जाने काजू की खेती की सम्पूर्ण जानकारी
काजू भारत का एक लोकप्रिय नट है। काजू लगभग एक इंच मोटा होता ह। काजू एक प्रकार का पेड़ होता है ,जिसका उपयोग सूखे मेवे के रूप में किया जाता है। काजू दो परतो के साथ एक शेल के अंदर घिरा हुआ होता है ,और यह शेल चिकना और तैलीय होता है। काजू का उत्पादन भारत जैसे देश के कई राज्यों में किया जाता है। जैसे : पश्चिम बंगाल , तमिल नाडू , केरला , उड़ीसा, महाराष्ट्र और गोवा।
कब और कैसे करें काजू की खेती
काजू की खेती किसानों द्वारा अप्रैल और मई माह में की जाती है। किसानों द्वारा काजू की खेती के लिए सबसे पहले भूमि को तैयार किया जाता है। इसमें भूमि पर होने वाले अनावश्यक पौधे और झाड़ियों को उखाड़ दिया जाता है। इसके बाद खेत में 3 -4 बार जुताई की जाती है , जुताई की जाने के बाद खेत को पाटा लगाकर समतल बनाया जाता है। उसके बाद भूमि को अधिक उपजाऊ बनाने के बाद किसानों द्वारा गोबर खाद का भी प्रयोग किया जाता है। आवश्यकतानुसार , किसानों द्वारा खेत में गोबर की खाद डालकर , खेत की अच्छे से जुताई की जाती है।
कैसे करें बुवाई
किसानों द्वारा काजू के पौधे की बुवाई के लिए खेत में 15 -20 से मी की दूरी पर खेत में गढ्डे बनाये जाते है। गड्डो को कम से कम 15 -20 दिनों के लिए खाली छोड़ दिया जाता है। उसके बाद गड्डो में डीएपी और गोबर की खाद को ऊपरी मिट्टी में मिलाकर अच्छे से भर दिया जाता है। ध्यान रखे गड्डो के पास की भूमि ऐसी न हो जहाँ पानी भरने की समस्या उत्पन्न हो , उससे काजू के पौधे पर काफी प्रभाव पड सकता है।
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काजू के पौधो को वैसे वर्षा काल में लगाना ही बेहतर माना जाता है। बुवाई के बाद खेत में होने वाली खरपतवार को रोकने के लिए किसानों द्वारा समय समय नराई और गुड़ाई का काम किया जाता है।
काजू की उन्नत किस्में
काजू की विभिन्न किस्में इस प्रकार है , जिनका उत्पादन किसानों द्वारा किया जा सकता है। वेगुरला-4 , उल्लाल -2 , उल्लाल -4 , बी पी पी -1 , बी पी पी -2 , टी -40 यह सब काजू की प्रमुख किस्में है, जिनका उत्पादन कर किसान ज्यादा मुनाफा कमा सकता है। इन किस्मो का ज्यादातर उत्पादन मध्य प्रदेश , केरला , बंगाल , उड़ीसा और कर्नाटकजैसे राज्यों में किया जाता है।
काजू की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु और मृदा
काजू की खेती के लिए वैसे सभी प्रकार की मिट्टी में की जा सकती है। काजू का ज्यादातर उत्पादन वर्षा वाले क्षेत्रों में किया जाता है , इसीलिए काजू की खेती के लिए समुद्र तटीय ,लाल और लेटराइट मिट्टी को बेहतर माना गया है। काजू का मुख़्यत उत्पादन झारखंड राज्य में किया जाता है ,क्योकि यहां की मृदा और जलवायु को काजू की खेती के लिए उपयुक्त माना जाता है। काजू को उष्णकटिबंधीय फसल माना जाता है , इसीलिए ,इसके उत्पादन के लिए गर्म और उष्ण जलवायु के आवश्यकता होती है।
काजू की खेती में उपयुक्त खाद एवं उर्वरक
काजू की खेती के अधिक उत्पादन के लिए किसान गोबर खाद के साथ साथ यूरिया , पोटाश और फास्फेट का उपयोग कर सकते है। पहले वर्ष में किसानों द्वारा 70 ग्राम फॉस्फेट, 200 ग्राम यूरिया और 300 ग्राम यूरिया का प्रयोग किया जाता है। कुछ समय बाद , फसल के बढ़वार के साथ इसकी मात्रा दुगनी कर देनी चाहिए। किसानों द्वारा समय पर कीट और खरपतवार की समस्या को भी खेत में देखते रहना चाहिए।
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काजू के अच्छे उत्पादन के लिए किसानों को समय समय पर पेड़ों की काँट-छाँट करते रहना चाहिए। यह सब काजू के पेड़ को अच्छा ढाँचा देने के लिए आवश्यक है। किसानों द्वारा काजू के पेड़ों की जाँच करते रहना चाहिए , और समय समय पर पेड़ में सूखने वाली टहनियों या रोगग्रस्त टहनियों को निकाल दिया जाना चाहिए। काजू की फसल में लगने वाले बहुत से कीट ऐसे होते है , जो काजू के पेड़ में आने वाली नयी कोपलों और पत्तियों का रस चूसकर पौधे को झुलसा देती है।
काजू की फसल की तुड़ाई कब की जाती है
काजू की फसल लगभग फेब्रुअरी से अप्रैल माह तक तैयार होती है। काजू की पूरी फसल की तुड़ाई नहीं की जाती है , केवल गिरे हुए नट को ही इकट्ठा किया जाता है। नट को इकट्ठा करने के बाद , उन्हें धुप में अच्छे से सुखाया जाता है। धुप में अच्छे से सुखाने के बाद किसानो द्वारा उन्हें जूट के बोरों में भर दिया जाता है। इन बोरों को किसी ऊँचे स्थान पर रखा जाता है , ताकि फसल को नमी से दूर रखा जा सके।
काजू का वानस्पातिक नाम अनाकार्डियम ऑक्सिडेंटले एल है। काजू में पोषक तत्व के साथ बहुत से न्यूट्रिशनल गुण भी पाए जाते है। जो की स्वास्थ्य के लिए बेहद लाभकारी होते है। काजू का उपयोग दिमाग की कार्यक्षमता को बढ़ाने के लिए भी किया जाता है। जिन व्यक्तियों को हड्डियों , मधुमेह और हीमोग्लोबिन से जुडी समस्याएं है , उनमे भी काजू लाभकारी सिद्ध हुआ है।
काजू की अब तक 33 किस्मो की पहचान की गयी है , लेकिन सिर्फ 26 प्रकार की ही किस्मो को बाजार में बेचा जाता है। जिनमे से डब्ल्यू -180 की किस्म को "काजू का राजा "माना जाता है , क्योंकि इसमें बहुत से बायोएक्टिव कम्पाउंड पाए जाते है ,जो हमारे शरीर में होने वाले रक्त की कमी को पूरा करते है , कैंसर जैसी बीमारियों से लड़ने में सहायक रहते है , शरीर में होने वाले दर्द और सूजन में लाभकारी होता है।
केसर की खेती के लिए बलुई दोमट और दोमट मिट्टी सबसे उपयुक्त मानी गयी है। रेतीली जमीन में भी इसकी खेती अच्छे तरह से की जा सकती है। इसके लिए जलभराव वाली जमीन ही हानिकारक है।
केसर की खेती के लिए बिजाई का सबसे उत्तम समय अगस्त माह का होता है। कुछ किसान भाई सितम्बर में भी इसकी बुआई कर सकते हैं। अच्छी गुणवत्ता वाली केसर पाने के लिए किसान भाइयों को समय पर ही बिजाई करनी आवश्यक होती है। इस समय केसर लगाने से फायदा यह होता है कि जब नवम्बर में अधिक सर्दी पड़ती है तब तक पौधा इतना मजबूत हो जाता है कि उस पर सर्दी का असर नहीं पड़ता है बल्कि उस समय उसके फूल अधिक अच्छा आता है।
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केसर की खेती में बीजों की बुआई के लगभग चार महीने बाद ही केसर फूल देना शुरू कर देता है। इस फूल के अन्दर धागे नुमा पंखुड़ियां जब लाल या नारंगी हो जायें तब उन्हें तोड़ कर छायादार जगह में सूखने के लिए एकत्रित करें। जब सूख जाएं तब उन्हें किसी कांच के बर्तन में रख लें।
एक उत्तम स्ट्रॉबेरी (A Perfect Strawberry)[/caption]
आधा स्ट्रॉबेरी आंतरिक संरचना दिखा रहा है (Half cut strawberry view)[/caption]
खेती विशेषज्ञों के अनुसार स्ट्रॉबेरी की खेती को ज्यादा पानी की जरुरत भी नहीं होती है। यह भारतीय किसानों के लिए एक शुभ संकेत है क्योंकि भारत में आजकल हो रहे दोहन के कारण भूमिगत जल लगातार नीचे की ओर जा रहा है, जिसके कारण ट्यूबवेल सूख रहे हैं और सिंचाई के साधनों में लगातार कमी आ रही है। इसलिए भारतीय किसान अन्य खेती के साथ स्ट्रॉबेरी की खेती के लिए भी पानी का उचित प्रबंधन करने की कोशिश कर रहे हैं, ताकि सिंचाई के लिए उपयुक्त मात्रा में पानी की उलब्धता बनाई जा सके।
एक नर्सरी पॉट में स्ट्रॉबेरी (Strawberries in a nursery pot)[/caption]
उत्तर प्रदेश के बागवानी अधिकारियों ने बताया कि स्ट्रॉबेरी की खेती में एक एकड़ जमीन में लगभग 22,000 पौधे या एक एक हेक्टेयर जमीन में लगभग 54,000 पौधे लगाए जा सकते हैं। इस खेती में किसान भाई लगभग 200 क्विंटल प्रति एकड़ की उपज ले सकते हैं। स्ट्रॉबेरी की खेती में लाभ का प्रतिशत 30 से लेकर 50 तक हो सकता है। यह फसल के आने के समय, उत्पादन, डिमांड और बाजार भाव पर निर्भर करता है। भारत में स्ट्रॉबेरी की खेती सितम्बर और अक्टूबर में शुरू कर दी जाती है। शुरूआती तौर पर स्ट्रॉबेरी के पौधों को ऊंची मेढ़ों पर उगाया जाता है ताकि पौधों के पास पानी इकठ्ठा होने से पौधे सड़ न जाएं। पौधों को मिट्टी के संपर्क से रोकने के लिए प्लास्टिक की मल्च (पन्नी) का उपयोग किया जाता है। स्ट्रॉबेरी के पौधे जनवरी में फल देना प्रारम्भ कर देते हैं जो मार्च तक उत्पादन देते रहते हैं। पिछले कुछ सालों में भारत में स्ट्रॉबेरी की तेजी से डिमांड बढ़ी है। स्ट्रॉबेरी बढ़ती हुई डिमांड भारत में इसकी लोकप्रियता को दिखाता है।
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स्ट्रॉबेरी की सतह का क्लोजअप (Closeup of the surface of a strawberry)[/caption]
उत्तर प्रदेश के बागवानी विभाग ने बताया कि सरकार स्ट्रॉबेरी की खेती शुरू करने के लिए किसानों को प्रोत्साहित कर रही है। इसके अंतर्गत सरकार किसानों को स्ट्रॉबेरी के पौधे 15 से 20 रूपये प्रति पौधे की दर से मुहैया करवाने जा रही है। सरकार की कोशिश है कि किसान इस खेती की तरफ ज्यादा से ज्यादा आकर्षित हो ताकि किसान भी इस खेती के माध्यम से ज्यादा मुनाफा कमा सकें। सरकार के द्वारा सस्ते दामों पर उपलब्ध करवाए जा रहे पौधों को प्राप्त करने के लिए प्रयागराज के जिला बागवानी विभाग में पंजीयन करवाना जरूरी है। जिसके बाद सरकार किसानों को सस्ते दामों में पौधे उपलब्ध करवाएगी। पंजीकरण करवाने के लिए किसान को अपने साथ आधार कार्ड, जमीन के कागज, आय प्रमाण पत्र, निवास प्रमाण पत्र, बैंक की पासबुक, पासपोर्ट साइज फोटोग्राफ इत्यादि ले जाना अनिवार्य है।
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पके और कच्चे स्ट्रॉबेरी (Ripe and unripe strawberries)[/caption]
जानकारों ने बताया कि कुछ सालों पहले पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों में खास तौर पर सहारनपुर और पीलीभीत में स्ट्रॉबेरी की खेती शुरू की गई थी। वहां इस खेती के बेहतर परिणाम देखने को मिले हैं। सबसे पहले इन जिलों के किसानों की ये खेती करने में सरकार ने मदद की थी लेकिन अब जिले के किसान इस मामले में पूरी तरह से आत्मनिर्भर बन चुके हैं। इसको देखते हुए सरकार प्रयागराज में स्ट्रॉबेरी की खेती शुरू करने को लेकर बेहद उत्साहित है। सरकार के अधिकारियों का कहना है, चूंकि इस खेती में पानी की बेहद कम आवश्यकता होती है और पानी का प्रबंधन भी उचित तरीके से किया जा सकता है, इसलिए स्ट्रॉबेरी की खेती का प्रयोग सूखा प्रभावित बुंदेलखंड के साथ लगभग 2 दर्जन जिलों में किया जा रहा है और अब कई जिलों में तो प्रयोग के बाद अब खेती शुरू भी कर दी गई है।