। इसी क्रम में सोनीपत के एक युवा द्वारा स्ट्रॉबेरी की खेती (Strawberry ki kheti) से धन के साथ यश भी अर्जित किया जा रहा है। इस युवा के इस कार्य को काफी सराहा जा रहा है। हरियाणा राज्य ने भारत को बहुत सारे शूरवीर और पराक्रमी युवा दिए हैं। भारत की सेवा करने वाले एवं देश की शक्ति को विश्व स्तर पर दिखाने वाले वीर सपूत दिए हैं। हालाँकि, हरियाणा राज्य को किसानों एवं खिलाड़ियों की भूमि भी कहा जाता है। क्योंकि हरियाणा के किसान अपने खेतों में बेहद परिश्रम करने के साथ-साथ उनके बच्चे भारत का खेल जगत में प्रतिनिधित्व करते हैं। बीते कुछ वर्षों में अन्य राज्यों की तुलना में हरियाणा राज्य ने खेती किसानी में बेहतरीन प्रदर्शन किया है। वर्तमान में यहां के किसानों से लेकर नौजवान भी खेती-किसानी से जुड़ नवीन कार्य करने की दिशा में बढ़ रहे हैं। इनकी कहानियां सोशल मीडिया पर लोगों को प्रेरित कर रही है एवं इसी प्रकार लोगों की दिलचस्पी कृषि क्षेत्र में बढ़ती जा रही है। अब हम आपके साथ एक प्रेरणायुक्त कहानी साझा करने जा रहे हैं। जो कि सोनीपत जनपद के चिटाना गांव निवासी अंकित की है। अंकित के पिताजी पेशे से डेंटल फिजिशियन हैं, परंतु अंकित ने सफलता हाँसिल करने हेतु किसी बड़ी नौकरी, डिग्री, पेशे की जगह कृषि को प्राथमिकता दी है।

स्ट्रॉबेरी की खेती से किसान मोटा मुनाफा कमा सकते हैं

सोनीपत जनपद के चिटाना गांव के निवासी अंकित आजकल स्ट्रॉबेरी का उत्पादन कर रहे हैं। अंकित ने स्ट्रॉबेरी के उत्पादन हेतु कहीं और से प्रशिक्षण नहीं लिया है, बल्कि YouTube द्वारा परिकल्पना लेकर ही वर्तमान में इस बेहतरीन स्वादिष्ट विदेशी फल स्ट्रॉबेरी का उत्पादन कर रहे हैं। इस कार्य को लगभग 5 वर्ष पूर्व आरंभ किया गया था, जब अंकित ने YouTube द्वारा ही स्ट्रॉबेरी उत्पादन की नवीन तकनीकों के विषय में जाना था। प्रतिदिन एक नई तकनीक के विषय में जानकर स्वयं के ज्ञान को अधिक बढ़ाते थे। कुछ समय बाद उनको इस फसल के बारे में अच्छी समझ और जानकारी हो गयी। उसके बाद उन्होंने उन्होंने स्ट्रॉबेरी की फसल का उत्पादन चालू कर दिया। परिणामस्वरूप आज वह 4 से 5 लाख रूपए की आमदनी कर रहे हैं।

अंकित ने कब से शुरू किया स्ट्रॉबेरी का उत्पादन

नवभारत टाइम्स के विवरण के अनुसार, अंकित स्ट्रॉबेरी के उत्पादन सहित Graduation भी कर रहे हैं। लगभग 2 वर्ष पूर्व स्वयं की 2 एकड़ भूमि में स्ट्रॉबेरी के उत्पादन का निर्णय किया था। उनके द्वारा स्ट्रॉबेरी की खेती हेतु 7 से 8 लाख रुपये का व्यय भी किया गया। फिलहाल अंकित ना केवल स्वयं बेहतरीन आय करके आत्मनिर्भर हुए साथ में गाँव के बहुत सारे लोगों को आय का स्त्रोत भी देने का अवसर प्रदान किया है।


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बतादें कि स्ट्रॉबेरी के फल की मांग सदैव बनी रहती है। इसी कारण से अंकित को इसके विपणन संबंधित कभी भी कोई भी समस्या नहीं हुई। फिलहाल ग्राहक फोन के माध्यम से ही अपना Order Book कर लेते हैं। अंकित को स्ट्रॉबेरी की खेती में हो रहे खर्च से बहुत ज्यादा आमदनी हो रही है।

परंपरागत कृषि से अधिक मुनाफा कमाए

मीडिया को बताते हुए अंकित ने कहा है, कि पारंपरिक फसलों की तुलनात्मक स्ट्रॉबेरी की खेती करके बेहतरीन मुनाफा अर्जित किया जा सकता है। हमारे पूर्वज इतना गेहूं-धान के उत्पादन से लाभ नहीं अर्जित कर सकते, जितना स्ट्रॉबेरी उत्पादन से आमदनी हो रही है। फिलहाल के समय में जहां युवाओं को नौकरी पाना भी मुश्किल है। इसलिए स्ट्रॉबेरी की खेती से हम लोगों को रोजगार के अवसर उपलब्ध करा रहे हैं। जहां केवल नौकरी-पेशे को ही सफलता का मापक माना जाता है, लेकिन आज अंकित की तरह बहुत सारे युवा अन्य लोगों की सोच व दिशा परिवर्तन का कार्य कर रहे हैं।
मूली की फसल को प्रभावित करने वाले रोग एवं उनकी रोकथाम

मूली की फसल को प्रभावित करने वाले रोग एवं उनकी रोकथाम

मूली का सेवन भारत के सभी हिस्सों में किया जाता है। आज हम आपको इसमें होने वाले रोगों के बचाव के बारे में बताते हैं। भारत के हर हिस्से में मूली की खेती की जाती है। इसकी खेती के लिए रेतीली भुरभुरी मिट्टी सबसे उपयुक्त मानी जाती है। मूली में विटामिन, कैल्शियम, कॉपर, मैग्नीश्यिम और कैल्सियम भरपूर मात्रा में मौजूद होती है। इसकी खेती के लिए मिट्टी की पीएच वैल्यू 6 से 8 के मध्य होनी चाहिए। आज हम आपको इसमें लगने वाले रोग एवं उनसे बचाव के विषय में आपको जानकारी देने जा रहे हैं।

बालदार सुंडी

यह रोग मूली में शुरुआत की अवस्था में ही लग जाता है। बालदार सुंडी रोग पौधों को पूरी तरह से खा जाता है। यह कीट पत्तियों सहित पूरी फसल का नुकसान कर देते हैं, जिससे पौधे अपना भोजन सूर्य के प्रकाश से ग्रहण नहीं कर पाते हैं। इसके बचाव के लिए क्विनालफॉस उर्वरक का उपयोग किया जाता है। यह भी पढ़ें:
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ह्वाइट रस्ट

इस प्रकार के कीट आकार में बेहद छोटे होते हैं। यह मूली के पत्तियों पर लगते हैं। यह कीट पत्तियों का रस चूसकर उसको पीले रंग का कर देते हैं। इस किस्म का रोग इस बदलते जलवायु परिवर्तन की वजह से ज्यादा देखने को मिल रहा है। इससे संरक्षण के लिए आप मैलाथियान उर्वरक की उचित मात्रा का छिड़काव मूली के पौधों पर कर सकते हैं।

झुलसा रोग

यह मौसम के मुताबिक लगने वाला रोग है। मूली में यह रोग जनवरी और मार्च महीने के मध्य लगता है। झुलसा रोग लगने से पौधों की पत्तियों पर काले रंग के धब्बे पड़ जाते हैं। साथ ही, मूली का रंग भी काला पड़ जाता है। इससे बचाव के लिए मैन्कोजेब तथा कैप्टन दवा का उचित मात्रा मे जल के घोल के साथ छिड़काव करने से इस रोग को रोका जा सकता है। यह भी पढ़ें: किसान भाई सेहत के लिए फायदेमंद काली मूली की खेती से अच्छी आमदनी कर सकते हैं

काली भुंडी रोग

यह भी पत्तियों में लगने वाला एक कवक रोग है। इसमें पौधों की पत्तियों में पानी कमी होने की वजह से यह सूख सी जाती हैं। यदि यह रोग अन्य मूली में लगता है, तो यह पूरी फसल में फैल जाता है। किसान को बहुत बड़ा नुकसान हो जाता है। इस रोग से पौधों को बचाने के लिए आप इसके लक्षण दिखते ही 6 से 10 दिन के समयांतराल पर मैलाथियान की उचित मात्रा का छिड़काव कर सकते हैं। उपरोक्त में यह सब मूली की फसल में लगने वाले प्रमुख रोग हैं। इन रोगों की वजह से किसानों को काफी हानि का सामना करना पड़ता है।
लहसुन के कीट रोगों से बचाए

लहसुन के कीट रोगों से बचाए

लहसुन में चुनिंदा कीट एवं रोग लगते हैं लेकिन इनका समय से नियंत्रण बेहद आवश्यक है। कम पत्तों वाली फसल होने के कारण इस पर रोग प्रभाव का गहरा असर होता है।

थ्रिप्स -



लहसुन एवं प्याज में लगने वाला मुख्य कीट है। यह छोटे और पीले रंग का होता है। इसके द्वारा पत्तियों का रस चूस लिया जाता है। इससे पौधे का विकास रुक जाता है। नियंत्रण के लिए इमिडाक्लोपड 5 एमएल प्रति 15 लीटर पानी या थायेमेथाक्झाम 125 ग्राम प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करेें।

शीर्ष छेदक कीट -

इस कीट की लार्वी पत्तियों को खाते हुये शल्क कंद के अंदर प्रवेश कर सड़न पैदा करती है। नियंत्रण हेतु फोरेट 1 से 1.5 किलोग्राम सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में डालें। बैंगनी धब्बा रोग का प्रकोप फरवरी एवं अप्रेल में होता है। इससे पप्ते बदरंग हो जाते हैं।



मेन्कोजेब+कार्बेंडिज़म 2.5 ग्राम दवा के मिश्रण से प्रति किलो बीज की दर से बीजोपचार कर बुआई करें। मैकोजेब 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी या कार्बेंडिज़म 1 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से 15 दिन के अंतराल पर दो बार छिडकाव करें।



झुलसा रोग  में नाम के अनुरूप पौधे झुलसे जैसे हो जाते हैं। बचाव हेतु मैकोजेब 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी या कार्बेंडिज़म 1 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से 15 दिन के अंतराल पर दो बार छिडकाव करें। लहसुन के खेत में खड़ी फसल के आधे पौधों की गर्दन लुढ़क जाए तो  समझ लें कि फसल तैयार हो चुकी है। जिस समय पौधौं की पत्तियां पीली पड़ जायें और सूखने लगें तो सिंचाई बन्द दें । इसके बाद गाँठो को 3-4 दिनों तक छाया में सुखा लें। फिर 2 से 2.25 से.मी. छोड़कर पत्तियों को कन्दों से अलग कर लेते हैं ।

भण्डारण



अच्छी प्रक्रिया से सुखाये गये लहसनु को उनकी छटाई कर के साधारण हवादार स्थान पर रखें।छह माह में 20 फीसदी तक नमी सूखती है। पत्तियों सहित बण्डल बनाकर रखने से कम हानि होती है।

किसानों को करे मालामाल, इसे कहते हैं सोना लाल, करे केसर की खेती

किसानों को करे मालामाल, इसे कहते हैं सोना लाल, करे केसर की खेती

किसान भाइयों आपने मनोज कुमार की फिल्म उपकार का वो गाना तो सुना ही होगा जिसमें बताया गया है कि मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती। ये हमारे देश की धरती वास्तव में सोना उगलती है। ये सोना कोई और नहीं बल्कि केसर है, जिसको दुनिया में लाल सोना कहा जाता है। इसका कारण यह है कि मात्र छह महीने के समय में खेतों में उगने वाला ये केसर बाजार में सोने जैसा ही महंगा बिकता है। केसर का मूल्य 3 लाख से 4 लाख रुपये प्रतिकिलो तक है। डिमांड बढ़ने पर इसकी कीमत 5 लाख रुपये तक जाती है। केसर के महंगे होने का प्रमुख कारण यह है कि इसकी खेती समुद्र तल से 1500 से 2500 मीटर की ऊंचाई वाले बर्फीले इलाकों में होती है। इस तरह के स्थान दुनिया भर में बहुत कम हैं।  बर्फीले लेकिन शुष्क मौसम में इसकी खेती की जाती है। यदि अधिक नमी वाली या पानी वाली जगह है तो वहां पर यह खेती नहीं हो सकती। विश्व में इस तरह के मौसम वाले खेती की जमीन कम होने के कारण इसके दाम अधिक होते हैं। स्पेन और ईरान मिलकर दुनिया की 80 प्रतिशत केसर पैदा करते हैं। भारत में कश्मीर में इसकी खेती होती है और वो दुनिया का 3 प्रतिशत केसर पैदा करता है। केसर सबसे महंगा मसाला है। इसके अलावा अनेक औषधीय गुणों के कारण पूरे विश्व में बहुत अधिक डिमांड है। सुगंध के कारण इसका प्रयोग कॉस्मेटिक इंडस्ट्री में भी होता है। कुल मिलाकर केसर का जितना उत्पादन होता है उससे कई गुना अधिक मांग है। इस वजह से इसकी कीमत बहुत ज्यादा रहती है। आईये जानते हैं कि केसर की खेती किस प्रकार की जाती है।

भूमि और जलवायु

केसर की खेती के लिए भूमि और जलवायु केसर की खेती के लिए बलुई दोमट और दोमट मिट्टी सबसे उपयुक्त मानी गयी है। रेतीली जमीन में भी इसकी खेती अच्छे तरह से की जा सकती है। इसके लिए जलभराव वाली जमीन ही हानिकारक है।
केसर की खेती के लिए पीएम मान 5-6 वाली मृदा सबसे अच्छी मानी जाती है। जलभराव से इसके बीज सड़ जाते हैं। इसलिये समतल या जल निकासी वाली जमीन में खेती की जानी चाहिये। केसर की खेती के लिए सर्दी, गर्मी और धूप की आवश्यकता होता है। इसकी खेती बर्फीले प्रदेश में अधिक अच्छी होती है। सर्दी अधिक पड़ने और गीला मौसम होने से इसकी पैदावार कम होती है। केसर के पौधों के अंकुरण और बढ़वार के लिए 20 डिग्री के आसपास का तापमान चाहिये। इसी तरह फूल निकलने के समय भी 10 से 20 डिग्री का तापमान सबसे उपयुक्त बताया गया है।

खेत की तैयारी कैसे करें

केसर की खेती के लिए सबसे पहले खेत को खरपतवार हटा कर मिट्टी पलटने वाले हल से गहरी जुताई करें। उसके बाद खेत में प्रति एकड़ 10 से 15 टन गोबर की खाद डालकर कल्टीवेटर से तिरछी जुताई करें ताकि खाद मिट्टी में अच्छी तरह से मिल जाये। इसके बाद खेत में पलेवा करके छोड़ दें और जब जमीन हल्की सूख जाये तब एन.पी.के. की उचित मात्रा में डालकर रोटावेटर से जुताई करें ताकि मिट्टी भुरभुरी और समतल हो जाये। ये भी पढ़े: रिटायर्ड इंजीनियर ने नोएडा में उगाया कश्मीरी केसर, हुआ बंपर मुनाफा

उन्नत किस्में

कश्मीरी मोगरा: केसर की उन्नत किस्मों के बारे में कश्मीरी मोगरा को सबसे अच्छा माना जाता है। इसकी उच्च गुणवत्ता के कारण ही इसका बाजार में मूल्य 3 से 5 लाख रुपये प्रतिकिलो है। इस किस्म की केसरकी खेती केवल जम्मू कश्मीर में ही किश्तवाड़, पम्पोर के आसपास अधिक होती है। इसके पौधे एक फुट की ऊंचाई वाले होते हैं। इन पौधों पर बैंगनी, नीले और सफेद फूल लगते हैं। इन फूलों में दो से तीन नारंगी रंग की पतली से पंखुड़ियां होतीं है, इन्हें ही केसर कहा जाता है। माना जाता है कि एक बीघे में एक किलो केसर हो पाती है। हेक्टेयर की बात करें तो 4 किलो के आसपास केसर मिल जाती है।

अमेरिकन केसर

केसर की इस नस्ल पर विवाद भी है। इसको कुछ लोग केसर मानते हैं तो कुछ लोग इसे कुसुम का पौधा कहते हैं। इसकी केसर कश्मीरी केसर की अपेक्षा बहुत कम रेट पर बिकती है। राजस्थान, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश सहित अनेक राज्यों में इस अमेरिकन केसर की खेती होती है। इसकी खेती शुष्क प्रदेशों में होती है और इसके लिए कोई विशेष प्रकार की जलवायु की जरूरत नहीं होती है। इसका प्रयोग सफोला तेल बनाने में किया जाता है।

कब और कैसे करें बिजाई

कैसे करें केसर की खेती केसर की खेती के लिए बिजाई का सबसे उत्तम समय अगस्त माह का होता है। कुछ किसान भाई सितम्बर में भी इसकी बुआई कर सकते हैं। अच्छी गुणवत्ता वाली केसर पाने के लिए किसान भाइयों को समय पर ही बिजाई करनी आवश्यक होती है। इस समय केसर लगाने से फायदा यह होता है कि जब नवम्बर में अधिक सर्दी पड़ती है तब तक पौधा इतना मजबूत हो जाता है कि उस पर सर्दी का असर नहीं पड़ता है बल्कि उस समय उसके फूल अधिक अच्छा आता है। ये भी पढ़े: सॉफ्टवेयर इंजीनियर ने नौकरी छोड़कर केसर का उत्पादन शुरू किया, वेतन से कई गुना ज्यादा कमा रहा मुनाफा केसर की बिजाई दो तरीके से की जा सकती है। इसको समतल खेतों में लगाया जा सकता है और यदि पानी के भराव की कोई आशंका हो तो इसको मेड़ पर लगाना चाहिये। समतल खेतों में पंक्ति की दूरी लगभग दो फुट की होनी चाहिये। जो किसान भाई इसे मेड़ पर लगाना चाहते हैं तो मेड़ों के बीच एक फुट की दूरी छोड़नी चाहिये। पौधों के बीच  दूरी भी फुट रखनी चाहिये। कश्मीरी मोगरा केसर की खेती के लिए प्रति हेक्टेयर 1 से दो क्विंटल के बीज की जरूरत होती है। इसका बीज लहसुन जैसा होता है। यह बीज काफी महंगा मिलता है। इसे बल्ब कहते हैं।

सिंचाई प्रबंधन

यदि वर्षा काल में केसर की बिजाई की जा रही है तो पानी की आवश्यकता होती है। इस समय किसान भाइयों को चाहिये कि वे यह देखते रहें कि वर्षाकाल में बारिश नहीं हो रही है तो बीज बोने के बाद सिंचाई अवश्य कर दें तथा 15 दिन में एक बार अवश्य सिंचाई कर दें। समय-समय पर सिंचाई तो करें लेकिन जब फूल आने वाले हों तो सिंचाई को रोक दें।

खाद एवं उर्वरक प्रबंधन

केसर की खेती में खाद व उर्वरक जुताई और बुआई से पहले ही डाली जाती है। बुआई से पहले प्रति हेक्टेयर 10 से 15 टन गोबर की खाद डाली जाती है। इसके अलावा जो किसान भाई उर्वरकों को प्रयोग करना चाहते हैं वे एनपीके की उचित मात्रा बुआई से पहले अंतिम जुताई के दौरान डाल सकते हैं। उसके बाद जब पौधे की सिंचाई करें तब खेत में वेस्ट डिकम्पोजर डालने से लाभ होता है।

खरपतवार प्रबंधन

केसर की खेती में दो बार निराई गुड़ाई करने की आवश्यकता होती है। किसान भाइयों को चाहिये कि बीज से अंकुर निकलने के लगभग 15 से 20 दिन के बीच एक बार निराई करके खरपतवार हटा देना चाहिये और उसके एक माह बाद फिर से निराई गुड़ाई कर देनाा चाहिये।

रोग प्रबंधन

केसर की खेती में रोगों के लगने की संभावना कम ही होती है। इसके बावजूद दो रोग अक्सर देखने को मिल जाते हैं।
  1. मकड़ी जाला: ये रोग अंकुर निकलने के बाद पहले या दूसरे महीने में लग जाता है। इससे पौधे के बढ़वार रुक जाती है जिससे उत्पादन प्रभावित हो जाता है। इसके संकेत मिलते ही आठ-दस दिन पुरानी छाछ यानी मट्ठे का छिड़काव करने से लाभ मिलता है।
  2. बीज सड़न: बुआई के बाद ही यह रोग लग जाता है। इस रोग के लगने के बाद बीज सड़ने लगता है। इस बीमारी को कोर्म सड़ांध के नाम से भी जाना जाता है। इसका संकेत मिलते ही पौधे की जड़ों पर सस्पेंशन कार्बेन्डाजिम का छिड़काव करना चाहिये।

केसर की तुड़ाई कब की जानी चाहिये

केसर की तुड़ाई कब की जानी चाहिये केसर की खेती में बीजों की बुआई के लगभग चार महीने बाद ही केसर फूल देना शुरू कर देता है। इस फूल के अन्दर धागे नुमा पंखुड़ियां जब लाल या नारंगी हो जायें तब उन्हें तोड़ कर छायादार जगह में सूखने के लिए एकत्रित करें। जब सूख जाएं तब उन्हें किसी कांच के बर्तन में रख लें।

मोगरा केसर ऐसे बनायें

केसर के फूलों से निकली नारंगी पंखुड़ियों को तीन से पांच दिन सुखाया जाता है। उसके बाद इन्हें डंडे से पीट कर मोटी छन्नियों से छाना जाता है। छानने के बाद मिले केसर को पानी में डाला जाता है जो भाग पानी में तैरता है उसे हटा दिया जाता है। पानी में डूबने वाले हिस्सों को निकाल कर सुखाया जाता है। इस तरह से असली मोगरा केसर तैयार हो जाता है। जिसकी कीमत 3 लाख रुपये प्रतिकिलो से अधिक बतायी जाती है। ये भी पढ़े: वैज्ञानिकों के निरंतर प्रयास से इस राज्य के गाँव में हुआ केसर का उत्पादन

लच्छा केसर भी बनाया जाता है

पानी में तैरने वाला भाग जो हटाया जाता है। उसे दुबारा पीट कर फिर पानी में डुबाया जाता है। इसमें डूबने वाले हिस्से को फिर पानी से निकाला जाता है जिसे लच्छा केसर कहते हैं। इसकी क्वालिटी पहले वाले से कम होती है।

संभावित लाभ

किसान भाइयों केसर की खेती से हमें अच्छी फसल मिलने पर काफी लाभ  प्राप्त होता है। एक फसल में केसर की खेती से प्रति हेक्टेयर 3 किलों केसर मिलती है। गुणवत्ता के आधार पर केसर की कीमत लगभग 3 लाख रुपये किलो बताई जाती है। इस तरह से प्रति हेक्टेयर 9 लाख रुपये का लाभ किसान भाइयों को मिल सकता है।
'मोती की खेती' ने बदल दी किताब बेचने वाले नरेन्द्र गरवा की जिंदगी, अब कमा रहे हैं सालाना पांच लाख रुपए

'मोती की खेती' ने बदल दी किताब बेचने वाले नरेन्द्र गरवा की जिंदगी, अब कमा रहे हैं सालाना पांच लाख रुपए

जयपुर (राजस्थान), लोकेन्द्र नरवार

आज हम आपको बता रहे हैं मेहनत और लगन की एक और कहानी। राजस्थान के रेनवाल के रहने वाले नरेन्द्र गरवा जो कभी किताबें बेचकर अपने परिवार का पालन-पोषण करते थे, 

आज खेती से सालाना पांच लाख रुपए से ज्यादा कमा रहे हैं। जी हां, नरेन्द्र गरवा ने किताब बेचना छोड़ मोती की खेती (Pearl Farming) शुरू कर दी। और आज 'मोती की खेती' ने नरेन्द्र गरवा की जिंदगी बदल दी है। 

जो लोग कहते हैं कि खेती-किसानी में कुछ नहीं रखा है। नरेन्द्र गरवा उन लोगों के लिए एक मिशाल हैं। उन्हें नरेन्द्र की मेहनत और लगन से सीखना चाहिए।

राजस्थान में किशनगढ़ रेनवाल के रहने वाले नरेन्द्र गरवा

गूगल से ढूंढा था 'मोती की खेती' का प्लान

- राजस्थान में किशनगढ़ रेनवाल के रहने वाले नरेन्द्र गरवा जब किताब बेचते थे, तो मेहनत करने के बाद भी उन्हें काफी कुछ मुसीबतों का सामना करना पड़ता था। 

एक दिन नरेन्द्र ने गूगल पर नए काम की तलाश की। गूगल से ही उन्हें 'मोती की खेती' का पूरा प्लान मिला और निकल पड़े मोती की खेती करने।

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शुरुआत में पागल समझते थे लोग

- नरेन्द्र गरवा ने सबसे पहले अपने घर की छत पर मोती की बागवानी शुरू की थी। तब लोग नरेन्द्र को पागल समझते थे। बाहर वालों के साथ साथ घर के लोग भी कहते थे कि इसका दिमाग खराब हो गया है। 

परिवार के लोगों ने भी पागल कहना शुरू कर दिया था। लेकिन नरेन्द्र के जज्बे, मेहनत और लगन ने सबको परास्त कर दिया। आज वही लोग नरेन्द्र की तारीफों के पुल बांधते देखे जा सकते हैं।

30-35 हजार में शुरू किया था काम, आज 300 गज के प्लाट में लगा है कारोबार

- तकरीबन चार साल पहले नरेन्द्र गरवा ने सीप (Oyster) की खेती की शुरुआत की थी। हालांकि शुरुआत में उन्हें इसकी कोई जानकारी नहीं थी। 

सबसे पहले नरेन्द्र उडीसा में सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ फ्रेश वाटर एक्वाकल्चर (Central Institute of Freshwater Aquaculture) के मुख्यालय गए और यहां से लौटने के बाद महज 30-35 हजार रुपए की छोटी सी रकम लगाकर सीप से मोती बनाने की एक बहुत छोटी सी इकाई शुरू की। वर्तमान में नरेन्द्र 300 गज के प्लाट में लाखों रुपए का काम कर रहे हैं।

मुम्बई, गुजरात और केरल से खरीदते हैं सीप

- अपने प्लाट में ही नरेन्द्र ने छोटे-छोटे तालाब बना रखे हैं। इन तालाबों के अंदर वो मुम्बई, गुजरात और केरल के मछुआरों से सीप (बीज) खरीदकर लाते हैं। 

वह अच्छी खेती के किये हमेशा 1000 सीप एक साथ रखते हैं, जिससे साल अथवा डेढ़ साल के अंदर डिजाइनर व गोल मोती मिल ही जाते हैं।

पूर्व मुख्यमंत्री वशुधंरा व पूर्व कृषि मंत्री सैनी कर चुके हैं तारीफ

Vasundhara Raje Scindia 

- अपनी मेहनत और लगन से 'मोती की खेती' में नरेन्द्र गरवा ने महारत हांसिल की है। राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री वशुधंरा राजे सिंधिया और कृषि मंत्री प्रभुलाल सैनी ने नरेन्द्र के प्रयास और सफलता की तारीफ की थी। आज भी नरेन्द्र उन दिनों को अपनी जिंदगी के सबसे यादगार पल मानते हैं।

बागवानी की तरफ बढ़ रहा है किसानों का रुझान, जानिये क्यों?

बागवानी की तरफ बढ़ रहा है किसानों का रुझान, जानिये क्यों?

पारंपरिक खेती के बजाय अब किसान बागवानी(horticulture) खेती की तरफ ज्यादा आकर्षित हो रहे हैं, इसके कई कारण हो सकते हैं। लेकिन यदि मौजूदा सरकार की बात करें, तो सरकार बागवानी फसलों को बढ़ावा दे रही है।

देश की केंद्र सरकार के साथ-साथ राज्य सरकारें बागवानी फसलों को लेकर खाद-बीज, सिंचाई, रखरखाव, कटाई के बाद फसलों के भंडारण पर खास जोर दे रही हैं। 

सरकारों ने बागवानी फ़सलों में नवाचार को बढ़ावा देने के लिए अपने कृषि वैज्ञानिकों को लगा रखा है, जो इस पर बेहद बारीकी से रिसर्च कर रहे हैं तथा नए-नए बीज और संकरित किस्मों का निर्माण कर रहे हैं। 

 इसको लेकर सरकार कई तरह की योजनाएं चला रही है ताकि किसान पारंपरिक खेती के माध्यम से खाद्यान्न फ़सलों की जगह फल, फूल, सब्जी और औषधीय पौधों की खेती पर ध्यान दें।

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खाद्यान्न फ़सलों की अपेक्षा बागवानी फसलों में हो रही है वृद्धि

सरकार ने फसलों के उत्पादन के आंकड़े जारी किये हैं जिसमें बताया है कि मौसम की अनिश्चितता और बीमारियों के प्रकोप के कारण गेहूं, धान, दलहन, तिलहन जैसी पारंपरिक फसलों के उत्पादन में भारी गिरावट देखने को मिली है। 

वहीं बागवानी फसलों की बात करें तो फसलों के विविधिकरण, नई तकनीकों, मशीनरी और नए तरीकों का प्रयोग करने से उत्पादन में दिनों दिन वृद्धि देखने को मिल रही है। साथ ही, बागवानी फसलों में प्राकृतिक आपदा और बीमारियों के प्रकोप का भी उतना असर नहीं पड़ता जितना खाद्यान्न उत्पादन करने वाली खेती में पड़ता है। 

सरकारी आंकड़ों के अनुसार, साल 2021-22 के दौरान पारम्परिक खाद्यान्न फसलों के द्वारा 315,72 मिलियन टन उत्पादन हुआ है। जबकि बागवानी फसलों के द्वारा साल 2021-22 के दौरान 341.63 मिलियन टन उत्पादन हुआ है।

साल 2021-22 के दौरान बागवानी फसलों के उत्पादन में 2.10% की वृद्धि हुई है, जबकि खाद्यान्न फसलों के उत्पादन में इस दौरान कमी देखी गई है।

बागवानी फसलों से प्रदूषण में लगती है लगाम

आजकल धान-गेहूं जैसी पारंपरिक खाद्यान्न फसलों की खेती करने पर कटाई के बाद भारी मात्रा में अवशेष खेत में ही छोड़ दिए जाते हैं। 

ये अवशेष किसानों के किसी काम के नहीं होते, इसलिए खेत को फिर से तैयार करने के लिए उन अवशेषों में आग (stubble burning) लगाई जाती है, जिससे बड़ी मात्रा में वातावरण में प्रदूषण फैलता है और आम लोगों को उस प्रदूषण से भारी परेशानी होती है। 

इसके अलावा किसान पारंपरिक खेती में ढेरों रसायनों का उपयोग करते हैं जो मिट्टी के साथ-साथ पानी को भी प्रदूषित करते हैं। इसके विपरीत बागवानी फसलों की खेती किसान ज्यादातर जैविक विधि द्वारा करते हैं, जिसमें रसायनों की जगह जैविक खाद का इस्तेमाल होता है। 

इसके साथ ही बागवानी फसलों की खेती से उत्पन्न कचरा जानवरों को परोस दिया जाता है या जैविक खाद बनाने में इस्तेमाल कर लिया जाता है, जिससे प्रदूषण बढ़ने की संभावना नहीं रहती। 

बागवानी फसलों में आधुनिक खेती से किसानों की बढ़ी आमदनी

आजकल बागवानी फसलों में किसानों के द्वारा आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल किया जाता है। अब भारतीय किसान फल, फूल, सब्जी और जड़ी-बूटियां उगाने के लिए प्लास्टिक मल्च, लो टनल, ग्रीन हाउस और हाइड्रोपॉनिक्स का इस्तेमाल कर रहे हैं। इनके इस्तेमाल से उत्पादन में भारी बढ़ोत्तरी हुई है और लागत में भी कमी आई है।

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इसके अलावा बागवानी फसलें नकदी फसलें होती है। जो प्रतिदिन आसानी से बिक जातीं है और इनकी वजह से किसानों के पास पैसे का फ्लो बना रहता है। 

बागवानी फसलों की मदद से किसानों को रोज आमदनी होती है। बागवानी फसलों के फायदों को देखते हुए कई पढ़े लिखे युवा भी अब इस ओर आकर्षित हो रहे हैं।

कैसे करें सूरजमुखी की खेती? जानें सबसे आसान तरीका

कैसे करें सूरजमुखी की खेती? जानें सबसे आसान तरीका

रबी का सीजन शुरू हो चुका है, सीजन के शुरू होने के साथ ही रबी की फसलों की बुवाई भी बड़ी मात्रा में शुरू हो चुकी है। इसलिए आज हम आपके लिए लेकर आए हैं सूरजमुखी या सूर्यमुखी (Sunflower) की खेती की सम्पूर्ण जानकारी ताकि किसान भाई इस बार रबी के सीजन में सूरजमुखी की खेती करके ज्यादा से ज्यादा लाभ कमा सकें। अभी भारत में मांग के हिसाब से सूरजमुखी का उत्पादन नहीं होता है, इसलिए भारत सरकार को घरेलू आपूर्ति के लिए विदेशों से सूरजमुखी आयत करना पड़ता है, ताकि घरेलू मांग को पूरा किया जा सके। भारत में इसकी खेती सबसे पहले साल साल 1969 में उत्तराखंड के पंतनगर में की गई थी, जिसके बाद अच्छे परिणाम प्राप्त होने पर देश भर में इसकी खेती की जाने लगी। फिलहाल महाराष्ट्र, कर्नाटक, उत्तरप्रदेश, आंधप्रदेश, तमिलनाडु, हरियाणा और पंजाब के किसान सूरजमुखी की खेती बड़े पैमाने पर करते हैं। अगर आंकड़ों पर गौर करें तो भारत में हर साल लगभग 15 लाख हेक्टेयर पर सूरजमुखी की खेती की जाती है, साथ ही देश के किसान इसकी खेती से 90 लाख टन की पैदावार लेते हैं। अगर सूरजमुखी की खेती में औसत पैदावार की बात करें तो 1 हेक्टेयर में 7 क्विंटल सूरजमुखी के बीजों का उत्पादन होता है। सूरजमुखी एक तिलहनी फसल है, विशेषज्ञों का मानना है कि अगर इसकी खेती सर्दी के सीजन में की जाए तो अच्छी पैदावार निकाली जा सकती है।


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सूरजमुखी की खेती के लिए खेत की तैयारी कैसे करें

खेत तैयार करने से पहले मिट्टी की जांच अवश्य करवा लें, यदि खेत की मिट्टी ज्यादा अम्लीय या ज्यादा क्षारीय है तो उस जमीन में सूरजमुखी की खेती करना थोड़ा मुश्किल हो सकता है। इसके साथ ही विशेषज्ञों से उर्वरक के इस्तेमाल की सलाह जरूर लें ताकि जरुरत के हिसाब से खेत की मिट्टी में पर्याप्त उर्वरक इस्तेमाल किये जा सकें। खेत तैयार करते समय ध्यान रखें कि खेत से पानी की निकासी का सम्पूर्ण प्रबंध होना चाहिए। इसके बाद गहरी जुताई करें और खेत को समतल करके बुवाई के लिए तैयार कर लें।

सूरजमुखी की खेती के लिए बाजार में उपलब्ध उन्नत किस्में

ऐसे तो बाजार में सूरजमुखी के बीजों की कई किस्में उपलब्ध हैं, लेकिन अधिक और अच्छी क्वालिटी की पैदावार के लिये किसान कंपोजिट और हाइब्रिड किस्मों का इस्तेमाल करते हैं। इस प्रकार की उन्नत किस्मों का इस्तेमाल करने पर सूरजमुखी की खेती 90 से 100 दिनों के भीतर तैयार हो जाती है, और उसके बीजों में तेल का प्रतिशत भी 40 से 50 फीसदी के बीच होता है। अगर बेस्ट किस्मों की बात करें तो किसान भाई सूरजमुखी की बीएसएस-1, केबीएसएस-1, ज्वालामुखी, एमएसएफएच-19 और सूर्या किस्मों का चयन कर सकते हैं।


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सूरजमुखी की बुवाई कैसे करें

सूरजमुखी की बुवाई रबी सीजन की शुरुआत में की जाती है। अगर माह की बात करें तो अक्टूबर का तीसरा और चौथा सप्ताह इसके लिए बेहतर माना गया है। इसकी बुवाई से पहले बीजों का उपचार कर लें ताकि बुवाई के समय किसानों के पास बेस्ट किस्म के बीज उपलब्ध हों। सूरजमुखी के बीजों की बुवाई छिड़काव और कतार विधि दोनों से की जा सकती है। लेकिन भारत में कतार विधि, छिड़काव विधि की अपेक्षा बेहतर मानी गई है। कतार विधि का प्रयोग करने से खेती के प्रबंधन में आसानी रहती है। इसके लिए विशेषज्ञ सलाह देते हैं कि लाइनों के बीच 4-5 सेमी और बीजों के बीच 25-30 सेमी का फासला रखना चाहिए।

सूरजमुखी की खेती में खाद एवं उर्वरक का इस्तेमाल कैसे करें

जैविक खाद एवं उर्वरक किसी भी खेती के उत्पादन को बढ़ाने के लिए बेहद जरूरी होते हैं। इसलिए सूरजमुखी की खेती में भी इन चीजों का उपयोग आवश्यकतानुसार किया जाता है। सूरजमुखी के बीजों का क्वालिटी प्रोडक्शन प्राप्त करने के लिए 6 से 8 टन सड़ी हुई गोबर की खाद और वर्मी कंपोस्ट प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें। इसके साथ विशेषज्ञ 130 से 160 किग्रा यूरिया, 375 किग्रा एसएसपी और 66 किग्रा पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करने की सलाह देते हैं।


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सूरजमुखी की खेती में सिंचाई किस प्रकार से करें

सुरजमुखी की खेती में सामान्य सिंचाई की दरकार होती है। इसकी खेती में 3 से 4 सिंचाईयां पर्याप्त होती हैं। इस खेती में यह सुनिश्चित करना बेहद अनिवार्य है कि खेत में नमी बनी रहे, ताकि पौधे बेहचर ढंग से पनप पाएं। सूरजमुखी की फसल में पहली सिंचाई 30-35 दिन के अंतराल में करनी होती है। इसके बाद हर तीसरे सप्ताह इस फसल में पानी देते रहें। इस फसल में फूल आने के बाद भी हल्की सिंचाई की दरकार होती है। यह एक फूल वाली खेती है इसलिए इसमें कीटों का हमला होना सामान्य बात है। इस फसल में एफिड्स, जैसिड्स, हरी सुंडी व हेड बोरर जैसे कीट तुरंत हमला बोलते हैं। जिससे सूरजमुखी के पौधों को रतुआ, डाउनी मिल्ड्यू, हेड राट, राइजोपस हेड राट जैसे रोग घेर लेते हैं। इसके अलावा इस खेती में पक्षियों का हमला भी आम बात है। फूलों में बीज आने के बाद पक्षी भी बीज चुन लेते हैं, ऐसे में किसानों को विशेषज्ञों से सलाह लेनी चाहिए ताकि वो इन परेशानियों से निपट पाएं। बुवाई के लगभग 100 दिनों बाद सूरजमुखी की खेती पूरी तरह से तैयार हो जाती है। इसके फूल बड़े होकर पूरी तरह से पीले हो जाते है। फूलों की पंखुड़ियां झड़ने के बाद किसान इस खेती की कटाई कर सकते हैं। कटाई करने के बाद इन फूलों को 4 से 5 दिन तक तेज धूप में सुखाया जाता है। इसके बाद मशीन की सहायता से या पीट-पीटकर फूलों के बीजों को अलग कर लिया जाता हैं। अगर पैदावार की बात करें तो अच्छी परिस्थियों में किसान भाई उन्नत किस्मों और आधुनिक खेती के साथ एक हेक्टेयर में 18 क्विंटल तक सूरजमुखी के बीजों की पैदावार ले सकते हैं। सामान्य परिस्थियों में यह पैदावार 7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।


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हाल ही में भारत सरकार ने सूरजमुखी के न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोत्तरी कर दी है। इस लिहाज से अब सूरजमुखी की खेती करके किसान भाई पहले की अपेक्षा ज्यादा कमाई कर सकते हैं। सरकार ने रबी सीजन के लिए सूरजमुखी के न्यूनतम समर्थन मूल्य में 209 रूपये प्रति क्विंटल की बढ़ोत्तरी की है। इस हिसाब से अब किसान भाइयों के लिए सूरजमुखी के बीजों का न्यूनतम समर्थन मूल्य 5,650 रुपये प्रति क्विंटल हो गया है।
कृषि में लागत कम करें, मुनाफा खुद बढ़ेगा

कृषि में लागत कम करें, मुनाफा खुद बढ़ेगा

यूपी के किसान इन दिनों एक नए तरीका से काम कर रहे हैं। यह तरीका है नवीनतम तकनीकी का प्रयोग और प्राकृतिक खेती की तरफ झुकाव। अब जीरो बजट की खेती के तौर पर सरकार किसानों को हर संभव मदद कर रही है। किसानों को यह बात समझ में आ गई है, कि जब तक लागत कम नहीं होगा, उनका मुनाफा बढ़ने से रहा। उत्तर प्रदेश लगातार नए प्रयोग कर रहा है, यह प्रयोग खेती के क्षेत्र में भी दिख रहा है। यह किसानों के लिए लाभ का सौदा बनता जा रहा है। परंपरागत किसानी को कई किसानों ने बहुत पीछे छोड़ दिया है। अब वे खेती के नए प्रयोगों से गुजर रहे हैं, वे जीरो बजट खेती की तरफ तेजी से बढ़ रहे हैं। इसमें यूपी की योगी सरकार उनकी मदद कर रही है। इन मामलों को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ खुद ही देख रहे हैं।


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मक्का, गेहूं, धान से फूल-सब्जी तक

एक दौर था, जब यूपी का किसान मक्का, गेहूं, धान की खेती पर ही पूरी तरह निर्भर था। अचरज की बात है, कि अब इन किसानों ने इन फसलों के साथ ही सब्जियों की भी खेती शुरू कर दी है। आचार्य देवव्रत के जीरो बजट खेती का फार्मूला इन किसानों को अब समझ में आ गया है। यही कारण है, कि अब किसान अपने घर के आगे-पीछे भी फूल-फल की खेती करने से हिचक नहीं रहे हैं।

जोर प्राकृतिक खेती पर

बीते दिनों यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा कि खेती में अत्याधुनिक तकनीकी का प्रयोग व प्राकृतिक खेती आज की जरूरत है। पुराने ढर्रे पर काम करने से कुछ खास हासिल होने वाला नहीं। अगर कुछ बढ़िया करना है, तो नई तकनीकी को आजमाना पड़ेगा, पूरी दुनिया में खेती के क्षेत्र में नए प्रयोग हो रहे हैं। अगर यूपी इनमें पिछड़ा तो पिछड़ता ही चला जाएगा।

गो आधारित खेती

योगी ने सुझाव दिया कि क्यों न गौ आधारित प्राकृतिक खेती को बढ़ावा दिया जाए यह जीरो बजट खेती है। इसके अच्छे परिणाम भी सामने आ रहे हैं। उनका मानना था, कि प्राकृतिक खेती में तकनीकी से उत्पादकता बढ़ाने में मदद मिलेगी। हां, इसके लिए थोड़ी जागरूकता व सावधानी बरतने की जरूरत है। अगर हम ऐसा कर लेते हैं, तो प्राकृतिक खेती के जरिये कम लागत में अधिक उत्पादकता प्राप्त कर किसान भाई अपनी आमदनी अच्छी-खासी बढ़ा सकते हैं। परंपरागत खेती को परंपरागत तरीके से करने में कोई लाभ नहीं है, अगर परंपरागत खेती को नई तकनीकी के इस्तेमाल के साथ किया जाए तो नतीजे शानदार आएंगे। योगी का कहना था, कि आधुनिक तरीके से खेती करने के साथ किसानों को बाजार की मांग और कृषि जलवायु क्षेत्र की अनुकूलता के आधार पर बागवानी, सब्जी व सह फसली खेती की ओर भी अग्रसर होना होगा। इससे उनकी अधिक से अधिक आमदनी हो सकेगी।

खेती कमाई का बड़ा साधन

आपको बता दें कि यूपी, आबादी के लिहाज से देश का सबसे बड़ा राज्य तो है ही, खेती-किसानी ही यहां की अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा जरिया भी है। यह बात भी महत्वपूर्ण है कि देश की सबसे अच्छी उर्वर भूमि और सबसे अच्छा जल संसाधन उत्तर प्रदेश में ही है। यहां की भूमि की उर्वरकता व जल संसाधन की ही देन है, कि देश की कुल कृषि योग्य भूमि का 12 प्रतिशत हिस्सा होने के बावजूद देश के खाद्यान्न उत्पादन में अकेले उत्तर प्रदेश का योगदान 20 प्रतिशत का है।


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तीन गुना तक बढ़ सकता है प्रदेश का कृषि उत्पादन

यूपी के मुख्यमंत्री मानते हैं, कि प्रदेश का कृषि उत्पादन अभी और तीन गुणा बढ़ सकता है। इसके लिए हमें बेहतर किस्म के बीज की जरूरत तो पड़ेगी ही इसके साथ ही आधुनिक कृषि उपकरणों की भी जरूरत पड़ेगी। हमारी कोशिश यह होनी चाहिए कि खेती की लागत कम हो और मुनाफा बढ़े। यूपी सरकार इसके लिए व्यापक अभियान चला भी रही है।
बिना लागात लगाये जड़ी बूटियों से किसान कमा रहा है लाखों का मुनाफा

बिना लागात लगाये जड़ी बूटियों से किसान कमा रहा है लाखों का मुनाफा

खेती में नवीन तकनीकों को प्रयोग में लाने के अतिरिक्त किशोर राजपूत ने देसी धान की 200 किस्मों को विलुप्त होने से बचाव किया है, जिनको देखने आज भारत के विभिन्न क्षेत्रों से किसान व कृषि विशेषज्ञों का आना जाना लगा रहता है। भारत में सुगमता से प्राकृतिक खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है। खेती में होने वाले व्यय को कम करके बेहतर उत्पादन प्राप्त करने हेतु आज अधिकाँश किसानों द्वारा ये तरीका आजमा रहे हैं। लेकिन छत्तीसगढ़ के एक युवा किसान के माध्यम से वर्षों पूर्व ही प्राकृतिक खेती आरंभ कर दी थी। साथ ही, गौ आधारित खेती करके जड़ी-बूटियां व औषधीय फसलों की खेती की भी शुरूआत की थी। किशोर राजपूत नामक इस युवा किसान की पूरे भारतवर्ष में सराहनीय चर्चा हो रही है। शून्य बजट वाली इस खेती का ये नुस्खा इतना प्रशिद्ध हो चूका है, कि इसकी जानकारी लेने के लिए दूरस्थित किसानों का भी छत्तीसगढ़ राज्य के बेमेतरा जनपद की नगर पंचायत नवागढ़ में ताँता लगा हुआ है। अब बात करते हैं कम लागत में अच्छा उत्पादन देने वाली फसलों के नुस्खे का पता करने वाले युवा किसान किशोर राजपूत के बारे में।


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किशोर राजपूत को खेती किसानी करना कैसे आया

आमतौर पर अधिकाँश किसान पुत्र अपने पिता से ही खेती-किसानी के गुड़ सीखते हैं। यही बात किशोर राजपूत ने कही है, किशोर पिता को खेतों में अथक परिश्रम करते देखता था, जो उसके लिए एक प्रेरणा का स्त्रोत साबित हुआ। युवा का विद्यालय जाते समय रास्ते में पेड़-पौधों, पशु-पक्षी, हरियाली बहुत आकर्षित करती थी। किशोर ने कम आयु से ही खेतों की पगडंडियों पर मौजूद जड़ी-बूटियों के बारे में रुचि लेना और जानना शुरू कर दिया। बढ़ती आयु के दौरान किशोर किसी कारण से 12वीं की पढ़ाई छोड़ पगडंडियों की औषधियों के आधार पर वर्ष २००६ से २०१७ एक आयुर्वेदित दवा खाना चलाया। आज किशोर राजपूत ने औषधीय फसलों की खेती कर भारत के साथ साथ विदेशों में भी परचम लहराया है, इतना ही नहीं किशोर समाज कल्याण हेतु लोगों को मुफ्त में औषधीय पौधे भी देते हैं।

किशोर ने कितने रूपये की लागत से खेती शुरू की

वर्ष २०११ में स्वयं आधार एकड़ भूमि पर किशोर नामक किसान ने प्राकृतिक विधि के जरिये औषधीय खेती आरंभ की। इस समय किशोर राजपूत ने अपने खेत की मेड़ों पर कौच बीज, सर्पगंधा व सतावर को रोपा, जिसकी वजह से रिक्त पड़े स्थानों से भी थोड़ा बहुत धन अर्जित हो सके। उसके उपरांत बरसाती दिनों में स्वतः ही उत्पादित होने वाली वनस्पतियों को भी प्राप्त किया, साथ ही, सरपुंख, नागर, मोथा, आंवला एवं भृंगराज की ओर भी रुख बढ़ाया। देखते ही देखते ये औषधीय खेती भी अंतरवर्तीय खेती में तब्दील हो गई व खस, चिया, किनोवा, गेहूं, मेंथा, अश्वगंधा के साथ सरसों, धान में बच व ब्राह्मी, गन्ने के साथ मंडूकपर्णी, तुलसी, लेमनग्रास, मोरिंगा, चना इत्यादि की खेती करने लगे। प्रारंभिक समय में खेती के लिए काफी चुनौतियों का सामना करना पड़ा, आरंभ में बेहतर उत्पादन न हो पाना, लेकिन समय के साथ उत्पादन में काफी वृद्धि हुई है।
जानिए खेती किसानी से कैसे कमा रहा है यह किसान लाखों में मुनाफा

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हरियाणा राज्य के जनपद करनाल में टखाना निवासी महिपाल जो कि कृषि को ही अपना सब कुछ मानते हैं। प्रत्येक सीजन में तकरीबन ३ लाख रुपए की आय अर्जित कर लेते हैं। नीलोखेड़ी एफपीओ(Nilokheri FPO) के साथ संबंध बनाने के उपरांत उनके लिए कृषि पथ बेहद सुगम हो गया है। भारत में खेती - किसानी प्राचीन काल से ही होती आ रही है। कृषकों के लिए कृषि उनकी आमंदनी का प्रमुख जरिया होने के साथ जीवनचर्या का भी अभिन्न हिस्सा है।


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खेती-किसानी को प्रोत्साहित करने हेतु सरकार द्वारा भी अच्छी पहल की जा रही है जिसकी वजह से किसान भी अब एकजुट होकर के कृषि क्षेत्र की तरफ रुख कर रहे हैं। इसमें फार्मर्स प्रोड्यूसर ऑर्गेनाइजेशन (FPO), किसानों को जुड़ने का अवसर देकर उनकी समस्याओं का निराकरण करने में अहम भूमिका अदा कर रहे हैं। इसी क्रम में हम इस लेख के जरिये से एक सफल किसान महिपाल की कहानी को बताने वाले हैं। उन्होंने नीलोखेड़ी फार्मर्स प्रोड्यूसर कंपनी लिमिटेड (Nilokheri Farmers Producer Company Limited) से जुड़कर कृषि में सफलता हासिल की है।


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करनाल के टखाना निवासी महिपाल खेती करते हैं, उनका बचपन से ही कृषि जगत की ओर रुख और दिलचस्पी रही है। इसकी मुख्य वजह पीढ़ियों से उनके परिवारीजन खेती करते आ रहे हैं। महिपाल ने कहा है, कि वह बचपन से ही अपने परिवारीजनों को खेती किसानी करते देखते आये हैं, जिसमें वह अपने परिवार की मदद भी करते थे। वह स्वयं की १० एकड़ भूमि में लौकी, गोभी, धान, गेहूं, सरसों, भिंडी, टमाटर,करेला इत्यादि फसलों का उत्पादन करते हैं। महिपाल खाद के तौर पर जैविक खाद का प्रयोग करते हैं, हालांकि वह पूरी तरह से जैविक कृषि तो नहीं अपना रहे हैं, परंतु आवश्यकता होने पर काफी कम मात्रा में रासायनिक उर्वरकों का उपयोग करते हैं।

सर्वप्रथम कौन-सी फसल से महिपाल ने कमाया ३ गुना फायदा

महिपाल मल्चिंग एवं द्रप्स सिंचाई व टपक सिंचाई विधि की मदद से प्याज का उत्पादन कर रहे हैं, जिससे वह अच्छा खासा मुनाफा भी कमा रहे हैं। उनके मुताबिक टपक विधि से फसल उत्पादन करने से ३ गुना अधिक आय अर्जित होती है।

क्या सहायता कर रही है नीलोखेड़ी फार्मर्स प्रोड्यूसर कंपनी लिमिटेड

महिपाल के अनुसार नीलोखेड़ी फार्मर्स प्रोड्यूसर कंपनी लिमिटेड (FPO) के जरिये उनको काफी सहयोग मिला है। साथ ही वह सरकार के माध्यम से जारी की गयी अनुदान राशि को भी सुगमता से प्राप्त कर लेते हैं। इसके अतिरिक्त किसान महिपाल को एफपीओ से हर साल १००० रुपए की जैविक खाद, दवाएं व बीज मिल जाते हैं। ट्रैक्टर, सुपर सीडर, कंबाइन हार्वेस्टर मशीन इत्यादि काफी कम मूल्य पर कृषिकार्य हेतु प्राप्त हो जाती है। नीलोखेड़ी एफपीओ के सहयोग से एक्सपोजर शिविर के जरिये विभिन्न विश्वविद्यालय, कृषि महाविद्यालय एवं खेती-किसानी से जुड़े संस्थानों में प्रशिक्षण देने हेतु कृषकों को बुलाया जाता है। जिसका मुख्य उद्देश्य आधुनिक तकनीक और फसलों से संबंधित सूचना प्रदान करना है। महिपाल ने बताया कि आने वाले समय में कृषि हेतु वह सौर ऊर्जा प्लांट स्थापित करने की तैयारी कर रहे हैं। ताकि उनको कृषि कार्यों में सुगमता हो साथ ही उनका यह भी कहना है, कि वह एफपीओ के साथ जुड़ने से पूर्व उनको एक सीजन में लगभग ४० से लेकर ५० हजार रुपए की आय होती थी। हालाँकि अब वह एक सीजन में करीब २ से ३ लाख रुपए की आमंदनी प्राप्त कर लेते हैं।
इस औषधीय पौधे की खेती करने के लिए सरकार देती है 75 फीसदी सब्सिडी, योजना का लाभ उठाकर किसान बनें मालामाल

इस औषधीय पौधे की खेती करने के लिए सरकार देती है 75 फीसदी सब्सिडी, योजना का लाभ उठाकर किसान बनें मालामाल

देश के साथ दुनिया में इन दिनों औषधीय पौधों की खेती की लगातार मांग बढ़ती जा रही है। इनकी मांग में कोरोना के बाद से और ज्यादा उछाल देखने को मिला है क्योंकि लोग अब इन पौधों की मदद से अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता को बनाए रखना चाहते हैं। 

जिसको देखेते हुए केंद्र सरकार ने इस साल 75 हजार हेक्टेयर में औषधीय पौधों की खेती करने का लक्ष्य रखा है। सरकारी अधिकारियों ने अपनी रिपोर्ट के हवाले से बताया है कि पिछले ढ़ाई साल में औषधीय पौधों की मांग में बहुत तेजी से वृद्धि हुई है जिसके कारण केंद्र सरकार अब औषधीय पौधों की खेती पर फोकस कर रही है। 

किसानों को औषधीय पौधों की खेती की तरफ लाया जाए, इसके लिए सरकार अब सब्सिडी भी प्रदान कर रही है। राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में औषधीय पौधों की खेती पर राज्य सरकारें भी अलग से सब्सिडी प्रदान कर रही हैं।

75 फीसदी सब्सिडी देती है केंद्र सरकार

सरकार ने देश में औषधीय पौधों की खेती को बढ़ावा देने के लिए एक योजना चलाई है, जिसे 'राष्ट्रीय आयुष मिशन' का नाम दिया गया है। 

इस योजना के अंतर्गत सरकार  औषधीय पौधों और जड़ी बूटियों के उत्पादन को बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित कर रही है। इस मिशन के अंतर्गत सरकार 140 जड़ी-बूटियों और हर्बल प्लांट्स की खेती के लिए अलग-अलग सब्सिडी प्रदान कर रही है।

यदि कोई किसान इसकी खेती करना चाहता है और सब्सिडी के लिए आवेदन करता है तो उसे 30 फीसदी से लेकर 75 फीसदी तक की सब्सिडी प्रदान की जाएगी। 

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अगर किसान भाई किसी औषधीय पौधे की खोज रहे हैं तो वह करी पत्ता की खेती कर सकते हैं। करी पत्ता का इस्तेमाल हर घर में मसालों के रूप में किया जाता है। 

इसके साथ ही इसका इस्तेमाल जड़ी-बूटी के तौर पर किया जाता है, साथ ही इससे कई प्रकार की दवाइयां भी बनाई जाती हैं। जैसे वजन घटाने की दवाई, पेट की बीमारी की दवाई और एंफेक्शन की दवाई करी पत्ता से तैयार की जाती है।

इस प्रकार की जलवायु में करें करी पत्ता की खेती

करी पत्ता की खेती के लिए उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय जलवायु सबसे बेहतर मानी जाती है। इसकी खेती ऐसी जगह पर करनी चाहिए जहां सीधे तौर पर धूप आती हो। इसकी खेती छायादार जगह पर नहीं करना चाहिए।

करी पत्ता की खेती के लिए इस तरह से करें भूमि तैयार

करी पत्ता की खेती के लिए PH मान 6 से 7 के बीच वाली मिट्टी उपयुक्त होती है। इस खेती में किसान को खेत से उचित जल निकासी की व्यवस्था कर लेनी चाहिए। इसके साथ ही चिकनी काली मिती वाले खेत में इन पौधों की खेती नहीं करना चाहिए। 

सबसे पहले खेत की गहरी जुताई करना चाहिए, इसके बाद पाटा चलाकर खेत को समतल कर दें। इसके बाद हर चार मीटर की दूरी पर पंक्ति में गड्ढे तैयार करें। गड्ढे तैयार करने के बाद बुवाई से 15 दिन पहले गड्ढों में जैविक खाद या गोबर की सड़ी खाद भर दें। 

इसके बाद गड्ढों में सिंचाई कर दें। भूमि बुवाई के लिए तैयार है। करी पत्ता के पौधों की रोपाई वैसे तो सर्दियों को छोड़कर किसी भी मौसम में की जा सकती है। लेकिन मार्च के महीने में इनकी रोपाई करना सर्वोत्तम माना गया है। 

करी पत्ता की बुवाई बीज के साथ-साथ कलम से भी की जा सकती है। अगर किसान बीजों से बुवाई करने का चयन करते हैं तो उन्हें एक एकड़ में बुवाई करने के लिए करी पत्ता के 70 किलो बीजों की जरूरत पड़ेगी। 

यह बीज खेत में किए गए गड्ढों में बोए जाते हैं। इन बीजों को गड्ढों में 4 सेंटीमीटर की गहराई में लगाने के बाद हल्की सिंचाई की जाती है। इसके साथ ही जैविक खाद का भी प्रयोग किया जाता है।