Ad

kharif

अरबी की खेती की सम्पूर्ण जानकारी

अरबी की खेती की सम्पूर्ण जानकारी

अरबी गर्मी की फसल है, इसका उत्पादन गर्मी और वर्षा ऋतू में किया जाता है। अरबी की तासीर ठंडी रहती है। इसे अलग अलग नामों से जाना जाता है जैसे अरुई , घुइया , कच्चु और घुय्या आदि है।

यह फसल बहुत ही प्राचीन काल से उगाई जा रही है। अरबी का वानस्पातिक नाम कोलोकेसिया एस्कुलेंटा है। अरबी प्रसिद्ध और सबसे परिचित वनस्पति है, इसे हर कोई जानता है। सब्जी के अलावा इसका उपयोग औषिधीय में भी किया जाता है।  

अरबी का पौधा सदाबहार साथ ही शाकाहारी भी है। अरबी का पौधा 3 -4 लम्बा होता है , इसकी पत्तियां भी चौड़ी होती है। अरबी सब्जी का पौधा है, जिसकी जड़ें और पत्तियां दोनों ही खाने योग्य रहती है। 

इसके पत्ते हल्के हरे रंग के होते है, उनका आकर दिल के भाँती दिखाई पड़ता है। 

अरबी की खेती के लिए उपयुक्त मिट्टी

अरबी की खेती के लिए जैविक तत्वों से भरपूर मिट्टी की  जरुरत रहती है। इसीलिए इसके लिए रेतीली और दोमट मिट्टी को बेहतर माना जाता है। 

ये भी पढ़ें: अरबी की बुवाई का मौसम : फरवरी-मार्च और जून-जुलाई, सम्पूर्ण जानकारी

इसकी खेती के लिए भूमि का पी एच मान 5 -7 के बीच में होना चाहिए। साथ ही इसकी उपज के लिए बेहतर जल निकासी  वाली भूमि की आवश्यकता पड़ती है। 

अरबी की उन्नत किस्में 

अरबी की कुछ उन्नत किस्में इस प्रकार है, जो किसानों को मुनाफा दिला सकती है। सफ़ेद गौरिया, पंचमुखी, सहस्रमुखी, सी -9, श्री पल्लवी, श्री किरन, श्री रश्मी आदि प्रमुख किस्में है, जिनका उत्पादन कर किसान लाभ उठा सकता है। 

अरबी -1 यह किस्म छत्तीसगढ़ के किसानों के लिए अनुमोदित की गयी है, इसके अलावा नरेंद्र - 1 भी अरबी की अच्छी किस्म है। 

अरबी की खेती का सही समय 

किसान साल भर में अरबी की फसल से दो बार मुनाफा कमा सकते है। यानी साल में दो बार अरबी की फसल उगाई जा सकती है एक तो रबी सीजन में और दूसरी खरीफ के सीजन में। 

रबी के सीजन में अरबी की फसल को अक्टूबर माह में बोया जाता है और यह फसल अप्रैल से मई माह के बीच में पककर तैयार हो जाती है। 

यही खरीफ के सीजन में अरबी की फसल को जुलाई माह में बोया जाता है, जो दिसंबर और जनवरी माह में तैयार हो जाती है। 

उपयुक्त वातावरण और तापमान 

जैसा की आपको बताया गया अरबी गर्मी की फसल है। अरबी की फसल को सर्दी और गर्मी दोनों में उगाया जा सकता है। लेकिन अरबी की फसल के पैदावार के लिए गर्मी और बारिश के मौसम को बेहतर माना जाता है। 

इन्ही मौसम में अरबी की फसल अच्छे से विकास करती है। लेकिन गर्मी में पड़ने वाला अधिक तापमान भी फसल को नष्ट कर सकता है साथ ही सर्दियों के मौसम में पड़ने वाला पाला भी अरबी की फसल के विकास को रोक सकता है। 

अरबी की खेती के लिए कैसे करें खेत को तैयार ?

अरबी की खेती के लिए अच्छे जलनिकास वाली और दोमट मिट्टी की आवश्यकता रहती है। खेत में जुताई करने के 15 -20 दिन पहले खेत में 200 -250 क्विंटल खाद को डाल दे।

ये भी पढ़ें: खरीफ सीजन क्या होता है, इसकी प्रमुख फसलें कौन-कौन सी होती हैं

उसके बाद खेत में 3 -4 बार जुताई करें , ताकि खाद अच्छे से खेत में मिल जाए। अरबी की बुवाई का काम किसानों द्वारा दो तरीको से किया जाता है।  पहला मेढ़ बनाकर और दूसरा क्वारियाँ बनाकर। 

खेत को तैयार करने के बाद किसानों द्वारा खेत में 45 से.मी की दूरी पर मेढ़ बना दी जाती है।  वही क्यारियों में बुवाई करने के लिए पहले खेत को पाटा लगाकर समतल बनाया जाता है। 

उसके बाद 0.5 से.मी की गहरायी पर इसके कंद की बुवाई कर दी जाती है। 

बीज की मात्रा 

अरबी की बुवाई कंद से की जाती है , इसीलिए प्रति हेक्टेयर में कंद की 8 -9 किलोग्राम मात्रा की जरुरत पड़ती है। अरबी की बुवाई से पहले कंद को पहले मैंकोजेब 75 % डब्ल्यू पी 1 ग्राम को पानी में मिलाकर 10 मिनट तक रख कर बीज उपचार करना चाहिए। 

बुवाई के वक्त क्यारियों के बीच की दूरी 45 से.मी और पौधो की दूरी 30 से.मी और कंद की बुवाई 0.5 से.मी की गहराई में की जाती है।  

अरबी की खेती के लिए उपयुक्त खाद एवं उर्वरक 

अरबी की खेती करते वक्त ज्यादातर किसान गोबर खाद का प्रयोग करते है ,जो की फसल की उत्पादकता के लिए बेहद फायदेमंद रहता है।  लेकिन किसानों द्वारा अरबी की फसल के विकास लिए उर्वरको का उपयोग किया जाता है। 

किसान रासायनिक उर्वरक फॉस्फोरस 50 किलोग्राम , नत्रजन 90 -100 किलोग्राम और पोटाश 100 किलोग्राम का उपयोग करें, इसकी आधी मात्रा को खेत की बुवाई करते वक्त और आधी मात्रा को बुवाई के एक माह बाद डाले। 

ये भी पढ़ें: कृषि वैज्ञानिकों की जायद सब्जियों की बुवाई को लेकर सलाह

ऐसा करने से फसल में वृद्धि होगी और उत्पादन भी ज्यादा होगा। 

अरबी की फसल में सिंचाई 

अरबी की फसल यदि गर्मी के मौसम बोई गयी है ,तो उसे ज्यादा पानी आवश्यकता पड़ेगी। गर्मी के मौसम में अरबी की फसल को लगातार 7 -8  दिन लगातार पानी देनी की जरुरत रहती है। 

यदि यही अरबी की फसल बारिश के मौसम में की गयी है ,तो उसे कम पानी की जरुरत पड़ती है। अधिक सिंचाई करने पर फसल के खराब होने की भी संभावनाएं रहती है। 

सर्दियों के मौसम में भी अरबी को कम पानी की जरुरत पड़ती है। इसकी हल्की  सिंचाई  15 -20 के अंतराल पर की जाती है।  

अरबी की फसल की खुदाई 

अरबी की फसल की खुदाई उसकी किस्मों के अनुसार होती है , वैसे अरबी की फसल लगभग 130 -140  दिन में पककर तैयार हो जाती है। जब अरबी की फसल अच्छे से पक जाए उसकी तभी खुदाई करनी चाहिए।

अरबी की बहुत सी किस्में है जो अच्छी उपज होने पर प्रति हेक्टेयर में 150 -180 क्विंटल की पैदावार देती है।  बाजार में अरबी की कीमत अच्छी खासी रहती है। 

अरबी की खेती कर किसान प्रति एकड़ में 1.5 से 2 लाख रुपए की कमाई कर सकता है। 

अरबी की खेती कर किसान अच्छा मुनाफा कमा सकती है।  साथ ही कीट और रोगों से दूर रखने के लिए किसान रासायनिक उर्वरको का भी उपयोग कर सकते है।

साथ ही फसल में खरपतवार जैसी समस्याओ को भी नियंत्रित करने के लिए समय समय पर गुड़ाई और नराई का भी काम करना चाहिए। 

इससे फसल अच्छी और ज्यादा होती है, ज्यादा उत्पादन के लिए किसान फसल चक्र को भी अपना सकता है। 

कपास की उन्नत किस्मों के बारे में जानें

कपास की उन्नत किस्मों के बारे में जानें

कपास की खेती भारत में बड़े पैमाने पर की जाती है। कपास को नकदी फसल के रूप में भी जाना जाता है। कपास की खेती ज्यादातर बारिश और खरीफ के मौसम में की जाती है। 

कपास की खेती के लिए काली मिट्टी को उपयुक्त माना जाता है। इस फसल का काफी अच्छा प्रभाव हमारे देश की अर्थव्यवस्था पर भी पड़ता है, क्योंकि यह एक नकदी फसल है। कपास की कुछ उन्नत किस्में भी हैं ,जिनका उत्पादन कर किसान मुनाफा कमा सकता है। 

 1 सुपरकॉट BG II 115 क़िस्म

यह क़िस्म प्रभात सीड की बेस्ट वैरायटी में से एक है। इस किस्म की बुवाई सिंचित और असिंचित दोनों क्षेत्रों में की जा सकती है। 

यह किस्म कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, तेलंगना और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में ज्यादातर की जाती है। इस किस्म के पौधे ज्यादातर लम्बे और फैले हुए होते है। 

इस बीज की बुवाई कर किसान एक एकड़ जमीन में 20 -25 क्विंटल की पैदावार प्राप्त कर सकता है। यह फसल 160 -170 दिन में पककर तैयार हो जाती है। 

ये भी पढ़ें: नांदेड स्थित कपास अनुसंधान केंद्र ने विकसित की कपास की तीन नवीन किस्में

2 Indo US 936, Indo US 955   

कपास की यह वैरायटी इंडो अमेरिकन की वेरायटीज में टॉप पर आती है। कपास की इस किस्म की खेती गुजरात और मध्य प्रदेश में की जाती है। इसकी खेती के लिए बहुत ही हल्की मिट्टी वाली भूमि की आवश्यकता रहती है। 

इस किस्म में कपास के बोल का वजन 7 -10 ग्राम होता है। कपास की इस किस्म में 45 -48 दिन फूल आना शुरू हो जाते है। यह किस्म लगभग 155 -165 दिन में पककर तैयार हो जाती है। 

इस किस्म में आने वाले फूल का रंग क्रीमी होता है। Indo US 936, Indo US 955 की उत्पादन क्षमता प्रति एकड़ 15 -20 क्विंटल है। 

3 Ajeet 177BG II 

यह किस्म सिंचित और असिंचित दोनों क्षेत्रों में उगाई जा सकती है। इस किस्म में कपास के पौधे की लम्बाई 145 से 160 सेंटीमीटर होती है। कपास की इस किस्म में बनने वाली बोल का वजन 6 -10 ग्राम होता है। 

Ajeet 177BG II में अच्छे किस्म के रेशें होते हैं। कपास की इस किस्म में पत्ती मोड़क कीड़े लगने की भी बहुत कम संभावनाएं होती हैं। 

यह फसल 145 -160 दिन के अंदर पककर तैयार हो जाती है। प्रति एकड़ में इसकी उत्पादन क्षमता 22 -25 क्विंटल होती है।     

4 Mahyco Bahubali MRC 7361 

इस किस्म का ज्यादातर उत्पादन राजस्थान, महाराष्ट्रा, कर्नाटक, तेलंगना, आंध्रप्रदेश और तमिलनाडु में होता है। यह मध्यम काल अवधि में पकने वाली फसल है। 

कपास की इस किस्म का वजन भी काफी अच्छा रहता है। प्रति एकड़ में इस फसल की पैदावार 20 -25 क्विंटल के आस पास हो जाती है। 

ये भी पढ़ें: कपास की खेती किसान भाइयों को मोटा मुनाफा दिला सकती है

5 रासी नियो 

कपास की यह किस्म हरियाणा, पंजाब, महाराष्ट्र,तेलंगाना,गुजरात और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में ज्यादातर उगाई जाती है। चूसक कीड़ों के लिए यह किस्म सहिष्णु होती है। 

कपास की इस किस्म के पौधे हरे भरे होते है। रासी नियो की उत्पादन क्षमता प्रति एकड़ 20 -22 क्विंटल होती है। इस किस्म को हल्की और मध्यम भूमि के लिए काफी उपयुक्त माना गया है। 

जायद में मूंग की इन किस्मों का उत्पादन कर किसान कमा सकते है अच्छा मुनाफा

जायद में मूंग की इन किस्मों का उत्पादन कर किसान कमा सकते है अच्छा मुनाफा

मूंग की खेती अन्य दलहनी फसलों की तुलना में काफी सरल है। मूंग की खेती में कम खाद और उर्वरकों के उपयोग से अच्छा मुनाफा कमाया जा सकता है। मूंग की खेती में बहुत कम लागत आती है, किसान मूंग की उन्नत किस्मों का उत्पादन कर ज्यादा मुनाफा कमा सकते है। इस दाल में बहुत से पोषक तत्व होते है जो स्वास्थ के लिए बेहद लाभकारी होते है। 

मूंग की फसल की कीमत बाजार में अच्छी खासी है, जिससे की किसानों को अच्छा मुनाफा होगा। इस लेख में हम आपको मूंग की कुछ ऐसी उन्नत किस्मों के बारे में जानकारी देंगे जिनकी खेती करके आप अच्छा मुनाफा कमा सकते है। 

मूंग की अधिक उपज देने वाली उन्नत किस्में 

पूसा विशाल किस्म 

मूंग की यह किस्म बसंत ऋतू में 60 -75 दिन में और गर्मियों के माह में यह फसल 60 -65 दिन में पककर तैयार हो जाती है। मूंग की यह किस्म IARI द्वारा विकसित की गई है। यह मूंग पीला मोजक वायरस के प्रति प्रतिरोध है। यह मूंग गहरे रंग की होती है, जो की चमकदार भी होती है। यह मूंग ज्यादातर हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान और पंजाब में ज्यादा मात्रा में उत्पादित की जाती है। पकने के बाद यह मूंग प्रति हेक्टेयर में 12 -13 क्विंटल बैठती है। 

ये भी पढ़ें: फायदे का सौदा है मूंग की खेती, जानिए बुवाई करने का सही तरीका

पूसा रत्न किस्म 

पूसा रत्न किस्म की मूंग 65 -70 दिन में पककर तैयार हो जाती है। मूंग की यह किस्म IARI द्वारा विकसित की गई है। पूसा रत्न मूंग की खेती में लगने वाले पीले मोजक के प्रति सहनशील होती है। मूंग की इस किस्म पंजाब और अन्य दिल्ली एनसीआर में आने वाले क्षेत्रो में सुगम और सरल तरीके से उगाई जा सकती है। 

पूसा 9531 

मूंग की यह किस्म मैदानी और पहाड़ी दोनों क्षेत्रों में उगाई जा सकती है। इस किस्म के पौधे लगभग 60 -65 दिन के अंदर कटाई के लिए तैयार हो जाते है। इसकी फलिया पकने के बाद हल्के भूरे रंग की दिखाई पड़ती है। साथ ही इस किस्म में पीली चित्ती वाला रोग भी बहुत कम देखने को मिलता है। यह किस्म प्रति हेक्टेयर में 12 -15 प्रति क्विंटल होती है। 

ये भी पढ़ें: मूंग के कीट एवं रोग

एच यू एम - 1 

मूंग की यह किस्म बनारस हिन्दू विश्वविधालय द्वारा तैयार की गई है, इस किस्म के पौधे पर बहुत ही कम मात्रा में फलिया पाई जाती है। मूंग की यह किस्म लगभग 65 -70 दिन के अंदर पक कर तैयार हो जाती है। साथ ही मूंग की फसल में लगने वाले पीले मोजक रोग का भी इस पर कम प्रभाव पड़ता है। 

टी - 44 

मूंग की यह किस्म जायद के मौसम में अच्छे से उगाई जा सकती है। इस किस्म की खेती खरीफ के मौसम में भी अच्छे से की जा सकती है। यह किस्म लगभग 70 -75 दिन के अंदर पककर तैयार हो जाती है। साथ ही यह किस्म प्रति हेक्टेयर में 8 -10 क्विंटल होती है। 

ये भी पढ़ें: सोयाबीन, कपास, अरहर और मूंग की बुवाई में भारी गिरावट के आसार, प्रभावित होगा उत्पादन

सोना 12 /333 

मूंग की इस किस्म को जायद के मौसम के लिए तैयार किया गया है। इस किस्म के पौधे बुवाई के दो महीने बाद पककर तैयार हो जाते है। यह किस्म प्रति हेक्टेयर में 10 क्विंटल के आस पास हो जाती है। 

पन्त मूँग -1 

मूंग की इस किस्म को जायद और खरीफ दोनों मौसमों में उगाया जा सकता है। मूंग की इस किस्म पर बहुत ही कम मात्रा में जीवाणु जनित रोगों का प्रभाव देखने को मिलता है। यह किस्म लगभग 70 -75 दिन के अंदर पककर तैयार हो जाती है। पन्त मूंग -1 का औसतन उत्पादन 10 -12 क्विंटल देखने को मिलता है। 

जून माह में मूंगफली की उन्नत खेती से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी

जून माह में मूंगफली की उन्नत खेती से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी

मूंगफली भारत की प्रमुख महत्त्वपूर्ण तिलहनी फसल है। यह गुजरात, आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडू तथा कर्नाटक राज्यों में सर्वाधिक उगाई जाती है। 

भारत देश के बाकी राज्य जैसे कि मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, राजस्थान तथा पंजाब में भी यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण फसल मानी जाने लगी है। राजस्थान में इसकी खेती तकरीबन 3.47 लाख हैक्टेयर क्षेत्रफल में की जाती है, जिससे तकरीबन 6.81 लाख टन उपज प्राप्त होती है। 

मूंगफली की औसत उपज 1963 कि.ग्रा. प्रति हैक्टेयर (2010-11) है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद्‌ के अधीनस्थ अनुसंधानों संस्थानों एवं कृषि विश्वविद्यालयों ने मूंगफली की उन्नत तकनीकियाँ जैसे उन्नत किस्में, रोग नियंत्रण, निराई-गुड़ाई एवं खरपतवार नियंत्रण आदि विकसित की हैं। इनकी जानकारी आपको नीचे प्रदान की गई है।

मूंगफली की फसल के लिए भूमि तथा उसकी तैयारी

मूंगफली की खेती के लिए बेहतरीन जल निकासी वाली, भुरभुरी दोमट व बलुई दोमट जमीन सबसे अच्छी रहती है। मृदा पलटने वाले हल तथा बाद में कल्टीवेटर से दो जुताई करके खेत को पाटा लगाकर एकसार कर लेना चाहिए। 

जमीन में दीमक व विभिन्न प्रकार के कीड़ों से फसल के संरक्षण हेतु क्विनलफोस 1.5 प्रतिशत 25 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से अंतिम जुताई के साथ भूमि में मिला देना चाहिए।

मूंगफली का बीज एवं इसकी बुवाई

मूंगफली की बुवाई प्रायः मानसून शुरू होने के साथ ही हो जाती है। उत्तर भारत में यह समय सामान्य तोर पर 15 जून से 15 जुलाई के बीच का होता है। 

कम फैलने वाली किस्मों के लिए बीज की मात्रा 75-80 कि.ग्राम. प्रति हेक्टेयर एवं फैलने वाली किस्मों के लिये 60-70 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर इस्तेमाल में लेनी चाहिए।  

ये भी पढ़ें: भारतीय वैज्ञानिकों ने मूंगफली के फेंके हुए छिलकों से ऊर्जा के मामले में दक्ष स्मार्ट स्क्रीन विकसित की

बुवाई के लिए बीज निकालने के लिए स्वस्थ फलियों का चयन करना चाहिए या उनका प्रमाणित बीज ही बोना चाहिए। बुवाई से 10-15 दिन पहले गिरी को फलियों से अलग कर लेना चाहिए। 

मूंगफली की फसल के लिए बीजोपचार 

बीज को रोपने से पहले 3 ग्राम थाइरम या 2 ग्राम मेन्कोजेब या कार्बेण्डिजिम दवा प्रति किलो बीज के हिसाब से उपचारित कर लेनी चाहिए। 

इससे बीजों का अंकुरण काफी अच्छा होता है तथा प्रारंभिक अवस्था में लगने वाले विभिन्न प्रकार के रोगों से बचाया जा सकता है। 

दीमक और सफेद लट से संरक्षण के लिए क्लोरोपायरिफास (20 ई.सी.) का 12.50 मि.ली. प्रति किलो बीज का उपचार बुवाई से पहले कर लेना चाहिए। 

मूंगफली की कतार में बुवाई करनी चाहिए। गुच्छे वाली/कम फैलने वाली किस्मों के लिए कतार से कतार का फासला 30 से.मी. तथा फैलने वाली किस्मों के लिए 45 से.मी.रखें। 

पौधों से पौधों की दूरी 15 से. मी. ही रखनी चाहिए। बुवाई हल के पीछे, हाथ से या सीडड्रिल द्वारा की जा सकती है। भूमि की किस्म एवं नमी की मात्रा के अनुसार बीज जमीन में 5-6 से.मी. की गहराई पर बोना चाहिए।

मूंगफली की खेती में खाद एवं उर्वरक प्रबंधन 

उर्वरकों का इस्तेमाल भूमि की किस्म, उसकी उर्वराशक्ति, मूंगफली की किस्म, सिंचाई की सुविधा आदि के अनुरूप होता है। 

मूंगफली दलहन परिवार की तिलहनी फसल होने के नाते इसको सामान्य रूप से नाइट्रोजनधारी उर्वरक की जरूरत नहीं होती। 

फिर भी हल्की मृदा में प्रारंभिक बढ़वार के लिये 15-20 किग्रा नाइट्रोजन तथा 50-60 कि.ग्रा. फास्फोरस प्रति हैक्टेयर के हिसाब से देना लाभकारी होता है। 

उर्वरकों की संपूर्ण मात्रा खेत की तैयारी के वक्त ही भूमि में मिला देनी चाहिए। अगर कम्पोस्ट या गोबर की खाद उपलब्ध हो तो उसे बुवाई के 20-25 दिन पहले 5 से 10 टन प्रति हैक्टेयर खेत में बिखेरकर अच्छी तरह मिला देना चाहिए। 

बतादें, कि ज्यादा उपज के लिए अंतिम जुताई से पूर्व जमीन में 250 कि.ग्रा.जिप्सम प्रति हैक्टेयर के हिसाब से मिला देना चाहिए।

मूंगफली की खेती में नीम की खल का प्रयोग

नीम की खल के प्रयोग का मूंगफली के उत्पादन में अच्छा प्रभाव पड़ता है। अंतिम जुताई के समय 400 कि.ग्रा. नीम खल प्रति हैक्टर के हिसाब से देना चाहिए। 

नीम की खल से दीमक का नियंत्रण हो जाता है तथा पौधों को नत्रजन तत्वों की पूर्ति हो जाती है। नीम की खल के प्रयोग से 16 से 18 प्रतिशत तक की उपज में वृद्धि, तथा दाना मोटा होने के कारण तेल प्रतिशत में भी वृद्धि हो जाती है। दक्षिण भारत के कुछ स्थानों में अधिक उत्पादन के लिए जिप्सम भी प्रयोग में लेते हैं।

मूंगफली की फसल में सिंचाई प्रबंधन 

मूंगफली खरीफ फसल होने के कारण इसमें सिंचाई की प्रायः आवश्यकता नहीं पड़ती। सिंचाई देना सामान्य रूप से वर्षा के वितरण पर निर्भर करता हैं फसल की बुवाई यदि जल्दी करनी हो तो एक पलेवा की आवश्यकता पड़ती है। 

ये भी पढ़ें: मूंगफली की खेती से किसान और जमीन दोनों को दे मुनाफा

यदि पौधों में फूल आते समय सूखे की स्थिति हो तो उस समय सिंचाई करना आवश्यक होता है। फलियों के विकास एवं गिरी बनने के समय भी भूमि में पर्याप्त नमी की आवश्यकता होती है। 

जिससे फलियाँ बड़ी तथा खूब भरी हुई बनें। अतः वर्षा की मात्रा के अनुरूप सिंचाई की जरूरत पड़ सकती है।

मूंगफली की फलियों का विकास जमीन के अन्दर होता है। अतः खेत में बहुत समय तक पानी भराव रहने पर फलियों के विकास तथा उपज पर बुरा असर पड़ सकता है। 

अतः बुवाई के समय यदि खेत समतल न हो तो बीच-बीच में कुछ मीटर की दूरी पर हल्की नालियाँ बना देना चाहिए। जिससे वर्षा का पानी खेत में बीच में नहीं रूक पाये और अनावश्यक अतिरिक्त जल वर्षा होते ही बाहर निकल जाए।

कृषि में निराई गुड़ाई और खरपतवार नियंत्रण

निराई गुड़ाई एवं खरपतवार नियंत्रण का इस फसल के उत्पादन में बड़ा ही महत्त्व है। मूंगफली के पौधे छोटे होते हैं। अतः वर्षा के मौसम में सामान्य रूप से खरपतवार से ढक जाते हैं। 

ये खरपतवार पौधों को बढ़ने नहीं देते। खरपतवारों से बचने के लिये कम से कम दो बार निराई गुड़ाई की आवश्यकता पड़ती है। 

पहली बार फूल आने के समय दूसरी बार 2-3 सप्ताह बाद जबकि पेग (नस्से) जमीन में जाने लगते हैं। इसके बाद निराई गुड़ाई नहीं करनी चाहिए। 

जिन खेतों में खरपतवारों की ज्यादा समस्या हो तो बुवाई के 2 दिन बाद तक पेन्डीमेथालिन नामक खरपतवारनाशी की 3 लीटर मात्रा को 500 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हैक्टेयर छिड़काव कर देना चाहिए।

जून में उगाई जाने वाली फसलों की खेती से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारी

जून में उगाई जाने वाली फसलों की खेती से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारी

खेती किसानी में बहुत से आतंरिक और बाहरी कारक फसलीय उत्पादन को प्रभावित करते हैं। इनमें से एक प्रमुख कारक फसल बुवाई के समय का चयन करना है। 

किसान भाइयों को बेहतर उपज हांसिल करने के लिए हर एक माह के मुताबिक फसलों की बुवाई और कृषि कार्य करना चाहिए। साथ ही, फसल की बुवाई के लिए उन्नत किस्मों का चुनाव करना चाहिए, 

ताकि बंपर उत्पादन हांसिल किया जा सके। ऐसे में कृषकों के पास प्रति महीने कृषि कार्यों की जानकारी होनी चाहिए, ताकि ज्यादा उपज के साथ उच्च गुणवत्ता प्राप्त हो सके।

भारत में मौसम के आधार पर भिन्न-भिन्न फसलों की खेती की जाती है। इसी प्रकार प्रत्येक महीने मौसम को मद्देनजर रखते हुए अलग-अलग कृषि कार्य भी किया जाता है, ताकि फसलों की सही ढ़ंग से देखभाल की जा सके। 

इससे फसल की अच्छी-खासी वृद्धि होती है। साथ ही, उपज की गुणवत्ता में भी सुधार होता है। ऐसे में आवश्यक है, कि कृषकों को मौसम के आधार पर किए जाने वाले कृषि कार्यों की सटीक जानकारी होनी चाहिए।

धान की नर्सरी से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी 

यदि किसान भाई मई के अंतिम सप्ताह में धान की नर्सरी नहीं लगा पाए हैं, तो जून के प्रथम सप्ताह तक यह कार्य पूर्ण कर लें। वहीं, सुगंधित किस्मों की नर्सरी जून के तीसरे सप्ताह तक लगा लें। 

धान की मध्यम और देरी से पकने वाली किस्मों को काफी अच्छा माना गया है। इसमें स्वर्ण, पंत-10, सरजू-52, नरेन्द्र-359, जबकि टा.-3, पूसा बासमती-1, हरियाणा बासमती सुगंधित एवं पंत संकर धान-1 तथा नरेन्द्र संकर धान-2 प्रमुख उन्नत संकर किस्में हैं। 

धान की बारीक किस्मों के लिए प्रति हेक्टेयर बीज दर 30 किलोग्राम, मध्यम धान के लिए 35 किलोग्राम, मोटे धान के लिए 40 किलोग्राम और बंजर भूमि के लिए 60 किलोग्राम, जबकि संकर किस्मों के लिए 20 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की जरूरत पड़ती है। 

ये भी पढ़ें: किसान पूसा से धान की इन किस्मों का बीज अब ऑनलाइन खरीद सकते हैं

अगर नर्सरी में खैरा रोग नजर आए तो 20 ग्राम यूरिया, 5 ग्राम जिंक सल्फेट प्रति लीटर पानी में घोलकर 10 वर्ग मीटर क्षेत्र में छिड़काव करना चाहिए।

मक्का की जून में बुवाई से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी   

जून में मक्का की खेती से किसान अच्छा खासा मुनाफा कमा सकते हैं। इसलिए अगर आप मक्का की बुवाई करना चाहते हैं, तो इसकी बुवाई 25 जून तक कर लेनी चाहिए। अगर सिंचाई की सुविधा हो तो इसकी बुवाई 15 जून तक भी की जा सकती है। 

मक्का की उन्नत किस्मों में शक्तिमान-1, एच.क्यू.पी.एम.-1, तरुण, नवीन, कंचन, श्वेता और जौनपुरी की सफेद और मेरठ की पीली स्थानीय किस्में अच्छी मानी जाती हैं।

किसान पशु चारा की फसलों की बुवाई करें  

पशुओं के लिए हरे चारे का अभाव ना हो इसलिए आप इस महीने में ज्वार, लोबिया और चरी जैसे चारे वाली फसलों की बुवाई कर सकते हैं। बारिश न होने की स्थिति में खाद देकर बुवाई की जा सकती है। 

जून के महीने में किसान इन सब्जियों की खेती करें

जून के महीने में आप बैंगन, मिर्च, अगेती फूलगोभी की रोपाई कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त लौकी, खीरा, चिकनी तोरी, सावन तोरी, करेला और टिंडा की बुवाई भी इसी माह की जा सकती है। 

भिंडी की उन्नत किस्मों में परभणी क्रांति, आजाद भिंडी, अर्का अनामिका, वर्षा, उपहार, वी.आर.ओ.-5, वी.आर.ओ.-6 और आईआईवीआर-10 अच्छी मानी जाती है।

अरहर की खेती (Arahar dal farming information in hindi)

अरहर की खेती (Arahar dal farming information in hindi)

दोस्तों आज हम बात करेंगे अरहर की दाल के विषय पर, अरहर की दाल को बहुत से लोग तुअर की दाल भी कहते हैं। अरहर की दाल बहुत खुशबूदार और जल्दी पच जाने वाली दाल कही जाती है। 

अरहर की दाल से जुड़ी सभी आवश्यक बातों को भली प्रकार से जानने के लिए हमारे इस पोस्ट के अंत तक जरूर बने रहे:

अरहर की दाल का परिचय:

आहार की दृष्टिकोण से देखे तो अरहर की दाल बहुत ही ज्यादा उपयोगी होती है। क्योंकि इसमें विभिन्न प्रकार के आवश्यक तत्व मौजूद होते हैं जैसे: खनिज, कार्बोहाइड्रेट, लोहा, कैल्शियम आदि भरपूर मात्रा में मौजूद होता है। 

अरहर की दाल को रोगियों को खिलाना लाभदायक होता है। लेकिन जिन लोगों में गैस कब्ज और सांस जैसी समस्या हो उनको अरहर दाल का सेवन थोड़ा कम करना होगा। 

अरहर की दाल शाकाहारी भोजन करने वालो का मुख्य साधन माना जाता है शाकाहारी अरहर दाल का सेवन बहुत ही चाव से करते हैं।

अरहर दाल की फसल के लिए भूमि का चयन:

अरहर की फ़सल के लिए सबसे अच्छी भूमि हल्की दोमट मिट्टी और हल्की प्रचुर स्फुर वाली भूमि सबसे उपयोगी होती है। यह दोनों भूमि अरहर दाल की फसल के लिए सबसे उपयुक्त होती हैं। 

बीज रोपण करने से पहले खेत को अच्छी तरह से दो से तीन बार हल द्वारा जुताई करने के बाद, हैरो चलाकर खेतों की अच्छी तरह से जुताई कर लेना चाहिए। 

अरहर की फ़सल को खरपतवार से सुरक्षित रखने के लिए जल निकास की व्यवस्था को बनाए रखना उचित होता है। तथा पाटा चलाकर खेतों को अच्छी तरह से समतल कर लेना चाहिए। अरहर की फसल के लिए काली भूमि जिसका पी.एच .मान करीब 7.0 - 8. 5 सबसे उत्तम माना जाता है।

ये भी पढ़ें: सोयाबीन, कपास, अरहर और मूंग की बुवाई में भारी गिरावट के आसार, प्रभावित होगा उत्पादन

अरहर दाल की प्रमुख किस्में:

अरहर दाल की विभिन्न विभिन्न प्रकार की किस्में उगाई जाती है जो निम्न प्रकार है:

  • 2006 के करीब, पूसा 2001 किस्म का विकास हुआ था। या एक खरीफ मौसम में उगाई जाने वाली किस्म है। इसकी बुवाई में करीब140 से लेकर 145 दिनों का समय लगता है। प्रति एकड़ जमीन में या 8 क्विंटल फ़सल की प्राप्ति होती है।
  • साल 2009 में पूसा 9 किस्म का विकास हुआ था। इस फसल की बुवाई खरीफ रबी दोनों मौसम में की जाती है। या फसल देर से पकती है 240 दिनों का लंबा समय लेती है। प्रति एकड़ के हिसाब से 8 से 10 क्विंटल फसल का उत्पादन होता है।
  • साल 2005 में पूसा 992 का विकास हुआ था। यह दिखने में भूरा मोटा गोल चमकने वाली दाल की किस्म है।140 से लेकर 145 दिनों तक पक जाती है प्रति एकड़ भूमि 6.6 क्विंटल फसल की प्राप्ति होती है। अरहर दाल की इस किस्म की खेती पंजाब, हरियाणा, पश्चिम तथा उत्तर प्रदेश दिल्ली तथा राजस्थान में होती है।
  • नरेंद्र अरहर 2, दाल की इस किस्म की बुवाई जुलाई मे की जाती हैं। पकने में 240 से 250 दिनों का टाइम लेती है। इस फसल की खेती प्रति एकड़ खेत में 12 से 13 कुंटल होती है। बिहार, उत्तर प्रदेश में इस फसल की खेती की जाती।
  • बहार प्रति एकड़ भूमि में10 से 12 क्विंटल फसलों का उत्पादन होता है। या किस्म पकने में लगभग 250 से 260 दिन का समय लेती है।
  • दाल की और भी किस्म है जैसे, शरद बी आर 265, नरेन्द्र अरहर 1और मालवीय अरहर 13,

आई सी पी एल 88039, आजाद आहार, अमर, पूसा 991 आदि दालों की खेती की प्रमुख है।

ये भी पढ़ें: संतुलित आहार के लिए पूसा संस्थान की उन्नत किस्में

अरहर दाल की फ़सल बुआई का समय:

अरहर दाल की फसल की बुवाई अलग-अलग तरह से की जाती है। जो प्रजातियां जल्दी पकती है उनकी बुवाई जून के पहले पखवाड़े में की जाती है विधि द्वारा। 

दाल की जो फसलें पकने में ज्यादा टाइम लगाती है। उनकी बुवाई जून के दूसरे पखवाड़े में करना आवश्यक होता है। दाल की फसल की बुवाई की प्रतिक्रिया सीडडिरल यह फिर हल के पीछे चोंगा को बांधकर पंक्तियों द्वारा की जाती है।

अरहर दाल की फसल के लिए बीज की मात्रा और बीजोपचार:

जल्दी पकने वाली जातियों की लगभग 20 से 25 किलोग्राम और धीमे पकने वाली जातियों की 15 से 20 किलोग्राम बीज /हेक्टर बोना चाहिए। 

जो फसल चैफली पद्धति से बोई जाती हैं उनमें बीजों की मात्रा 3 से 4 किलो प्रति हैक्टेयर की आवश्यकता होती है। फसल बोने से पहले करीब फफूदनाशक दवा का इस्तेमाल 2 ग्राम थायरम, 1 ग्राम कार्बेन्डेजिम यह फिर वीटावेक्स का इस्तेमाल करे, लगभग 5 ग्राम ट्रयकोडरमा प्रति किलो बीज के हिसाब से प्रयोग करना चाहिए। 

उपचारित किए हुए बीजों को रायजोबियम कल्चर मे करीब 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से उपचारित करने के बाद खेतों में लगाएं।

ये भी पढ़ें: अरहर की फसल को रोगों से बचाएं

अरहर की फसल की निंदाई-गुडाईः

अरहर की फसल को खरपतवार से सुरक्षित रखने के लिए पहली निंदाई लगभग 20 से 25 दिनों के अंदर दे, फूल आने के बाद दूसरी निंदाई शुरू कर दें। खेतों में दो से तीन बार कोल्पा चलाने से अच्छी तरह से निंदाई की प्रक्रिया होती है।

तथा भूमि में अच्छी तरह से वायु संचार बना रहता है। फसल बोने के नींदानाषक पेन्डीमेथीलिन 1.25 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व / हेक्टर का इस्तेमाल करे। नींदानाषक का इस्तेमाल करने के बाद नींदाई करीब 30 से 40 दिन के बाद करना आवश्यक होता है।

अरहर दाल की फसल की सिंचाईः

किसानों के अनुसार यदि सिंचाई की व्यवस्था पहले से ही उपलब्ध है, तो वहां एक सिंचाई फूल आने से पहले करनी चाहिए। 

तथा दूसरे सिंचाई की प्रक्रिया खेतों में फलिया की अवस्था बन जाने के बाद करनी चाहिए। इन सिंचाई द्वारा खेतों में फसल का उत्पादन बहुत अच्छा होता है।

ये भी पढ़ें: भूमि विकास, जुताई और बीज बोने की तैयारी के लिए उपकरण

अरहर की फसल की सुरक्षा के तरीके:

कीटो से फसलों की सुरक्षा करने के लिए क्यूनाल फास या इन्डोसल्फान 35 ई0सी0, 20 एम0एल का इस्तेमाल करें। फ़सल की सुरक्षा के लिए आप क्यूनालफास, मोनोक्रोटोफास आदि को पानी में घोलकर खेतों में छिड़काव कर सकते हैं।

इन प्रतिक्रियाओं को अपनाने से खेत कीटो से पूरी तरह से सुरक्षित रहते हैं। दोस्तों हम उम्मीद करते हैं, कि आपको हमारा या आर्टिकल अरहर पसंद आया होगा। 

हमारे इस आर्टिकल में अरहर से जुड़ी सभी प्रकार की आवश्यक जानकारियां मौजूद हैं। जो आपके बहुत काम आ सकती है। 

यदि आप हमारी दी गई जानकारियों से संतुष्ट है तो हमारे इस आर्टिकल को ज्यादा से ज्यादा अपने दोस्तों के साथ और सोशल मीडिया पर शेयर करें। धन्यवाद।

बाजरा देगा कम लागत में अच्छी आय

बाजरा देगा कम लागत में अच्छी आय

बाजरा खरीफ की मुख्य फसल है लेकिन अब इसे रबी सीजन में भी कई इलाकों में लगाया जाता है। गर्मियों में इसमें रोग भी कम आते हैं और साल भर यह खाद्य सुरक्षा में भी योगदान दे पाता है। इसके लिए यह जानना जरूरी है कि बाजरे की उन्नत खेती कैसे करें 

बाजरे की आधुनिक, वैज्ञानिक खेती

बाजरा कोस्टल क्राप है और किसी भी कोस्टल क्राप में पोषक तत्व गेहूं जैसी सामान्य फसलों के मुकाबले कहीं ज्यादा होते हैं। बाजरा की हाइब्रिड किस्मों का उत्पादन गेहूं की खेती से ज्यादा लाभकारी हो रहा हैं। कम पानी और उर्वरकों की मदद से इसकी खेती हो जाती है। अन्न के साथ साथ यह पशुओं को हरा और सूखा भरपूर चारा भी दे जाता है। बाजरे के दाने में 11.6 प्रतिशत प्रोटीन, 5.0 प्रतिशत वसा, 67.0 प्रतिशत कार्बोहाइडेट्स एवं 2.7 प्रतिशत खनिज लवण होते हैं। इसकी खेती के लिए दोमट एवं जल निकासी वाली मृदा उपयुक्त रहती है। रेगिस्तानी इलाकों में सूखी बुबाई कर पानी लगाने की व्यवस्था करें। एक हैक्टेयर खेत की बुवाई के लिए 4 से 5 कि.ग्रा. प्रमाणित बीज पर्याप्त रहता है। 

बाजरे की उन्नत किस्में, संकर

bajra kisme   

बाजरा की संकर किस्में ज्यादा प्रचलन में हैं। इनमें राजस्थान के लिए आरएचडी 21 एवं 30,उत्तर प्रदेश के लिए पूसा 415,हरियाणा एचएचबी 505,67 पूसा 123,415,605,322, एचएचडी 68, एचएचबी 117 एवं इम्प्रूब्ड, गुजरात के लिए पूसा 23, 605, 415,322, जीबीएच 15, 30,318, नंदी 8, महाराष्ट्र के लिए पूसा 23, एलएलबीएच 104, श्रद्धा, सतूरी, कर्नाटक पूसा 23 एवं आंध्र प्रदेश के लिए आईसीएमबी 115 एवं 221 किस्म उपयुक्त हैं। बाजार में प्राईवेट कंपनियों जिनमें पायोनियर, बायर, महको, आदि की अनेक किस्में किसानों द्वारा लगाई जाती हैं। आरएचबी 177 किस्म जोगिया रोग रोधी तथा शीघ्र पकने वाली है। औसत पैदावार लगभग 10-20 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तथा सूखे चारे की पैदावार 40-45 क्विंटल है। आरएचबी 173 किस्म 75-80 दिन, आरएचबी 154 बाजरे की किस्म देश के अत्यन्त शुष्क जलवायु वाले क्षेत्रों के लिये अधिसूचित है। 70-75 दिन में पकती है। आईसीएमएच 356- यह सिंचित एवं बारानी, उच्च व कम उर्वरा भूमि के लिए उपयुक्त, 75-80 दिन में पकने वाली संकर किस्म हैं। तुलासिता रोग प्रतिरोधी इस किस्म की औसत उपज 20-26 क्विंटल प्रति हैक्टेयर है। आईसीएमएच 155 किस्म 80-100 दिन में पककर 18-24 क्विंटल उपज देती है। एचएचबी 67 तुलासिता रोग रोधक है। 80-90 दिन में पककर 15-20 क्विंटल उपज देती है।

 

बीजोपचार

 

 बीज को नमक के 20 प्रतिशत घोल में लगभग पांच मिनट तक डुबो कर गून्दिया या चैंपा से फसल को बचाया जा सकता हैं। हल्के बीज व तैरते हुए कचरे को जला देना चाहिये। तथा शेष बचे बीजों को साफ पानी से धोकर अच्छी प्रकार छाया में सुखाने के बाद बोने के काम में लेना चाहिये। उपरोक्त उपचार के बाद प्रति किलोग्राम बीज को 3 ग्राम थायरम दवा से उपचारित करें। दीमक के रोकथाम हेतु 4 मिलीलीटर क्लोरीपायरीफॉस 20 ई.सी. प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करें। 

बुवाई का समय एवं विधि

  bajra kheti 

 बाजरा की मुख्य फसल की बिजाई मध्य जून से मध्य जुलाई तक होती है वहीं गर्मियों में बाजारा की फसल लगाने के लिए मार्च में बिजाई होती है। बीज को 3 से 5 सेमी गहरा बोयें जिससे अंकुरण सफलतार्पूवक हो सके। कतार से कतार की दूरी 40-45 सेमी तथा पौधे से पौधे की दरी 15 सेमी रखें। 

खाद एवं उर्वरक

बाजरा की बुवाई के 2 से 3 सप्ताह पहले 10-15 टन गोबर की खाद प्रति हैक्टेयर की दर से देना चाहिए। पर्याप्त वर्षा वाले इलाकों में अधिक उपज के लिए 90 कि.ग्रा. नाइटोजन एवं 30 कि.ग्रा. फॉस्फोरस प्रति हैक्टेयर की दर से दें।

 

खरपतवार नियंत्रण

बाजरा की बुवाई के 3-4 सप्ताह तक खेत में निडाई कर खरपतवार निकाल लें। आवश्यकतानुसार दूसरी निराई-गुड़ाई के 15-20 दिन पश्चात् करें। जहां निराई सम्भव न हो तो बाजरा की शुद्ध फसल में खरपतवार नष्ट करने हेतु प्रति हेक्टेयर आधा कि.ग्रा. एट्राजिन सक्रिय तत्व का 600 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।

 

सिंचाई

 

 बाजरा की सिंचित फसल की आवश्यकतानुसार समय-समय पर सिंचाई करते रहना चाहिए। पौधे में फुटान होते समय, सिट्टे निकलते समय तथा दाना बनते समय भूमि में नमी की कमी नहीं होनी चाहिए।

ज्वार की खेती में बीजोपचार और इसमें लगने वाले कीट व रोगों की रोकथाम से जुड़ी जानकारी

ज्वार की खेती में बीजोपचार और इसमें लगने वाले कीट व रोगों की रोकथाम से जुड़ी जानकारी

रबी की फसलों की कटाई प्रबंधन का कार्य कर किसान भाई अब गर्मियों में अपने पशुओं के चारे के लिए ज्वार की बुवाई की तैयारी में हैं। 

अब ऐसे में आपकी जानकारी के लिए बतादें कि बेहतर फसल उत्पादन के लिए सही बीज मात्रा के साथ सही दूरी पर बुआई करना बहुत जरूरी होता है। 

बीज की मात्रा उसके आकार, अंकुरण प्रतिशत, बुवाई का तरीका और समय, बुआई के समय जमीन पर मौजूद नमी की मात्रा पर निर्भर करती है। 

बतादें, कि एक हेक्टेयर भूमि पर ज्वार की बुवाई के लिए 12 से 15 किलोग्राम बीज की आवश्यकता पड़ती है। लेकिन, हरे चारे के रूप में बुवाई के लिए 20 से 30 किलोग्राम बीजों की आवश्यकता पड़ती है। 

ज्वार के बीजों की बुवाई से पूर्व बीजों को उपचारित करके बोना चाहिए। बीजोपचार के लिए कार्बण्डाजिम (बॉविस्टीन) 2 ग्राम और एप्रोन 35 एस डी 6 ग्राम कवकनाशक दवाई प्रति किलो ग्राम बीज की दर से बीजोपचार करने से फसल पर लगने वाले रोगों को काफी हद तक कम किया जा सकता है। 

इसके अलावा बीज को जैविक खाद एजोस्पाइरीलम व पी एस बी से भी उपचारित करने से 15 से 20 फीसद अधिक उपज प्राप्त की जा सकती है।

इस प्रकार ज्वार के बीजों की बुवाई करने से मिलेगी अच्छी उपज ?

ज्वार के बीजों की बुवाई ड्रिल और छिड़काव दोनों तरीकों से की जाती है। बुआई के लिए कतार के कतार का फासला 45 सेंटीमीटर रखें और बीज को 4 से 5 सेंटीमीटर तक गहरा बोयें। 

अगर बीज ज्यादा गहराई पर बोया गया हो, तो बीज का जमाव सही तरीके से नहीं होता है। क्योंकि, जमीन की उपरी परत सूखने पर काफी सख्त हो जाती है। कतार में बुआई देशी हल के पीछे कुडो में या सीडड्रिल के जरिए की जा सकती है।

सीडड्रिल (Seed drill) के माध्यम से बुवाई करना सबसे अच्छा रहता है, क्योंकि इससे बीज समान दूरी पर एवं समान गहराई पर पड़ता है। ज्वार का बीज बुआई के 5 से 6 दिन उपरांत अंकुरित हो जाता है। 

छिड़काव विधि से रोपाई के समय पहले से एकसार तैयार खेत में इसके बीजों को छिड़क कर रोटावेटर की मदद से खेत की हल्की जुताई कर लें। जुताई हलों के पीछे हल्का पाटा लगाकर करें। इससे ज्वार के बीज मृदा में अन्दर ही दब जाते हैं। जिससे बीजों का अंकुरण भी काफी अच्छे से होता है।  

ज्वार की फसल में खरपतवार नियंत्रण कैसे करें ?

यदि ज्वार की खेती हरे चारे के तोर पर की गई है, तो इसके पौधों को खरपतवार नियंत्रण की आवश्यकता नहीं पड़ती। हालाँकि, अच्छी उपज पाने के लिए इसके पौधों में खरपतवार नियंत्रण करना चाहिए। 

ज्वार की खेती में खरपतवार नियंत्रण प्राकृतिक और रासायनिक दोनों ही ढ़ंग से किया जाता है। रासायनिक तरीके से खरपतवार नियंत्रण के लिए इसके बीजों की रोपाई के तुरंत बाद एट्राजिन की उचित मात्रा का स्प्रे कर देना चाहिए। 

यह भी पढ़ें: किसान भाई ध्यान दें, खरीफ की फसलों की बुवाई के लिए नई एडवाइजरी जारी

वहीं, प्राकृतिक ढ़ंग से खरपतवार नियंत्रण के लिए इसके बीजों की रोपाई के 20 से 25 दिन पश्चात एक बार पौधों की गुड़ाई कर देनी चाहिए। 

ज्वार की कटाई कब की जाती है ?

ज्वार की फसल बुवाई के पश्चात 90 से 120 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। कटाई के उपरांत फसल से इसके पके हुए भुट्टे को काटकर दाने के लिए अलग निकाल लिया जाता है। ज्वार की खेती से औसत उत्पादन आठ से 10 क्विंटल प्रति एकड़ हो जाता है। 

ज्वार की उन्नत किस्में और वैज्ञानिक विधि से उन्नत खेती से अच्छी फसल में 15 से 20 क्विंटल प्रति एकड़ दाने की उपज हो सकती है। बतादें, कि दाना निकाल लेने के उपरांत करीब 100 से 150 क्विंटल प्रति एकड़ सूखा पौैष्टिक चारा भी उत्पादित होता है। 

ज्वार के दानों का बाजार भाव ढाई हजार रूपए प्रति क्विंटल तक होता है। इससे किसान भाई को ज्वार की फसल से 60 हजार रूपये तक की आमदनी प्रति एकड़ खेत से हो सकती है। साथ ही, पशुओं के लिए चारे की बेहतरीन व्यवस्था भी हो जाती है। 

ज्वार की फसल को प्रभावित करने वाले प्रमुख रोग और कीट व रोकथाम 

ज्वार की फसल में कई तरह के कीट और रोग होने की संभावना रहती है। समय रहते अगर ध्यान नहीं दिया गया तो इनके प्रकोप से फसलों की पैदावार औसत से कम हो सकती है। ज्वार की फसल में होने वाले प्रमुख रोग निम्नलिखित हैं।

तना छेदक मक्खी : इन मक्खियों का आकार घरेलू मक्खियों की अपेक्षा में काफी बड़ा होता है। यह पत्तियों के नीचे अंडा देती हैं। इन अंडों में से निकलने वाली इल्लियां तनों में छेद करके उसे अंदर से खाकर खोखला बना देती हैं। 

इससे पौधे सूखने लगते हैं। इससे बचने के लिए बुवाई से पूर्व प्रति एकड़ भूमि में 4 से 6 किलोग्राम फोरेट 10% प्रतिशत कीट नाशक का उपयोग करें।

ज्वार का भूरा फफूंद : इसे ग्रे मोल्ड भी कहा जाता है। यह रोग ज्वार की संकर किस्मों और शीघ्र पकने वाली किस्मों में ज्यादा पाया जाता है। इस रोग के प्रारम्भ में बालियों पर सफेद रंग की फफूंद नजर आने लगती है। इससे बचाव के लिए प्रति एकड़ भूमि में 800 ग्राम मैन्कोजेब का छिड़काव करें।

सूत्रकृमि : इससे ग्रसित पौधों की पत्तियां पीली पड़ने लगती हैं। इसके साथ ही जड़ में गांठें बनने लगती हैं और पौधों का विकास बाधित हो जाता है। 

रोग बढ़ने पर पौधे सूखने लगते हैं। इस रोग से बचाव के लिए गर्मी के मौसम में गहरी जुताई करें। प्रति किलोग्राम बीज को 120 ग्राम कार्बोसल्फान 25% प्रतिशत से उपचारित करें।

ज्वार का माइट : यह पत्तियों की निचली सतह पर जाल बनाते हैं और पत्तियों का रस चूस कर पौधों को नुकसान पहुंचाते हैं। इससे ग्रसित पत्तियां लाल रंग की हो कर सूखने लगती हैं। इससे बचने के लिए प्रति एकड़ जमीन में 400 मिलीग्राम डाइमेथोएट 30 ई.सी. का स्प्रे करें।

मक्के की खेती से जुड़ी महत्वपूर्ण एवं विस्तृत जानकारी

मक्के की खेती से जुड़ी महत्वपूर्ण एवं विस्तृत जानकारी

भारत में मक्का गेहूं के पश्चात सबसे ज्यादा उगाई जाने वाली फसल है। मक्के की फसल को विभिन्न प्रकार से इस्तेमाल में लाया जाता है। यह मनुष्य एवं पशुओं दोनों के लिए आहार का कार्य करती है। 

इसके अतिरिक्त व्यापारिक दृष्टि से भी इसका काफी अहम महत्त्व है। मक्के की फसल को मैदानी इलाकों से लेकर 2700 मीटर ऊंचे पहाड़ी इलाकों में भी सुगमता से उगाया जा सकता है। 

भारत में मक्के की विभिन्न उन्नत किस्में पैदा की जाती है, जो कि जलवायु के अनुरूप शायद ही बाकी देशों में संभव हो। मक्का प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट और विटामिन का बेहतरीन स्त्रोत है, जो कि मानव शरीर को ऊर्जा से भर देता है। 

इसके अंदर भरपूर मात्रा में फॉसफोरस, मैग्निशियम, आयरन, मैगनिज, जिंक और कॉपर जैसे खनिज प्रदार्थ भी उपलब्ध होते हैं। मक्का एक प्रकार से खरीफ ऋतु की फसल होती है। 

लेकिन, जहाँ सिंचाई के साधन मौजूद हैं, वहां इसे रबी और खरीफ की अगेती फसलों के रूप में पैदा किया जाता है। मक्के की फसल की बहुत ज्यादा मांग है, जिस कारण से इसे बेचने में भी सहजता होती है।

मक्के की खेती हेतु जलवायु एवं तापमान

मक्के की बेहतरीन पैदावार अर्जित करने के लिए उचित जलवायु एवं तापमान होना आवश्यक होता है। इसकी फसल उष्ण कटिबंधीय इलाकों में बेहतर ढ़ंग से वृद्धि करती है। 

इसके पौधों को सामान्य तापमान की जरूरत पड़ती है। शुरुआत में इसके पौधों को विकास करने के लिए नमी की बेहद जरूरत होती है, 18 से 23 डिग्री का तापमान पौधों के बढ़वार और 28 डिग्री का तापमान पौधे के विकास के लिए ज्यादा बेहतर माना जाता है। 

ये भी पढ़े: रंगीन मक्के की खेती से आ सकती है आपकी जिंदगी में खुशियों की बहार, जाने कैसे हो सकते हैं मालामाल

मक्के की खेती हेतु जमीन कैसी होनी चाहिए

मक्के की खेती को आम तौर पर किसी भी जमीन में कर सकते हैं। लेकिन, अच्छी गुणवत्ता एवं अधिक पैदावार के लिए बलुई दोमट एवं भारी भूमि की जरूरत पड़ती है। 

इसके अतिरिक्त जमीन भी अच्छी जल निकासी वाली होनी चाहिए। मक्के की खेती के लिए लवणीय एवं क्षारीय भूमि को बेहतर नहीं माना जाता है।

मक्का का खेत तैयार करने की विधि

मक्के के बीजों की खेत में बुवाई करने से पूर्व खेत को बेहतर ढ़ंग से तैयार कर लेना चाहिए। इसके लिए सर्वप्रथम खेत की अच्छी तरीके से गहरी जुताई कर लेनी चाहिए। 

इसके पश्चात कुछ वक्त के लिए खेत को ऐसे ही खुला छोड़ दें। मक्के की बेहतरीन उपज के लिए मिट्टी को पर्याप्त मात्रा में उवर्रक देना जरूरी होता है। 

इसके लिए 6 से 8 टन पुरानी गोबर की खाद को खेत में डाल देना चाहिए। उसके बाद खेत की तिरछी जुताई करवा दें, जिससे कि खाद अच्छी तरह से मृदा में मिल जाये। 

ये भी पढ़े: गाय के गोबर से बेहतरीन आय करने वाले ‘जैविक मैन’ नाम से मशहूर किसान की कहानी 

जमीन में जस्ते की कमी होने पर वर्षा के मौसम से पूर्व 25 किलो जिंक सल्फेट की मात्रा को खेत में डाल देना चाहिए। खाद और उवर्रक को चुनी गई उन्नत किस्मों के आधार पर देना चाहिए। 

इसके पश्चात बीजों की रोपाई के दौरान नाइट्रोजन की 1/3 मात्रा को देना चाहिए। साथ ही, इसके अन्य दूसरे हिस्से को बीज रोपाई के एक माह पश्चात दें और अंतिम हिस्से को पौधों में फूलों के लगने के समय देना चाहिए।

मक्का की बुवाई का समुचित वक्त व तरीका

मक्के के खेत में बीजों को लगाने से पूर्व उन्हें अच्छे से उपचारित कर लेना चाहिए, जिससे बीजों की बढ़वार के दौरान उनमें रोग न लगे। 

इसके लिए सर्वप्रथम बीजों को थायरम या कार्बेन्डाजिम 3 ग्राम की मात्रा को प्रति 1 किलो बीज को उपचारित कर लें। इस उपचार से बीजों को फफूंद से संरक्षित किया जाता है। 

इसके उपरांत बीजों को मृदा में रहने वाले कीड़ो से बचाने के लिए प्रति किलो की दर से थायोमेथोक्जाम अथवा इमिडाक्लोप्रिड 1 से 2 ग्राम की मात्रा से उपचारित कर लेना चाहिए।

स्वीट कॉर्न की खेती से किसानों को काफी लाभ होगा, सिर्फ इन बातों का रखें खास ख्याल

स्वीट कॉर्न की खेती से किसानों को काफी लाभ होगा, सिर्फ इन बातों का रखें खास ख्याल

कृषक भाई स्वीट कॉर्न की खेती कर के शानदार मुनाफा अर्जित कर सकते हैं। भारत ही नहीं विदेशों में भी इसे काफी पसंद किया जाता है। चाहें कैसा भी मौसम हो स्वीट कॉर्न का स्वाद सब की जुबां पर रहता है। विशेष तौर पर पहाड़ों की सेर के समय और बारिश के दौरान स्वीट कॉर्न को बड़े ही चाव से खाया जाता है। बतादें, कि स्वीट कॉर्न मक्के की मीठी किस्म है। इसकी फसल के पकने से पूर्व ही दूधिया अवस्था में इसकी कटाई की जाती है। स्वीट कॉर्न भारत के साथ-साथ विदेश में भी बेहद पसंद किया जाता है। ऐसी स्थिति में किसान भाई इसकी खेती कर बेहतरीन मुनाफा अर्जित कर सकते हैं।

स्वीट कॉर्न की खेती किस तरह होती है

स्वीट कॉर्न की खेती मक्का की खेती की भांति ही होती है। स्वीट कॉर्न की खेती में मक्का की फसल पकने से पूर्व ही तोड़ दी जाती है। इस वजह से किसानों को बेहद शीघ्रता से अच्छी कमाई मिलती है। स्वीट कॉर्न के साथ-साथ फूलों की खेती करके किसान एक ही वक्त में दो गुना ज्यादा धन कमाने के लिए गेंदा, ग्लेडियोलस एवं मसालों की सहफसली खेती भी कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त आप एक खेत में पालक, मटर, गोभी और धनिया भी उगा सकते हैं।

ये भी पढ़ें:
जानिये कम लागत वाली मक्का की इन फसलों को, जो दूध के जितनी पोषक तत्वों से हैं भरपूर


स्वीट कॉर्न को अधिक समय तक स्टोर करके ना रखें

स्वीट कॉर्न की फसल कटाई एक बेहद ही आसान प्रक्रिया है। बतादें, कि फसल कटाई के लिए तैयार तब होती गई जब भुट्टों से दूधिया पदार्थ निकलने लगता है। सुबह अथवा शाम में स्वीट कॉर्न की कटाई करें, इससे फसल अधिक समय तक तरोताजा रहेगी। तुड़ाई पूर्ण होने पर इसको मंडियों में बेच दें। स्वीट कॉर्न को ज्यादा दिनों तक स्टोर करके न रखें, क्योंकि इससे इसकी मिठास कम हो जाएगी।

 

किसान इन बातों का विशेष ख्याल रखें

  • जब आप इसकी खेती करते हैं, तो आप मक्का की उन्नत किस्मों को ही चुनें।
  • कीट-रोधी किस्मों को कम समयावधि में पकना चाहिए।
  • खेत की तैयारी के दौरान जल निकासी की समुचित व्यवस्था सुनिश्चित करें, ताकि फसल में जल भराव न हो।
  • स्वीट कॉर्न वैसे तो संपूर्ण भारत में उगाई जाती है, परंतु उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा पैदावार होती है।
  • स्वीट कॉर्न की बुवाई रबी एवं खरीफ दोनों ही सीजनों में की जा सकती है।

मक्के की खेती को प्रभावित करने वाला रोग और इसकी रोकथाम

मक्के की खेती को प्रभावित करने वाला रोग और इसकी रोकथाम

मिलेट्स यानी मोटे अनाज को श्री अन्न भी कहा जाता है। मिलेट्स की पैदावार को प्रोत्साहन देने के लिए भारत सरकार ने विगत वर्ष 2023 को मिलेट्स ईयर के तोर पर मनाया था। 

जब कभी मोटे अनाज अर्थात मिलेट्स की चर्चा होती है, तो स्वाभाविक रूप से मन में मक्का का प्रतिबिंब प्रदर्शित जरूर होता है। क्योंकि, वर्तमान में रबी सीजन की कटाई का कार्य तकरीब संपन्न हो चुका है। 

किसान भाई जल्द ही खरीफ फसलों की बुवाई की तैयारी में जुटने लगेंगे। हालाँकि, जिन किसानों की फसल खेत से उठ चुकी है, ऐसे अधिकांश किसान मक्के की खेती करने की तैयारी में भी लग गए हैं। 

हम आपके लिए मक्का की खेती को हानि पहुँचाने वाले झुलसा रोग और इसके नियंत्रण से जुड़ी जरूरी जानकारी प्रदान करेंगे, ताकि आपको अच्छी उपज लेने में सहयोग मिल सके।

मक्के की खेती में झुलसा रोग 

मक्के की फसल में उत्तरी झुलसा रोग लगने का संकट सदैव बना रहता है। अंग्रेजी और वैज्ञानिक भाषा में इसको टर्सिकम लीफ ब्लाइट रोग/Tursicum Leaf Blight Disease के नाम से जाना जाता है। 

झुलसा रोग इतना हानिकारक और खतरनाक है, कि यदि फसल में लग जाए, तो पूरी फसल को बर्बाद करने की क्षमता रखता है। 

कृषि विशेषज्ञों का कहना है, कि भारत के अंदर बड़ी तादात में किसान भाई मक्के की खेती करते हैं। परंतु, मक्के में कवक रोगों के लगने से इसकी फसल काफी प्रभावित हो जाती है, जिनमें विशेष रूप से उतरी झुलसा लगने का संकट अधिक होता है। 

ये भी देखें: मक्का की खेती के लिए मृदा एवं जलवायु और रोग व उनके उपचार की विस्तृत जानकारी

क्योंकि, इसका संक्रमण 17 से 31 डिग्री सेल्सियस तापमान सापेक्षिक आर्द्रता 90 से 100 प्रतिशत गीली और आद्र के मौसम में अनुकूल होता है, जो कि फोटोसिंथेसिस प्रक्रिया को प्रभावित करता है। इससे मक्के की उपज में 90% प्रतिशत तक कमी आ जाती है।

झुलसा रोग के क्या-क्या लक्षण हैं ?

बतादें, कि उत्तरी झुलसा रोग का संक्रमण 10 से 15 दिन के पश्चात नजर आने लगता है। इस दौरान फसल में छोटे हल्के हरे भरे रंग के धब्बे नजर आते हैं। 

साथ ही, पत्तियों पर शिकार के आकार के एक से 6 इंच लंबे भूरे रंग के घाव हो जाते हैं, जिससे पौधे की पत्तियां झड़ कर नीचे गिरने लगती हैं। इससे उपज को काफी हानि होती है। 

झुलसा रोग से इस प्रकार बचाव करें ?

कृषि विशेषज्ञों के अनुसार, फसल की बुवाई से पूर्व पुराने अवशेषों को खत्म कर दें, जिससे इस रोग के लगने की संभावना कम हो जाती है। 

साथ ही, खेतों में पोटैशियम क्लोराइड के तौर पर पोटैशियम का इस्तेमाल करना चाहिए। साथ ही, मैंकोजेब 0.25 प्रतिशत व कार्बेंडाजिम का फसल पर छिड़काव करने से फसल को इस हानिकारक रोग से बचाया जा सकता है। 

किसान भाई खरीफ सीजन में इस तरह करें मूंग की खेती

किसान भाई खरीफ सीजन में इस तरह करें मूंग की खेती

मूँग एक प्रमुख दलहनी फसल होने की वजह से यह एक उत्तम आय का माध्यम है। साथ ही, मूँग की फसल को पोषण के मामले में काफी ज्यादा अच्छा माना जाता है। 

भारत के अंदर खेती करने के लिये तीन फसल चक्र अपनाये जाते हैं, जिसमें रबी की फसल, खरीफ की फसल और जायद की फसल शम्मिलित हैं। किसान भाइयों ने रबी फसल की कटाई कर ली है एवं खरीफ फसल के लिये खेतों की तैयारी का काम चल रहा है। 

जो भी किसान भाई खरीफ सीजन में अच्छा मुनाफा अर्जित करना चाहते हैं, वे अपने खेतों में पलेवा, बीजों का चुनाव, सिंचाई की व्यस्था और खेतों में बाड़बंदी की तैयारी कर लें। 

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के निर्देशानुसार यह समय मूंग की खेती करने के लिये काफी ज्यादा अनुकूल है। मूंग एक प्रमुख दलहनी फसल है, जिसकी खेती कर्नाटक, उड़ीसा, तमिलनाडु, राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश में की जाती है। 

प्रमुख दलहनी फसल होने की वजह मूंग की फसल एक बेहतरीन कमाई का जरिया तो है ही, साथ में पोषण के मामले में मूंग की फसल को काफी महत्वपूर्ण माना जाता है।

मूंग की फसल हेतु खेत की तैयारी

अगर किसान इस खरीफ सीजन में मूंग की फसल लगाना चाह रहे हैं, तो वो खेतों में 2-3 बार बारिश होने पर गहरी जुताई का कार्य कर लें। इससे मृदा में छिपे कीड़े निकल जाते हैं और खरपतवार भी खत्म हो जाते हैं। 

गहरी जुताई से फसल की पैदावार बढ़ती है और स्वस्थ फसल लेने में भी सहायता मिलती है। किसान ध्यान रखें, कि गहरी जुताई करने के पश्चात खेत में पाटा चलाकर उसे एकसार कर लें। 

इसके पश्चात खेत में गोबर की खाद और आवश्यक पोषक तत्व भी मिला लें, जिससे बेहतरीन पैदावार प्राप्त हो सके।

मूंग की फसल हेतु बीजों का चयन

जून के अंतिम सप्ताह से लेकर जुलाई के प्रथम सप्ताह तक किसान खरीफ मूंग की बुवाई कर सकते हैं। बुवाई के लिये किसानों को बेहतरीन गुणवत्ता वाले उपयुक्त बीजों का ही चयन करना चाहिये, इससे मूंग की फसल में कीड़े एवं बीमारियां लगने की संभावना काफी कम रहती है। 

ये भी पढ़े: सोयाबीन, कपास, अरहर और मूंग की बुवाई में भारी गिरावट के आसार, प्रभावित होगा उत्पादन

मूंग की फसल की बुवाई

खेत में मूंग के बीज की बुवाई करने से पहले उनका बीजशोधन अवश्य करना चाहिए। बतादें कि इससे स्वस्थ और रोगमुक्त फसल लेने में विशेष सहायता मिलती है। 

मूंग के बीजों को कतारों में ही बोयें, जिससे निराई-गुड़ाई करने में काफी सुगमता रहे और खरपतवार भी आसानी से निकाले जा सकें।

मूंग की फसल में सिंचाई की व्यवस्था

हालांकि, मूंग की फसल के लिये अत्यधिक जल की आवश्यकता नहीं पड़ती है। 2 से 3 बरसातों में ही फसल को अच्छी खासी नमी मिल जाती है। परंतु, फिर भी फलियां बनने के दौरान खेतों में हल्की सिंचाई कर देनी चहिये। 

शाम के वक्त हल्की सिंचाई करने पर मिट्टी को नमी मिल जाती है। इस बात का खास ख्याल रखें कि फसल पकने के 15 दिन पहले ही सिंचाई का काम बंद कर दें।

मूंग की फसल में कीटनाशक और खरपतवार नियंत्रण

दूसरी फसलों की तरफ मूंग की फसल में भी कीट-रोग लगने की संभावना बनी रहती है। इस वजह से समय-समय पर निराई-गुड़ाई का भी कार्य करते रहें। खेतों में उगे खरपतवारों को उखाड़कर जमीन के अंदर दबा दें। साथ ही, रोगों से भी फसल की निगरानी करते रहें। 

ये भी पढ़े: मूंग की खेती में लगने वाले रोग एवं इस प्रकार से करें उनका प्रबंधन

मूंग की फसल की कटाई-गहाई

खरीफ मूंग की फसल कम समय में पकने वाली फसल है। यह सामान्य तौर पर 65-70 दिनों के अंदर पककर तैयार हो जाती है। जून-जुलाई के मध्य बोई गई फसल सिंतबर-अक्टूबर के मध्य पककर तैयार हो जाती है। 

मूंग की फलियां हरे रंग से भूरे रंग की होने लग जाऐं तो कटाई-गहाई का कार्य वक्त रहते कर लेना चाहिये।