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कटाई

Fasal ki katai kaise karen: हाथ का इस्तेमाल सबसे बेहतर है फसल की कटाई में

Fasal ki katai kaise karen: हाथ का इस्तेमाल सबसे बेहतर है फसल की कटाई में

किसान भाईयों, आपने आलू, खीरा और प्याज की फसल पर अपने जानते खूब मेहनत की। फसल भी अपने हिसाब से बेहद ही उम्दा हुई। गुणवत्ता एक नंबर और क्वांटिटी भी जोरदार। लेकिन, आप अभी भी पुराने जमाने के तौर-तरीके से ही अगर फसल निकाल रहे हैं, उसकी कटाई कर रहे हैं तो ठहरें। हो सकता है, आप जिन प्राचीन विधियों का इस्तेमाल करके फसल निकाल रहे हैं, उसकी कटाई कर रहे हैं, वह आपकी फसल को खराब कर दे। संभव है, आप पूरी फसल न ले पाएं। इसलिए, कृषि वैज्ञानिकों ने जो तौर-तरीके बताएं हैं फसल निकालने के, हम आपसे शेयर कर रहे हैं। इस उम्मीद के साथ कि आप पूरी फसल ले सकें, शानदार फसल ले सकें। तो, थोड़ा गौर से पढ़िए इस लेख को और उसी हिसाब से अपनी फसल निकालिए।

प्याज की फसल

Pyaj ki kheti

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प्याज देश भर में बारहों माह इस्तेमाल होने वाली फसल है। इसकी खेती देश भर में होती है। पूरब से लेकर पश्चिम तक और उत्तर से लेकर दक्षिण तक। अब आपका फसल तैयार है। आप उसे निकालना चाहते हैं। आपको क्या करना चाहिए, ये हम बताते हैं। जब आप प्याज की फसल निकालने जाएं तो सदैव इस बात का ध्यान रखें कि प्याज और उसके बल्बों को किसी किस्म का नुकसान न हो। आपको बेहद सावधानी बरतनी पड़ेगी। हड़बड़ाएं नहीं। धैर्य से काम लें। सबसे पहले आप प्याज को छूने के पहले जमीन के ऊपर से खींचे या फिर उसकी खुदाऊ करें। बल्बों के चारों तरफ से मिट्टी को धीरे-धीरे हिलाते चलें। फिर जब मिट्टी हिल जाए तब आप प्याज को नीचे, उसकी जड़ से आराम से निकाल लें। आप जब मिट्टी को हिलाते हैं तब जो जड़ें मिट्टी के संपर्क में रहती हैं, वो धीरे-धीरे मिट्टी से अलग हो जाती हैं। तो, आपको इससे साबुत प्याज मिलता है। प्याज निकालने के बाद उसे यूं ही न छोड़ दें। आपके पास जो भी कमरा या कोठरी खाली हो, उसमें प्याज को सुखा दें। कम से कम एक हफ्ते तक। उसके बाद आप प्याज को प्लास्टिक या जूट की बोरियों में रख कर बाजार में बेच सकते हैं या खुद के इस्तेमाल के लिए रख सकते हैं। प्याज को कभी झटके से नहीं उखाड़ना चाहिए।

आलू

aalu ki kheti आलू देश भर में होता है। इसके कई प्रकार हैं। अधिकांश स्थानों पर आलू दो रंगों में मिलते हैं। सफेद और लाल। एक तीसरा रंग भी हैं। धूसर। मटमैला धूसर रंग। इस किस्म के आलू आपको हर कहीं दिख जाएंगे।

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आपका आलू तैयार हो गया। आप उसे निकालेंगे कैसे। कई लोग खुरपी का इस्तेमाल करते हैं। यह नहीं करना चाहिए क्योंकि अनेक बार आधे से ज्यादा आलू खुरपी से कट जाते हैं। कृषि वैज्ञानिक बताते हैं कि इसके लिए बांस सबसे बेहतर है, बशर्ते वह नया हो, हरा हो। इससे आप सबसे पहले तो आलू के चारों तरफ की मिट्टी को ढीली कर दें, फिर अपने हाथ से ही आलू निकालें। आप बांस से आलू निकालने की गलती हरगिज न करें। बांस, सिर्फ मिट्टी को साफ करने, हटाने के लिए है।

नए आलू की कटाई

नए आलू छोटे और बेहद नरम होते हैं। इसमें भी आप बांस वाले फार्मूले का इस्तेमाल कर सकते हैं। आलू, मिट्टी के भीतर, कोई 6 ईंच नीचे होते हैं। इसिलए, इस गहराई तक आपका हाथ और बांस ज्यादा मुफीद तरीके से जा सकता है। बेहतर यही हो कि आप हाथ का इस्तेमाल कर मिट्टी को हटाएं और आलू को निकाल लें।

गाजर

gajar ki kheti गाजर बारहों मास नहीं मिलता है। जनवरी से मार्च तक इनकी आवक होती है। बिजाई के 90 से 100 दिनों के भीतर गाजर तैयार हो जाता है। इसकी कटाई हाथों से सबसे बेहतर होती है। इसे आप ऊपर से पकड़ कर खींच सकते हैं। इसकी जड़ें मिट्टी से जुड़ी होती हैं। बेहतर तो यह होता कि आप पहले हाथ अथवा बांस की सहायता से मिट्टी को ढीली कर देते या हटा देते और उसके बाद गाजर को आसानी से खींच लेते। गाजर को आप जब उखाड़ लेते हैं तो उसके पत्तों को तोड़ कर अलग कर लेते हैं और फिर समस्त गाजर को पानी में बढ़िया से धोकर सुखा लिया जाता है।

खीरा

khira ki kheti खीरा एक ऐसी पौधा है जो बिजाई के 45 से 50 दिनों में ही तैयार हो जाता है। यह लत्तर में होता है। इसकी कटाई के लिए चाकू का इस्तेमाल सबसे बेहतर होता है। खीरा का लत्तर कई बार आपकी हथेलियों को भी नुकसान पहुंचा सकता है। बेहतर यह हो कि आप इसे लत्तर से अलग करने के लिए चाकू का ही इस्तेमाल करें।

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कुल मिलाकर, फरवरी माह या उसके पहले अथवा उसके बाद, अनेक ऐसी फसलें होती हैं जिनकी पैदावार कई बार रिकार्डतोड़ होती है। इनमें से गेहूं और धान को अलग कर दें तो जो सब्जियां हैं, उनकी कटाई में दिमाग का इस्तेमाल बहुत ज्यादा करना पड़ता है। आपको धैर्य बना कर रखना पड़ता है और अत्यंत ही सावधानीपूर्वक तरीके से फसल को जमीन से अलग करना होता है। इसमें आप अगर हड़बड़ा गए तो अच्छी-खासी फसल खराब हो जाएगी। जहां बड़े जोत में ये वेजिटेबल्स उगाई जाती हैं, वहां मजदूर रख कर फसल निकलवानी चाहिए। बेशक मजदूरों को दो पैसे ज्यादा देने होंगे पर फसल भी पूरी की पूरी आएगी, इसे जरूर समझें। कोई जरूरी नहीं कि एक दिन में ही सारी फसल निकल आए। आप उसमें कई दिन ले सकते हैं पर जो भी फसल निकले, वह साबुत निकले। साबुत फसल ही आप खुद भी खाएंगे और अगर आप उसे बाजार अथवा मंडी में बेचेंगे, तो उसकी कीमत आपको शानदार मिलेगी। इसलिए बहुत जरूरी है कि खुद से लग कर और अगर फसल ज्यादा है तो लोगों को लगाकर ही फसलों को बाहर निकालना चाहिए। (देश के जाने-माने कृषि वैज्ञानिकों की राय पर आधारित)
गेहूं की फसल का समय पर अच्छा प्रबंधन करके कैसे किसान अच्छी पैदावार ले सकते हैं।

गेहूं की फसल का समय पर अच्छा प्रबंधन करके कैसे किसान अच्छी पैदावार ले सकते हैं।

गेहूं जैसा कि हम जानते हैं, विश्व में सबसे ज्यादा उगाई जाने वाली अनाज की फसल है। गेंहू विश्व में उत्पादन और सबसे अधिक उगाया जाता है, इसलिए गेहूं को फसलों का राजा कहा जाता है। गेहूं किसी भी अन्य अनाज की तुलना में मिट्टी और जलवायु की अधिक विविधता में खेती करने में सक्षम है और रोटी बनाने, ब्रेड बनाने, मैक्रोनी बनाने और बहुत रूप में उपयोग के लिए भी बेहतर अनुकूल है। गेहूं में एक ग्लूटेन नाम का प्रोटीन जो बेकिंग के लिए आवश्यक होता है। इसलिए ये बेकरी प्रोडक्ट्स बनने के लिए उपयोगी है। हमारे भारत में गेहूं की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है। सबसे ज्यादा गेहूं की फसल की खेती उत्तरप्रदेश, हरियाणा और पंजाब में की जाती है। प्रति एकड़ की पैदावार पंजाब में सबसे अधिक है, क्योंकि पंजाब में 100% पानी आधारित खेती होती है।उत्पादन की बात की जाए तो हमें बढ़ती आबादी को देखते हुए 2025 तक गेहूं की मांग को पूरा करने के लिए 117 मिलियन टन गेहूं के उत्पादन करना होगा। इसके लिए हमें उन्नत तकनीकों का इस्तेमाल करके गेहूं की पैदावार को ज्यादा करना होगा।

खरीफ की फसल की कटाई के बाद कैसे करें जमीन तैयार

खरीफ की फसल कटाई के बाद हमें अपने खेत को हैरो, कल्टीवेटर या रोटावेटर चलाकर अच्छी तरह से जोतना है ताकि भूमि में पिछली फसल के अवशेष खतम हो जाएं। इस के बाद हमें अपने खेत में गोबर की खाद डाल देनी है और, एक बार और हैरो चला देनी है जिस से गोबर की खाद मिट्टी में अच्छी तरह से मिल जाए। गेहूं की फसल बोने से पहले हमें मिट्टी में नमी भी देखनी है, अगर मिट्टी में सही नमी न हो तो हमें खेत में सिंचाई करनी चाहिए ताकि फसल की उपज अच्छी हो। गेहूं की फसल में सीड़ बेड समतल और प्लेन होना चाहिये। गेहूं की फसल में ग्रोथ के लिए 20-25 डिग्री सेल्सियस तापमान चाहिये। गेहूं की फसल के लिए काली या दोमट मिट्टी अच्छी पैदावार देती है और मिट्टी का pH मान 5-7 होना चाहिए।

पोषण व्यवस्था कैसे करें

सब से पहले हमें खेत की मिट्टी की जांच करनी है, उस के आधार पर हमें अपने खेत में पोषण तत्व देने हैं। गेहूं की फसल को 40-50 किलो नाइट्रोजन, 25-30 किलो फॉस्फोरस,15-20 किलो पोटास और 10 किलो जिंक और 10 किलो सल्फर डालने से अच्छी पैदावार होती है।

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नाइट्रोजन की आधी मात्रा, फास्फोरस, पोटाश व जिंक और सल्फर की पूरी मात्रा तथा गोबर की खाद की पूरी मात्रा खेत तैयार करते समय या अंतिम जुताई के समय खेत में मिला देनी चाहिए। कई बार खड़ी फसल में जिंक की कमी दिखने पर इस का स्प्रे भी कर सकते हैं। नाइट्रोजन की शेष मात्रा को दो भागों में बांटकर पहली सिंचाई 20-25 दिन बाद एवं दूसरी 40-45 दिन के बाद प्रयोग करें।

बिजाई का उत्तम समय और बीज की मात्रा

नवंबर महीने की 15 - 25 तारीख तक बिजायी का उत्तम समय होता है। 25 नवंबर के बाद हम पछेती किस्मों की बिजाई कर सकते हैं। पछेती बिजाई पर बीज और उर्वरक की मात्रा थोड़ी ज्यादा डालनी पड़ती है, जिससे पछेती फसल की भी अच्छी पैदावार हो सकती है। एक अकड़ के लिए 40 किलो बीज पर्याप्त होता है। कम पानी वाली इलाके में 50 किलो बीज प्रति एकड़ और पछेती बिजाई पर भी 20 किलो बीज सामान्य से ज्यादा लगता है। पौधे से पौधे की दुरी 8 -10 CM होनी चाहिये और कतार से कतार की दूरी 22. 5 CM होनी चाइए। बीज 4 से 5 CM मिट्टी की गहराई में डालना चाहिए। इन नई किस्मों, जिन्हें DBW-316, DBW-55, DBW-370, DBW-371 और DBW-372 नाम दिया गया है। भारतीय कृषि परिषद की गेहूं और जौ की प्रजाति पहचान समिति द्वारा अनुमोदित किया गया है। इन किस्मो का चुनाव कर के किसान अच्छी पैदावार ले सकते है।

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सिचाई प्रबंधन

फसल में हल्की मिट्टी में करीब 6 सेंटीमीटर की गहराई तक सिंचाई करनी चाहिए। वहीं दोमट मिट्टी में करीब 8 सेंटीमीटर की गहराई तक सिंचाई करनी चाहिए। अगर हमारी जमीन में पर्याप्त जल उपलब्ध है, तो हमें फसल में 5 से 6 बार सिंचाई करनी चाहिए। सिचाई की अवधियाँ इस प्रकार हैं। पहली सिंचाई मुख्य जड़ विकास (CROWN ROOT INITATION ) - 21 -25 दिन की हो जाने पर फसल में सिंचाई करना बहुत आवश्यक है। इस स्टेज पर फसल में सिंचाई करना बहुत आवश्यक है, क्योंकि इस स्टेज के नाम से ही पता चल रहा है कि 21 दिन बाद फसल में नई जड़ का विकास होता है। अगर इस समय पर फसल को पानी नहीं मिलता है तो फसल की पैदावार बिल्कुल घट जाती है। इस लिए कई स्थानों पर जहाँ पानी की कमी है, केवल एक सिंचाई संभव है, तो किसान इस स्टेज की फसल की सिंचाई अवश्य करनी चाहिए। दूसरी सिंचाई 40 -45 दिन की फसल हो जाने पर करनी चाहिए। इस समय फसल में टिलर्स बनते हैं, यानि की फसल में फुटाव होता है। तीसरी सिंचाई 60- 65 दिन पर करनी होती है। इस समय फसल पर गेहू का विकास बिंदु भूमि की सतह से ऊपर जाता है और फसल का पूर्ण विकास होता है। चोथी सिंचाई 80 -85 दिन बाद करते हैं। इस समय पर फसल में बालियाँ बननी शुरू हो जाती हैं। इस को बूट चरण भी बोलते हैं, तब शुरू होता है जब फ्लैग लीफ के अंदर बालियाँ बनने लगती हैं । दुग्ध विकास चरण 100 - 105 दिन बाद सिंचाई करते हैं। ये फूल आने के पूरा होने के बाद शुरू होता है और प्रारंभिक गठन चरण होता है। इसे अर्ली, मीडियम और लेट मिल्क में बांटा गया है। विकासशील एंडोस्पर्म एक दूधिया तरल पदार्थ के रूप में शुरू होता है, जो बाद में दाने बन जाते हैं। इस समय पर फसल में पानी देने से दाने मोटे हो जाते हैं, जिससे फसल की पैदावार बढ़ जाती है।

फसल में खरपतवार नियंत्रण

सब से पहले हमें अपने खेत का निरीक्षण करके देखना है, कि हमारे खेत में किस प्रकार के खरपतवार हैं। फिर उस आधार पर हमें दवा का छिड़काव करना है। डोज के आधार पर ही हमें खेत में दवा का छिड़काव करना है। रेकमेंडेड डोज से ज्यादा अगर किसी भी खरपतवार नाशी का प्रयोग किया जाये तो वो फसल को भी जला सकते हैं।

संकरी पत्ती वाले खरपतवार

मंडूसी अथवा गुल्ली डंडा अथवा गेहूं का मामा खरपतवार और जंगली जई को मारने के लिए खरपतवार नासी स्ल्फोसफल्फ्यूरान या क्लोनिडाफाप प्रोपेरजिल 15 प्रतिशत डब्ल्यूपी 400 ग्राम प्रति एकड़ को पानी में घोलकर छिड़काव करें। मेटासुलफूरों 2 किलो डब्ल्यूपी का भी इस्तेमाल कर सकते हैं।

चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार

बथुआ, जंगली पालक, मोथा के लिए टू फोर डी सोडियम साल्ट 80 प्रतिशत दवा आती है। 250 एमएल दवा एक एकड़ एवं 625 एमएल प्रति हैक्टेयर के लिए उपोग मे लाएं। पानी में मिलाकर 400 से 500 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करने से तीन दिन में चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार मर जाते हैं। टू फोर डी ईस्टर साल्ट का प्रयोग भी फसल के 30 - 35 दिन बाद की हो जाने पर करना चाहिये नहीं तो फसल में ग्रेन मलफोर्मेशन की दिक्क्त आ सकती है।

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फसल में रोग प्रबंधन

पूर्ण रतुआ /भूरा रतुआ रोग का पहला लक्षण पत्तियों पर अनियमित रूप से सूक्ष्म, गोल, नारंगी छोटे छोटे गोल दभ्भे का दिखना है। पत्तियों में गंभीर जंग लगने से उपज में कमी आती है, रोग आमतौर पर जनवरी के दूसरे पखवाड़े या फरवरी के पहले सप्ताह में प्रकट होता है। रोग इष्टतम 15-2oC के साथ 2-35oC के तापमान रेंज में दिखायी दे सकता है।

धारीदार रतुआ या पीला रतुआ

रोग मुख्य रूप से पत्तियों पर दिखायी देता है, हालांकि पत्ती के आवरण, डंठल और बालियां भी प्रभावित हो सकती हैं। नींबू के पीले रंग के छोटे-छोटे दाने लंबी पंक्तियों में व्यवस्थित होते हैं, जो धारियों का पैटर्न देते हैं। जो पर्यावरणीय परिस्थितियों के आधार पर दिसंबर या मध्य जनवरी के अंतिम सप्ताह में दिखायी देते हैं। बाद के चरणों में पत्तियों की निचली सतह पर फीकी काली धारियाँ बन जाती हैं। प्रभावित पौधों में दाने हल्के और सिकुड़े हुए हो जाते हैं, जिससे उपज में भारी कमी आती है।

काला रतुआ

रतुआ संक्रमण का पहला लक्षण पत्तियों, पर्णच्छदों, कल्मों और फूलों की संरचनाओं का छिलना है। ये धब्बे जल्द ही आयताकार, लाल-भूरे रंग के रूप में विकसित हो जाते हैं। जब बड़ी संख्या में स्पोर्स फटते हैं और अपने बीजाणु छोड़ते हैं, तो पूरी पत्ती का ब्लेड और अन्य प्रभावित हिस्से दूर से भी भूरे रंग के दिखाई देंगे।

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तीनों रतुआ का उपाय :

  • देर से बुआई करने से बचें।
  • नाइट्रोजनयुक्त उर्वरकों का संतुलित प्रयोग करें।
  • प्लांटवैक्स @ 0.1% के साथ बीज ड्रेसिंग के बाद एक ही रसायन के साथ दो छिड़काव।
  • 15 दिनों के अंतराल पर जिनेब @ 0.25% या मैनकोजेब @ 0.25% या प्लांटावैक्स @ 0.1% के साथ दो या तीन बार छिड़काव करें।
  • रोग के लक्षण दिखाई देते ही 200 मिली. प्रोपीकोनेजोल 25 ई.सी. या पायराक्लोट्ररोबिन प्रति लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ छिड़काव करें।
  • रोग के प्रकोप और फैलाव को देखते हुए दूसरा छिड़काव 10-15 दिन के अंतराल में करें।

करनाल बंट

खेत में करनाल बंट के लक्षणों को पहचानना अक्सर मुश्किल होता है, क्योंकि किसी दिए गए सिर पर संक्रमित गुठली की घटना कम होती है। लक्षण कटाई के बाद बीज पर सबसे आसानी से पाए जाते हैं।

लूज स्मट

यह रोग आंतरिक रूप से संक्रमित बीज से पैदा होता है तथा संक्रमित बीज ऊपर से देखने में बिल्कुल स्वस्थ बीजों की तरह ही दिखाई देता है। इस रोग से प्रति वर्ष उत्तर भारत में गेहूं की उपज में 1-2 प्रतिशत की हानि होती है। बुवाई से पहले बीज को वीटावैक्स 2 ग्राम प्रति किलो बीज से उपचारित करें। संक्रमित कानों को मिट्टी के अंदर दबा दें |
एक घंटे में होगी एक एकड़ गेहूं की कटाई, मशीन पर सरकार की भारी सब्सिडी

एक घंटे में होगी एक एकड़ गेहूं की कटाई, मशीन पर सरकार की भारी सब्सिडी

इस सीजन में किसानों को कटाई के लिए मशीने भी कम कीमतों पर दी जाती हैं. जिनकी मदद से गेहूं कटाई में काफी समय लगता है. गेहूं के अच्छे उत्पादन के लिए किसान भी काफी मेहनत करते हैं. 

हालांकि गेहूं की फसल पककर तैयार हो चुकी है. जिसके बाद जल्द कटाई का काम भी शुरू हो जाएगा. इसमें समय, मेहनत और लागत कम करने के लिए कृषि मशीनों का उपयोग किये जाने की सलाह दी जाती है. 

लेकिन मशीनों से कटाई और गहाई के के बाद अक्सर पराली की समस्या हो जाती है. कटाई के बाद निकली फूंस को जानवरों के चारे के लिए इस्तेमाल किया जाता है. देश के अलग अलग राज्य की सरकारें मशीनों को खरीदने के लिए सब्सिडी देती है. 

 राजस्थान के कोटा में कुछ दिन पहले कृषि मोहत्सव का आयोजन हुआ था. जिसमें ऐसी ही एक मशीनरी आकर्षण का केंद्र बनी हुई थी. इस मशीन का नाम रीपर ग्राइंडर था. 

इस मशीन की सबसे बड़ी खासियत यही है कि, ये मात्र एक घंटे में एक एकड़ गेहूं की फसल की कटाई कर सकती है. अगर किसान इस मशीन को खरीदता है, तो राज्य सरकार की तरफ से इसमें 50 फीसद तक सब्सिडी मिलती है.

रीपर ग्राइंडर के बारे में

इस मशीन से गेहूं की फसल काटने के लिए 5 से 10 मजदूरों की जरूरत पड़ सकती है. 10 एचपी के इंजन वाली मशीन की मदद से सिर्फ एक घंटे में एक एकड़ फसल की कटाई हो सकती है. 

रीपर ग्राइंडर की मदद से गेहूं के अलावा जौ, बाजरा, सरसों, धान की फसलों की कटाई कर सकते हैं. रीपर ग्राइंडर ना सिर्फ फसलों की कटाई करती है बल्कि, उपज को साइड में फैला देती है. 5 फीट तक की लंबी फसल की कटाई इस मशीन से की जा सकती है. एक घंटे चलाने के लिए इस मशीन में एक लीटर तेल लग जाता है. 

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सरकार की तरफ से मिलता है अनुदान

अगर किसान इस मशीन को खरीदना चाहते हैं, तो वो इसका कोई भी साइज़ चुन सकते हैं. जिसकी कीमत 50 हजार से लेकर 5 लाख रुपये तक हो सकती है. जिसके लिए सरकार की ओर से 50 फीसद तक सब्सिडी दे रही है. 

रीपर ग्राइंडर को खरीदने के लिए किसान को मशीन के डीलर से कोटेशन लेना पड़ेगा. जो अपने जिले के कृषि विभाग के ऑफिस में जमा करना होगा. इस मशीन को खरीदने के लिये कुछ जरूरी कागजों की जरूरत पड़ती है.

जिसमें आधार कार्ड की कॉपी, जमीन के कागज, बैंक की पासबुक की कॉपी शामिल है. इसके अलावा ई-मित्र सेंटर की मदद से ऑनलाइन आवेदन भी कर सकते हैं.

लीची में पुष्प प्रबंधन (Flower management )करके अधिक उपज एवं गुणवक्तायुक्त फल कैसे प्राप्त करें?

लीची में पुष्प प्रबंधन (Flower management )करके अधिक उपज एवं गुणवक्तायुक्त फल कैसे प्राप्त करें?

भारत में 92 हजार हेक्टेयर में लीची की खेती हो रही है जिससे कुल 686 हजार मैट्रिक टन उत्पादन प्राप्त होता है, जबकि बिहार में लीची की खेती 32 हजार हेक्टेयर में होती है जिससे 300 मैट्रिक टन लीची का फल प्राप्त होता है। बिहार में लीची की उत्पादकता 8 टन/हेक्टेयर है जबकि राष्ट्रीय उत्पादकता 7.4टन / हेक्टेयर है। 

लीची को फलों की रानी कहते है।इसे प्राइड ऑफ बिहार भी कहते है। कुल लीची उत्पादन में लगभग 80 प्रतिशत हिस्सा बिहार का है। फरवरी माह का दूसरा हप्ता चल रहा है। इस समय हमारे लीची उत्पादक किसान यह जानने के लिए उत्सुक है की उन्हें फरवरी माह में क्या करना चाहिए क्या नही करना चाहिए । लीची के पेड़ फूल आने की अवधि के दौरान 68-86°F (20-30°C) के बीच गर्म तापमान पसंद करते हैं। उन्हें उच्च आर्द्रता स्तर 70-90% की आवश्यकता होती है।पर्याप्त धूप, अच्छी जल निकासी वाली मिट्टी और न्यूनतम हवा भी सफल फूल आने के लिए महत्वपूर्ण कारक हैं।  इसके अतिरिक्त, लीची के पेड़ों को फूल आने के लिए उनके सुप्त चरण के दौरान ठंडे तापमान (68°F या 20°C से नीचे) की अवधि से लाभ होता है। इष्टतम फल उत्पादन सुनिश्चित करने के लिए लीची की खेती में फूलों का प्रबंधन महत्वपूर्ण है।

 1. लीची के फूल को समझना

जलवायु और विविधता के आधार पर, लीची के पेड़ आमतौर पर देर से सर्दियों या शुरुआती वसंत के दौरान फूल आते हैं।पुष्पन तापमान, वर्षा, आर्द्रता और पोषण सहित विभिन्न कारकों से प्रभावित होता है।

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 2.कटाई छंटाई

कटाई छंटाई पेड़ के आकार को बनाए रखने, मृत लकड़ी को हटाने और वायु प्रवाह को बढ़ावा देने में मदद करती है, जिससे रोग एवं कीट का आक्रमण कम होता है। युवा पेड़ों की ट्रेनिंग एवं प्रूनिंग करने से मजबूत मचान विकास को बढ़ावा मिलता है, जो परिपक्व पेड़ों में फूल और फल उत्पादन को प्रोत्साहित करता है।फूलों वाली टहनियों को अत्यधिक हटाने से बचने के लिए छंटाई विवेकपूर्ण तरीके से की जानी चाहिए।

 3. पोषक तत्व प्रबंधन

फूलों की शुरुआत और विकास के लिए उचित पोषण आवश्यक है। मृदा परीक्षण पोषक तत्वों की कमी को समझने और उचित उर्वरक रणनीति तैयार करने में मदद करता है। नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटेशियम और सूक्ष्म पोषक तत्वों के साथ संतुलित उर्वरक स्वस्थ फूलों के विकास में सहायता करता है।लीची में (प्रजाति के अनुसार) मंजर आने के 30 दिन पहले पेड़ पर जिंक सल्फेट की 2 ग्राम मात्रा को प्रति लीटर की दर से घोल बना कर पहला छिड़काव करना चाहिए , इसके 15-20 दिन के बाद दूसरा छिड़काव करने से मंजर एवं फूल अच्छे आते है।फल लगने के 15 दिन बाद  बोरेक्स की 4 ग्राम मात्रा को प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर 15 दिनों के अंतराल पर दो या तीन छिड़काव करने से फलों का झड़ना कम हो जाता है, मिठास में वृद्धि होती है तथा फल के आकार एवं रंग में सुधार होने के साथ-साथ फल के फटने की समस्या में भी कमी आती है।

 4. सिंचाई

लीची के बगीचे में अच्छी फलन एवं उत्तम गुणवत्ता के लिये मंजर आने के सम्भावित समय से तीन माह पहले से लेकर फूल में पूरी तरह से फल लगने से ठीक पहले तक लीची के बाग में सिंचाई कत्तई न करें तथा 10 वर्ष से अधिक पुराने बाग में  कोई भी अंतर फसल को नही लेना चाहिए।बाग़ की बहुत हल्की गुड़ाई साफ सफाई के दृष्टिगत कर सकते है लेकिन फूल आने के पहले से लेकर पूरी तरह से फल लग जाने से पूर्व तक सिंचाई बिल्कुल न करें,अन्यथा नुकसान हो सकता है।फूल बनने और फल लगने के लिए मिट्टी की पर्याप्त नमी महत्वपूर्ण है। मौसम की स्थिति, मिट्टी की नमी के स्तर और पेड़ों की वृद्धि अवस्था के आधार पर सिंचाई शेड्यूल को समायोजित किया जाना चाहिए।

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 5. कीट एवं रोग प्रबंधन

यदि बाग में मंजर अभी तक नही आये हो या 2 प्रतिशत से कम फूल आए हो तो उस बाग में इमिडाक्लोप्राइड @1मीली लीटर प्रति लीटर एवम घुलनशील गंधक की 2 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें । एफिड्स, माइट्स और फल छेदक जैसे कीट फूलों को नुकसान पहुंचाते हैं और फलों का बनना कम करते हैं।नियमित निगरानी से कीटों का शीघ्र पता लगाने और कल्चरल, जैविक या रासायनिक नियंत्रण उपायों का उपयोग करके समय पर हस्तक्षेप करने में मदद मिलती है।एन्थ्रेक्नोज और पाउडरी फफूंदी जैसे रोग फूलों के स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकते हैं और फलों की उपज को कम करते हैं।  लीची के बाग में माइट से ग्रसित शाखाओं को काट कर एक जगह एकत्र करके जला देना चाहिए। 

 6. परागण

लीची के फूल मुख्यतः मधुमक्खियों द्वारा कीट-परागित होते हैं।फूल आते समय पेड़  पर किसी प्रकार के किसी भी कीटनाशी दवा का छिड़काव नही करना चाहिए।फूल आते समय लीची के  बगीचे में 15 से 20 मधुमक्खी के बक्शे प्रति हेक्टेयर की दर से रखना चाहिए ,जिससे परागण बहुत अच्छा होता है ,जिससे फल कम झड़ते है एवं फल की गुणवक्ता भी अच्छी होती है एवं बागवान को अतरिक्त आमदनी प्राप्त हो जाती है।आवास संरक्षण और मधुमक्खी पालन प्रबंधन के माध्यम से मधुमक्खियों की आबादी को बनाए रखने से परागण दक्षता में वृद्धि होती है। सीमित मधुमक्खी गतिविधि वाले बगीचों में, पर्याप्त फल सेट सुनिश्चित करने के लिए मैन्युअल परागण की आवश्यकता हो सकती है।

 7. पर्यावरण प्रबंधन

फूल आने के दौरान पाले से सुरक्षा महत्वपूर्ण है, क्योंकि लीची के फूलों को पाले से क्षति होने की आशंका रहती है।ओवरहेड स्प्रिंकलर से सिंचाई करने से बाग के तापक्रम को 5 डिग्री सेल्सियस कम करने में सहायक होता है । विंडब्रेक प्रदान करने से फूलों और युवा फलों के गुच्छों को हवा से होने वाली क्षति को कम किया जा सकता है।

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 8. हार्मोनल विनियमन

जिबरेलिन और साइटोकिनिन जैसे विकास नियामकों का अनुप्रयोग फूल आने और फल लगने को प्रभावित कर सकता है। पेड़ों के स्वास्थ्य और फलों की गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव से बचने के लिए हार्मोनल उपचार के समय और एकाग्रता को सावधानीपूर्वक प्रबंधित करने की आवश्यकता है। फल लगने के एक सप्ताह बाद प्लैनोफिक्स की 1 मि.ली.  दवा को प्रति 3 लीटर की दर से पानी में घोलकर  एक छिड़काव करके फलों को झड़ने से बचाया जा सकता है। 

 9. निगरानी और मूल्यांकन

फूलों की प्रगति, फल लगने और पेड़ के स्वास्थ्य की नियमित निगरानी से प्रबंधन प्रथाओं में समय पर समायोजन संभव हो पाता है। विस्तृत रिकॉर्ड रखने से विभिन्न हस्तक्षेपों की प्रभावशीलता का मूल्यांकन करने और समय के साथ प्रबंधन रणनीतियों को परिष्कृत करने में मदद मिलती है।

सारांश 

लीची फल उत्पादन और गुणवत्ता को अधिकतम करने के लिए प्रभावी फूल प्रबंधन आवश्यक है।एक समग्र दृष्टिकोण जो कल्चरल, पोषण, कीट और रोग प्रबंधन उपायों को एकीकृत करता है जो सफलता की कुंजी है। लीची की खेती में फूल प्रबंधन रणनीतियों को अनुकूलित करने के लिए नियमित निगरानी, ​​समय पर हस्तक्षेप और निरंतर सीखना महत्वपूर्ण है। इन प्रथाओं को लागू करने से स्वस्थ लीची के पेड़, प्रचुर मात्रा में फूल और अंततः, उच्च गुणवत्ता वाले फलों की भरपूर फसल में योगदान मिलेगा।



Dr AK Singh
डॉ एसके सिंह प्रोफेसर (प्लांट पैथोलॉजी) एवं विभागाध्यक्ष,
पोस्ट ग्रेजुएट डिपार्टमेंट ऑफ प्लांट पैथोलॉजी,
प्रधान अन्वेषक, अखिल भारतीय फल अनुसंधान परियोजना,डॉ राजेंद्र प्रसाद सेंट्रल एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी, पूसा-848 125, समस्तीपुर,बिहार
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Dhania ki katai (धनिया की कटाई)

Dhania ki katai (धनिया की कटाई)

जैसा कि हम सब जानते हैं कि भारत एक उपजाऊ भूमि है यहां हर तरह की फसलें उगाई जाती हैं। उसमें से एक धनिया भी है धनिया जिसको इंग्लिश भाषा में coriander भी कहते हैं। धनिया के एक नहीं कई सारे फायदे हैं फायदे के साथ ये खाने को जायकेदार  भी बनाता है। धनिया में पाए जाने वाले तत्व जैसे डाइटरी फाइबर ,प्रोटीन ,विटामिन सी का मुख्य स्त्रोत होता है। साथ ही साथ इसमें विटामिन बी3 कैलशियम ,मैग्निशियम, मैग्नीज, आयरन आदि भी मौजूद होते हैं। आइये जानते है धनिये की कटाई के बारे में !

धनिया की कटाई (Coriander Harvesting) in Hindi:

धनिया की कटाई की प्रक्रिया कुछ इस प्रकार है जिसके द्वारा धनिया की कटाई की जाती है:
  • जब धनिया की फसल पूरी तरह से पक जाती है तो इसके सूखने के बाद इसकी खूब अच्छी तरह से तोड़ने( तुड़ाई )की प्रक्रिया को शुरू कर दिया जाता है।
  • तुड़ाई के बाद इसे खूब अच्छे साफ पानी से धोया जाता है। 30 से 40 दिन पूर्व बीत जाने के बाद।
  • धनिया की कटाई से पहले धनिया के बीज को स्टोर करना होता है। जब धनिया का पौधा भूरा रंग का हो जाए। तो ही उसे काट कर एक कागज की थैली में रख दिया जाता है।
  • थैली को आपको कहीं दीवार पर लटका कर रखना होता है। उसके पौधे को सूखने से बचाने के लिए।जब तक सारे बीच थैली में ना गिर जाए।

कुछ इस प्रक्रिया द्वारा किसान धनिया की कटाई करते है।

धनिया की गिनती मसाला वर्गीकरण फसलों में होती है (Coriander is Counted in Spice Classification Crops) in Hindi:

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  • धनिया की मांग पूरे साल मार्केट में बनी रहती है।
  • मार्केट में धनिया की लगातार मांग देते हुए। धनिया की बीज को अच्छी तरह से कंटेनर में स्टोर कर भी रखा जाता है।
  • पत्तियों को सुखाकर इसे स्टोर कर रखा जाता है।
  • धनिया को सुखाने के लिए कृषि इसे ऊंची जगह पर लटका कर रख देते है जिसके बाद धनिया अच्छे से सूख जाने के बाद कंटेनर में स्टोर हो सके।
  • धनिया की कई किस्में और इसकी बहुत सारी बीच काफी मात्रा में उपयुक्त हैं।

धनिया की फसल कितने दिन में तैयार होती है ( In How Many Days Coriander Crop is Ready) in Hindi:

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  • धनिया की फसल उगाने के लिए इसकी सिंचाई करनी होती है। जिसमें लगभग30 से 35 दिन का समय लगता है।
  • धनिया फसल की दूसरी सिंचाई का समय लगभग 50 से 60 दिन का होता है। साख फूटने के बाद यह सिंचाई की जाती है।
  • सिंचाई के बाद धनिया के फूल आना शुरू हो जाते हैं तथा बीच बनने की अवस्था शुरू हो जाती है
  • यह सभी सिंचाई करने के बाद धनिया की एक अच्छी फसल तैयार हो जाती है। 90 से 100 दिन के उपरांत आपको धनिया की अच्छी फसल की प्राप्ति होती है।

धनिया की खेती का समय ( Coriander Cultivation Time) in Hindi:

dhaniya ki kheti
  • धनिया की खेती का सही समय रबी का मौसम है।यह रबी के मौसम में बोई जाने वाली फसल है।
  • धनिया फसल की जोताई का समय 15 अक्टूबर से 15 नवंबर के बीच का होता है जब इस फसल को बोया जाता है।
  • धनिया की अच्छी हरी पत्तियों को प्राप्त करने के लिए आपको दिसंबर तक का इंतजार करना होता है।
  • धनिया को उगाने के लिए डाली जाने वाली खाद्य कृषि विशेषज्ञों के अनुसार चुनी जाती है।
  • विशेषज्ञों द्वारा खेत को तैयार करने के लिए गोबर की खाद मिट्टी में सही तरह से मिलाना होता है।
  • जिसकी मात्रा 100 से 150 कुंटल होनी चाहिए। इसकी खेती के लिए नत्रजन 80 किलोग्राम होना आवश्यक है।
  • इसमें करीब 50 किलो पोटाश तथा फास्फोरस की आवश्यकता पड़ती है।
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धनिया की फसल में सल्फर कब डालते हैं( When to Add Sulfur in Coriander Crop) in Hindi:

Coriander Crop धनिया की फसल के लिए सल्फर बहुत ही उपयोगी होते हैं। इसको किस प्रकार इस्तेमाल करना है? इसकी कितनी मात्रा में आपको सिंचाई करनी होती है? यह सभी सवालों के जवाब कुछ निम्न प्रकार है:
  • एक 1000 लीटर पानी में आपको सिर्फ 1 लीटर सल्फर मिलाकर शाम के समय फसलों पर छिड़काव करना होता है।
  • शाम के समय आपको हल्की सिंचाई करने के दौरान मेंढ के हर तरफ धुआं करना होता है।
  • यदि आपको पाला पड़ने की आशंका दिखाई दे तो आप सबसे पहले डाई मिथाइल सल्फो ऑक्साईड को 75 ग्राम की मात्रा में 1000 लीटर पानी में अच्छे से मिलाकर पूरी तरफ छिड़काव कर दें।

धनिया के फायदे (Benefits of Coriander) in Hindi

dhaniya ke fayade  धनिया एक नहीं बल्कि कई तरह से आपके लिए उपयोगी साबित है।धनिया की उपयोगिता कुछ इस प्रकार है :
  • डायबिटीज से आजकल हर व्यक्ति परेशान है। डायबिटीज से होने वाले नुकसान हमारे शरीर को कमजोर बना रहे हैं। धनिया आपके डायबिटीज को कंट्रोल करता है।
  • धनिया रामबाण है, जो आपके ब्लड शुगर को लेवल में बना कर रखता है।
  • किडनी के रोग को रोग मुक्त करने के लिए भी यह बहुत ही असरदार साबित हुआ है।
  • यदि आप बार-बार अपनी पाचन क्रिया से परेशान हैं। तो आप रोजाना धनिया का सेवन करें यह आपकी पाचन शक्ति को मजबूत बनाता है।
  • कोलेस्ट्रोल को कंट्रोल में रखता है।
  • आंखों की सुरक्षा तथा आंखों की रोशनी को बढ़ाने का भी कार्य करता है।
  • फसल की कटाई की शुरुआत उसका कद 20 से 25 होने के बाद करनी चाहिए। हरी पत्तियों को काटकर अलग कर दें।
  • आपको यह कटाई तीन से चार बार करनी होती है। पूरी कटाई हो जाने के बाद आपको 6 से 7 दिनों तक धूप में फसल को सूखने देना है।
  • धनिया की पत्तियों को चबाने से मुंह सुगंधित रहता है तथा इसको चबाने से हमारे दांतों और मसूड़ों को कई तरह के फायदे पहुंचते हैं।
  • धनिया में मौजूद मिनरल इसको और भी ज्यादा उपयोगी बनाता है।धनिया अपने बेमिसाल फायदे के लिए जानी जाती हैं।
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निष्कर्ष (Conclusion)

Dhaniya crop Conclusion हमारी इस पोस्ट द्वारा आपने धनिया की कटाई और धनिया से जुड़ी सभी आवश्यक बातों को जान लिया होगा, तो हम आपसे यह उम्मीद करते हैं।कि आप हमारी इस पोस्ट को ज्यादा से ज्यादा शेयर करें और आगे आपके जो भी सवाल हो। जानने के लिए संपर्क करें, हम उम्मीद करते हैं यह पोस्ट आपको जरूर पसंद आई होगी।
धान की उन्नत खेती कैसे करें एवं धान की खेती का सही समय क्या है

धान की उन्नत खेती कैसे करें एवं धान की खेती का सही समय क्या है

कोविड-19 के प्रभाव के चलते इस बार धान की रोपाई के लिए मजदूरों का संकट हर क्षेत्र में देखा जा सकता है। धान की सीधी बिजाई इसका श्रेष्ठ समाधान है। 

धान की खेती सीधी बुवाई कम पानी वाले, जलभराव वाले एवं वर्षा आधारित खेती वाले सभी इलाकों में की जा सकती है। 

धान तिलहन है या दलहन

धान ना तो तिलहन है ना दलहन है। दलहनी फसल में होती है जिनमें से तेल निकलता है यानी सरसों अरंडी तिल अलसी आदि। 

दलहनी फसलें वह होती है जिनकी दाल बनाई जाती है यानी चना उर्दू मून मशहूर राजमा आदि। धान अनाज है खाद्यान्न है। 

क्या है सीधी बिजाई का तरीका

धान की सीधी बिजाई गेहूं जो जैसी फसलों की तरह ही की जाती है। बिजाई के लिए धाम को नर्सरी डालने की तरह ही 12 घंटे पानी में भिगोया जाता है उसके बाद जूट के बैग में अंकुरित होने के लिए रखा जाता है।

कार्बेंडाजिम 223 जैसे किसी फफूंदी नाशक से उपचारित किए हुए इस बीच को थोड़ा खुश्क करके बो दिया जाता।

क्या है सीधी बिजाई के फायदे

इस तकनीकी से धान की फसल लगाने से उत्पादन लागत में भारी कमी आती है। 50 से 60% तक डीजल की बचत होती है। 30 से 40 फ़ीसदी श्रमिकों पर होने वाले खर्चे में बचत होती है। 

उर्वरकों के उपयोग में भी इजाफा होता है। इस तरह धान की फसल लेने से जहरीली मीथेन गैस का उत्सर्जन भी बेहद कम हो जाता है जोकि पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से अहम है। 

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कब करें धान की बुवाई

धान की खेती बुवाई मानसून आने से 10 से 15 दिन पूर्व कर देनी चाहिए। इससे पूर्व खेत को तीन से चार बार एक एक हफ्ते के अंतराल पर गहरा जोतना चाहिए। 

जुताई के बीच में अंतराल इसलिए रखना चाहिए ताकि जमीन ठीक से सीख जाए और उसमें मौजूद हानिकारक फफूंदी नष्ट हो जाएं। खेतों को कभी एक ही बार में तीन से चार बार नहीं जोतना चाहिए। 

सीधी बिजाई के लिए धान की किस्में

धान की सीधी बिजाई के लिए पूसा संस्थान की सुगंध 5, 1121, पीएचवी 71, नरेंद्र 97, एमटीयू 1010, एच यू आर 3022, सियार धान 100 किस्म प्रमुख हैं। 

बीज दर

सीधी बिजाई के लिए मोटे धान की 20 से 25 किलोग्राम बीज एवं बारीक धान की 10 से 12 किलोग्राम बीज को अंकुरित करके बोया जा सकता है। 

उर्वरक प्रबंधन

धान की सीधी बिजाई के लिए आखरी जुताई की समय 50 किलोग्राम फास्फोरस, 40 किलोग्राम पोटाश एवं 25 किलोग्राम जिंक को आखरी जुताई में मिला देना चाहिए। 

जिंक और फास्फोरस को एक साथ नहीं मिलाना चाहिए अन्यथा फास्फोरस निष्प्रभावी हो जाता है। 100 से 150 किलोग्राम नाइट्रोजन की जरूरत होती है इसकी एक तिहाई मात्रा जुताई में मिला दें बाकी फसल बढ़वार के लिए प्रयोग में लाएं। 

खरपतवार नियंत्रण

धान की सीधी बुवाई के बाद पेंडा मैथलीन दवा की एक किलोग्राम मात्रा को पर्याप्त पानी में घोलकर बुवाई के 24 घंटे के अंदर मिट्टी पर छिड़क देना चाहिए ताकि खरपतवार उगें ही नहीं। 

फसल बढ़वार के समय उगने वाले खरपतवार को मारने के लिए नॉमिनी गोल्ड दवा का छिड़काव करें।

धान की कटाई के बाद भंडारण के वैज्ञानिक तरीका

धान की कटाई के बाद भंडारण के वैज्ञानिक तरीका

हमारा देश विश्व का दूसरा सबसे बड़ा धान उत्पादक देश है। हमारे देश में 50 प्रतिशत धान का इस्तेमाल खाने के रूप में होता है। धान की खेती की देखभाल समय से नहीं करने पर काफी नुकसान होता है। विशेषज्ञों के अनुमान के अनुसार धान की फसल की बुआई, सिंचाई, कटाई, मड़ाई, गहाई और भंडारण समय और सही तरीके ने नहीं करने से उत्पादन का 10 प्रतिशत का नुकसान होता है। इसमें थोड़ी सी लापरवाही भंडारण के समय हो जाये तो यह नुकसान काफी बढ़ जाता है। इसलिये किसान भाइयों को चाहिये कि वो धान के भंडारण के समय वैज्ञानिक तरीका अपनायें तो होने वाले नुकसान से बचा जा सकता है। आइये जानते हैं कि धान के भंडारण के समय कौन-कौन सी सावधानियां बरती जानी चाहिये।

Content

  1. क्यों होती है भंडारण की आवश्यकता
  2. धान के भंडारण की प्रथम तैयारी
  3. भंडार गृह के लिए उचित स्थान
  4. भंडार गृह कैसा बनवायें
  5. कीटाणु रहित गोदाम बनवाने के लिए करें ये काम
  6. पुरानी बोरियों का इस तरह से करें इस्तेमाल
  7. कीट प्रबंधन के लिए करें ये काम
  8. बोरों को कीटाणु रहित बनाने के लिए करें ये उपाय
  9. हवा का रुख देखकर करें भंडारण

क्यों होती है भंडारण की आवश्यकता

पूरे साल पर धान यानी चावल मिलता रहे। इसके लिए धान के भंडारण की आवश्यकता होती है। इसके लिए किसान भाइयों को चाहिये कि धान का उचित तरीके से भंडारण करें। भंडारण से पूर्व नमी की मात्रा सुरक्षित कर लें। लम्बी अवधि के लिए धान के भंडारण के लिए उसमें नमी की मात्रा 12 प्रतिशत से कम नहीं होनी चाहिये। यदि कम समय के लिए भंडारण करना है तो धान में नमी का प्रतिशत 14 तक चलेगा।
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धान के भंडारण की प्रथम तैयारी

धान के भंडारण करने के लिए एक अच्छी जगह तलाश करनी चाहिये। इस स्थान पर भंडार गृह बनाने से पहले जमीन को कीटमुक्त कर लेना चाहिये। उसके बाद भंडारण की तैयारी करनी चाहिये।

भंडार गृह के लिए उचित स्थान

धान के भंडार गृह के निर्माण के लिए उचित स्थान एक ऊंची जगह होनी चाहिये।जहां पर पानी न भरता हो और बरसात आदि का पानी तत्काल निकल जाता हो। इसके साथ ही इस बात का पूरा ध्यान रखना चाहिये कि भंडार गृह में नमी व अत्यधिक गर्मी, धान नाशक कीट, चूहों तथा खराब मौसम का प्रभाव न होता हो। भंडार गृह में जमीन से 20 से 25 सेंटीमीटर की ऊंचाई पर लकड़ी से प्लेटफार्म बनाकर उसमें बोरियों की छल्लियों को लगायें ताकि जमीन से सीलन न आ सके और अनाज को नुकसान से बचाया जा सके।

 भंडार गृह कैसा बनवायें

भंडारण से पहले या बाद में भंडारित कीटों से बचाव करने के लिए भी वैज्ञानिक प्रबंध करने जरूरी हैं। भंडारण के लिए पारंपरिक रूप से विभिन्न आकारों और विभिन्न सामग्रियों के बने बड़े बड़े पात्र प्रयोग किये जाते हैं। इन्हें कोठी, कुठला आदि ग्रामीण भाषा में कहा जाता है। ये पात्र लकड़ी, मिट्टी, बांस, जूट की बोरियों, ईंटों, कपड़ों आदि उपलब्ध वस्तुओं से बनाये जाते हैं। इस तरह के पात्रों में थोडे समय के लिए धान का भंडारण किया जा सकता है जबकि लम्बे समय के लिए भंडारण करने के लिए आधुनिक भंडार गृह बनवाने चाहिये। लम्बी अवधि के लिए धान के भंडारण के लिए पूसा कोठी, धातुओं की कोठी, साइलो स्टील जैसे आधुनिक भंडारण गृह आदि का प्रयोग किया जाता है। इसमें धान को लम्बे समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है। ये भी पढ़े: धान की फसल काटने के उपकरण, छोटे औजार से लेकर बड़ी मशीन तक की जानकारी

कीटाणु रहित गोदाम बनाने के लिए करें ये काम

आम तौर पर भवनों में बनने वाले भंडार गृह में धान के बोरों के दो ढेरों के बीच उचित हवा का संचारण के लिए पर्याप्त जगह उपलब्ध करानी चाहिये। साफ मौसम के दौरान उचित हवा संचारण होनी चाहिये जबकि वर्षा के मौसम से इससे बचना चाहिये। गोदाम मं धान या चावल के सुरक्षित भंडारण से पहले उसे उपयुक्त धुआं देकर कीटाणु रहित करना चाहिये। भंडार गृह को अच्छीतरह से साफ कर लेना चाहिये। वहां पर पुराने दाने नहीं रहने देना चाहिये। भंडार गृह की दरारों व छेदों को अच्छी तरह से भर देना चाहिये।

पुरानी बोरियों का इस तरह से करें इस्तेमाल

भंडारण के दौरान धान के नुकसान को कम करने के लिए रोगमुक्त बीट्वील पटसन के थैलों में सूखे हुए धान रखने चाहिये। केवल नयी व सूखी बोरियों का ही धान को रखने में प्रयोग करना चाहिये। यदि पुरानी बोरियों में ही धान की फसल को रखा जाना जरूरी हो तब उस दशा में पुरानी बोरियों को एक प्रतिशत मालाथियान के उबलते हुए घोल में 3 से 4 मिनट तक भिगोएं और फिर उसको धूप में अच्छी तरह से सुखा कर उसमें धान को रखें। यदि विद्युत चालित यंत्र से भी बोरियों को सुखाया जा सकता है तो उसे सुखा लें लेकिन यह तय कर लें कि उनमे नमी न रह जाये।

कीट प्रबंधन के लिए करें ये काम

भंडारण गृह में कीट प्रबंधन करना बहुत जरूरी होता है। इसके लिए गोदाम में साधारण मौसम में प्रत्येक 15 दिन में प्रति 100 वर्ग मीटर क्षेत्र में मालाथियान (Malathiyan) (50 प्रतिशत ईसी) 10 लीटर पानी में एक लीटर मिलाकर छिड़काव करना चाहिये। सर्दियों के दिनों मे इस तरह के घोल का छिड़काव 21 दिन में एक बार अवश्य कर देना चाहिये।
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यदि किसी कारण से मालाथियान न मिल सके तो उसकी जगह पर किसान भाई 40 ग्राम डेल्टामेथ्रिन (Deltamethrin) (2.5 प्रतिशत) चूरन को एक लीटर पानी में मिलाकर  तीन महीने में प्रत्येक 100 वर्ग मीटर के क्षेत्र में छिड़काव करना चाहिये। इसके अलावा डीडीवीपी (DDVP) (75 प्रतिशत ईसी) () को 150 लीटर पानी में एक लीटर मिलाकर छिड़काव करना चाहिये। इन दोनों कीटनाशकों का छिड़काव करते वक्त इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि इनका छिड़काव प्रति 100वर्ग मीटर में कम से कम तीन लीटर हो।

बोरों को कीटाणु रहित बनाने के लिए करें ये उपाय

गोदाम या भंडार गृह में बोरियों में धान की फसल को रखने से पहले दूसरी जगह पर बोरों का धूम्रीकरण कर देना चाहिये। उसके बाद 5 से 7 दिनों के लिए 9 ग्राम प्रति मीट्रिक टन के हिसाब से एलुमिनियम फास्फाइड (Aluminium Phosphide) से धुआं दें। केवल पॉलीथिन से ढके गोदाम में किसान भाइयों को चाहिये कि धान की बोरियों में एलुमिनियम फास्फाइड से 10.8 ग्राम प्रति मीट्रिक टन की दर से धूम्रीकरण करें। पुरानी व नई बोरियों को अलग-अलग रखें और उनमें साफ सफाई का पूरा ध्यान रखें। जिससे दानों में किसी प्रकार का रोग न लग सके।

हवा का रुख देखकर करें भंडारण

धान का भंडारण करते समय हवा के रुख को ध्यान से देखना चाहिये। यदि पुरवैया हवा चल रही हो तब धान की फसल का भंडारण नहीं करना चाहिये।
फसल उत्पादकता को बढ़ाने के लिए मई माह में कृषि से संबंधित महत्वपूर्ण कार्य

फसल उत्पादकता को बढ़ाने के लिए मई माह में कृषि से संबंधित महत्वपूर्ण कार्य

कृषि में अच्छी उत्पादकता के लिए कुछ जरूरी बातों का ध्यान रखना होता है। सबसे पहले जुताई किसी भी फसल की खेती के लिए सर्वप्रथम कार्य है। 

फसल की पैदावार खेत की जुताई पर आश्रित होती है। क्योंकि, अब रबी फसलों की कटाई का कार्य तकरीबन पूर्ण हो चुका है। 

अब ऐसे में किसान खरीफ सीजन की खेती की तैयारियों में जुट गए हैं। रबी फसल की कटाई के पश्चात खेत बिल्कुल खाली हो जाते हैं।

परंतु, खरीफ सीजन की खेती शुरू करने से पहले किसानों को ग्रीष्मकालीन जुताई अवश्य कर लेनी चाहिए। जमीन की उर्वरता को बढ़ाने के लिए ये काफी जरूरी है। 

इससे फसल उपज में काफी लाभ मिलता है। जानिए जुताई क्यों आवश्यक है। रबी फसल की कटाई के पश्चात खेत खाली हो जाते हैं। 

वहीं, गर्मी में खाली खेत पानी की कमी की वजह से सख्त हो जाते हैं, जिससे बचने के लिए खेत की ग्रीष्मकालीन जुताई अत्यंत आवश्यक है। कृषि वैज्ञानिकों की मानें तो खेत में केमिकल फर्टिलाइजेशन से भूमि के 6 इंच तक मृदा सख्त हो जाती है।

खरीफ के सीजन में कल्टीवेटर से जुताई करने पर खेत में 3 इंच तक ही जुताई हो पाती है। इससे खेत की कड़ी मिट्‌टी टूटती नहीं और जड़ों का विकास नहीं हो पाता है। इसके लिए कृषकों को गर्मी के मौसम में एक बार ग्रीष्मकालीन जुताई करनी अत्यंत आवश्यक है।

किस महीने में ग्रीष्मकालीन जुताई करनी चाहिए

ग्रीष्मकालीन जुताई करने का सबसे अनुकूल वक्त मई माह होता है। इस मौसम में तापमान काफी ज्यादा होता है। इस दौरान जमीन के अंदर कीड़े मकोड़े घर बना लेते हैं। 

साथ ही, जुताई करने से मृदा पलटती है, जिससे कीड़ों के साथ उनके अंडे और घर चौपट हो जाते हैं। इससे वो आगे खरीफ की फसल को हानि नहीं पहुंचा पाते। साथ-साथ जुताई के पश्चात मृदा के अंदर हवा का संचार होता है।

ग्रीष्मकालीन जुताई कितनी गहराई तक करनी चाहिए ?

ग्रीष्मकालीन जुताई जमीन में 6 इंच तक करनी आवश्यक है। बतादें, कि किसी भी फसल के जड़ का विकास 6 से 9 इंच तक होगा, जिससे फसल अच्छी तरह तैयार होती है। 

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इसके लिए किसान ट्रैक्टर के साथ दो हल वाले एमपी फ्लाई, डिस फ्लाई, क्यूचिजन फ्लाई मशीन के हल का उपयोग कर सकते हैं। इससे खेत में 6 इंच तक गहरी जुताई हो जाती है। जुताई करने पर बारिश होने के बाद खेत में पानी ठहरता है, जिससे मृदा में नमी बनी रहती है।

ग्रीष्मकालीन जुताई के क्या-क्या फायदे हैं ?

ग्रीष्मकालीन जुताई से मृदा में कार्बनिक पदार्थों की वृद्धि होती है। मिट्टी के पलट जाने से जलवायु का असर सुचारू रूप से मृदा में होने वाली प्रतिक्रियाओं पर पड़ता है। 

वहीं, वायु और सूर्य के प्रकाश की मदद से मिट्टी में विद्यमान खनिज ज्यादा सुगमता से पौधे के भोजन में परिणित हो जाते हैं। 

ग्रीष्मकालीन जुताई कीट एवं रोग नियंत्रण में सहायक है। हानिकारक कीड़े तथा रोगों के रोगकारक भूमि की सतह पर आ जाते हैं और तेज धूप से खत्म हो जाते हैं।

ग्रीष्मकालीन जुताई मृदा में जीवाणु की सक्रियता को काफी बढ़ाती है। यह दलहनी फसलों के लिए भी काफी ज्यादा उपयोगी है। ग्रीष्मकालीन जुताई खरपतवार नियंत्रण में भी मददगार है। 

कांस, मोथा आदि के उखड़े हुए हिस्सों को खेत से बाहर फेंक देते हैं। अन्य खरपतवार उखड़ कर सूख जाते हैं। खरपतवारों के बीज गर्मी व धूप से नष्ट हो जाते हैं।

बारानी खेती वर्षा पर निर्भर करती है अत: बारानी परिस्थितियों में वर्षा के पानी का अधिकतम संचयन करने लिए ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई करना नितान्त आवश्यक है। 

अनुसंधानों से भी यह साफ हो चुका है, कि ग्रीष्मकालीन जुताई करने से 31.3 प्रतिशत बरसात का पानी खेत में समा जाता है। ग्रीष्मकालीन जुताई करने से बरसात के पानी द्वारा खेत की मिट्टी कटाव में भारी कमी होती है।

अर्थात् अनुसंधान के परिणामों में यह पाया गया है कि गर्मी की जुताई करने से भूमि के कटाव में 66.5 फीसद तक की कमी आती है। 

ग्रीष्मकालीन जुताई से गोबर की खाद व अन्य कार्बनिक पदार्थ जमीन में बेहतर तरीके से मिल जाते हैं, जिससे पोषक तत्व जल्द ही फसलों को उपलब्ध हो जाते हैं।

फसलों की कटाई और सफाई के लिए उपयोगी 4 कृषि यंत्रों की विशेषताऐं और लाभ

फसलों की कटाई और सफाई के लिए उपयोगी 4 कृषि यंत्रों की विशेषताऐं और लाभ

वर्तमान की बात करें तो किसानों के खेतों में रबी की फसलें लहला रही हैं और जल्द ही इनकी कटाई की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाएगी। ऐसे में किसानों को राहत दिलाने के लिए हम 4 कृषि यंत्रों (4 Farm Machinery ) की जानकारी देने जा रहे हैं। इनका उपयोग करके किसान फसल अवशेषों से भूसा बनाने का कार्य सहजता से कर सकते हैं। इन यंत्रों से किसानों की लागत भी कम आएगी। साथ ही, कटाई का कार्य भी शीघ्रता से हो सकेगा।

फसलों की कटाई के लिए उपयोगी 4 कृषि यंत्र

  • स्ट्रॉ रीपर मशीन 
  • रीपर बाइंडर मशीन 
  • कंबाइन हार्वेस्टर मशीन 
  • मल्टीक्रॉप थ्रेशर मशीन 

स्ट्रॉ रीपर मशीन 

स्ट्रॉ रीपर एक ऐसी कटाई मशीन है, जो एक ही बार में पुआल को काटती है, थ्रेस करती है एवं साफ करती है। स्ट्रॉ रीपर को ट्रैक्टरों के साथ जोडक़र इस्तेमाल किया जाता है। इसके इस्तेमाल से ईंधन की खपत काफी कम होती है। इस यंत्र पर कई राज्य सरकारों की तरफ से सब्सिडी का फायदा भी किसानों को प्रदान किया जाता है।

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विशेषताएं और लाभ

स्ट्रॉ रीपर मशीन की कीमत बहुत ज्यादा नहीं होती है, इसलिए इस कृषि यंत्र को छोटे और बड़े, दोनों किसान सुगमता से इस्तेमाल कर सकते हैं। इस मशीन के उपयोग से फसल काटने पर कई तरह के फायदे किसानों को मिलते हैं, जैसे गेहूं के दानों के साथ-साथ भूसा भी मिल जाता है। यह भूसा पशुओं के चारे के काम में आता है। इसके अतिरिक्त जो दाना मशीन से खेत में रह जाता है, उसको ये मशीन सहजता से उठा लेती है। जिसको किसान अपने पशुओं के लिए दाने के रूप में प्रयोग कर लेते हैं।

रीपर बाइंडर मशीन 

रीपर बाइंडर मशीन का इस्तेमाल फसल की कटाई के लिए किया जाता है। यह मशीन फसल की कटाई करने के साथ – साथ रस्सियों से उनका बंडल भी बनाती है। रीपर बाइंडर की मदद से 5 – 7 से. मी. ऊँची फसल की कटाई आसानी से की जा सकती है। इस यंत्र की सबसे बड़ी खासियत यह है, कि इस मशीन से गेहूं, जौ, धान, जेई और अन्य फसलों की आसानी से कटाई कर बंडल बना सकते है।

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विशेषताएं और लाभ 

रीपर बाइंडर के इस्तेमाल से फसल कटाई का काम आसानी से पूरा किया जा सकता है। इसके इस्तेमाल से धन, समय और मजदूरी सभी की बचत होती है। रीपर बाइंडर मशीन एक घंटे में एक एकड़ जमीन पर खड़ी फसल को काट सकती है। इस मशीन के इस्तेमाल से फसल कटाई के अतिरिक्त उनका बंडल भी निर्मित किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त सबसे बड़ी विशेषता है, कि इसका उपयोग बारिश के मौसम में भी किया जा सकता है। फसल के अतिरिक्त खेतों में उगने वाली झाडियों की भी सहजता से कटाई की जा सकती है। रीपर बाइंडर को एक स्थान से दूसरे स्थान पर लेकर जाना आसान होता है। 

कंबाइन हार्वेस्टर मशीन 

कंबाइन हार्वेस्टर मशीन से एक साथ कटाई तथा सफाई का कार्य किया जा सकता है। इस मशीन की सहायता से सरसों, धान, सोयाबीन, कुसुम आदि की कटाई और सफाई का कार्य कर सकते हैं। इसमें समय और लागत दोनों ही बहुत कम लगती है।

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विशेषताएं और लाभ 

कंबाइन हार्वेस्टर मशीन का प्रयोग कर लागत और समय की बचत की जा सकती है। इससे फसल की कटाई से लेकर फसल के दानों की सफाई तक का काम किया जाता है। इसके उपयोग से मृदा की उर्वरक क्षमता बढ़ती है। इस मशीन के इस्तेमाल से किसान प्राकृतिक आपदाओं से होने वाली हानि से बच सकते हैं और वक्त रहते फसलों की कटाई कर सकते हैं। कंबाइन हार्वेस्टर मशीन से किसान खेत में आड़ी-तिरछी पड़ी फसल को भी काट सकते हैं।

मल्टीक्रॉप थ्रेशर मशीन 

यह मशीन किसानों के लिए एक बहुत बड़ी उपयोगी मशीन मानी जाती है। मल्टीक्रॉप थ्रेशर मशीन से बाजरा, मक्का, जीरा, डालर चना, सादा चना, देशी चना, ग्वार, ज्वार मूंग, मोठ, ईसबगोल, मसूर, राई, अरहर, मूंगफली, गेहूं, सरसों, सोयाबीन और तुअर जैसी फसलों के दाने साफ-सुथरे तरीके से निकाले जाते हैं। इस मशीन के इस्तेमाल से फसल के दाने और भूसे को भिन्न-भिन्न करने के लिए उपयोग किया जाता है। 

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विशेषताएं और लाभ

मल्टीक्रॉप थ्रेशर मशीन की मुख्य विशेषता है, कि इसके उपयोग से फसल की कटाई कर अनाज और भूसे को अलग किया जाता है। यह मशीन फसलों के दाने को साफ-सुथरे ढ़ंग से अलग करता है। मल्टीक्रॉप थ्रेशर मशीन को एक स्थान से दूसरे स्थान पर आसानी से ले जाया जा सकता है।  खेतों में जहाँ मशीन नहीं पहुँच सकती है, वहाँ हाथ का रीपर मशीन का इस्तेमाल किया जाता है।

गेहूं कटाई के बाद खेत की जुताई के लिए आधुनिक कृषि यंत्र

गेहूं कटाई के बाद खेत की जुताई के लिए आधुनिक कृषि यंत्र

आधुनिकता के चलते भारतीय कृषि क्षेत्र में बैलों की जगह कई प्रकार के कृषि यंत्रो और मशीनों ने ले ली है। उपकरण खेती के बहुत सारे बड़े से बड़े कार्यों को आसान बनाते हैं। 

साथ ही, लागत को भी कम करने का कार्य करते हैं। बुवाई से लगाकर कटाई तक के कार्यों को सुगम बनाने में कृषि यंत्र अपनी अहम भूमिका निभाते हैं। बुवाई के लिए खेत को तैयार करने के लिए किसान ट्रैक्टर द्वारा रोटावेटर या कल्टीवेटरका इस्तेमाल करते हैं। 

ये उपकरण मिट्टी की उपरी परत की हल्की जुताई करते हैं, जिससे बुवाई करना काफी सरल हो जाता है। आइए जानते हैं जुताई के लिए कुछ महत्वपूर्ण और लाभदायक कृषि यंत्रों के बारे में। 

मोल्ड बोर्ड हल 

मोल्ड बोर्ड हल को किसानों के बीच मिट्टी पलट हल के नाम से भी जाना व पहचाना जाता है। मिट्टी की उर्वरा शक्ति को बनाये रखने के लिए जरूरी है कि इसे पलटा जाये। 

मिट्टी पलटने तथा खरपतवार को नीचे दबाने के लिए मोल्ड बोर्ड हल (Mould Board Plough) ज्यादा गहरी जुताई करते हैं। मिट्टी को भी पलटते हैं, जिससे सतह पर मौजूद खर-पतवार और अन्य फसल अवशेष बेहतर तरीके से दब जाते हैं। 

बतादें, कि 2 फाल वाले प्लाऊ को संचालित करने के लिए ट्रैक्टर की हॉर्स पावर 35 से 45 हॉर्स पॉवर होनी चाहिए। इस प्लाऊ की कार्य क्षमता 1.5 हेक्टेयर तक प्रति दिन होती है। 

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साथ ही, 3 फाल वाले प्लाऊ को चलाने के लिए ट्रैक्टर की हॉर्स पावर 40 से 50 एचपी होनी चाहिए। इस हल के साथ किसान 2 हेक्टेयर तक प्रति दिन कार्य कर सकते हैं। 

इस कृषि उपकरण का इस्तेमाल गर्मी के मौसम में खेत की गहरी जुताई के लिए, ढैचा/सनई आदि हरी खाद वाली फसल को मिट्टी में पलटकर मिलाने के लिए भी किया जाता है। 

डिस्क प्लाऊ

डिस्क प्लाऊ  (Disc Plough) भी एक मिट्टी पलटने वाला हल है और यह मोल्ड बोर्ड हल की अपेक्षा ज्यादा गहराई तक जुताई करने में सक्षम होता है। किसान इस यंत्र का इस्तेमाल भारी मृदा को पलटने के लिए करते हैं। इसमें आपको दो या तीन फाल देखने को मिल सकते हैं।

खेतों में ज्यादा खरपतवार और गहरे फसल अवशेष को काटने तथा पलटने में इस यंत्र का इस्तेमाल किया जाता है। ट्रैक्टर की क्षमता के अनुसार इस यंत्र से 40 से 50 सेंटीमीटर की गहराई तक जुताई की जा सकती है। इस कृषि यंत्र की कार्य क्षमता प्रतिदिन 1.5 से 2 हेक्टेयर है। 

चिसेल प्लाऊ 

चिसेल हल (Chisel Plough) बिना सतह वाली मृदा को अस्त व्यस्त किये और सतह पर मौजूद फसल अवशेषों को यथावत रखते हुए बहुत गहरी चीरे लगाई जा सकती हैं। इस यंत्र के साथ 1 मीटर की गहराई तक जुताई कर सकते हैं। 

ऐसा करने से स्थाई तौर पर सतह के नीचे की जल निकासी सुनिश्चित की जा सकती है। मिट्टी पलट हलों के मुकाबले में चिजेल हल के इस्तेमाल से मिट्टी की सतह पर किसी तरह का कार्य नहीं किया जाता है, जिससे हवा या पानी की वजह मिट्टी के कटाव को रोका जा सकता है। 

लेजर लैंड लेवलर 

खेत की जुताई और सिंचाई करने से जमीन असमतल हो जाती है, जिससे मृदा के पोषक तत्व का असामान्य वितरण और सिंचाई जल में वृद्धि जैसी दिक्कतें खड़ी होने लग जाती हैं। 

समय-समय पर खेत के समतलीकरण की आवश्यकता को सटीक और कम में वक्त में पूरा करने के लिये लेजर लैंड लेवलर (Laser Land Leveler) का इस्तेमाल किया जाता है। इस मशीन में लेजर किरणों की सहायता से पीछे लगे बकेट को काबू करके जमीन को एकसार किया जा सकता है। 

सुगंधित धनियां लाए खुशहाली

सुगंधित धनियां लाए खुशहाली

धनियां मसालों और आमतौर पर हर घर में उपयोग में लाया जाता है। इसके पत्तों की महक किसी भी सब्जी के जायके में चार चांद लगाने का काम करती है। इसमें अनेक ओषधीय गुण भी हैं। इसके चलते इसकी खेती बेहद लाभकारी है। इसकी खेती देश के आधे से हिस्से में कम कहीं ज्यादा होती है। इसकी खेती के लिए भी बलुई दोमट मिट्टी अच्छी रहती है। बेहतर जल निकासी वाली जमीन में धनियां लगाया जाना उचित होता है। धनियां को कतर कर बेचना एवं जड़ सहित बेचने की प्रक्रिया मंडियों के अनुरूप अपनाएं। 

धनियां की किस्में

 

 वर्तमान दौर में किसी भी खेती के लिए उस इलाके के चिए संस्तुत किस्मों का चयन बेहद जरूरी है। राजस्थान के कोटा अदि में धनियां की अच्छी खेती होती है। वहां की किस्में भी कई गर्म इलाकों में बेहद अच्छी सुगंध और उत्पादन दानों दे रही हैं। इसके अलावा गुजरात धनियां 1 व 2, पंत धनियां 1, मोरोक्कन, सिमपो एस 33, ग्वालियर 5365, जवाहर 1, सीएस 6, आरसीआर 4, सिंधु, हरीतिमा, यूडी 20 साहित अनेक किस्में बाजार में मौजूद हैं। किसानों को सलाह दी जाती है कि वह किसी भी नई खेती को करने से पूर्व अपने जनपद के कृषि या उद्यान अधिकारी या कृषि विज्ञान केन्द्रों के विशेषज्ञों से संपर्क करें ताकि उन्हें उचित जानकारी प्राप्त हो सके।

धनियां की खेती के लिए जमीन की सिंचाई कर तैयार करें। इससे पूर्व सड़ी हुई गोबर की खाद खेत में जरूर डालें। धनियां की बिजाीई हेतु 5-5 मीटर की क्यारियां बना लें, जिससे पानी देने में और निराई-गुड़ाई का काम करने में आसानी रहे। 

बुवाई का समय

 

 धनिया की फसल के लिए अक्टुंबर से नवंबर तक बुवाई का उचित समय रहता है। बुवाई के समय अधिक तापमान रहने पर अंकुरण कम हो सकता है। बुवाई का निर्णय तापमान देख कर करें। क्षेत्रों में पला अधिक पड़ता है वहां धनिया की बुवाई ऐसे समय में न करें, जिस समय फसल को अधिक नुकसान हो।

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बीजदर व बीजोपचार

 

 धनियां का 15 से 20 किलोग्राम बीज पर्याप्त होता है। बीजोपचार के लिए दो ग्राम कार्बेंडाजिम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करें। बुवाई से पहले दाने को दो भागों में तोड़ देना चाहिए। ऐसा करते समय ध्यान दे अंकुरण भाग नष्ट न होने पाए और अच्छे अंकुरण के लिए बीज को 12 से 24 घंटे पानी में भिगो कर हल्का सूखने पर बीज उपचार करके बोएं। सिंचित फसल में बीजों को 1.5 से 2 सेमी. गहराई पर बोना चाहिए, क्योंकि ज्यादा गहरा बोने से सिंचाई करने पर बीज पर मोटी परत जम जाती हैं, जिससे बीजों का अंकुरण ठीक से नहीं हो पाता हैं।

खरपतवार नियंत्रण

धनिये में शुरूआती बढ़वार धीमी गति से होती हैं इसलिए निराई-गुड़ाई करके खरपतवारों को निकलना चाहिए। सामान्यतः धनिये में दो निराई-गुड़ाई पर्याप्त होती है। पहली निराई-गुड़ाई के 30-35 दिन पर व दूसरी 60 दिन पर अवश्य करेंं। खरपतवार नियंत्रण के लिए पेन्डीमिथालीन 1 लीटर प्रति हेक्टेयर 600 लीटर पानी में मिलाकर अंकुरण से पहले छिड़काव करें। ध्यान रखें कि छिड़काव के समय भूमि में पर्याप्त नमी होनी चाहिए और छिड़काव शाम के समय करें।

नींबू की खेती की सम्पूर्ण जानकारी

नींबू की खेती की सम्पूर्ण जानकारी

किसान भाइयों नींबू का इस्तेमाल दवाओं, सौंदर्य प्रसाधनों व टूथपेस्ट, साबुन आदि के निर्माण में किया जाता है। इसलिये इसकी व्यावसायिक खेती करके कमाई की जा सकती है। दूसरी बात यह है कि नीबू कम उपजाऊ वाली मिट्टी में कहीं भी उगाया जा सकता है। नीबू की खेती में शुरुआत में जो लागत लगती है, वही लगती है, उसके बाद तो इसकी फसल 10-15 साल तक साल में दो या तीन बार तक होती है। इसलिये इसकी खेती फायदेमंद होती है। आइये जानते हैं नींबू की खेती के बारे में |

मिट्टी एवं जलवायु

नींबू के पौधे के लिए बलुई, दोमट मिट्टी सर्वोत्तम मानी गयी है। इसके अलावा लाल लेटराईट मिट्टी में भी नीबू उगाया जा सकता है। नीबू की खेती अम्लीय या क्षारीय मिट्टी में भी की जा सकती है। इसे पहाड़ी क्षेत्रों में भी उगाया जा सकता है। नीबू के पौधे को सर्दी और पाला से बचाने की जरूरत होती है।  4 से 9 पीएच मान वाली मृदा में नीबू की खेती की जा सकती है। नींबू के पौधे के लिए अर्ध शुष्क जलवायु सबसे अच्छी होती है। जहां पर सर्दियां अधिक पड़तीं हैं या पाला पड़ता है, वहां पर नीबू की खेती में पैदावार कम होती है, क्यों अधिक सर्दी पड़ने से नीबू के पौधे का विकास रुक जाता है।  इसलिये भारत में नीबू की सबसे अधिक खेती उष्ण जलवायु वाले दक्षिण भारत के प्रदेशों में होती है। उत्तर भारत के पंजाब,हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार,राजस्थान में नीबू की खेती की जाती है लेकिन जिस वर्ष सर्दियों में अधिक सर्दी पड़ती है, उस सीजन में नीबू की पैदावार बहुत कम होती है। नींबू की उन्नत किस्में

नींबू की उन्नत किस्में

नींबू की अधिक पैदावार देने वाली उन्नत किस्मों में कुछ इस प्रकार हैं:-
  1. कागजी नींबू : इस नीबू में 52 प्रतिशत रस होता है।
  2. प्रमालिनी : इस किस्म के नींबू के फलों में 57 प्रतिशत रस होता है।
  3. विक्रम या पंजाबी बारहमासी : इस किस्म की खास बात है कि इसके फल गुच्छे के रूप में आते हैं और प्रत्येक गुच्छे में 10-10 नींबू तक आते हैं।
  4. चक्रधर: बीज रहित नींबू में रस की मात्रा सबसे अधिक 60 से 66 प्रतिशत तक होती है।
  5. पी के एम-1: इस किस्म के नींबू में रस की मात्रा तो 52 प्रतिशत ही होती है लेकिन फल का आकार बहुत बड़ा होता है।
  6. साई सरबती : पतले छिल्के और बीज रहित किस्म के नींबू की फसल पहाड़ी इलाकों के लिए उपयुक्त मानी जाती है। यह नींबू असम के पर्वतीय क्षेत्रों में अधिक होता है। इसका उत्पादन अन्य किस्मों की फसलों से दो गुना होता है।

खेत की तैयारी कैसे करें

मैदानी इलाकों में खेतों की अच्छी तरह से जुताई करनी होती है। खेत को समतल बनाना चाहिये ताकि खेत में कहीं भी जल जमाव न हो। पर्वतीय इलाकों में खेतों को तैयार करने के बाद उनमें मेड़ बनाकर नींबू के पौधे लगाने चाहिये। जमीन की जुताई करने के बाद खेत में गोबर की खाद डाल दें, उसके बाद फिर जुताई करके खेत को रोपाई के लिए छोड़ दें। एक सप्ताह तक खेत को अच्छी धूप लगने के बाद उसमें नीबू के पौधे की रोपाई के लिए गड्ढे बनाने चाहिये। प्रति हेक्टेयर 500 पौधे लगाने के लिए चार गुणा चार मीटर के अंतर से गड्ढे बनाने चाहिये। अधिक उपजाऊ मिट्टी में पौधों की दूरी 5 गुणा 5 मीटर रखना चाहिये। पौध लगाने के लिए दो फिट गहरा, दो फिट वर्गाकार का गड्ढा होना चाहिये।

बिजाई, रोपाई और उचित समय

किसान भाइयों नींबू की बिजाई यानी बीज की बुआई भी की जा सकती है। नींबू के पौधों की रोपाई भी की जा सकती है। दोनों विधियों से बुआई की जा सकती है। पौधों रोप कर नींबू की खेती जल्दी और अच्छी होती है तथा इसमें मेहनत भी कम लगती है जबकि बीज बोकर बुआई करने से समय और मेहनत दोनों अधिक लगते हैं। खेत में उन्नत किस्म की फसल लेनी हो और उसकी पौध न मिल रही हो तब आपको बीज बोकर ही खेती करनी चाहिये। ये भी पढ़े: बिजाई से वंचित किसानों को राहत, 61 करोड़ जारी नींबू का पौधा जून से अगस्त के बीच लगाया जाना चाहिये। यह मौसम ऐसा होता है जिसमें नींबू का पौधा सबसे तेजी से बढ़ता है। इस दौरान बारिश का पानी भी पौधे को मिलता है। दूसरा पौधे की बढ़वार के लिए सबसे उपयुक्त तापमान इस समय होता है। नींबू की खेती कैसे करें?

सिंचाई प्रबंधन

नींबू के पौधे को अधिक पानी की जरूरत नहीं होती है। किसान भाइयों इसका मतलब यह नहीं कि नींबू के पौधे की सिंचाई ही नहीं करनी है। वर्षाकाल में बारिश न हो तो 15 दिन के अंतराल में सिंचाई करनी चाहिये लेकिन यह सिंचाई हल्की होनी चाहिये जिससे भूमि में 6-8 प्रतिशत तक नमी बनी रहे। सर्दियों में पाला व सर्दी से बचाने के लिए एक सप्ताह मे एक बार पानी अवश्य देना चाहिये। इसके अलावा पौधे में कलियां आती दिखाई दें तब पानी देने की जरूरत है। उसे बाद पानी को रोक देना चाहिये। जड़ों में अधिक पानी होने के कारण फूल हल्के किस्म के आते हैं और वे झड़ जाते हैं। जिससे पैदावार पर सीधा असर पड़ता है।

खाद एवं उर्वरक प्रबंधन

नींबू के पौधों कों खेत में लगाने के बाद गोबर की खाद देनी होती है। पहले साल गोबर की खाद प्रति पौधे के हिसाब से 5 किलो देनी चाहिये। दूसरे साल 10 किलो पौधा गोबर की खाद देना चाहिये। इसी अनुपात में गोबर की खाद को तब तक बढ़ाते रहना चाहिये जब तक उसमें फल न आने लगें। इसी तरह खेत में यूरिया भी पहले साल 300 ग्राम देनी चाहिये। दूसरे साल 600 ग्राम देनी चाहिये। इसी अनुपात में इसको भी बढाते रहना चाहिये। यूरिया की खाद को सर्दी के महीने में देना चाहिये तथा पूरी मात्रा को दो या तीन बार में पौधें में डालें।

पौधों की देखभाल

नींबू के पौधों की देखभाल भी करनी होती है। कोई पौधा एक ही शाखा से सीधा बढ़ रहा है तो उसका प्रबंधन करना चाहिये। तीन चार महीने में पौधों की जड़ों के पास निराई गुड़ाई करते रहना चाहिये। एक साल में एक बार पौधों के आसपास की मिट्टी निकाल कर उसमें गोबर की खाद भरना चाहिये। जब पौधों पर फल-फूल न हों तब सूखी टहनियों को हटा देना चाहिये।

कीट-रोग नियंत्रण

नींबू कीट-रोग नियंत्रण किसान भाइयों नींबू के पौधों में कई प्रकार के कीट व रोग लगते हैं। जिससे फसल का बहुत नुकसान होता है। आइये देखते हैं कि इसका प्रबंधन किस प्रकार से करना होता है।
  1. कैंकर रोग: इस रोग के संकेत मिलने पर किसान भाइयों को पौघों पर स्ट्रेप्टोमाइसिल सल्फेट का छिड़काव 15 दिन में दो बार करना चाहिये। इससे काफी फायदा मिलता है।
  2. कीट रोग नियंत्रण: कीटों से होने वाले रोगों पर नियंत्रण के लिए एन्थ्रेकनोज के मिश्रण का छिड़काव करने से नियंत्रण होता है। इसके छिड़काव से मुख्य रोगों के अलावा अन्य कई तरह के कीट रोग पर भी काबू पाया जा सकता है।
  3. गोंद रिसाव रोग: गोंद रिसाव का रोग खेत में पानी भर जाने के कारण होता है। जड़ें गलने लगतीं हैं और पौधा पीला पड़ने लगता है। सबसे पहले तो खेत से पानी को निकाला जाना चाहिये। उसके बाद मिट्टी में 0.2 प्रतिशत मैटालैक्सिल, एमजेड-72 और 0.5 प्रतिशत ट्राइकोडरमा विराइड मिलाकर पौधों में डालने से लाभ मिलता है।
  4. काले धब्बे का रोग: यह रोग फल को लगता है। धब्बे नजर आते ही पेड़ को पानी से साफ कर देना चाहिये। सफेद तेल और कॉपर कोमिक्स करके पानी में मिलाकर पौधों पर छिड़काव करना चाहिये।
  5. धफडी रोग्: इस रोग से नींबू पर सिलेटी रंग की परत जम जाती है। इससे नीबू खराब हो जाता है। इससे फसल को बचाने के लिए भी सफेद तेल व कॉपर छिड़काव करना चाहिये। इससे काफी लाभ होता है।
  6. रस चूसने वाले कीट: नींबू के पेड़ की शाखाओं और पत्तियों का रस चूस कर खत्म करने वाले कीट सिटरस सिल्ला, सुरंगी, चेपा को नियंत्रण के लए मोनोक्राटोफॉस का छिड़काव पौधों पर करना चाहिये। पौधों की शाखाएं रोग से सूख गर्इं हों तो उन्हें तत्काल काट कर जला दें ताकि यह रोग और न बढ़ सके।
  7. सफेद धब्बे का रोग : इस रोग में पौधों के ऊपरी भाग में रुई जैसी जमी दिखाई देती है। इससे पत्तियां मुड़कर टेढ़ी-मेढ़ी होने लगतीं हैं। बाद में इसका सीधा असर फल पर पड़ता है। इसलिये जैसे ही इस रोग का पता चले तभी प्रभावित पत्तियों को हटा कर जला दें। रोग बढ़ने पर कार्बेनडाजिम का छिड़काव महीने में तीन या चार बार करें। काफी लाभ होगा।
  8. आयरन व जिंक की कमी को नियंत्रण करें: कभी कभी मिट्टी में जिंक व आयरन की कमी के कारण पौधों की बढ़वार रुक जाती है और पत्तियां पीलीं पड़कर गिरने लगतीं हैं। इस रोग के लगने पर गोबर की खाद दें तथा दो चम्मच जिंक 10 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें। इससे फायदा होगा।

फसल की कटाई कैसे करें

किसान भाइयों नींबू की फसल तीन या चार साल बाद तैयार होती है। नींबू का फल गुच्छे में आता है। गुच्छे का कोई नींबू पहले पक कर पीला हो जाता है और कुछ हरे रह जाते हैं। ऐसी स्थिति अक्सर फूल आने के लगभग चार महीने बाद आती है। उस समय आपको गुच्छों से पके हुए फल चुनकर तोड़ने चाहिये। ध्यान रखें कि हरे फल न टूटें। फलों को तोड़ने के बाद उनकी अच्छी तरह से सफाई कर लें। सफाई करने के लिए एक लीटर पानी में 2.5 ग्राम क्लोरीनेटेड मिलाकर नीबू को उसमें अच्छी तरह से धो कर साफ करें। उसके बाद उन्हें छायादार जगह पर सुखायें। इससे फल की चमक बढ़ जाती है। इसके बाद बाजार में भेजें।